Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Sudharmaswami, Lakshmivallabh Gani
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 0940 Far Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir DESEEDO ॥ श्रीअर्हते नमः॥ ॥ श्रीमदत्तराध्ययनसूत्रम् ॥ ३.५ मूलगाथा, मूलार्थ, श्रीलक्ष्मीवल्लभगणि प्रणीत अर्थदीपिका टीका तथा तेना गुजरातीभाषानुवाद सहित, भाग द्वितीय -: छपात्री प्रसिद्ध करनार : पण्डित श्रावक होरालाल हंसराज-जामनगर. (RA संवत् १९९१ मूल्य रु. ५) सने १९३५ OE0000000000000000SED DOGOOG0 For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री जैनभास्करोदय मिटिंग प्रेसमां मेनेजर बालचंद हीरालाले छाप्यु. जामनगर. तैयार छे? पत्राकारे तैयार छे?? ___ मूल अने शीलांकाचार्यनी टोकाना भाषांतर सहित ॥ आचारांगसूत्रम् ॥ भाग १ थी ५ किंमत रू. १०-०-. पोस्ट जुहुँ लखोः-पंडित हिरालाल हंसराज-जामनगर. For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ श्रीजिनाय नमः॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥ अथ श्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रम् ॥ 卐 भाग बीजो卐 भाषांतर अध्ययन ॥२८॥ ॥२८९|| (मुलगाथा अने तेनुं भाषांतर-टोका अने टीकार्नु भाषांतर) भाषांतर सहित छपावी प्रसिद्ध करनार-पण्डित श्रावक हीरालाल हंसराज-(जामनगरवाला) - -- JE अथ तृतीयाध्ययने चतुरंगी दुर्लभोक्ता, चतुर्थाध्ययने तां प्राप्य प्रमादस्त्याज्य इत्युच्यते, इति तृतीयचतुर्थाध्ययनयोः संबंध: ॥ अथ चतुर्थ अध्ययन आरंभाय छे ॥ तृतीय अध्ययनमा चतुरंगीनी दुर्लभता कही हवे चतुर्थाध्ययनमां, ए चतुरंगी पामीने प्रमाद तजवो एम कहेवाशे, ए रीते श्रीजा तथा चोथा अध्ययननो संबंध (संगति) सूचनी उपक्रम करे छे. For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥२९०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असंख्यं जित्रियं मा पर्मायए । जरोर्वणीयस्स हुं न ताणं ॥ एवं त्रियाणीहि जणे समत्ते । कैन्नु विहिंसा अंजिया गर्हिति ॥ १ ॥ मूलार्थ:- हे शिष्य ! (जिवीअ)- आ जीवित (असंखयं) =असंस्कृत छे, तेथी (मा पमायण) = तु प्रमाद न कर (हु) =कारण के (जरोवणीयस्स) = जरावस्थाये पहोंचेला पुरुषने (ताणं नत्थि ) - कोइ पण शरण नथी, तथा (एभं ) = मा (विआणाहि) = तुं विशेषे करीने जाण, के (पत्ते) = प्रमादी, (विहिंसा) =हिंसकस्वभाववाळा अने (अजया) = अजितेंद्रिय एवा (जणे) मनुष्य (क तु) = कोतुं शरण (गिति ) - ग्रहणकरशे ? व्याख्या - हे भव्या जीवितमायुरसंस्कृतं वर्तते, यत्त्रशतैरप्यसतो वर्धयितुं त्रुटितस्य वा कार्मुकवत्संघानं कर्तुमशक्यत्वात् जीवितं हि केनापि प्रकारेण संघातुं न शक्यत इत्यर्थः ततो मा प्रमादीन प्रमादं कुर्याः, हु इति निश्चयेन जरयोपनीतो जरोपनीतः, तस्य वृद्धत्वेन मरणसमीपं प्रापितस्य पुरुषस्य त्राणं शरण नास्ति, हे भव्य ! पुनरेवं विशेषेण जानीहि ? एवमिति किं ? विहिंस्रा विहिंसनशीला अतिशयेन पापाः, कं शरण ग्रहीष्यंति? नु इति वितर्के, कीदृशा विहिंस्राः ? अजिता अजितेंद्रियाः, पुनः कीदृशाः ? प्रमत्ताः प्रमादिनः, इंद्रियवशवर्तिनां प्रमादिनां पापानां जरामरणाद्युपद्रवे कश्चिच्छरण्यो नास्ति, 'जणे पमत्ते ' इति प्रथमा बहुवचनस्थाने प्राकृतत्वात्समप्येकवचनं ॥ १ ॥ अर्थः- हे भव्य जनो ! जीवित = आयुष्य = असंस्कृत छे. सेंकडो यत्नवडे पण वधतुं नथी - तेम त्रुटयुं सांधी शकातुं नथी. अर्थात जीवित कोइपण प्रकारे सांध्य संधातुं नथी माटे प्रमाद मा करो. हु-निश्वयें जरायें मरण समीपें घसेडाता पुरुषने त्राण नथी— कोइपण शरण आपनार नथी; एम तमे विशेषरीते जाणो के — विहिंस्र = विशेषतया हिंसक स्वभाववाळा अतिशय पापी For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन४ ॥२९०॥ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् भाषांतर अध्ययन ॥२९॥ ॥२९॥ केनुं शरण लइ शकवाना ? एवा अजित इंद्रियजयरहित तथा प्रमत्त महाप्रमादी, अर्थात् इंद्रियोने पराधीन तथा प्रमादी एवा | पापीओने जरामरणादिक उपद्रव टाणे कोइ शरण देनार जडतोज नथी. 'जणे' 'पमत्ते ' ए वे शब्दोमां प्रथम बहुवचनना | स्थानमा प्राकृत होवाथी सप्तमीनु एक वचन छे. जे' पावकम्महि धणं मणूसा । समाययंती अमई गाय ॥ पहाय ते पापयढिए नरे। वेराणबद्धा नरयं उर्विति ॥२॥ मूलार्थ:-(जे)-जे (मणूसा)=मनुष्यो (अमई) कुमतिने (गहाय)-ग्रहण करीने (पावकम्मे हि)-पापकर्मवडे (धणं) धनने (समाययंती) उपार्जन करे छे, (ते) ते (नरे) मनुष्यो (पासपपढ़िए) स्त्रीपुत्रादिकना पाशमां पडेला (पहाय) द्रव्यादिकनो त्याग करी (वैरानुबद्धा) वैरना हेतुरूप थइ (नरयं) नरकमा (उर्वति)-जाय छे. व्याख्या-जे इति ये मनुष्याः पापकर्मभिर्धनमर्जयंति, धनमुत्पादयंति, ते मनुष्या वैरानुबद्धाः, पूर्वोपार्जितद्वेषवंधनबद्धा नरकं व्रजंति, किं कृत्वा धननुपायंति? अमति गृहीत्वा, न मतिरमतिस्ताममतिं कुमतिमंगीकृत्य, अथवाऽमृतमानंदहेतुं गृहीत्वैहिकसुखहेतुकं धनं विचार्य, किं कृत्वा नरकं व्रजति ? पापकर्मरूपार्जितं धनं प्रहाय त्यक्त्वा, कीदृशास्ते मनुष्याः? पाशप्रवर्तिताः, पाशेषु पुत्रकलनधनप्रमुखबंधनेषु प्रवर्तिता, प्राशप्रवर्तिताः, धनं हि नरके व्रजतो जीवस्य सार्थे नायाति, एकाक्येव महारंभपरिग्रहवशाय नरकं यातीत्यर्थः, 'जरोवणीयस्स हु नथि ताणं' अर्थः-जे मनुष्यो पापकर्मवडे धन उपार्जन करे छे ते वैरानुबद्ध-पूर्वोपार्जित द्वेषबंधनथी बद्ध थयेला नरके जाय छे. केमके For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie भाषांतर अध्ययन ॥२९॥ एवीरीते धन मेळवीनेतेओ अमति कूमति गृहण करीने, अर्थात् आ लोकमां मुखनु हेतु धन विचारीने पापकर्मथी मेळवेलुं ते धन, उत्तराध्ययन सूत्रम् अंते त्याग करी, पाश-पुत्र स्त्री धन आदिक बंधन-मां प्रवर्तित जकडायला; नरके जाय छे. नरके जनार पुरुषनी साये धन कंड जतुं मथी किंतु महारंभपरिग्रहने वशवर्ति एकाकीज नरके जायछे. आ गाथामां 'जरोवणीयस्स हु णत्यि ताण' जराए मरण ॥२९२॥ | समीपें दोरी लइ जवाता मनुष्यने कोइ त्राण रक्षण आपी शकतुं नथी ' आम कछु. अत्र कथा-उज्जयिन्यां जितशत्रुनृपस्याणमल्लो वर्तते, स च प्रतिवर्ष सोपारके गत्वा सिंहगिरिराज्ञः सभायां मल्लान् विजित्य जयपताका लाति, अन्यदा राजवं चिंतितं परदेश्योऽयणमल्ला मत्सभायां जित्वा बहु द्रव्यं प्रामोति मदीयः कोऽपि मल्लो न जीयते, नैतदरं. एवं हि ममैव महत्वक्षतिर्जायते, इति मत्वा कंचित्यलवंतं मत्सिनरं दृष्ट्वा स्वमल्लंचकार, तस्य त्वरितमेव मल्लविद्याः समायाताः, मत्सीमल्लः इति नाम कृतं. तेनी कथा-उज्जयिनी नगरीमा जितशत्रुराजा आगळ अट्टणमल्ल रहेतो. ते दरवर्षे सोपारक नगरमा जतो त्यां सिंहगिरि राजानी सभामां मल्लोने जीती जयपताका लावतो एक बखते राजाए एम विचार्यु के-आ परदेशी अट्टणमल्ल मारी सभामां मल्लोने जीती घणुज द्रव्य पामे छे. मारो कोइ पण मल्ल जीततो नथी. एतो सारु नहि. आमतो माराज महत्वनी क्षति थाय छे. आम मनमा मानीने कोइ बलवान् मत्सीनरने जोइ तेने मल्ल बनाव्यो. थोडाज समयमा ते मल्लविद्यामा प्रवीण थइ गयो, तेनं 'मत्सीमल्ल' Jएवं नाम प्रसिद्ध थयु. For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥२९३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्यदाहणमल्लः सोपारके समायातस्तेन समं राज्ञा मत्सीमल्लस्य युद्धं कारितं, जितो मत्सीमलः, अट्टणः पराजितः, स्वनगरे गत एवं चिंतयति मत्सीमल्लस्य तारुण्येन बलवृद्धिर्मम तु वार्धक्येन बलहानिः, ततोऽन्यं स्वपक्षपातिनं मल्लं करोमि ततोऽसौ बलवंतं पुरुषं विलोकयन् भृगुकच्छदेशे समागतः तत्र हरिणीग्रामे एकः कर्षक एकेन करेण हलं वाहयन् द्वितीयेन फलहीयमुत्पादयन् दृष्टः, स भोजनाय स्वस्थानके सार्धं नीतः, तस्य बहु भोजनं दृष्टं, उत्सर्गसमये च सुदृढमल्पं पुरीषं दृष्ट्वा मल्लविद्या ग्राहिता, फलहीमल्ल इति नाम कृतं. ज्यारे पेलो अट्टणमल्ल सोपारकमां आव्यो तेनी साथे आ मत्सीमल्लनी राजाए कुस्ती करावी तेमां मत्सीमल्ल जीत्यो अने अट्टणमल्ल हार्यो, अट्टणे पोताने देश जइ विचार्य के मत्सीमल्लनी जुवानीने लीधे बलवृद्धि छे. मारी तो वृद्धपणाने लइ बलहानि थती जाय छे तेथी मारापक्षनो कोइ बीजो मल्ल तैयार करूं तो ठीक. आवो निश्चय करी कोइ बलवान् पुरुषनी शोध करतो भृगुकच्छ देशमां आव्यो त्यां हरिणोगाममां एक कर्षक= खेड एक हाथे हळ हलावतो अने बीजे हाथे फलद्दीय उखेडतो दीठो. तेने भोजन माटे पोताने स्थाने लड़ जड़ जोयुं तो तेणे भोजन पण घणुं कर्यु. शौच समये पुरीषम-कण तथा अल्प जोर धार्यु के आ जण सारो मल्ल बने तेवो छे. तेने लइ जड़ मल्लविद्या शीखवी तैयार कर्यो. फलहीमल्ल एवं नाम राख्यु. अट्टणः सोपारके फलहीमल्लं गृहीत्वा गतः, राज्ञा मत्सीमल्लेन समं फलहीमल्लस्य युद्धं कारितं, प्रथमे दिवसे द्वयोः समतैव जाता, अट्टणेन स्वोत्तारके फलहीमल्लः पृष्टो हे पुत्र ! तवांगे कब प्रहारा लग्नास्तेन स्वांग महारस्थानानि दर्शितानि, अहणेनौषधीरसेन तानि स्थानानि तथा नर्दितानी, यथासौ पुनर्नवीभूतः मत्सीमल्लस्यापि राज्ञा पृष्टं क्व तवांगे For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन४ ॥२९३॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन४ ॥२९४॥ १८ प्रहारा लग्नास्तत्स्थानं दर्शय ? फलहीमल्लः पुनर्नवीभूतः श्रूयते, मत्सीमल्लाऽभिमानान्न स्वस्थानं दर्शयति; वक्ति चाहं उत्तराध्य-DEL EET पुननेवीभृतः फलहीपितरं जयामि. यन सूत्रम् । पठी तेने साथे लइ सोपारक नगरमा गयो त्यां राजानी सभामां मत्सीमल्ल साथे फलहीमल्लनी कुस्ती करावी. पहेले दिवसे ॥२९४|| 3 तो बेय सरखा उत. अट्टणमल्ढ़ें पोताने उतारे जा फलहीमलने प्रच्य के-हे पुत्र तने कये कये अंगे महार लागेल छे? तेणे पोतानां जे जे अंगो उपर प्रहार थयेला ते वां गो दीव्यां. अटगे ते ते ठेकाणे मर्दन करी तेने फरी जाणे नवो थयो होय Je तेवो बनाव्यो. अहीं मत्सीमल्लने राजाए पण पूछ्यु. तथापि तेणे अभिमानमा पहारस्थान न देखाड्यां अने बोल्यो के मने कंइज | नथी; हुँनवोज छु. फलहीतो ? तेना बापने पण जीतीश. द्वितीयदिवसे पुनयुद्धावसरे व्योरपि साम्यमेव जातं; तृतीयदिवसे मत्सीमल्लो जितः; फलहीमलेनाणेन च स्वपराभवः स्मारितः; ततो मत्सीमल्लेनान्याययुद्धेन फलहीमल्लस्य मस्तकं छिन्नं. खिन्नोहणमल्लो गत उज्जयिनीं; तत्र विमुक्तयुद्धव्यापारः स्वगृहे तिष्ठतिः परं जराकांत इति न कस्मैचित्कार्याय क्षम इति स्वजनेः पराभयते. अन्यदा। | स्वजनापमानं दृष्ट्वा तदनापृच्छयैव कौशांबी नगरी गतः. बीजे दिवसे फरी कुस्ती थइ तेमां पण चेय समान उता. त्रीजे दिवसे कुस्तीमा फलहीमल्ले यत्सीमल्लने पाड्यो; त्यारे अट्टणमो पोताना पराभवनी यादी आपी तेथी एकदम क्रोधावेशमां मत्सीमल्लें अन्याय युद्धथी फलहीमल्लनु माथु छुदी नाख्घु. आ उपरथी खिन्न थइ अट्टणमल्ल उज्जयिनी पति चाल्यो गयो. त्यां जइने मल्लनो धंधो (कुस्ती लडवानु) छोडी दइ घरमां बेसी For Private and Personal use only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥२९५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रहेतो. पण घडपण लागीगयेल तेथी कांइ काम न करी शके एटले स्वजन तेनो अनादर करे. एम स्वजनना अपमानथी कंटाळी | एकवखते कोइने पूछया गाळ्या वगरज कौशांबी नगरी जड़ पहोंच्यो. तत्र वर्षमेकं यावद्रसायनं भक्षितवान् ; ततः सोऽत्यंत बलवान् जातः उज्जयिन्यां राजपर्षदि मल्लमहे प्रवर्तमाने पुनर्नवागतयौवनेनादृणमल्लेन समागल राज्ञो नीरंगणनाम महामलो जित:; राज्ञा तु मदीयोऽयं मल्ल आगंतुकेनानेन | मल्लेन जित इति कृत्वा न प्रशंसितः; लोकोऽपि राजप्रशंसामंतरेण मौन भाग्जातः; अट्टणस्तु स्वस्वरूपज्ञापनार्थ सभापक्षिणः प्रत्याह भो भो पक्षिणो बंतु ? अट्टणेन नीरंगणो जित:. त्यां एक वर्षसुधी रही एवं कंड रसायन सेवन कर्फ्यू जेथी पाछो अत्यंत बलवान् थयो. फरी उज्जयिनीमां आवी राजसभामां मल्लकुस्तीनो ज्यारे प्रसंग आव्यो त्यारे जाणे फरीने नव यौवन पाम्यो डोव एवा ए अट्टणमल्ले आवीने राजाना नीरांगण नामना | महामल्लने कुस्तीमां जीत्यो. राजाए ' आ मारा मल्लने आणे आगंतुक [ विदेशी ] मल्ले मार्यो ' एम जाणीने तेने न वखाण्यो तेम जोवा मळेला लोकोए पण राजाए प्रशंसा न करी तेथी बधा मौन सेवी रथा. अट्टणम पोतानुं स्वरूप जणाववा माटे सभामांना पक्षिओने कहां के हे पक्षियो बोलो के अट्टणे निरंगणने जीत्यो. ततो राज्ञोपलक्षितो मदीय एवायमहणमल इति कृत्वा सत्कृतः यद्रव्यं चास्मै राज्ञा दत्तं स्वजनस्तं तथाभूतं श्रुत्वा तत्सन्मुखमागत्य मिलितः, सत्कारादि च चकार, अट्टणेन चिंतितं द्रव्यलोभादेते मम सांप्रते सत्कारं कुर्वति, For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन ४ ॥२९५ ॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् भाषांतर अध्ययन४ ॥२९६॥ ||२९६॥ छ पश्चान्निद्रव्यं मामपमानयिव्यंति, जरापरिगतस्य मे न कश्चित् त्राणाय भविष्यति, यावदहं सावधानवलोऽस्मि ताव त्प्रवजामीति विचार्य गुरोः समीपेऽहणेन दीक्षा गृहीता इति 'जरोवणीयस्स हु नस्थि ताणं' अवाहणमालकथा समाप्ता. आटलु सांभळतां राजाए ओळख्यो जे 'आतो मारोज अट्टणमल्ल छे' थी राजाए तेनो सत्कार कर्यो; घणु द्रव्य राजाए ET तेने आप्यु. आ बखते तेना स्वजन हता ते पण तेने आम सत्कार पामेलो जोइ तेने सामा आवीने मळ्या अने मान सत्कारादिक पण करवा लाग्या. अट्टणे विचार्यु के आ बधा आ टाणे मात्र द्रव्य लोभथी मारो सत्कार करे छे, पाछलथी ज्यारे हुँ निद्रव्य | थाउं त्यारे प्रथमनी पेठे माहें अपमान करशे, जराथी घेरायेलानुं मारु कोइ रक्षण नहि करे. ज्यां सुधी हुं सावधान बळवाळो छु त्यांज प्रव्रज्या लइ लउं; एम विचारी गुरुसमीपे जइ अट्टणे दीक्षा लोधी. 'घडपण जेने मोत नजीक घसेडी जतुं होय तेने कोइ रक्षण करी शकतुं नथी' आ विषयमां आ अट्टणमल्लनी कथा समाप्त करी. तेणे' जहा संधिमुंहे गहीएँ । सकम्मुंणा किच्चइ पावकारी ॥ एवं पयो पेच्च इहं च लोएँ । कडाण कम्मणि ने मुक्खु अत्थि ॥३॥ मूलार्थ:-(जहा) जेम (पावकारी) पापकरनार (तेणे) चोर (संधिमुहें)-खातरना द्वार-छिद्रमा (गहीए) ग्रहणकरायो थको (सकम्मुणा) पोतानाज कर्मवडे (किच्चा) छेदाय छे (एव) रीते (पया)-मनुष्य (पेच्च)-परलोकमां (च) अने (इहलोए)-आ लोकमां दुःखपामे छे, (कडाण करेलां (कम्माण) कर्मोने (मुक्खु-भोगव्या शिवाय (न अत्थि)-क्षय थतो नथी. ३ . For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्या-पथा स्तेनश्चौरः संधिमुखे खानद्वारे गृहीतः स्वकर्मणा, स्वकीयकृतखात्रचातुर्येण कृत्वा कृत्यते शरीरे उत्तराध्य- छिद्यते, काष्टफलके कपिशीर्षाकार उत्कीर्णखात्रसंकीर्णबारेण शरीरे विदार्यत इत्यर्थः. कीदशश्चौरः ? पापकारी. भाषांतर पन सत्रम् JEअध्ययन४ ___ अर्थ:-जेम कोइ स्तेन चोर संघिमुखे-खातरना द्वारमा गृहीत-संकडाएलो, ते पापकारी चोर स्वकर्म-पोते करेला कर्म ॥२९७॥ खातर पाडवा माटे लाकडाना हाथा उपर जडेला कपीशीर्षबानरमथा [गिरमिट जेवा हथीयारथी खोतरीने करेला सांकडा- ॥२९७॥ द्वारमाथी जतां नीकळतां शरीरे छोलाय छे.___ अत्र दृष्टांत:-क्वचिन्नगरे कस्यचिद्व्यवहारिणः फलकरचिते गृहे केनचिचोरेण प्राकारकपिशीर्षाकृतिक्षात्रं | दत्तं, तत्र प्रविशन्नंतःस्थजागरूकगृहपतिना बहिःस्थचौरेण चाकृष्यमाणो विलपन्नेव मृतः. एवममुना दृष्टांतेन प्रजा लोकः प्रेत्य परलोके, च पुनरिहैवलोके कृत्यते पीड्यत इत्यर्थः. इह लोके च धनार्जनार्थ क्षुत्तृषाशीतातपसहनपर्वतारोहणजलधितरणनृपसेवनसंग्रामप्रहारसहनादिक्लेशेन, परभवे च विविधनरकक्षेत्रवेदनापरमाधार्मिकविनिर्मितव्यथया कृत्यत इत्यर्थः. कथं हि परलोके पीड्यते तत्र हेतुमाह-कृतानामुपार्जितानां कर्मणां मोक्षो नास्ति. अहीं दृष्टांत कहे छे-कोइ एक नगरमा काष्ठनां पाटीयांची बनावेला कोइ शेठना घरमा कोइ चोरे भीतमां कपिशिर्षाकार JE JE खातर दीg=फाई पाडयु, पेसवा तेमां जतां अंदर जागता घरधणीए पकड्यो अने बहारथी आवी पहोंचेला ए चोरना साथीए पग पकडी खेंचवा मांज्यो तेथी बूमो पाडतोज मरी गयो. एम आ दृष्टांतथी-प्रजा लोको मुवा पछी परलोकमां तथा आ लोकमां For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्तित थाय छे-अर्थात् पीडाय छे. आ लोकमां धन मेळवामा क्षुधा तथा तृषा टाढ तडका वायु वर्ग वगेरे सहन करे, वली २८ उत्तराध्य भाषांतर Deपर्वतो उपर चडवां, समुद्रपार जवां, राजाओनी सेवा करवी, संग्रामना प्रहार सहन करवा; इत्यादि क्लेश वेठी धनोपार्जन थाय. | यन सूत्रम् अध्ययन परभवमां पण विविध नरक क्षेत्रनी वेदनाओ; परम अधार्मिक-निर्दय यातनावद पुरुयोर कराती अनेक पीडाओ सहन करवी इत्यादि. ॥२९८॥ परभवमां प्राणीने केम पीडाय छे ? तेनो हेतु दर्शावे छे-कृतमोते उपार्जित करेलां कर्मोनो मोक्ष भोगव्या विना क्षय यतो नथा. ॥२९८॥ अत्र पुनश्चौरकथा-कापि ग्रामे कोऽपि चौरो दुरारोहे मंदिरे क्षात्रं दत्वा द्रव्यं लात्वा स्वगृहं गतः, प्रत्यूषे कः किंबदतीति वार्ताश्रवणाय क्षात्रासन्नलोकमध्ये गतः, लोकास्तु तत्रत्यं वदंति कथमत्र लघीयसि क्षात्रे चौरः प्रविष्टो निर्गतो वेति लोकवाक्यं श्रुत्वा स्वकटीं विलोकयन् भूपनरधृतो व्यापादितश्च. ॥ ३ ॥ आ विषयमां एक बीजी चोरनी कथा कहे -कोइ गाममां कोई एक चोर एक-क्यायवी उपर न चडी शकाय तेवा घरमां खातर दइ द्रव्य लइने पोताने घरे गयो. सबारमां-ते चोर कोण कोण शुं शुं बोले छे ? ते जाणवा ए खातर ठेकाणे जइने उभो. त्यां जोवा मळेळा लोको खातरजें फांडं जोइने एक बीजा वात करता हता के-आ नाना खातर-घांकोरामांथी चोर केम पेठो हशे अने नीकळयो केम दृशे? एनी केड छोलाणी नहिं होय? आ सांभळी पेलो चोर पोतानी केड तरफ नजर करवा जाय छे तेवो राजाना माणसोए पकडीने मार्यो. ॥ ३ ॥ एवीरीते ए चोर पोतानाज कर्मथी पीडा पाम्यो. संसारमावन्न परस्स अट्ठा । साहारणं जं च करेई कम्मं ॥ कम्मैस्स ते तस्स उवेयकाले। न बंधवा बंधवेयं उविति For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir JAN भाषांतर JE अध्ययन ॥२९॥ EG मूलार्थ:-(संसार)-संसारने (आवरण)-पामेलो जीव (परस्स)-परने (अठ्ठा) अर्थ (च)-अथवा ( साहारणं) स्वपरने अथे (ज)-जे उत्तराध्य (कम्म)-कृषि आदिकर्मने (करेइ) करे छे. (तस्स उ-ते पण (कम्मस्स) कर्मना (वेअकाले उदयकाळे (ते) ते (बधवा)-बधुओ पन सूत्रम् (बधवय)बधुपणाने (न उविति =पामता नथी. व्याख्या-संसारं समापन्नः संसारी जीवः परस्यार्थ परार्थ परनिमित्तं पुत्रमित्रकलत्रस्वांधवाद्यर्थ यत्सा॥२९९॥ धारणमुभयार्थमात्मपरनिमित्तं यत्कर्म करोति, ते मित्रपुत्रकलत्रादयः स्वबांधवास्तस्य पापकर्मफलवेदकाले विपाककाले बांधवतां बंधुभावं नोपयांति ॥ ४ ॥ अर्थः-संसारमा आपन्न आवेलो प्राणी जीव परने अर्थे अर्थात् पुत्र; मित्र, खी, वांधव इत्यादि वर्ग निमिने अथवा साधारणतया पोताने तथा परने माटे एम उभयार्थे जे कंड कर्म करे छे ते भित्र पुत्र कलवादिकमांना कोई पण ए पापकर्मनां फळ अनुभववा टाणे विपाककाळे बांधवना=बंधुभाव करतां नथी-मददे आवी शकतां नथी. अत्राभीरीवंचककथा यथा-स्वापि ग्रामे कोऽपि वणिग्हढे क्रयविक्रयं करोति, अन्यदैकाभीरी तहे आगता, तया भणितं भो रूपकद्वयस्य मे रुतं देहि ? तेनोक्तमर्पयामि, अर्पितं तया रूपकद्रयं, तेन वगिजैकस्यैव रूपकस्य रुतं वारद्वयं तोलवित्वापित, सा जानाति मम रूपकद्रयस्य रुतं दत्तं, वचिना च सा तस्यां गतायां स चितयत्येष रूपको मया मुधा लब्धः, ततोऽहमेवमुपभुंजामि, तस्य रूपकस्य घृतखंडादिलात्वा स्वगृहे विसजित, भार्यागाः कथापितमद्य घृतपूरान् कुर्याः ? तया घृतपुराः कृताः, तावता तद्गृहे समित्रो जामाता समा For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्सराध्ययन सूत्रम् ॥३०॥ यातः, तस्यैव तया घृतपूराः परिवेषिताः, समित्रेग तेन भक्षिताः, गतः समित्रो जामाता. भाषांतर आ विषयमा एक आभीरीवंचकनी कथा कहे छे-कोइ एक गाममां कोइ एक वाणीयो हाटमा माल लइने वेचतो हतो त्यां |JE अध्ययन एक आभीरी आहीरजातीनी स्त्री-आवी तेणे वणिक्ना हाथमां बे रुपैया आपीने का के–मने बे रुपैयान रु आप. वणिके एक ॥३०॥ रुपैयानु रु वे वार तोळीने आप्यु. पेली आहीरणे जाण्यु के मने बे रुपैयार्नु रु मळ्यु. ते तो लइने चाली गइ. वाणीओ मनमा फुलातो विचारवा लाग्यो के में तेने छेतरी रुपैयो १ मफतनो लीधो. हवे ए रुपैयामांधी आज ज्याफत जमावबी एम धारी ए रुपैयानां घी तथा खांड घरे मोकली बायडीने कहेवरावी मुक्युं के आज घीनी पूरीयो करजो. तेनी धणीयाणीये घोनी पूरीयो तो करी पण तेने घरे पोताना मित्रोने साथे लइ तेनो जमाइ आव्यो. तेनेज वधो धोनी पुरीओ पीरसाइ गइ अने जमाइ तथा तेना मित्रो | खाइने चालता थया. वणिम् गृहे समायातः, स्नानं कृत्वा भोजनार्थमुपविष्टः, तया स्वाभाविकमेव भोजनं परिवेषितं, वणिग्भणति कथं न कृता घृतपूराः? तयोक्तं कृताः, परमागंतुकेन समित्रेण जामात्रा भक्षिताः, स चिंतयति मया सा वराक्याभीरी वंचिता, परार्थमेवायमात्मा पापेन संयोजितः, एवं चिंतयन्नेवासौ शरीरचितार्थ बहिर्गतः, तदानीं ग्रीष्मो वर्तते, स मध्याहवेलायां कृतशरीरचित एकस्य वृक्षस्याधस्ताविश्रामार्थमुपविष्टः, तेन मार्गेण गच्छंतं साधु दृष्टवान् , वणिगुवाच भो साधो विश्राम्यतां ? साधुनोक्तं शीघ्रं मया स्वकार्ये गंतव्य, वणिजोक्तं भगवन् कोऽपि परकायें गच्छति ? For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाणीयो घरे आव्यो. नाहीने जमवा वेठो त्यारे तेनी स्त्रीये रोजर्नु शाक रोटलानु भोजन पीरस्यु. वाणीये कयुंउत्तराध्यआम केम? शुं घीनी पूरीयो न करी ? स्त्री बोली घणीए करी हती पण जमाइ पोताना मित्रोने लइने आवी नीकळ्या तेमने भाषांतर यन सूत्रम् पीरसता बधी खपी गइ. वाणीयो मनमां चिंतववा लाग्यो के बिचारी आहीरणने छेतरी अने में केवळ परने माटेज पाप बांध्यु JE अध्ययन आम विचार करता करतां शरीर चिंता (शौच) माटे बहार नीकल्यो, ते वखते ग्रीष्मऋतु चालनी हती, अने मध्याह्न टाणुं ॥३०॥ इतु तेथी शरीर चिंता करीने एकवृक्षने तळे विसामो लेवा वेठो, त्यां एज मार्गे एक साधुने जता जोइ वणिक् बोल्यो ॥३०॥ हे माधो ! जरा विसामो तो ल्यो ? साधुए का के–'मारे मारां कंडकार्य माटे जवान छे' वाणीयो कहे-भगवन् ! कोइ पण परना कार्य अर्थे जाय खरो? साधुः प्राह यथात्वं स्वजनार्थ क्लिश्यसि, अनेनैकेनैव वचनेन म बुद्धः प्राह भगवन् ! यूयं क्व तिष्टय ? साधुना भणितमुद्याने, स साधुना समं तत्र गतः, तन्मुखाद्धर्ममाकर्ण्य भणति भगवनहं प्रव्रजिष्यामि; नवरं aslil स्वजनमापृच्छामि गतो निजगृहे; बांधवान भार्या च भणति; अत्रापणे व्यवहारतो मम तुच्छलाभोऽस्ति; देशां सरं यास्यामि; सार्थवाहद्वयमत्रायातमस्ति; एकः सार्थवाहो मूलद्रव्यमर्पयति; इष्टपुरं नयति; न च लाभं गृह्णाति द्वितीयो मुलद्रव्यमर्पयति; सह गमनालाभं च गृह्णाति; तत्केन सह गमनं युज्यते ? तैरुक्तं प्रथमेन सह व्रज ? | अथ स वणिक् स्वजनैः समं बने गत्वोवाचायं मुनिः परलोकसार्थवाहः, स्वकीयमुलद्रव्येण व्यवहारं कारयति मोक्षपुरं च नयतीनि दृष्टांतदर्शनपूर्वकं स्वजनानापृच्छय स वणिक्तस्य समीपे दीक्षां जग्राहेति. ॥४॥ For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन४ ॥३०२॥ साधु बोल्यो-जेम तु पोते स्वजन माटे क्लेश वेठे छे आ एक वचनथीज ते प्रबुद्ध बनी गयो अने बोल्यो के-भगवन् ! उत्सराध्य | तमे क्यां स्थिति करो छो ? साधुए कह्यु के-'पेला उद्यानमां' त्यारे ते वणिक साधुनी साथे उद्यानमा गयो तेमना मुखथी | यन सूत्रम् धर्मचर्चा सांभळी बाल्यो के-'भगवन ! 'हु प्रवज्या ग्रहण करीश' आमने आम तो ठीक नहिं माटे स्वजननी रजा ॥३०॥ लइ आq ' आमकहीने पोताने घरे गयो. पोतानी स्त्री तथा बांधवोने भेगा करी का के-'अहीं दुकानमा वेपार करवाथी लाभ बहुज तुच्छ मळे छे माटे हुँ देशांतर जना धारं छु, तेमां वे सथवारा छे, एक साथीतो मूल द्रव्य आपी धारेले JE देशे पहोंचाडे छे अने लाभमा भाग मागतो नथी, अने बीजो साथी छे ते मूडी आपी साथे आवे छे ते लाभ लइ लेवा मागे छे हवे तमे कहो के केनो साथ करवो ? केनी साथे जq योग्य छे ? संबंधी जनोए कडु के-'पहेला साथीनी साथेज जर्बु | वणिक स्वजनने साथे लइ वनमा गयो, ज्यां पेला मुनि उद्यानमा ठेा छे त्यां जइ स्वजनने कईं आ मुनि परलोकनो साथी छे पोतानु मूल द्रव्य आपीने वेपार करावी मोक्षपुर लइ जशे आम दृष्टांत दर्शन पूर्वक स्वजनोनी अनुज्ञालइ ते वणिके Jए मुनि समीपेदीक्षागृहण करी. वित्तेण ताण न लभे पमैत्ते। इमंमिलोए अहेवा परत्थ ॥ दीवप्पणठेव अणंतमोहे। नेयाउयं दहममेव ॥५॥ मूलार्थ:-(पमत्ते)-प्रमादी मनुष्य (इममि लोप)-आ लोकने विषे अदुवा) अथवा (परत्था)-परलोकने विषे (वित्तण धनवडे (ताण)= रक्षणने (न लेमे)-पामतो नथी, (दीवप्पणठेव)-नाश पाम्यो छे दीपक जेनो एवा (अण तमोहे) अन'त मोहवाळा पुरुषे (ने आउ) न्यायमार्ग (दछु) जोइने [अदठुमेन)-नथी जोयो एम जाणवु' الفناناما للقاع فلاسلام اللي فاتفقنا فلتان في ushtuden For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् भाषांतर अध्ययन४ ॥३०॥ ॥३०३॥ व्याख्या-प्रमभः प्रमादी मनुष्यो वित्तेन द्रव्येण कृते 'इममि लोए' अस्मिन् लोकेऽथवा परलोके त्राणं | स्वकृतकर्मतो रक्षणं न लभेत न प्राप्नुयात् , वेश्यागृहस्थपुरोहितपुत्रवत् अर्थः-प्रमत्त-पमादी मनुष्य वित्त-द्रव्यवडे आ लोकमां अथवा परलोकमां त्राण, एटले पोते करेलां कमोथी रक्षण नथी पामतो अर्थात् स्वकृत कर्मनां फल भोगववामां द्रव्यादि लेश पण रक्षण आपी शकतां नथी. ___ कस्मिंश्चिन्नगरे कोऽपि राजा इंद्रमहोत्सवे सांतःपुरो निर्गच्छन् निर्घोषं कारयामास सर्वे पुरुषा नगराहहिरायांतु ? योऽत्र स्थास्यति तस्य महादंडो भविष्यति, तत्र राजवल्लभः पुरोहितपुत्रो वेश्यागृहे प्रविष्टो निर्घोषणां श्रुत्वापि न निर्गतः, राजपुरुषगृहोतोऽप्यसो राजवल्लभत्वेन दर्प कुर्वन्न तेभ्यः किंचिद्ददी, तैस्तु राजसमीपे नीतः राज्ञा त्वाज्ञाभंजकत्वेनास्य शलादंडः कथितः, पुरोहितेन तत्पित्रा सर्वस्वमहं ददामीत्युक्तं तथापि राज्ञायं न मुक्तः, शलायामेवारोपित इति. दीपप्रणष्टः प्रणष्टदीपः पुरुषो भावोन्योतरहितः पुरुषो यथा नैयायिक सम्यग्दर्शनादितत्वं दृष्ट्वाऽदृष्टमिव करोति, कीदृशःप्रगष्टदीपः पुरुषः? अनंतमोहः, अनंतोऽविनाशी मोहो दर्शनावरणमोहनीयात्मको यस्य सोऽनंतमोहः, एतादृशोऽज्ञानीत्यर्थः, अत्र प्राकृतत्वात् षष्ट्यर्थे प्रथमापि, प्रणष्टदीपस्य प्रणष्टसम्यक्त्वस्य, अनंतमोहस्योदितमिथ्यात्वस्य नैयायिकं सम्यग्दर्शनतत्वं लब्धमलब्धमिव स्यात् , प्राप्तं सम्यक्त्यमप्राप्तमिव स्यात् ? तदर्शनफलस्याभावात्. लब्धस्य सम्यक्त्वस्य हानितोऽलब्धमेव, न केवलं प्रमादी पुमान् वित्तेन त्राणं न लभेत, किंतु प्रमादो त्राणकारणं नरकादिभयनिवारणहेतु सम्यग्ज्ञानादिरत्नत्रयमपि हंतीत्यर्थः. अत्र खनिप्रविष्टधातुवादी पुरुषो यथा प्रणष्टदीपो जातः, तस्य दृष्टपूर्वोऽपि मार्गोऽदृष्टवजात:. For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन४ ॥३०४॥ ___आ विषयमा वेश्याना घरमा रहेता पुरोहितपुत्रन दृष्टांत-कोइ नगरमा ते नगरना राजा इन्द्रमहोत्सव निमित्ते राणी भो | JE उत्सराध्य सहित नगरनी बहार नीकळ्या त्यारे नगरमां निर्घोष=साद पडाव्यो के-'सर्वे पुरुषो नगरनी बहार आवो' जे गाममां यन सूत्रम् | रही जशे तेने महोटी दंड मळशे ? आ समये राजानो वहालो पुरोहितनो पुत्र वेश्याना घरमां पेठेलो तेणे साद सांभ॥३०४॥ | ळतां छतां पण बहार नीकळ्यो नहिं. राजपुरुषोए जइने पकड्यो. तो पण 'राजानो पिय छु' एम मनमा गुमान राखीने तेओने दाद न दीधी राजपुरुपोए पकडीने राजा पासे लावी उभो कर्यो. राजाए पोतानी आज्ञाना भंगनो अपराधी ठेरावी मूलीए चडावी देवानो दंड फरमाव्यो. ए वेश्यासक्त पुत्रना पिता पुरोहिते राजा आगळ आचीने मारुं सर्वस्व आपी दउं अने मारा पुत्रने छोडो' आम विज्ञापन कर्यु तथापि राजाए न मूक्यो अने शूलीये चढावी दीयो. दीपमणष्ट हाथमां दीवो MIलइ अंधारामां चाल्पा जनारने जेम ए दोबो नष्टथायओलवाइजाय-यारे अनंत मोह थाय तेम भावरूपो उद्योतथी रहित र थयेलो पुरुष नैयायिक सम्यकदर्शनादि तब जोहने पण न जोया जेवू करे छे, तद्वत् ए ज्ञानप्रकाश विहोणो, अनंत= अविनाशी-मोह, एटले जेनां दर्शनावरणमोहनीयात्मक अनंत छे एवो ए अज्ञानी पुरुष के जेने सम्यक्खदीप ठरी जतां मिथ्याखोदयरूप अनंतमोह ययो के तेने नैयायिक सम्यग्दर्शन तख मळ्युं न मळ्या जेवू थाय छे. माप्त थयेलुं सम्यक्त्व पण प्राप्त न थया जेवं होय छे, कारणके लब्ध सम्यक्खनी हानी थतां ते लब्ध न थया तुल्य छे ए प्रमादीपुरुष द्रव्यवडे रक्षण नथी पामतो एटलुज नहिं किंतु ए प्रमादी नरकादि भयना निवारणतुं हेतुभूत सम्यग्ज्ञानादि रबत्रयने पण हणे छे. अहींखाणमां दीवो लड पेठेला धातवादी पुरुषने जेम दीवो ठरी जतां दीठेलो मार्ग पण न दीठा जेवो थाय. For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन ॥३०५|| अत्र तत्कथा-केचिद्धातुर्वादिनः सदीपाः संधवा बिलं प्रविष्टाः, तत्पमादारीपे विध्याते महातमोमोहिता || उत्तराध्य- इतस्ततो भ्रमंतः प्रचंडेन विषधरेण दष्टा गर्तायां पतिता मृताः, एवं प्राप्तसम्यक्त्वा अपि महामोहवशात्पुयन मुत्रमा नर्मिध्यात्वं गच्छंतीति परमार्थः.. ॥३०५॥ तेनुं दृष्टांत कहेछे-केटलाक धातुवादी पुरुषो हाथमां दीवा लइ सँधबाबील खाणना धडमां-पेठा तेओना प्रमादथी दीवा ठरी जतां महोटा अंधकारथी मोहित थइ चारे कोर आथडी आथडी प्रचंड विषधर नाग डंसवाथी ए खाडमांज 56 पढीने मुवा. एम जेने सम्यकल प्राप्त थय होय एवा पण महामोहने वश बनी पाछा मिथ्याखमा जाय छे; एवो आ दृष्टा तनो परमार्थ तात्पर्यार्थ छे ५ सुत्तेसुआवीपडिबुजीवी। न वीससे पंडिय आसुपण्णे ॥ घोरा महत्त। अबलं सरीरं। भारंडपंक्खीव चैरऽप्पमैसो | मूलार्थः-(आसुपण्णे)=भाशुप्रज्ञ (पडिबुद्धजीवी)-प्रतिबुद्ध (पडिअ) पंडित पुरुष (सुससुआधी) द्रव्यथी अने भावथी सुता होध तो पण तेमने बिषे (न वीससे विश्वास न करे कारण के (मुहुत्ता क्षणमात्र (घोरा) महाभयंकर छे तथा शिरीरं]-शरीर पण [अवलं] बळरहित छे तेथी करीने (भारुडपख्खीय)-भारंडपक्षीनी जेम (अप्पमत्त)-प्रमादरहित (चर =तु चाल ६ व्याख्या-प्रतिबुद्धजीव्यनिद्रोणमादी पुमानन्येषु सुप्तेष्वप्यविवेकिनरेषु निद्रायुक्तेषु सस्वपि न विश्वसेद्विश्वासं नैव कुर्यात् , कीदृशः सः ? आशुप्रज्ञः तत्कालयोग्यबुद्धिमान , आशु शीधं कार्याकार्येषु प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपा प्रज्ञा मतिर्यस्य स आशुप्रज्ञः, यतो मुहर्ताः कालविशेषा घोराः प्राणापहारित्वाद्रौद्राः, शरीरमवलं बलरहितं For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥३०६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भवति, मृत्युदायमुहूर्तान् ज्ञात्वाप्रमत्तः सन् भारंडपक्षीव चर ? एकोदराः पृथग्ग्रीवा । अन्योन्यफलभक्षिणः ॥ प्रमादात्ते विनश्यति । यथा भारंडपक्षिणः ॥ १ ॥ हे साधो तथा तवापि प्रमदात्संयमजीवितस्य भ्रंशो भवि यति. अर्थ :- प्रतिबुद्धजीवी = अप्रमादी= जागतो पुरुष, अन्य अविवेकी नर सुप्त-सुतेला होय, अर्थात् निद्रायुक्त होय तो पण तेनो विश्वास न करे, ए पुरुष पोते आशुमज्ञ एटले तत्काळ प्रत्युत्पन्न बुद्धिशाळी, अर्थात् कार्य अकार्यने त्रिषये जेनी प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपा मज्ञः = मति - शीघ्र तत्काळ स्फूरे ते आशुमह पुरुष विश्वास न करे केमके — मुहूर्त्त घडी पळ विगेरे काळना अवयवो प्राणापहारी होवाथी घोर= रौद्र होय छे। अने शरीर अवल बने छे, मृत्युदायी मुहूर्त्तने जाणीने अप्रमत्त बनी भारंड पक्षीनीपेठे चर=विहरो ६ ग्रीवाओ नोखी नोखी छतां बधायनुं उदर = पेट एकज होवाथी एकबीजानां फळ भक्षण करता प्रमादथी भारंड पक्षी विनाश पाम्या. हे साधी ! तेम तमारा प्रमादथी पण संयमजीवीपणानो भ्रंश थवानो. अत्रागडदत्तराजपुत्रकथा – उज्जयिन्यां जितशत्रुराज्ञोऽमोघरथ नाम रथिकोऽस्ति, तस्य राज्ञो यशोमती नाम भार्यास्ति तयोः पुत्रोऽगडद सो नाम्ना वर्तते. अन्यदा तस्य बालभावेऽपि दिता मृतः सोऽभीक्ष्णं रुदतीं मातरं दृष्ट्वा पृच्छति हे मातवरिंवारं किं रोदिषि ? सा प्राह तव पितुः पदं विभूतिं चैषोऽमोघप्रहारी रथिको भुंक्ते, त्वं कलास्वकुशलस्तेन तव हस्ते पितुः पदं विभूतिश्च नायात्यतोऽहमत्यंतं खिन्ना निरंतरं रोदिमि, बालेन भणितं स कोऽप्यस्ति यो मम कलाः शिक्षयति ? माता प्राहास्ति कौशांच्यां दृढप्रहारी नाम कलाचार्यस्तत्र स त्वामवश्यं कलाकुशलं करिष्यति ? अगडदत्तो गतः काशांन्यां दृष्टो दृढप्रहारी नामा कलाचार्यः कथितं तेन तस्य For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन४ ॥ ३०६ ॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मातुः खेदकारणं, कलाचायेंग पुत्र इवासी स्वपाचे रक्षितः, स्तोककालेनैव कलासु कुशलः कृतः. उत्तराध्य- | अत्रे अगडदत्तराजपुत्रनी कथा कहे छे.-उज्जयिनीमां जितशत्रु राजानो अमोघरथ नामनो रथिक हतो तेनी यशोमती नामनी भार्या RS भाषांतर यन सूत्रम् हती. तेनो अडगदत्तनामे पुत्र हतो, तेनी बाळबयमांज तेनो पिता अमोघरथ मरी जबाथी ए बाळकनी मा यशोमती हमेशां रोती आ PE अध्ययन ॥३०७॥ Jt बाळकें तेनी माने रोती जोइ पूच्यु के-हे मा! वारंवार रडोछो केम ?' मा बोली के -'तारा वापुर्नु स्थान तथा वैभव ॥३०७|| आ अमोय पहारी नामनो रथिक भोगवे छे. तु कलामां कुशळ नथी तेथी तारापितान पद के संपत्ति तारा हाथमां न आवी, एथी हुँ अत्यंत खेद पामी निरंतर रडुं छ.' बाळक बोल्यो के-' एवो कोण छे के जे मने कलाओ शीखवे? ' माताए कयु केकौशांबी नगरीमा दृढमहारी एवा नामनो कलाचार्य छे त्यां जा तो ते तने अवश्य कलाकुशल करशे.' आ मातार्नु वचन सांभळी अगडदत्त कौशांबी पहोंचीने दृढपहारी नामना कलाचार्यने मल्यो. पोतानी माताना खेदन कारण जणाची पोते कला शीखवा | रह्यो. कलाचार्ये पण तेने पोताना पुत्रनी पेठे पोता पासे राखीने थोडाज समयमा सर्वकलाओमां तेने कुशळ को. अन्यदा राजकुले प्रेषितः, तेन सभायां दर्शिताः कलाः, चमत्कृतःमकलोऽपिलोकः पुनःपुनः साधुवादमवदत् , राजा तुनास्ति किंचिदाश्चर्यमिति वदन्न किंचिद्धिमुवाच उत्तिताचारपालनादेयं पुनरुवाच कुमार! तुभ्यं किं ददामि?कुमार आह | हे राजन! स्त्वं साधुकारमपि न दत्से? किमन्येन दानेनेति. अस्मिन्नेवावसरे राजा पोरै रेवं विज्ञप्तः, हे राजन् ! भवत्पुरेऽश्रुJE तपूर्व चारेण द्रव्यापहरण वारंवार क्रियमाणमस्ति, एवं च राजलज्जान तिष्टति, ततो नगररक्षायनः क्रियता? तदैव गज्ञा तलारक्ष आज्ञप्तः सप्ताहोरात्रमध्ये यथा चौरो गृहाते तथा कर्तव्यं, तदानीं तत्रस्थोऽगडदत्तः प्राह राजन् ! अहं सप्ताहोरात्र For Private and Personal use only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir BC भाषांतर अध्ययन४ ||३०८ JE मध्ये चौरं तव चरणमूलमुएनेष्यामि, राज्ञा तद्वचोंगीकृतं, एवं कुर्विति वारंवारमुक्तं ततो हष्टोऽगडदत्तो राजकुलान्निर्गत्य उसराध्य-DEL JE | चिंतयति दुष्टपुरुषाश्च प्रायः पानीयस्थाने नानाविध लिंगधारिणो भ्रमंतीत्यहं तच्छुद्धयेतटाकोपवनेषु यामीति चिंतयित्वा यन सूत्रम्, २८ | नगराहहिरेक एवैकस्य शीतलच्छायस्य सहकारपादपस्य तले मलिनांवर उपविष्टः, चौरग्रहणोपायं च चितियन्नस्ति, ॥३०८॥ तस्यैव छायायामायात एकः परिव्राजकः स्थूलजानुर्दीर्घजंघा, कुमारेण दृष्टश्चितितं च नूनमेभिर्लक्षणरयं चौर | एवेति, भणितं च तेन परिव्राजकेन वत्स! कुतस्त्वमायातः ? किं निमित्तं च भ्रमसि ? कुमारेण भणित भग| वनहमुजयिनीतोऽत्रागतः, क्षीणावभवो भ्रमामि, तेन भणितं पुत्र तवाहं विपुलमर्थ दादामि, अगडदत्तेन भणितं तह्ययमनुग्रहः कृतः, संतो हि निःकारणमपकारिणः स्युः. ते पछी तेने राजकुलमां मोकल्यो त्यां तेणे सभामां पोतानी कलाओ दर्शाची सघळा लोकोने चमत्कार पमाड्या, तेथी सर्व लोकोए तेने साधुवाद ( वाह वाह ) कह्या. राजा तो 'एमां शुं आश्चर्य छे.' आम बोलीने कंइ पण शाबाशी जेवुन पोल्या. मात्र उचित आचार पालवा खातर एटलु बोल्या के-' हे कुमार! तने शुं दउं? कुमार बोल्यो के-'हे राजन् ! तमे मने साधुकार धन्यवाद-पण देता नथी तो बोजु | देशो?' आ टाणे नगरनिवासी जनोए आवीने विज्ञप्ति करी के-'हे | राजन् ! आपना आ पुरमा कोइ दिवसे न सांभळेल एवा चोरो द्रव्यनां अपहरण वारंवार करे छे आम थवाथी राजनी लाज जाय छे माटे नगर रक्षार्थ यत्न करो.' तेज क्षणे राजाए तलारक्षशहेर फोजदारने हुकम कर्यो के-' सात दिवसनी अंदर जेम चोर पकडाय तेम करवू.' आ सांभळतां अगडदत्ते कयं के-'हे. राजन् ! हुं सात रात्रिदिवसनी अंदर चोरने पकडी लावी For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य थन सूत्रम् ॥