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७४ । आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २ पहलवी का उद्गम
अवेस्तो जब जन-भाषा के रूप में प्रयुज्यमान न रही, तब उसका स्थान मध्यकालीन फारसो या पहलवी ने ले लिया। प्राचीन फारसी से मध्यकालोन फारसो या पहलवी का उद्गम हुआ। दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि पहलवी प्राचीन फारसी का विकासत रूप है।
अवेस्तो भाषा के अप्रचलित हो जाने से अवेस्ता कुछ दुर्बोध प्रतीत होने लगा; अतः उस पर पहलवी भाषा में एक टीका लिखी गयी । उसे ज़न्देन्द कहते हैं । जन्द का अर्थ ही टीका है। ज़न्द व अवेस्ता दोनों को मिला कर जन्दावेस्ता कहा जाता है। पहलवी में टीका कब लिखी गई, इसका ठीक समय तो नहीं बताया जा सकता, पर, इतना कहा जा सकता है कि ई० पू० तीसरी शती तक पहलवी का प्रमलन हो चुका था। ई० पू० तीसरी शती के कुछ सिक्के मिले हैं, जिन पर पहलवी * उल्लेख है । यह पहलवी का प्राचीनतम रूप कहा जा सकता है।
प्राचीन फारसी और मध्यकालीन फारसी या पहलवी के बीच का अर्थात् प्राचीन फारसी के पहलवी के रूप में परिणत होने के पूर्व का, दोनों के मध्यवर्ती रूप का कोई लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं होता । पहलवी में तीसरी शती से साहित्य-रचना का क्रम दृष्टिगोचर होता है। उससे पूर्व का साहित्य नहीं मिलता।
पहलवी के दो रूप : हुआ.वारेश, पाजंद
पहलवी के दो रूप प्राप्त हैं । एक वह है, जिसमें अरबी ( सेमेटिक परिवार ) के शब्दों का आधिक्य है, जिसका हेतु इस्लाम का प्रभाव है । इसकी लिपी भी अरबी है । इसे हु.वारेश कहा जाता है। दूसरा वह है, जो सेमेटिक परिवार के प्रभाव से मुक्त है। इसे पाजंद या पारसी कहा जाता है। भारत में जो पारसी बसते हैं, उनकी यही मातृ-भाषा है । पारसी अधिकांशत: बम्बई में हैं। गुजराती-भाषियों से उनका अधिक सम्पर्क रहा है; अतः गुजराती पर पाजद का कुछ प्रभाव लक्षित होता है ।
आधुनिक फारसी : परिष्कार या विकार
फारसी का तीसरा रूप आधुनिक फारसी है, जो ईरान में बोली जाती है। महाकवि फिरदौसो (ई० स० ९४०-१०२०) का शाहनामा नामक महाकाव्य इसी भाषा में है। इसमें तो अरबी शब्द कम ही प्रयुक्त हुए हैं, पर, इसके पश्चात् आधुनिक फारसी में अरबी शब्दों के आने का तांता बंधा रहा। अभी पिछले कुछ समय से ईरान के साहित्यिक क्षेत्र में राष्ट्रीयता
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