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भाषा और साहित्य ]
विश्व भाषा-प्रवाह आई, उससे जहां आने वालों को अपने विचार व्यक्त करने में सुविधा हुई, वहां मूल निवासियों को भी आगत जनों के साथ अपना व्यवहार बढ़ाने में वह भाषा सहायक सिद्ध हुई ।
कोई भाषा जब परिनिष्ठित रूप ले लेती है, तो उसमें साहित्य का सर्जन होने लगता है। ऐसा अनुमान है कि ईरानी में भी काफी साहित्य लिखा गया था। पर, आज वह संसार को उपलब्ध नहीं है। ई० पू० ३२३ में यवन-सम्राट, सिकन्दर ने ईरान पर आक्रमण किया। विध्वंस और लूटपाट के साथ - साथ उसने ईरान के ग्रन्थालय भी जला डाले। ई० ६५१ में ईरान पर अरब का आक्रमण हुआ। आक्रामकों ने जहां उस देश को नष्ट-भ्रष्ट किया, वहां के ग्रन्थालयों को भी अछूता नहीं छोड़ा। उन्हें अग्निदेव को भेंट कर दिया। ___दो बार में इस प्रकार वह साहित्यिक निधि, जो मनीषियों की प्रज्ञा और श्रम से सर्जित थी, मानव के उन्माद का शिकार होकर शून्य में विलीन हो गयी। सखेद प्रश्न होता है कि ये आक्रान्ता आक्रान्त देश के ग्रन्थागारों को क्यों जला डालते हैं ? इससे न केवल आक्रान्त देश की ही हानि होती है, अपितु विश्व की बहुत बड़ी साहित्यिक व सांस्कृतिक उपलब्धियां सहसा विध्वस्त हो जाती हैं। पर, क्या किया जाए, जब मानव का मन उन्माद-ग्रस्त हो जाता है, तब वह जो न कर, थोड़ा है। जो कुछ बच पाया, वह था पारसियों का धर्म-ग्रन्थ अवेस्ता और ई० पू० ६०० के हरुमानी बादशाहों के शिलालेख।
अवेस्ता का समय ई० पू० ७ वीं शती माना जाता है। यही ईरान का प्राचीनतम उपलब्ध साहित्य है। अवेस्ता को भाषा ऋग्वेद की भाषा से मिलतीजुलती है। अवेस्ता में ऋग्वेद की तरह प्रार्थनाएँ हैं। जिस भाषा में अवेस्ता की रचना हुई है, उसे अवेस्तो कहा जाता है। वह ( अवेस्ती ) कुछ समय तक वैक्ट्रिया को राजभाषा भी रही थी; अतः उसे प्राचीन पैक्ट्रियन भी कहा जाता है । अवेस्ती, प्राचीन फारसी
ईरानी की दो शाखाए मानी जाती हैं-अवेस्तो और प्राचीन फारसी। दोनों के प्रवृत्त होने में समय का बहुत अधिक अन्तर नहीं है। सम्भवतः प्राचीन फारसी अवेस्ती के कुछ बाद की हो। ईरान का पश्चिमी भाग फारस कहा जाता था। पुरानी फारसी का वहीं प्रचलन था। फारस में प्रचलित होने के कारण इसका नाम फारसी पड़ा हो, ऐसो सम्भावना है। पुरानी फारसी में कोई साहित्य उपलब्ध नहीं है। कुछ कीलाक्षरीय अभिलेख प्राप्त हैं, जो एकमेनियन शासकों द्वारा ई० पू० पांचवीं-छठी शती में उत्कीर्ण करवाये गये थे।
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