३०९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आपना कदममां खडोकरी दई. ' राजाए तेनुं वचन मान्य कर्यु, अने अगडदत्तने 'भले एम करो' एम फरी फरीने कं तदनंतर राजीथयेला अगडदत्ते राजकुलमांथी नीकली विचार कर्यो के दुष्ट पुरुषो घणे भागे पाणी आरे अनेक प्रकारनां चिन्ह धारण करी भटकता होय माटे हुं तेनी शोध करवा तळावना उपवनम जाउं आम बिचारी बहार ते नगरनी एकलोज एक शीतल छायावाळा आंबाना झाड तळे मेलां लुगडां पहेरीने बेठो, त्यां बेठो बेठो चोर शोधवाना उपायनुं चिंतन करे छे. एटलामा एक परिव्राजक एज वृक्षनी छायामां आवतो दीठो. जाडा गोठणवाळो तथा लांबी जंघा =फीचु-वाळो पुरुष जोइ कुमारे धार्छु के-' आ लक्षणो उपरथी निश्वये आ चोरज होवो जोइए, त्यां तो ते परिव्राजके पूछयुं के' हे वत्स ! क्यांथी आव्यो अने शामाटे फरे छे ? कुमारे कछु के 'भगवन ! हुं उज्जयिनीथी अहीं आवी चड्यो अने संपत्तिक्षीण थइ जवाथी चारेकोर भनुं छं.' तेणे कं' हे पुत्र ! तने हुं पुष्कळ द्रव्य दश त्यारे अगदत्त बोल्यो के 'त्यारे तो मारो महोटो अनुग्रहज कर्यो मानीश, आप जेवा सत्पुरुषो निष्कारण परोपकारी होय छे. एवं तयोरभिलापं कुर्वतोरेव सूर्योऽस्त गतः, रात्रौ तेन त्रिदंडाच्छत्रं कर्षितं बद्धः कच्छ, नगरीं याम इति वदन्नेवमुत्थितः सोऽगडदत्तोऽपि साशंकस्तमनुगच्छति, वितयति चैष एवं स तस्कर इति द्वापि प्रविष्टौ नगरौं, तत्रातिप्रेक्षणीयमतीवोन्नतं कस्यापीभ्यस्य गृहं दृष्टं तत्र क्षात्रं दत्तं परिब्राजकस्तन्मध्ये प्रविष्टः, अग| दत्तो वहिःस्थश्चितयति चौरस्तु मया ज्ञातः परमस्य स्वरूपं सर्व तावत्पश्यानीति परिवाजकेनानेक भांडभृताः पेटय एव कर्षिताः, अगडदत्तसमीपे ताः स्थापयित्वा गतो देवकुले, तनोऽनेके भारवाहिन आनीतास्तेषां शिरसि For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्यन४ ॥३०९॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन ॥३१॥ ॥३१० ताः स्थापिताः, सर्वेऽपि गताः पुराहहिः, तापसः कुमारंप्रत्याह हे पुत्रात्र जीर्णोधाने निद्रासुखमनुभवामः, उत्तराध्य इत्युक्त्वा सर्वेऽपि सुप्ता निद्राणाश्च. यन सूत्रम् ____ आम ए बेय वातांचितो करे छे त्यां सूर्य अस्तपाम्यो रात्रपडी के पेला परिव्राजके त्रिदंडमांथी शस्त्र कादयु, अने पोते काछडोवाळी तैयार | | थइ 'चालो आपणे नगर भणी जइए' आम बोलतो उभो थयो, ते अगडदत्त पण मनमा आशकाभर्यो तेनी पाछळ जतां मनमां चिंतन करे | छे के 'चोरतो आज छे, एम करता बन्ने नगरीमा पेठा त्यां अत्यंत दर्शनीय तथा अति उंचु कोइ धनवाननु घर दीठं, पेला | JET चोरे तेमां खातर दीधुं अने ए बांकोरामांथी ए परिव्राजक घरमा पेठो, अडगदत्त तो बहार उभो विचारे छे के-'में | चोर तो जाण्यो पण हजी तेनु पुरु स्वरूप मारे जाणवू त्यां तो ए परिव्राजके अनेक द्रव्य भरेली पेटीओ खेंचीने बहार काढी, अगडदत्तनी आगळ आ बधा चोरेला पदार्थो राखीने पोते पांसेना देवालयमा जइ मजुराने तेडी आव्यो अने ते माथे बधी पेटीओ चडावी के ते बांय नगर बहार नीकळी गया, तापसकुमार प्रति कहेवा लाग्यो के-'हे पुत्र ! अहीं जुना उधानमां हवे जरा निद्रामुखनो अनुभव करीये एम बोलीने बधाय मूता अने उघी पण गया. परिव्राजकश्च कपटनिद्रया सुप्तः, अगडदत्तस्तु नैतादृशानां विश्वासः कार्य इत्यवधार्य क्षणं कपटनिद्रया सुरवा तत उत्थाय वृक्षांतरितःस्थितः, तान् पुरुषान निद्रावशगतान ज्ञात्वा स परिव्राजकः कंकपत्र्या मारितवान् , अगडदत्तत्रस्तरे च समागत्य तं तत्रापश्यन् पवादलितस्तावतागडदत्तेन तदंतिके समागत्य खड्गप्रहारेण प्रकामं हतःपतितः पृथिव्यां ततः सोगडदप्रत्याह वत्स! गृहाणेमं मम खड्गं व्रज श्मशानस्य पश्चिमे भागे? तत्र भूमिगृहे भित्तौ स्थित्वा शब्दं कुर्याः ? For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥३१॥ मतो रहीने त्यांधी ने मारी नाख्या-माप आवी तेनान सा तत्र मम भगिनी वसति. तस्या इमं मम खड्गं समर्पयेः, ततःसंकेतकथनात्सा भार्या भविष्यति, सर्वव्यस्वामी त्वं | भविष्यसि, अहं तु गाढपहारान्मृत एवेति. भाषांतर पण पेलो परिव्राजक तो कपटथी उघतो होय तेम मूतो. अगडदत्त पण-' आवाओनो विश्वास न कराय' एवो अध्ययन४ निर्धार करीने कपटथी जाणे उंघतो होय तेम थोडीवार मृतो रहीने त्यांथी उभो थइ छानोमानो वक्षनी ओथे संताइ उभो ॥३१॥ | हवे पेलो परिव्राजक, बधाय निद्रावश थया एम जाणीने कंकपत्रीथी बधाने मारी नाख्या. अगडदत्तना बिछाना आगळ | आवी जुए छे तो तेने त्यां न दीठो के तरत पाछो वळ्यो त्यां सत्वर अगडदत्ते तेनी समीपे आवी तेनाज खड्गथी मखत झाटको मार्यो के ते पृथ्वी उपर पडी गयो. ते वखते मरतां मरतां तेणे अगडदत्तने कयु के-वत्स ! आ मारो खड्ग ले अने स्मशानना पश्चिम भागमा भोयरुं छे तेनी भौंत उपर उभो रही हाकल मारजे, त्यां मारी बेन रहे छे तेने आ मारो खड्ग आपजे आ संकेत पधाणथी ते तारी भार्या थशे अने मारा सर्व द्रव्यनो स्वामी तुं थइश अने हुँ तो घा बहु उंडो लाग्यो छे तेथी मरूं छु. मत्स्वरूपं च तां कथयेः ? ततोऽगडदत्तः खड्गमादाय तत्र गतः, शन्दिता सा अयाला, तेन दृष्ट तोवरूपवत्यवदत् सा कुतस्त्वामायातः ? स प्राह गृहाणेमं. खड्गं ! तद्दर्शनमात्रेणैव तया सर्व तस्य स्वरूपं ज्ञातं, मनस्येव शोकनिगहनं कृतं, अगडदत्तस्तद्गृहाभ्यंतरं नीतः, दत्तमासनं, तत्र स उपविष्टः तया विशिष्टादरेण | NE शय्या रचिता, भणितं च स्वामिन्नत्र विश्राम्यतां! तयेत्युक्त सुप्तस्तत्रागडदत्त सा गृहाहहिनिर्गता, सावतागड For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्सराध्ययम सूत्रम् ॥३१२॥ दत्तेन चिंतितमस्या अपि विश्वासो नैव कार्य इत्युत्थाय शय्यातोऽन्यत्र गृहकोणे स्थितः सः, तया तु तच्छग्योपरिष्टात्पूर्व भाषांतर यंत्रचालनेनैव मुक्ता शिला, पतस्या तया शय्या चूर्णिता; सात्यंत हर्षवती दातालेवं वदति हतो मया भ्रातृघातकः. | अध्ययन आ मारो सपळो वृत्तांत तेने कहेजे अने मारुं स्वरूप पण कही देखाडजे ' अगडदत्ततो ते खड्ग लइने त्यां गयो, ॥३१॥ | हाकल मारी के पेला चोरनी बेन आवी; जोइ त्यांतो अतिरूपवती दीठी, ते बोली के-' तमे क्यांची आवो छो ? अगडदत्ते का-' आ खड्ग गृहण करो' आ खड्ग जोतांनी साथेज तेणीये तेनुं स्वरूप जाणी लीधुं. मनमां शोकने दवाची दइ अगडदतने घरनी अंदर लइ गइ, सारं आसन आधुं तेना उपर ते बेठा. तेणीए तो खास आदरथी शय्या सजी अने बोली के-'स्वामिन् ! आना उपर विसामो ल्यो. आम तेणीए का ते वारे अगडदत्त ते शय्या उपर मूतो ते तो अगडदत्तने सुवाडीने घरनी बहार नीकळी त्यारेअगडदत्ते विचार्यु के-'आनो पण विश्वासतो नन करवो? एम विचारी उठीने शय्याथी जरा अन्यत्र घरखूणे ते उभो. ए स्त्रीए तो ते शय्या उपरे प्रथमथी गोठवी राखेला यंत्रनो दोरीसंचारो कर्यो के झट एक महोटी शिला ते शय्यापर पडी तेथी शय्या चूर्णित थइ गइ. ते स्त्रीतो हर्षमा ताळी पाडती बोलो उठी के-'मारा भाइना घातकनमें हण्यो. ततोगडदत्तेन त्वरितं सा केशेषु गृहीता भगिता च हा दासिके! किं त्वं मां हनिध्यसि ? सा तत्पादयोः पतिता; तव चरणो मे शरणमिति बभाण. अथ तेन सा मा भयं कुवित्याश्वासिता; स्वकरे मृहीता; IDE रोजकले नीता, कथितश्च समस्तवृत्तांतः राज्ञा सोऽगडदत्तः पूजितः प्रशंसितश्च; एवमप्रमत्ता इहैव कल्याणभाजो भवंति. उक्तो द्रव्यसुप्तेषु प्रतिबुद्धजीवदृष्टांतः. एतावदुत्तराध्ययनवृहबृत्तिगतमगडदत्तव्याख्यानं लिखितं. For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie भाषांतर अध्ययन ॥३१३॥ अगडदत्ते अट जाहेर थइने तेणीने चोटलेथी पकडीने कई के- अरे दासिका ! तु मने हणवानी हती ' त्यां | उत्तराध्य | तो ते अगडदत्तना पगमां पडी अने 'हवे तो तमारा चरणज मारु शरण छे' एम बोलीपडी त्यारे 'एम जो होय तो यन सूत्रम् JL | जराय भय मा राखीश' आवीरीते तेने अगडदत्ते आश्वासन दीलासो दइ पोताना हाथमां तेणीनो हाथ माली राजकुलमा लइ गयो. राजानी आगळ तमाम वृत्तांत कही बताव्यो, राजाए अगडदचने प्रशंसा तथा सत्कारथी पूज्यो, आम अप्रमत्त ॥३१॥ प्रमादरहित भुरुपो आ लोकमांज कल्याणभागी थाय छे, आवीरीते द्रव्यमुप्त जनोमां प्रतिबुद्ध थयेला जीवनो दृष्टांत कयो. अही सुधीमां उत्तराध्ययननी वृहद् चिमां आपेलुं अगडदत्तनु दृष्टान्त वर्णव्यु. अथ कथाग्रंथलिखितमगडदचाख्यानं लिख्यते-शंखपुरे सुंदरनृपः। तस्य सुलसा प्रियाः तत्सुतोऽगड| दत्तः; स च सप्तव्यसनानि सेवते; लोकानां गृहेष्वप्यन्यायं करोति; लोकैस्तदुपालंभा राज्ञे दत्ताः राज्ञा स | निर्वासितो गतो वाराणस्यां; पठन् चंडोपाध्यायगृहे स्थितः; द्विसप्लनिकलावान् जातः, गृहोद्याने कलाभ्यास कुर्वन् प्रत्यासन्नग्रहगवाक्षस्थया प्रधानधेष्टितया मदनमंजर्या तपमोहितया प्रक्षिप्तपुष्पस्तयकतः संजातप्री- 1 तिस्तन्मय एव संजातः; अन्यदा तुरगारूढः स नगरमध्ये गच्छन्नस्ति; तावतेहशो लोककोलाहलः झुतो यथा| किं चलिओव्व समुहो । किं वा जलिओ हुआयणो घोरो ।। किं पन रिउसिणं । दंडो निवडिओ किं वा ॥१॥ | चिंटेणवि परिवत्तो । मारतो सुंडि गोपुरं पत्तो ॥ सवड मुहं चलंतो । कालुब्व अकारणे कुद्धो ॥२॥ हवे कथान यमांनु अगडदत्ताख्यान दर्शावाय डे-शंखपुरमां सुंदर राजा, तेनी मुलसा मिया, तेनो पुत्र अगडदत्त; For Private and Personal use only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir JE] ते साते व्यसन सेवतो; घरमां पण अन्याय करे. लोकोए ते घाबत राजाने ठबको दीयो तेथी राजाए तेने काढी मूक्या ||JE ID ते वाराणसी गयो त्यां चंडोपाध्याय आगळ भणतां ७२ कळानो जाणनार थयो घरना उद्यानमां कलानो अभ्यास करतां भाषांतर यन सूत्रम् करतां पांसे नजीकना घरमांना गोखमां बेठेली प्रधान श्रेष्ठीनी पुत्री मदनमंजरी तेना रूपथी मोहित थएली, तेणीए फे केळी अध्ययन४ ॥३१४॥ पुष्पना गुच्छाथी तेनी साथे प्रीति थतां तन्मय बनी गयो. एक समये घोडा उपर सवार थइने नगर मध्ये ते जातो इतो त्यां ॥३१४॥ । एवो लोकोनो कोलाहल सांभळयो के-आते सुं समुद्र चल्यो ? अर्थात् माजा मूकीने फेलाणो ? के शुं आ घोर हुताशन ज्वलित थयो ? के आते शुं रिपुसैन्य आवी पडयु ? अथवा कोइ दंड उपरथी निपतित थयो-धसीपड्यो चारे कोरथी hellघेरायेलो छतां मूढथी मारतो गोपुर नगरद्वारभणी पड्यो आवे छे सामे मोढे चाल्यो आवतो अकळे क्रद्ध थयेलो जाणे | काळ होय नही एवो आ हाथी आवे छे. तावता तेन कुमारेगाव मुक्त्वा स हस्ती गजदमनविद्यया दांतः पश्चात्तमारुह्य राजकुलासकमायातो राज्ञा | दृष्टः, आकारितो मानपूर्वः कुमारेग नं गजमालानस्तंभे यध्ध्वा राज्ञः प्रगामः कृतः राज्ञा चितितं कश्चिन्महापुरुषोऽयं यतोऽत्यंतं विनीतो दृश्यते; यता-सालीभरेण तोयेग । जलहरा फलभरेण तमसिहरा । विणपण प सप्पुरिसा । नमति न ह कस्सा भएण ॥१॥ त्यां आ अगडदत्तकुमार तेनी पाछळ घोडो मारी मूक्यो अने ते हाथीने सपाटामा गजदम्न वियाना बना दवाव्यो | पछी तेना उपर आरूढ थइने राजकुल नजदीक आव्या त्यारे राजाए दोठो. राजाए तेने मानपूर्वक बोलाव्यो एटले कुमार For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अ: यन४ Ji ||३१२॥ हाथीने तेना अगडमां आलानस्तंभे बांधी राजा पांसे आवी प्रणाम करी उभो रह्यो. राजाए जाण्यु के आ कोइ महा पुरुष छे कारणके ते अत्यंत विनयवान् देखाय छे. कड्यु छ के-जलधर मेघ पुष्कळ भरेला तोय जलभारथी नमे छे. उत्तराध्ययन सूत्रम् 36 | तरुशिखर-झाडनी टोच फळना भारथी नमे छे ते प्रमाणे सत्पुरुषो विनये करी नमे छे कंइ कोइना भयथी नमता नथी. ततो विनयरंजितेन राज्ञा तस्य कुलादिकं पृष्टं कियान कलाभ्यासः कृत इत्यपि पृष्टं; कुमारस्तु लज्जा॥३१॥ लुत्वेन न किंचिजगी, उपाध्यायेन तस्य कुलादिकं सर्वविद्यानैपुण्यं कथितं; कुमारवृत्तांतं श्रुत्वा चमत्कृतो भूपति. अथ तस्मिन्नवसरे राज्ञः पुरो नगरलोकः प्राभृत मुक्त्वैवमृचिवान् हे देव ! त्वन्नगरं कुबेरपुरसदृशं कियद्दिनानि यावदासीत् , सांप्रतं रोरपुरतुल्यमस्ति; केनापि तस्करेग निरंतरं मुच्यते; अतस्त्वं रक्षां कुरू ? राज्ञा तलारक्षा आकारिताः; भृशं वचोभिस्तजिताः; तरुक्तं महाराज ! कि क्रियते? कोऽतिप्रचंडस्तस्करोऽस्ति; स बह पफमेशिन दृश्यते. तेना विनयथी रंजीत थयेला राजाए तेनां कुल वगेरे पूच्यां ते साथे कलाओनो केटलो अभ्यास कर्यो छे ते पण पूछ्युं तेवारे शरमाइने कुमारे कंइ पण उत्तर न वाळ्यु त्यारे पासेज उभेला उपाध्याये तेनुं कुलादिक तथा सर्वविद्यामां निपुणता कही देखाडी. आ कुमारचं वृत्तांत सांभळीने राजा चमकार पान्या=विस्मिा श्या. एन अबसरे नगरजनो राजा आगळ आवी भेट घरीने बोल्या के-'हे देव ! केटलाक दिवस मुबीतो आपनुं आ नगर कुवेरपुर तुल्य हनु, हवे तो चोरपूर शदृश थइ गयु के कारणके कोइ तस्कर रोज चोरी करेले माटे तमे रक्षा करो. रामाप नगर फोजदारने बालाची अत्यंत वचनयी झाटक्या. नेत्रोए यो के- मागन? मुं करीर कोक प्रचंड तस्कर थयो ले ले बजाय For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kababirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir उपाय करीए छइए तो पण देखातो नवी. उत्तराध्य भाषांतर यन सूत्रम् ततः कुमारेगोक्तं राजन्नहं सप्तदिवसमध्ये तस्करकर्षगं चेन्न करोमि तदाग्निप्रवेशं करोमीति प्रतिज्ञा कृता. अध्ययन४ राज्ञा तु पुरलोकमाभृतं कुमाराय दगं. कुमारस्तत उत्थाय चौरस्थानानि विचारयति, यथा-वेसाण मंदिरेसु । ॥३१६॥ ॥३१६॥ पाणागारेतु जूयहाणेषु ॥ कुल्लूरियवणेसु अ । उजाणनिवाणसालासु ॥१॥ मयसुन्नदेवलेसु अ । चच्चरच-24 | उहद्दसुन्नसालासु ॥ एएसु ठाणेषु । पारणं तकरो होइ ॥२॥ त्यारे पासे उभेला आ अगडदत्तकुमारे कडा के-हे राजन् ! हु सात दिवसनी अंदर जो ए तस्करने खेंची न ३ लावू तो मारे अग्निप्रवेश करी चळो मर; आवी प्रतिज्ञा करी तेथी राजाए जे पोशाक भेट नगरवासिजनोए राजाने | धरी हती ते राजाए ए कुमारने आपी, ते लइ कुमार उठीने बहार नीकली चोरनां स्थानोनो विचार करवा लाग्यो–वेश्याओनां मंदिरोमां, पानागा=मयपीवाना पीठांओमां, द्युतस्थानोमां; उद्यानोमां; 'पाणीनां परवामां तथा बगी| चाओमा; १ शून्यदेवालयोमा बखवर; चोघट्टा; शून्यशाला; एटलां स्थानोमां घणेभागे तस्करो होय ॥२॥ एवं चौरस्थानानि पश्यतः कुमारस्य षड् दिना गताः, पश्चात्सप्तमे दिने नगराद्वहिर्गत्वा तरोरधः, स्थित एवं चिंतयति-छिज्जउ सीस अहवा । होउ, बंधणं चयउ सवहा लच्छी ॥ पडिवग्नपालणेसु । पुरिसाणं जं होह तं होउ ॥१॥ एवं चितयन्नसौ कमार इतस्ततो दिगवलोकनं करोति. तमिन्नवसरे एकः परिहितधा For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥३१७॥ तुवस्त्रो मुण्डितशिर कूर्चस्त्रिदंडधारी चामरहस्तः किमपि 'वुड बुह' इति शब्दं मुखेन कुर्वाणः परिव्राजकस्तत्रायातः, कुमारेण दृष्टश्चिन्तितं चायमवश्यं चौरो यतोऽस्य लक्षणानीदृशानि संति, यथा-करिसुंडाभुय भाषांतर दंडो । विसालवत्थलो फरुसकेसो ॥ नवजुब्वणो रउहो । रत्थो दीहजंघो य ॥१॥ Jअध्ययन आम चोरना स्थानोनो विचार करतां कुमारने छ दिवसो बीती गया. सातमे दिवसे नगरी बहार नीकलीने एक ॥३१७॥ झाड तळे बेठो बेठो विचार करे छ के-मस्तक छेदाइ जाओ अथवा भले बंधन हो तेमज लक्ष्मी भले सर्वथा चाली जाओ तथा विमतिपन्न पालन कबूल करेलु पाळवामां पुरुपने जे थवान होय ते थाओ ॥१॥ आम चिंतन करतो कुमार आम तेम दिशाआ तरफ जोया करे छे तेटलामां एक धातुवख पहेरेल मुंडिन मस्तकवालो दाढीवाळो त्रिदंडधारी हाथमां | चामर रही गयुछे अने मोढे 'बुइ बुइ' एवा शब्द करतो कोइ परिव्राजक त्यां आव्यो कुमारे जेवो दीठो के मनमां विचार्यु के-अवश्य आ चोर होय केमके आनां लक्षण एवांज दीसे छे. जेबा के-हाथीनी मूंढ जेवा भुजदंड छे विशाल वक्षःस्थल, फरफरता कठोर केश; नवजुवान; रुद्र भयंकर रक्ताक्षरातां नेत्र अने दीर्घ जंघा; आ बधां लक्षण चोरनांज छे. एवं चिंतयतः कुमारस्य तेन कथितमहो सत्पुरुष ! कुतस्त्वमायातः ? केन कारणेन च पृथिव्यां भ्रमसि ? | | तेन भणितमुज्जयिनीतोऽहमत्रायातोऽस्मि, दारिद्यभग्नश्च भ्रमामि. परित्राजक उवाच वत्स ! मा खेदं कुरु ? | अथ तव दारिय छिननि समीहितमर्थ च ददामि. ततो दिवसं यावत्तौ तत्र स्थितौ, रात्रौ कुमारसहितश्चौरः | कस्यचिदिभ्यस्य गृहे गतः, तत्र क्षानं दत्तवान् , तत्र स्वयं प्रविष्टः, कुमारस्तु बहिः स्थितः, परिव्राजकेन द्रव्य For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie भृताः. पेटिकास्ततो बहिः कर्षिताः; ताः क्षात्रमुखे कुमारसमीपे मुक्त्वा स्वयमन्यत्र कुत्रचिद्गत्वा दारिद्यभग्नाः ३ उत्सराध्य भाषांतर पुरुषा अनेके आनीताः, तेषां शिरस्सु ताः पेटिका दत्वा कुमारेण समं स्वयं यहिगतः, स तापसः कुमार यन सूत्रम् अध्ययन४ | प्रत्येवमुवाच कुमार !क्षणमात्रं बने तिष्टामः, निद्रासुग्वमनुभवामः, परिव्राजकेनेत्युक्ते सर्वेऽपि पुरुषास्तत्र सुप्ता..|| ॥३१८॥ आम ज्यां चिंतन करे छे त्यां तेणे पासे आवीने कुमारने कयु के-अहो सत्पुरुष ! तमे क्यांथी आबाछो ? श्या कारणे | ॥३१८॥ पृथवीमां भ्रमण करी रह्या छो? तेणे कधु के-उज्जयिनीथो हु अत्रे आवेलो छु दारिद्यथी भग्न छु तेथी भम्या करुं छु' JE परिव्राजके कां के-वत्स ! खेद करमा आजे तारु दारिद्य छेदीने तने इच्छा प्रमाणे द्रव्य हु आपीश. पछी दिवस हतो त्यां सुधीतो वेय जणा त्यां बेठा रह्या रात्री पडी के कुमारने लइने पेलो परिव्राजक चोर कोइ धनान्यने घेर पहोंच्या त्यां खात्र दीधुं तेमां पोते पेठो अने कुमार बहार रह्यो परिव्राजके द्रव्य भरेली पेटीओ बहार खेंची काढी कुमार समीपे राखीने पोते क्यांक जतो रह्यो. थोडीज वारमा दारियग्रस्त केटलाक पुरुषोने लइने आव्यो तेना माथा उपर बघी पेटीओ चडांवी कुमारने साथे लइ पोते बहार नीकली गयो. ते तापस कुमार प्रत्ये एम बोल्यो के-'हे कुमार ! आपणे क्षणमात्र बनमां * ठेरीए जरा अने निद्रामुख अनुभवीये. परिव्राजके आम कडं के सर्वे पुरुषो त्यां सुता. कपटनिद्रया परिव्राजकोऽपि सुप्तः, कुमारोऽपि नैतादृशानां विश्वासः कार्य इति कपटनिद्रयैव सुप्तः, तावता इस परिव्राजक उत्थाय तान् सर्वान् कंकपत्र्या मारयामास, यावत्कुमारसमीपे समायाति, तावत्कुमार उत्थाय सतं खहगेन जंघाबये जघान, छिन्ने जंघाडये स तत्रैव पतितः कुमारंप्रत्येवमुवाच हे वत्साहं भुजगनामा चौरः, For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥३१९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ममेह श्मशाने पातालगृहमस्ति तत्र वीरपत्नी नाम्नी मम भगिन्यस्ति अथ वटपादपस्य मूले गत्वा तस्याः शब्दं कुरु ? यथा सा भूमिगृहद्वारमुद्घाटयति, त्वां च स्वस्वामिनं करिष्यति, संकेतदानार्थं मत्खड्गं गृहाणेत्युक्ते कुमारस्तत्खड्गं गृहीत्वा तत्र गतः, स तु तत्रैव मृतः परिव्राजक पोते तो कपटनिद्राथी मृतो. कुमारे जाण्युं के आवानो विश्वास न कराय तेथी ते पण कपटनिद्राथी मूतो तेटलामां परिव्राजके उठीने कंकपत्रीथी सर्वेने मारी नाख्या. ज्यां कुमारनी समीपे आवे छे तेटलामां कुमारे उठीने तेनी बे जंघा खड्गथी छेदी नाखी तेथी ते त्यांज पडी गयो. पड्यो पड्यो कुमार प्रत्ये एम बोल्यो के - हे वत्स ! भुजंगनामे चोर हुँ मारुं आ श्मशानमां भोंय हे तेमां वीरपत्नी नामनी मारी चेन छे. हवे तु वडक्षने थडे जड़ने तेणीने अवाज देजे जेथी ते भोंयरानुं द्वार उघाडी तने पोतानो स्वामी करशे अने पंत्राण देवाने आ मारों खड्ग लड़ जा ' आम क एटले कुमार ते खड्गलइने गयो अने चोरतो एज ठेकाणे मरी गयो. कुमारेण सा शब्दिता, आगता च सा द्वारमुद्घाटयामास मध्ये आकारितः कुमारः, पल्यंके शायितः; उक्तं च तव विलेपनाद्यर्थं चंदनादिकमहमानयामीति, ततो निर्गता सा कुमारेण चिंतितं प्रायः स्त्रीणां विश्वासो न कार्यः यतः शास्त्रे हमे दोषा प्रायो भवंति – माया अलीयं लोभो । मूढत्तं साहसं अलोपतं ॥ निस्संतिया तहच्चिय । महिलाण महावथा दोसा ॥ १ ॥ एतस्यास्तु तथाविधचोरभगिन्या विश्वासो नैव कार्य इति विचित्य कुमारः शय्यां मुक्त्वान्यत्र गृह कोणे स्थितः. For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन ४ ॥३१९॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारे स्मशानमा वड हेठे जड़ पडकारी के तरत ते भोयरानी बहार आवी, कुमारने अंदर बोलावी लइजइने पलंग उपर मूवउत्तराध्यBEराव्या, अने कयु के-'तमारे माटे अंगे लेपन करवा चंदनादि हुँ आणी लावू छु ' आम बोलीने नीकली गइ. DEL भाषांतर यन सूत्रम् अध्ययन४ | कुमारे विचार्यु के-स्त्रीओनो प्रायः विश्वास करवो नहिं केमके-शास्त्रमा स्त्रीओनां प्रायः आ दोषो कह्या छे, माया कपट, अलीक-खोटुं ॥३२०॥ बोलवु, लोभ. मूढख, साहस अविवेक, नृशंसता करता, तादाखिक-हाजरजवाबी, आ वधा महिलाओमां घणेभागे वर्तता ॥३२॥ दोषो छे. तो आ चोरनी बहेननो विश्वास नज करवो. आम धारी कुमार शय्या तजी अन्यत्र घर खुणामां भराइ बेठो. सा बहिगत्वा यंत्रप्रयोगेण शय्योपरि शिलां मुमोच; तया शय्या चूर्णिता. ततः कुमारण सा सद्यः सा-JE क्रोशं केशेषु धृत्वा राज्ञः समीपे आनीता; प्रोक्तः सर्वोऽपि वृत्तांतः; राज्ञा तद्भभिगृहात्समस्तं वित्तमानायण लोकेभ्यो द; कुमारेण सा जीवंती मोचिता; पश्चान्नृपाग्रहात्कुमारेण नृपसुता कमलसेना नानी परिणीता; नृपेण कुमारस्य सहस्रनामा दत्ताः, शतगजा दत्ताः दशसहनण्याश्वा दत्ताः; लक्षपदातयश्च दत्ताः ततः सुखेन कुमारस्तिष्टति. ते वहार गइ, अने यंत्रप्रयोगथी जेवी उपरथी शिला मूकी तेथी पलंगना चूरेचूरा थइ गया. त्यारे कुमारे तरत तेने JE गाळो देतां चोटलो झालीने रोजानी समीपे उभी करी अने सबको वृत्तांत राजाने कही संभळाव्यो. राजाये ते भोंयरां मांथी सघलु धन पोता पासे आणी मगाव्यु, अने लाकोने आप्पु, कुमारे ते चोरनी बेनने जीवती छोडी मूकी, पछी राजानी आजाथी कुमारे, राजानी कुवरी कमलसेनानामनी साथे परण्या तेने राजाए एक ह नार गाम, एकसो हाथी, दस हजार | घोडा अने एक लाख पायदल आप्या आ वैभव पामीने कुमार सुखे रहेवा लाग्या. For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्यदा कलाभ्याससमये यथा श्रेष्टिसुतया सह प्रीतीजाँतासीत्तया मदनमंजर्या कुमारसमीपे दूती प्रेषिता; ad उत्सराध्य- तयोक्तं तवगुणानुरक्ता तवैवेयं पत्नी भवितु वांछति, कुमारेणाप्युक्तं यदाहं शंखपुरं यास्यामि तदा त्वां गृही- भाषांतर यन सत्रम् त्वा यास्यामीति तस्यास्त्वया वक्तव्यं. अथान्यदा तत्र पित्रा प्रेषिता नराः कुमाराकारणाय समेताः, अध्ययन ॥३२॥ कुमारस्तु तेषां वचनमाकर्ण्य पितुर्मिलनाय भृशमुत्कंठितः श्वशुरं पृष्ट्वा कमलसेनया समं चलितः, चलनसमये च ॥३२॥ मदनमंजर्याकारिता, सापि कुमारेण समं चलिता, ताभ्यां प्रियाभ्यां सह सैन्यवृतः कुमारः पथि चलन् यहून भिल्लान सन्मुखमापततो ददर्श. . एक समये पूर्वे कलाना अभ्याससमयमां जे मदनमंजरी नामनी शेठीयानी पुत्री साथे प्रीति थइ हती तेणे कुमार समीपे दूती मोकली कहेवराव्यु के-'तमारा गुणोथी अनुरक्त थयेली आ तमारीज पत्नी थवा चाहे छे.' कुमारे दृतीने Del कयु के-'ज्यारे हुं शंखपुर जइश त्यारे तने लइने जइश. एम कहेजे' एक वखते अगडदत्तना पिताए मोकलेला पुरुषो अगडदत्तकुमारने बोलाववा आव्या. कुमारे तेओनां वचन सांभळीने पोताना पिताने मळवानी अत्यंत उत्कंठाथी श्वशुर महिपतिने पूछी रजा लइ कमलसेनाने साथे लइ चालवा तैयार थया. चालता पहेला पेली शेठीयानी पुत्री मदनमंजरीने पण बोलावी लीधी ते पण तेनीज साथे चाली. एवीरीते बेय प्रियाओ साथे सैन्य सहित कुमार मार्गे चाल्या जाय छे त्यां सामे भिल्लोनुं महोटुं टोळु मळ्यु. तदा कुमारसैन्येन तैः समं युद्धं कृतं, भग्नं कुमारसैन्यं, भिल्लैलटितमितस्ततो गतं, भिल्लपतिस्तु कुमा For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Jररथे समायातः, उत्पन्नबुद्धिना कुमारेण स्वपत्नी रथाग्रभागे निवेशिता, तस्या रूपेण मोहं गता भिल्लपतिः कुमाउत्तराध्य-50 भाषांतर रेण हतः, पतिते च तस्मिन् सर्वेऽपि भिल्ला नष्टाः, कुमारस्तु तेनैवेकेन रथेन सह गच्छाग्रे महतः सार्थस्य JE अध्ययन यन सूत्रम् मिलितः, सार्थोऽपि सनाथ इव मार्गे चलितः, कियन्मार्ग गत्वा साथिकैः कुमारायवमुक्तं कुमार ! इतः प्रध्वर॥३२२॥ 3 मार्गे भयं वर्तते, तनः प्रध्वरमार्ग विहायापरमार्गेण गम्यते, कुमारेणोक्तं किं भयं ? ॥३२२॥ तेनी साथे कुमारना सन्यतुं युद्ध थयु. भिल्लोना हल्लाथी कुमारर्नु सन्य भाग्यु अने भिल्लोए सामान लूट्यो. भिJe | लनो नायक कुंमारना रथ उपर आन्यो त्यारे कुमारने एक युक्ति मूजी, तेणे पोतानी पत्नीने रथना अग्रभागमां बेसाडी तेना रूपथी मोहित थयेला भिल्लपतिने कुमारे तक साधी मारी नारख्यो. ते पड्यो के तमाम बीजा भिल्लो भाग्या. कुमार तो ए एकज रथे आगळ चाले छे त्यां एक महोटो सार्थ मल्यो. आ सार्थ पण अनाथ जेवो लागतो हतो, केटलोक मार्ग कपातां ए सार्थना आगेवानोए कुमारने का के-हवे अहींथी धोरी रस्ते जवामां भय छे माटे आपणे ए 3 धोरीमार्ग छोडी अन्य मार्गे जवू, कुमारे का के-ए, ते कयुं भय छे? ते कधयंत्यस्मिन् प्रध्वरमार्गे महत्यटवी समेष्यति. तस्या मध्ये महानेकश्चौरो दुर्योधननामा वर्तते, द्वितीयस्तु गर्जनं कुर्वन् विषमो गजो वर्तते, तृतीयो दृष्टिविषसों वर्तते, चतुर्थो दारुणो व्याघ्रो वर्तते. एवं चत्वारि भयानि तत्र वर्तते. कुमारः प्राहैतेषां मध्ये नैकस्यापि भयं कुरुत? चलत सत्वरं मार्गे ? कुशलेनैव शंखपुरे यास्यामः ततः सर्वेऽपि तस्मिन्नेवाध्वनि चलिताः, अग्रे गच्छतां तेषां दुर्योधनश्चौरस्त्रिदंडभाग्मिलितः,सोऽपि For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥३२३॥ 我毛毛筆 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पांथोऽहं शंखपुरे यास्यामीति वदन् सार्थेन सार्धं चलति मार्गे चैकः सन्निवेशः समायातस्तदा त्रिदंडिनोक्तं ममोपलक्षितोऽयं सनिवेशो वर्तते, तेनात्र गत्वा मया दध्याद्यानीयते यदि भवतां रुचिः स्यात् तेओ बोल्या के धोरी मार्गमां महोटी अटवी=जंगल आवे छे तेना मध्यमां एक दुर्योधन नामे महान् चोर छे बीजो गर्जना करतो एक मदोन्मत्त मकनो विषम हाथी छे. त्रीजो जेनी दृष्टिथी शेर चडे एवो दृष्टिविष सर्प है, | अने चोथो भयंकर एक वाघ छे आ चार भय ए मार्गमां छे, कुमार कहे एमांना एकेनी व्हीक न राखो, जलदी मार्गे चालो. कुशलथी दशकपुरे पहोंची जशुं पछी सर्वे एज मार्गे चाल्या. आगळ चालतां तेओने दुर्योधन चोर हाथमां त्रण दंड धारण करतो मल्यो. ते पण हुं पण शङ्खपुर जनारो बटेमार्ग छु, एम कडी सहनी साथे चालवा लाग्यो, मार्गे जतां एक स्थान आप्युं त्यां त्रिदंडी बोल्यो के आ स्थान मारुं जाणीतु छे तेथी मे वधा अहीं usra नाखो हुँ तमने कची होय तो तमारे माटे दहीं वगेरे ल आ बधाये कं भले लड़ आवो. सार्थिकेरुक्मानीयतां ? ततस्तेन तदतगत्वा दध्याद्यानीतं, विषमिश्रितं कृत्वा सर्वेषां पावितं मृताः सर्वे सार्थिकाः, अगडदत्तेन भार्याद्वययुतेन तन पीनमिति न मृतः, स त्रिदंडी पुनः सन्निवेशमध्ये गत्वा कियपरिवारयुतो गृहीतशस्त्रः कुमारमारणायायातः, कुमारेण खड्गं गृहीत्वा सन्मुखं गत्वा घोर संग्रामकरणेन सहतः, परिवारस्तु नष्टः, भूमौ पतता तेन चौरेणैवमुक्तमहं दुर्योधनश्चोरः प्रसिद्धः त्वया हतो न जीविष्यामि, परं मम बहुद्रव्यं वर्तते, मम भगिनी जयश्रीनाग्न्यस्मिन् वनमध्ये वर्तते, द्रव्यं त्वया गृहीतव्यं सा च तव पत्नी भविष्यति. For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन ४ ॥३२३॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kobaith.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandie भाषांतर अध्ययन | ॥३२४॥ त्यारे तेणे ते सनिवेशमा जइ दहीं वगेरे आप्यु-अंदर विप मिळावी सर्वेने पायु तेथी साथी सर्वेय मरी गया, अगडउत्सराध्य | दत्ते के तेनी बे स्वीओए न पी, तेथी ते न मुआं, ते त्रिदंडी पाछो ते पडाव मध्ये जइ हथीआरबंध केटलाक परिवार सहित यन सूत्रम् ॥ कुमारने मारवा माटे आव्यो, कुमारे खड्ग खेच्यु सामे धसी घोर युद्ध कयु अने ए त्रिदंडीने हण्यो, एटले तेनी साथे आवेल ॥३२४॥ परिवार भाग्यो, भूमीपर पडतां पडतां ते चोरे एम का के-हुँ प्रसिद्ध दुर्योधन चोर छु तें मने मार्यो हवे हुँ जीवीश नहिं पण | मारुं घणु द्रव्य छे; मारी जयश्री नामनी व्हेन आ वनमांज रहे छे; ते पांसेथी सबलु द्रव्य तारे लइ ले, अने ते पण तारी पत्नी थशे. कुमारस्तत्र गतः, साहूता समायाता, दृष्टः कुमारः, ज्ञातस्तया भ्रातृवृत्तांतः, तया कुमारोऽपि गृहामध्ये आकारितः, तत्र गच्छन् मदनमञ्जर्या वारितः, तथापि स गुहायां प्रविष्टः, ततः सर्वस्वं लात्वा तां च तत्रव मुक्त्वा रथारूढः कुमारोऽग्रे चलितः; कियन्मार्ग यावद्गतेन कुमारेण प्रचंडशुण्डादंडप्रभग्नतरुकोटिनिघृष्टगिरितटः सवेगं सन्मुखमागच्छन् यम इव रौद्ररूपो गजो दृष्टः. ततः कुमारो रथावुत्तीर्य गजाभिमुख चलितः उत्तरीयवस्त्रवेष्टिकां कृत्वा गजाग्रे मुमोच; गजस्तत्प्रहारार्थ शुण्डादण्डमधः क्षिपन यावदीषन्नतस्तावता कुमारस्तदंताग्रद्धये पादौ कृत्वा तत्स्कंधेऽधिरूढः, वज्रकठिनाभ्यां स्वमुष्टिभ्यां तत्कुंभस्थलदयं जघान, कुमारेण प्रकाममितस्ततो भ्रामयित्वा स गजो वशीकृतः; पश्चात्स गजो गौरिव शांतीकृतो मुक्तश्च... कुमार त्यां गयो जयश्रीने तेणे बोलाबी के तरत आवी; तेणीए कुमारने दीठो; तेनी पांसेथी भाइनो सघळो वृत्तांत सांभळी कुमारने पोतानी गुफामा तेडी गइ; त्यां जतां मदनमंजरीए वार्यो तथापि न मानतां गुफामा पेठो; त्यांथी वधु द्रव्य लइ ते स्त्रीने Twiलाकार Song ململان عليا للانتقالالالات ثلثا الانفا ف الننا ق اديان For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन ॥३२५॥ र त्यांज छोडी दइने पोते रथारूढ थइ आगळ चाले छे त्यां थोडो मार्ग जतां ते कुमारे-मूढथी झाडनी डाळो भांगीने | | ते डाळोथी पर्वतनां तटने घरेडतो, वेगसहित सामे पड्यो आवतो यम जेवा भयंकररूपवाळो हाथी दीठो आ वखने उत्सराध्ययन सूत्रम् | कुमारे रथथी उतरीने हाथीने संमुख चाली पोतापासेना उत्तरीय वस्खनो गोटो वाळी हाथी पांसे फेंक्यो. हाथी ते लइने | | महार करवा सुंदनीची करी जरा नम्यो तेयो तो कुमार तेना वे दंताग्र उपर वे पग मूकीने ठेकी हाथीनी कांध उपर ॥३२५॥ 15चडी बेठो, अने वनजेवी कठिन चे महीथी हाथीने ये कुंभस्थळपर आघात कर्या अने आम तेम भमावीने ते हाथीन | एप नरम पाडी वश को. अने ए हाथीने गाय जेवो शांत करी छोडी मूक्यो. तत्रैव पुनः कुमारी रथे निविष्टोऽग्रे चलितः; कियन्मार्ग यावद्गच्छति कुमारस्तावत्कुंडलीकृतलांगूल: खरवेण गिरिप्रतिच्छंदान् विस्तारयन् विद्युञ्चंचललोचनः सर्पोपमां रसज्ञां स्वमुखकुहरानिष्कासयन् सिंहः समाl यातः, तेनापि समं कुमारो युद्धं कृतवान् ; कुमारेण कर्कशप्रहारैर्जजरितः सिंहस्तत्रैव पतितः; कुमारस्त ग्रे चलितः, सर्पोपद्रवोऽपि मार्गे विद्ययैव निवर्तितः, कुशलेन कुमारः स्त्रीयसंयतः शंखपुरे प्राप्तःप्रवेशमहो|त्सवः प्रकामं पितृभ्यां कृतः; सर्वेषां पौराणां परमानंदः संपन्नः; तत्र सुखेन कुमारस्तिष्टति. त्यांथी पाछो कुमार रथारूढ थइ आगळ वध्या. केटलोक मार्ग ओळंग्यो त्यां तो पूंछडानुं कुंडाळू वाळेलु अने पोतानी गर्जनाथी पर्वतनी गुफाओमां पडछंदा फेलावतो, विजळी समान चळकतां नेत्र आम तेम फेरवतो सिंह सामे | सर्पना जेवी जीभ पोताना मुखमाथी बहार निकाळतो सिंह सामे थयो कुमारे तेनी साथे युद्ध कयु. तेमां कठोर प्रहारोथी For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥३२६॥ सिंहने जाजरो करी त्यांज पाड्यो, अने कुमार त्यांथी आगळ चालता थया. वचमां दृष्टिविष सर्प उपद्रव कर्यो ते कुमारे २८ भाषांतर | पोतानी विद्याना बळथी निवारण करीने बेय स्वीओ सहित कुमार कुशले शङ्खपुर आवी पहोंच्या. मा बापे पुरपवेशनो अध्ययन४ महोत्सव को सर्व नगरनिवासिननो परम आनंद पाम्या.. कुमार पण त्यां सुखे स्थित थया. ___अन्यदा वसंते मदनमचर्या सह कुमार एकाक्येव क्रीडावने गतः, तत्र रात्रौ मदनमञ्जरी सर्पण दष्टा मृतेव संजाता; कुमारस्तु तन्मोहादग्नौ प्रविशन् गगनमार्गेण गच्छता विद्याधरेण वारितः, विद्यायलेन सा जीविता; विद्याधरस्तु स्वस्थानं गतः; कुमारस्तया समं रात्रिवासार्थ करिमश्चिद्देवकुले गतः, तत्र तां मुक्त्वोद्योतकरणायाग्निमानेतुं कुमारो बहिर्गतः; तदानीं तत्र पंच पुरुषाः पूर्व कुमारहतदुर्योधनचौरभ्रातरः कुमारवधाय पृष्टावागता इतस्ततो भ्रांताः कुमारछलमलभंतः समायाताः संति; तैस्तु तत्र दीपको विहितः; मदनचर्या तेषां मध्ये लघुभ्रातृरूपं दर्शितं; रूपाक्षिप्तयानया तस्यैव प्रार्थना विहिता त्वं मम भर्ता भव ! अहं तव पत्नी भवामि तेनोक्तं तव भर्तरि जीवति सति कथमेवं भवति ? सा प्राह तमहं मारयिष्यामि. एक समये वसंतऋतुमा मदनमंजरी साथे एकला कुमार क्रिडाचनमा फरता हता त्या रात्री पडी गइ अने मदनमजरीने सर्प डस्यो तेथी ते मुवा जेवी थइ गइ कुमारतो एमां पोतानो अति मोह होवाथी तेनी पाछळ अग्निमां प्रवेश करवा तैयार थता हता त्यां आकाश मार्गे जतां एक विद्याधरे वार्या अने ए विद्याधरे विद्याना बलथी मदमंजरीने सर्पविष उतारीने जीवाडी हवे विद्याधरतो स्वस्थाने गयो अने कुमार ते मदमंजरीनी साथे रात्रिवासार्थ एक देवकुलमा गयो त्यां मदन wamukatawwwsex For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मंजरीने मूकी पोते अजवाळु करवा अग्नि लइ आववा बहार गयो तेटलामां त्यां देवालयमां पूर्व हणेला दुर्योधन चोरना पांच भाइओ कुमारने मारवामाटे पाछळ नीकळेला आम तेम फरता फरता कुमारनो पतो न मळतां आवी उत्तराध्य JEI लाग्या. तेओए ए देवकलमां दीवो प्रकटायो, मदनमंजरीए तेमांना लघ-सहथी नाना-भाइनं रूप जोयु. तेनुं रूप जोइ | Del यन सूत्रम् l |भाषांतर | मोहित थएली मदनमंजरीए तेनी प्रार्थना करी के-'तुं मारो भार था ? ' 'हुँ तारी पत्नी थाउं । तेणे कयु-'तारो अध्ययन ॥३२७॥ पति जीवतां एम केम बने ?' ते बोली के-'एम होय तो हुँ तेने मारी नाखीश. तदानीमग्निं गृहीत्वा कुमारस्तत्र प्राप्तः, आगच्छंतं कुमारं दृष्ट्वा तया तत्रस्थो दीपो विध्यापितः, तत्रा- 1 | ॥३२७|| | यातेन कुमारेण पृष्टमत्रोद्योतः कथमभूत् ? तयोक्तं तव हस्तस्थस्याग्नेरेवोद्योतः, सर छेन तेन तथैवांगीकृतं, मदनमंजर्या हस्ते खड्गं दत्वा कुमारोऽग्निप्रज्वालनार्थ ग्रीवामधश्चकार, तावता तया कुमारवधार्थ खड्गं | प्रतीकारानिष्कासितं, तस्यैतच्चरित्रं दृष्ट्वा चौरलघुभ्रातुर्वराग्यमुत्पन्नं पश्चादस्या हस्तात्तेन खड्गमन्यत्र पातितं, पंचापि भ्रातरस्ततः कुमारालक्षिताः शनैः शनैर्निर्गताः कमिश्चिद्धने गताः, तैस्तत्र चैत्यमेकमुत्तुंग दृष्टं, तत्र सातिशयज्ञानी साधुरेको दृष्टः, तत्समीपे तैः पंचभिरपि दीक्षा गृहीता, ततस्तदाज्ञां पालयंतः संयमे रतास्तत्रैव तिष्टंति, कुमारेण नैतत्किमपि ज्ञातं. अथ कुमारस्तत्र मदनमंजर्या सह रात्रिमेकामुषित्वा प्रभाते स्वगृहे समायातः. एटलामां अग्नि लइने कुमार आव्यो हवे कुमारने आवतो जोइने जे अंदर दीवो हतो ते ठारी नाख्यो. त्यां| Of | कुमारे आवीने पूज्यु के-'अहीं अजवालु केम हतुं ?' तेणीए जवाब दीधो के-ए तो तमारा हाथमा अग्नि हतो | For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेनोज प्रकाश हतो' सरल स्वभाववाळा कुमारे ‘तेमज हशे' एम मानी लीधु. मदनम जरीना हाथमा खड्ग आपीने उत्तराध्य भाषांतर कुमार जेवो अग्निने प्रज्वलित करवा फूक मारवा ग्रीवा जेवी नीचे करे छे तेवोज कुमारनो वध करवा खड्ग म्यानयन सूत्रम् २८ अध्ययन मांथी बहार काढवा मांडयु. आ स्वीन आवं चरित्र जोइने पेला चोरना नाना भाइने वैराग्य उत्पन्न थयो एटले ए ॥३२८॥ झट ए स्त्रोना हाथमाथी तेणे खड्ग झोंटीने अन्यत्र फेंकी दीधु. पांचे भाइओ कुमारने जाण न थाय तेवीरीते धीमेधीमे ॥३२८॥ पानीकळी जइ कोइ बनमां गया. त्यां तेओए एक उंचु चैत्य दीर्छ तेमां पेठा त्यां एक अतिशयज्ञानी साधु दीठो तेनी | ३६ Jt समीपे ए पांचे भाइओए दीक्षा ग्रहण करीने तेनी आज्ञानुं पालन करता ते पांचे त्यांज स्थिति करीने रह्या. कुमारे आ हकीकत कशी जाणी नहि. कुमारतो मदनमंजरी सहित त्यां एक रात्री रहीने प्रभाते पोताने घरे आवी गया. कियदिनानंतरमश्वापहृत एक एवागडदत्तकुमारस्तस्मिन्नेव वने तत्रैव चैत्ये गतस्तत्र देवान्नमस्कृत्य साधवो वंदिता गुरुणा देशना दत्ता, कुमारेग पृष्टं भगवन् ! क एते पंचापि भ्रातर इव साधवः ? कथमेषां वैराग्यमुत्पन्न ? कथमेभिर्यौवनभरेऽपि व्रतं गृहीतं ? एवं कुमारेण पृष्टे गुरुः प्राह सर्व तदीयं वृत्तांतं. कुमारस्तचरित्रं श्रुत्वा युवतीस्वरूपमेव चिंतयति-अणुरज्जति खणेणं । जुवईओ खणेण पुणोवि रजंति ॥ अन्नन्नरागणी रया। हलिहरागुब्ब चलपेमा ॥१॥ इति विचित्य कुमारोऽपि वैराग्यात्प्रत्रजितः. यथासावगडदत्तः प्रतिबुद्धजीवी पूर्व | द्रव्यासुप्तः पश्चाद्भावासुप्तोऽपीहलोके परलोके च सुखी जातः.॥६॥ केटलाक दिवस पछी एक वखते एकलोज अगडदत्त कुमार घोडो खेंची जवाथी तेज बनमा अने तेज चैत्यमां For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie भाषांतर अध्ययन ॥३२॥ * आवी चड्या. त्यां देवोने वंदन करी बेठेला साधुअने पण वंदन कयु. गुरुए देशना उपदेश देवा मांडतां वचमा कुमारे उत्तराध्य पूछ्यु के-आ पांचे भाइओ जेबा लागता पांच साधुओ कोण छे ? एओने वैराग्य केम उत्पन्न थयु? अने एओए| पन सत्रम् १५ आ भरजुवानीमां आव॒ व्रत ग्रहण केम कयु ? आम कुमारे पूछतां गुरुए पांचेनो तमाम वृत्तांत कही देखाड्यो कुमार | JET तो ते चरित्र सांभळीने खीस्वरूप संबंधी आ प्रमाणे विचार करवा लाग्यो-एक क्षणमां स्त्रीओ अनुरक्त थाय छे अने ॥३३०॥ DEI क्षणमा पाछी युवतिभो विरक्त थाय छे जे स्त्री अनन्य रागीणी जणाती होय, तो पण हळदरना रंगजेबी क्षणे क्षणे, चळ छे | मेम जेनो एवीसमजबी. आम विचारी कुमार पण वैराग्यथी प्रबजित दीक्षित थयो. जेम आ अगडदत्त प्रतिबुद्धजीवी, पूर्व द्रव्यामुप्त हतो ते पश्चात् भावासुप्त थइ आ लोकमां तथा परलोकमां सुखी थयो ॥ ५॥ चरे पयोइं परिसंकमाणो । जैकिंचि' पास इह मन्नमाणो॥ लाभतरे जीवियवहईत्ता । पच्छी परिन्नाय मलावधंसी ॥७॥ मूलार्थः-[पयाई]-पद-धर्मस्थानोनेविषे (पदिसंकमाणो -शंका करतो (जकिंचि)-जे काइ (पास)-पासलाजेवां (इह)=आ चारित्रने विषे [मन्नमाणो) मानतो एवो साधु (चरे) विचरे (लाभांतरे)-एक बीजाने लाभसते (जीविअ]-जीवीतने (बूहहत्ता वृद्धि पमाडीने पिच्छा)-पछी (परिझाय) सपरिवाए जाणीने [मलावध'सी)-कर्मरुप मळनो नाश करनार थाय. व्याख्या-साधुः संयममार्गे पदानि धर्मस्थानानि परिशंकमानश्चारित्रदुषणानि विचारयंश्चरेत् , संयममार्गे For Private and Personal use only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ||३३|| www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विहरेत् किं कुर्वाणः ? यत्किंचिदपि गृहस्थपरिचयादिकं प्रमादपदं दुश्चितनादिकं बंधस्य हेतुत्वात्पाशमिव मन्यमानः पुनः साधुर्लाभांतरे जीवितं बृंहयित्वा पञ्चात्परिज्ञाय मलापध्वंसी स्यात्. कोऽर्थः ? एकस्माल्लाभादन्यो लाभो लाभांतर; तस्मिन् लाभांतरे सति ज्ञानदर्शनचारित्रादीनां लाभावशेषे सति जीवितं शरीरं बृंहयित्वाहार भाटकदानेन धारयित्वा पञ्चाल्लाभमाप्तेरभाव (परिज्ञया ) कृत्वेदं मम शरीरं, अतःपरं ज्ञानादिगुणार्जकं नास्तीति परिचित्य प्रत्याख्यानपरिज्ञया भक्तं प्रवाख्यायाष्टकर्मलक्षणमलस्यापध्वंसको निवारकः स्यात्. अर्थः- साधु, संयममार्गे परिशंकमान = चारित्रदूषणोनो वखतो वखत विचार करतो रही, पद- एटले धर्मस्थानोमां विचरे; संयममार्गमां विहार करे. केवीरीते विचरे ? ते कहे छे. गृहस्थपरिचयादिक कंइ पण दुष्ट चिंतन वगेरे प्रमादपद छेतेने बंधनो हेतु होवाथी पाश जेतुं मानतो तेमज लाभांतर एटले एक लाभ करतां बीजो लाभ होय - अर्थात् ज्ञान दर्शन चारित्रादिकनो विशेष लाभ होय तो जीवित शरीरने, बृंहणदइ- एटले आहाररूपी भाई दइने धारण करी पछीथी लाभ प्राप्तिनो अभाव जाणीने अर्थात् – ' हवे मारुं शरीर ज्ञानादिकगुण संपादन करवाने लायक रधुं नथी एम जाणी मलापध्वंसी थाय- अर्थात- प्रत्याख्यानपरिज्ञावडे भक्त = अन्नादिकनुं प्रत्याख्यान लइ अष्टकर्म लक्षण जे मळ छे तेना अपध्वंसक एटले निवारक = मटाडनार थयुं ॥ ७ ॥ अत्र मंडकचौरोदाहरणमुत्तराध्ययनबृहद्वृत्तिगतं कृतं संस्कृतीकृत्य लिख्यते — वेन्नातटे मंडिकनामा तुन्ना For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन४ ||३३८|| Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥३३॥ कश्चौरः परद्रव्यहरणासक्त आसीत्. स च दिवसे राजमार्गमध्यस्थः पादयोमें गंडानीति बद्धपद्दकपादो मुखेन भृशमाक्रंदन तुन्नाकशिल्पमुपजीवति, रात्रौ च व्यवहारिगृहे क्षात्रं दत्वा बहुधनं गृह्णाति, नगरोद्यानांतास्थितभूमिगृहमध्ये कृपके च सर्व क्षिपति, तत्र चास्य भगिनी कन्या तिष्टति, यांश्च भारवाहकानसावानयति तान् भाषांतर अध्ययन४ सर्वानेषा स्वयं पादशौचादियट्टपचारपूर्वकं भोजनपंक्तावुपवेश्य विषमिश्रितभोजनदानेन मारयति, अपरकूपांतनिक्षिपति च. एवं काले व्रजति सति तेन चौरेण तन्नगरं भृशं मुषितं. अन्यदा तन्नगरे भूलदेवो राजा Ind॥३३॥ राज्ये उपविष्टः. | आ संबंधमां उत्तराध्ययननी बृहद्वृत्तिमां आपेलु मंडकचौरनुं उदाहरण प्राकृतन संस्कृत करीने कहेल छे ते दर्शावे छे. _ वेन्ना नदीने तीरे नीरंतर परद्रव्यन हरण करवामां आसक्त, मंडिकनामनो तुणारो=( फाटेलवस्त्रोने तुनीदेनारो) | चोर वसतो हतो, ते दिवसनो राजमार्गना मध्यमां पडयो पडयो-' मारा बेय पगमां गुमडां थयां छे.' आम कहे अने बेय पगे पाटा बांधीने मोढेथी 'वोयरे हायरे' एम बम पाइया करे अने लोकोनां कपडां तूनवानो धंधो करे. ज्यारे | रात्र पडे के झट पाटाबाटा छोडी नाखी वेपारीओना घरमां खातर दइ घणुं धन उपाडी लावे. ए धन लावी नगरनार उद्याननी अंदर आवेला भोयरामां एक कूवो करेलो तेमां सर्व नाखी राखे. अने त्यां तेनी कुंवारी बेनने राखतो ते चोर दररोज चोरेला मालने आ स्थानके पहोंचाडवा जे मजूरोने उपयोगमा लेतो ते तमाम मजूरो अहीं आवे त्यारे सर्वेने आ छोकरी पोते पग धोवाने पाणी वगेरे घणा उपचार पूर्वक भोजन पंगतमा बेसाडो विषमिश्रित भोजन खवरावी For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie मारी नाखती अने पांसेना एक चीजा उंडाकूवामां नाखी देती. एम काळ वीततां आ चोरे आखा नगरने खूब लूटयु. उत्सराध्य-28 भाषांतर यन सूत्रम् एवामा ए नगरनी राजगादी उपर मूलदेव राजा अभिषिक्त थया. २१ अध्ययन४ -स कथं तत्र राजा संघृत इति तदाख्यानमुच्यते॥३४॥ ॥३५॥ उज्जयिन्यां नगर्या सर्वगणिकाप्रधाना देवदत्ता नामा गणिकास्ति, तस्या गृहेऽचलो नाम व्यवहारिपुत्रः परदेशायातो भोगान् भुक्त, मार्गितमर्थ च ददाति, तस्या एव गृहे परदेशायातो राजपुत्रो मूलदेवोऽतिरूपसौभाग्यस्तयैव गुणवृध्ध्या मानितः, अचलः प्रच्छन्नमायाति, भोगानपि च भुक्ते, सा तु मूलदेवेन सहैव प्रेमवती बभूव, परमचलस्तत्स्वरूपं न जानाति. एकदादेवदत्ताजनन्योक्तं हे पुत्रि ! किमनेन मूलदेवेन निःस्वेन ? अचलमेवावर्जय? मूलदेवं त्यज! अचलमेव भज? हवे वचमा ए मूलदेव राजगादो उपर केम आव्या ते कहेयाय छे. उज्जयिनी नगरीमा सर्वगणिकाओमां प्रधान गणाती देवदत्ता नामनी गणिका हती. तेने घरे अचल नामनो एक वेपारीनो पुत्र परदेशथी आवेलो भोगभोगवतो अने ए गणिका मागे ते तेने आपतो. एज गणिकाने घरे परदेशथी आवेलो अतिरुपसौभाग्यवान् मृलदेव नामनो एक राजपुत्र पण अधिक गुणवान् होइ मानीतो थइ रह्यो हतो. अचल छानोमानो आवी भोग भोगवे. पण गणिका तो मूलदेवनो साथेज प्रेमवती इती. पण अचल तेनु स्वरूप जाणतो नहोतो. एक | For Private and Personal use only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir 5 पुत्सराध्य-5 यन सूत्रम् 331BEL ॥३५२ समये देवदत्तानी माताए का के-'हे पुत्रि ! आचा निर्धन मूलदेवने शुं काम राखी बेठी छो ? अचलनेज राजी-| राखी आधीन बनाव अने मूलदेवने त्यजी दे, मात्र अचलनेज भज ? . । देवदत्ता प्राहायं पंडिनोऽनीवसौंदर्यादिगुणवान् , जननी प्राहास्य मूलदेवस्य निःसत्वेन सर्वेऽपि गुणा JE | भाषांतर गताः, अचलस्य च ससत्वेन सर्वेऽप्यौदार्यादिगुणाः संति, यस्यौदार्य तस्य सर्वगुणाधारत्वं, चेन्न मन्यसे तदास्य अध्ययन मूलदेवस्याचलस्यापि चौदार्यपरीक्षां कुछ ? ततो देव दत्तयैका दासी मूलदेवस्य पार्श्व प्रेषिता, एका चाचलस्य ॥३शा पार्श्वे, बयोरपि दासीवयं प्रत्येकमेवमुवाच देवदत्तेक्षुभक्षगं कर्तुमीहते, ततो मूलदेवेनेक्षुयष्टिव्यं गृहीत्वा त्वचमपनीय शकलानि कृत्वा कर्पूरचूर्णवासना दत्वा पवित्रभाजने क्षिप्त्वा प्रेषितानि,, देवदत्ता बोली-'आ मूलदेव पंडित हे नेम अत्यंत सौंदर्यादिक गुणवान छे. ' जननीए का के-'ए मूलदेव निर्धन होवाथी तेना सर्वगुण नष्ट थया. अने अचल मालदार होवाथी तेमां औदार्यादिक सर्व गुणो के. जेमा उदारता होय ते सर्वगुणोनो आश्रय गणाय, जो आ वात तारा मानवामां न आवती होय तो अचल अने मूलदेव बेयना औदार्यनी परीक्षा कर.' त्यारे देवदत्ताए एक दासी मूलदेवपांसे मोकली अने वीजी एक दासी अचल पांसे मोकली बेयने दासीमूखे कहेवराव्युं के- देवदत्ता शेरडी खावा इच्छे छे ? आ सांभळी मूलदेवे शेरडीना चे उत्तम सांठा मगावी छोलावी बचेना गांठा काढीनाखी गर्भगाळानां नानां नानां बटकीयां बनावी तेने कर्पूरचूर्णथी वासित करी स्वच्छ | पात्रमा नाखीने देवदत्ताने मोकल्या. For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir الن عملائنا الطاث فانها भाषांतर अध्ययन४ ..36 | ॥३५॥ देवदत्तांयां प्राह पश्य मूलदेवस्य विवेकितां? तदैवाचलेनेक्षुयष्टिभृतं शकटं प्रेषितं, अक्का देवदत्तांप्रत्याह उत्सराध्य- पुत्रि पश्याचलस्यौदार्य ? सा प्राहाहं किं करिष्यनेन ज्ञाता यस्याः कृते तेनासंस्कृतेक्षुयष्ठिभृतं शकटं प्रेषितं ? यन सूत्रम् अथाका मृलदेवस्य देषिण्यचलपार्श्व गत्वा देवदत्ताया मूलदेवासक्तस्वरूपमूचे, अचलेनोक्तं तथा कुरु यथाहं ॥३२॥ मूलदेवं गृहामि, तयोक्तमवश्यं मया तगोगावसगे ज्ञाप्यः, अचलेन तस्या दीनाराष्टशतं दत्तं, सा गृहे गत्वा देवदत्ताया इदमकथयदचलोऽद्य. त्वरितकार्ये समुत्पन्ने कचिद ग्रामे चलितोऽस्ति, सोऽद्य नायास्यति, तथाप्यद्यदिनसत्कं भाटकं प्रेषितमस्ति, एवमुक्त्वा दीनाराष्टशतं तया देवदत्तायादत्तं. ते जोइ देवदत्ताए नी माने का के-'मूलदेवर्नु सुघडपणुं तथा विवेकीपणु जो.' तेटली वारमा शेरडीन भरेलु Neगाई अचले मोकलेलं आव्यु ते जोइ, तेनी मा बोली के-जो अचलनी उदारता केवी छे ? शेरडीन गाई भरीने मोकल्यु? | देवदत्ता बोली के- अचले शुं मने हाथणी समजी? जेने माटे भोथांसोती शेरडीनुं गाडं भरीने मोकल्यु? देवदत्तानी माना मनमा मूलदेव उपर द्वेष वध्यो. ते अवलपांसे जइने देवदत्तानी मूलदेवमां आसक्तिनु स्वरूप का त्यारे अचल बोल्यो के-'तुं एवो लाग गोठव के हुँ मूलदेवने पकडी शकुं' डोशी बोली के-'ठीक, अवश्य हुँते मूलदेबना भोगनो अवसर तमने जणावीश.' अचले आ डोशीने आठसो दीनार दीधा ते लइ डोशी घरे गइ. देवदत्ताने का के-आज अचल कई उतावळु काम आवी पडयु तेथी गाम चाल्या गया. एटले आजे नहिं आवे: तो पण | | आजनादीनु भाई मोकल्यु छे' आम कहीने आठसो दीनार देवदत्ताना हाधमां आप्या. الدلالالالالالالالالالافتاماقلاالاالطالوت پامالنا ماقلنالك النهج السلفية النظ For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम ॥३४२३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवदत्तापि मूलदेवस्तदानी मेवाकारितः सोऽप्यागतस्तस्याः शयनीये सुस्वा भोगे प्रवृत्तः, तस्यां वेलायां तयाक्कया मूलदेवदेवदत्ता संभोगस्वरूप प्रचलस्य ज्ञापितं, अचलोऽपि सपरिवारस्तत्रायातः, देवदत्ता तं सपरिवारमायातं दृष्ट्वा मूलदेवं शयनीयाधश्चिक्षेपेतस्ततो वस्त्राणि विस्तारयामास च अचलस्तु द्वारि सपरिवारं मुक्त्वा तद्वासगृहांतरर्गत्वा शयनीये उपविष्टः, देवदत्ता तु न किंचिदुवाच नापि तस्य किंचिद्विलेपनाग्रुपचारं चकार. अचलेन शयनीयाधः प्रविष्टो मूलदेवो ज्ञातः, स तस्या इदमूचेऽद्य मयात्रस्थेनैवाभ्यंगस्नाने करिष्यते, देवराविविनाशो भविष्यति, स आख्यत्व पूर्व वस्त्रसहितमपूर्व शयनीयं दास्यामीत्युतत्रैवाभ्यंगनं स्नानं चकार. देवदत्ताए तेज वखते मूलदेवने तेडाव्या अने ते आव्या. ज्यां ते पलंगपर भोगार्थ प्रवृत्त थाय छे ए वेलाये अक्का देवदत्तनीमा ए जइने देवदत्ता तथा मूलदेवना संभोगनुंस्वरूप जणाव्यं. अचल तेज समये परिवारसहित त्यां आव्यो. देवदत्ता अवलने परिवारसहित आवतो जोइ मूलदेवने पलंगनी नीचे छुपावी आम तेम वस्त्रो फेलाववा मंडी. अचल परिवारने वारणाशंसे राखीने पोते तेना वासगृहमां पेसीने तेना शयन उपर बेसी गयो. देवदत्ता कर बोलीचाली नहिं तेम तेने कं विलेपनादिक उपचार पण कर्यो नहि. अचलने पलंगनी हेटळ पेठेला मूलदेवनी खबर पडी गए. तेणे देवदत्ताने क के -' आज तो मारे आ पलंग उपर बेठां बेठां अभ्यंग तथा स्नान करवानां छे' देवदत्ताए कछु के- 'आ शयनीय वस्त्रो बत्रांनो विनाश थशे.' ते बोली उठ्यो - कशी परवाह नहि तारा प्रथमनावस्त्र सहित अपूर्व = शयनीय हुं बनवावी दश, आम कहीने त्यांज अभ्यंग तथा स्नान कर्यो. For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन ४ ।।३४३।। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन४ || तन्मलक्लिनो मूलदेवः शय्याधःस्थ इतस्ततश्चलनचलेन शयनीयवस्नमपसार्य केशेषु गृहीत्वा निष्कासितः, उत्तराध्य-JE उक्तश्च रे याहि त्वं मया जीवन्नेव मुक्तः, अपराधस्तु तवेदशोऽस्ति यत्सांप्रतमेव त्वं मया हन्यसे, परं कृपया यन सूत्रम् त्वं मया मुच्यसे, त्वमपि कदाचिन्ममापराधे ईदृशो भूयाः ? एवमचलेनोक्ते लज्जितो मूलदेवः कुमार उज्ज यिन्या निर्गतो वेन्नातटमार्गे पस्थितः, तदा तस्यैकः पुरुषो मिलिता, मूलदेवेन पृष्टं क्व त्वं यास्यसि ? तेनोक्तं वेनातटे यास्यामि, मुलदेवेनोक्तमहमपि तत्रैव प्रस्थितोऽस्मीति सहैव वजावः, तेनोक्तमेवं भवत्विति द्वावपि सहैव प्रस्थिती, तस्य पुरुषस्य शंवलं वर्तते, मूलदेवस्य किमपि शंबलं नास्ति. अंतराटवी समायाता, द्वावप्पटव्यां प्रविष्टौ. तेना मेलथी मलिन भीनो मूलदेव आम तेम शय्यानीचे हलतो हतो त्यां शयनीय वख खसेडीने अचले माथाना केश पकडी नीकाल्यो अने कथु अरे! जा अहींथी हुँ तने जीवतो छोडी मुकुंछु-तारो अपराधतो एवो छे के 'हुतने हमणांज इणु पण हुं कृपाथी तने मृकी दउं छु. एम जाणीने के तुंपण कोइ समये मारा अपराध वेळाये मारा जेवो PET मोटा मनवाळो था.' आम अचल बोल्यो एटले शरमाइने मूलदेवकुमार उज्जयिनीथी नीकळ्यो अने वेन्नातट मार्गे चालतो थयो. ते खते तेने एक पुरुष मल्यो तेने मूलदेवे पूछ्यु-'तुं क्यां जाय छे.' तेणे कधु के-' वेत्रातटे जाउं छु' मुलदेवे कर्जा-'हुँ पण त्यांज जवा नीकळ्यो छु. आपण बेय साथेज चालीये? तेणे कधु-'भले एमज करीए' हवे ए बन्ने साथे चालवा लाग्या आ पुरुष पांसे शंबलभातु तु.मुलदेवपासे कइ पण भातुं नहोतुं. वचमां महोटी अटवी जंगल आरुघु बेय अटवीमा पेठा. For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन ॥३३७॥ मूलदेवश्चितयत्येष मे शंबलविभागं करिष्यति, स च भोजनसमये खयं भुक्ते, न किंचिद्ददाति, मूल देवस्त्वद्यानेन न किंचिद्दनं, परं कन्ये दास्यतीत्याशयैवाग्रतो गच्छति. एवं दिनत्रयं यावन्मूलदेवेन न किंचिउत्तराध्य-BE ल्लब्धं न किंचिद्भुक्तं. चतुर्थदिने मूलदेवेन स पुरुषः पृष्टोऽत्र क्वचित्प्रत्यासत्रो ग्रामोऽस्ति न वा? तेनोक्तयन सूत्रम् । | मितस्तिर्यक्प्रदेशे नातिदूरे ग्रामो वर्तते, परमहं तत्र न यास्यामि, अग्रे यास्यामीत्युक्त्वा स पुरुषोऽग्रे चलिता, ॥३३७॥ | मूलदेव एकाक्येव तत्र गतः, भिक्षां भ्रमता च मूलदेवन राद्धाः कुलमाषा लब्धाः तान् बनाञ्चले गृहीत्वा मूलदेवो नगराहहिर्याति तावता मासोश्वासपारणे यतिरेको भिक्षार्थ ग्रामांतः प्रविशन मूलदेवेन दृष्टः, भक्त्यु ल्लासेन ते कुल्माषा मलदेवन तस्मै साधवे दत्ताः, साधुरपि द्रव्यक्षेत्रकालभावशुद्धांस्तान गृहीतवान् , मूलदेवेन GE परमया भक्त्या भणितं मूलदेव मनमां चिंतन करे छे के- आ पोताना भातांमांथी मने थोडो विभाग आपशे' पण तेतो टाणुं थयु एटले पोते एकलो खावा लाग्यो मलदेवने कंइज आप्यु नहि. मुलदेवे धार्यु- आज न आप्यु तो काळे आपशे' पण बीजे दि पण तेणे कंइ न आप्यु आम त्रण दिवस आगळ चालतां वीत्या. मूलदेवने कंइ न मल्यु तेथी तेणें कंड खाधुं पण नहि. चोथे दिवसे मुलदेवे पेला साथी पुरुषने पूज्यु के आटलामां दुकडे कोइ गाम छे ! तेणे कयु के-'आम आडे मार्गे थोडे 36 दूर जतां 'गाम तो आवे छे पण मारे ए गाम जवान नथी हुँ तो आगळ चाल्यो जइश' आम बोली ते पुरुष नोखो पडीने आगळ चालतो थयो. मूलदेव एकलो ते गामे पहोंच्यो. भिक्षार्थे भमता मूलदेवने रांघेला कुल्माप अडद जड्या. For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन४ | ॥३३८॥ ते बसना छेडामां लइ मलदेव नगरनी बहार नीकले छे त्यां एक यति एक मासना उपवास करी पारणा माटे भिक्षा मागवा DEL उत्सराध्य-JI गाममा प्रवेश करतो ईटो. मूलदेवना हृदयमां भक्ति उभरातां तेणे ए साधुने पोताना छेडामांना कुलमाषबाफेला अडद आपी यन सूत्रम् दीधा. साधुए पण द्रव्य, क्षेत्र, काळ, तथा भाव, एम चारप्रकारे विशुद्ध आहार समनी ए कुल्माषने गृहण कयाँ मूलदेवे पण परम भक्ति भावना के॥३३८॥ धनाया खु नराण | कुम्मासा हुँति साहुपारणए ।। अथ तत्पदेशाधिष्टाच्या देव्या मलदेवस्योक्तं वत्स! एतस्या गाथाया दितीयार्धे यन्मार्गयसि तद्ददामोति. मूलदेवेन गाथाद्वितीयाधमिदं कृतं-गणिअं च देवदत्तं । दंतिसहस्स च रजं च ॥१॥ देवतया भणितमेतत्तवाचिरेणव भविष्यति. धन्नाण. 'धन्यानां खलु नराणां कुल्माषा भवन्ति साधुपारणायैः-'धन्य जनोना कुल्माष साधुना पारणाना उपयोगमां आवे.' आ वखते ते प्रदेशनी अधिष्ठात्री देवताए का के-' हे वत्स ! ते जे आ अर्धगाथा कही तेना उत्तरार्ध थी तुं जे माग ते ते हुँ तने आपु. मूलदेवे गाथार्नु बोजु अर्थ आ प्रमाणे उच्चाधु- [गभियं०] गणिकां च देवदत्तां दतिसहस्रं च राज्यं च ॥ अर्थात् देवदत्ता गणिका, एक हजार हाथी तथा राज्य, आ गाथा सांभळी देवताए का के-थोडाज समयमां ते माग्यु ते वधुंय तने मळशे. ततो मलदेवो वेन्नातटे गतः, देवकुट्यां सुप्तः, तत्र कार्पटिका अपि बहवः सुप्ताः संति, तेषां मध्ये For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥३३९॥ एकेन कार्पटिकेन स्वमुखे प्रविचंद्रो दृष्टः, तादृश एव स्वप्नो मूलदेवेन दृष्टः, कार्पटिकेन तु प्रातरुत्थाय गुरोः पुरः स्वमः कथितः, गुरुणानि त्व नद्य घृतगुडसहितं मंडकं प्राप्स्यसीति बभाषे, मूलदेवस्तत उत्थाय नगरांतः उत्तराध्य- सवमपाठकगृहे गत्या घनं विनयं कृल्या स्वप्रपाकाय स्वस्वप्रमाचल्यो. तेनोक्तं मप्तमदिवसे तव राज्यं भवि- भाषांतर यन सूत्रम् ष्यतीति. तस्मिन्नवसरे तत्रापुत्रो राजा मृतः, सामंतैमैत्रिभिश्च दिव्यं कृतं, सप्तमे दिवसे मूलदेवसमीपेऽश्वः अध्ययन४ समागल हेषारवं चक्र, स्वष्टा च मलदेवमध्यारोपितवान् , सामंतायैोग्योऽयमिति कृत्वा राज्येऽभिषिक्तः, ॥३३९॥ मलदेवस्व सहस्रदंतिराज्य प्राप्त. तदनंतर मूलदेव वेन्नातटे जइ पहोंच्यो. एक देवकुटीमां मूतो. त्यां केटलाक कापडी पण आवी मृता इता, तेमांना JE एक कापडीए स्वममा पोताना मुखमां प्रवेश करतो चन्द्र दीठो, नेवोज स्वप्न मुलदेवने पण थयो. कापडीए तो सवारे उठोने गुरुपांसे जइ स्वमवृत्तांत कयो. गुरुए तेने 'आजे तने घी तथा गोलयुक्त मंढक भोजन जडशे ' एम कहा. मूलदेव तो त्यांधी उठीने नगरमा गयो अने एक स्वप्न पाठक( स्वानां फल जोनारा) ना घरे जइ आगळ कंइ धन धरीने विनय पूर्वक ए समपाठकयासे पोतानो स्वम कही संभळाव्यो ए सांभळी स्वप्नपाठके कंधु के-' आजथी सातमे दिवसे तारुं राज्य थशे ' तेज अरसामां त्यांनो राजा अपुत्र मरण पाम्यो. सामन तथा मंत्रिओए मळीने दिव्य कर्य, सातमे दिवसे मुलदेव पांसे आवीने घोडे हेपारवहणहणाट कर्यो, पोतानी पीठ उपर मुलदेवने । चडाव्यो, ते उपरथी मामंतो तथा मंत्रीओए 'आ राज्यने योग्य छे' एम ठेरावीने मूलदेवने राज्याभिषेक कर्यो. For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥३४० ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्यांतुं हजार हाथीवाळु राज्य पाम्यो उज्जयिनीनृपेण सार्धं प्रीतिं चकार, अनेकद्रव्यलक्षप्राभृतानि प्रेषितवान्. एकदा मूलदेवेन तत्पार्श्वे देवदत्ता मार्गिता, तेन प्रीतिपरवशेन सा प्रेषिता, मूलदेवेन खपट्टराज्ञी कृता, तथा समं यथेष्टं मूलदेवो भोगान् भुंक्ते. अन्यदा तत्र समुद्रमार्गादचलः समायातः, मांडविकैः शुल्कचौर्याद्धो मूलदेवराज्ञः पुर आनीतः, मूलदेवेन राज्ञा स उपलक्षितः कथितं च त्वं मामुपलक्षयसि ? स आह कहत्व नोपलक्षयति ? त्वं महाराजः, मूलदेबेनोक्तं सोऽहं मुलदेव इत्युक्त्वा बंधनान्मोचितो विसर्जितश्च एवं मूलदेवो निश्चितस्तत्र राज्यं करोति. उज्जयिनीना राजा साथै प्रीति करी तेने लाखो द्रव्यना कींमती अनेक पदार्थो भेट तरीके मोकल्या. एक समये मूलदेवे उज्जयिनीना राजा पासे देवदत्ता गणिका मागी तेज वखते प्रीति परवश उज्जयिनीनृपे तेने मोकली आपी. मूलदेवे ए देवदत्ताने पोतानी पट्टराणी बनावी तेनी साथे मूलदेव यथेष्ट भोग भोगवे छे तेवामां त्यां समुद्रमार्गे थइने अचल आव्यो. मांडवीवाळाओए शुल्क = जकातनी चोरीनो तेनापर अपराध मुकी बांध्यो अने मूलदेव राजानी पांसे लड़ आण्यो. मूलदेव राजाए तेने ओळखयो अने अने क♚ के - ' केम मने ओळखो छो ?' तेणे कां- 'तमने कोण न ओळखे ? तमे तो महाराजा छो ? मूलदेवे कहां के ' तेह्र मलदेव ' आटलं बोली अचलने बंधनमुक्त करावी रजा दीधी. आम मूळदेव निश्चितपणे राज करे छे. स मूलदेवो नगरलोकेभ्यश्चौरपराभवं श्रुत्वान्यं नगररक्षकं कृतवान् सोऽपि चौरं गृहीतुं न शक्तः, तदा For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन४ ॥ ३४० ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir |भाषांतर अध्ययन ॥३४॥ मृलदेवः स्वयं नीलपढे प्रावृत्त्य रात्री निर्गतः, इतस्ततो भ्रमन् यत्र स तुनको मंडिकचौरोऽस्ति तत्रैव.यात स्तस्पार्श्व, च कपटनिद्रया सुप्तः, अपरेऽपि दारियभनाः पुरुषास्तत्र सुप्ताः संति, मंडिकेन तावदाक्रंदं कृतं याव मउत्तराध्य-IJE ध्यरात्रिः समायाता, तदानीं ता उत्थाय सर्वेऽप्युत्थापिताः, मूलदेवोऽप्युत्थापितः, आयातु मया साधै सर्वायन मूत्रम् नपि धनवतः करोमीति वदन् तैः सार्धं पुरांतीत्वैकस्य धनिकस्य गृहे क्षात्रं दत्वा बहनि धनानि निष्कास्य ॥३४॥ | सर्वेषां तेषां शिरसि पोहलिका दत्ताः. तेवामां नगरना लोकोथी सांभळ्यु के गाममा चोरनो बहू पराभव थायछे. ए सांभळीने नगररक्षककोटवाळ बोजा को. ते पण चोर पकडवामां शक्तिमान् न थयो तेथी राजा मूलदेव पोते काळांवस्त्र पहेरी रात्रना नीकळ्या. आम तेम | फरतां फरतां ज्यां पेलो मंडिक तुन्नारो चोर छे त्यां आची लाग्या. अने त्यां तेना पडखामां कपटनिद्राथी मूना. बीजा पण अन्य कापडी दारिद्यना मार्या पुरुषो त्यां मूता हता. ज्यां मध्यरात्री थइ त्यां मंडिके बूम पाही ते सांभळतां बधा जागी उख्या. मूलदेवने पण उठाड्या. चालो मारी साथे, तमने बधायने हुं धनवान् बनावी दउं. एम बोलतो ते बधा सहित शहेरमां भमीने एक धनिकने घरे खातर दीधुं. अंदरथी घणु धन निकालीने ते बघायने माथे गांठडीयो चडावी. । मूलदेवस्य शिरस्येकः पोहलिको दत्तः, सर्वानप्यग्रे कृत्वा स्वयं खडगपाणिः पृष्टौ स्थितः, श्मशानांतर्भू|मिगृहे सर्वेऽपि प्रवेशिताः, ततः पोलक धनानि कुपांतनिक्षेप, सर्वेषामपि तेषां पादशौच तत्रस्थया चौरभ For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् | गिन्या दत्तं, स्वयं पादक्षालनं चक्रे, मूलदेवपादक्षालनावसरे तत्पादसौकुमार्यादिना कोऽप्ययं महान् राजेति ज्ञातवती, नायं मया विनाश्य इति मत्वा तया मूलदेवस्य नेत्रसंज्ञा कृता, ततः स भूलदेवो नष्टः, पश्चात्तया चौरस्य स्वभ्रातुरुक्तमेष पुरूषो नष्टः भ्रातापि गृहीतखड्गस्तत्पृष्टौ चलितः मूलदेवोऽपि तं प्रत्यासत्रमागतं दृष्ट्वा कचित्स्थाने बब्बरपाषाणशिवलिंगं स्वोत्तरीयवस्त्रेणाच्छाद्य स्वयमंतरितः स्थितः. भाषांतर अध्ययन४ ॥३४२॥ ॥३४२॥ साथे मुलदेवने माथे पण एक गांठडो दीधो. बधायने आगळ करी पोते पाछळ उघाई खड्ग लइने पाछळ चाल्यो आवे छे. स्मशानमां आवी एक भोयरानी अंदर बधायने पेसार्या. बधी पोटलीओनां धन अंदरना कुवामां फेंकी दीधां. आवेला सर्वमनुष्योने पग धोवा पाणी त्यां रहेली चोरनी व्हेने आप्यु ते वडे बधाये पग धोया. पण ज्यां मलदेवने पग धोतां जोया त्यां तेना सुकुमार चरण निहाळी तेणे आ कोइ महान् राजा होय एम ते जागी गइ. मनमां तेणीए विचार्य के मारे आनो तो नाश न करवो. आम धारीने तेणीए मूलदेवने आंखेगी इसारो को ते उपरथी मूलदेव | नाठो, पाछळथी पोताना भाइ चोरने तेणीए कह्यु के-'आ पुरुष नाठो ' भाइ पण हाथमां खड्ग लइ तेनी पुंठे चाल्यो. मूलदेवे जेवो तेने नजदीक आवतो जोयो के तरत एक देवालयमा बब्बरपाषाणर्नु शिवलिंग हतुं ते उपर पोतानु उत्तरीय वस्त्र ढांकी पोते संताइ बेठो. कोपांधेन चौरेण तत्रागत्य स एवायं पुरुष इति कृत्वा शिवलिंगमस्तके कंकलोहमयखड्गप्रहारोदत्ता, For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् | तच्छिवलिंगं द्विधा कृतं, हतो मया स पुरुष इति जानन् स्वस्थाने गत्वा सुप्तः, मूलदेवोऽपि स्वस्थाने | गत्वा सुप्तः, प्रभाते स मंडिकतुन्नकश्चतुःपयांतः समागत्य तथैवाकंदं कुर्वन स्थितः, राज्ञा च प्रभाते स्वपु| रुषः स आकारितः, राजपुरुषेषु तत्रायातेषु तेन चिंतितं तदानी मया स पुरुषो न हतः, किंतु दृषदावेव खड्गप्रहारो दत्तः, यो नष्टः पुरुषः सोऽवश्यमत्रयो राजा, तेनैव ममाहातुं पुरुषाः प्रेषिताः यामि तावत्तत्र, अथेतो | न नष्टुं शक्यते, यद्भाव्यं तद्भत्विति चिंतयन्नेबासौ तैः पुरुषैः शनैः शनैर्ऋ जन् राजसभायामानीतः, राज्ञाप्यसावभ्युत्थानादिना मानितः, अर्धासने निवेशित आश्वासितश्च, स्वनेपथ्यसमस्तस्य नेपथ्यो दत्तः, स्वभोज्यसमं भोजनं कारितं. भाषांतर अध्ययन४ ॥३४३॥ | ॥३४३|| कोपांध चोरे त्यां आवीने 'तेज आ पुरुष' एम जाणीने ए शिवलिंग माथे कंकलोहमय खड्गनो प्रहार देतां शिवलिंगना बे भाग थइ गया, चोरतो में तेने मारी नाख्यो-एम जाणी पोताने स्थानके जइने मूतो, मूलदेव पण पोताने स्थाने जाने मूह रद्या. सबारमां पाछो ते मंडिक तुनारो चोर चोतरे आवीने बृम पाडतो बेठो. राजाए सवारे पोतानां माणसो मोकली तेने बोलायो. ज्यारे राजपुरुषो तेने बोलावा आव्या त्यारे तेणे कल्पना करी के ते वखते ते पुरुपने नथी हण्यो किंतु पाषाणमांज खड्ग महार देवाणो. जे पुरुष नाठो ते अवश्य अहींनो राजा होय. BE अने तेणेज आ टाणे मने बोलाववा आ पुरुषो मोकल्या छे, त्यारे हवे त्यां तो जाउं. हवे अहींथी भागी शकाय | तेम नथी. जे भावी हशे ते भले थाय. आची रीते चिंतन करतो ए चोर धीरे धीरे चालतो राजपुरुषोए राजानी For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन४ ॥३४४॥ सभामां आण्यो. राजाए पण तेने अभ्युत्थान आदिकथी सन्मान आप्यु. पोताना अर्धासन उमर बेसाडी तेनी आश्वासना उत्सराध्य-३६ करी. पोताना पोशाक जेवो पोशाक तेने दीयो. पोतानी साथे पोताना समान तेने भोजन कराव्यु. यन सूत्रम् अन्यदा तस्योक्तं स्वभगिनी मम देहि? तेन सा दत्ता, राज्ञा परिणीता प्रेमपात्री कृता च. अन्यदा राज्ञोक्तं ॥३४४॥ द्रव्यं मे विलोक्यते, त्वं धनी स्वकीयोऽसि, ततो मे द्रव्यं देहि ? चिंता तु तथैवास्ति, तेन राजमागितं द्रव्यं | दत्तं, स राजपाचे सुखेन तिष्ठति. अन्यदा पुनरपि राज्ञा द्रव्यं मागितं, तेन दत्तं, राज्ञा तस्य महान् सत्कारः कृतः, पुनरपि राज्ञा द्रव्यं मागितं, तेनापि तथैव दत्. एवमंतरांतरा राज्ञा सत्कारपूर्वकं तस्य द्रव्यं गृहीतं, भगिनी पृष्टाथास्त्यस्य किंचिद्धनं, सा प्राहायं रिक्तीकृतस्त्वया, न.तःपर नस्य किंचिद्धनमस्तीति श्रुत्वा राज्ञासौ मंडिकश्चौरः शुलायामारोपिता, अत्रायमुपनयो यथायमकार्यकार्यपि मंडिकश्चौरो मूलदेवेन यावल्लाभं रक्षितस्तथा धर्माधिनापि संयमलाभहेतुकं जीवितं रक्षणीयं, यावत्कालं संयमलाभस्तावत्कालं जीविरामौषधादिना रक्षणीयं, नान्यथेति. __अने राजमां राख्यो. वखत आव्ये कयु के-तमारी बेन मने दीओ तेणे आपी. राजाए परणीने पोतानी मोतिपात्र al करी. एक वखते राजाए कम्यु-मने द्रव्य जोइए छइए तमे धनी छो अने हवे तो अमाराज छो तो मने द्रव्य आपो. तेणे राजाए माग्युं तेटलुं धन आणी आप्यु. राजापासे ते मुखेयी रह्यो छे. एम करतां राजाए बीजीवार द्रव्य माग्यु, ते तेणे लावी आप्यु थोडावखत. पछी बळी त्रीजीवार राजाए द्रव्य माग्यु तेबारे पण राजाए माग्यु तेटलुं द्रव्य लावीने For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailasagarsur Gyarmandie उत्तराध्ययन सूत्रम् भाषांतर अध्ययन४ ॥३४॥ ॥३४५॥ तेणे आप्यु राजा हमेशां तेनी बराबर बरदास्त करावे तेम पोते पण तेनो सत्कार करे. अने वचे वचे चचे द्रव्य मागे ने ते पण आपे, राजाए पोते परणेली ते चोरनी बहेनने पूछयु के-तारा भाइ पासे हजी केटलुक धन छे. तेणीए जवाब दीयो के-'हवे. तद्दन ए खाली थइ गयो. द्रव्य हतु ते तमाम. तमने आपी चुक्यो हवे तेनी पासे गुफामां कशुं धन नथी. आ वात सांभळीने राजाए ते मंडिक तुमारी चोरने शूलीए चडावी दीधो. अहीं आ कथामां सौर समजवानो ए हे के-जेम ए अकार्यकारी मम्डिक चोर मलदेवे ज्यां मुधी लाभ हतो त्यांसुधी तेनी सरभरा करी राख्यो तेम धर्मार्थी पुरुषे पण सयमलाभनुं हेतुभूत जीवित रक्षणीय छे, यावत्काळ पर्यंत संयम लाभ आपे तावत्पर्यत जीवित औषध सेवनादिकवडे रक्षणीय छे अन्यथा नहि. ॥७॥ छंदं निरोहेर्ण उवेई मोक्खं । औसे जहा सिक्खियवम्मधारी ॥ पुवाई वासाई चरप्पमत्तो। तम्ही मुंणी खिप्पैमुवेइ मुंक्खं ॥८॥ मुलार्थः-(जहा -जेम (सिक्खिअयम्मधारी) शिक्षा पामेलो घटले बस्तरने धारण करनारो [भासे अश्व शिक्षकनी इच्छा प्रमाणे चालवाधी निर्भयस्थाने पहोंचे छे. तेम मुनि (छद निरोहेण स्वछंदपणाना निरोधे करीने (मुफ्स) मोक्ष प्रत्ये (उबेइ)-पामे छे, तेथी हे साधु (पुवाई वासाई पूर्व बाँसुधी ( अप्पमत्तो)-प्रमाद रहित (चर विहार कर तम्हा)-तेम करवाथी (मुणी -मुनि (खिप्पं) शीघ्र (मुक्ख मोक्षने (उबेर)-पामे . व्याख्या-साधुश्छंदोनिरोधेन मोक्षमुपैति, गुर्वादेशं विनैव प्रवर्तनं छंदस्तस्य निरोधो निवारणं तेन गुर्वा For Private and Personal use only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie ज्ञया प्रवर्तनेन निर्भयस्थान प्रामोति, को यथाशिक्षितवर्नधार्यश्वो यथा, यथाशब्दावार्थे, शिक्षा जातास्येति | उत्तराध्य शिक्षितः वर्म सन्नाहं धरतीति वर्मधारी, सन्नाहधारकः एतादृशः सुशिक्षितः, कवचधारी चाश्वोऽश्ववारशिक्षायां JEभाषांतर यन सूत्रम स्थितछंदोनिरोधेन स्वेच्छागमननिषेधेन मोक्ष प्राप्नोति, निर्भयस्थानं प्राप्नोति, शत्रुभिहेतुं न शक्यते, हे अध्ययन साधो ! पूर्वाणि पूर्वप्रमितानि वर्षागि यावदप्रमत्तः सन् चर ? साधुमार्गे विहर ? तस्मादप्रमत्तविहारान्मुनिः । ॥३४६॥ |॥३४६॥ | क्षिप्रं मोक्षमुपैति. ॥८॥ ___अर्थ:-साधु, छदोनीरोधवडे मोक्ष पामे छे. गुरुना आदेष विनाज प्रवर्तवु ते छंद कहेवाय तेनो निरोध करवो अर्थात् गुरुनी आज्ञाथी प्रवृत्ति करतां निर्भयस्थान प्राप्त थाय छे. यथा-जेम कवचधारी, शिक्षित केळवेलो अश्व जेम घोडासवारनी तालिममा रही स्वेच्छागमनना निषेधयी मोक्ष निर्भयस्थान पामे तेम-' हे साधो ! पूर्वपरिमित वर्षो सुधी अप्रमत्त थइ विचरो. साधुमार्गमा विहार करो, आथी अप्रमत्त विहारथी मुनि शिघ्र मोक्ष पामे छे. अत्र कुलपुत्रशिक्षिताश्वद्धयोदाहरणं-एकेन राज्ञा द्वयोः कुलपुत्रयोः शिक्षणार्थमश्वी दत्तौ, एकेन कुलपुत्रेण प्रथमो धावनवलनादिकलाः शिक्षितः द्वितीयस्तु द्वितीयेन कुलपुत्रेण न शिक्षितः संग्रामोवसरे प्रथमोऽ|श्वोऽथक्वः पोत इव संग्रामसागरमवगाद्य पारं गतः, सुखी बभूव. द्वितीयस्तु संग्राममध्य एव मृतः, अत्राJE] यमुपनयः-यथासावश्वः कुलपुत्रेग शिक्षितस्तथा धर्मार्थ्यपि स्वातंत्र्यविरहितो गुरुशिक्षितः शिवमाप्नोति. For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥३४७॥ अत्रेचे कुलपुत्रोए शिक्षित बे घोडान दृष्टांत-एक राजाए बे कुलं पुत्रोने शिक्षण माटे वे घोडा आप्या. एक कुलपुत्रे पहेला घोडाने दोडवू वळवू वगेरे कलाओ शीखत्री बीजा घोडाने बीजा कुलपुत्रे कइ न शीखव्यु संग्रामनो प्रसग hdभाषांतर आव्यो त्यारे शिक्षित घोडावाळो कुलपुत्र पोताना घोडाबडे जराय थाक बिना वहाणथी जेमतेम संग्रामसागरना पारने २७ अध्ययन४ पाम्यो ज्यारे अशिक्षित घोडाचाळो कुलपुत्र संग्राममध्येज मराणो, अहीं दृष्टांतनो सार ए छे जे-जेम कुलपुत्र घोडाने शिक्षण दीधुं तेम धर्मार्थी पण स्वतंत्रता रहित थइ गुरुथी बरावर शिक्षित थाय तो ते कल्याणभागी बने छे. ॥३४७॥ से पुर्वमेवं ने लभिज पच्छा । एसोवमा सासयवाइयाणं॥ वीसीर्य सिढिले आउंयंमि । कालेवेणीए सरीरस्सै भे ॥ ९ ॥ मूलार्थः-(स) ते पुरुष (पुञ्चमेव) प्रथमनी जेम (पच्छा)=पछी पण (न लभेज) अप्रमसपणाने पामतो नधी (एसा उवमा) एम | कहे ते (सासय वाह आण)-शाश्वत वादीनी उपमा-उक्तिछे पटले एवो ते मोनो निश्चित नियम छे केमके (आउ अम्मि आयु. ज्य (सिठिले)-शिथिळ थये सते अने (सरीरस्समेए-शरीरनो मेद एटले नाश (कालेवणीए)-काळ नजीक आवे सते ते (वीसीआई)= खेदपामे छे. तेधी प्रथमथीज प्रमादनो त्याग करचो. व्याख्या-य पुरुषः पूर्वमेवाप्रमत्त्वं न लभेत, स पुरुषः पश्चादापि पूर्वमिवाप्रमत्रत्वं न लभेत, एषा शाश्वतवादिनां निरूपक्रमायुषामुपमायुक्तिः, यादृशो जीवः पूर्व स्थाचादृशः पश्चादपि स्यादिति शाश्वतवादिनो वदं For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ||३४८॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तीत्यर्थः आयुषि शिथिले जाते सति शरीरस्य भेदेन कालेनोपनीते सति मरणे निकटे समागते सति विषदति विषण्णो भवति, अतः कारणात्पूर्वमपि पचादपि च न प्रमाद्यं. अर्थ:- जे पुरुष प्रथमज अप्रमत्तत्व प्रमादरहितपणा — ने नथी पामतो ते पुरुष पश्चात् = पाछळथी पण पूर्वनीपेठे अप्रमत्तत्वनो लाभ मेळवी शकतो नथी, आतो शाश्वतवादी जनोनी निरुपक्रम आयुषमाननाराओनी उपमा = एक प्रकारनी बाचोयुक्ति छे, जेवो जीव पूर्वे धाय तेवो पश्चात् पण थायः एम शाश्वतवादी बोले छे, पण ज्यारे आयुप शिथिल बने त्यारे शरीरना भेदवडे काळे करी मरण समीपे आवे ते वारे ए सीदाय है; एटला कारणथी पूर्वे अने पाछळथी पण सर्वथा प्रमाद न करवो ॥ ९ खिष्पं र्न सक्केई विवेगंमेउं । तम्हां समुंहाय पहीय कीमे ॥ समे लोगं समया मँसो । अप्पाणुरक्खी चरअप्पत्तो ॥ १० ॥ मूलार्थ:- हे प्राणी ! (खिष्प) = शिघ्रपणे (विवेग' एउ) विवेक पामवा ( न सकेइ) तु शक्तिमान नथी ( तम्हो) = ते माटे (समुट्ठाय ) = सम्यक् प्रकारे (कामे) - कामने ( पहाय ) - तजीनें (लोगं) = सर्व प्राणीना समूहने (समया) - समतापणे ( समेच्च) = जाणीने (मधेसी) मोक्षने इच्छनार थर (अप्पाणुरक्खी) = आत्मानु रक्षण करनार तथा (अप्पमत्तो ) = प्रमाद रहित (चर) -तु विचर. व्याख्या - हे भव्य ! क्षिप्रं शीघ्रं विवेकं द्रव्यभावेन संगत्यागरूपमेतुं प्राप्तं भवान्न शक्नोति न समर्थो For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन ४ ॥३४८॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यः यन सूत्रम् ॥३४९॥ भवति, तस्मादात्मरक्षी सन्नप्रमत्तश्च सन् त्वं विचर ? किं कृत्वा ? समुत्थाय सम्यगुद्यम विधाय, पुन: किं कृत्वा ? कामानिद्रियविषयान् प्रकर्षेण हित्वेति, प्रहाय त्यक्त्वा, पुनः किं कृत्वा ? लोकं प्राणिसमूहं समया भाषांतर |शत्रुमित्रोपरि साम्यभावेन समित्य सम्यग् ज्ञात्वा. ॥ १० ॥ अध्ययन अर्थ:-हे भव्य ! यदि तुं क्षिपशीघ्र द्रव्यभावेकरी संात्यागरूप विवेकने प्राप्त करवा शक्तिमान नथी तो आत्म-15 रक्षी थइ अप्रमत्त बनीने विचर. केम करीने? ते कहे छे-सम्यक उद्यम करीने, तेमन काम इन्द्रियोना विषयोने प्रकर्षेकरी तहन त्याग करीने अने लोक माणिसमूहने शत्रुमित्रादिने समभावे जाणीनेप्रमादरहित रही विहार कर. ॥१०॥ अत्र ब्राह्मणीकथा-एको ब्राह्मणः परदेशे गत्वा सर्वशास्त्रपारगो भूत्वा स्वदेशे समायातः, तस्य प्रकामं JE पांडित्यं दृष्ट्वैकेन ब्राह्मणेन कन्या दत्ता, तेन परिणीता स च लोके भृशं दक्षिणां लभते, धनवान् जातः. तस्या भार्यायास्तेन बहुन्याभारणानि दत्तानि, सापि तानि स्वांगे परिहितान्येव रक्षति, न चांगात्कदाचिदप्युतारयति, तेनेकदा तस्याः कथितमेष तुच्छग्रामोऽस्ति, नित्यमाभरणपरिधानमयुक्तं, कदाचिद्यद्यत्र चौराः समा| यांति तदा तवांगकदर्थना भवति, सा प्राह यदा चौराः समायास्यति तदा त्वरितमंगादाभरणान्यहमुत्तारयिष्यामि. अन्यदा तस्या गृह एव चौराः समायाताः, सा तदानीं निविडमंगलग्नान्याभरणानि स्वांगादुत्तारयितमसमर्था तथैव स्थिता, तस्याः साभरणान् पाण्याघवयवांश्छित्वा तैहीताः, सा च महती कदर्थनां प्राप्य मृता. For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir __-अत्रे ब्राह्मगनी कथा कहे हे-- उत्तराध्या एक ब्राह्मण परदेश जइ सर्वशाखनो पारंगत बनी पाछो स्वदेशमां आव्यो. तेनुं अत्यंत पांडित्य जोइ एक ब्राह्मणे भाषांतर यन सूत्रम् तेने पोतानी कन्या दइ अने परणावी. आ पंडित लोकोमांखूब दक्षिणानो लाभ लेतां धनवान् बन्यो, तेथी तेणे पोतानी अध्ययन४ भार्याने घणां घरेणां घडावी दीधां, ते स्खी पग वां घरेणां हमेशा पहेरीज राखती राते पण अंग उपरथी उतारती ॥३५०॥ नहिं ते जोइ तेना पतिए कई के-श्रा नानु हलकुं गाम छे, नित्य घरेणां पहेरी राखवा योग्य नथी, कदाचित् जो JE अत्रे चोरो आवी पडे तो तारा अंगने अडचण थाय, ते बोली ज्यारे चोर आवशे त्यारे हुं तुरत अंग उपरथी आभरणोJE उतारी नाखीश, थयु एम के-खरेखर तेनेज घरे एकदा चोरो आव्या, ते टाणे ए सी ढरीते अंगे धारेलां आभरणो | RE अंग उपरथी उतारवा असमर्थ होइ एमज उभी रही. ए समये चोरोए तेणीना अंगमाथी झट न उतरी शके तेवां घरेणां तेणीना हाथ पग वगेरे अवयवो कापीने उतार्या अने उतापळे लइ गया. आधी ते ब्राह्मणी बहु कदर्थना=पीडा पामीने मरी गइ. एवमन्येऽपि प्राकृतकर्मविपाककाले विवेकमेतुं न शक्नुवति 'समिञ्चलोगं समया महेसी । अप्पाण रक्खी चरपमत्तो।' अत्र प्रमादपरिहारापरिहारयोर्वणिग्महिलादयोगदाहरणं-एका वणिग्महिला प्रोषितपतिका निजवपुःशुश्रुषापरा | गृहव्यापारेषु प्रमत्ता दासादीनां यथार्ह भोजनाद्यपददाना तेर्मुक्ता. ततो गृहागतेन भर्ना स्वगृहे भृत्यभव|हानि दृष्टा सा स्त्री निष्कासिता. ततो वणिजा यहद्रव्येणान्या परिणीता, सा च न स्वदेहशुश्रूषां करोति, For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥३५१ ॥ www.kobatirth.org यथार्ह भृत्यान् भोजयंति कार्येषु नियुंजयंती च भर्त्रा गृहस्वामिनी कृता. इहैव जन्मनि प्रथमस्त्रीवत्प्रमादादोषान् प्राप्नोति, अप्रमादाद द्वितीय स्त्रीवद् गुणानवाप्रतीत्युपनयः. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एम अन्य पण पूर्वे करेलां कर्मोना विपाककाळे विवेक न मेळवी शके तो पूर्वोक्त ब्राह्मणीनी दशा पामे – [ समिच्च ] अत्रे प्रमाद परिहार तथा प्रमादनो अपरिहार करवाथी शुं परिणाम आवे ते बाबत वे वणिक् स्त्रीओनुं उदाहरण कहे छेएक वणिक्रमहिला तेनो पति विदेश प्रवासे गयो त्यारे रोज पोताना शरीरनीज शुश्रूषा करवामां तत्पर रहेती, घरकाममा प्रमत्ता=गाफल, दासदासी वगेरेने खावापीवानुं देवामां पण चे दरकार रहे तेथी तेने छोडीदीधी अने वधां चाल्यां गयां, घणी परदेशथी घरे आव्यो त्यारे घरे नोकर चाकरनी हानि जोड़ ते स्त्रीने काही सूकी. ए वाणीयो पुष्कळ द्रव्य खरचीने बीजी परणी लाव्यो ते स्त्री शरीर संस्कार टापटीपमां बहु ध्यान न देतां नोकर चाकरथी काम लेवामां तेमज तेओने खावापीवानुं देवामां हमेशां जराय ममाद = गफलत न राखे तेथी धणीए तेने आखा घरनी अधिष्ठात्री=मालिक बनावी. आज जन्ममां प्रमाद राखवाथी पहेली स्त्रीनीपेठे दोषपात्र गणाय छे अने अप्रमाद रहेवाथी बीजी स्त्रीनीपेठे गुण पमाय छे. ए आ दृष्टांतनो उपनय = फलितार्थ जणाय छे. मुंहुं मुहं मोहंगुणे जैयंतं । अणेगंरूवा समणं चरतं ॥ फासा फुंसंती असमंजसं । नैं तेसुं भिक्खूं मणेसा मे ॥ ११ ॥ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन ४ ॥३५१।। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥३५२ ।। www.kobatirth.org मंदी ये फास बहुलोहणिजा । तहॅप्पगारेसु मँणं न कुजा ॥ रक्खेज कोहं विणइजे माणं । मायं न सेविज्जं पहिज्जे लोहं" ॥ १२ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूलार्थ:- ( मुहं मुदु) - वारंवार (मोहगुणे ) - मोहना गुणो जे शब्दादिक तेमने (जयंत) = जीतता (चरंत) - संयममार्गमां विचरता एवा (समण) = मुनिने (अणेगरुवा) = कठोर (फासा ) - शब्दादिकविषयों [असम जसं च] - प्रतिकुलपणेज (फुसंती) = स्पर्श करे छे [ ते सु )-ते पियो उपर (भिक्खू - साधुए (मणस्ग)- मनवडे पण ( न पउस्से ) - प्रद्वेष करवो नहिं. ११ मूलार्थ:-मदा-मंद (य) - अने (बहुलोहणिजा ) = अतिलोभ (फासा) =शब्दादिक विषयो छे, तेथी ( तहपगारेसु ] तेथा विषयोने विषे पण (मण)]-चित्त [न कुजा] =न लगाडवु (कोहं)= क्रोधनु (रक्खिज) = निवारण कर, तथा ( मायं) = मानने (विणइज) = दूरकरबो तथा [माय) = मायाने ( न सेवे)= सेववी नहिं, तथा (लोह]-लोभनो ( पयहिज्ज) - त्याग करवो. व्याख्या - च पुनः साधुस्तथाप्रकारेषु विषयेषु मनो न कुर्यात् तथा प्रकारेव्विति कीदृशेषु ? स्पर्शाः ? कीदृशाः संति ? तानाह-स्पर्शा मंदा वर्तते, मंदयंति मूर्षयंति विवेकिनमिति मंदाः पुनः कीदृशाः स्पर्शाः ? बहुलोभनीया बहु लोभयति लोभमुत्पादयंतीति बहुलोभनीयाः पुनः साधुः क्रोधं रक्षेत्, पुनर्मानं विनयेन गर्व स्फेटयेत्, मार्या न सेवेत्, लोभं प्रसयात्परित्यजेत् ॥ १२ ॥ अर्थः- मुहुर्मुहुः वारंवार मोहगुणने जीती अनेकरूपे चरता श्रमण = साधुने स्पर्श इंद्रियार्थ - रूपरसादिक, स्पृशे छे, ते समंजस = साऊँ नहीं, माटे ए स्पर्श = त्रिषयोने भिक्षु मनथी पण चितवे नहिं ॥ ११ ॥ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन४ ॥३५२॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥३५३॥ www.kobatirth.org अर्थ:- पुनः साधु, तथा प्रकार = तेवा प्रकारमा विषयोमां मन न करे. केवा प्रकारना ? ते कही देखाडे छे - स्पर्श इंद्रियार्थ, मंद = विवेकिने मंदकरनारा, तेज बहु अत्यंत लोभनीय लोभ उत्पन्न करनारा होय छे तेथी तेमां मन न करे. वळी मान= गर्वने विनयवडे करीने फेडीनाखे अने माया कपटने न सेवे, तेम लोभने प्रकर्षे करी त्यजे. ॥ १२ ॥ जे' संख्या तुच्छ परप्पवाई । ते' पिज्जदोसाणुगया परंझा || ऐए अहंम्मुत्ति दुगंछेमाणो । कंखे गुंणे जीव सरीरभेओन्ति बेमि ॥ १३ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूलार्थ:- (जे जेओ (संख्या) - संस्कृत = कृत्रिम शुद्धिवाळी (तुच्छ तुच्छ [परप्पवाह) = परतीर्थिको छे. (ते) ते ओ = (पिज दोसाणुगया ] = रागद्वेषने पामेला है, तथा (परज्झ चरवश छे तेथी ( एप )= तेओ ( अहमुत्ति) = अधर्मी के एम (दुगेछमागो जुगुप्सा करतो (जाव )=यांसुधी ( सरीरमेओ ) = शरीरनो नाश थाय त्यां सुधी ( गुणे ) - गुणोनीज ( कंखे ) = अभिलाषा करे व्याख्या - ये परप्रवादिनः संस्कृतास्तुच्छा यदृच्छाभिधानतया निःसारास्ते ' पिज्जदोसाणुगया ' प्रेमद्वेषानुगताः संनि, पुनस्ते परज्झाः परवशा रागदेवग्रस्ताः संनि, एतेऽधर्महेतुत्वादधर्मा इत्यनुना प्रकारेण जुगुप्समानस्तत्परिचयं निवारयन्, निंदायाः सर्वत्र निषेधत्वान निंदन गुणान् ज्ञानादिन् कांक्षेनाभिलषेत्' कथं यावत् यावच्छरीरभेदः शरीरस्य भेदः पतनं स्यादित्यर्थः. अर्थ :- जे परप्रवादी= परजनोनी निंदा करनारा, एवाज संस्कारथी तुच्छ =यटच्छा नामक निःसार ए प्रेम तथा द्वेष For Private and Personal Use Only 849 भाषांतर अध्ययन ४ ॥ ३५३॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobairthorg Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie उत्तराध्य-३ यन मृत्रम् ॥३२४॥ बडे अनुगत युक्त होइ परवशता भोगवता अर्थात् रागद्वेषादिग्रस्त बनेला, ए अधर्मना हेतु होवाथी अधर्म कहेवाता आवी रीते जुगुप्सामानतेना परिचयने निवरता, निंदा सर्वत्र निषिद्ध छे तेथी निंदा न करता गुण ज्ञानादि गुणोनी आकांक्षा करे, भाषांतर अभिलाषा राखे. क्यां सुधी ?-ज्यां सुधी शरीरभेद आ शरीरनु पतन थाय तावत्पर्यंत निंदा परहरि ज्ञानादि गुणोने संपा- DF अध्ययन४ दन करवामां नित्य तत्पर रहे. एम ९ बोलु छु. आम सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे . ॥ १३ ॥ ॥३५४॥ इति प्रमादाप्रमादयोयोपादेयसूचकमसंस्कृतप्रथमपदोपलक्षितमसंस्कृताख्यं चतुर्थमध्ययनं संपूर्ण. आवीरीते प्रमाद तथा अप्रमादनी क्रमे करी हेयता परित्याज्यता तथा अप्रमादनी उपादेयताअनुष्ठेयतानुसूचक. आरंभमां प्रथम ' असंस्कृत' ए पदथी उपलक्षित आ असंस्कृताख्य चतुर्थ अध्ययन संपूर्ण थयु. इति श्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रार्थदीपिकायामुपाध्यायश्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिशिष्यलक्ष्मीवल्लभगणिविरचितायां चतुर्थमध्ययनस्यार्थः संपूर्णः श्रीरस्तु ॥ इति श्रीमदउत्तराध्ययनमूत्रार्थदीपिका मामनी उपाध्याय श्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिना शिष्य लक्ष्मीवल्लभगणिए विरचित दृचिमां चतुर्थअध्ययननो अर्थ संपूर्ण थयो For Private and Personal use only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ अथ पञ्चमध्ययनं प्रारभ्यते ॥ अथ पूर्वाध्ययने यावरछरीरभेद इति ब्रुवता मरणकालेऽप्यप्रमादः कार्य इत्युक्तं, सच मरणविभाग भाषांना उत्तराध्ययन सूत्रम् ज्ञानतः स्यात् , अतो मरणभेदमाह, इति चतुर्थपञ्चमयोः सबंधः. ३१ अध्ययन५ पूर्व अध्ययनमां ' यावत् शरीरभेद' एम कहीने मरणकाले पण अप्रमाद करवो एम मृचव्यु.एं तो मरण विभा॥३५॥ ॥३८५. गर्नु ज्ञान होय तो बने माटे मरण भेद कहे छे. आवी रीते चोथा तथा पांचमा अध्ययननी संबंध [संगति] कही. अपर्णवंसि महोहंसि । एंगे तिपणे दुरुत्तरं ॥ तत्थ एंगे महापण्णे । इमं पण्हमुंदाहरे ॥१॥ मूलार्थः-(पगे)-केटलाएक गौतम आदि महापुरुषो (मोहाहंसि-महोटा प्रवाहवाळा अने [दुरुत्तरे]-दुःखे करीने तरी शकाय एवा (अणव सि-संसाररूपी समुद्रने ( तिपणे )-पार पामेला, परंतु (तत्थ )तेमां महापण्णे)-मोटी प्रशावाळा तीर्थकर तो [एगे]-एक | महावीरस्वामी (इम]=आ (पण्ई)-प्रश्नने (उदाहरे) कहे ॥ १॥ व्याख्या-एके महापुरुषा गौतमादयो घातिकर्मरहिता अर्णवात्मसारसमुद्रातीः पारं प्राप्ताः, कीदृशादर्ण| वात? महोघात् , महानोघो यस्य स महौघस्तस्मात् , अत्र प्राकृतत्वाद्विभक्तिव्यत्ययः. हे जम्बू! तत्र देवमनुष्यसभाJe. यामेकस्तस्मिन् काले, अत्र भरतक्षेत्रे एकस्य तीर्थकरस्य विद्यमानत्वादेको महावीरः, इन प्रश्न पृष्टव्यार्थरूपं पश्न | योग्यं वाक्यमुदाजहे उदाहलवान , कथंभूत एकः ? महाप्रज्ञः, महती केवलात्मिका प्रज्ञप्तिर्यस्य स महाप्रज्ञः. ॥१॥ For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अर्थः-सुधर्माखामी जम्बू स्वामीने कहे छे के-एके-केटलाक महापुरुषो घातिकर्मरहित गौतमादीक आ महोघ=3E उत्तराध्य-JE महोटा ओघवाळा दुरुत्तर=भतिदुस्तर आ अर्णव-संसार समुद्रथी तीर्ण-तरी परपारने पाम्या. (अहीं प्राकृत होवाथी विभक्ति- भाषांतर यन सूत्रम् व्यत्यय छे) तत्र देवमनुष्य सभामां ते काळे आ भरतक्षेत्रमा एक तीर्थकर महामज्ञ महोटी केवला प्रज्ञा जेने उत्पन्न अध्ययन थयेली रवा महावीर हता तेणे पृष्टव्यार्थरूप आ प्रश्न उदाहृत कर्यो. ॥ १ ॥ ॥३५६|| ॥३५६॥ संतिमे अदुवे ठाणी । अक्खाया मारणंतिया ॥ अकाममरणं चे सकाममरणं तहा ॥२॥ मूलार्थः-(मारणतिभा)-मरण अवस्थामा थनारा (इमे अ =आ कहेवाशे एवा (दुवे)चे (ठाणा)-स्थानो (अक्खाया)-तीर्थकरोए क३८ हेला (संति)-छे ते आ प्रमाणे-[अकाममरण] बाळमरण (चेव )-निश्चयथी [तहा] तेथी [सकाममरण]-पडित मरण ॥२॥ व्याख्या-इमे प्रत्यक्ष द्वे स्थाने आख्याते, जीवनिवासाश्रयावाख्यातो. पुर्व तीर्थकरैः कथितो, कीडशे JE द्वे स्थाने के? मारणांतिके मरणमेवांतो मरणांतस्तत्र भवं मारगांतिकं, तस्मिन् मरणावस्थायां जाते इत्यर्थः. |ते हे स्थान के ? एकमकाममरणं च पुनरन्यथा सकाममरणं, अकाममरणं बालमरगं, सकाममरगं पंडित मरणं, चैवशब्दो पदपुरणार्थी. मरणं, ससदशधा-आवीचीमरणं १ अवधिमरणं २ अंतिम ३ वलय ४ वशात ५ अंतःशल्य ६ तद्भव ७ पंडित ८ बाल . मिश्र १० छद्मस्थ ११ केवली १२ विहायस १३ | गृद्धपृष्ट १४ मतपरिज्ञा १५ इंगिनी १६ पादपोपगमन १७ चेसि. الظالماقتا قالها الفالله لا اله الا الله For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir انتقاما भाषांतर अध्ययन५ ॥३५७॥ अर्थ:-जीवनिवासाश्रय आ चे प्रत्यक्ष स्थान पूर्वे तीर्थकरोए कहेला के. केवां ते स्थान ? ते कहे हे-मारणांतिकउत्तराध्य- मरणावस्थाए थतां, ते स्थान कयां ? एक अकाममरण तथा अन्यत् चीजुसकाममरण, तेमां अकाममरण बालमरण अने यन सूत्रम् सकाममरण पंडितमरण आख्यात-कहेल छे ॥ २ ॥ मरण १७ प्रकारनां ले-आवीची मरण १ अवधिमरण २ अंतिम ३ वलय ४ वशात ५ अंतःशल्य ६ तद्भव ७ पंडित ८ बाल ९ मिश्र १० छमस्थ ११ केवली १२ विहायस १३ ॥३५७|| ad| गृद्धप्रष्ट १४ मतपरिक्षा १५ ईगिनी १६ पादपोपगमन १७ ए प्रमाणे मरणना सत्तर प्रकार दर्शावेला छे तेमांना मुख्य बाल तथा पंडिन बे प्रकार अनुक्रमे दर्शावे . बालाणं अकामं तु । मरणं असंभवे ॥ पंडियाणं सामंतु । उकोसेणं संयं भवे । ३ ॥ मूलार्थ:-बालाण) बालअविवेकी, तेमनु [अकाम तु]-इच्छा रहित [मरण)-मरण (असई) वारंवार (भवे)-थाय छे. (तु)-परंतु (पंडिआण) चारित्रवाळाओनु (सकाम) सकाम अभिलाष सहित मरण (उकोसेण') उत्कृष्टस्थितिवाळा जीवने आधीने (सई भवे)= एकजवार थाय छे ॥ ३॥ व्या०-बालानां मूर्खाणामकामं, अकामेनानीप्सितत्वेन म्रियतेऽस्मिनित्यकाममरणमसकृद्धारंवारं भवेत् , तु पुनः पंडितानां सकामं, सह कामेनेप्सितेन म्रियतेऽस्मिन्निति सकाममरणं, यस्मिन्नागते सत्यसंत्रस्ततयोत्सवभूतत्वेन JEसकाममिव सकामं, तादृशं मरणं पंडितानामुत्कृष्टं सकृदेकवारमेव भवेत् , उत्कर्षेणोपलक्षितं केवलिसंबंधीत्यर्थः, | जघन्येन तु शेषचारित्रवतः सप्ताष्टवागन् भवेत. ॥३॥ For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थः-बाल-मूर्खनुं अकाममरण होय केमके ते अकाम=इच्छा पूर्वक नहिं किंतु अणगमता परे के तेथी तेनु अउत्सराध्य-३ काममा JE काममरण कहेवाय. अने ते वारंवार थाय छे. तु पुनः पंडितोर्नु तो सकाममरण थाय, अर्थात् पोते नाहता होय तेम |JE भाषांतर यन सूत्रम् थाय, ते आवे त्यारे जराय संत्रास न होबाथी उत्सवतुल्य जणाबाथी ते सकाममरण कहेवाय छे. पंडितोनु तेवु मरण उत्कृष्ट अध्ययन५ मनाय छे केमके ते सकृत एकज वार थाय छे. उत्कर्षोपलक्षित केवली संबंधी अने निकृष्ट शेष चारित्रवानने सात आठवार थाय. ॥३५॥ | ॥३५८॥ तथिमं पढमं ठाणं । महावीरेणं देसियं ॥ कामगिके जहाँ बोले भिसं कूराई" कुवइ ॥४॥ मूलार्थ:-(तत्थ) तेमा (इर्म आ (पढमंठाण)=पहेलु स्थान (महावीरेण)=श्रीमहावीरस्वामीए (देसिअ)-देखाडयुं छे-कधुं छे (जहा)= ते आ प्रमाणे-कामगिद्धे) काममा आसक (बाले)-मूर्ख (भिस)-अत्यंत (कूरो)-क्रूरकर्मोने (कुब्वह) करे . ४ व्या-तत्र तयीईयोर्मरणयोर्मध्ये प्रथम स्थान, महावीरेणाकाम मरणं देशितं कथितं, तथा येन प्रकारेण कामगृध्राः PEकामेष्विद्रियसुखेषु गृद्धाः कामगृद्धा विषयिणो जीवाः, अत एव बाला मूर्खा भृशमत्यर्थ वारंवारमक.ममरणमतिकुaailते, अशक्तावपि मनसा दुःकर्माणि कृत्वा मुहुर्मुहुर्मियंत इत्यर्थः, कीदृशा मूर्खाः ? क्रूराः ॥४॥ अर्थ:-तेमां के प्रकारना मरणमा प्रथमस्थान महावीरे अकाममरण फयु छे, जे प्रकारे कामगृद्ध एटले इन्द्रिय मुखमां कालसावाळा तथा क्रूर, अतएव बाल-मूर्खा विषयी जीयो अत्मसम्वारंवार अकाममरण पाम्या करे छे, शक्ति | बिना मनथी दुष्कर्मो करी फरी फरीने मरे छे. ॥४॥ For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥ ३५९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जे' गिद्धे कामभोगेसु । एंगे कूडाय गच्छई ॥ नें में दिट्ठे" परे लोएं । चक्खुदिष्ठों इमो रई ॥ ५ ॥ मूलार्थः – (जे =जे (एगे)=कोइ ( कामभोसु कामने विषे ( गिद्धे ) -लपट थयेलो होय ते ( कूडाय) - कूट- नरके ( गच्छइ )=जाय छे (मे)=अमे (परलोष = परलोक (न दिट्ठे) = जोथो नथी, (इमा रह) = कामभोग सेववाधी उत्पन्न थती रति तो (चक्खुदिठ्ठा) = चक्षुधी जोयेली छे. व्या० – कामभोगेषु य एकः कश्चित्कूरकर्मा पुरुषः कूटाय नरकस्थानाय नरकस्थानं गच्छति, नरकं व्रजतीत्यर्थः, कूटं प्राणिनां पीडाकरं स्थानं, द्वितीयास्थाने चतुर्थी प्राकृतत्वात्. अथवा य एकः कश्चित्कामभोगेषु गृद्धः स कूटाय गच्छति, मृषाभाषादि कूटं, तस्मै प्रवर्तते, तं प्रति कश्चिद्वक्ति-भो त्वं धर्म कुरु ? तदा स वक्ति यथा परलोको न दृष्टः, इमेयं रतिः कामभोगसुखं रतिः चक्षुर्दष्टा प्रलक्षं दृश्यमाना वर्तते ॥ ५ ॥ " अर्थ :- कामभोगमां जे रच्यापच्या रहे छे ते क्रूरकर्म करनार पुरुष नरके जाय छे. क्रूर एटले प्राणीओने पीडाकारकस्थान, अहीं 'कुटाय ए द्वितीयाविभक्तिना अर्थमां चतुर्थ विभक्ति छे, कारण के प्राकृतमां एम थइ शके छे. कूट पदनो बीजो अर्थ दर्शावे छे, अथवा जे कामभोगमां गृद्ध=सतृष्ण रहे छे ते कूट मृषाभाषण वगेरेमां प्रवर्ते छे. तेने कोइ पूछे के- 'तमे कंइ धर्म करो' त्यारे ते उत्तर आपे छे के–'मने परलोक देखातो नथी. मने तो आ चक्षुवी रति एटले काम भोगथी थता सुखमां प्रीति प्रत्यक्ष अनुभवाय छे. ५ हत्थागया इमे कामी । कालिओ जे अणागयां ॥ को जाणई परे लोएँ । अस्थि व नैत्थि वा पुणो ॥ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन५ ॥३५९॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् भाषांतर अध्ययन५ ॥३०॥ ॥३६०॥ मूलार्थ:-(इमे =आ [कामा]-कामभोगो (हत्थागया) हाथमां प्राप्त धयेला छे, अने (जे आणागया)-जे आगामी प्राप्त थवाना छे ते तो (कालिआ]-काळे करीने थवाना छे. (पुणो)=घळी [को]-कयो प्राणी (जाणइ)-जाणे छ ? के (परेलोए)-परलोक (अस्थि वा नत्थि वा ) छे के नथी? ६ व्या०-इमे कामाः कामभोगा हस्तागताः, हस्ते आगता हस्तागनाः स्वाधीना वतेत इत्यर्थः. येऽनागता आगामिजन्मनी भविष्यतीत्यागामिनः, कामभोगसुखास्ते कालिकाः काले भवाः कालिका अनिश्चिताः, को जानाति परलोकः परभवोऽस्ति वा नास्ति वेति भावः ॥३॥ अर्थः-आ काम कामभोग हस्तागत हाथमां आवेला अर्थात् स्वाधीन रह्या हे. तेम जे अनागत आवताजन्ममां थवाना होय ते आगामी काम भोग सुख ते तो कालिक एटले ते काले थवाना होवाथी अनिश्चित छे. कोण जाणे छे जे परलोक छे के नथी. जणेण संद्धि होक्खामि । ईह बाले पंगभई॥ कामभोगाणुराएणं । केसं संपडिवजई ॥७॥ मूलार्थः-(जणेण सद्धि ) लोकनी साथे (होक्खामि ) हुं थइश-दु पण भोगभोंगवीश. (इह)=आ प्रमाणे (बाले) अज्ञानी माणस (पगम्भइ)-पिठो थइने बोले छे, वळी ते (कामभोगाणुराएण) कामभोगना अनुरागे करीने (केस)-क्लेशने (संपडिवज्जइ-पामे छे. व्या०-ततः स कामभोगरसगृद्धः पुमान् बाल इति प्रगल्भते, इति धाष्टर्थ गृह्णाति, इत्युक्त्वा धृष्टो भवति, | इतीति किं ? अहं जनेन साध भविष्यामि, अयं कामभोगसुखभोक्ता जनो मादृशो भविष्यति, तेन सार्धमहमपि بالالالالالالالالالفالطاك الله الله قال الشلالات الت For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie 3G भाषांतर अध्ययन५ ॥३६॥ | मपि भविष्यामि. स बाल इत्युक्त्वा कामभोगानुरागेण काम भोगस्नेहेन क्लेश में प्रतिपदाते, क्लेशमिह परत्र च पुत्सराध्य- बाधात्युक्तं दुःख भजत इत्यर्थः ॥ ७ ॥ यन सूत्रम् अर्थः-तदनंतर ते कामभोगना सुखमां लोलुप बनेलो पुरुष 'हुजनोनी साथे थइश' अर्थात् आ जनो कामभोग सुखना ॥३६॥ भाक्ता मारा जेवाछे तेमनी साये हुँ पण थइश' एम बाल-अज्ञ बनी प्रगल्भ थवा जाय धृष्टता धारण करे ले. ए बाल-मूख . JEI एम बोलीने कामभोगना अनुरागवडे कामभोगमा अत्यंत स्नेहने लीधे क्लेश पामे छे. अर्थात आलोकमा तथा परलोकमां सथा | परत्र पण वेदनायुक्त दुःख भोगवे छे. ॥ ७ ॥ JEतेओ से' दंड समारभइ । तसेसु थावरेसु ॥ अट्टाए वै अणट्ठाए भूयॉम विहिंसई ॥ ८॥ मलार्थ:-[ तो ते कामभोगना अनुरागथी (से)-ते जीव ( तसेसु)-त्रसप्राणीओने विषे ('भने [ थावरेसु स्थावरने विषे (अट्ठाए)-प्रयोजनविना [दंड] मन, वचन अने कायदंडने (समारभइ आरंमे छे, अने (भूअग्गाम) पाणी भोना समूहनी (विहिसइ)- | | हिंसा करे छेद व्या-ततः कामभोगानुरागात्स धाष्टर्यवान् त्रसेषु च पुनः स्थावरेषु, दंड समारभते. मनोदंडवाकायैः पीडां समारभते, अर्थेन द्रव्योत्पादननिमितं अनर्थन निःप्रयोजनेन वा भूतग्रामं भूतानां पृथिव्यप्तेजोवायुवनसत्येकेंद्रियबींद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रियपंचेंद्रियादिजीवानां वर्ग विशेषेण हिनम्ति. For Private and Personal use only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन५ ||३६२॥ ___ अर्थ:-तेथी काम भोगना अनुरागथी ते धृष्ट बनेलो पुरुष, त्रस=दुःखथी त्रास पामी एक स्थानथी स्थानांतरे जवानी उत्तराध्य-SEL गतिशक्तिवाळा पाणी द्वींद्रियादिक जीव, तथा स्थावरमां दन्डने आरंभे छे, एटले मनवाणी काया बढे पीडा आदरे छे, ते पन सूत्रम् अर्थेकरी एटले द्रव्य उत्पादन निमित्ते अथवा अनर्थे करी, एटले कंइ पण प्रयोजन विना भूतग्राम पृथ्वि, जल, तेज, वायु, वन स्पति, एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, केंद्रिय चतुरिंद्रिय तथा पंचेद्रिय जीववर्गनी विशेषे करी हिंसा करे छे. ॥३३२॥ ____ अनाजपालकथा यथा-एकः पशुपालो वटतलेऽजासुसुप्तासु तत्पबागि छिद्रीकुर्वनश्वापहृतेन कुतश्विदायातेन कस्यचिद्राज्ञः पुत्रेण दृष्टो भणितश्चारेऽहंयस्य कथयामि तदक्षीणि त्वं पातयिन्यसि किं? तेन तत्प्रतिपन्नं, राजपुत्रेण स खनगरे नीतः. एकदाऽश्ववाहनिकाथै गच्छतो राज्ञोऽक्षिणी राजपुत्रप्रेरितः स पातयामास, पश्चात्स राजपुत्रो राजा जातः, | पशुपालस्यैवमुवाच वरं वृणु ? तेनोक्तं यत्राहं वसामि तदेव ग्रामं देहि? राज्ञा तद् ग्रामं तस्य दत्तं, तेन च तत्र घनास्तुंबवल्ल्य आरोपिताः, निष्पन्नेषु च तुंबेषु गुडेन सार्ध तुंबखंडानि खादन गायति, यथा-अहमपि सिक्खिज्जा । सिक्खियं न निरत्ययं ॥ अहमट्टपसाएण | खजाए गुडतुंबयं ॥ १॥ तेन हि पशुपालेन वटपत्राण्यनर्थाय छिद्रितानि, | अक्षीणि पुनरर्थायोत्पाटितानि, उभयत्रापि प्राणवधः कृत इति.॥८॥ आ विषयमा अजपालनी कथा कथा कहे -एक पशुपाल वगडामां बडना झाड तले बाकरां मूतां हतां त्यां वडना JE पानमां छीडां पाडतो हतो त्यां एक राजपुत्र घोडो तांणी आववाथी आवी चड्यो. तेणे तेने दीठो अने तेने कयु के-'अरे ! الفالنافلامسالان ایتالیا و الی rune For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie अध्ययन५ |हुं कहु तेनी आंखो पाडीश के ? ' तेणे हा पाडी तेथी राजपुत्र पोताने शहेर तेने लइ गयो. एक बखते घोडो खेलाववा | उत्तराध्य- 17 जतां राजानी आंखो राजपुत्रना कहेबाथी ते पशुपाले पाडी. पछी ते राजपुत्र राजा थयो अने ए पशुपालने कयु के–'वरमा-३ भाषांतर पन सूत्रम् 6 गीले ' त्यारे ते पशुपाले का के-'जे गाममा हुरहुं छुते गाम मने आपो.' राजाए ते गाम ए पशुपालने आप्यु ए पशु- 138 ॥३६३॥ पाले ए गामनी सीममा चारे कोर घाटी तुंबडानी बेल वावी तेमां असंख्य तुंबडीओ थइ पडी ते लइने ते पशुपाले रोज गोळनी It॥३६३॥ साथे तुंबडीना कटका खावा मांढया, खातां खातां गातो-[अ] ' अर्थ अने अनर्थ पण शीखवो, शीख्यु कंइ निरर्थक यतुं नी | अर्थानर्थ प्रसादवडे आ गोळ तथा तुंबडा खवाय हे, ' ने पशुपाले बहना पानमां कंड पण प्रयोजन विना छीडां पाड्यां अने राजानी आंखो अर्थमाटे फोडी, आ बेय कार्यमा प्राणिवध कर्यो. | हिसे बाले मुसाबाई । माईल्ले पिसुंणे संढे ॥ भुंजमाणे सुरं मंसं। "सेयं मेअंति' मन्नई" ॥९॥ मूलार्थः-(हिंसे)-हिंसक स्वभाववाळा (बाले) अशानी [मुसाबाद) मृपावादी थाय छे, तथा (माइल्ले)-मायावी, तथा (पिसुणे)-पिशुन, BE तथा [स]-शठ तथा (सुरं मदिरा अने (मस)-मांसने [भुजमाणे-खातो सतो [ए]-आ [सेअ]-कल्याणकारक छ [ति]-ए |प्रमाणे (मन्नइ-माने छे. ॥ ९॥ व्या०–स बालो हिंस्रो हिंसनशीलो भवति, पुनर्मूषावादी भवति, माइल्लो मायाकारकः कपटवान् , पिशनः BE परनिंदकः, पुनः शठो वेषाधन्यथाकारणेन धूर्ती मूर्खा वा, सुरां मांसं च भुंजानोऽपि मे ममैतत् श्रेयः कल्याणमिति मन्यते, अत एव शट इत्यर्थः ॥९॥ For Private and Personal use only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥ ३६४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थः – ते बाल=मूर्ख=हिंस्र = हिंसनशील बने छे, वळी मृषावादी=खोडं बोलनार थाय छे, माइल = माया = कपट करनारो तथा | पिशुन परनिंदा करनारो तथा शढ पटले वेववादला करी लोकोने धूतनारो मूर्ख, सुरा पीये, मांस खाय, तो पण आ मारुं श्रेय= सारुं करनारु छे एम माननारो अतएव शठ थाय छे. ९ कायेण वयैसा मंत्ते । वित्ते' गिद्धे अ इस्थिसुं ॥ दुहुओ मेलं संचिइ । सिसुँणा मूलार्थ:- [कायसा)- कायावडे ( वायसा ) = वचनवडे (मत्ते) = गर्विष्ट, तथा [वित्ते ]= धनने विषे (अ)= अने ( इत्थिसु )= स्त्रीओने (गिद्धे) = आसक्तिवाळो (दुइओ) - राग अनें द्वेष ए बन्ने प्रकारे करीनें (मल) - कर्ममळनो (संचिणइ = संचय करे छे बांधे छे. (सिसुणागुब्व) =जेम अणसीयो (महिअ ) माटीवडे खरडाय छे. टियं ॥ १० ॥ For Private and Personal Use Only विषे ध्या०-पुनः कीदृशः सः? कायेन मत्तः, पुनर्वचसा मत्तः मपुनर्वित्ते द्रव्ये गृद्धो लोभी च पुनः स्त्रीषु गृद्धः, कायेन मत्तो यत|स्ततः प्रवृत्तिमान् बलवानहं रुपवानहमिति चितयन् वा वचसात्मगुणान् कथयन मुखरोऽहमिति वा चिंतयन् उपलक्षणत्वान्मनसा मदोन्मत्तो धारणादिशक्तिमानहमिति वा चिंतयन् स 'दुहओ ' द्वेधा द्वाभ्यां रागद्वेषाभ्यां मलं संचिनुते मलसंचयं कुरुते, कः कामिव ? शिशुनागोऽसो द्वींद्रियजीवविशेषो भूनागो यथा मृत्तिकां संचिनुते, स च स्निग्धतनुतया बहिः प्रदेशे शरीरे रेणुभिरवगुंठ्यते, अंतश्च मृत्तिकामेवाश्नाति ततथ मृत्तिकातो बहिर्निंस्सरन सूर्यकिरणैः शुष्यन् क्लिश्यति, विनिश्यति, विनश्य च मृत्तिकागा एव वृद्धिं कुरुते तथा सोऽपि मलं कर्ममलं वर्धयति, कर्मणेवोत्पद्यते पुनः कर्ममलवृद्धि करोतीत्यर्थः ॥ १० ॥ 窕飛美美時 भाषांतर अध्ययन५ ॥ ३६४ ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन५ अर्थः-काय-शरीरे तथा वचने मत्त; अर्थात् शरीरना मदयी जीवोने दमे तथा वचनना मदथी लोकोने तरछाडे, विशधनमा उत्तराध्य- | गृद्ध एटले अति लोभी पुनः स्त्रीओमां पण गृद्ध-लोलुप कायाना मदमां ज्यां त्यां'हुरूपवान् ' 'हुँ बलवान ' एम कहेतो पन सत्रम् २ फरे, तेम वचन मदमां'वक्ता''हुँ विद्वान् ' इत्यादिक पोतानाज गुण गाया करे, मदोन्मत्त बनी सर्वत्र 'हुंज धारणादि॥३६५॥ शक्तिमान् छु' आम मनमा चिंतन करतो दुहुनोति चेय प्रकारे रागद्वेषवडे मलनो संचय करे छे, केनी पेठे जेम शिशुनाग=अणशिया (द्वींद्रियजीवविशेष ) चोमासामा नीक के जेने भूनाग कहे के ते चेय प्रकारे मृतिकानोज संचय करे छे. तेनुं शरीर | बहु सुंचालु होय छे तेथी बहार माटीथी लीपातो जाय छे अने अंदर पण माटी खातो जाय छे. अने मृत्तिकाथी बहार नीकळे | तो मूर्यना तापथी सुकाय अने तरफडीने विनाश पामे एटले विनाश पामीने पण माटीमांज उमेरो करे छे तेम ए मूर्ख पण | Jt | कर्ममलनेज वधारे छे एज कर्भवडे पोते उत्पन्न थाय छे पाछो कर्ममलनीज वृद्धि करतो रहे छे. ॥१०॥ तेओ पुटो आयंकेणं । गिलाणो परिप्पड़ ॥ पंभीओ परलोगैस्स । कमाणुप्पेहि अप्पणो ॥ ११ ॥ | मूलार्थ:-तिओ) पछी (आयंकण)-मृत्य करनारा रोगवडे (पुठो पराभव पामेलो. तथा (गिलाणो)-ग्लान, तथा (परलोगम्स)-परलोकथी भय पामेलो, तथा (अपणो) पोताना (कम्माणु-पेहि अशुभकर्मनो विचार करतो ते मनुष्य पिरितप्पड़ खेद पामे छे. ११ ___व्या०-ततोऽष्टकर्ममलसंचयादनंतरमातंकेन रोगेण स्पृष्टः सन् ग्लानः ग्लानि प्राप्तः परितप्यते परिखिद्यते परलोकात्मभीतः, कथंभूतः सः? आत्मनः कर्मानुपेक्षी यदा रोगादिग्रस्तो भवति तदा स्वयं जानाति मम कर्मणां |विपाको जाप्तः. मया पुरा यान्यशुभानि कर्माणि कृतानि तमादहं परलोकोऽपि दु:ग्वी भविष्यामि, इति स्वकृतक For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मांपेक्षी स्वकृतकर्नविचारक इत्यर्थः॥ ११ ॥ उत्तराध्य-4 अर्थ:-ते अष्टविधकर्मनी संचय करी आतंक रोगोवडे स्पृष्ट वेराइ ग्लान-खिन थाय छे तेमज परलोकथी अति भयमानी भाषांतर पन सूत्रम् परिताप पामे छे. केमके ते पोताना कर्मसामु जुए छे. अर्थात् ज्यारे रोगादिग्रस्त बने छे त्यारे मनमा जाणे छे जे • आJE अध्ययन५ ॥३६६ मारा पोतानांज कर्मोनांज कर्मोनो विपाक छे' में पूर्वे जे अशुभ कर्मो करेला तेथी हुँ परलोकमां पण दुःखी थइश' आम ॥३६॥ पोतानाज कौनो विचार लइ संताप कर के. ॥ ११ ॥ सैंया में नरएं ठाणा । असोलाणं च जो गई ॥ बालोणं कूरकम्माणं । पैगाढा जत्थं वेयगा ॥ १२ ॥ मलार्थ:-(मे) में [नरप)-नरकने विषे रहेला (ठाणा) स्थानो [सुआ)-लांभळ्या छ, [ब]तथा (असिलाण)-भ्रष्टाचारीओनी (जा)-जे DUI (गह) गति थाय छे, के (जत्थ) जे गतिमा [करकम्माण) क्रूर कर्म करनारा (बालाण)= अज्ञानी (पगाढा) उत्कृष्ट एबो (वेअणा)-वेदना धाय छ व्या-मे मया नरके स्थानानि श्रुनानि, या गतिर्नरकादिः, अशीलानां कुशीलानां गतिर्विद्यते, यत्र यस्यां गतौ फरकर्मणां बालानां मूर्खाणामात्महितविध्वंसकानां प्रगाढा वेदनास्ति ॥ १२ ॥ । अर्थ:- नरकमांना स्थानो सांभळ्यां. बळी अशील शीलभ्रष्ट कुत्सित आचरण करनारनी जे गति थाय ते पण जाणी, | यत्र-जे गतिमां क्रूरकर्म करनारा पालम्लों के जेमो पोतानाज हितनो स्वयं विध्वंस करे छे तेओने त्यां नरकमां पगादम्पर्मभेदक वेदना थाय छे. ॥ १२॥ For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie पुत्तराध्यपन सत्रम् भाषांतर अध्ययन५ ॥३६७॥ | ॥३६७|| तत्थोववाइयं ठाणं । जहा मे तैमणुस्सुयं ॥ अहाकम्मेहि गर्छतो। सो" पच्छा परितप्पेई ॥ १३ ॥ मूलार्थः-(तस्थ) त्यां (जहा) जे प्रकारे (उपचार) श्रीपपातिक (ठाणे)-स्थान के, (त) ते (मे) में (भणुस्सुम) सांभम्यु, तथा वळी (अहाकम्मे हिं)-यथाकर्मे करीने (गच्छतो जतो वो (सो)-ते मनुष्य [परछा-आयुष्यने अते (परितप्पा)-परिताप पामे छे. व्या-तत्र नरकेषु औपपातिकं स्थानं वर्तते, उपपाते भवमोपपारिक, तत्रौपपातिके स्थानेन्तर्मुहर्तादनंतरं छेदनभेदनताडनतजनादिकं स्यात् , यथा तारकादिस्थानं मे मयानुश्रुतं वर्तते, अवधारितमिति चितयन् पश्चादायुःक्षये यथा कर्मभिगच्छन् म परितप्यति ॥ १३ ॥ ____ अर्थः-तत्र ते नरकने विषये औषपातिक स्थान उपपात अधःपतन जेमा थाय ते औपपातिक स्थान, अर्थात् मुहूर्त्तने अनंतर छेदन, भेदन, ताडन, तर्जन आदिक यातनाओ देवाय के ते स्थान में सांभळेलु छे. आम निश्चित चिंतन करता ते पामर, पश्चात, आयुःक्षय थतां कर्मपमाणे नरकादिगतिपामी परिताप करे के ॥ १३॥ जही सागडिओ जाणं सम्मं हेच्चा महाप: ॥ विसंमं मग्गमोईण्णो । अक्खे भैग्गंमि सोय ॥ १४ ॥ मूलार्थ:-जहा)-जेम (सागडिमो) रथहांकनार [जाणं)-जाणतो सतो (सम) समान पवा (महापह) राजमार्गने [हेच्या)-तजीने [विसम-विषम पवा (मम्ग] मानने विचे (भोरणो) उतयों. (मक्खे)मक्ष-गाडानी धरी [भग्गमि)-भांगी गये सते [सोया-शोककरेछे व्या-पथा शाकटिकः समंसमीचीन महापर्थ राजमार्ग हित्वा त्यक्त्वा विषमं मार्गमुनीर्णःसन् यानं शकटं 'अक्खे' For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन५ ॥३६८॥ धुरि भग्ने सति शोचति, चिंतयति शकटभंगस्य शोकं करोति, यतो धिग्मामहं जाननपि शकटभंगकष्टमवाप्तवान्. उत्तराध्य अर्थः-यथा जेम कोइ शाकटिक गाडांवालो सम-सरखो महापथ केतां राजमार्ग छोडीने विषम वसमे मार्गे उतरी गाडानो यन सूत्रम् | धरो भांगे त्यारे शोक करे छे-'अरे मने धिक्कार छे, जाणी जोइने में अवळे मार्गे उतरी धरो भाग्यो' आम मनमा पश्चात्ताप करे छे. ॥३६८॥ DEQवं धम्म विउँकम्म । अर्हम्म पडिवेजिया ॥ बाले मच्चुमुहं पत्ते । अक्खे भंग्गे व सोयई ॥१५॥ मूलार्थः-(एव)-पज (धम्म) धर्मने (बिउकम्म)-उलंघन करीने (अहम्म)=अधर्मने-पापने (पडिवजिा )-अंगीकार करीने (अक्खे भग्गे व-धरी भांगे सते रथकारनी जेम (मच्चुमहं पत्ते)-मृत्युना मुखने पामेलो एबो (याले)=अक्षानो (सोभइ)-शोक करे छे ॥१५॥ व्या-एवमममुना प्रकारेण धर्म व्युत्क्रम्य विशेषगोल्लंघ्याधर्म प्रतिपद्य बालो मूर्यो मृत्युमुखं मरणमुख प्राप्तः | सन् शोचते शोकं कुरुते, क इव ! अक्षे भाग्ने शाकटिक इव ॥ १५ ॥ ___ अर्थः-एम-एज प्रकारे धर्मनो व्युत्क्रमकरी खासरीते धर्मनु उल्लंघन करी अधर्मने मार्ग उतरी बालमूर्ख मृत्युमुख प्राप्त थइने शोक करे छे जेम अक्षधरो भांगतां शकट वाळो शोक करे तेन. ॥ १५ ॥ तओ से मरणं तंमि । बोले संतस्तई भया ॥ अकॉमरणं मरइ । धुत्तेवा कलिणा जिए" ॥ १६ ॥ मूलार्थः-(तमओ)-पछी (से) ते (बाले) अज्ञानी (मरणतंमि)-मरणांत प्राप्त थये सते (भया)=नरकना भयथी (संतम्सइ) त्रास पामे छे, (अकाममरण)-अकाममरणवडे (मरहमरे छे, अने (कतिणा)-एक दाववडे (जिए)-पराजय पामेला पवा (धुसे वा)-जुगारीनी जेम शोक करे ॥ १६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्या-ततः स मृो मरणांते भयात् संत्रसते संत्रासं प्राप्नोति, अकाममरणं नियते, म्रियमाणः सन् शोक उत्तराध्यविदधाति, क इब ? धूर्तो वातकारी कलिना गृतदोषेन जितः, केनचित्ततोऽधिकेन दुष्टेन जितो गृहीतद्रव्यः सन् शो भाषांतर पन सूत्रम् चते, तथा शोचत इत्यर्थः. अनेन सह मया किमर्थ क्रीडा कृता ? अहं हारितः ॥ १६ ॥ २७ अध्ययन५ ॥३६९॥ ___अर्थ:-तदनंतर ते मूर्ख मरणांत भयथी संत्रास पामी, अकाममरण प्राप्त थाय छे मरतीवेळाये जेम कोइतकार जुगटिओ ॥३६९॥ Joil कलि-गृतदोषथी, अर्थात् कोइ कपटी जुगारीए जीतीलेतां सघळू द्रव्य हराइ जवाथी शोक करे-'में आनी साथे रमीने बधुं | द्रव्य गुमाव्यु' आम शोक करे छे. ॥ १६ ॥ एयं अकोममरणं । बालाणं तु पवे इयं ॥ एत्तो सकाममरण । पंडियाण सुह" मे ॥ १७ ॥ मूलार्थः-(प)-आ पूर्व कां ते (अकाममरण')-भकाममरण (बालाण तु अज्ञानीओनुज छे. (एत्तो)=दवे (पंडिआण)-पंडितोनु (सकाममरण')-सकाममरण कोने होय छे ते (मे)-मारा पासेथी (सुणेह)-तमे सांभळो ॥ १७ ॥ व्या-पालानामकामरणमेतत्प्रवेदित, तुशब्दो निश्चयाथै, मूर्खाणामेवाकाममरणमित्यर्थः, तीर्थकरैः कथितं इतः | प्रस्तावादनसरं मे मम कथयतः पंडितानां सकाममरणं यूयं शृणुन ? ॥ १७ ॥ ___ अर्थ:-बाल अज्ञानी जनोनुं अकाममरण प्रवेदित कर्यु, अर्थात् निरूपण करी देखाडयु. 'तु' शब्द निश्चयार्थमा छे मूल्नु पवीरीते अकाममरण थाय छे, एम तीर्थकरोए कहेल हे. हवे आ प्रस्तावने अनंतर पंडितोर्नु सकाममरण जे ई कहूं ते तमे श्रवण करो. For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥ ३७० ॥ S www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मरेणपि संपुण्णाणं । जहां में तमणुर्सेयं ॥ विष्पंसन्नमणांघायं । संजयाणं सीमओ ॥ १८ ॥ मूलार्थ:- ( जहा ] - जे प्रकारे (मे) = माराथकी (त) = ते सकाममरण (अणुस्तुअ ) = तमे सांभळ्यु के (मरण पि) ते मरण पण [ सपुष्णाण ]= पुण्यवाळा अने [बुसीमओ ) - जेओने इन्द्रिय वश के रवा (संजयाण )= संयमवाळाने दोय छे ते मरण ( विप्पन्न )= विशेषे करीने कषायादिक रहित [ अणाधाम) = आघात रहित होय हे ॥ १८ ॥ व्या०—सपुण्यानां पुण्यवतां संयतानां यथा मे मया मरणमनुश्रुतमवधारितं, भो भव्यास्तत्सकाममरणं भवनिर्मनसि धार्य, कीदृशं सकाममरणं ? विप्रसन्नं विशेषेग कषायादिमलराहित्येन प्रसन्नं निर्मलं, पुनः कीदृशं अनाघातं न विद्यते आघातो यत्नवत्त्वेनान्यजीवानां संयमजीवितव्यस्य च नाशो यस्मिंस्तदनाघातं, कीदृशानां संयतानां ? ' घुसीमओ ' आर्षत्वाद्वश्यवतां वश्य आत्मा येषां ते वश्यवंतः तेषां जितात्मनामित्यर्थः ॥ १८ ॥ अर्थः- सपुण्य = पुण्यवान् तथा संयत= संयमवान् जनोनुं जेतुं मरण में अनुश्रुत=सांभळ छे - शास्त्रश्रवणपूर्वक निश्चित करेलु छे ते सकाममरण, हे भव्य जीवो ! ते विप्रसन्न एटले विशेषतः कषायादि मल रहित होवाथी निर्मल तथा अनाघात =जेमां यत्नवान रहेनार अन्य जीवोना संयमजीवितनो आघात = नाश - नथी तेवुं वश्यवान् वश्यात्मा अर्थात् जितात्मानुं सकाममरण सांभळो. इमं संसु भिक्खु । र्न ईमं सर्व्वसुगारिसु ॥ नाणसीला अणारंत्था । विसेंमसीला यें भिक्खुणा ॥ मूलार्थ:- (इमं) = आ सकाममरण [सव्वैसुभिक्खुसु )-सर्व साधुओने (ण) = होतु नथी तथा [[म] =आ पंडितमरण (सब्बे सुगारि सु) = सर्व For Private and Personal Use Only 波波 भाषांतर अध्ययन५ ॥३७० ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie भाषांतर अध्ययन५ ॥३७॥ गृहस्थीओने (न) होतु नधी, [अगारत्था' गृहस्थीभोना (नाणासीला)-घणा भांगा होय छे, (य) तथा (भिक्खुण) साधुभ) (विसम-15 सीला-विषम आचारवाळा होय छे. ॥ १९ ॥ उत्तराध्यपन सत्रम् PE व्या०-इद पंडितमरणं सर्वेषां भिक्षुनांसाधूनांन भवति, किंतु केषाचित्साधना भवेत् , सर्वेषामगारिणां गृहस्थानामपीदं पंडितमरणं न भवति, किंतु केषांचिदेव भवेत; यतोऽगारस्था गृहस्था नानाशीला नानाचारा भवंति, च पुनर्भिक्षवोऽपि॥३७१॥ साधवोऽपि विषमशीला विषम विसदृशं शीलं येषां ते विषमशीलाः केचित्सनिदानतपःकारकाः, केचिनिदानरहिततप:र कारिणः, केचिन्निर्मलचारित्रिणः, केचित्यकुशचारित्रिणः, इति कथनेन तीर्थातरीयास्तु वेषधारिणो दूरत एवोत्सारिताः. ___ अर्थः-आ पंडितमरण-सकाममरण-सर्व भिक्षु-साधुने नथी यतु, किंतु कोकज साधुने थाय छे. तेम सर्व अगारि-गृहस्थने पण ए पंडित मरण यतुं नथी, किंतु कोकज गृहस्थने थाय छे, कारण के अगारस्थ गृहस्थो नानापकारना शीलवाला-भिन्न भिन्न आचरणवाळा होय छे तेम भिक्षु साधुभो पण विषमशील, एटले एक बीजाथी मळता न आवे तेवां शीलवान् होय छे कोइक सनिदानतपःकारक होय तो कोइक निदान रहिततपःकारी होय छे, कोइ निर्मळ चारित्रवान होय तो बीजा बळी बकुशचारित्रवान् होय छे. आधी करी सर्वेने कंड ए पंडित मरण मळी शकतुं नथी. अत्रे आ कथनथी तीर्थातरीय वेषधारीने तो दूरथीज निराकृत कर्या. संति' ऐगेहि भिक्खुहिं । गारत्था संर्यमुत्तरा ॥ गारंत्येहिं ये सव्वेहिं । साहवो संजमुत्तरा ॥ २० ॥ ३. मूलार्थ - पहि-केटलाएक भिक्खू हि)-भिक्षुभोथकी (गारत्था)-गृहस्थीमो (संजमुत्तरा)-संयमवडे प्रधान (संति) होय छे, ()= तथा (सम्बेहि सर्व (गारत्येहि) गृहस्थीओथकी (साइयो -साधुओ (संजमुत्तरा)-संयमयडे करीने प्रधान होय हे ॥२०॥ For Private and Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kabatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyarmandir व्या०-एकेभ्यो भिक्षुभ्यो निलवभग्नचारित्रादिभ्यः पाखंडिकुतीर्थिभ्यश्च, आगारस्था अपि गृहस्था अपि संयमुत्सराः उत्सराध्य-E! संति, संयमेन देशविरतिलक्षणेन धर्मगोचराः प्रधानाः संति, सर्षपमेरुपर्वतयोरियांतरमस्ति, सर्वेभ्यो विविधत्रिविध- भाषांतर यन सूत्रम् । प्रत्याख्यानधरेभ्योऽगारस्थेभ्यः साधवः षड्बतषट्कायरक्षकाः संयमेन सप्तदशभेदेनोत्तराः प्रधानाः समीचीनाः संति. Bअध्ययन५ ॥३७२।। अर्थः-एके-केटलाएकनिहव अने भग्नचारित्र भिक्षु साधुओना करतां तेमज पाखंडी तीर्थातरीयोनां करतां तो अगारस्थ= ॥३७२॥ | गृहस्थो पण संयमोत्तर-संयम एटले देशविरतिलक्षण धर्मवडे उत्तर, अर्थात् अधिक सारा होय छे तेभोमां सर्पप तथा मेरुपर्वत जेटलो अंतर होय छे. तेमज सर्व द्विविध तथा त्रिविध प्रत्याख्यान धारण करनारा गृहस्थो करतां पइव्रत पट्काय रक्षक होइ सप्तदशभेदभिन्न संयमवढे साधुओ उत्तर=अधिक श्रेष्ठ होय छे. ॥ २० ॥ ___ अब दृष्टांत:-एकः श्राषकः साधु पृच्छति श्रावकाणां साधूनां च मितः कियदंतरं ? साधुनोतं मेरुसर्षपोपममंतरं, ततः आकुलीभूतः स श्रावकः पुनः पृच्छति कुलिङ्गिनां श्रावकाणां मिथः कियदतरं ? साधुनोक्तं तदपि मेरुसर्षपोपमंतर. ततः स श्रावकः स्वस्थो जात इति. ॥ २० ॥ अत्रे दृष्टांत कहे डे-एक श्रावकें साधुने पूछ्यु के-श्रावकमां अने साधुमां सुंअंतर? साधुए का-मेरु अने सर्षपतुल्य. अंतर समजवू. आकुल थयेला श्रावकें फरी पूछ्यु के-'कुलिंगी व्यर्थ साधुचित धारण करनार तथा श्रावक ए बन्नेमां शुं अंतर? | साधुए कहुं के-एमां पण मेरु अने सर्षप जेटलुं अंतर आ सांभळीने श्रावक स्वस्थ थयो. ॥ २०॥ For Private and Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie उत्सराध्यपन सूत्रम् भाषांतर अध्ययन५ ॥३७३॥ ॥३७३॥ चीराजिणं नंगिणिणं । जंडी संघाडिमुंडिणं ॥ एयाईपि' ने ताइंति दुस्सीले परियागयं ॥ २१ ॥ मूलार्थ:-(चीराजीण)-चीर-बल्कल (नगिणिण)-नमपणु तथा [जडी) जटाघारीपणु तथा (संघाडि) चखना टुकडा सांधीने करेल जे कथा. तथा (मुंडिण) मुंडपY (एआई पिसर्व द्रव्यलिङ्गो पण (परिआगय) दीनाना पर्यायने पामेला ते (दुस्सील-कुशीलीयानु (न ताईति) रक्षण करता नथी ॥ २१ ॥ व्या०-एतानि सर्वाणि द्रव्यलिंगानि 'परियागयं' प्रव्रज्यां गतं दीक्षां प्राप्तं, अर्थात् द्रव्यलिंगिनं दुशीलं न त्रायते संसारात् , दुःकर्मविपाकाहा न रक्षति, एतानि कानि लिंगानि तान्याह-चीरागि बकुलानि बकुलचीरधारित्वं, अजिनं चर्मधारित्वं नगिणिणं नग्नत्वं, जहीति जटाधारित्वं संघाटिन्वं वस्त्रसंघाटोत्पन्ना, त्या युक्तत्वं कंथाधा|रित्वं, मुंडिणं मुंडत्वं, एतानि सर्वाणि द्रव्यलिंगानि न मोक्षदानि भवतीत्यर्थः ।। २१ ।। अर्थः-आ वां व्यलिंग-जेबांके-चीरबल्कलचीरधारिपणु, अजिन-मृगचर्मधारिख, नगिगिण=नम्रपणुं, जटाधारिख, संघाटित्व, वस्त्रखंडथी बनेली कथा धारण करवी, मस्तके मुंडित थQ, इत्यादि सर्व द्रव्यलिंग, दुष्टशील प्रत्रज्यागत दीक्षाप्राप्तने त्राण नथी देता. अर्थात् दुराचारी साधुने ए द्रव्यलिंग दुष्कर्मविपाकथी रक्षण नथी आपी शकतां नो पछी मोक्ष तो क्याथीज आपी शके. पिंडोलंगोवि दुस्सीले । नरंगाओ न मुच्चई ॥ भिक्खाए वा गिर्हत्थे वो। सुव्वए कैमई दिवे ॥ २२ ॥ मूलार्थः-(पिंडलोपब्ब)-पिंडने सेवनार एवो पण ( दु:स्सीले )-दुःशीळीयो [ नरगाओ)-नरक थकी (न मुच्चर मुकातो नथी. (भिक्खाए वा)-भिक्षुक निहत्थे वा]-गृहस्थी होय परंतु जे (सुपए)= अतिचार रहित व्रतवाळो होय ते (दिव) स्वर्गे [कमइ) जायछे | For Private and Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir انها من الحالات व्या -पिंडोलगोऽपि भिक्षुर्यदि नरकान्न मुच्यते तदा दुःशीलः कषायादियुक्तस्तु नरकान्न मुच्यत एव, पिंडं उत्तराध्य- परदत्तग्रासमवलगते सेवत इति पिंडोलगः, अत्र निश्चयमाह-भिक्षादो भिक्षुरथवा गृहस्थो वा भवेत् तयोभिक्षाद- |भाषांतर यन सूत्रम् गृहस्थयोः साधुश्रावकयोमध्ये यः सुव्रतः सुष्टु शोभनानि व्रतानि यस्य स सुव्रतः, स दिवं स्वर्ग क्रमति व्रजतीत्यर्थः, अध्ययन५ ॥३७४॥ ___ अर्थः-पिंडोलग-परदत्त पिंड अन्नग्रासने सेवनार भिक्षु पण जो नरकथी मुक्त न थाय तो पछी दुःशील-कषायादियुक्त ॥३७४|| Rell तो नरकथी केम मुक्त थाय ? आ विषयमा निश्चय कहे छे-भिक्षाद-साधु, होय अथवा गृहस्थ होय ए बेयना मध्यमां जे सुव्रतJE| शोभनव्रत आचरता होय ते दिव-स्वर्ग जाय. अत्र द्रमककथा-राजगृहे कश्चिद द्रम्मक उद्यानिकानिर्गतजनेभ्यो भिक्षामलभमानो रुष्टः सर्वेषां चूर्णनाय BE बैभारगिरिशिलां चालयन् शिलांतर्निपतितः, शीलातले चूर्णितवपुः सप्तमं नरकं गतः. एवं भिक्षुरपि दुर्ध्यानेन दु:शीलत्वानरकमेव गच्छतिती परमार्थः ॥ २२ ॥ राजगृहमा कोइ एक द्रमक हतो ते उद्यानिका बगीचामांथी नीकळता जनो पासेथी भिक्षा मळी नहि तेथी रुष्ट थइ सर्वेनं चूर्ण करी नाखवानी धारणाथी वैभारगिरिनी महोटी शिला चलावतां पोतेज शिलातले आवी पडतां पोतानुं शरीर चूर्णित धइगयु अने | ते सातमे नरके गयो. एवीरीते भिक्षु पण दुर्ध्यान करवाथी दुःशील बनी नरकेज जाय छे ॥ २२ ॥ | अगारी सामाइयंगाइ । सेहो कारण फासेए ॥ पोसहं दुहओ पंक्खं । एगराइं न होवए ॥ २३ ॥ انعكاساتها التمثال الشعر ليبيا For Private and Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् भाषांतर अध्ययन५ ॥३७५॥ मूलार्थः-[सही श्रद्धावान (आगाहि)-गृहस्थो [सामाइ अंगाह]-सामायिकना अंगोने [कारण]-कायावडे पण [फासएस्पर्श करे. तथा (दुहओ पक्ष) बन्ने पक्षमा (पोसह) पौषधने (पगराइदिवसे अथवा रात्रिए पण [न हावए हानि न पमाडे. ॥२३॥ व्या०-अगारी गृहस्थः सामायिकांगानि सामायिकस्यांगानि सामायिकांगानि निःशंकितनिःकांक्षितनिविचिकित्सितामूढदृष्टिप्रमुखाणि कायेन स्पशति, कीदृशः सन ? श्रद्धी श्रद्धावान सन , पुनर्गृहस्था, उभयोः शुक्लकृष्णपक्षयोः पौषधं सेवते, चतुर्दशीपूर्णिमामावास्यादिषु पाषध आहारपौपधादिकं कुर्यात् . एकरात्रिमप्येकदिनमपि न हापयेत् , न हानि कुर्यादित्यर्थः. रात्रिग्रहणं दिवा व्याकुलतायां रात्रावपि पौषधं कुर्यात् , चेदेवं न स्या| त्तदा चतुर्दश्यष्टम्युद्दिष्टा, महाकल्याणकपूर्णिमाचतुर्मासकत्रयस्य दिवसे पौषधं कुर्यात् , सामायिकांगत्वेनैव सिद्धे भेदेनोपादानमादरख्यापनार्थम् ॥ २३ ।। अर्थः-अगारी गृहस्थ श्रावक, सामयिकांग=निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा तथा मूढदृष्टि वगेरेने काय-शरीरे करी स्पृशे छे. केवो रहीने ? श्रद्धी श्रद्धावान् , तेमज बेय पक्षना पौषधने सेवनारा चउदश, पूर्णिमा अमावाश्या आदि पौपध बराबर करे, तेमां एक रात्री के एक दिन पण छोडे नहिं, अहीं रात्री शब्दनुं ग्रहण-दिवसे व्याकुलता थती होय तो रात्रीमां पण पौषध करे, कदाच एम न बनी शके तो चतुर्दशी अष्टमी महाकल्याणक पूर्णिमा चतुर्मासकत्रयना दिवसे पौषध करवो. आ पोषध | पाळवार्नु सामायिकना अंगरूपे सिद्ध होवा छतां भेदथी ग्रहण तेमां अधिक आदर दर्शाववा माटे करेल छे ।। २३ ।। एवं सिक्खासैमावन्ने । गिहवामेवि सुचए मुच्चई छविपवाओ । गच्छे जैक्खसलोगयं ॥ २४॥ For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूलार्थ:-(एव)-आ प्रमाणे [सिक्खासमावणे) शिक्षाने पामेलो धावक (गिहवासे वि]-गृहवासने विषे पण [सुब्बए)-साराव्रतउत्तराध्य-PE वाळो थइने (छविपञ्चाओ-औदारीक शरीरथी (मुच्चइ)-मुकाय छे, तथा (जक्खसलोगय) यक्षना स्वर्गने (गच्छे)-पामें छे ॥२४॥ भाषांतर यन सूत्रम् व्या०-एवममुनाप्रकारेण शिक्षासमापन्नः श्राद्धाचारसहितो गृहस्थावासेऽपि सुब्रतो द्वादशत्रतधारकः सन् त्वक अध्ययन५ | पर्वतोमुच्यते, त्वक् चर्म पर्व जानुकूर्परगुल्फादि, ततो मुक्तो भवति, औदारिकशरीरान्मुच्यते, पुनःस श्राद्धो यक्षसलो॥३७६॥ ॥३७६॥ PE|कतां गच्छेत् , सह लोकेन वर्तत इति सलोकः. यक्षदेवैः सलोको यक्षसलोकस्तस्य भावो यक्षसलोकता तां देवजा-16 | तित्वं प्रामोतीत्यर्थः, अत्र पण्डितमरणप्रस्तावेऽप्यवसरप्रसंगोहालपण्डितमरणमुक्तं ।। २४ ।। ____ अर्थः-एमउक्तप्रकारे शिक्षासमापन्नधर्मशिक्षा पामेलो श्राद्धाचारसहित, गृहवासमां पण एटले गृहस्थाश्रममां पण जो सुत्रत द्वादशत्रतधारक थइने त्वक्पर्वधी-त्वक-चर्म तथा पर्व-गोठण कोणी वगेरे, अर्थात् आ औदारिक शरीरथी-मुक्त थाय छे, फरीने ते श्राद्ध यक्षनी सलोकताने पामे छे, यक्षोनी साथे एक लोकमां निवासरुप यक्षसलोकता अर्थाद् देवजातिने प्राप्त थाय छे, अत्रे पंडितमरणनो प्रस्ताव चाल्यो तेमां अवसर प्रसंग होवाथी बालमरण तथा पंडितमरण एम मरणना बे प्रकार कही देखाड्या ॥२४॥ अहे जे संबुडे भिक्खू । वुण्हमनयरे सिया ॥ सव्वदुक्खपहोणे वा । देवे वाविमर्हडिए ॥ २५ ॥ मुलार्थ:-(अह)-हवे [जे-जे ( संवुडे)-संवृत [भिख्खु-साधु छे. ते (सव्वदुखप्पहीणे वा ]-सर्व दुःखरहित पवा मोक्षने विषे अथवा (महिहिप)-महधिक पवा (देवे वावि)-देवने विषे एम (दुण्ड)- मांथी (अन्नयरे)-एकने विषे (सिआ)-उत्पन्न थाय छे. ا نتلقافلة لنقل الملك المال الفنان علينا في العلن مالالد الفالحالات من الوكالة الكلية التقت For Private and Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥३७॥ व्या०-अयानंतरं यः संवृतः पंचावनिरोधको निक्षुः सर्वदुःखमहीणे मोक्षेऽथवा देवे देवलोके, तयोईयोः स्थानयोर्मध्येऽन्यतरस्मिन्नेकस्मिन् स्थाने स्यात् , कीदृशो देवः स्यात् ? महर्द्विको महती ऋद्धिर्यस्य स महर्दिकः ॥२६॥ JEभाषांतर - अपयन५ अर्थः-अथ-अनंतर जे भिक्षु, संवृत-पंचाश्रवनिरोधक-(जीवरूप तळावमा कर्मरूप पाणी भरवानां गरनाळां जेवां द्वारमिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा अशुभयोग, आ पांच आश्रव कहेवाय छे. ए पांचे आश्रवनो निरोध अटकाव करे तेवो ॥३७७॥ संवरसंपन्न साधु संवृत कहेवाय.) होय ते सर्वप्रकारनां दुःखोथी पहीला-रहित एवा मोक्षमा अथवा देवलोकमां, ए बेमांना अन्यतर एक महोटी समृद्धियुक्त स्थानमां स्थित थाय ॥ २५ ॥ उत्तराई विमोहाई। जुइमंताणुपुर्वसो ॥ सामाइन्नाइ जक्खेहिं । आवासाई संसिणो ॥ २६ ॥ दीहाउया इट्ठिमंता। समिद्धा कामरूविणो ॥ अहणोववन्नसंकासा । भुजो अच्चिमालिप्पभा ॥२७॥ ताणि ठाणाणि गच्छंति"। सिक्खिता संयम तवं । भिक्खाए वा गिहत्थे वा । जे संतिपरिनिव्वुडा॥ मूलार्थः-(उत्तराई) उपर वर्तता पवा अनुसर विमान नामना (आबासाई) आवासो (अणुपुचसो =अनुक्रमे (विमोहाइ -मोहरहित छे, तथा (जुइमता)=अधिक कांतिवाना तथा (जक्खेहि)-देवोए करीने (समाइण्णाई) व्याप्त छे, पण (जसंसिणो यशस्वी छे ॥२६॥ (दीहाउआ )-दीर्व आयुण्यवाळा होय छे, तथा ( इडिमता )-समृद्धिवाळा छे, तथा (समिद्धा) अत्यंत देदीप्यमान होय छे, तथा (कामरूविणो)-इच्छा प्रमाणे रुप करनारा छे, तथा (आहुणोववन्नसंकासा जाणे इमणां उत्पन्न थयेला होय तेवा निरंतर तथा (भुजोअश्चिमालिभा)-सूर्यसमान कांतियाळा होय छे ॥२७॥ (जे)-जेओ (संतिपरिनिबुडा)-शांतिवडे निवृत्ति पामेला (मिक्वाए) For Private and Personal use only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir الد भाषांतर अध्ययन५ ॥३७८॥ भिक्षुको (मिहत्थेवा )-गृहस्थीओ ( संजम' ) संयमनो अने (तयं)=बार प्रकारना तपनो (सिक्वित्ता)-अभ्यास करीने (तानि) ते (ठाणोणिस्थानो प्रत्ये [गच्छति)-जाय छे ॥ २८ ॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् व्या०-ते भिक्षादा भिक्षावृत्तयः साधवोऽथवा गृहस्थाः श्राद्धाः संयम पुनस्तपः शिक्षयित्वा हृदि धृत्वा तानि स्थानानि गच्छंति प्राप्नुवंतीति तृतीयगाथायाः संबंधः.ते के भिक्षादाः ? पुनस्ते के च गृहस्थाः ? ये परिनिवृताः ॥३७८॥ संति, परि समंतानिवृता विधूतकषायमलाः, तानि कानि स्थानानि ? उत्तराणि सर्वेभ्यो देवलोकेभ्य उपरिJE स्थानि पंचानुसरविमानानि, पुनः कीदृशानि तानि ? विमोहान्यज्ञानरहितानि, येषु स्थानेषुत्पन्नानां देवानां मिथ्या स्वाभावात् सम्यक्त्वं भवतीत्यतो विमोहानि, पुनः कीदृशानि ? युतिमंति दीप्तियुक्तानि प्राकृतत्वाल्लिंगव्यत्ययः. पुनः कीदृशानि स्थानानि यक्षैर्देवैः समाकीर्णानि सहितानि, पुनः कीदृशानि ? आसमंतादाहादपूर्वकं दुःखराहित्येन उष्यते येषु तान्यावसानि. कथंभूनास्ते भिक्षादा गृहस्थाश्च ? यशखिनः, कुत्रचिट्ठीकांतरेऽत्र गाथायामुक्तानि साधुश्राद्धानां विशेषणानि संति, पुनः कीदृशा भिक्षादगृहस्थजीवदेवाः ? • दीहाउया' दीर्घायुषः पल्यसागरोप. मजीविनः, पुनः कीदृशाः ? ऋद्धिमंतो रत्नादियुक्ताः, पुनः कीदृशाः ? समृद्धा अत्यंतपकटाः, पुनः कीदृशाः ? कामरूपिणः कामं स्वेच्छापूर्व रूपं येषां ते कामरूपिणः, यादृशं रूपं मनसि वांछंति तादर्श कुर्वतीत्यर्थः पुनः कीदृशाः ? अधुनोत्पन्नसंकाशाः, येषां कांतिऋद्धिदीप्तिवर्णादिकं दृष्ट्वेति ज्ञायते यदेते इदानीमुत्पन्नाः संति, पुनः कीदृशाः? भूयोऽचिर्मालिप्रभाः. कोटिसूर्यप्रभाः. अर्चिषा ज्योतिषामालते शोभंते इत्येवंशीला अर्चिमालिनः सूर्याः, ا ر داننا لن الابل المال SODEndDTDCखDURA عن عودا و صعود For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie 5 भूयांसश्च तेऽचिमालिनश्च भूयोचिंमालिनस्तद्वत्यभा येषां ते भूयोर्चिमालिप्रभाः. उत्तराध्य DEभाषांतर पन सूत्रम् ___अर्थः-त्रणे गाथानो एक वाक्यरुपे समन्वय होवाथी कुलक कहेवाय छे, ते भिक्षाद-साधुओ अथवा गृहस्थो संयम तथा तपः अध्ययन५ शीखी-गुरुपासेथी उपदेशद्वारा हृदयमा धारण करी परिनिर्वत थया अर्थात् विधृत के कषाय तथा मल जेनां एवा थाय त्यारे ॥३७९॥ | तेओ उत्तर=सर्वे देवलोकोनी उपर रहेलां पंच अनुत्तर विमानात्मक-जे स्थानमा उत्पन्न यता देवाने मिथ्यात्वनो अभाव होवाथी ॥३७९॥ सम्यक्त्व सधः थाय हे, तथा विमोह-अज्ञानरहित वळी द्युतिमान-दिप्तियुक्त अनयक्ष देवोए समाकीर्ण-व्याप्त, एवां स्थानोने अनुपूर्वशः एक पछी एक प्राप्त थाय छे, अहीं प्राकृत होवाथी लिंगनो व्यत्यय दोष नथी गणातो पुनरपि ते स्थानोनां विशेषण कहे छे-आवास चारेकोर क्यांय पण दुःखलेश न होवाथी आहादपूर्वक जेमा रहेवाय छे एवां स्थानो पामे छे; ए साधु गृहस्थ त्यां रहीने यशस्वी थाय छे, आ ठेकाणे बीजो टीकामां कहेलां साधु तथा श्रावकनां विशेषणो ले ते पण कहे छे ते साधु तथा गृहस्थ जीव देव थाय त्यारे केना थाय छे ? ते कहे छे-दीर्घायुष-पल्य सागरोपमजीवी बने छे, बळी ऋद्धिमान हेम रत्नादि समृद्धिसम्पन्न, अने कामरूपी स्वेच्छाप्रमाणे रूप धारण करनारा मनमा धारे तेवां रुप धारण करी शके तेवा तेमज अधुनोपपन्नसंकाश-जेनी कांति दीप्ति ऋद्धि तथा वर्णादिक जोइने 'हमणांज उत्पन्न थया होय' तेवा जणाता, विशेषमां भूयोर्चिमालिपभ= कोटिमूर्यसमान ज्योतिवडे शोभता एवा ते साधुश्री अथवा गृहस्थो क्रमे करी ते पूर्वोक्त स्थानोने प्राप्त थाय छे. आम आ त्रणे गाथानो एकत्र अर्थ छे ॥ २८ ॥ तेसि सुच्चास पुजीणं । संजयाणं वुसीमओ ॥ संतसति मरणंते । नं सीलवंता बढुस्सुया ॥ २९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie भाषांतर अध्ययन५ ॥३८०॥ मूलार्थः-[सपुजाण-सत्पूज्य तथा (संजयाण)-संयमवाळा तथा (वसुमीओ)-वशकरनारा एवा तेसि ते मुनिओनी (सुचा)-पूर्वे कहेला (सीलवताचारित्रवाळा अने (बहुस्सुभा)बहुचत (मरण ते)-मरणांत समय सुधी पण (न संत संति)-पास पामता नथी.२९ ।। उत्तराध्यपन सूत्र व्या०-शीलवंतः साध्वाचारसहिता बहुश्रुताः साधवो मरणांते मरणे समीपे समागते सति न संत्रसंति | न भयं प्राप्नुवंति, किं कृत्वा ? तेषां सत्पूज्यानां संयतानां भावितभिषणामुक्तखरूस्थानमाप्ति श्रुत्वा पुनः की॥३८॥ दृशानां संयतानां? वश्यवतां ।। २९ ॥ __अर्थ:-शीलवान-साध्वाचार सम्पन्न तथा बहुश्रुत साधुपुरुषा मरण समीपे आव त्यार जरा पण संत्रास पामता नथी केमके | | ते सत्पूज्य, संयमवान् तेमज वश्यवत्-जितेन्द्रिय भावित भिक्षुओनी स्थानमाप्ति सांभळीने हृदयमां नरकादिकनो त्रास रहेतो नथी. तुलया विसेसमादाय ! दयाधम्मस्स खंतिए ॥ विप्पंसीइज मेहावी। तहाभूएण अर्पणा ॥३०॥ 52 मलार्थ:-(तलिआ) तुलना करीने तथा (विशेष) विशेष (आदाय)-ग्रहणकरीने खंतिए) क्षमागुणवडे करीने (दयाधम्मस्स) यतिधर्मने जाणीने (मेहावी) चारित्र मर्यादामा रहेला (तहाभूएण अप्पणा)-तथाप्रकारना आत्माए करीने (विपसीपज)-प्रसन्नता धारण करबी. व्या-मेधावी बुद्धिमान साधुस्तथाभूतेन विषयकषायरहितेनात्मना विप्रसीदेत्, विशेषेण प्रसन्नतां भजेत, किं कृत्वा ? बालपंडितमरणे ‘तुलिया' इति तोलयित्वा परीश्य पुनर्विशेषमादाय बालमरणात्पंडितमरणाच्च बिशेषं विशिष्टत्वमादाय गृहीत्वा तथैव दयाधर्मस्य यतिधर्मस्य क्षात्या क्षमया कृत्वा विशेषमादायान्येभ्यो धर्मेभ्यः क्षमया साधुधों विशिष्ट इति ज्ञात्वा विप्रसीदेत् कषायादिभ्यो विरक्तो भवेदित्यर्थः ॥ ३० ॥ For Private and Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन मुत्रम् भाषांतर अध्ययन५ ॥३८१॥ ॥३८॥ अर्थः-मेधावी बुद्धिमान साधु, तथा भूत विषय कपायादिकथी रहित आत्मा थइ प्रसन्न रहे, केम करीने ? ते कहे छे- बालमरण अने पंडितमरण ए बन्नेनी तुलना करी अर्थात वेयन तारतम्य कळी लइने, ए बेयमांथी विशिष्टता ग्रहण करीने तेमज दयाधर्म यतिधर्मनी लांतिवडे विशेषता समजीने, एटले बीजो धर्मथी साधुधर्म क्षमावडे विशिष्ट छ एम जाणीने, विशेषतः प्रसन्न थाय-कषायादिकथी विरक्त थाय ॥ ३० ॥ तओ काले अभिप्पेए । सढी तालसमंतिए ॥ विर्णइज लोमहरिसं । भेयं देहंस कंखए ॥ ३१ ॥ भूलार्थ:-(तो)-पछो (काले)-मरणकाळ [अभिप्पेप) दृष्ट सते (सही-श्रद्धावान (अतिए) गुरुनी समीपे (तालिस)-तेवा प्रकारना (लोमहरिस')-रोमांचने (विणइज]-दूर करवा (देहस्स-शरीरना (भे)=नाशनी (कखए)=अभिलाषा करवी ॥३१॥ व्या०-ततः कषायोपशमनानतरं काले मरणसमयेऽभिप्रेते सति रुचिते सति श्रद्धी श्रद्धावानंतिके गुरूणां समीपे तादृशो भूयात् , उत्पन्न रोमहर्ष रोमांचं हा मे मरणं भावीति भयाभिसूचकं रोमोद्गमं विनयेत् स्फेटयेत् , मरणभयं न कुर्यात् , देहस्य भेदं कक्षित, शरीरस्य त्यागमभिलषेत् , यादृशो हर्षों दीक्षावसरे यादृशो हर्षः संलेखनावसरे, ताहशो हर्षो मरणसमयेऽपि विधेयो न भेतव्यमित्यर्थः. ॥ ३१॥ अर्थः-ततः कषायोपशम थया पछी काल-मरण समय ज्यारे अभिप्रेत-रुचे अर्थात् ' हवे मरण भले थाय ' एबी मनोदशा याय त्यारे श्रद्धी श्रद्धावान्-साधु गुरुनी अंतिके समीपे तारश थइ जाय, केवो थाय ? ते कहे है-रोमांच उपजे, एटले For Private and Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पन सूत्रम् ॥३८२।। 'हाय मारु मरण आव्यु' एवा भयन अभिमूचक रुवाडा उभा थाय तेने 'विनयवत् 'फेडीनाखे. अर्थात् हृदयमां मरणना | भयने पेसवाज न दीये किंतु देहभेदनी आकांक्षा करे शरीर त्यागनी अभिलाषा करे. जेवो हर्ष दीक्षावसरे, जेवो हर्ष संलेखना- भाषांतर | बसरे, तेवोज हर्ष मरण समये पण राखीने जरापण भय न पामे. ॥ ३१॥ 10 अध्ययन५ अह कालंम्मि संपत्ते । आघायाय समुस्सयं ।। सकाममरणं मरई । तिपणमन्नयरं मुणित्ति बेमि ॥३२ ॥३८२।। मूलार्थ:-[अह-त्यार पछी (कालम्मि) मरणकाळ (संपत्ते)-प्राप्त थये छते (समुस्सय) समुच्छ प (आघापाय]-विनाश करवा माटेal (मुणिमुनि जे ते तिण्ह)-त्रणप्रकारना मरणमांथी [ अन्नयरं )-कोड पण एक प्रकारना (सकाममरण)-सकाममरणवडे (मरह] मरे (तिबेमिए प्रमाणे कहेता हवा ॥ ३२ ॥ व्या-अथ काले मरणे संप्राप्ते सति मुनिः समुछ्यमभ्यंतरशरीरं बाह्यशरीरं च, अभ्यंतरं कार्मणशरीरं, | वाह्यमौदारिकशरीरं, आघायाय विनाशाय त्रयाणां सकाममरणानां मध्येऽन्यतरेणैकेन सकाममरणेन म्रियते, तानि त्रीणि सकाममरणानीमानि-भक्तपरिज्ञा भक्तप्रत्याख्यान १ इंगिनी २ पादपोपगमनाख्यानि ३ यत्र भक्तस्य त्रिविधस्य चतुर्विधस्य चाहारस्य प्रत्याख्यानं १ यत्र मंडलं कृत्वा मध्ये प्रविश्य मंडलाइहिर्न निःस्त्री| यते तदिगिनीमरणं २ यत्र छिन्नवृक्षशाखावदेकेन पार्श्वेन निपत्यते, पार्श्वस्य परावर्तो न क्रियते तत्पादपोपगमनं. एतेषां त्रयाणां मध्येऽन्यतरेण मरणेन म्रियते, ___ अर्थः-अथ ज्यारे काल भरण संमाप्त थाय ते समये मुनि समुच्छ्य-अभ्यंतर कार्मणशरीर तथा बाह्य औदारिक शरीर, For Private and Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kobaith.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyarmandie भाषांतर अध्ययन५ ॥३८॥ बन्ने शरीरनो विनाश करीने त्रणपकारनां सकाममरणोमांना अन्यत्तम-एक सकाममरण प्रकारवडे करी मृत थाय छे. ते सकामउत्तराध्य- | मरणना प्रणप्रकार-भक्तपरिज्ञा, इंगिनी अने पादपोपगमन, आम वर्णव्या छे तेमाना प्रथम भक्तपरिज्ञा-एटले त्रिविध अथवा पन सूत्रम् चतुर्विध आहारनुं प्रत्याख्यान १ जेमां मंडल करी ते मध्ये प्रवेश करी तदनंतर मंडळनी बहार नन नीसरवु, ते इंगिनी २ अने ॥३८३॥ जेमां एक छेदेली वृक्षनी डाळनीपेठे जे पडखे पड्या ते पड्या, पडीथी पडखुपण बदलावq नहि, ते पादपोपगमन ३ ए त्रण सकाममरणना प्रकार छे नेमांनो एक प्रकार स्वीकारीने मरवु ते सकाममरण अथवा पंडितमरण कहेवाय. इति सुधर्मस्थामी जंबम्बामिनं प्रति कथयति हे जंबू ! अहं भगवचसा त्वां ब्रवीमि ॥ ३२ ॥ ____ ॥ इत्यकामसकाममरणीयमध्ययनं पश्चमम् ॥ आवीरीते सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी प्रति 'हु आ सघर्छ भगवान्ना वचनथी बोल्यो छ' एम कहे . ३२ इति श्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रार्थदीपिकायामुपाध्याय श्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिशिज्यलक्ष्मीवल्लभगणिविरचिताया मकानसकाममग्णीयाख्यस्य पंचमाध्ययनस्यार्थः संपूर्णः ॥ श्रीरस्तु ॥ आ अकामसकाममरणीय नामर्नु पांचम अध्ययन कयु. ए प्रमाणे उत्तराध्ययनमूत्रार्थदीपिका के जे उपाध्याय श्रीलक्ष्मीकीति२८ गणिना शिष्य लक्ष्मीवल्लभगणिए रचेली छे तेमां अकामसकाममरणीय आख्यावाळा पांचमा अध्ययननो अर्थ संपूर्ण थयो. For Private and Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥ ३८४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ अथ षष्ठमध्ययनं प्रारभ्यते ॥ पूर्वस्मिन्नध्ययने कामसकाममरणे उक्ते, तत्र सकाममरणं निर्ययस्य भवति, ततो निर्ग्रथस्याचारः षष्ठेध्ययने कथयति, अयं पंचमष्टाध्ययनयोः संबंध: — अथ पष्ट अध्ययननी आरंभपूर्व अध्ययनमां अकाम तथा सकाम मरण कयां, तेमां सकाम मरण निर्ब्रयनो आचार आ पष्ट अध्ययनमां कहेवाशे, आ पांचमा तथा छट्टा अध्ययननी संगति समजवी. जीवंतोऽविजा पुरिसा । संव्वे ते दुक्खसंभवा ॥ लुप्पति बहुसो मूढा । संसारंम्मि अणतिगे ॥ १ ॥ मूलार्थ:- ( जाव'तऽविजा) - जेटला तत्वज्ञान रहित ( पुरिसा ) -पुरुषो के (ते सव्वे ते सर्वे [ दुक्खसंभवा )= दुःखनां स्थानरूप छे, ( मूढा ) = मूढ [ अणतप] - अनंत एवा (संसारम्मि) =आ संसारने विषे [बहुसो] - वारंवार (लुप्पति) = पीडा पामे है ॥ १ ॥ व्या० - यावतोऽविद्याः पुरुषास्ते सर्वेऽपि मृढाः संसारे बहुशो वारंवारं लुप्यंते, आधिव्याधिवियोगादिभिः पीड्यन्ते न विद्यते विद्या सम्यग्ज्ञानं येषां तेऽविद्याः, अत्र नन् कुत्सितार्थवाचकः, ये कुत्सितज्ञानसहिता मिथ्यात्वोपहतचेतसो वर्तन्ते, ते मूर्खाः संसारे दुःखिनो भवंति कीदृशे संसारे ? अनंतकेऽपारे कीदृशास्तेऽविद्याः ? दुःखसंभवाः, दुःखसंभवो येषु ते दुःखसंभवा दुःखभाजनमित्यर्थ, यावतोऽविद्या इत्यत्र प्राकृतत्वादकारोऽदृश्यः ॥१॥ अर्थः- जेटला अविद्य पुरुषो छे ते सर्वे मूढ, संसारमां वारंवार लोपाय छे, अविध एटले जेने सम्यग्ज्ञान होतु ं नथी. अहीं For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन ६ 1136811 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् भाषांतर अध्ययन ॥३८५॥ ॥३८५|| नञ् (अ) कुत्सित अर्थनो वाचक छे. अर्थात् कुत्सित ज्ञानयुक्त मिथ्यात्ववडे जेनां चित उपहत होय तेवां मूर्खलोको आ अनंतक अपार संसारने विषये ए दुःखसंभव अविद्यजनो बहुशः अनेकवार-आधिव्याधिवियोगादिकथी पीडाय छे. 'यावतो, विद्या' एमां प्राकृतना नियम प्रमाणे अकार अदृश्य छे. ॥१॥ अत्राविद्यापुरुषोदाहरणं यथा-कश्चिद् द्रमकोऽभाग्यात कापि किंचिदनाप्नुवन् पुरावहिरेकस्मिन् देवकुले रात्राबुषितः, तत्रेकं पुरुषं कामकुंभप्रसादेन यथेष्टभोगान भुलानं वीक्ष्य प्रकामं सेवितवान् , तुष्टेन तेन तस्य भणितं भो तुभ्यं कामकुंभं ददाम्युत कामकुंभविधायिनी विद्यां ददामि! तेन विद्यासाधनपुरश्चरणादिभीरुणा विद्याभिमंत्रितं घटमेव मे देहीति भणित, विद्यापुरुषेण विद्याभिमंत्रितो घट एव तस्मै दत्तः, सोऽपि तत्प्रसादात्सुखी जातः, अन्यदा | पीतमद्योऽयं पुरुषस्तं कामकुंभ मस्तके कृत्वा नृत्यन् पातितवान् , भग्नः कामकुंभस्ततो नासो किंचिदर्थमवाप्नोति, शौचति चवं यदि मया तदा विद्या गृहीताऽभविष्यभदाभिमंत्र्य नवं कामकुंभमकरिष्यं, पूर्ववदेव सुग्वी चाभविष्य, एवमविद्या नरा दुःखसंभवः क्लिश्यते ॥१॥ अत्र अविद्यापुरुषy उदाहरण कहे छे-कोई एक द्रमक नामनो अभाग्यनेलीधे क्यांय पण कंइए न पाम्यो तेथी शहेरनी बहार एक देवमंदिरमा रात्र रह्यो. त्यां एक पुरुष कामकुंभना=[मनमा कामना करे ते पदार्थथी ए कुंभ भराइ जाय.] प्रसादथी पोतानि इच्छानुसार भोगभोगवतो जोइने तेनी घणी सेवा करी तेथी तेणे तुष्ट थइने कह्यु के-तने हुँ कामकुंभ आपुं ? के कामकुंभ सिद्ध करनारी विद्या दउँ ? त्यारे पेला अभागी पुरुष-विद्यासाधान पुरश्चरणादिक विधाननी तरखडना भयथी-'मने विद्या For Private and Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन ॥३८६॥ | भिमंत्रित घडोज आपो' एम माग्युं ते उपरथी पेला विद्यापुरुषे विद्याभिमंत्रित कुंभ तेने आप्यो, ते पण ए घटना प्रभावथी सुखी | उत्तराध्यः थयो एक वखते ते पुरुषे मद्यपान करी ए कामकुंभ माथा उपर लइने नाचतां नाचतां घडो पड्यो तेथी भांगी गयो. तेथी तेने पन सूत्रम् कंइ पण वस्तु न मळतां शोक करवा लाग्यो के-'अरेरे ते वखते में कुंभने बदले विद्या मागी होत तो आ टाणे विधाना अनुष्ठा नथी नबो कामकुंभ अभिमंत्रितकरी मनवांछित पदार्थो मेळवी पूर्ववत् सुखी थात? आवीरीते अविद्य-मूढ नरो दुःखित थइ क्लेश पामे छे. ॥३८६॥ समिक्खं पंडिए तम्हा । पार्सजाइपहे बह ॥ अप्पणा सच्चमेसिज्जा । मिति" भूएसु कैप्पए ॥१॥ मूलार्थ:-(तम्हा) ते कारण माटे (पडिए)-पंडित पुरुष [बहु-घणा (पासजाइ पहे) एकेन्द्रियादिक जातिने पमाढे तेवा मार्गने JE (समिक्ख)-जोहने ( अप्पणा )-पोतानी मेळेज ( सच )-सत्पुरुषने-संयमने (एसीजा)-इच्छे, तथा (भूपसु) सर्व प्राणीओने विषे HALL (मिति)-मैत्रीभाव [कप्पए)-करे ॥२॥ व्या-तस्मादज्ञानिनां मिथ्यात्विनां संसारभ्रमणत्वात्पंडितस्तत्वज्ञ आत्मना स्वयमेव परोपदेशं विनैव सत्यमेषयेत् , सद्भ्यो हितं सत्यमर्थात्संयममभिलषेत्, पुनः पंडितो भूतेषु पृथिव्यादिषु षटकायेषु मैत्री कल्पयेत्. किं कृत्वा? बहून् पाशजातिपथान् समीक्ष्य, पाशाः पारवश्यहेतवः पुत्रकलत्रादिसंबंधास्त एव मोहहेतुतयैकेन्द्रियादिजातीनां पंथानः पाशजातिपथास्तान पाशजातिपथान दृष्ट्वा, यदा हि पुत्रकलत्रादिषु मोहं करोति तदैकेन्द्रियत्वं जीयो यनाति. अर्थः-तेटला माटे अज्ञानी तथा मिथ्यात्वीने संसारभ्रमण करवां पडे है, तेथी पंडित तत्वज्ञ, परोपदेश विना स्वयं पातानी For Private and Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie उत्तराध्यall मेळेज सत्यने एटले सत्पुरुषोना हितकर संयमनी अभिलाषा करे, वळी ते पंडित, बहु घणा पाशनातिपथ-परवशताना हेतु पुत्र स्त्री वगेरे भाषांतर पन सूत्रम् पाश, एज मोह हेतु होइ एकेन्द्रियादि जातिना मार्गरूप जोइ जाणी, पृथ्वी आदिकथी पट्कायने विषये मैत्रीनी कल्पना करे.स्त्रीपुत्रादि 11 अध्ययन | कने विषये ज्यारे मोह करे छे त्यारे जीवने एकेन्द्रियादिभाव बंधाय छे एटला माटे पंडित ए पाशथी मुक्त रही संयमाभिलाषी थाय. ॥३८७॥ ॥३८७॥ माया पियोण्हुसा भाया । भजो पुत्ताय ओरसा ॥ नॉलं ते मम ताणाय। लैप्पंतस्स सम्मुणा ॥३॥ २१ मूलार्थः-(माया)-माता [पिया)-पिता [ण्डसा)-पुत्रवधू (भाया)-भाइ (भजा)-भार्या (पुत्ता)-पुत्ररुपे मानेला [य]-तथा (ओरसा) ३६ पोतेज उत्पन्न करेला पुत्रो (ते) ते सर्वे [ सकम्मुणा -पोताना कमें करीने (लुप तस्स)-पीडा पामता एवा (मम) मारा (ताणाय]= रक्षण माटे [अल'न-समर्थ नथी ॥ ३॥ व्या०-पंडित इति विचारयेदित्यध्याहारः कर्तव्यः, इतीति किं? एतेमन त्राणाय मम रक्षायै नगलं न सनर्थाः कथं| भूतस्य मम? खकर्मणा लुतस्य स्वकर्मणापीडधमानस्य, पते के? माता पिता स्नुषा बंधुर्धाता सहोदरोभार्या पत्नी पुत्राः पुत्रत्वेन मानिता; च पुनः 'ओरसा' स्वयमुत्पादिताः, पते सर्वेऽपि स्वकर्मसमुद्भूतदुःखाद्रक्षणाय न समर्था भवतीत्यर्थः । अर्थः-माता, पिता, स्नुपा-पुत्रनी वधु, भ्राता बंधुः सहोदर भार्या पत्नी; पुत्रो=पुत्ररूपे मानेला तथा औरस-पोते उत्पन्न करेला |Jt JEL पुत्रादिक; आ सर्वे-स्वकर्मवढे लोपातो; अर्थात् पोतानाज कर्मोवडे पीडा पामतो एवो जे हु तेना त्राण-रक्षण-मां न अल अर्थात मारा पोतानाज कर्मथी समुद्भूत दुःखथी मारुं रक्षण करवामां उपर कहेलामांना कोइ समर्थ नथी; आम पंडित विचारे-आटलो अध्याहार करचो. For Private and Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥३८८|| www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एयंमै सपेहाए । पासे समिदंसणे ॥ छिंदे ं गेहिं सिणेह च । ने' कंखे पुव्वसंथैवं ॥ ४ ॥ मूलार्थ:- (समिअद 'सणे ] - समकीतदर्शन पुरुषे (एअ] = उपर कहेलो [अट्ट ] = अर्थ [ सपेहार =पोतानी बुद्धिवडे [ पासे ] जोवो, तथा (गेहिं ) = विषयलोलुपताने (च) =अने [सिणेह] स्त्री पुत्रादिक उपर प्रेमने (छिंद) = छेदवो) तथा (पुवसंथवं ) = पूर्व संस्तव ( न कखे) - इच्छवो नहिं ॥ ४ ॥ व्या० - शमितदर्शनः शमितं ध्वस्तं दर्शनं मिथ्यादर्शनं येन शमितदर्शनः, अथवा सम्यक्प्रकारेण इतं प्राप्तं दर्शनं सम्यक्त्वं येन स समितदर्शनः, एतादृशाः संयम्येतदर्थं पूर्वोक्तमर्थनशरणादिकं 'सपेहाए' स्वापेक्षया स्वबुध्ध्या 'पासेह' इति पश्येत्, हृद्यवधारयेत् च पुनर्गेहिं गृद्धि रसतां च पुनः स्नेहं पुत्रकलत्रादिषु रागं छिंद्यात्, पुनः पूर्वसंस्तवं न कांक्षेत्, पूर्व संस्तवः पूर्वपरिचय एकग्रामादिवासस्तं न स्मरेत्. ॥ ४ ॥ अर्थ:- शमित दर्शन = शमित एटले ध्वस्त थयेल छे दर्शन = मिध्यादृष्टि जेनी एवो अथवा अमित दर्शन = एटले 'सम्' = सारा रीते 'इत' माप्त थयेल छे. 'दर्शन' समयक्त्व जेने एवो संयमी, आ अर्थने स्वापेक्षया=स्त्रबुद्धिवडे जुए= पोताना हृदयमां निश्चितरूपे धारण करे. गृद्धि-लोलुपता तथा स्नेह एटले पुत्र स्त्री आदिकने विषये जे राग होय तेने पण छेदी नाखे अने पूर्वसंस्तव पूर्वना जे एक गाममां साथै रहेनारपणुं तथा मित्रभावादि जे परिचय होय तेनी आकांक्षा न करे; अर्थात् एवी बावतोने याद पण न करे. ||४|| गवासं मणिकुंडलं । पैसवो दार्सपोरुलं ॥ सर्वमेयं चत्ता णं । कार्मरूवी भविस्ससि ॥ ५ ॥ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन ३ ||३८८|| Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्सराध्य-IAL मूलार्थः-(गवास)-बळद बने घोडो, तथा (मणिकुंडल)-मणि ओ अने कुडल विगेरे अलंकारो, तथा (पसयो भजादिक बीजा यन सूत्रम् पशुओ तथा (दासपोरस) दासनो समूह (प' सम्व)-आ सर्वने (चात्ताण)-तजीने (कामरुवी भविस्ससि)-तु' कामरूपी थाश. ५||भाषातर अध्ययन व्या-पुनरपि पंडित आत्मानमिति शिक्षयेत् , अथवा गुरुः शिष्यं प्रत्युपदिशति हे आत्मन् ! अथवा हे शिष्य !|| ॥३८९॥ एतत्सर्व त्यक्त्वा कामरूपी स्वेच्छाचारी भविष्यसि, परलोके च निरतीचारसंयमदालनादेवभवे वैक्रियादिलब्धिमांस्त्वं ॥३८९॥ भविष्यसि, एतत्किं तदाह-गवावं, गवाश्चाश्वाश्च गवावं, पुनर्मणिकुण्डलं मणयश्चंद्रकांताद्याः, कुण्डलग्रहणेनान्येषामप्यलंकाराणां ग्रहणं स्यात्, सर्वे मणयः सर्वाण्यलंकाराणि चेत्यर्थः, पशवोऽजैडकपक्षमपट्यागुत्पादकरोमधारकाः कुर्कुरादयश्च, दासा गृहदासीभ्यः समुत्पन्ना जीवाः, पौरुषा निजकुलोत्पन्नपुरुषाः, दासाश्च पौरुषाश्च दासपौरुषं,एते सर्वेऽपि मरणान्न ब्रायंत इत्यर्थः तस्मात्पूर्वमेतत्त्यक्त्वा संयम परिपालयेदित्यर्थः ॥५॥ अर्थः-पुनरपि पंडित, आत्माने आम शिक्षण आपे,-अथवा गुरु शिष्य प्रति उपदेश आपे छे, "हे आत्मन् !' अथवा 'हे शिष्य! आ सघल्लं त्यजीने कामरूपी स्वेच्छाचारी थइश, परलोकमां पण निरतिचार संयम पालबाथी देवभवमां वैक्रियादिलब्धिमान तुं थइश. ए ते शृं? ते कहे डे-गायु, घोडां, वळी मणिकुडंल मणीचंद्रकांतादिथी जडेलां कुंडळ-अत्रे कुंडलपद तमाम आभूषणर्नु उपलक्षण छे अर्थात् कुंडलादि सकल आभरणो, पशुओ-बकरां, घेटां वगेरे (जेमांथी वस्त्रादि बने जेवां रुंबाडां धारण करनारां माणि) कूतरा आदिक, दास-घरनी दासीओथी उत्पन्न थयेला-जीवो तथा पौरुष पोताना कुलमा जन्मेला पुरुषो आ सर्वे कंइ मरणथी पाण-रक्षण आपी शकवाना नथी, माटे प्रथम ए सर्वेने त्यजी संयम परिपालन करे. ॥५॥ For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन ॥३९० थावर जंगमं चेवै । धणं धन्नं उवक्खरं ॥ पंच्चमाणस्स कम्मेहि नौलं दुक्खा माअणे ॥६॥ उत्तराध्य- मूलार्थः-(थावरं)-घर विगेरे स्थावर, (जंगम)=जंगम, (चेव)-निश्चे (धण)-द्रव्य (धन)-धान्य(उवक्तर)-घरनी वस्तु (कम्मेदि)-पोताना पन सूत्रम् । | कर्मवडे (पच्चमाणस्स) पचाता एवा जीवने (दुक्खाओ)-दुःखथी (मोअणे) मूकवामां (अलन)-समर्थ नथी. ॥ ६ ॥ च्या०-पुनरेतत्सर्व वस्तु कर्मभिः पच्यमानस्य जीवस्य दुःखान्मोचनेऽलं समर्थ न भवति. एतरिक? स्थावरं गृहादिकं ॥३९०॥ च पुनर्जगमं पुत्रमित्रभृत्यादि. पुनधनं गणिमादि, धान्यं ब्रीह्यादि, पुनरूपस्करं गृहोपकरणं. ॥६॥ अर्थ:-पुनरमुनि आ सर्व वस्तुओ पोताना कर्मोथी पच्यमान (रंधाता) जीवने दुःखथी मुकाववाने समर्थ नथी. ए शृं? ते कहे छे | थावर-घर वगेरे, जंगम=पुत्र, मित्र, भृत्यु=नोकर वगेरे, धन=सहस्र आदि संख्याथी गणाय तेवू नाणुं, धान्य=आळ गहुँ वगेरे; तथा उपस्कर-घरनां राचरचीला आदिक तमाम, स्वकर्मना परिपाकरूपे थता दुःखथी जीवने मुकावी शकतां नथी. ॥ ६॥ अज्झत्थं सर्वओ संवं । दिस्त पाणे पियायएं ॥ न हणे" पाणिणा पाणे" । भयंवेराउ उर्वरए ॥ ७ ॥ मूलार्थः-(भववेराओ)=भय अने वैर (उवरण)-निवृत्ति पामेला एवा साधुए (सयओ) सर्व प्रकारे (सव्व) सर्व सुखदुःखादिक (अजयत्थं) आत्मामा रहेलु [दिस्स] जाणीने (पाणे) सर्व प्राणिओने (पिआयए) पोतानो आत्माज प्रिय होय छे एम जाणीने (पाणिणो) प्राणीना (पाणे) प्राणोने (न हणे) हणवा नहि ॥ ७ ॥ व्या०-साधुः सर्वतः सर्वप्रकारेण सर्वमध्यात्ममं सुखदुःखादिकं 'दिस्स' इति दृष्ट्वा सर्वप्रकारेण सर्व सुखदुःखादिकमात्मनि स्थितं ज्ञात्वा सुखदुःखयोर्वेदकमात्मानं ज्ञात्वा इष्टसंयोगादिहेतुभ्यः समुत्पन्नं सुखं सर्वस्यात्मनः मिय Janwar For Private and Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् | स्यात, इष्टवियोगादिहेतुभ्यः समुत्पन्न दुःखं सर्वस्यात्मनोऽप्रियं ज्ञात्वेत्यर्थः. च पुनः प्राणिनो जीवान पियात्मनो दृष्ट्वा | भाषांतर प्रिय आत्मा येषां ते प्रियात्मनस्तान् प्रियात्मन: सब्वे जीवावि इच्छति। जीविउ न मरिजिउं ।। इति दृष्ट्वा हदि विचार्य अध्ययन प्राणिनो जीवस्य प्राणानिद्रियोच्छ्रशासनिःश्वासायुबलरूपान्न हन्यात् , भयाद्वैराचोपरमेत् , निवर्तेत. अथवा कशंभूतः ॥३९॥ साधुः ? भयाद्वैरादुपरतो निवर्तितः, इति साधुविशेषणं कर्तव्यं. ॥ ७ ॥ अर्थः-साधु पुरुष, सर्व प्रकारे सर्वने अध्यात्म सुखदुःखादिक, आत्मस्थ छे एम जोइ अर्थात् सर्व सुखदुःखादिक आत्माने विषये स्थिति छे. एटले के-मुखदुःखनो वेदक अनुभवकर्ताआत्मा छे एम जाणी, इष्टना संयोगादि हेतुथी समुत्पन्नमुख सर्व आत्माने प्रिय होय छे तेम इष्टवियोगादि हेतुथी उत्पन्न थतुं दुःख सर्व आत्माने अमिय होय, एम जाणीने प्राणी-जीवोने प्रिय छे आत्मा जेने एवा समजीने-'सर्वे जीवो पण जीववा इच्छे छे कइ मरवा नथी इच्छता' आम जोइने हृदयमा विचारीने प्राणी जीवना प्राणोने एटले इन्द्रियो, उच्चासनिःश्वास, आयुष्य, बल, इत्यादिरूप प्राणोने न हणे, किंतु भय तथा वैरथी उपरत थाय निवृत थाय. अथवा 'भय तथा वैरथी उपराम पामेलो आq साधुनुं विशेषण पण करी शकाय. ॥७॥ आदाण नरय दिस्स । नायइज्जे तणाभवि ॥ दोगुंछी अप्पणो पाएं । दिन्नं भुजिजे भोअणे ॥ ८॥ मूलार्थः-[आदाणं] आदान ते [नरचं नरकरुप (दिस्स) जाणीने [तणामवि तृणरुप पारकी वस्तु (न आयइज) ग्रहण करदी नहि परंतु (अप्पणो) पोताना आत्मानी [दोगुंछी] दुर्ग'छा करनार साधु पाए पात्रामा (दिण्ण') आपेलां [भोअण] भोजननो ( जिज्ज) आहार करे. ॥ ८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन ॥३९॥ व्या-साधुस्तृणमपि 'नाइयज' इति नाददीत, अदत्त न गृहीत, किं कृत्वा? आदानं नरकं दृष्ट्वा, आदीयत इत्याउत्तराध्य-NJE दानं धनधान्यादिकं परिग्रह, नरकं नरकहेतुत्वान्नरकं ज्ञात्वेत्यर्थः, पुनः साधुः पाए दिन्न', पात्रे दत्तं गृहस्थेन पात्रमध्ये पन मूत्रम् पक्षिप्तं भोजननं शुद्धाहारं 'भुजिज' भुंजीत, कथंभूतः सन् ? 'अप्पणो दुगंछी आत्मनो जुगुप्सी सन् , आहारसमये ॥३९२॥ आत्मनिंदकः सन् अहो धिग्ममात्मानं ! अयमात्ना देहो वाहारं विना धर्मकरणेऽसमर्थः, किं करोमि? धर्मनिर्वाहार्थ मस्मै भाटकं दीयत इति चिंतयन्नाहारं कुर्यात्, न तु बल पुष्ट्याद्यर्थमहारं विधीयत इति चिंतपेत अवादत्तपरिग्रहाश्र६वद्वयनिरोधादन्येषामप्याश्रवाणां निरोध उक्त एव ॥ ८॥ अर्थ:-साधु आदान= धन धान्यादिकना परिग्रह करवो ते आदान, तेने नरक जोइने अर्थात् ए नरकना हेतु होवाथो तेने नरक तुल्य गणीने कोइए नहि आपेला तृणने पण उपाडे नहि, किंतु पोताना पात्रांमां कोइ गृहस्थे नाखेलु भोजन शुद्ध आहार=नुं भक्षण करे. केवी रीते? ते कहे छे 'आत्मानो जुगुप्सी' पटले पोतानो निंदक थइने अर्थात् 'अरे मारा आत्माने धिकार छे. आ मारो देह आहार विना धर्माचरणमां असमर्थ छे. शुं करवू ? धर्मनिर्वाह करवा आ देहने भाई देवू पडे छे' आवा विचार करतो साधु आहार स्वीकारे कंइ 'मारुं शरीर पुष्ट थाय तथा मारा शरीरमा बलनी दृद्धि थाय' एम आहार लेतां न विचारे अत्रे अदत्तादान तथा परिग्रह SEI आ चे आश्रवनो निरोध कहेवामां अन्य आश्रवोनो निरोध पण कबो समजी लेवो. ॥८॥ इहमेगे उ मनंति । अप्पचक्खाय पावेगं । आयारियं विदित्ताणं । सबदुक्खा विभुच्चई ॥ ९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य- मूलार्थ:-(उ) वळी (इह) अहीं (एगे) परतीथिको (मण्ण ति) माने डे, तथा (पावर्ग) पापनो (अपचक्वाय) विना निरोधे पण मनु- भाषांतर यन सूत्रम् प्य (आयरिय) आचारमा (विदित्ताण) जाणीनेज (सतदुक्खा) सर्व दुःखथी (विमुबह मुक्त थाय के. ॥९॥ 15 अध्ययन व्या०-इहास्मिन् संसारे एके केचित्कापिलिकादयो ज्ञानवादिन इति मन्यते, इतीति कि? पापक हिंसादिकमप्र॥३९ ॥ ॥३९३॥ त्याख्याय पापमनालोच्यापि मनुष्य आचारिकंस्वकीयस्वकीयमतोद्भवानुष्टानसमूहं विदित्वा, ज्ञात्वा,सर्वदुःखाद्विमुच्यते एतावता तत्वज्ञानान्मोक्षावाप्तिः, इति वदंति जनानांतु ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः, ज्ञानवादिनांतु ज्ञानमेव मुक्त्यंगमिति.॥९॥ अर्थः-इह=आ संसारमा एके केटलाएक-कपिलानुयायी ज्ञानवादिओ एम माने छे के पापक हिंसादिक=नु प्रत्याख्यान कर्या विना अर्थात् ए पाप तरफ लक्ष्य दीधा विना पण मनुष्य आचारिक-पोतपोताना मतमा निर्दिष्ट अनुष्ठान समूहने जाणीने सर्व दुःखथी Rai मुक्त थवाय छे, आ उपरथी तेओ तत्त्वज्ञानथी मोक्ष प्राप्ति थाय छे, एम बोले छे भेद एटलो छे के जैनसिद्धांतमा ज्ञान तथा क्रिया २४ यवढे मोक्ष थाय छे ज्यारे ज्ञानवादी केवल ज्ञाननेज मुक्तिर्नु अंग माने छे. ॥९॥ भणेता अकरिता ये । बंधमोक्खपईन्निणा॥ वाया वोरियेमेत्तेण । समासासंति अप्पयं ॥ १०॥ मूलार्थः-(भणता) शान भणता (य) पण (अकरिता) मोक्षना उपायन अनुष्ठान नहि करता, तथा (बंधमोकखपाणो)बंध मोक्षनी प्रतिक्षा करता, एवो, (वाधावीरिभमेत्तेण) मात्र वाणीना धीयवडे करीनेज (अप्पय') आत्माने (समासासंति) आश्वासन आपे छे. ॥१०॥ व्या०-पुनस्त एव ज्ञानवादिनो बंधमोक्षप्रतिज्ञिनो वाचा वीर्यमात्रेण केवलं वाकशरत्वेमात्मानं समाश्वासयति, K For Private and Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन ॥३९४॥ JE बंधश्च मोक्षश्च बंधमोक्षी, तयोः प्रतिज्ञाद्यं ज्ञानं येषां ते बंधमोक्षप्रतिज्ञिनो बंधमोक्षज्ञा इत्यर्थः । यतः-मन एव मनुउत्सराध्ययन सूत्रम् ष्याणां । कारणं बंधमोक्षयोः ।। यत्रैवालिगिता कांता । तत्रैवालिंगिता सुता ॥१॥ इत्यादि प्रतिज्ञां कुर्वाणास्ते किं कुर्वतः आत्मानमाश्वासयंति? भणंतो ज्ञानमभ्यस्थतः, च पुनरकुर्वतः क्रियामनाचरंतःप्रत्याख्यानतपः पौषधव्रतादिका ॥३९४॥ क्रियां निदंतः, ज्ञानमेव मुक्त्यंगतयांगीकुर्वत इत्यर्थः ॥ १० ॥ अर्थः-ते ज्ञानवादिओ बंध तथा मोक्षनी प्रतिज्ञा एटले आद्यज्ञान धरावनारा अर्थात् 'अमे बंधमोक्षना स्त्ररुपने समजीये छीइए' एम माननारा कारण के 'जे अंगे सुताने तेडीए तेन अंगे कांताने आलिंगन कराय मात्र बुद्धिभेद छे तेथी मनुष्योर्नु मन एज बंधनु तथा मोक्षन कारण छे.' आवी वातो करता केवल वाणीना वीर्यमात्रथो आत्माने समाश्वासन आपे छे, शुं करीने आत्मानुं आश्वासन करे छे? ते कहे छे भणतः मात्र ज्ञाननो अभ्यास करता पण बीजु कंइ कर्म=क्रियानुं आचरण करता नयी-प्रत्याख्यान, तप, पौषध व्रत आदिक क्रियाओनी निंदा करी मात्र ज्ञाननेज मुक्तिना अंगरूपे स्वीकारे छे. ॥ १० ॥ नै चित्ता तायएभासा । ओ विजाणुसासणं ॥ विसन्ना पावकम्महिं । बाला पंडियमाणिणा॥११॥ मूलार्थः-(चित्ता) विचित्र (भाषा) भाषा (तायए) जीवन रक्षण करता नथी. (विजाणुसासण) विचित्र मप्ररुप शीखg ते (कओ) पापथी शी रीते रक्षण करे? (पावकम्मेहिं) पापादिहिंसाने विषे (विसण्णा) विविध प्रकारे मग्न कारणके (बाला) मूढ एवा तेओ (पंडिअमाणिणो) पोताने पंडित माननारा होय छे. ॥ ११ ॥ व्या०-पंडितमानिन आत्मानं पंडितमन्या ज्ञानाहंकारधारिण इति न जानंति, इत्यध्याहारः, इतीति किं? चित्राः امه سالانهما سننا نتنانسي تتعانقانونيا للاتصنع تملقط For Private and Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राकृतसस्कृताद्याः षड्भाषाः, अथवान्या अपि देशविशेषान्नानारूपा भाषा वा पापेभ्यो दुःखेभ्यो न प्रायंतेन रक्षते, सहि उत्तराध्य- 18 3E भाषांतर यन मृत्रम् विद्यानां न्यायमीमांसादीनामनुशासनमनुशिक्षणं विद्यानुशासनं कुतस्त्रायते? नत्रायत इत्यर्थः. अथवा विद्यानां अध्ययन विचित्रमंत्रात्मिकानां रोहिणीप्रज्ञप्तिकागौरीगांधार्यादिषोडशविद्यादेव्यधिष्ठितानामनुशासनमनुशिक्षणमाराधनं कुतो ॥३९५॥ नरकात् त्रायते? कीदृशास्ते बालाः अतत्वज्ञाः, पुनः कीदृशास्ते? पापकर्मभिर्विषण्णा विविधमनेकप्रकारं यथास्यात्तथा G॥३९५॥ सन्नाः पापपंकेषु कलिता इत्यर्थः ॥ ११॥ अर्थः-पंडितमानी-पोताने पंडित माननारा ज्ञाननो अहंकार धरनारा ते वाल=अतत्त्वज्ञ जनो एम नथी जाणता के विचित्र=नाना प्रकारनी प्राकृतसंस्कृतादि षट् भाषा अथवा अन्य देश विशेषनी अनेक भाषाओ पापथी पापजन्य दुःखोथी त्राण रक्षण नहिं आपी शके, त्यारे विद्या न्यायमीमांसादीन शिक्षण केनाथी रक्षण आपे? त्राणनथीज आपी शकतुं एम जाणवू अथवा विद्या एटले रोहिणी मज्ञप्तिका, गौरी, गांधारी, इत्यादिक पोडशदेवीयोए अधिष्ठित विद्याओगें अनुशासन शिक्षण कया नरकथी रक्षण करी शके? सर्वथा नहि ए बाल अतत्त्वज्ञ जनो केवा होय छे? ते कहे छे-पाप कर्मो वडे विषण्णा विविध प्रकारे पापपंकमां गुची गयेला कलेश पामता.॥११॥ जे केई सरीरे सत्ता । वण्णे रूवे य संवसो ॥ मणसा कायवक्केण । संवे ते दुक्खसंभवा ॥ १२ ॥ hdमूलार्थः-(जे केह) जे कोद [सरीरे] शरीरने विष [सत्ता] आसक्त छे तथा (वणे) वर्णने विषे [रूवे] सौंदर्यने स्पर्शादिकने विषे आसक्त होय छे (ते सन्ने] ते सर्वे (मणसा) मनवडे [काय कायावडे [वकेण] वचनवडे एम (सव्यसो) सर्व प्रकारोवडे (दुःक्खसंभवा) दुःखना स्थानरुप थाय छे. ॥ १२ ॥ For Private and Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन ॥३९६॥ उत्तराध्य- दिशं भवभ्रमणरूपामष्टादशभावदिशो दृष्टा साधुरप्रमतः प्रमादरहितः सन् विचरेत् , अष्टादशभावदिशश्चमा:-पुढवि | पन सूत्रम् १ जल २ जलण ३ वाउ ४। मूला ५ खंध ६ ग्गा ७ पोरबीयाय ८॥ बि ९ति १० चउ ११ पंचिंदियतिरि १२ । ॥३९६॥ नारया १३ देवसंघाया १४ ॥१॥ समुच्छिम १५ कम्मा १६ कम्म-गाय १७ मणुयातहतरद्दीवा १८ ॥ भावदिसा दिस्सइज । संसारी निययमेआहि ।।२।। इति संसारे प्रमादिनो जीवा इमास्वष्टादशभावदिशासु पुनः पुनर्धमंतीत्यर्थः. अर्थ:-ते ज्ञानवादी आ अनतक अपार संसारमा दीर्घ भवभ्रणना लांबा अध्वा-मार्गे आपन्न-पळेला छे तेथी सर्व दिशाओ भणी जोइने साधु अप्रमत्त प्रमाद न राखतां (परिव्रजेत्) विचरे. भवभ्रमणरूप अद्वार भावदिशाओनां नाम पृथ्वी १ जल २ जवलन ३ वायु ४ मूल ५ स्कंध ६ अग ७ पर्वबीज गांठ वाववाथी उगनारा शेरडी आदिक पर्वबीज कहेवाय.८ वींद्रिय ९ त्रींद्रिय १० चतुरिद्रिय ११ पंचेंद्रिय १२ नारक १३ देवसंघात १४ समुर्छिम-गर्भ विना पोतानी मेळे उत्पन्न थाय ते १५ कर्मभूक्ष्म पुद्गल १६ अकर्मस्नातक विशेष १७ तथा तनुज १८ आ अढार भाव दिक्षा कहेली छे जेमा संसारी नियमे करी परिवर्तन पाम्या करे हे. १३ बहिया उड्ढामादाय । नावकखे कयाइवि ॥ पुवकम्मक्खयहाए । इमं देहं समुंबरे ॥ १४ ॥ Del मूलार्थः-(याहिआ) संसारथी बहार रहेला [उ8] उचे मोक्षने (आदाय) ग्रहण करीने (कचाइवि) कदाचित् (न अवकखे) विषयनो DAII अभिलाष न करे, (पुवकम्मखयछाप) पूर्वे करेलां कर्मोनो क्षय करवा माटे । इम) आ देहर्नु (सुमुद्धरे) पालन करबुयोग्य छे. ॥१४॥ व्या-साधुः पूर्वकर्मक्षयार्थमिमं देहं समुद्धरेत्, सम्यक् शुद्धाहारेण धारयेत्, पुनः कदापि परीषहोपसर्गादिभिः For Private and Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie भाषांतर अध्ययन उत्तराध्य-BE 4 (बांचकने सूचनाः-३९७ पेज हे ते ३९६ समजवु अने ३९६ छे ते ३९७ समजवु.) पन सूत्रम् व्या०-ये केचन ज्ञानवादिनः शरीरे शक्ताः सुखान्वेषिणश्च संति, तथा पुनर्ये वर्णे शरीरस्य गौरादिके, च पुन स्तथा रूपे सुंदरनयननासादिके, चशब्दाच्छब्दे रसे गंधे स्पर्श च सर्वथा मनसा कायेन वाक्येन सक्ताः संलग्नाः संति, ॥३९७|| ते सर्वे दुःख संभवा दुःखस्य संभवा दुःख संभवी दुःखभाजनं भवंति, मृगपतंगमीनमधुपमातंगवदिहलोके यथा मरणदुःखजः, परलोकेऽप्यातध्यानेनमृता दुःखिनः स्युरित्यर्थः ॥ १२ ॥ अर्थः-जे केटलाक ज्ञानवादि पुरुषो शरीरमा सक्त-सुखने चाहनारा छे तथा वर्ण=शरीरना गौरादि वर्णमां तथा रुपमा तेमन सुंदरनेत्र नासिका आदि अवयवोमा 'च' शब्द छे तेथी रस, गंध, स्पर्श आदिमां मन, काया तथा वाक्यथी सक्त संलग्न रहे छे, ते सर्वे दुःखसंभव दुःखना भाजन बने छे. जेम मृग, पतंग, मीन, मधुप-भ्रमर तथा मातंग हाथी क्रमे करी शब्द, रुप, रस, गंध तथा स्पर्शमा सक्त यह मरण दुःखभागी थाय छे तेम आ लोकमां दुःख भोगवे छे, वळी परलोकमां पण तेओ आध्यानथी मरण पामी दुःखीज थाय छे.१२ आवेन्ना दीहमद्धाणं । संसारंम्मि अणंतए ॥ तम्हा सबंदिसं पर्स । अप्पमत्तो परिवएँ॥१३॥ मूलार्थः-(अण'ताए) आ अनत एवा (संसारंम्मि) संसारने विषे (वहीं अद्धाण) दीर्घ मार्गने (आवन्ना) पाम्या सता दुःख भोगवे छे तिम्हा तेथी [सव्वादिसं] सर्व दिशा पटले (पम्स) जोइने साधु (अप्पमत्तो) प्रमाद रहित (परिव्यए) संयम मार्गमा विचरे. ॥१३॥ व्या-तेज्ञानवादिनो विषयिणोऽनंतकेऽपारे ससारे दीर्घमध्वानं मार्गमापन्नाः प्राप्ताः मंति, तस्मात्कारणात्सर्वा For Private and Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य- पीडितोऽपि न कस्यापि साहाय्यमवकांक्षेत्राभिलषेत्. अथवा कदापि विषयादिभ्यो न स्पृहयेत्. किं कृत्वा ? 'बहिया भाषांतर पन सूत्रम् ३६ संसारादहिस्तात्संसारादहिभूतमृर्ध्व लोकाग्रस्थानं मोक्षमादायाभिलष्य. ॥ १४ ॥ JE अध्ययन ॥३९८॥ अर्थः-साधु, पूर्व कर्मना क्षयार्थे आ देहने सम्यक् शुद्ध आहार वडे धारण करे कोइ पण काळे परीषह उपसर्गादिकथी पीडा ॥३९८॥ JE पामे तो पण कोइनी साहायनी आकांक्षा न करे. अथवा कदापि विषयादिकनी स्पृहा न राखे. केम करीने? ते कहे छे–'बहिया' आ संसारना बाहिभूत जे ऊर्व लोकाग्र स्थान छे तेने लइने-मोक्षनीज अभिलाषा राखीने मात्र पूर्व कर्म खपाचवा माटेज देह धारण करी वर्ते. १४ विगिच कम्मुणो हेउं । कालखी परिव ॥ मायं पिंडस्स पाणस्स ! कंडं लक्ष्ण भक्खए ॥ १५॥ मूलार्थ:-(कालक खी) अवसरनो जाण साधु [कम्मुणो हेउ] कर्मना हेतु तेने (विगिच) जुदा करीने [परिव्यए सयममार्गमा विचरे तथा (पिंडस्स) आहारना अने (पाणल्स) पाणीना (माय') प्रमाणने जाणीने [क] गृहस्थीए पोता माटे करेला आहार पाणीने (लण) मेळवीने भक्खए) भक्षण करे. ॥ १५ ॥ व्या०-कालकांक्ष्यवसरज्ञः साधुः कर्मणां हेतुं कर्मणां कारणं मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगादिकं विगिंच' विचित्यात्मनः सकाशात्पृथक्कृत्य परिव्रजेत्संयममार्गे संचरेत, कालं स्वक्रियानुष्ठानस्यावसरं कांक्षतीत्येवशीलः कालकांक्षी, पुनः स साधुः पिंडस्याहारस्य तथा पानस्य पानीयस्य मात्रां परिमाणं लब्ध्वा भक्षयेत् , यावत्यामात्रयात्मसंयमनि مع الهلال الانتقالي انا انشش For Private and Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर ध्ययन ||३९९॥ उत्तराध्य Modi वहिः स्यात्तावत्प्रमाणमाहारं पानीयं च गृहीत्वा कुर्यादित्यर्थः. कथंभूताहारं? कडं गृहस्थेनात्मार्थ कृतं, प्राकृतत्वाद्विपन सूत्रम् भक्तिव्यत्ययः॥ १५ ॥ ॥३९९॥ अर्थ:-कालकांक्षी-अवसरनी प्रतीक्षा करतो साधु, कर्मोना हेतु कर्मोनां कारण भूत जे मिथ्यात्व, अविरति. कषाय योगः इत्यादिक छे तेने आत्माथी पृथक् करी संयम मार्गमां विचरे. कालकांक्षी पदनो अर्थ एवो छे के पोताना क्रियानुष्ठानना अवसरनी आकांक्षा करतो एवो साधु, पिंड आहार तथा पान=पाणी ए वेयनी मात्रा परिमाण सर लइने भक्षण करे. अर्थात-जेटली मात्राथी पोतानो संयम निर्वाह थइ शके तेटलाज प्रमाणमां आहार तथा पाणी लइ संयम निर्वाह करे आहार केवो लेवो? ते कहे छे. 'कई =गृहस्थे पोताने माटे करेलो होय तेवोज आहार लेवो. प्राकृत होवाथी विभक्ति व्यर्थ छे. १५ सन्निहिं च न कुविजा । लेवमायाइ संजए । पक्खो पतं समादाय । निरवेक्खी परिव्वए ॥१६॥ मूलार्थः-(च) तथा (संजए) साधु (लेवमायाइ) लेपना लेश वडे [सनहिं] संनिधि खाद्यपदार्थोनो संचय (नकुबिजा) करे नहि [पक्खा] पनी जेम (पत पात्र (समदाय) ग्रहण करीने (निरविक्खौ) इच्छा रहित नि:स्पृह एवो सतो (परिब्बए) संयममार्गमा विचरे.॥१६॥ व्या०-च पुनः संयतः साधुर्लेपमात्रयापि संनिधि न कुर्यात् , लेपस्य मात्रा लेपमात्रा, तया लेपमात्रया सं सम्यकप्रकाBEरेण निधीयते स्थाप्यते दुर्गतावात्मा येन स संनिधितगुडादिसंचयतं न कुर्यात् , यावता पात्रंलिप्यते तावन्मानमपि धृतादिकं संचयेत्, भिक्षाराहारं कृत्वा पात्रं समादाय पात्रे गृहीत्वा निरपेक्षःसन्निः स्पृहः सन् , साधुमार्गे प्रवतंत.क इव? For Private and Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराव्य-10 यन सूत्रम् ॥४.०॥ 'पक्खी इव' यथा पक्ष्याहारं कृत्वा पत्रं तनुरुहमात्र गृहीत्वोड्डीयते, तथा साधुरपि कुक्षिशंबलो भवेत् . ॥ १६ ॥ भाषांतर अर्थः-संयत संयमवान् साधु, पुनः लेप मात्रथी पण सनिधि न करे. अर्थात् जेटलाथी पात्रने लेप थाय तेटला पण घी गोळ | अध्ययन आदिक पदार्थोनो संचय न करे. लेप जेटला पण जेनाथी आत्मा दुर्गतिमा संहित कराय छे एटले स्थापित कराय छे तेवो घी गोळ | JE | ॥४००|| | वगेरेनो संचय सर्वथा न करे. जेम पंखी आहार करीने पोताना पांख रुवाडां मात्र लइने उडी जाय छे तेम साधुए पण आहार करी पात्र लइने निरपेक्ष=निःस्पृह पणे साधु मार्गमा प्रवर्तवू. १६ एसणासमिओ लज्जु । गामे अनियंओ रे ॥ अप्पमत्तो पमत्तेहिं । पिण्डवायं गवेसंए ॥१७॥ | मूलार्थ:-(एसणासमिओ) एपणासमितिमा तत्पर अने (लज्जू) लजावान (गामे) गाम नगरादिकने विषे (अणिमओ) नित्य वास रहित (चरे) बिचरे. तथा (अप्पमत्तो) प्रमाद रहित साधु (पमत्तेहिं) प्रमत्त-विषयादिकमां आसक्त होवाथी गाफल रहेनारा | गृहस्थो पासेथी (पिंडवायं) भिक्षानी (गवेसए) गवेषणा करे ग्रहण करे. १७ व्या०-एषणासमिती निर्दोषाहारग्राही साधुग्रामे नगरे वाऽनियतो नित्यवासरहितः सन् चरेत्, संयममार्गे प्रयतेत, कीदृशः साधुः? लज्जुर्लज्जालुः, लज्जा संयमस्तेन सहितः, पुनः कीदृशः? अप्रमत्तः प्रमादरहितः, पुनःसाधुः | 'पमत्तेहि' इति प्रमत्तेभ्यो ग्रहस्थेभ्यः पिंडपातं भिक्षां गवेषयेत्, गृहीत, पंचमीस्थाने तृतीया. ॥ १७॥ अर्थः-एषणा समित एटले निर्दोष आहार ग्रहण करनार साधु, गाम-नगरमां अनियत=एक ठेकाणे नियत वास न करतां اما لسان االااالاااللللالتقنيات الرائع العاب الاله المكافحة الافت کالا لننطلق For Private and Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie भाषांतर अध्ययन 1३६॥४०१॥ | विचरे संयममार्गे प्रवर्ते ए साधुए केवा थq? लज्जू लज्जा एटले संयम तेणे युक्त अर्थात शरम राखीने तथा अप्रमश प्रमाद रहित उत्तराध्य-5t पन सूत्रम् थइने प्रमत्त अणधार्या गृहस्थाने त्यांची पिंडपात=भिक्षा गोती लीए-गृहण करे. पंचमी विभक्तिने स्थाने अहीं 'पमत्तेहि ए पदमा | तृतीया बहु वचन छे. १७ ॥४०१॥ अणुत्तरनाणी अणुत्तरदंसा। अणुत्तरनाणदंसणधरे॥अरहा नायपुत्ते । भयवं वेसालि वियाहिए तिबेमि॥१८॥ मूलार्थ:-(एवं) एम (से) ते महावीरस्वामी (उदाहु) कहेता हवा (अणुत्तर नाणी) सर्वोत्कृष्ट ज्ञानवान् तथा (अणुत्तरदंसी) सर्वोत्कृष्ट दर्शन वाळा (अणुत्तर नाण देसण घरे) तथा एककाळावच्छिन्न अनुत्तर ज्ञानदर्शन धारण करनारा बळी (भईन) पूज्य तथा (णायपुत्ते) सिद्धार्थना पुत्र (भयव) अष्टमहाप्रातिहादिक अतिशयोवडे युक्त तथा (वेसालिए) विशाल विशाला त्रिशलाना पुत्र (विआहिए) व्याण्या करनारा महावीरस्वामीए आ प्रमाणे कयुं छे (त्तिबेमि) एम हे जंबू हुँ तने कहुं ई. १८ व्या०-सुधर्मास्वामी जंबूस्वामिनं प्रत्याह हे जंबू! से इति सोऽर्हन ज्ञातपुत्रो महावीर: 'एवं उदाहुः' एवमुदाहृतवान. अहं तवाने इति ब्रवीमि, अर्हनिंद्रादिभिः पूज्यो ज्ञातः प्रसिद्धः सिद्धार्थक्षत्रियस्तस्य पुत्रो ज्ञातपुत्रः, कीदृशा महावीरः? भगवानष्टमहापातिहार्याधतिशयमाहात्म्ययुक्तः, पुनः कीदृशः? विशाला त्रिशला तस्याः पुत्रो वैशालिका, अथवा विशालाः शिष्यास्तीर्थ यशःप्रभृतयो गुणा यस्येति वैशालिकः, पुनः कीदृशो महावीरः? 'वियाहिए' इति व्याख्याता विशेषेणाख्याता द्वादश पर्षदासु समवसरणे धर्मोपदेशं व्याख्याता धर्मोपदेशक इत्यर्थः. पुनः कीदृशो महावीरः? अनुत्सरज्ञानी सर्वोत्कृष्टज्ञानधारी, पुनः कीदृशः? अनुन्नरज्ञानदर्शनधरः, केवलवरज्ञानदर्शनधारीत्यर्थः. अत्र For Private and Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् भाषांतर अध्ययन ॥४०२॥ ॥४०२।। पूर्वमनुत्तरज्ञान्यनुत्तरदशीति विशेषणद्वयमुक्त्वा पुनरनुत्तरज्ञानदर्शनधर इति विशेषणमुक्तं, तेन केवलदर्शनयोरेकसमयांतरेण युगपदुत्पत्तिः सचिता, अनयोः कथंचिदभेदोऽभेदश्च सूचितः, पुनरुक्तदोषो न ज्ञेयः ॥१८॥ ॥ इति क्षुल्लकग्रंथित्वाध्ययनं. अब्राध्ययने क्षल्लकस्य साधोनिग्नेथित्वमुक्तमित्यर्थः ॥ इति श्रीमदुत्तराध्ययनम्त्रार्थदीपीकायामुपाध्यायश्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिशिष्यलक्ष्मीवल्लभगणिविरचितायां क्षुल्लक| ग्रंथित्वाध्ययनस्य षष्ठस्यार्थः सपूर्ण ॥ श्रीरस्तु ।। अर्थः-सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे छे के-हे जंबू! ते अर्हन ज्ञातपुत्र महावीरे आवी रीते उदाहृत करेल छे एवीज रीते हु तमारी आगळ बोलुं छु. अर्हन् इंद्रादिके पूज्य ज्ञात प्रसिद्ध, सिद्धर्थ क्षत्रियना पुत्र=ज्ञातपुत्र कहेवाया. ए महावीर केवा? भगवान अष्टप्रातिहार्य आदिक अतिशय महात्म्ये करी युक्त, तथा विशाला=त्रिशाला, तेना पुत्र, अथवा विशाल तीर्थ यशः प्रभृति गुण जेना ते वैशालिक, वळी व्याख्याता द्वादश पर्षदाओमां समवसरणावसरे धर्मोपदेश करनारा, अनुत्तरज्ञानी=सर्वोत्कृष्ट ज्ञानवान् अनुत्तरदर्शी सर्वोत्कृष्ट दर्शन संपन्न तथा अनुत्तर ज्ञानदर्शन धर=केवल ज्ञान तथा वर दर्शनने धारण करनारा थया. १८ अर्थः-अत्रे पहेला अनुत्तरज्ञानी तथा अनुत्तरदर्शी कहीने पुनरपि अनुत्तर ज्ञान दर्शन घर विशेषण का तेनो आशय एवो छे के-केवल ज्ञान अने दर्शननी एक समयान्तरे युगपत् उत्पत्ति सूचन करीने ए बन्नेनो कथंचित् भेद तथा अभेद दर्शाव्यो तेथी पुनरुक्ति दोषनी संभावना करवानी नथी.. अर्थः-आ अध्ययनमा क्षुल्लक साधुनु निर्ग्रथित्व कह्यं तेथी आ क्षुल्लक ग्रंथित्वाध्ययन कडेवायुं. इति श्रीउत्तराध्ययनदीपिका के जे श्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिशिष्य श्रीलक्ष्मीवल्लभगणि विरचित छे तेमां पृष्ठ अध्ययन पूर्ण थयु. كفالقطان علائعات معاد للالتطعت علاقتنا ماتم For Private and Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥४०३॥ ॥ अथ सप्तममध्ययनं प्रारभ्यते ॥ भाषांतर २९ अध्ययन७ अत्र पूर्वाध्ययने साधोनिग्रंथत्वमुक्तं, तच्च यो रसेष्वगृद्धो भवेत्तस्यैव स्यात् , रसगृद्धस्य कष्टमुत्पद्यते, तेन रसगृद्धस्य कष्टोत्पत्तिदृष्टांतसूचकमुर नादिपंचदृष्टांतमयं सतममुरभ्रीयाख्यं कथ्यते, इति षष्ठससमयोः संबंधः, ॥४०३॥ आना आगला अध्ययनमा साधुना निग्रंथत्वनुं निरूपण कयु ए निर्ग्रथित्व जे रसमां लोलुप न होय तेनेज सांपडे छे. रस गृद्ध-शब्दादि विषयोमां हमेशां रच्या पच्या रहेनारा होय तेओने कष्ट उपजे छेए दर्शाववा रस गृद्ध साधुने कष्टोत्पत्तिनां मूचक उरभ्र आदिक पांच दृष्टांतमय सातमुं अध्ययन आरंभ थाय छे, आ षष्ठ तथा सप्त अध्ययनो पूर्वोत्तर संबंध दर्शावी संगति मूचवे छे. जहाँ एसं समुर्दिस्स । कोइ पासिज एलयं ॥ ओयण जर्वसं दिजो । पोसिजा वि सयंगणे ॥१॥ मूलाथैः-[जहा] जेम [कोह] कोड [भाएसं] परोणो तेने [समुहिस्स] उद्देशीने (पलय) एक घंटार्नु (पोसिज) पोषण करे, तथा | (ओयणं) अन्न (जवसं) मग. अडद विगेरे दिजा तेने आपे एरीते [सयगणो] पोताने आंगणे राखी तेनु [पोसेज्जावि] पोषण करे, पण १ ___व्या०-यथा कोऽपि कश्चिभिर्दयः पुमानादेशं आदिश्यते, विधिव्यापारेषु प्रेयते परिजनो यस्मिन्नगते स आदेशस्तं प्राघूर्णकं समुद्दिश्याश्रित्य स्वकांगणे स्वकीयगृहांगणे एलकमेडकमूरणकं पोषयेत्, तस्मै एक्कायोदनं सम्यग्धान्यं यवसं मुद्गमाषादिकं दद्यात्, ततश्च पोषयेत, पुन: पोषयेदित्युक्तं तदत्यादररूपापनार्थ, अपिशब्दः संभाव्यत एषु एवंविधः कोऽपि गुरुकर्मेत्यर्थः॥१॥ अनादाहरणं यथा-एकमूरणकं प्राघूर्णका पोष्यमाणं लाल्यमानं दृष्ट्वैको For Private and Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् । ॥४०४॥ वत्सः खिन्नः क्षीरमपियन् गवा मात्रा पृष्टः कथं वत्स! क्षीरं न पिवसि! स आह मातरेष ऊरणकः सबैलोकः पाल्यते, भाषांतर वीहीश्चायते, पुत्र इव विविधैरलंक्रियते, अहं तु मंदभाग्यः शुष्कान्यपि तृणानि न प्राप्नोमि, न च निर्मलं पानीयमपि JE अध्ययन प्रामोमि, न च मां कोऽपि लालयति, माता प्राह पुत्र! अस्यैतान्यातुरचिह्नानि, यथा मर्तुकाम आतुरो यद्यन्मार्गयति पथ्यमपथ्यं वा तत्तत्सर्व दीयते, तद्वत्तत्सर्वमप्यस्य दीयते, अथासौ मारयिष्यते तदा त्वं द्रक्ष्यसि. अन्यदा तत्र प्राघू ॥४०४॥ कः समायातः, तदर्थ तमृरणकं मार्यमाणं दृष्ट्वा भीतः स वत्सः पुनः स्तन्यपानमकुर्वन्मात्राऽनुशिष्टो हे पुत्र! किं त्वं भीतोऽसि? पूर्व मयोक्तं न स्मरति किं? आतुरचिहान्यतानीति, य एवं व्रीहीश्चारितः प्रकामं लालितः स एव मार्यते, त्वं तु शुष्कान्येव तृणानि चरितवानसीति मा भैषीः? नैव मारयिष्यसे, इति मात्रोक्तो वत्सः सुखेनैव स्तन्यपानमकरोत्. एवं यो यथेष्टविविधास्वादलंपटोऽधर्ममाचरति स नरकायुबंधनातीत्यर्थः ॥१॥ _ अर्थः-यथा जेम कोइ पण निर्दय पुरुष आदेश (जेना आववाथी परिजनने विविध काममां प्रेरवामां आवे ते)=माघुर्गक | मेमान=ने उद्देशीने पोताने आंगणे एलक-वेटाने पाले छे-ए घेटाने भात, सारुं धान, मग अडद वगेरे दीये छे तथा यवससारूं घास चरावीने पोषण करे छे आमां 'पोषयेत्' ए पद बे वार कह्यु ते अति आदर देखाडे छे पुनरुक्ति नथी. अपि शब्द संभावन अर्थमां छे. एटले एवो पण कोइ गुड्कर्मा होय छे. आ विषयमां उदाहरण कहे छे-एक गृहस्थने त्यां कोइ मेमान आवे तेने माटे ऊरणक धेटाने लालन पूर्वक पोषण पामतो जोइ तेज गृहस्थना आंगणामां बांधेली गायनो बाछडो धावq छोडी दइ खिन्न थयो, तेनी माये पूछयु के-हे वत्स! केम ध नथी पीतो? बाछडे कयु के–'हे मा! जो तो आ घेटानुं घरना बधां माणसो केवां लालन معه من الناع للفنان الهيالله الحالة فاعتقلت اقبال اور اعتداد الفن الاشكال For Private and Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पालन करे छे. भात खबरावे छे, पुत्रनी पेठे विविध अलंकारथी शणगारे छे, हुँ तो मंद भाग्य छ जेथी मने तो मुकुं घास पण मांड TREभाषांतर सुत्सराध्य-18 पामु छु तेम निर्मल पाणी पण मळतुं नथी, तेम मने कोइ लडावतुं पण नथी. माताए पुत्रने का के-हे पुत्र! ए घेटाना आ आतुर | । पन सूत्रम् अध्ययन चिन्हो छे जेम मरवा पडेलो आतुर जे मागे ते पथ्य होय के अपथ्य ते वधुंय तेने आपे छे तेम आ घेलाने पण बधुं देवाय छे ॥४०५॥ | पण ज्यारे तेने मारशे त्यारे तूं जोइश. एम करता एक दिवस ते गृहस्थने घरे पार्णक-परोणा आल्या त्यारे तेने माटे पेला घेटाने || nel मरातो ते वाछडे दीठो ते बखते पण ए बाछडो धावतो रही जइ उभो रह्यो त्यारे बळी तेनी मा गाय बोली के-हे पुत्र! तुं व्हीनो? में तने पूर्वे का हतुं जे आ आतुर चिन्ह छे ते याद नथी आवतुं? के आ घेटाने भात चरावीने खूब लालन कर्यु तेनेज आ टाणे मारे छे. तने तो मूकुं घास खबरावे छे. तारे आ टाणे जराय व्हीवानुं नथी कारण के तने कोइ पण मारशे नहि. आवा मानां वचनो सांभळीने ते वाछडे सुखेथी नीरांतेस्तन्यपान कर्यु. एम जे पुरुष पोताने भावता विविध प्रकारना आस्वादमां लंपट थइ अधर्माचरण | करे छे ते नरक भोगार्थ आयुष्य बांधे छे १ तओ से पुढे परिवूढे । जार्यमेए महोदरे पीणिएं विउँले देहे आएंसं परिकखए ॥२॥ मुलार्थ:-(तओ) स्थारपछी (पुढे) पुए थयेलो (परिवढे) लडवामां समर्थ (जायमेर) वृद्धि पाम्यो है. तथा (महोदरे) मोटा उदर RE वाळो अने (पीणिए) खवरावी पीवरावी संतुए करेलो (से) ते घेटो (विउले) विशाळ (दहे) देह थये सते (आएसं) प्राघूर्णकने (परिकंखए) इच्छे छे. ॥२॥ व्या-ततः स एलकः कीदृशो जातः? ततः स उरभ्रः पुष्ट उपचितमांसः, परिवृढो युद्धादौ समर्थः, सर्वेष्व- 100 For Private and Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य- न्येपूरभ्रेषु मुख्य इव दृश्यमाणः, पुनः कीदृशः? जातभेदाः पुष्टीभूतचतुर्थधातुः, पुनः कीदृशः? महोदरो विशालकुक्षिा, The भाषांतर यन सूत्रम् पुनः कीदृशः प्रीणितो यथेप्सितभोजनादिना संतुष्टीकृतः एतादृशः सन् स उरथ्रो विपुले विस्तीर्णे देहे सत्यादेशं ३६ अध्ययन प्राघूर्णकं परिकांक्षति प्रतीच्छतीव. ॥२॥ ॥४०६॥ ॥४०६॥ अर्थः-ते उरभ्र-वेटो तदनंतर केवो थयो? ते कहे छे-पुष्ट-उपचितअंगवाळो तथा परिढ=युद्धादि क्रियामां समर्थ, वळी बीजा बधा घेटाओमा मुख्य जेवो देखातो, जातभेद-शरीरमा चरबीथी भरेलो, महोटा पेटवाळो, प्रीणित यथेष्ट माल खाइने मातेलो, । एवो ते घेटो विपुल देह थतां आदेश कोइ महेमाननी प्रतीक्षा करेबाट जोतो थाय. २ जीव ने एंइ आएसे । ता जीवइ से दुही अंह पत्तमि आएसे । सीसं छित्तण भुहुई ॥३॥ Raमूलार्थ:-(जाव) ज्यां सुधी (आरसे) प्राघूर्णक (न पह) आव्यो नथी (ताव) त्यां सुधी (से) ते (दुद्दी) दुःखी थयो सतो (जीवह) जीवे छे. (अह) पछी (आरसं) प्राघूर्णक (पत्तम्मि) आवे सते (सीसं) मस्तक [छित्तूण) छेदीने [भुजई खाइ जाय छे. ३ व्या-स उरभ्रस्तावजीवति प्राणान् धारयति, कीदृशः सः? दुःखी, दुःखमस्य भाविति दुःखी, भाविनि भूतोपचारात्, यद्यपि वर्तमानकाले तस्य सुखमस्ति तथापि दुःखस्यागामित्वाद् दुःख्युच्यते, तावदिति किं? यावदादेशः माघूर्णको नैति नागच्छति. अथादेशे प्राप्ते सति शीर्ष छित्वा स उरभ्र आदेशेन समं स्वामिनापि भुज्यते. ॥३॥ अर्थः ते दुःखी उरभ्र वेटो त्यां मधी जावे छे ज्यां सूधी कोइ आदेशमहेमान नथी आवतो. अहीं दुःखी विशेषण आप्यु For Private and Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन७ ॥४०॥ उत्तराध्य- ते जोके घेटो वर्तमानकाळमां तो तेने सुख छ तथापि आगामि दुःख होवाथी तेने दुःखी' एवं विशेषण आप्यु छे पण ज्यारे पन सूत्रम् कोइ आदेश-महेमान आवे छे ते वेळाए ए घटानु मस्तक छेदीने महेमाननी साथे घरधणी पण खाय छे. ३ ॥४०७॥ जहाँ से खेल उप्भे । आएसाए समीहिए ॥ एवं बोले अहम्मिढे। ईहई नारयाउयं ॥४॥ 5- मूलाथः-(जहा) जेम (खल) निश्च (से) ते उरम्भे] घेटो (आएसाए) परोणाने [समीहिए] इच्छतो थको (एवं) एज प्रकारे [अहमिट्टे] अति अधर्मी एवो [वाले) बाळक-मृढ (नरयाउ) नरकना आयुष्यने (शहर) इच्छे छे. ४ व्या०-यथा स उरभ्र आदेशाय समीहितः कल्पितः, एवमिति तथा घालः कार्याकार्यविचाररहितोऽधर्मिष्टा नरकायुरीहते, इह नरकगतियोग्यकर्मकरणेन नरकाय कल्पित इत्यर्थः ॥४॥ अर्थ:-जेम ते उरभ्र वेटो आदेश आंगतुक महेमान अर्थे समीहित धारी राखेल होय हे तेम आ बाल कार्याकार्य विचार | रहित अधर्मिष्ट पुरुष-पण नरकायुः नरक गति योग्य कर्म करवाथी नरकने माटेज कल्पाय छे. ४ हिंसे' बाले मुसाबाई। अद्धार्णम्मि विलोवएँ । अन्नदत्तहरे तेणे । माई कन्सुहरे सँढे ॥५॥ इत्थीविसयगिके अ! महारंभपरिग्गहे ॥ भुंजमाणे सुरं मंसं" परिवूढे परं दंमे" ॥६॥ अयकेंकरभोई ये । तुंदिल्ले' चियलोहिए ॥ आऊँयं नए कंखे" । जहाएंसं व एलए ॥७॥ For Private and Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 3A उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥४०८॥ मूलार्थ:-(हिंसे) हिंसक (याले) अज्ञानी (मुसाबाई) मृपावादी, [अाणमि विलोवए] वटेमार्गुने लुटनार, (अन्नऽदत्तहरे) अदत्त ग्रहण | भाषांतर करनारा (तेणे) चोर (माई) मायावी [कन्नुहरे] कोना द्रव्यर्नु हरण कर? (सढो) शठ (अ) तथा [इत्थीविसयगिद्धे] खीमा आसक्त ३६ अध्ययन (सुर मंस भुंजमाणे) मदिरा मांसना भक्षणमा [परिवूढे हुए थयेलो तेथी करीने (परंदमे) बीजाभोनु दमन करनार [अ] तथा [अयकक्कर भोई] बकराना कर्कर शब्दवाळा पकावेला मांसने खानार, तेथी करीने (तुंदिले) मोटा पेटवाळी अने (चिहलहिए) पुष्ट ॥४०८॥ रुधिर वाळो मूढ़ (नरप) नरकने विषे (आउअं) आयुष्यने (कंखे) इच्छे छे. (जहारसं व एलए) जेम दृष्ट पुष्ट थगेलो घंटो परोराणाने इच्छे छे तेमः-- व्या-तिसभिर्गाथाभिः पूर्वोक्तमेव दृढयति-एतादृशो नरो नारके इति नरकगतो नरकायुरर्थान्नरकस्यायुः कांक्षति, नरकगतियोग्यकर्माचरणात्स नरो नरकगतिमेव वांछति, नरकाय कल्पितः, कः कमिव? एलकः पूर्वोक्त उरभ्र आदेशमिव यथा केनचित्पापेन यथेप्सितभोजनेन पोषित उरभ्र आदेशमिच्छति, कीदृशः सः? हिंस्रो हिंसनशीलः, पुनः कीदृशः? वालोऽज्ञानी, पुनः कीदृशः? मृषावादी, पुनः कीदृशः? अध्वनि विलोपको जिनमार्गलोपकः, पुनः कीदृशः? अन्यादत्तहरः, अन्येषामदत्तं हरतीत्यन्यादनहरः, अदनादानसेवीत्यर्थः पुनः कीदृशः? स्तेनश्चौर्येण कल्पितवृतिः, पुनः कीदृशः? मायी कापव्ययुक्तः, पुनः कीदृशः? कस्यार्थ नु इति वितर्के हरिष्यामीति विचारो यस्य स कन्हुहरः, पुनः कीदृशः? शठो वक्राचारः ॥५॥ पुनः कीदृशः? स्त्रीविषये गृद्धः, पुनः कीदृशः? महारंभपरिग्रहः, महांतावारंभपरिग्रही यस्य स महारंभपरिग्रहो महारंभी, पुनर्महापरिग्रही, पुनः कीदृशः? सुरां मद्यं मांसं च भुंजानः, पुनः कीदृशः? परिवूढ | उपचितमांसत्वेन स्थूलः, पुनः कीदृशः? परंदमः, परमन्यं जीवं दमतीति परंदमः परपीडाकारकः, आत्मार्थ परजीवा فانتسطع ناكا ئالایمان لانا خالد التاسع النطان s appUDAUN For Private and Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन मुत्रम् ॥४०॥ पघातक इत्यर्थः ॥६॥ पुनः कीदृशः? अजकर्करभोजी, अजस्य छागादेः कर्करमतिभ्रष्टं यच्चणकवद्भुज्यमानं ककरायते तन्मेदो दंतुरं पकं शलाकृतं मांसं तद्भुक्ते, इत्येवंशीलोऽजकर्करभोजी, पुनस्तुंदमस्यास्तीति तुंदिलो यथेप्सितभोज JEभाषांतर अध्ययन | नेन वर्धितोदरः, अत एव चितशोणितो वर्धितरुधिरः, रुधिरवृध्ध्यान्येषामपि धातूनां वृदिल्यते. ॥७॥ पूर्व 'हिसे बाले' इत्यादिनारंभोक्तिः कथिता, 'भुजमाणे सुरं मास' इत्यनेन दुर्गतिगमनभणनात्कष्टोत्पत्तिः कथिता. अथ गाथा- PREM ४०९॥ इयेन साक्षादिहेब कष्टं कथयति अर्थः-आ त्रण गाथा बडे पूर्वोक्त अर्थने दृढ करे हे एवो नर नरकमां आयुष्यने कांक्षे छ, अर्थात् नरक गति योग्य कर्मना आचरणथी ते नर नरक गतिनीज वांछना करे छे, जेम पूर्वे कहेल एलक-मेंढो आदेश-महेमानने माटे कल्पायेल होय छे. अर्थात् कोइ पापने योगे यथेष्ट भोजन खबरावीने पोषेलो मेंढो महेमानने इच्छे छे तेम ए बाल अज्ञानी हिंस्र-हिंसन शील, मृपावादी असत्य बोलनारो, अध्वनि जैन मार्गनो विलोपक, अन्यादत्तहर अन्यजनने नहिं दीधेलं हरनार, एटले अदत्तादान एवी, तथा स्तेन चोरी करी पोतानुं गुजरान चलावतो, मायी-कपट व्यवहार करतो, 'कन्हु हर'='केनुं हरी लर्ड' एवाज विचार करतो तथा शद-वक्रा चारी-कुटिलताथी भरेलो. ५ वळी ते स्त्रीविषयमा गृद्ध साकांक्ष तथा महारंभ परिग्रहमहोटा आरंभ करनारो तथा महोटा परिग्रह धारण करतो, मुरा सेवनारो तेमज मांगी खानारो, परिवूढ-मांस वधी जबाथी परिपुष्ट शरीरवान् , परंदम अन्य जीवोने दमन कर| नार अर्थात् पोतानी खातर परजीवनो उपघात करनारो. ६ पुनः ए अक्ष अजकर्करभोजी अजब-करा वगेरेनु, कर्कर एटले शूल उपर चडावी चणानी पेठे भुंनी नाखेलं चरवीवाळु मांस खानारो, अत एव तुंदिल-पेटनो गदाडो जेनो वधी गयो होय तेवो, तेम For Private and Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥ ४१० ॥ www.kobatirth.org |चित शोणित= रुधिरना उपचय वाळो, रुधिरनी वृद्धिनी साथे वीजा पण धातु दृद्धिंगत समजवा. ७ पूर्वे - 'ढिसे वाले' इत्यादि वाक्यथी आरंभक्ति थइ ते पछी 'भुजमाणे सुरं मांस' ए वाक्ययी दुर्गति कहीने कष्टोत्पत्ति पण सूचत्री, हवे वे गाथा वडे साक्षात् अहिं कष्ट कहे छे. आसणं सर्वणं जाणं । वित्ते कामे अ भुंजिंआ || दुस्साहकं घेणं हिचा । बहुसंचिनिया रेयें ॥८॥ पचपन्न परायणे । अयव आगयएसे । मरणंतंमि सायें ॥९॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओ कम्मगुरू मूलार्थ:- (आसणं) आसन (सयणं) शयन, (जाण) वादन, (वित्त) द्रव्य (अ) अने (कामे) कामोने (भु जिला) भोगवीने तथा (दुस्सा(e) दुःखे करीने मेळवी शकाय तेवा (धण) धनने (हिच्चा) तजीने (बहु) बहु ( रय) रज-आठ प्रकारना कर्मने (संचिणिआ ) संचय करीने (तओ) त्यारपछी (कम्मगुरु) कर्म बडे (पच्चुप्पन्नपरायणे) विषयसुखमां लीन (अतू) प्राणी (मरण' तम्मि) मरण नजीक आवे सते (सोअइ) शोक करे छे कोनी जेम (आश्व्व जेम बेटी [आगयाएसे] परुणो आवे सते शोक करे छे ||८||२॥ व्या० - ततस्तदनंतरं प्रत्युत्पन्नपरायणः, प्रत्युत्पन्ने प्रत्युक्षभुज्यमानविषयसुखे परायणः प्रत्युत्पन्नपरायणः, परलोकसुखनास्तिकवादी जो मरणांते मरणस्यांतः सामीप्यं मरणांतस्तस्मिन् मरणांते मरणे समागते सति शोचते शोकं कुरुते इति संबंधः, तत इति कुतः पूर्व किं कृत्वेवाह - आसनं सुखासनादिकं शयनं खट्बाछप्परादिकं हिंडोलखट्वादिकं, यानं गड्डिकादिकं वित्तं द्रव्यं कामान् विषयान् भुंक्त्वा दुःखाहनं दुःखेनाहियत इति दुःखाहृतं दुःखोत्पायं धनं For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन७ ॥४१०॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie भाषांतर अध्ययन ॥४११॥ ॥४१॥ उत्तराध्य-JE | त्यक्त्वा, पुनर्घह प्रचुरं रजः पातकं 'संचिणिया' संचित्य समुपायं, एतावना बहुभिः परिग्रहः पातकमुपाया॑युर्षोते पन सूत्रम् स आरंभी जीवः शोचते. कथंभूतः सः? जंतुः कर्मगुरुः, कर्मभिर्गुरुः कर्मगुरुः, गुभकर्मा, स क इव शोचते? अज इव यथा पूर्वोक्तोऽज आदेशे प्राघूर्णके आगते सति शोचते, तथा स महारंभी परिग्रही विषयी जीवो मरणसमये शोचत इत्यर्थः ॥८॥९॥ पुनस्तदेव दृढयति_ अर्थः-प्रथमतो आसन गादी तकीया वगेरे सुखासन, शयन-छत्रीपलंग हिंडोळा वगेरे, यान घोडागाडी पालखी वगेरे, वित्त-द्रव्य; इत्यादिक विविध कामना विषय भोगो भोगवी दुःखाहत अति कष्टथी मेळवेल धनने मूकीने तेमज बहु रज-शब्दबोधित पातकने समुपार्जित करी-अहीं सुधीना वर्णवेला सकल परिग्रहद्वारा पुष्कळ पातकनो संचय करी तदनंतर प्रत्युत्पन्न परायण अर्थात् प्रत्यक्ष भोगवता विषयमुखमांज तत्पर बनीने, परलोक मुख छेज नहि' एम मानी नास्तिकवादी बनेलो जन, मरणांते एटले मरण समीपे आवे त्यारे पूर्वोक्त अज जेम महेमान आवे त्यारे मस्तक छेदाती वेळाए शोक करे तेम आ जीव पण महारंभी, कर्मगुरु पोताना कर्मो वडे गुरु बोजादार थवाथी मरण समये शोक करे छे. ९ पुनरपि एन विषयने दृढ करे छे. तेओ आउँपरिक्खीणे । चुआ देहा विहिंसंगा ॥ आसुरीयं दिस बोला। गच्छंति असा तमं ॥१०॥ मूलार्थः-(तओ) त्यार पछी (विहिंसगा) विविध प्रकारे हिंसा करनारा (बाला मूढ (आउपरिक्खीणे) आयुष्य क्षीण थये सते (देहा) देहथी चुिआ] चव्या थका (अवसा) पराधीन एवा (तप) अंधकार बडे युक्त [आसुरीय] असुर संबंधी (दिसं] नरक प्रत्ये [गच्छति]जाय छे१० For Private and Personal use only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie भाषांतर अध्ययन ॥४१२॥ उत्तराध्य व्या०-तत आयुषि परिक्षीणे सति ते विहिंसका विशेषेण हिंसाकारका नरा देहाच्च्युता मनुष्यशरीराद् भ्रष्टाः पन सूत्रम् ३६ संत आसुरीयं दिशं गच्छंति, कीदृशास्ते याला? नृर्खा असुरागां रौद्राणां रुद्रकर्मकारिगामियं भावदिशा आसुरी, | तां, पुनः कीदृशास्ते? अवशाः परवशा इंद्रियवशवतिनो वा, कीदृशीमासुरों दिशं? तममिति तमोंधकारं, ताक्तत्वात् , ॥४१२॥ नमःस्तोममयीं नरकगतिमिनि भावः ॥१०॥ इति प्रथन एलकस्य दृष्टांतः अब काकिन्याम्रदृष्टांतमाह___अर्थः-तदनंतर आयुष्य ज्यारे परिक्षीण थाय त्यारे विहिंसक-विशेषे हिंसककृत्तिवाळा नरः, देहथी च्युत थइ अर्थात् मनुष्य शरीरथी भ्रष्ट थइ ते बाल-मूर्यो, अवश पराधीन बनी अथवा इंद्रियवश थइ तमा=अंधकारयुक्त, आसुरी दिशा-एटले रौद्र भयंकर कर्म करवावाळाए पाप्य जे दिशा, अर्थात् तमोमयी नरक गतिने प्राप्त थाय छे, १० ए रीते आ पहेलुं एलक दृष्टांत कड्यु, अथ काकिणी तथा आम्रनां दृष्टांत कहे छेजहा कागिणिएं हेउं । महेस्सं हारए नरा ॥ अपत्थं अंबगं भुच्ची । राया जे तु उ हारएँ ॥११॥ मूलार्थः-(जहा) जेम [न] कोइ माणस (कागिणिए हेउ) एक काकिणीने कारणे [सहस्स] हजार रुपीयाने (हारए) गुमावे (तु) तथा (राया) काइ राजा (अपत्थ) अपथ्य एवा (अंबग) आम्रफळने [भुच्चा खाइने रिज] राज्यने (हारए) गुमावे छे. ११ व्या०-यथा कश्चिवरः काकिन्या हेतोः सहस्रं टंकानां हारयेत्, काकिणी तुरूपकद्रव्यस्याशीतितमो भागस्तदथ कश्चित्कृपणः टंकानां दीनाराणां सहस्रं पातयेत्. सोऽतीवमूर्खशिरोमणिः. अत्र मनुष्यभोगसुखस्य तुच्छत्वेन कपर्दि बाजारात ويمثل هذا العالمية للاطفال R For Private and Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥४१३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कादृष्टांतः, तु पुनः कश्चिद्राजाऽपध्यमाम्रफलं भुक्त्वा राज्यं हारितवान् हारयेद्वा. अत्र भोगसुखस्य तुच्छत्वोपरि काकियादृष्टांतद्वयोदाहरणे दश्येते एकेन केनापि द्रमकेण वृत्तिं कुर्वता महोपक्रमेण कार्षापणसहस्रमर्जितं, स तद्वासनिकां कटौ वध्वा सार्थेन समं गृहं प्रस्थितः, मागें भोजनार्थ चैकं रूपकमशीतिकाकिणीभिर्भित्वा दिने दिने एकया काकिण्या भुंक्ते, एवं मार्गे तेनैकोनाशीतिकाकिण्यो भक्षिताः, एका काकिण्यवशिष्टास्ति, सा च सद्यः साथै चलिते विस्मृता, अग्रे गच्छतस्तस्य सा स्मृतिपथमागता, एवं च तेन चितितमेकदिने भोजनार्थ मे रूपकभेदः कर्तव्या भवि उष्यतीति कचिद्वासनिकां संगोप्य पचान्निवृत्तः तत्र सा काकिणी केनचिद् हता, यावच्च वासनिकास्थाने पुनरायाति तावत्सापि केनचिद् हृता, ततोऽसावुभयभ्रष्टा गृहं गतः शोचति, अथाम्रदृष्टांतो दर्श्यते - कस्यचिद्राज्ञ आम्राजीर्णेन विसूचिकाभूत्, वैधैर्महतोपक्रमेण तामपनीयोक्तं चेदाम्राणि पुनस्त्वं खादसि तदा विनश्यसि ततस्तेन राज्ञा स्वदेशे आम्रा उत्खातिताः, अन्यदा स राजाश्वापहृतो दूरतरवने गतः, तत्राम्रवृक्षच्छायायामुपविष्टः, पकान्याम्राणि दृष्ट्वा चलचित्त मंत्रिणा वार्यमाणोऽपि भक्षितवान् तदानीमेव स मृतः, एव काकिण्याघ्रसदृशमनुष्यकामासेवनतो बालनरेण देवकामा हार्यते इति परमार्थः ॥ अर्थ :- जेम कोई पुरुष एक काकिणीने माटे सहस्र टंक हारी वेसे, रुपाना द्रव्यनो ऐशीमो भाग काकिणी, एवी एक काकिणी माटे कोइ कृपण, टंक= दीनार = एक हजार खुवे = गुमावे ते अत्यंत मूर्खशिरोमणि गणाय. For Private and Personal Use Only 兆美美美美美兆美 भाषांतर अध्ययन७ ॥४१३॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन७ ॥४१४॥ उत्तराध्य- अत्रे मनुष्य भोग सुख तुच्छ होवाथी तेने काकिणीनी साथे सरखावेल छे. काकिणी शब्द कपर्दिका कोडीनो वाचक पण छे. | पन सत्रम पुनः कोइ राजा अपथ्य आम्रफळ खाइने जेम राज्य हारी जाय. अहीं भोग सुखनी तुच्छता उपर काकिणी तथा आम्रना बे ॥४१४॥ दृष्टांत दर्शावाय छे-कोइ एक द्रमके वेपार उद्योगमा महोटा परिश्रमे एक हजार कार्षापण (रुपाना शिका) मेळव्या. पछी ते एक वांसरी=(केडे बांधवानी कोथळी)मां भरी केडे बांधीने एक समुदाय साथे देशांतरथी घरे जवा नीकळ्यो. मार्गमां भोजन माटे एक BE कार्षापण वटावीने लीधेली अंशी काकिणीमाथी रोज एक काकिणी वापरतो एम करतां मार्गमा ७९ काकिणी वपरातां बाकी एक DO रही छेला पडावेथी बधा साथे उतावळथी चालता थवामां ए एक काकिणी भूलाइ गइ. आगळ चालतां तेने ए काकिणी याद आवी त्यारे तेणे विचार्यु के हवे एक दिवसना भोजन माटे मारे कार्षापण (रुपैयो) बटाववो पडशे. एम विचारीने वांसरी क्यांक संताडीने पाछो वळी ज्यां स्थानके आवीने जोयु त्यां काकिणी कोक उपाडी गयेल होबाथी पाछो आवीने पोतानी वांसरी ज्यां संताडी द्दती त्यां आवीने जुए छे तो वांसरी पण कोक काढी गयेक तेथी ते उभयभ्रष्ट थयेलो घरे पहोंचीने शोक करवा लाग्यो. आम्र दृष्टांत एम छे के-कोइ राजाने आम्र अतिशय खावायी अजीर्ण यतां विमूचिका कोलेरा थयु. वैद्योए महोटा महोटा उपचारो बडे ए रोग तेने मटाडीने कधु के-'तमारे आम्र न खावां. ज्यारे हवे आम्र खाशो ते वारे तमारो विनाश थशे ते पछी ए राजाए पोताना देशमांथी आंबाना झाड खोदाची नाख्यां. एक समये घोडा उपर बेसीने फरवा जतां घोडो पोताना वेगमां राजाने घणे दूर वनमां लइ गयो त्यां आम्रवृक्षनी छायामां राजा बेठा. तेटलामा उपरथी पाकेलं आम्रफळ पडयु ते चाखतां गजा, चित्त For Private and Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobaith.