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भाषा और साहित्य ]
विश्व भाषा-प्रवाह स्थूल और सूक्ष्म की भेद-रेखा
अनुकरण, मनोभावाभिव्यंजन, इगित या प्रतीक आदि सिद्धान्त जिनका पहले विवेचन किया गया है, स्थूल भाव-बोधक शब्दों की उत्पत्ति में किसी-न-किसी रूप में सहायक बनें, यह सर्वथा सम्भव प्रतीत होता है । सूक्ष्म भाषों के परिस्फुरण का समय सम्भवतः मानव के जीवन में तब आया होगा, जब वह मानसिक दृष्टि से विशेष विकसित हो गया होगा । वैसी दशा में परा, पश्यन्ती आदि के रूप में वाक्-निष्पत्ति के क्रम तथा जैन-दर्शन सम्मत वाक्योग के क्रियान्वयन की सरणि से सूक्ष्म-भाव-बोधक शब्दों की उत्पति के सन्दर्भ में कुछ प्रकाश प्राप्त किया जा सकता है ।
एक प्रश्न का उभरना स्वाभाविक है कि परा, पश्यन्ती आदि के उद्भव-क्रम के अन्तर्गत सृष्ट सूक्ष्म शब्दाकारों या मनःप्रवृत्ति द्वारा आकृष्ट विभिन्न पुद्गल-परमाणुओं से निःसायंमाण ध्वनि या शब्द प्रभावित होते हैं, तो फिर समस्त जगत् के लोगों द्वारा प्रयुज्यमान शब्दों में, भाषाओं में परस्पर अन्तर क्यों है ?
तथ्य यह है कि संसार भर के मानव एक ही स्थिति, प्रकृति, जल-वायु, उपकरण, सामाजिकता आदि के परिवेश में नहीं रहते। उनमें अत्यधिक भिन्नता है। उच्चारणअवयव तथा उच्चायंमाण ध्वनि-समवाय उसमें अप्रभावित कैसे रह सकता है ?
दूसरा विशेष तथ्य यह है कि उपर्युक्त वाक्-निष्पत्ति-क्रम का सम्बन्ध विशेषतः सूक्ष्मार्थबोधक शब्दों की उत्पत्ति के साथ सम्भाव्य है, जब कि स्थूल भाव-ज्ञापक शब्द संसार की भिन्न-भिन्न भाषाओं में बन चुके थे। जो-जो भाषाए अपना जिस प्रकार का स्थूल रूप लिये हुए थीं, सूक्ष्म भाव-बोधक शब्दों की संरचना का ढलाव भी उसी ओर हो, ऐसा सहज प्रतीत होता है। इस प्रकार के अनेक कारण रहे होंगे, जिनसे भिन्न-भिन्न भू-भागों की भाषाओं के स्वरूप भिन्न-भिन्न सांचों में ढलते गये । डपसंहात
दार्शनिक पृष्ठभूमि पर वैज्ञानिक शैली से किया गया उपर्युक्त विवेचन एक ऊहापोह है। वास्तव में भाषा के उद्भव और विस्तार की कहानी बहुत लम्बी एवं उलझन भरी है। भाषा को वर्तमान रूप तक पहुंचाने में विकासशील मानव को न जाने कितनी मंजिलें पार करनी पड़ी हैं । मानव-मानव का पारस्परिक सम्पर्क, जन्तु-जगत् का साहचर्य, प्रकृति में विहरण तथा अपने कृतित्व से उद्भाषित उपकरणों का साहाय्य प्रभृति अनेक उपादान मानव के साथ थे, जिन्होंने उसे प्रगति और विकास के पथ पर सतत गतिशील रहने में स्फूर्ति प्रदान की। उदीयमान एवं विकासमान भाषा भी उस प्रगति का एक अंग रही। उसी का परिणाम है कि विश्व में आज अफ समृद्ध भाषाए विद्यमान हैं, जो शताब्दियों और
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