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भाषा और साहित्य ] प्राचीन भारतीय आर्य भाषाए
[ १०३ अशाश्वत लोक, संसार या समाज से सम्बद्ध हैं, के साथ लौकिक विशेषण लगा। भाषा के साथ भी ऐसा ही हुआ। एक भाषा थी, जिसके द्वारा समग्र वैदिक विधि-विधान, कार्य-कलाप तथा कर्मकाण्ड चलते थे। छन्दस् या वैदिक भाषा के नाम से अनेक दृष्टियीं से इसका विवेचन-विश्लेषण किया जा चुका है। एक ऐसी भाषा की आवश्यकता अनुभूत हुई, जो रूप-बाहुल्य से मुक्त हो, प्रांजल तथा परिष्कृत हो, सुबोध्य हो, लोक में कार्यकर हो । लोक-प्रयोज्य भाषा तो तब थी ही। उसके शिष्ट, परिमार्जित और संस्कारमय रूप की आवश्यकता पो, जिसकी पूर्ति महान् धयाकरण पाणिनि ने की।
वैदिक संस्कृत के जिन तीन रूपों की ऊपर चर्चा की गयी है, ऐसा स्वाभाविक प्रतीत होता है कि इन तीनों रूपों के समकक्ष जन-साधारण द्वारा बोली जाने वाली भाषा के भी तीन रूप रहे होंगे। विद्वानों का अभिमत है कि लौकिक संस्कृत बोलचाल की भाषा के जिस रूप पर आधृत है, वह उन तीनों में प्रथम-उत्तर की बोलचाल की भाषा का रूप ही सम्भावित है। लौकिक संस्कृत, सम्भव है, आगे चलकर अन्य दो रूपों से भी प्रभाषित हुई हो। इस सन्दर्भ में महाभाष्यकार पतंजलि लिखते हैं : "शब्दों के प्रयोग का विषय अत्यन्त विशाल है। भिन्न-भिन्न शब्द भिन्न-भिन्न स्थानों में अपना-अपना निश्चित अर्थ लिये हुए दिखाई देते हैं। जैसे, गतिकमक शवति का प्रयोग कम्बोज-देश में ही हिन्दूकुश की घाटियों में ही प्रचलित है । आर्य लोग इसके विकार-इससे बने हुए कृदन्त रूप शव का प्रयोग करते हैं । गत्यर्थ में सौराष्ट्र में हम्मति, प्राच्य तथा मध्य देश में रंहति का प्रचलन है, परन्तु, आर्य गम् का ही प्रयोग करते हैं। प्राच्य देश में काटने के अर्थ में वाति का प्रयोग चलता है, परन्तु, उत्तर के लोगों में कृदन्त नाम-दात्र का प्रयोग ही प्रचलित है।"]
___ महाभाष्यकार ने कम्बोज, प्राच्य, मध्य, सौराष्ट्र और उदीच्य के नाम से भारत के भिन्नभिन्न भू-भागों अथवा वहां के निवासियों की ओर संकेत किया है तथा.आर्यों के नाम से अलग चर्चा की है। उनमें ( भिन्न-भिन्न स्थानों के लोगों में ) एक ही क्रिया या तदर्थ-सम्बद्ध प्रयोगों के विषय में जो अन्तर है, उसकी व्याख्या है। यहां जिज्ञासा होती है, आर्यों को इमसे भिन्न बताकर महाभाष्यकार क्या प्रकट करना चाहते हैं ? उक्त प्रदेशों के लोगों द्वारा किये गये शब्द-प्रयोग के भेद की वे चर्चा करते हैं। यहाँ भेद मात्र शन्द-प्रयोग का है, उन १. एतस्मिंश्चाति महति शब्दस्य प्रयोगविषये ते ते शब्दास्तत्र तत्र नियतविषया दृश्यन्ते ।
तद्यथा शवतिर्गतिकर्मा कम्बोजेष्वेव भाषितो भवति । विकारमेनमार्या भाषन्ते शव इति । हम्मतिः सुराष्ट्र षु, रंहतिः प्राच्यमध्येषु, गमिमेव त्वार्याः प्रयुजते । दातिर्लवनार्थे प्राच्येषु, दात्रमुदीच्येषु ।
महाभाष्य, प्रथम आहिक, पृ० ३३
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