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie चळी गयु अने मंत्रीए वार्या छतां तेणे आम्रफळ खूब खाधां तेथी त्यांज ते मृत्यु पाम्यो. आवी रीते मनुष्य काकिणी तथा आम्र उत्तराध्य-३ JEभाषांतर पन सूत्रम् जेवा मनुष्य काम सेवीने उत्तम देवकाम हारी बेसे छे एवो भावार्थ छे ११ अध्ययन ॥४१५॥ एवं मणुस्सगा कामा । देवकामाणमंतिए ॥ सहस्संगुणिआ भुजो । आउं कामाये दिविया ॥१२॥ ॥४१५॥ मूलार्थ:-[देवकामार्ण अंतिए देवना कामोनी पासे [माणुस्सग्गाकामा] मनुष्यभवमा रहेला कोमो [एवं ए प्रमाणे छे-काकिणी तुल्य छ, (य) तथा (कामा) कामभोगथी [दिव्यिा दिव्य काम भोगो (भुजो) भोगवाय तेवा [सहस्स गुणिआ हजार गुणा छे, | तेमज [आउ] देवर्नु आयुष्य मनुष्यना आयुष्यथी हजार गणु वधारे छे. १२ व्या०-एवममुना प्रकारेण काकिण्याम्रदृष्टांतेन काकिण्याम्रसदृशा मानुष्यकाः कामा देवसुखानामंतिके देवसुखानां समीपे ज्ञेयाः इह च दिव्यकामानामतिभूयस्त्वेन कार्षापणसहस्रराज्यतुल्यता सूचिता. मनुष्यकामानामग्रे भूयो वारंवारं सहस्रगुणिताः सहस्रस्ताडिताः 'दिबिया' इति दिव्यका देवसंबंधिनः कामाः शब्दादयो ज्ञेयाः, आयुर्जीवितमपि देवसंबंधिसहस्रगुणितं ज्ञेयं. दिव्यकाः कामाश्च यथा मनुष्यकामानामग्रे वारंवारं सहस्रगुणितास्तथायुरपि मनुप्यायुर्देवायुषोरंतरं ज्ञेयं. ॥१२॥ अर्थः-एवीरीते काकिणी तथा आम्र दृष्टांत बडे, काकिणी तथा आम्र जेवा मानुष्यक काम=मनुष्यना अभिलाषविषयो || देवमुखनी आगळ समजवा. अहीं दिव्य काम अतिविस्तृत होइ कार्षापण तथा राज्य बरोबर मूचव्या, ए दिव्य काम मनुष्यकाम For Private and Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् भाषांतर अध्ययन ॥४१६॥ ॥४१६॥ आगळ वारंवार सहस्र गुणा समजवा. दिव्यका एटले देवसंवैधी काम-विषयो जाणवा. तेम आयुः जीवित पण सहस्रगणु जाण. मनुष्य काम अने दिव्यकाममा जेम हजारगणुं अंतर छे तेम मनुष्य आयुः तथा देवना आयुष्यमां पण सहस्रगणुं अंतर समजवान छे.१२ अणेर्गवासानउया । जो सौ पन्नओठिई ॥ जाणि जोयंति"दुम्मेहीं । ऊणे वासंसया उए ॥१३॥ | मूलार्थः-(पएणवमओ) प्रज्ञावान (जासा) जे ते प्रसिद्ध एवी (अणेगवासानउआ) अनेक नयुत वर्षांनी (ठिई) स्थिति छे. (जाणि) के |जे (दुम्मेहा) विषयी प्राणीमो (ऊणेवाससयाउए) ओच्छा आयुष्यमा (जीअंति) हारी जाय रे ॥१३॥ ___व्या०-प्रज्ञावतः क्रियासहितज्ञानयुक्तस्य या स्थितिर्विद्यते, सा भवतामस्माकं च प्रतीतास्ति, तत्रस्थिती यान्यने|कवर्षनयुतानि, अनेकान्यसंख्येयानि वर्षनयुतानि येषु तान्यनेकवर्षनयुतानि, अर्थाद्यानिपल्योपमसागराणि भवंति, | अत्र प्राकृतत्वादनेकवर्षनयुता इति पुल्लिंगनिर्देशः कृतः, अथवा यत्र देवस्थितावनेकर्षनयुता यानीति ये कामा भवंति तानि सर्वाणि पल्योपमसागराणि, तत्प्रमाणान्यायूंषि दिव्यस्थितिविषयभूतानि, दुमेधसो दुर्बुद्धयः पुरुषा ऊने वर्षशतायुषि महावीरस्वामिवारके मनुष्यविषयीयंते हार्यते, दैवयोनियोग्यायुःकामसुखरहिताः क्रियते, तुच्छमनुष्यसुखलब्ध्या मूर्खा देवस्थितिसुखहीना भवंति, अत एव दुर्मेधस इत्युक्तं. दुर्दुष्टा मेधा येषां ते दुर्मेधस इति. ॥१३॥ अथ द्वाभ्यां गाथाभ्यां व्यवहारोपमामाहअर्थः-प्रज्ञावान् एटले क्रिया सहित ज्ञानयुक्त पुरुषनी जे स्थिति थाय ते तमने तथा अमने प्रतीता-जाणाता छे. ते स्थितिमा For Private and Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥४१७||| जे अनेक वर्षनयुत थाय छ, अर्थात् जे पल्योपम सागरोपम थाय छे, अहिं 'अनेक वर्ष नयुतानि'ने बदले पुलिंगनिर्देश माकृत होवाथी || | भाषांतर करेल छे. अथवा ज्या देवस्थितिमा अनेक वर्षनयुत काम थाय छे ते सर्वेपल्योपमसागर, तावत्ममाण आयुष दिव्यस्थिति विषयभूत, अध्ययन कर्मेधस-दुर्बुद्धि (कष्ट मेधावाळा) पुरुषो, महावीरस्वामीवारना सो वर्षथी पण ऊनओछां आयुषथी जीताय म्हारी बेसे छे. ॥४१७॥ अर्थात् तुच्छ मनुष्य सुखना लाभथी मूर्ख देवस्थिति सुखथी हीन थाय छे. १३ हवे चे गाथा बडे व्यवहारोपमा कही देखाडे छेजहा य तिन्नि वणिया । मलं चित्तणे निग्गया ॥ एगोत्थ लैंहए लाभं । एंगो मूलेणे आगओ ॥१४॥ एगो मलंपि हारिती । आगेओ तत्) वाणिओ ॥ वैवहारेउवमा एसा । एवं धैम्मे बियाणेह ॥१५॥ मृलार्थः-(जहाय) बळी जेम (तिणि] प्रण (वणिमा) वणिको (मूलं) मूळ मुंडीने (घितूण) ग्रहण करी (निग्गया) बहार नीकळ्या | (अत्थं) तेमां (एगो) एक वणिक (लाभ) लाभने (लहस) मेळवे छे, अने (तत्थ) ते त्रणमांथी (एगो) एक (वाणिओ) वणिक मूलंपि) मळ मुळीने पण (हारित्ता) हारीने (आगओ) पाछो आवे छे (ववहारे) व्यापारने विषे (एसा) आ (उवमा) उपमा कही छे (अव) | पंज प्रमाणे (धम्मे) धर्मने विषे पण [विआणह) तमे जाण १४-१५ व्या०-यथा च त्रयो वणिजः कस्यचियापारिणः समीपान्मूलं नीवीद्रव्यं गृहीत्वा स्वकीयनगरादपरनगरे गताः. अत्र त्रिषु वणिग्जनेष्वेको लाभ लभते, एको मूलेन नीवीद्रव्येण सह समागतः, एको मूलं द्रव्यमपि हारयित्वा दातमद्यपरस्त्रीवेश्यासेवनादिकुव्यापारैगमयित्वा स्वगृहमागतः. एषा व्यवहारे उपमास्ति, एषैवोपमा धर्मेऽपियूयं DE जानीथेत्यर्थः ।। १४-१५ ।। For Private and Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie 31 يا لالالالالالالا اله الا JE उत्सराध्य अर्थः--यथा जेम त्रण वाणीया कोई वेपारी पासेथी मूल मुडी लइने पोताना नगरथी अन्य नगर गया. आ त्रण जणमाथी भाषांतर पन सूत्रम् | एके तो ए मुडीथी वेपार करी लाभ मेळव्यो, अने बीजाए धंधो तो कर्यो पण मूलगा करी हतुं तेटलं मूल धन पाछ.लइने आव्यो, एक अध्ययन ज्यारे बीजो चूत मद्य परस्त्री वेश्या वगेरेना सेवनरूप निदित व्यवहारथी मूल धन पण गुमावीने पोताने घरे आव्यो. आ व्यवहारनी | ॥४१८॥ | ॥४१८॥ उपमा धर्ममां पण तमारे जाणवी. १४-१५ माणुसत्तं भवे मलं । लामो देवेगई भवे ॥ मूलँच्छेएण जीर्वणं । नरंगतिरिक्खत्तणं धुवं ॥१६॥ मूलार्थः-(माणुसतं) मनुष्यपणुं (मूल) मुळ मुळीरूप (भवे) छे तथा (लाभ.) लाभनी जेवी [देवगड पंचगति (भवे) होघ छे तथा [मूलच्छेषण) मुडीनो नाश थवा बडे [जीवाणं] जीवोंने (नरगतिरिक्खाणां) नारकी अने तियच पणु (धुर्व) प्राप्त थाय छे. १६ । व्या०-मनुष्यो मृत्वा मनुष्य एव भवेत, तदा मनुष्यत्वं मूलद्रव्यसदृशं ज्ञेयं, यो मनुष्यभवाच्युत्वा देवो भवेत्तदा देवत्वं लाभतुल्यं ज्ञेयं, यत्पुनर्मनुष्याणां नरकतिर्यक्त्वप्राप्तिर्भवेत्तदा मूलच्छेदेन ध्रुवं निश्चितंदुर्भाग्यत्वं ज्ञेयं.१६ अर्थ:--मनुष्य परीने पाछो मनुष्य अवतरे त्यारे मनुष्यत्व मूल द्रव्य समान जाणवू. जे मनुष्य मनुष्यभवथी च्युत थइ देव थाय त्यारे ए देवत्व लाभ तुल्य गणवू. पण जो मनुष्यने नरक अथवा तिर्यक्-पशु पक्षि आदिक योनि प्राप्ति थाय त्यारे मूल च्छेद थतां निश्चित दुर्भाग्यज समजवान. १६ दुहओ गई बालस्स । आवईवहेमलिया ॥ देवंतं माणुसत्तं च । जें जिएं लोलया संढे ॥१७॥ TaaDEDDCDDED الحلقتال الالالالالهحالتها For Private and Personal use only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य पन सूत्रम् ॥४१९ ॥ 兆號= www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूलार्थ: - ( बालस्स) मृखेनी (आवई बहलिमुआ ) आपत्ति अने वध एवी (दुइओ) नरक अने तिर्यच एवे (गइ) गति थाय हे (ज) जेथी (लोलया) लंपटपणा करीने (जिए) जीतायेलो (सढे) शठ एवो ते (देवत्तं) देवपणु (च) अने ( माणुसतं) मनुष्यपणु ए गतिने हारी गयो छे. १७ व्या० – बालस्य मूर्खस्य द्विधा गतिर्भवेत्, कथंभूता गतिः? 'आवईवहमूलिया' आपद्वधमूलिका, आपदोविपदोवधस्ताडनादिः, आपदव वधश्वापदधौ तौ मूलं यस्याः सापद्वधमूलिका, जं इति यस्मात्कारणात्स वालो मूर्खो देवत्वं मानुषत्वं च हारितः कीदृशः सन्? लोलया लांपटथेन जितः पुनः कीदृश: ? शठो धूर्तः ||१७|| अर्थ :-- बाल = मूर्खनी द्विधा = चे प्रकारनी गति धाय छे आपद्वधमूलिका=आपद् विपत्ति, वध ताडनादि, कांतो आपद् छे मूल जेनुं एवी गति होय अने कांतो वध छे मूल जेनुं एवी होय; कारण के ते बाल = मूर्ख बोलता= विषयलंपटतामां यता शठ=धूत नीने देवत्व तथा मानुषत्व तो हारी गयो होय . १७ तंओ जिएं सया होई । दुबिहं दुग्गंए गएँ । दुईहा तस्से । उम्मेग्गा । अाए सुचिरोदवि ॥१८॥ मूलार्थ - (तो) त्यारपछी (जिए) हारीगयेलो ते मूर्ख (सई) सदा (दुविदं) नरकतिर्यचादि ( दुग्गइ) दुर्गतिने (गए) पामेलो पोज (होइ) होय छे, (तस्स) ते मूर्खने (सुचिरादवि) घणो वो पण (अद्धार) काळ गये सते (उम्मग्गा) नरकतिर्यचादो गतिथी नीकळवु (दुलहा ) दुलभ छे. १८ व्या०—ततो देवत्वमनुष्यत्व जयाद्देवगतिमनुष्यगतिहारणात्स मूर्खः असकृद्वारंवारं दुर्गतिं गतो भवतीत्यध्याहारः For Private and Personal Use Only Tags भाषांतर अध्ययन७ ॥४१९ ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य-36 तस्य बालस्य सुचिरादपि 'अद्धाए' प्रभूतेऽप्यागामिनि काले 'उम्मग्गा' उन्मजनमुन्मज्जा तस्या दुर्गतेः सकाशा भाषांतर यन सूत्रम् निःमृतिर्दुल्लहा दुर्लभा भवति, निःसरणं दुष्करं भवेदित्यर्थः ॥ १८ ॥ अध्ययन ॥४२०॥ ___ अर्थ-ततः देवत्व तथा मनुष्यत्व हार्या पछी ते मूर्ख वारंवार विविध दुर्गतिनेज पामे छे जेमांथी तेने सुचिरादपि विस्तृत ॥४२०॥ आगामिकालमां पण उन्मजा=दुर्गतिथी बहार नीकलवार्नु दुर्लभ थाय छे. १८ एवं जियं सपेहाएँ। तुल्लिया बालं च पंडियं ॥ मूलियं ते"पसंति" माणुसं जोणिमिति जे ॥१९॥ मलार्थ:-(एवं) आ प्रकारे (जि) देव मठने (सपेहाए) जोइने तथा [बालंच मखनी भने [पंडि] पंडितनी (तुलिआ) तुलना PE करीने [जे जेओ (माणुस) मनुष्य संबंधी [जोणि इंति योनिने पामे छे, [ते तेओ (मलिअं) मूळ धनने (पवेसति) पामे छे. १९ व्या-एवममुना प्रकारेण वालं मूर्ख जितं संप्रेक्ष्यालोच्य, च पुनर्वालं मूर्ख, पुनः पुनः पंडितं तत्वज्ञं तुलित्वा तोलयित्वेति विचारणीयं. इनीति किं? ते मनुष्या भूलियं मौलिकं मूले भवं मौलिकं मुलद्रव्यं प्रविशंति लभंते, ते के? ये मनुष्या मानुषं योनिर्मिति प्राप्नुवंति ते मूलरक्षकव्यवहारितुल्या ज्ञेयाः ॥१९॥ ____ अर्थः-आ प्रकारे ए बाल-मूर्खने जीतायलो जोइने, फरी बाल-मूर्खने तथा पंडितने तोलीने एटले बन्नेना गुणदोपनी मनमां तुलना करीने विचार के-जे मनुष्यो पुनः मानुष योनिने पामे छे ते मौलिक-पोतार्नु मूळ धन जाळवी शक्या तेथी मूल धन न गुमावनार वेपारी तुल्य समजवा. १९ For Private and Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तमध्य- पन सूत्रम् ॥४२१॥ वेमायाहिं खिक्खाहिं । जे नरा गिहिसुर्वया ॥ उविति माणुसी जोणिं । कम्मसच्चा हूं पाणिणा ॥२०॥ भाषांतर मुलार्थः-(जे) जे (नरा) मनुष्यो विमायाहि] विविधि प्रकारनी [सिक्वाहि] शिक्षा बडे करीने (गिहिसुब्बया) गृहस्थी छतां अध्ययन [माणुसं] मनुष्य संबंधी (जोणि') योनिने (उचिंति) पामे छे (हु) कारणके [पाणिणो] प्राणीओ (कम्मसचा) सत्व कर्मवाळा होय छे. २०३६ ||४२१॥ व्या०-मानुषी योनि के व्रजति तदाह-ये नरा विमात्राभिर्विविधप्रकागभिः शिक्षाभिहिसुव्रता भवंति, गृहिणश्च ते सुव्रताश्च गृहिसुव्रता गृहीतसम्यक्त्वादिगृहस्थद्वादशवताः, ते प्राणिनस्ते जीवा हु निश्चयेन मानुषीं योनिमुत्पद्यते, सत्यानि अवंध्यफलानि कर्माणि ज्ञानावरणीयादीनि येषां ते सत्यकर्माणः कर्मसत्याः, प्राकृतत्वात्कर्मशब्दस्य प्राग्निपातः ॥ २० ।। ____अर्थः-मानुषी योनिने कोण प्राप्त थइ शके छे? ते कहे छे-जे नरो विमात्रा-विविध प्रकारनी शिक्षा वडे गृहि सुव्रता अर्थात् सदाचरणी गृहस्थ वन्या होय एटले सम्यक्त्वादि द्वादश गृहस्थव्रत जेणे ग्रहण कर्या होय तेवा प्राणिोते जीवो 'हु'निश्चयें, कर्मसत्य जेनां कर्मो सत्य अवंध्य फळ ज्ञानावरणीयादिक होय ते सत्य कर्म-कहेवाय (अहाँ कर्म सत्य पदमां सत्य पदनो पूर्वनिपात प्राकृत होवाथी करेलो छे) एवा सत्य कर्म जीवो मानुषी योनि पामे छे. २० जैसिं तु विउला सिक्खा । मूलयं ते अइडिया ॥ सीलवती सविसेसी । अदीगी जंति देवयं ॥२१॥ | मूलार्थ-(तु) परन्तु (जेसि) जेभोने (घिउला) विपुल (सिक्खा) शिक्षा होय छे, [ते] तेओ [मूलिअं] मूळ धनरुप (अइथिआ) For Private and Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य ओळंगीने (सोलवंता) शीलवंत (सबिसेसा) उतरोत्तर गुणने अंगिक्त करनारा [भदीणा] दीनता रहित (देवयं) देवलोकमां (जाति) जाय छे | पन सूत्रम् ३८ व्या-तुरेवार्थे, येषां जीवानां विपुला विस्तीर्णा शिक्षा ग्रहणासेवनादिकास्ति ते जीवा मूलकमिव | ३८ अध्ययन नृभवत्वमतिकांताः संतो देवत्वं याति प्राप्नुवंति. किंभूतास्ते जीवाः? शीलवंतः सदाचारः. पुनः कथंभूतास्ते? सवि॥४२२॥ ॥४२२॥ शेषाः, सह विशेषणेनोत्तरगुणेन वर्तत इति सविशेषाः, पुनः कीदृशाः? अत एवादीनाः, न दीनाः संतोषभाज इत्यर्थः.२१ ___अर्थः-अहीं 'तु' एवना अर्थमां छे. जे जीवोने विपुला=विस्तीर्ण शिक्षा ग्रहण आ सेवनादिक मळी होय छे ते जीवो मूलक एक मूळीयाने जेम ओळंगी जाय तेन नृभवत्व-मनुष्यभवने अतिक्रांत थइ देवत्वने पामे छे. केवा जीवो देवत्व पामे छे? ते कहे छे शलवान् सदाचरणी, सविशेष उत्तम गुण सम्पन्न तथा अदीन-संतोष सेवी; एवां विशेषणोवाळा जीवो मनुष्य भवमाथी देवत्व प्राप्त करी शके छे. २१ एवंमदीणवं भिक्खं । अगारिं च वियाणिया ।। कहनु जिच्चं मेलिक्खं । जिच्चमीणो न संविदे"॥२२॥ मूलार्थ-(पर्व) पज रीते (अदीणव) दीनता रहित पवा (भिक्खु) साधुने [च अने (अगारि) गृहस्थीने (विभाणीमा) जाणीने BE oil [कहनु] केवी रीते रिलिक्ख'] देवत्वादिक लाभने (जिचं) हारी जाय? तथा (जिचमाणो) हारतो धको (न संविहे) केम न जाणे?२२ व्या-पंडितः पुमान् 'एलिक्खं ईदृक्षं 'जिच्च' इति जेयं जेतव्यं देवगतिमनुष्यगतिरूपं जीयमान इंद्रियविषयैहार्यमाणा, कथं नुन संविदेत् ? कथं न जानीत? अपि तु पंडितो ज्ञपरिज्ञयेवं जानीतैव. किं कृत्वा? एवममुना प्रका Dowwणलाकाखा SRDCPEDIORadDDEDoDI For Private and Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥४२३॥ रेणादैन्यवंतं संतुष्टिभाज भिक्षु साधं, च पुनरगारिणं गृहस्थं 'वियाणिया' विशेषेण देवगतिमनुष्यगतित्वागामि- भाषांतर त्वलक्षणेन ज्ञात्वा तस्मात्पंडितो धर्ममार्गे सावधानो भवेदित्यर्थः ॥२२॥ अध्ययन अर्थः-पंडित पुरुष, इदक्ष=आवा जेय=इंद्रिय विषयोथी हरावोताने केम न जाणे? किंतु जाणीज लीये. केवी रीते? ए प्रकारे यह ॥४२३॥ जाणे-दैन्यविनानो संतोषी, साधु तेमज अगारी गृहस्थ होय तो तेने पण विशेषे करी जाणीने; देवगति अथवा मनुष्यगति आवबानी छे ते निश्चय करी लीये. एटले के-निरुपण करेला लक्षणो उपरथी जाणीने पंडित पुरुष धर्म मार्गमा सावधान रहे. २२ जहा कुसग्गा उदयं । समुद्देण सेमं मिणे ॥ एवं माणुसँगा कामा । देवकामाण अंतिएं ॥२३॥ ८ मूलार्थ-[जहा जेम (कुसग्गे) कुशना अग्र भागपर रहेला (उदयं जळना बिदुने (समुद्देण सम) समुद्रना जळनी साथे [मिणे | माप करे, (एवं) एज रीते (माणुस्सगा) मनुष्य संबंधी (काम) भोगो (देव काममाण अतिए) देवभोगनी पासे गेला प्रमाणवाळा छे.२३ व्या०-यथा कुशाग्रे उदकं समुद्रेण समं मन्यते, एवं मानुष्यकाः कामा देवकामानामंतिके समीपे ज्ञेयाः.॥२३॥ अर्थ:-जेम दर्भना अग्रभाग उपर जळनो कण समुद्रना समान माने तेम मानुष्यककाम एटले मनुष्यलोकना सुखाभिलाषी | देवलोकना मुखाभिलापोनी आगळ एचा मनाय. २३ कुसग्गमित्ता इमे कौमा। संनिरुकमि आउएं ॥ कस्स हेर्ड पुरा काउं। जोगक्षेमं न संविदे ॥२४॥ شناساینا شعبانی با ما For Private and Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥४२४॥ मूलार्थ-सनियद्धम्मि सम्यक् प्रकारे (भाउए) आयुष्यने विषे (हमे कामा) आ कामभोगो (कुग्गमित्ता) कुशना अग्रभागपर रहेला भाषांतर बिंदु मात्रज छे. (कस्स हेउ) क्या हेतुने (पुरा काउं) भाश्रीने (जोग पखेम') योगने अने प्राप्त थयेला रक्षणरूपी क्षेमने [न | संविदे) जाणतो नथी. २४ अध्ययन व्या-संनिरुद्ध संक्षिप्ते आयुषीमे प्रत्यक्षा मनुष्यसंबंधिनः कामाः कुशाग्रमात्राः संतीत्यध्याहारः, एवं सत्यपि ॥४२४|| जनः कस्य हेतुं पुरस्कृत्य कं हेतुं किं कारणमाश्रित्य योगं, च पुनः क्षेमं न संविदे न जानीते, यागं क्षेमं च कथं न जानातीत्याश्चयमित्यर्थः ।। २४ ॥ अर्थ-आ संनिरुद्ध संक्षिप्त-सांकडा आयुष्यमा प्रत्यक्ष अनुभवाता मनुष्य संधि काम-सुखाभिलाप, कुशाग्र मात्र तुल्य छे. | (एटलो अध्याहार) एम उतां जन क्या हेतुने आगळ धरीने-अर्थात क्या कारणनो आश्रय लइ योग तथा क्षेमने नथी समजता? ए आश्चर्य थाय छे. २४ इंह कामानियत्तस्स । अत्त? अवरंज्झई ॥ सुच्चा नेआउंय मग्गं । जे भुजो परिभरसँई ॥२५॥ मूलार्थ-(ह) मा मनुष्य भवमा (कामा निभट्टस्स) कामासक्त मनुष्योनो (अत्तेढे) आत्मार्थ लाभ (अवरजझइ) नाश पामे के [] | JE जे माटे (नेभाउ) न्यायी एवा (मम्ग) मुक्तिमार्गने [सोचा सांभळीने (भुजो) वारंवार (परिभस्सइ) आए थाय छे. २५ । व्या-इत्यत्र दृष्टांतपंचके क्रमात्-अपायबहुलत्वं १, तुच्छत्वं २, आयव्ययतो लाभं ३, हारणं ४, समुद्रजलदृष्टांतं च ५ ज्ञात्वेह नरभवे कचिद् गुरुकर्मा बीवस्तस्य कामाद्भोगसुखादनिवृत्तस्य, आत्मार्थो मोक्षोऽपराध्यति नश्यति For Private and Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥४२५॥ विषयिणो जीवस्य मोक्षो न भवतीत्यर्थः. अत्र हेतुमार-जं इति यस्मात्कारणात्स गुरुकर्मा जीवो नैयायिक मार्ग भाषांतर मोक्षमार्ग श्रुत्वा भूयो वारंवारं परिभ्रश्यति, संसारगर्तायां पततीत्यर्थः ॥ २५ ॥ अध्ययन अर्थ-अहीं आ पांच दृष्टांतमां क्रमथी-अपाय बहुलत्व १, तुच्छत्व २, आ यव्ययथी लाभ ३, हारण, तथा समुद्र जल दृष्टांत: २६ ॥४२५॥ ए सकल जाणीने आ नरभवमा काम भोग-मुखथी अनिवृत्त कोई गुरु को जीवनो आत्मार्थ-मोक्ष 'अपराध्यति'-नष्ट थाय के; विषयी जीवनो मोक्ष थतो नथी. तेमां हेतु कहे छे कारण के ते गुरु कर्मा जीव नैयायिक मार्गने मोक्ष मार्ग तरीके सांभळीने फरी फरीने परिभ्रष्ट थाय छे संसाररुपी खाडमां पडे छे. २५ इंह कामनियल्स । अत्तठे नावरज्झई ॥ पूइदेहनिरोहेण । भवे देवित्ति में सुयं ॥ २६ ॥ मृलार्थ-[इह] आ (कामनिआस्स) कामभोगथी निवृत्त मनुष्यो (अत्तहे) आत्मार्थ [नावर ज्झइ नाश पामतो नथी, (पूइदेह निराहण) दुर्गंधी देहना नाश वडे (देवी) देवरूप (भवे) थाय छे, [त्ति ए प्रमाणे (मे) में (सु) सांभळ्यु छे. २६ व्या-हे शिष्य ! मे मयेति श्रुतं, इतिती किं? इहास्मिन्नरभवे कामानिवृत्तस्य जीवस्य लघुकर्मण आत्मार्थो मोक्षो न नश्यति, स च पुमान पूतिदेहनिरोधेनौदारिकदेहत्यागेन शतनपननविध्वंसनधर्मात्मकपिंडाभावेन देवो भवेदेवशरीरं प्राप्नुयात् ॥ २६ ।। ___ अर्थ-हे शिष्य! मे एम सांभळ्यु छे के-आ नरभवमांज कामथी निवृत्त लघुकर्मा जीवनो आत्मार्थ मोक्ष विनष्ट नथी थतो. For Private and Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥४२६॥ १४२६॥ ते पुरुष पूति देह निरोध वडे करी अर्थात् आ औदारिक दुर्गंधी देहनो परित्याग करी पछी शातनपतन विध्वंसन धर्मात्मक पिंडनो भाषांतर अभाव थतां देव थाय छे एटले देव शरीरने प्राप्त थाय छे. २६ अध्ययन इंद्वी जुइ जसो वण्णो । आउं सुहमणुत्तरं ॥ जो जत्थ मणुस्सेसु । तत्थ से"उवजैइ ॥ २७ ॥ मूलार्थ-(अणुत्तर) साँस्कृष्ट एवी (हदी) ऋद्धि तथा (जुइ) द्युति तथा (जसो) यश (बणो) वर्ण (माउं) आयुष्य तथा (सुह) सुख आटली गवतो (जस्थ) जे (मणुस्सेसु) मनुष्योने विषे प्राप्त थाय छे, (तत्थ) त्यां (भुजो) फरीथी (से) ते (उपवजाइ) उत्पन्न थाय छे,२७ 96 व्या०-स निर्विषयी कामानिवृत्तो जीवस्तत्र मनुष्येषु भूयो वारंवारमुत्पद्यते, तत्र कुत्र? यत्र मनुष्येषु ऋद्धिः स्वर्णरूप्यरत्नमाणिक्यादिका भवंति तत्र, द्युतिर्दहस्य कांतिर्भवति, पुनर्यत्र यशो भवति, पराक्रमादुत्पन्नधर्मविशेषरूपं यश उच्यते, पुनर्यत्र वर्गो गांभीर्यादिगुणैर्वर्णनं, वर्णः श्लाघा, अथवा वर्णशब्देन गौरत्वादिगुणो वा, पुनर्यत्रायुः संपूर्ण प्रचुरं च भवति, पुनर्यत्र सुखं भवति, एतेषां सर्वेषामनुनरपदेन विशेषणं कर्तव्यं, अनुत्तरं सर्वोत्कृष्टं देवभवापेक्षयेतबक्तव्यम्. ॥ २७ ॥ अर्थ-ते निर्विषयी कामथी निवृत्त थयेलो जीव, जे मनुष्यमां ज्यां सुवर्ण रूप्यादि तथा रत्नमाणिक्यादि ऋदि होय, ज्यां घुतिदेहनी कांति होय वळी ज्या पराक्रमथी उत्पन्न थतो धर्म विशेष यश होय तथा वर्णगांभीर्यादि गुण प्रयुक्त वर्णन प्रशंसा, | अथवा वर्ण देहना गौरत्वादि होय, अने ज्यां संपूर्ण पुष्कळ आयुष्य होय तेम ज्यां मुख होय; आ ऋद्धि, धुति, यशः वर्ण, आयुः For Private and Personal use only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्सराध्यपन सूत्रम् و ॥४२७॥ س ریال به بالتسعينيات الالمافيا لتقد तथा सुख, आ छये गुणमां 'अनुत्तर' ए विशेषण लागु पडे छे अर्थात ए छए ज्यां उत्कृष्ट प्रकारनां होय; तर तेवा मानुष्यमा भाषांतर भूयः वारंवार ते जीव उत्पन्न थाय छे. २७ अध्ययन बालेस्स पैस्स बोलतं । अहंम्म पडिवजया ॥ चिचा धम्म अहम्मिहे नरए उवजइ ॥ २८ ॥ ॥४२७|| | मूलार्थ-हे शिष्य! तु (बालस्स) मूर्खनु (चालत) मूर्खपणु (पस्स) जोके (अहमिहे) ते अधर्मी मनुष्य (महम्म) अधर्मने (पडिवजिआ) अंगीकार करीने तथा (धम्म) धर्मनो (तिचा) त्याग करीने (नरपसु) नरकने विषे (उववज्जइ) उत्पन्न थाय छे २८ व्या०-हे शिष्य! तं बालस्य हिताहितज्ञानरहितस्य बालत्वं मुखत्वं पश्य? स अधर्मिष्टो बालो धर्म त्यक्त्वा अधर्म प्रतिपद्य नरके उत्पद्यते ॥ २८ ।। अर्थ-हे शिष्य! ते बाल एटले पोताना हित अथवा अहित ज्ञानथी रहित जीवन बालव-मूर्खता तो जोके ते अधर्मिष्ट बाल धर्मने त्यजीने अधर्मने प्रतिपन्न थतां नरकमां उत्पन्न थाय छे. २८ धीरस्स पर्स धीरत्तं । सव्वधम्माणुवत्तिणो ॥ चिच्चा अधम्म धम्मिहे । देवेसु उर्ववजई ॥२९॥ मुलार्थ-तथा (सव्वधम्माणु वत्तिणो) सर्व धर्मने अनुसरनारा [धोरस्स] धीरना (धीरत्त) धीरपणाने [पस्स] तुं जोके (धम्मि?) ते 30 धर्मिष्ट (अधम्म) अधर्मनो (चिञ्चा) त्याग करीने दिवेसु) देवोने विषे [उववजह] उत्पन्न थाय छे, २९ व्या०–हे शिष्य! धीरस्य पंडितस्य धीरत्वं पश्य? त्वं विचारय? धिया राजत इति धीरः, धियं बुद्धि राति ददा For Private and Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie भाषांतर अध्ययन ॥४२८॥ तीति वा धीरः, तस्य कीदृशस्य धीरस्य? सर्वधर्मानुवर्तिनः, सर्वेये क्षात्यादयो धर्मास्ताननुवर्तितुमनुकुलत्वेन चरितु र उत्तराध्य रतु यन मृत्रम् ३६ शीलं यस्य स सर्वधर्मानुवर्ती, तस्य क्षांत्यादिदशविधधर्मधारकस्य, कीदृशं धीरत्वं? तदाह-स धर्मिष्टो धीरोऽधर्म JE त्यक्त्वा देवेषुत्पद्यते. ॥ २९ ॥ ॥४२८॥ अर्थ-हे शिष्य! धीर पंडितनुं धीरत्व जुओ; धी-बुदिवडे दीपे ते धीर, अथवा धीज्ञान आवे ते धीरः ए सर्व धर्मने अनुवर्तनार अर्थात् शांति आदिक दशाविध वाँने अनुकल जेनुं आचरण के तेवा धीर पुरुषनुं धीरत्व केवु होय छे ते कहे छे. ते धर्मिष्ठ धीर अधर्म त्यजी दइने देवोमा उत्पन्न थाय छे. २९ तुलियाणं बालभाव । अंबालं चेव पंडिए ॥ चइऊण वालभावं । अबाल सेवेइ मुणी तिबेमि ॥ ३० ॥ मलार्थ-(एव) आ प्रमाणे (पंडिए) पंडित एवो [मुणी] साधु (बालभावं) बाळपणानी (तुलिआणां) तुलना करीने (बालभाव) बाळ| पणानो (चरऊण) त्याग करी [अवालं] अयाळपणानुं (सेबर) सेवन करे. (त्तिबेमि) ए प्रमाणे कडु. ३० BE एम सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे छे. ___ व्या०-मुनिस्तीर्थकरादेशकारी साधुरेवममुना प्रकारेण बालस्य बालभावं, च पुनः पंडितस्याबाल पंडितत्वं, 'तुलया' इति तोलयित्वा, णकारो वाक्यालंकारे, पश्चात्पंडितस्तत्वज्ञः पुमान् वालभावं मूर्खत्वं त्यक्त्वाऽबालं पंडितत्वं सेवयेत्, अंगीकुर्यादित्यर्थः. इत्यहं ब्रवीमि, सुधर्मास्वामी जंबूस्वामिनं प्रत्याह. ॥ ३० ।। For Private and Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie www.kobatirth.org उत्तराध्य-13E पन सूत्रम् 3 भाषांतर अध्ययन ॥४२९॥ ॥४२९॥ इत्यौरभ्रीयाख्यं सप्तममध्ययनं संपूर्ण. ॥७॥ इति श्रीमदुसराध्ययनसूत्रार्थदीपिकायामुपाध्यायश्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिशिष्यलक्ष्मीवल्लभगणिविरचितायां सप्तमाध्ययनस्यार्थः संपूर्णः ॥ श्रीरस्तु॥ अर्थ-मुनि-तीर्थकरनो आदेशकारी साधु, अमुक प्रकारे बालना बाल भावने तथा पंडितना अबालभाव-धीरताने तोळीने (वचमा 'ण' पद वाक्यालंकार अर्थमां छे.) पश्चात् पंडित तत्त्वज्ञ पुरुष बोल भाव-मूर्खत्व त्यजीने अबाल-पंडितत्वने सेवे-अंगीकार करे-'एम हुं बोलु छ आवी रीते सुधर्मास्वामी जंबूस्वामी प्रत्ये बोल्या. ३० । एरीते आ औरभ्रीय आख्यावाळु सप्तम अध्ययन संपूर्ण थयु. इति श्रीउत्तराध्यन सूत्रनी उपाध्याय लक्ष्मीकीर्तिगणिना शिष्य लक्ष्मीवल्लभगणि एविरचित अर्थ दीपिका नामनी वृत्तिमां सातमा अध्ययननो अर्थ पूर्ण थयो. इति श्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रार्थदीपिकायामुपाध्यायश्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिशिष्यलक्ष्मीवल्लभगणिविरचितायां सप्तमाध्ययनस्यार्थः संपूर्णः ॥ श्रीरस्तु ॥ For Private and Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर ময়ন ॥४३०॥ उत्तराध्य-DE ॥ अथाष्टममध्ययनं प्रारभ्यते ॥ पन सूत्रम् पूर्वस्मिनध्ययने विषयत्याग उक्तः, स च निर्लोभस्यैव भवति, ततोऽष्टममध्ययन कपिलस्य महामुनेदृष्टांतभितं निर्लोभत्वदृढीकरणत्वं कथ्यते. पूर्व च कः कपिलः? कथं च स मुनिर्जातः? अतस्तदुत्पत्तिाच्यते॥४३०॥ अथ अष्टम अध्ययन आरंभाय छे. पूर्व अध्ययनमा विषय त्याग कयो ते निर्लोभनेज होइ शके तेथी आ अष्टम अध्ययन कपिल महामुनिना दृष्टांतथी गर्भित निर्लोभताने दृढ करवा कहेवाय छे. प्रथम तो ए कपिल कोण तथा ते महामुनि केम कहेवाणा? तेने माटे तेनी उत्पत्ति कहेवाय छे. कौशांब्यां नगयो जितशत्रुराजा राज्यं करोतिस्म, तत्र काश्यपो ब्राह्मणः स चतुर्दशविद्यास्थानपारगः पौराणां राज्ञश्चातीवसम्मतः, तस्य राज्ञा महती वृत्तिर्दत्ता, काश्यपरब्राह्मणस्य यशा नाम्नी भार्या वर्तते, तयोः पुत्रः कपिलनामास्ति, तस्मिन् कपिछे बाल एव सति काश्यपो ब्राह्मणः कालं गतः, तदधिकारो राज्ञान्यस्मै ब्राह्मणाय दत्ता, सोऽश्वारूढश्छत्रेण ध्रियमाणेन नगरांतर्बजति. एकदा तं तथा व्रजतं दृष्ट्वा यशा भृशं गरोद. कौशांबी नगरीमा जितशत्रु राजा राज्य करता हता. त्यां कश्यप नामनो ब्राह्मण हतो ते चतुर्दश विद्यास्थानमां पारंगत होइ नगर निवासी जनोनो तेमज राजानो पण अत्यंत मानीतो हतो. तेने राजाए महोटी प्रवृत्तिगाम गरास वगेरे आपेल. आ काश्यप wwwwwwwwwww اعلان التايتانيا الطالمشاعطاللامبادانی For Private and Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie भाषांता अध्ययन८ ॥४३॥ ब्राह्मणने यशा नामनी भार्याथी कपिल नामनो पुत्र थयो. आ कपिल बालक हतो तेवामांज ए काश्यप ब्राह्मण मरण पाम्यो. त्यारे उत्तराध्य- BEI पन सूत्रम् २४ए काश्यपनो अधिकार राजाये बीजा ब्राह्मणने आप्यो. ते ब्राह्मण एक बखते घोडा उपर चढी उपर छत्र धरेलु डे ने नगरनी | JE अंदर जतो हतो तेने जोइ कपिलनी ना यशा अत्यंत रुदन करवा लागी. ॥४३१॥ __कपिलेन पृष्टं मातः किं रोदिषि? मा प्राह वत्स! तव पितेश्या ऋध्ध्या पुरांतर्भमन्नभूत् , मृते च तव पितरि, त्वयि चाविदुषि सत्ययं तव पैथ्यं पर्द प्राप्तस्ततो रोदिमि, कपिल ऊचेऽहं भणामि, यशा प्राह हे पुत्रात्र तव न कोऽप्येतदभीत्या पाठयिष्यति, इतस्त्वं श्रावस्त्यां वज? तत्र त्वपितृमित्रं इंद्रदत्तो ब्राह्मणस्त्वां पाठयिष्यति. ततः कपिलः श्रावस्त्यां तत्समीपं गतः, तेन पृष्टं कस्त्वं? कुन आयातः? कपिलेन सर्व स्वरूपमूचे. तेन मित्रपुत्रत्वात्सविशेषं पाठ्यते, परं स्वगृहे भोजनं तस्य कारयितुं न शक्यते. त्यारे कपिले पूज्यु के-'हे मा रुबो छो केम?' त्यारे यशा बोली के-तारा पिता आवी ऋद्धि-समृद्धि युक्त आ नगरमां विचरता हता. ते तारा पिता मरी गया अने तु रह्यो अविद्वान् तेथी आ ब्राह्मण तारा पिताना स्थानने पाम्यो ते जोइने मने रोवं आवे छे. कपिल बोल्यो-'हुँ भणु' त्यारे यशाए कहा-हे पुत्र आ गाममा आ राजमान्य ब्राह्मणनी बहीकथी तने कोइ भणाचशे नहिं माटे भणवू होय तो श्रावस्ती नगरीमा जा; त्यां तारा पितानो मित्र इंद्रदत्त ब्राह्मण के ते तने भणावशे. आ सांभळी कपिल श्रावस्ती नगरीमा इन्द्रदत्त पासे गयो. तेणे पूच्यं तु कोण छो अने क्याथी आब्या? कपिले पोतार्नु स्वरूप तथा सघळी हकीकत कही ते सांभळी तेने मित्रनो पुत्र जाणी अच्छीरीते भणावे पण तेने पोताने घरे भोजन करावी न शके. For Private and Personal use only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सत्रम् ॥४३२॥ भाषांतर अध्ययन८ ॥४३२॥ ततोऽनेन शालिभद्रनामा तत्रत्यो व्यवहारी प्रार्थितो यथास्य स्वया निरंतरं भोज्यं देयं, त्वत्प्रसादानिश्चितोऽसा पठिष्यति, तेनापि तत्प्रतिपन्नं, कपिलः शालिभद्रगृहे प्रत्यहं भुक्त, इंद्रदत्तगुरुसमीपे चाध्येति, शालिभद्रगृहे चैका दासी वर्तते, दैवयोगात्तस्यामसौ रक्तोऽभूत. अन्यदा सा गर्भिणी जाता, सा कपिलंप्रत्याहाहं तव पत्नी जाता, ममोदरे त्वद्गर्भो जातोऽतस्त्वया मे भरणपोषणादि कार्य. कपिलस्तद्वचः श्रवणाभृशं खिन्नः परमामधृति प्राप, न च तस्यां रात्रौ निद्रा प्राप. तेथी तेणे त्यांना एक शालिभद्र नामना वेपारीने कार्य के-आ विद्यार्थीने तारे त्यां नित्य भोजन आपq एटले तारा प्रसादथी | आ निश्चित पणे भणशे, ए वेपारीए इन्द्रदत्तनुं कहे कबूल राख्यु तेथी हवेथी कपिल रोज शालिभद्रने घरे जमे अने इन्द्रदत्त गुरु | समीपेअध्ययन करे. शालिभद्रना घरमा एक दासी हती तेमां आ कपिल दैवयोगे आसक्त थयो. एम करतां ते गर्भिणी थइ. तेणीये कपिलने कयु के-'हुँ तो तारी पत्नी थइ. ताराथी मारा उदरमा गर्भ रह्यो तेथी मारूं भरणपोषण तारे करवं पडशे. दासीनां आवां | वचन सांभळी कपिल अत्यंत खिन्न थयो अने तेनुं धैर्य नष्ट थइ गयु; ते रात्रीमां तेने निद्रा पण न आवी. पुनस्तया भणितं स्वामिन् ! खेदं मा कुर्याः? मदुक्तमेकमुपायं शृणु? अत्र धननामा श्रेष्टी वर्तते, तस्य यः प्रथम प्रभाते गत्वा वर्धापयति तस्य स सुवर्णमाषद्वयं ददाति, ततस्त्वमद्य प्रभाते गत्वो प्रथम वर्धापय? यथा सुवर्णमासद्वयं प्राप्नुयाः, कपिलस्तस्या वचः श्रुत्वा मध्यरात्रावुत्थितः, तस्य धाम्न्यपरः कश्चिन्मा प्रथमं यायादित्यौत्सुक्येन गच्छन् For Private and Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie भाषांतर अध्ययन८ | ॥४३३॥ उत्तराध्य कपिलः पुरारक्षकहीतः, चोरधिया बुद्धः, प्रभाते पुरस्वामिनः पुरो नीतः, पुरस्वामिना पृष्टं कस्त्वं? किमर्थमर्धरात्री पन सूत्रम् निर्गतः? तेन सकलस्वरूपं प्रकटीकृतं, सत्यवादित्वात्तस्य तुष्टो राजा प्राह यत्वं मार्गयमि तदहं ददामि, स पाह विभृश्य मार्गयामि, राजा प्राह यायशोकवनिकाय? विचारय स्वेष्टं? ॥४३३॥ ___त्यारे तेनी स्त्रीये कर्बु के-खेद म करो अने हुँ एक उपाय कहुं ते सांभळो-'आ गाममां धन नामे शेठीयो छे, तेने सवारमा पहेलो जइने जे वर्धापन करे तेने ए शेठ वे मापा सुवर्ण आपे के. तो तमे आजे प्रभाने जइने ए शेठने पहेला वर्धापन करो के जेथी चे माषा सुवर्ण पामशो. कपिल तेणीनुं वचन सांभळी मध्यरात्रे उठ्यो. 'ते शेठने घरे मारा पहेलां कोइ पहोंची न जाय' एवी उत्सुकतायी चाल्यो जाय छे त्यां मार्गमा नगर रक्षके पकड्यो अने चोर मानी गांधीने पुरस्वामी-राजा आगळ लइ जइ सवारमा खडो कर्यो. राजाये पूछ्युं 'तु कोण छो? अने अधराते शा माटे नीकळ्यो? तेणे सघळू स्वरूप तेनी आगळ प्रकट कर्य अने तमाम हकीकत खरेखरी बोली गयो आना सत्यवादीपणाथी राजा तुष्ट थइने बोल्या के-'तुं जे माग ते हूँ तने आपु' कपिल कहे 'विचारीने मागीश' राजा कहे 'जाभो सामेनी अशोक वनिकामां त्यां जे इष्ट होय ते विचारीने आवो? कपिलस्तत्र गत इति चिंतयितुमारब्धवान, चेदहं सुवर्णमासा मार्गयामि, तदा तस्याः दास्याः शाटिकामात्रं Jt जायते, न त्वाभरणानि, ततः सहस्रं मार्गयामि, तदापि तस्या आभरणानि न जायंते, ततोऽहं लक्ष मार्गयामि तदापि Deमम जात्यतुरंगमोत्तमगजेंद्रप्रवररथादिसामग्री न जायते, ततः कोटि मार्गयामीति चिंतयन्नेव स्वयं संवेगमागतः, सुव For Private and Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobarth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् |भाषांतर २६ अध्ययन८ ॥४३४॥ ॥४३४॥ र्णमासद्वयार्थ निर्गतस्यापि मम कोट्यापि तुष्टिर्न जातेति धिगिमां तृष्णामिति विचार्य स्वमस्तके लोचं कृतवान्, शासनदेवतया तस्य रजोहरणादिलिंगमर्पितं, कपिलो द्रव्यभावाभ्यां यतिर्भूत्वा राज्ञः पुरः समागतः, राज्ञा भणित, त्वया विचारितं किं? स आह कपिले त्यां जइने विचार शिरु कर्यो. 'जो हुँ बे माषा सोनुं मने जे शेठीया पासेथी मळवार्नु हतुं तेटलं सुवर्ण आ राजा पासेथी मागु तो तेटलामांथी तो ए दासीने माटे मात्र एकाद साडी जेवू बनी शके, कंद आभरणादिक न थाय. त्यारे एक हजार सुवर्ण मागुतो पण घरेणां पूरा न थाय, त्यारे हुँ एक लक्ष मागु ता मारे माटे जातीला घोडा, हाथी, उत्तम रथ, इत्यादि वैभव | सामग्री पूरी न थइ शके त्यारे तो एक कोटि मागुं. आम उपराउपर विचार करतां तेना अतःकरणमा संवेग उदभव्यो. 'अरे हुये मापा सुवर्ण माटे' नीकळ्यो तेने आटेणे राजा मोदे माग्यु देवा तत्पर थया त्यां एक कोटि द्रव्यथी पण संतोप थतो नथी. माटे आ | तृष्णाने धिक्कार छे.' आ विचारी पोताना मस्तके पोते लोच कर्यो, शासन देवताए तेने रजोहरणादिक लिंग-चिन्ह आप्या एटले कपिल तो द्रव्य तथा भाव वेय प्रकारथी यति साधु थइने राजानो आगळ आवी उभा. राजा बोल्या 'केम, तमे विचारी लाधु?' त्यारे कपिल कहे छे केजहा लाहो तहा लोहो । लाहा लाहो विवढई । दोमासकणयकजं ! कोडिएवि न निट्टियं ॥१॥ इति विचार्याहं त्यक्ततृष्णः संयमी जातः, राज्ञोक्तं कोटिमपि तवाहं ददामि, तेनोक्तं सर्वोऽपि परिग्रहो मया मारवासाचDCDD- المقالاته للكالفنالهالشتالها الهالات الفاليها لا For Private and Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् भाषांतर अध्ययन८ ॥४३५॥ ॥४३५॥ व्युत्सृष्टः, न मे कोट्यापि कार्यमित्युक्त्वा स श्रमणस्ततो विहतः षण्मासान् यावच्छद्मस्थ एवासीत् , पश्चात्केवली | जातः. इतश्च राजगृहनगरांतरालमार्ग बलभद्रप्रमुखाश्चौराः संति, एतेषां प्रतियोधो मत्तो भविष्यतीति ज्ञात्वा स कपिलकेवली गतः, तैष्टः प्रोक्तश्च भोः श्रमण! नृत्यं कुरु? केवली प्राह वादकः कोऽपि नास्ति. ततस्ते पंचशनचौरास्तालानि कुट्टयंति, कपिलकेवली च गायति, तद्गीतवृत्तमाह जेम लाभ थाय तेम लोभ थाय. लाभथी लोभ वधे छे. ये मासा सोनाने काजे कोटिथी पण निष्ठा=न थइ. अर्थात् करोड द्रव्य मागवानी इच्छाथी पण संतोष न वळ्यो आम विचारीने तृष्णानो परित्याग करी हुं संयमी थयो.' राजाए कयु-एक कोटि द्रव्य पण तमने आपुं. कपिल कहे-में तो सर्व परिग्रह तद्दन छोड्यो. मने हवे कोटि द्रव्यर्नु पण काम नथी. आटलं बोली ते श्रमण त्यांथी विहार करी गया, छ मास सुधी छाना रद्या ते पछी केवली थया. अहींथी-'राजगृह नगरना अंदरना मार्गमां बलभद्र आदिक चोरो छे तेओने माराथी प्रबोध यशे? एम जाणीने कपिल केवली त्यां गया. ते चोरोए जेवा कपिल केवली दीठा के तेने कयु के-'हे | श्रमण! नृत्य करो.' केवली बोल्या के-'कोई बगाडनार नथी' आ उपरथी पांचसो चोर ताली पाडवा लाग्या एटले कपिल केवली गाय छे-तेमणे गायेल वृत्त कहे - अधुवे असासयंमि । संसारंमि दुक्खपउराए ॥ कि नाम हुज ते कम्मं । जेणाहं दुग्गेई ने गछेचजो॥१॥ मूलार्थ-(अधुर्व) अस्थिर तथा (आसासयम्मि) अशाश्वत तथा (दुक्खपउराए) प्रचुर दुःखवाळा (संसारम्मि) आ संसारने विषे | (किं नाम) कयु(त) ते [कम्मयं] कर्म-अनुष्ठान (होज) होय [जेण अह] जे अनुष्ठान वडे हुं (दुग्गर) दुर्गति प्रत्ये (न गच्छेज्जा) न जाउं? १ For Private and Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् भाषांतर अध्ययन८ ॥४३६॥ ||४३६॥ व्या-भो जना अस्मिन् संसारे तत्कर्मकं किं नाम कि संभाव्यते? तकि कर्म वर्तते? तत्कि क्रियानुष्ठानं वर्तते? येन कर्मणाहं दुर्गतिं न गच्छेयं. केवलिनः संशयस्य दुर्गतिगमनस्य चोभयोरभावेऽपि प्रतियोधापेक्षयेति केवली भगयानिदमाह. कथंभूते संसारे? अध्रुवे, भवभवस्थानकनिवाससद्भावादस्थिरे, पुनः कीदृशे संसारे? अशाश्वतेनित्ये, पुनः कीदृशे संसारे? दुःखप्रचुरे, दुःखैः शारीरिकमानसिककष्टैः प्रचुरे पूर्णे जन्मजरामृत्युसहिते. ॥१॥ अर्थ-हे मनुष्यजनो! आ संसारमा एq ते क्युं कर्म क्रियानुष्ठान क्या कर्मनी संभावना करी शकाय छे.? के जे कर्भवडे | करीने हुँ दुर्गति न पामुं.? यद्यपि केवलीने संशय अथवा दुर्गति गमननो संभव न होय तथापि अन्यने प्रतिबोध आपवानी अपेक्षाथी केवली भगवान् आq बोल्या. आ संसार केवो छे? ते कहे छे-अध्रुव भवे भवे स्थानक निवास संभवे तेथी अस्थिर, तथा अशाश्वत अनित्य तेमज दुःखप्रचुर, एटले शारीरिक तथा मानसिक कष्टो जेमां प्रचुर-पुष्कळ रहेला छे एबो जन्मजरा मरणादि दाखोथी भरेलो आ संसार के तेमां दुर्गतिथी बचाय एवं कयं कर्म हे? एवो प्रश्नाभिमाय छे.१ | विजहित्तु पुवसंयोग । न सिणेहं कहंवि कुविजा ॥ असिणेहेसिणेहकरेहिं । दोसपओसेहिं मुश्चए भिक्खू॥