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मागम और त्रिपिटक : एक मनुशीलन स्वर ( मूल हस्व ): अ, ऐ, ओ स्वर (मूल दीर्घ ) : आ, ए, औ स्वर (मिश्र हस्त) : अइ, अऋ, मल, बउ, अनु, अमृ
ऍइ, ऍऋ, ऍल, ऍउ, ऍन, ऍम
ओइ, ओऋ, बोल, ओउ, औनु, बोम स्वर (मिश्र दीर्घ) : आइ, आऋ, आल. आउ, आनु, आम
एइ, एऋ, एल. एउ, एन , एम.
ओइ, ओऋ, ओल, ओउ, ओनु, ओम अनुनासिक ध्वनियां व्यंजनों के रूप में म् और न् ; ये दो थीं। विद्वानों का अनुमान है कि तीन प्रकार के कवर्गों में प्रथम श्रेणी के कवर्ग - वर्गों के पूर्व न् का उच्चारण ञ् और बाकी के दो श्रेणियों के कवर्ग-वर्गों के पूर्व न् का उच्चारण सम्भवतः ङ, रहा होगा। शब्दों में विशेष स्थान पर आने की स्थिति में न और म् का स्वर रूप न और म हो जाता था।
अन्तःस्थ व्यंजन और अन्तःस्थ स्वर के रूप में अन्तःस्थ के जो दो प्रकार कहे गये हैं, उसका आशय यह है कि य, र, ल, व किसी शब्द में अपनी स्थिति के अनुकूल इ, उ, ऋ, ल के रूप में परिणत हो जाते थे, तब उनकी संज्ञा अन्तःस्थ स्वर हो जाती थी। वास्तव में बादिम भाषा में इ, उ, ऋ, ल. मूल रूप में स्वर नहीं थे, किन्तु, वे स्वर-स्थानिक अन्तःस्थ वर्ण थे।
हवनि के सम्बन्ध में भाषा - वैज्ञानिकों के कई मत हैं। कुछ का अभिमत है कि भारोपीय में यह ध्वनि नहीं थी। कुछ विद्वान् हिट्टाइट या हित्ती के आधार पर ऐसा कहते हैं कि इसका एक रूप था। वैसे ह, वर्ण सघोष है, पर, कुछ विद्वान् इसके सघोष और अघोष; दोनों रूपों की कल्पना करते हैं। वैदिक संस्कृत की ध्वनियां : विशेषताएं वैदिक संस्कृत की सम्पूर्ण ध्वनियां निम्नांकित हैं :
मूल स्वर : अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, ल, ए, औ संयुक्त स्वर : ऐ, ( अह), औ ( अउ ) कण्ठ य : क, ख, ग, घ, ङ. तालव्य : च, छ., ज, झ, ञ् मूद्धन्य : टू, , ड्, दू, ळ, ळह, ण दन्त्य
क. थू, इ, ५., न
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