२ मूलार्थ-(भिक्खु) साधु ते (पुष्वतंजोगं) पूर्वना संयोगने (विजहित्तु) तजीने (कहिचि) कांड पण परिग्रहने विषे (सिणेह) स्नेहने । न कुविजा करे नदि' तथा (सिणेहकरेहि) स्नेह करीने पण [असिणेह] स्नेह रहित एवा साधु (दोसपओसेहि) दोष प्रदोषथी (मुच्चए) मुकाय छे. २ For Private and Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन ॥४३७|| उत्तराध्य-3E व्या०-भिक्षुः साधुः कथंचित्कचिहाह्याभ्यंतरे वस्तुनि स्नेहं न कुर्यात् , किं कृत्वा? पूर्वसंयोगं 'विजहत्तु' विहाय, पन सूत्रम् कथंभूतो भिक्षुः? स्नेहकरैः, सस्नेहाः स्नेहं कुर्वतीति स्नेहकरास्तैः पुत्रकलबादिभिरस्नेहो वीतरागः, अथवा स्नेहकरे वस्नेहः, सप्तमीस्थाने तृतीया, पुनः सभिक्षुदोषप्रदोषैः प्रमुच्यते, दोषाश्च प्रदोषाश्च दोषप्रदोषास्तैर्दोषप्रदोषैः प्रमुक्तो ॥४३७|| | भवति, प्रकर्षण रहितो भवति, दोषैर्मनस्तापादिभिः, प्रदोषः प्रष्टदोषैः परभवे नकदुःखै रहितो भवति. ॥ २ ॥ अर्थ-भिक्षु साधु, कोइ पण रीते क्यांय पण बाह्य अथवा आभ्यंतर वस्तुने विषये स्नेह न करे. केम करीने? पूर्व संयोगने JE | त्यागीने; अर्थात् संयम ग्रहण पूर्वेना जे संयोग संबंध तेनो परित्याग करीने अस्नेह तथा स्नेह करनारा विरोधी तथा पुत्रस्त्री आदिकथी 6 वीतराग बनी अथवा स्नेह करनाराओमा अस्नेह-स्नेहरहित बनीने (सप्तमीना स्थानमां तृतीया विभक्ति मानवी) साधु, दोष=मनः| संपादित तथा प्रदोष-परभवना नरकादिदुःखो बन्नेथी प्रकर्षे करीने मुक्त-रहित थाय छे, प्रमुक्त थाय छे. २ तो नाणदंसणसमग्गो। हियनिस्सेयसाय सव्वजीवाणं । तेसि विमोखणट्टाए।भासई मुनिर्वरो विगंयमोहो॥३ मलार्थ-(तो) त्यारपछी (णाणदसणमग्गो) केवळ शान अने दर्शन वडे तथा (विगयमोहो) मोहनीय क्षीण थयुं छे एवा (मुणिवरो) कपिल नामना मुनिवर (सबजीवाण') सर्व जीवोना [हिअनिस्सेअसाए] हित मोक्षने माटे (तेसि) ते चोरोना [विमोक्खणडाए विशेषे करीने मोक्ष माटे (भासह) कहे छे. ३ व्या०-ततोऽनंतरं मुनिवरः कपिलः केवली सर्वजीवानां हितनिःश्रेयसाय भाषते, हितं पथ्यसदृशं, यनितराम For Private and Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य भाषांतर २८॥ ॥४३८॥ तिशयेन श्रेयः कल्याणं हितनिःश्रेयसस्तस्मै हितनिःश्रेयसाय, किमर्थ भाषते? तेषां चौराणां विमोक्षणार्थ, स्वयं तु यन सूत्रम् कपिलो विमुक्त एवास्ति. अथ च तेषां चौराणां मोक्षणार्थमाहेत्यर्थः कथंभूतो मुनिवरः? विगतमोहो मोहरहितः, पुनः J0/ कीदृशो मुनिवरः? ज्ञानदर्शनसमग्रो ज्ञानदर्शनाभ्यां पूर्णः ॥ ३ ॥ किं भाषत इत्याह अर्थ-तदनंतर मुनिवर कपिल केवली सर्व जीवोना हितनिःश्रेयसार्थे हित एटले पथ्य सदृश, आ लोकमां हित साधक होइने TE जे नितरां=अतिशये श्रेयः परलोक कल्याण साधक-एq हितनिःश्रेयस वचन (भाषते) बोले छे. शा माटे बोले छे? ते चोरोना | विमोक्षण अर्थे पोते कपिलमुनि तो मुक्तज छे. पण ते चोरोना मोक्षण अर्थे बोल्या. मुनिवर केवा? ते कहे छे-विगतमोह मोहरहित तथा ज्ञानदर्शन समग्र-ज्ञान अने दर्शन, बन्नेथी परिपूर्ण-मुनिवर कपिल केवली बोले छे. ३ सव्वं गंथं कलहं च । विप्पजहे तहाविहं भिक्खू ॥ सव्वेसु कामजाएसु । पासमाणो ने लिप्पई ताई ॥४॥ मूलार्थ-(भिक्खू साधु (तहाविह) कर्मबंधना हेतुरूप [सब] सर्व प्रकारना (गंथ) परिग्रहने तथा (कलहंच) कलइने (विप्पजए) त्याग करे. (सब्बेसु) सर्व (कामजायसु) कामादि विषयोमा (पासमाणो) जोतो (ताइ) प्रायो- साधु (न लिप्पइ) लोपातो नथी.४ । व्या०-भिक्षुः साधुस्तथाविधं पूर्वोक्तं कर्मबंधहेतुं सर्वग्रंथं याद्याभ्यंतरभेदेन रिविधं परिग्रहं विशेषेण प्रजह्यात्परित्यजेत् , च पुनर्भिक्षुः कलहं क्रोध, चकारान्मानमायालोभादीन् विप्रजह्यात्, पुनः साधुः सर्वेषु कामजातेविद्रियविषयेषु न लिप्यते नासक्तो भवेत् , किं कुर्वन? पश्यन् विषयविपाकं चिंतयन्नित्यर्थः. पुनः कादृशः साधुः? ताई For Private and Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.kobalbirth.org Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie उत्तराध्यपन मुत्रम् भाषांतर अध्यापन ॥४३९॥ ॥४३९॥ प्रायी सर्वजीवानामभयदानदायीत्यर्थः ॥ ४॥ अर्थ-भिक्षु साधु, तथाविध-पूर्वे निरुपित करेल कर्म बंधना हेतुभूत सर्व ग्रंथ बाह्य तथा आभ्यंतर भेदथी चे प्रकारना परिग्रहनो विशेषे करीने परित्याग करे. पुनः कलह-क्रोधने पण त्यजे; चकार छे ते उपरथी मान, माया, लोभ इत्यादिकने पण त्यजवान मूचवाय छे. वळी ते साधु, कामजात सर्व इंद्रियना विषयोमा 'पश्यन्' विषयविपाकने विचारतो लीपातो नथी, आसक्त यतो नथी किंतु त्रायी-सर्व जीवोने अभयदान देनार थाय छे. ४ भोगामिसदोसविसन्ने । हियनिस्सेयंसबुद्धिविपच्चत्थे । बाले य मंदिए मुंढे । बज्झई मैच्छिया खेलमि॥५॥ मूलार्थ-(भोगामिसदोसविसने) विषयमां आसक्त थयेलो, तथा (मंदिर) मंद (मूढे) मृढ एवो (बाले अ) अज्ञानी माणस (खेलम्मि) | खेळ-इलेष्मने विषे [मच्छिआ य] माखीनी जेम (बझाइ) बंधाय छे. ५ . ___ व्या०-एतादृशो वालोऽज्ञानी कर्मणा यध्यते, कर्मणा बद्धश्च संसारान्निर्गन्तुं न शक्नोति, संसार एव सीदति, कस्मिन् क इव? खेले श्लेष्मणि मक्षिकाजंतुरिच, कथंभूतो बालो जनः? मंदो धर्मक्रियायामलसः, पुनः कीदृशः? मुढो मोहव्याकुलमनाः, पुनः कीदृशः? विषयामिषदोषविषण्णः, विषया एव गृद्धिहेतुत्वादामिपं, विषयामिषं, तदेव दोषो जीवस्य दृषणकरणत्वाविषयामिषदोषस्तत्र विशेषेण सन्नो निमग्नो विषयामिषदोषविषण्णः, पुनः कीदृशः? हिननिःश्रेयसवुग्द्रिपर्यस्तः, हितमात्मसुख, निःश्रेयसश्च हितनि यसौ, तयोर्विषये या बुद्धिहितनिःश्रेयसवद्विस्तस्याः सकाशाद्व For Private and Personal use only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org शेषेण पर्यस्तः पराङ्मुखो हितनिःश्रेयसबुद्धिविपर्यस्तः, स्वर्गापवर्गसुखाद्भष्ट इत्यर्थः ॥५॥ उत्तराध्य-10 भाषांतर पन सूत्रम् अध्ययन८ अर्थ-एवो ए बाल-मूर्ख, अज्ञानी कम वडे करी बंधाय छे अने बद्ध थवाथी संसारमाथी नीकली शकतो नथी किंतु संसार॥४४॥२५ मांज सीदाय छे, केनी पेठे? जेम खेल लाळ लीट वगेरेमा मक्षिका चोटी जतां छुटी शकती नथी अने अकळाय छे. तेम ए मूढ ३६ ॥४४०॥ Jt मोहथी व्याकुल मन वाळो, मंद-धर्मक्रिया करवामां आळसु, 'विषयामिषदोपविषण्ण' लोलुपताना हेतुभूत विषयरूप आमिष-मांस |JE विपयामिष आवां विषयामिष जीवने दुपित करे छे तेथी दोष कहेवाय, तेचा विषयामिष दोषमा विषण्ण-निमग्न-चोटी रहे तो, वळी हितनिःश्रेयस बुद्धि पर्यास्त=हित=आ लोकन् आत्म सुख तथा निःश्रेयस=मोक्ष; आ बन्नेना विषयमा जे चुदि-ज्ञान, तेथी विशेषे करीने पर्यस्त=विमुख; अर्थात् आ लोक तथा परलोकना पोताना हितना भान वगरनो; स्वर्ग तथा अपवर्ग मोक्ष; बेयथी भ्रष्ट रही | संसारथी छूटी शकतो नथी. ५ परिच्चया इमे कामा।नोसुजहा अधीरपुरिसेहि।अँह संति सुबया साहे। जे" तरंति अंतरं वणियावयव॥६ मलार्थ-[इमे] आ (कामा) शब्दादिक कामो (दुपरिचया) कष्टथी नोवारी शकाय तेवा छे तेथी ते (अधीरपरिसे) अधीर-सत्य-SE रहित पुरुषोए (नो सुजहा) सुखे तजी शकाप तेवा नथी. (अह) तथा (सुव्वया) निष्कलंक (साहु साधुओ (संति) छे, (जे) जेओ [अंतरं] तरी न शकाय तेवा भवने (तरंति) तरी जाय रे. ६ व्या०-इमे प्रसिद्धाः कामा अधीरपुरुषैर्न सुजहाः, न सुखेन हातुं योग्या इत्यर्थः, मिष्टान्नादिभोजनवत् . कीदृशा For Private and Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥ ॥४४॥ इमे कामाः? अत एव दुःपरित्यजाः. अथ केचित्सुननाः साधवः संति, येऽतरं तरीतुमशक्यं संसारं तरंति. के इव? भाषांतर वणिज इव, यथा वणिजः सामुद्रिका व्यापारिणोऽनरं महासमुद्रं प्रवहणस्तरंति, अत्र वा शब्दो इवार्थ. '६।। अध्ययन८ अर्थ-आ प्रसिद्ध काम अधीरपुरुषोये सहेलाइथी त्यजी शकता नथी तेथीज मिष्टान्न भोजननी पेठे दुःपरित्यज=बहु दुःखथी ॥४४॥ छोडाय तेवा छे. पण लोकमां सुव्रत-साधुओ छे के जेओ अतरनतरी काय तेवा संसारने जेम वहाणवटी व्यापारी अतर महासमुद्रने प्रवहण वहाण वडे तरी जाय तेम-तरी पार पामे छे. ६ समेणा में एंगे वयमाणा । पाणवह मिया अयाणंता॥ मंदा निरयं गच्छति । वाला पावियाहि दिट्ठीहिं|JE मुलार्थ-(मु) अमे [समणा साधुओ छोए एम [वयमाणा] बोलता (एगे) अन्य तीधी ओ (मिआ) विवेक रहित (मंदा) मंद (बाला) JE अज्ञानी छे तेओ (पाविआदि) पापना हेतु रुप (दिट्ठीहि) दृष्टि पडे (पाणवह) प्राणीना वधने (अयाण'ता) नहीं जाणता सता (निरय) नरकमां (गच्छति) जाय छे. ७ व्या०--एके केचित्कुतीर्थ्या मिथ्यात्विनः पापिकाभिः पापहेतुकाभिदृष्टिभिर्बुद्विभिः प्राणवधमधर्ममजानंतो नरकं गच्छति, कथंभूतास्ते मृगाः? अविवेकिनः, पुनः कीदृशास्ते? मंदा जडाः, यथा केचिद्रोगग्रस्ताभिदृष्टिभिः सम्यग्मार्गमजानंतः कस्मिंश्चिद् दुःखव्याप्ते मागें व्रजति, पुनस्ते केचित्कुतीर्थ्याः किं कुर्वतः? मुइति वयं श्रमणा इति 'वयमाणा' वदंतः श्रमणधर्मरहिता अपि स्वस्मिन् श्रमणत्वं मन्यमाना इत्यर्थः, यदि प्राणवधमपि न जानति, तदा For Private and Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्सराध्य 'न्येषां मृषावादादीनां तु ज्ञानं तेषु कुत एव संभाव्यते? कथंभूतास्ते? मंदा मिथ्यात्वरोगग्रस्ताः, पुनः कथंभूतास्ते? याला | ETभाषांतर पन सूत्रम् विवेकहीनाः विवेकहीनत्वं हि तेषां पापशास्त्रेषु धर्मशास्त्रबुद्धित्वात्. तद्यथा-ब्रह्मणे ब्राह्मणमालभेत, इंद्राय क्षत्रमालभेत, IPE अध्ययन८ ममदभ्यो वैश्य, नमसे शुद्रं, तथा-यस्य बुद्धिर्न लिप्येत । हत्वा सर्वमिदं जगत् ॥ आकाशमिव पंकेन । नासौ पापेन ॥४४२॥ ॥४४२॥ PE लिप्यते ॥१॥ धर्मो हि बालैग्ज्ञेयः ॥ ७॥ अर्थ-केटलाएक मिथ्यात्वी कुतीर्थ्य पापिका-पाप हेतुभूत दृष्टिथी पाणिवध अधर्म न जाणता नरके जाय छे. ते केवा? मृज अविवेकी तथा मंद जड जेवा जेम कोइ रोग ग्रस्तदृष्टिवाळा सारा मार्गने न जाणता कोइ दुःखव्याप्त मार्गमां जाय छे, तेम | अमे श्रमण छइए एम वोलता श्रमण धर्म रहित छतां पोतामां श्रमणपणानुं अभिमान लेनारा. माण वध न जाणे तेने मृषावादादिकनुं DEभान क्याथी संभवे. तेश्रो मंद-मिथ्यात्व रोगग्रस्त होवाथी बाल-विवेक हीन होय छे केमके तेओने अधर्म शास्त्रोमां धर्मशास्त्र बुद्धि होय छे. ब्रह्मने ब्राह्मण, इंद्रने क्षत्र, मरुद्ने वैश्य तथा तमसने शूद्र आलभन करवा. वळी 'आ सर्व जगत्ने हणीने पण जेनी बुद्धि अलिप्त रहे ते आकाश कादवथी न लीपाय तेम पापथी लीपातो नथी. इत्यादि० धर्म पदार्थ बाल=अज्ञथी जाणी शकातो नथी. ७ नेह पाणवहर्मणुजाणे। मुञ्चिज कयाइ सवदुखाणाएवमायरिएहिं अक्खायं। जेहिं ईमो साहुधम्मो पन्नत्तो। मूलार्थ-(पाणवह) प्राणवधने (अणुजाणे) अनुमोदना करतो [कयाइ] कदापि (सयदुक्याण) सर्व दुःखो थकी (नहु) नथीज (मुश्चिज) मकातो, [एव] प्रमाणे (आरिएहि) तीर्थकरादिके (अक्खाय) कयुं छे के (जेहिं) जे ओर्योष (इमो) आ [साहुधम्मो] साधुधर्म (पणत्तो) कह्यो छे.८ انسان عندما تقع نمت نه شکلاتی مفادات والمكال LalitDJBULURUJuhue For Private and Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य-JE ___ व्या०-तैरायः पूज्यैराचार्यरेवमाख्यातमित्युक्तं, तैः कैः? यैराचार्यैरयं साधुधर्मः साध्वाचारः, अथवा सम्यग्धर्मः | 'भाषांतर यन सूत्रम् प्रज्ञप्तः कथितः, इतीति किं? जीवः पाणिवधं जीवस्य हिंसामनुजानमनुमोदयन् 'ह' इति निश्चये कदापि सर्वदुःखेभ्यो। मटाखेभ्यो २५ अध्ययन८ न मुच्येत, अब प्राणिवधस्यानुमोदनायास्त्यागात्करणयोरपि त्याग उक्तः, प्राणिवधकरणकारणानुमतित्यागाच्च मृषा॥४४३॥ ॥४४३॥ 30/ वादादत्तादानमैथुनपरिग्रहादीनामपि करणकारणानुमतस्यापि निषेधो ज्ञेयः ॥ ८॥ अर्थ-ते आर्य पूज्य आचार्योंए एम कहेलं छे के जे आचार्योए साधु धर्म साधुओनो आचार अथवा सम्यधर्म प्रक्षप्त लोकोने जणाव्यो छे शुं कहेलं छे? ते कहे छे-कोइ पण जीव माणवध जीवहिंसाने अनुमोदन आपे ते 'हु' निश्चये कदापि सर्व दुःखोथी मुकातो नथी. अत्रे माणिवधना अनुमोदननो त्याग कही प्राणिवध करवानो नथा कराववानो पण त्याग कहेवाणो. एज 5प्रमाणे प्राणिवध करवो कराववो अथवा तेनुं अनुमोदन करवानो त्याग कही मृपावाद-खोई बोलवू, अदत्तादान मैथून परिग्रह | इत्यादिकना पण करवू करावधं तथा कोइ करतो अथवा करावतो होय तेमां अनुमति अनुमोदन आपवानो पण निषेध समजी लेवो.८ पाणे य नाइवाइज्जा । से समिएत्ति वुच्चई ताई ॥ तओ से पावयं । निजाइ उदगं ३ थलाओ ॥९॥ मलार्थ-(पाणे अ) प्राणोनो (नाइवाइजा) विनाश न करे, [से ते ताई) प्राणोनो बाथी (समिएत्ति) समितिवाळो छे, एम (बुच्चइ) कहेवाय छ [से] त्यारपछी (तो) ते थकी (पावय) पाप (कम्म) कर्म (नजाह) जतु रहे छे, (थलाओ) स्थळथकी (उदय) जेम पाणी जतु रहे छे तेम १ For Private and Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् भाषांतर अध्ययन८ १४४४॥ ॥४४४॥ व्या०-यः साधुःप्राणान जीवान्नातिपातयेन्न विघातयेत् , स्वयं न हिंस्यात, चशब्दात्प्राणहिंसायाः कारणानुमत्योरपि निषेध उक्तः, सत्राता जीवरक्षाकारी साधुः समित उच्यते. से इलथानंतरं सर्वजीवरक्षणादनंतरं ततस्तस्मा समितासमितिगुणयुक्तात्साधोः पापकं कर्मा शुभं कर्म नियोति निर्गच्छति, कस्मात्कमिव? स्थलादुन्नतभूतलादुदक CIानीय निर्गच्छति, उन्नतभूतले यथोदकं न तिष्ठति, तथा समिते साधौ पापकं न तिष्टतीनि. ॥९॥ ___अर्थ-जे साधु पाण=जीवाने अतिपात विघात न करे-पोते जीवोनु हिंसन न करे 'च' शब्द आप्यो तेथी प्राणि हिंसा करावे पण नहि तेम तेमां अनुमति पण न आपे ते त्राताजीव रक्षाकारी साधु, समित कहेवाय छे तेथी-सर्व जीवन रक्षण करनारा समितिगुण युक्त ए समित संज्ञक साधुमांधी पाप कर्म अशुभ कर्म नीकली जाय छे. जेम स्थल उंचा भूमि प्रदेशथी उदक पाणी नीकळे छ अर्थात् उंचा भूतल उपरथी पाणी जेम ढळी जाय तेम ए समित साधुथी पाप स्वयं दूर थइ जाय छे. ए साधुमां पाप कर्भ स्थिति | पामी शकतुं नथी. ९ जगनिस्सिएहिं भूएहिं । तेसनामेहिं थावरेहिं ॥नो" तेसिमारंभे दंडे'। मणला वयसा कार्य सा चे॥१०॥ मूलार्थ-(जगनिस्सिपहि) जगतने आथयी (तसनामेहि) त्रस नाम कर्मना उदयवाळा [थावरेहि च] स्थावर (भूरहि) प्राणोओने विषे (दंड) हिसारूप दडने [नो आर मे] आर मे नहीं १० व्या-जगल्लोकस्तत्र निश्रिता आश्रितास्तेषु जगमिश्रितेषु असेषु थावरेख च जावेषु मनसा वचसा. च पुनः For Private and Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'भाषांतर अध्ययन८ ।४४० उत्तराध्य | कायेन, तेषु दंडं न समारभेत, वधं न कुर्यादित्यर्थः. अनोजयिन्यां श्राद्धपुत्रस्य कथा वाच्या. ॥१०॥ यन सूत्रम् ___अर्थ-जगत् लोक, तेमां निश्रित आश्रित, त्रस तथा स्थावर जीवोने विषये मनथी वचनथी अथवा कायाथी कोइपण प्रकारनो ॥४४५॥ दंड देवा आरंभ न करे कोइपण प्राणीनो वध न आदरे. १० अत्रे उज्जयिनीना श्राद्धपुत्रनी कथा वांचवी. सुसणाओ नचाणं तत्त ठविज भिक्खू अप्पाण ॥जायाए घासमेसिजा ! रसँगिद्धे ने सँया भिक्खाए॥११॥ मूलार्थ-(भिख्खू) साधु (सुद्धसणाओ) शुद्ध एषणाने (नचाणं) जाणीने (तत्थ) ते एषणाने विषे (अप्पाणं) आत्माने (ठविज) स्थापन करे, (भिक्खाए) भिक्षाने खानार साधु (जायाय) यात्राने माटे (घास) ग्रासनी (पसिज्जा) गवेषणा करे. परंतु (रसगिद्धे.) || स्निग्ध (न सिया) थाय नहीं. ११ व्याख्या-भिक्षुः साधुः शुद्धेषणां ज्ञात्वा शुद्धाहारग्रहणं विज्ञाय तत्र निर्दोषग्रहणे आत्मानं स्थापयेत्, पुनः साध्वाचारं वदति-भिक्षादो भिक्षाचरो मुनिर्यात्रायै शरीरनिर्वाहाय ग्रासमाहारमेषयेद् गवेषयेत् , न पुनः साधू रसगृद्धः स्यात्. ।। ११॥ ___ अर्थ-भिक्षु-साधु, शुद्धेपणा-शुद्ध आहारनुं ग्रहण जाणीने तेमां निर्दोष ग्रहणमां आत्माने स्थापित करे. (पुनः साधुनो आचार BE कहे छे.) भिक्षाद-भिक्षित पदार्थ खानार मुनि केवल यात्रा शरीरनिर्वाहने अर्थे ग्रास आहारने खोळे. साधु पुनः रसगृद्ध-रसमां लोलुप न थाय. ११ For Private and Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य-IDE पंताणि चेव सेविजी । सीयपिंडपुराणकुम्मासं ॥ अव बुक्कसं पुलागं वा। जावणट्टाए निसेवए मंथु॥१२॥ Illभाषांतर यन सूत्रम् (जवणहार) शरीरपोषण माटे (पंताणि चेव) अस्वादिए आहारने (सेविजा) सेवे-जमे (सीअपिंड) शीत आहार (पुराण कुम्मा) अध्ययन८ JC'पुराण-जुना अडद मग (अदु) अथवा (बुक्कस) कुशका [पुलागंवा] वाल चणा [मथु] बोर [निसेवए] खाय १२ ॥४४६॥ ॥४४६॥ ___ व्या०-साधुर्यापनार्थ शरीरनिर्वाहार्थ प्रांतानि निरसाण्यन्नपानीयानि सेवेत, च पुनरंतान्यपि सेवेत, तानि प्रांतान्यतान्यन्नपानीयानि कानीत्याह-शीतं पिंडं, शीतः शाल्यादिस्तस्य पिंडः शीतपिण्डस्तं. पुनः पुराणकुल्माष, पुरागाः प्रभूनकालं यावत्संचिताः, पुराणाश्च ते कुल्माषाश्च पुराणकुल्माषाः पुरातनराजमाषास्तान, प्राकृतत्वादेकवचनं, 'अदुव' अथवा 'चुक्कसं' अतिनिपीडितरसं तुषमात्रास्थितं, बुक्कसं मुद्गादीनां तुषं वा, अथवा पुलाकमसारं वल्लचणकादिकं, PE पुनः शरीरधारणाथै मं) बदरचूर्ण निषेवेत, बदरचूर्णस्यापि रूक्षतया प्रांतत्वं, अत्र यापनार्थमित्युक्तं तेनायमर्थो ज्ञेयः, यदि त्वतिपातादिना तदेहयापना नैव स्योतत्ततो न निषेवेत, अपि स्थविरो ग्लानश्च येनाहारेण शरीरे सुखं स्यात्तDE दाहारं सेवेत, अयमर्थो ज्ञेयः ॥१२॥ __अर्थ-साधु, यापनार्थ शरीर निर्वाहार्थ प्रान्त=नीरस अन्नपानादि सेवे. ते प्रांत अन्नपान क्यां शीत=ठरी गयेल भात वगेरे, | शीतपिंड, तथा पुराण कुल्माष बाफेला जूना चोळा बटाणा बगेरे, बुक्कस, मग वगेरेना फोतरां अथवा पुलाक असार भंसो अथवा Rall वाल चणा जेवी वस्तु अथवा मंथू एटले मुकेलां चणी बोरनो भूको; आवा प्रांत पदार्थो सेवे. बोरनो भूको पण रुक्ष होवाथी प्रांत For Private and Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobaith.org Acharya Shri Kalassagersuri Gyanmandie भाषांतर अध्ययन८ ॥४४७॥ उत्तराध्य | वस्तुमा गणी शकाय. आमा 'यापनार्थ' एम कयु ते उपरथी एम अर्थ जाणवो के-जो अतिपातादिने लइ ते देह यापना नज थाय यन सूत्रम् तो न सेवे वृद्ध होय अथवा ग्लान होय तो जे ओहारथी शरीरे मुख थाय तेवा आहारने मेवे; आवो तात्पर्याय छे. १२ ॥४४७॥ जे लक्खणं च सुविणं च अंगविजं च जे पओजति ॥ न हु तैसमणा वुच्चंति । एवं आयरिएहिं अक्खाय॥१३॥ (जे) जे (लक्षण च) लक्षण विद्या सिविणं च स्वप्न शास्त्रने (अंगविजं च) अंगविद्याना शाखने (जे) जे साधओ [पाउंज ति] | वापरे छे-(ते) तेओ [समणा] मुनिओ (न हु) नथीज [बुच्चति कहेवाना (एव) ए प्रमाणे (आयरिएहि) आचार्योए फरमाव्यु छे १३ __व्या०-'हु' इति निश्चयेन ते श्रमणा न उच्यते, आचार्यरेवमाख्यातं, ते के? ये लक्षणं सामुद्रिकशास्त्रोक्त द्वात्रिंशत्प्रमाणं माषतिलकादिकं च, च पुनः स्वप्न स्वप्नशास्त्रं गजारोहणाद्भवेद्राज्यं । श्रीप्राप्तिः श्रीफलागमात् ।। पुत्राप्तिः फलिताम्रस्य । सौभाग्यं माल्यदर्शनात् ॥१॥ इत्यादि. अंगविद्यामंगस्फुरणफलशास्त्रं यथा-शिरसः स्फुरणे राज्यं । हृदयस्फुरणे सुख ॥ बाहोश्च मित्रमिलनं । जंघयो गसंगमः॥१॥ इत्यादि सर्व मिथ्याश्रुतं साधुना न प्रयोज्यमित्यर्थः. यदाह धर्मदासगणि:-जोइनिमित्तअवखर-कोउयआएसभूयकम्मेहिं ॥ कारणाणुमोयणि जे । साहुस्स तव क्ख ओ होइ ॥ १ ॥ १३ ॥ JE अर्थ-'हु' निश्चयें ते श्रमण नज़ कहेवाय एम आचार्योए आख्यात कहेल छे के जे लक्षण सामुद्रिक शास्त्रमा कहेलां मसा, नल, तिलक आदि वत्रीश चिन्हो, तथा स्वप्न स्वप्नाध्यायमां कडेलां-'गजारोहाद् भवेद् राज्यं श्रीमाप्तिः श्रीफलाद् भवेत् ।। पुत्राप्तिः For Private and Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन८ ॥४४८ उत्तराध्य फलिताम्रस्य सौभाग्य माल्य दर्शनात् ॥ हाथी उपर चड्या एवं स्वप्न आवे तो राज्य मळे श्रीफळन दर्शन थाय तो लक्ष्मी प्राप्ति पन सूत्रम् थाय; फलित आंबो स्वप्नमां देखे तो पुत्रप्राप्ति थाय अने पुष्पहार स्वप्नमां आवे तो सौभाग्य लाभ थाय छे. इत्यादि स्वप्न शास्त्र, तथा अंगविद्या अंगस्फुरणशास्त्र-जेवां के-शिरसः स्फुरणे राज्यं हृदय स्फुरणे सुखम् ॥ वाहोश्च मित्र मिलनं जंघयोर्भोग संगमता ॥४४८॥ BEमस्तक प्रदेश फरके तो राज्य मळे, हृदय स्फुरणथी मुख थाय वाहु फरके तो मित्र मळे अने जंघा स्फुरण थाय तो भोग संगम - थाय; इत्यादि सर्व मिथ्याश्रुत कहेवाय ते साधुए प्रयोज्य जाणीने उपयोग करवानुं नथी, धर्मदासगणिए का छे के जोइ निमित्त अक्खर कोउय आएस भूय कम्महि ॥ करणाणुमोयणिज्जे साहुस्स तवक्खओ होइ ॥ १॥ ज्योतिष, निमित, अक्षर, कौतुक, आदेश, भूतकर्म; इत्यादि साधु करे अथवा अनुमोदे तो साधुना तपःनो क्षय थाय छे. माटे BEI साधुए ए सर्व वर्जवां १३ इह जीवियं अनियमित्ता। पभट्ठा समाहि जोएहिं ते कामभोगरसगिद्धा । उवजंति असुरे काएं ॥१४॥ मूलार्थ-(इइ) आ (जीवियं) जीवितने (अनिअमेता) अनियमित राखीने (समाहिजोपहि) समाधि (पन्भट्ठा) भ्रष्ट थया होय अने (कामभोग रसगिद्धा) कामो भोगमा आसक्त होक (ते) तेओ मरीने (आसुरे) असुर देव संबंधी (काए) निकायने विषे (उववजति) उत्पन्न थाय छे. १४ व्या-ते कामभोगरसगृद्धा आसुरे काये उत्पद्यते, किं कृत्वा? इहास्मिन् संसारे जीवितमात्मानं तपोविधानादिना, 'अनियमित्ता' इत्यनियंत्र्यावशीकृत्य, ते के? ये समाधियोगेभ्यः प्रभृष्टाः, समाधिना स्थैर्येण योगा मनोवा من بناتمعات الاقتها نقلنائما قلع ناخاللقطات For Private and Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कायानामेकीभावाः समाधियोगास्तेभ्यः प्रभ्रष्टाः, प्रकर्षेणाधः पतिताः पुनः कीदृशास्ते? कामभोगरसगृद्धा विषयसेवउत्तराध्य-२५ नस्वाद लोला आसुरे कायेऽसुरकुमारयोनौ, अत्र 'अनियमित्ता' इत्युक्तेन किंचिदनुष्ठानं कृत्वाऽसुरकुमारत्वेनोत्पद्यते, IBE भाषांतर यन सूत्रम् अध्ययन८ नितरामतिशयेन यमित्वा नियम्य, न नियम्यानियम्योत्कृष्टं तपोऽकृत्वेयर्थः ॥ १४ ॥ ॥४४९॥ ॥४४९॥ अर्थ-तेओ कामभोग रसगृद्ध काम भोगववाना रसमा सवृष्ण बनेला आसुर कायामां उत्पन्न थाय छे, शुं करीने? इह आ संसारमा जीवित आत्माने उत्कृष्ट-तपो विधानादिथी नियमित न करीने वश्य न राखीने, समाधि-चितनी स्थिरतारूपी योग एटले मन वाणी तथा कायाना एकी भावलक्षण योगथी प्रभ्रष्ट प्रकर्षे करी अधःपतित थयेला ते साथे उपर कहेल विशेषण विशिष्ट एटले नाना प्रकारना अभिलषित वस्तुना स्वादमा छेक लोलुप बनेला आसुर काय असुरकुमार योनिमां उत्पन्न थाय छे, अहीं 'अनियमित्ता' पदनो आशय एवो छ के-किंचित् अनुष्ठान करी अमुरकुमार रूपे उत्पन्न थाय पण जो उत्कृष्ट तपःसंयमादिथी सामाधियोगथी भ्रष्ट थता बचे. १४ ततोवि य उवैहित्ता । संसारं बहु अणुपंरियडंति ॥ बहुकम्मलेवलित्ताणं । बोही होई सुदुल्लहो तेसिं ॥१५॥ मूलार्थ-(तत्तो वि) ते असुर (उबट्टित्ता) नीकळीने (बहु) घणाविस्तीर्ण (संसार) संसारने विषे [अणुपरिअडंति] निरंतर परिभ्रमण करे छे. वळी (बहुकम्मलेवलित्ताणं, घणा कर्मना लेपथी लीपायेला (तेसि) तेओने (योही) धि जिनधर्मनी प्राप्ति (सुदुल्लहो) अत्यंत दुर्लभ (दोह) थाय . १५ For Private and Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य पन सूत्रम् ॥४५०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्या- ततोऽपि च ततोऽसुरनिकायादुष्कृत्य निःसृत्य बहुं संसारमनुपदंति बहुलं संसारं भ्रमंति, पुनस्तेषां संसारे भ्रमतां योधिः सम्यक्त्वलब्धिः सुदुर्लभा भवति, कथं भूतानां तेषां? बहुकर्मले पलिसानां प्रचुरकर्मपंकखरंटितानां ॥ १५॥ अर्थ —ततः=असुरनिकायमांथी उपस्थित - नीसरेला बहु संसारमां अनुपर्यटन = भ्रमण करे छे. पुनः संसारमा भ्रमण करता ते |पुरुषोंने बोधी=सम्यक्त्व लब्धि सुदुर्लभ थाय छे केमके तेआं बहु कर्म लेपलिप्त बनेला होय छे अर्थात् पुष्कळ कर्मरूपी कादवथी खरडायेला होय छे तेथी तेमने बोधि लाभ अत्यंत दुर्लभ थाय छे. १५ कसिपि जो इमं लोगं । पंडिपुण्गं दलिन इक्केस्स ॥ तेावि से नैं संतुस्से ईइ दुप्पूरेंए ईमे अप्पा ॥१६॥ मुलार्थ – (जो) जे (इकस्स) एक माणसने (पडिपुण्णं) धनधान्यादिकथी पूर्ण [इम ] आ (कसिणपि) समग्र एवो पण [लोग' ] लोक (दलेज) आपीदे तो पण तेणावि) ते लोकना दान वडे पण [से] ते माणस [न संतुस्से] संतुष्ट थतो नथी १६ व्या० - यदि शब्द स्याध्याहारः, यदि कश्चिदिंद्रादिदेव एकस्य कस्यचित्पुरुषस्य प्रतिपूर्ण धनधान्यादिपदार्थैर्भृतं समस्तलोकं विश्वं दद्यात्तदापि तेन धनधान्यादिपरिपूर्ण समस्तलोकदानेन स पुरुषो न तुप्येत् इति हेतोरयमात्मा | दुःपूरकः, दुःखेन पूर्यत इति दुःपूरः, दुःपूर एव दुः पूरकः. ॥१६॥ पूर्वोक्तमर्थमेत्र दृढपति अर्थ—अत्रे यदि शब्दनो अध्याहार छे यदि=जो कोइ इंद्रादि देव एकज कोइ पुरुषने, परिपूर्ण=धन धान्यादि पदार्थोथी भरेल | समस्तलोक = आ विश्व दीये तो पण ते धनधान्यादि पूर्ण समस्त लोक दाने करीने पण ते पुरुष संतुष्ट न थाय; आ हेतुथो आ आत्मा For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन८ ॥४५० ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie भाषांतर अध्ययन८ 1४५१॥ उत्तराध्य- दुःपूरक दुःखे करीने पूराय एवो अर्थात् नन पूराय एवो कहेल छे. १६ यन मूत्रम् पूर्वोक्त अर्थने दृढ करवा फलितार्थ कथन पूर्वक कहे छे. ॥४५ ॥ ___ जहा लाहो तही लोहो । लाहा लोहो पढइ ॥ दोमासकयं कोजं । कोडिएवि ने निट्टियं ॥ १७ ॥ मूलार्थ-(जहा) जेम जेम (लाहो) लाभ थाय छे. (तहा) तेम तेम लोहो] लोभ वधतो जाय, लाहा) लाभधी (लोहो) लोभ (पब ह] वृद्धि पामे छे जुभो! (दोमासक') ये मासा सुवर्ण माटे करेलु (कर्ज) कार्य (कोडीए वि) कोटी द्रव्य वडे पण (न निटिअं) 26 पूर्ण थयु नहि १७ च्या०-यथा लाभस्तथा लोभः, लाभालोभः प्रवर्धते, द्विमाषार्थ विमाषप्रमितस्वर्णग्रहणाध कृतं कार्य स्वर्णकोटी| भिरपि 'न निट्टियं न निष्टितं, पूर्ण न जानमित्यर्थः. माषं तु पंचगुंजाप्रमाणं, माषद्वयप्रमितस्वर्णेन कार्य दास्याः पुष्प| तांबूलवस्त्राभूषणादिमूल्यरूपं, तत्कार्य कोटिद्रव्ये गापि परिपूर्ण नाभूत्. ॥ १७॥ स्त्रीमूला हि तृष्णेनि हेतोस्तत्परिहारार्थ गाथामाहु अर्थ-जेम जेम लाभ थतो जाय तेम तेम लोभ वधतो जाय, कारणके लाभे लोभ वृद्धि पामे छे जेम चे मासा कनकने काजेचे |माषा मुवर्ण लेवा माटे करेलु कार्य अंते सुवर्ण कोटिथी पण निष्ठित न थयु परिपूर्ण न मनाj. आ अध्ययना आरंभमां कपिल कथा प्रसंगे चे मापा एटले दश चणोठीभार सोनाथी जे कार्य-दासीने पुष्पाबूल वस्त्राभूषण वगेरेने माटे मूल्यरूप धारेल ते कार्य राजाने For Private and Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य'मरजीमां आवे ते माग' कहेतां विचारना बमळमो पडी कोटि द्रव्य सूधी आवतां पण पूर्ण न थयुः तृष्णानो अंतज नथी. १७ all भाषांतर पन सूत्रम् ___ आ तृष्णानुं मूल स्त्री होवाथी तेना परिहारार्थ कहे छे. अध्ययन८ ॥४५२॥ नो रक्खसीसु गिज्झिज्जा । गंडवच्छासु णेगचित्तासु ॥ जाओ पुरिस पलोभित्ता। खेलंति"जहावा दोसेहि।।१० ॥४५२॥ JEL मूलार्थ-(गंडवच्छासु) गुमडा जेवा कुच छे अने (गचित्तासु) चचळ युक्त एबी (रक्खसीसु) राक्षसी जेवी श्रीओने विषे (णो गिजिझज्जा) अभिलाषा करवी नहि. बळी (जाओ) जे स्त्रीओ (पुरिसं) पुरुषने (पलोभित्ता) वचनथी लोभ पमाडीने (जहावा) जेम ५(दासेहि) दासनी साथे क्रीडा करे तेम (खेलति) क्रीडा करे छे १८ JE व्या०-राक्षसीषु नो गृध्ध्यन्न विश्वसेत् , ज्ञानादिजीवितापहाराद्राक्षसीत्युक्तं. कथंभूतासु स्त्रीषु? गंडवक्षस्तु, गंडं गड स्तदुपमत्वादुच्चैः कुचो वक्षसि यासांता गंडवक्षसस्तासु गंडवक्षस्सु, उच्चकुचस्फोटकवक्षस्कासु, वैराग्योत्पादनाथै कुचयोगेडोपमानं, विभवत्योत्पादमुपमानं. पुनः कीदृशीषु स्त्रीषु? अनेकचित्तासु, अनेकषु पुरुषेषु चित्तं यासां ता अनेकचित्तास्तासु, अथवानेकेषां पुरुषाणां चित्तं यासु ता अनेकचित्तास्तासु, अथवानेकानि चित्तानि संकल्पविकल्परूपाणि चिंतनानि यास ता अनेकचित्तास्नासु, याः स्त्रियो राक्षस्यः पुरुषं कुलीनं मानवं प्रलोभयित्वा त्वमेव मम भर्ता, स्वमेव मम जीवितं त्वमेव मम शरणमित्यादिवचनैर्वशीकृत्य प्रीतिमुत्पाद्य तैः पुरुषैः सह रमंते कीडंति, कैः? यथा दासयेथेव दासैः क्रीड्यते, ते कुलीनपुरुषा अपि स्त्रीमियामोहिताः संतो दासप्राया भवंति, यथा दासा गम्यता? स्थीयतां? इदं कार्य मा क्रियतामिति वचनं श्रुत्वा स्वाम्यादेशकारिणो भवंति, तथा नारीणां वशवर्तिनः पुरूषाः किंकरा भवतीत्यर्थः مع تراجع العقلا تنس الام من الدين DILDAUGUJuodthukaidu.UNAUL المع البيان ان اقنعني For Private and Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie www.kobairthorg ___ अर्थ--राक्षसीओने विषये गृद्धा विश्वास न करवो. ज्ञानादि जीचितनो अपहार करे छे तेथी खीयोने राक्षसीओ कही. ते उत्तराध्य- स्त्रीयो केवी छे? गंडवक्ष: एटले छाती उपर जेओने गढ= महोटां गुमडा जेवो व्याधि थयेलो होय . वैराग्य उपजाववा माटे स्त HEभाषांतर अध्ययन८ नने गुमडांनी उपमा आपेली छे. वळी ते खीयो केवी होय छे? अनेकचित्ता अनेकपुरुषोमा जेनां चित्त होय, अथवा अनेक पुरु॥४५॥ पोनां जेमां चित्त होय, अथवा अनेक क्षणे क्षणे बदलाता छे चित्त जेना एवी जे खीयो राक्षसीयो पुरुष कुलीन मानवने प्रलोभन ॥४५३॥ आपीने अर्थात् ' तमेंज मारा भर्ता, तमेज मारा जीवित, तमेज मारुं शरण; इत्यादि वचनोवडे वश्य करीने प्रीति उत्पन्न करी ते पुरुषोनी साथे रमे के क्रीडा करे छे. केनी पेठे? दासनी पेठे ते कुलीन पुरुषो पण स्त्रीयोमां व्यामोहित थतां दास जेवाज बनी २६ जाय छे. जेम दास 'जाओं' 'बेसी जाओ' 'उभा रहो' 'आ काम म करशो' इत्यादि स्वामीनां वचनो सांभळी तेना आज्ञाकारी Jellथाय छे तेम स्त्रीयोने वश थयेला पुरुषो पण किंकर बनी जाय छे. १८ नारोसु नोपगिज्झिजा। इत्थी विपजहे अणगारे ॥धम्मं च पेसलं णच्चा। तत्थ ठविज भिक्खू अप्पाणं॥१९/६ मूलार्थ-(नारीसु) नारीओने विषे (नो पगिज्झिज्जा) अभिलाषा न करे, तथा (अणगारे) साधु (इत्थी) खीओने [विपजहे] त्याग iral करे (धम्म' च) धर्मनेज [पेसल] अस्यत मनोहर (णचा) जाणीने (तत्थ) तेने विषे (भिक्खू) साधु [अप्पाणं] पोताना आत्माने JE (उबिज) स्थापन करे. १९ व्या०-अनगारः साधुः स्त्रीषु न गृध्ध्यन्न गृद्धि कुर्यात् , अनगारः स्त्रियं विशेषेण प्रजयात्परित्यजेत् , पुनर्भिell क्षुर्धर्म ब्रह्मचर्यादिरूपं पेशलं मनोज्ञं ज्ञात्वा तत्र अत्मानं स्थापयेत. ॥ १९॥ For Private and Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir www.kobatirth.org भाषांतर अध्ययन८ ॥४५४॥ उत्तराध्य- अर्थ-अनगार=निथ साधु, स्त्रीयोमा गृद्धि=भाकांक्षा न करे किंतु विशेषे करी परित्याग करे. च पुनः भिक्षु, धर्मने पेशल पन सत्रम् ३६ मनोज्ञ जाणी तेमां आत्माने स्थित करे. १९ ॥४५४॥ इति ऐस धम्मे अक्खाए । कविलेणं विसुद्धपन्नेणं । तेरिहिति जे उ काहिंति । तेहिं आराहिया देव लोगि त्ति बेमि ॥२०॥ JE मूलार्थ-[इति] आ प्रकारे (एस) आ पूर्वे कहेलो (धम्मे) साधुधर्म (विसुद्ध पन्नेण) निर्मळनानवाळा (कविलेण च) कपिलमुनिए (अवक्खाए) का छे. (जे) जे मनुष्यो [काहिति] धर्म करशे. तथा (तेहि) ते मनुष्योए (दुवे लोगा) बन्ने लोक (आराहिम । आराध्या गणाशे. (त्ति बेमि) प्रमाणे हु' कहु छु. २० स्या-इत्यमुना प्रकारेणैष धर्मः कपिलेनाख्यातः कथितः, कथंभूतेन कपिलेन? विशुद्धप्रज्ञेन केवलज्ञानयुक्तेन, ये पुरुषाः कपिलकेवलिनोक्तं धर्म करिष्यंति, ते पुरुषाः संसारं तरिष्यति, पुनस्तैः पुरुषैवपि लोकावाराधितो सफलीकृतावित्यर्थः ॥ २० ॥ ___अर्थ-इति=ए प्रकारे आ धर्म कपिलमुनिए आख्यात=कहो. कपिल केवा? विशुद्ध मन केवल ज्ञान सम्पन्न. जे पुरुषो कपिल adi केवलीए कहेला धर्म आचरशे ते पुरुषो संसार तरी जशे. वळी ते पुरुषोए बेय लोक आराधित कर्या=सफल कर्या, एम समजबु. २० इत्यादिदोधकान् कपिलोक्तान् श्रुत्वा तत्र केचिचोराः प्रथमेनैव दोधकेन प्रतिबुद्धाः, केचिद् द्वितीयेन. एवं पंच For Private and Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन८ LE| शतचौरा अपि प्रतिबुद्धाः प्रव्रजिताश्च ॥ इति कापिलीयमध्ययनष्टमं संपूर्णम् ॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् इति श्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रार्थदीपिकायामुपाध्यायश्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिशिष्यश्रीलक्ष्मीवल्लभगणिविरचितायां Isal कापिलिकाध्ययनस्यार्थः संपूर्णः ॥ श्रीरस्तु ॥ ॥४५ ॥ इत्यादि कपिलो- दोधक सांभळी त्यां केटलाक चोर प्रथम दोधकथीज प्रतिबुद्ध थया, केटलाक बोजा दोधकथी; एम पांचसोय चोर पतिबुद्ध थइ मनजित दीक्षित यया. एम आ आठमुं कपिलीयाध्ययन पूर्ण थयु. इति श्री उत्तराध्ययनसूत्रना-श्री लक्ष्मीकीतिगणिना शिष्य श्री लक्ष्मीवल्लभगणिए विरचित्त अर्थदीपिकावृत्तिमां कापिलिक JE अध्ययननो अर्थ पूर्ण थयो. For Private and Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥४५६॥ ॥ अथ नवममध्ययनं प्रारभ्यते ॥ ailभाषांतर अष्टमेऽध्ययने हि निर्लोभत्वमुक्तं, निर्लोभः पुरुषो हींद्रादिभिः पूज्यः स्यात्, अतो नवमेऽध्ययने नमिराजर्षिरि- ३६ अध्ययन द्रेणागत्य भावपूर्वकं वंदितः, इत्यष्टमनवमाध्ययनयोः संबंधः. तत्र नमिस्तु प्रत्येकबुद्धः, प्रत्येकबुद्धाश्चत्वारः, समका ॥४५६॥ लसुरलोकच्यवनप्रत्येकप्रतियोधप्रव्रज्याग्रहणकेवलज्ञानोत्पतिसिद्धिगमनभाजो जाताः, तेषु प्रथमः करकंट्टः १, द्वितीयो बिमुखः २, तृतीयो नमिराजा ३, चतुर्थो नगातिः४, इति. तेषां प्रत्येकबुद्धानां कथानकमुच्यते, तत्र प्रथमं करकंडूकथा यथा-करकंहू कलिंगेसु । पंचालेसु अ दुम्मुहो ॥ नमी राया विदेहेसु । गांधारेसु य नग्गई ॥१॥ ॥ अथ नवमा अध्ययनो पारंभ थाय छे। अष्टमाध्ययनमा निर्लोभत्व कयु, निर्लोभ पुरुष इंद्रादिकनो पूज्य थाय छे माटे नवमाध्ययनमां नमिराजर्पिने इंद्रे आवीने भावपूर्वक वंदन कर्यु ए अष्टम तथा नवम अध्ययननो संगति दर्शावीने नमिर्नु चारित्र वर्णवे छे. नमि प्रत्येकबुद्ध छे. प्रत्येक बुद्ध चार थया छे जेओ एक काळे मुरकोकथी च्यवन, मत्येक प्रतिबोध, प्रत्रज्या-दीक्षाग्रहण, केवळज्ञानोत्पत्ति तथा सिद्धिगमन मोक्षने पाम्या छे, तेमांना प्रथम करकंडू १, बीजो द्विमुख २, बीजो नमिराजा ३, चोथो नगाति; ए चारे प्रत्येकबुद्धीनां कथानक कहेवाय छे, तेमा प्रथम करकंडू कथा कडेवामां आवे छे. यथा-करकंडू कलिंगेसु पंचालेप्नु अ दुम्मुहो । नमिराया विदेहेसु गांधारेसु य नग्गइ ॥१ करकंडू कलिंग देशमां थयो, दुर्मुख पंचाळमां, नमिराजा विदेहमां अने गांधार देशमा नगाति राजा यया. १ DAMARDANDAAIDAMROHoroDAMDARAmr PLEApprnwapsLADILDAus For Private and Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1I श्रीवासुपूज्यजिनपतिकल्याणकपंचकास्तपापायां चंगानगी दधिवाहननामा नृपोऽभूत्, तस्य चेटकमहाराजपुत्री उत्तराध्य भाषांतर पद्मावती प्रिया जाता. सान्यदा भणी बभूव, गर्भानुभावेन च तस्या इदृशं दोहदमुत्पन्न, अहं पुंवेषधरा भर्ना धृतायन सूत्रम् 3 अध्ययन९ तपत्रा गजाग्रभागारूढारामे संचरामि, लजयेदं दोहदं भूपतेः पुरो वक्तुमशक्ता सा कृशांगी बभूव. राज्ञान्यदा तस्याः ॥४५७॥ कृशांगकारणं पृष्टं, अतिनिर्वधेन सा स्वदोहदं कथयामास. राजात्यंतं तुष्टस्तां पट्टहस्तिस्कंधे समारोप्य स्वयं तच्छिरसि छत्रं धृतवान् , तादृश एव राजा गजारूढराज्ञीपश्चाङ्गागे स्थितो बने यया, तस्मिन् समये तत्र जलदारंभो बभूव, नत्र सल्लकीप्रमुखविविधवृक्षपुष्पगंधैर्जलसिक्तमृगंधैश्च विहलीभूतःस करी मदोन्मत्तः स्ववासभूमि स्मरन्बटवीं प्रत्यधावत्, अश्ववारैः पदातिभिश्चासौन स्पृष्टः, तेन गजेन गर्भान्वितया कदलोकोमलशरीरया राज्या सार्धेस राजा महाटव्यां नीतः, समवि षमोन्नतदूरासन्नाननेकभागान पश्यन् भूपतिवटमेकमायांतं दृष्ट्वा भार्याप्रतीदमवदत् , हे भद्रे! पुरःस्थस्यास्य वटस्य शाखामेकामवलंबेथास्त्वं, अहमप्येकां शाखामाश्रयिष्यामि, गजस्त्वेवमेव यातु? एवमुक्त्वा राजा वटशाखायां लग्नः, राज्ञी तु भयव्यग्रा घटावलंयं कर्तुमक्षमा हस्तिनाग्रतो नीता, राजा तु वटादृत्तीय शनैः शनैर्मिलितसैन्यः पत्नीविरal हदुःखितश्चंपायां प्रविष्टः, राज्ञी दुष्टेन तेन हस्तिना महती मिटवीं नीता, तृषाकुलः स हस्ती चतुर्दिक्षु पानीयं पश्यन्नेक सरो दृष्ट्वा तत्पाल्यावतीर्य यावधः पतति तावत्सा राज्ञी वृक्षावलंबेन तत्स्कंधादुत्ततार, गजस्तु ग्रीष्मतापितः सरो न्तर्विवेश, राज्ञी कांतारं दृष्ट्वा भृशं भीता सती मनस्येवं चिंतयामास क च तन्नगरं? क च सा श्रीः? क तन्मंदिरं? क PEसा सुखशय्या? दुःकर्मणां विपाकात्सर्व मे गतं. अथवात्र बने विचित्रश्वापदैश्चेत्प्रमादवशगाया मम मृत्युभविष्यति, For Private and Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य पन सूत्रम् ॥४५८।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तदा मम दुर्गतिरेवेति मत्वाऽप्रमत्ता सत्याराधनां व्यधात्, सुकृतान्यनुमोद्य सर्वजीवेषु क्षामणां कृत्वानशनं सागारं | प्रपेदे, नमस्कारं ध्यायंती तत उत्थाय सैकया दिशा गच्छंती पुरस्तादेकं तापसं ददर्श, तापसेनेयमेवं पृष्टा वत्से ! त्वं कस्य | पुत्री ? कस्य प्रिया वा? आकृत्यैव त्वं मया भूरिभाग्ययुता ज्ञाता, इयं का तवावस्था ? कथय ? वयमभयाः शमिनस्तापसाः स्मः सा राज्ञी तं तापसं निर्विकारं निर्मलधर्मकरं च ज्ञात्वा स्ववृत्तांतं सकलं जगौ, एतस्या राज्ञ्या पितुश्चेकराज्ञो मित्रेण तेन तापसेनोक्तं वत्से! नातः परं त्वया चिंता कार्या, अयं भवः सर्वविपदामासस्पदं, सर्ववस्तूनामनियता चितनीया. एवं प्रतिबोध्य सा राज्ञी तेन तापसेन स्वाश्रमं नीता, तस्याः प्राणयात्रा फलैः कारिता. श्री वासुपूज्य जिनपति कल्याण पंचकने लीधे अस्त थयेल के पाप जेमांथी एवी चंपानगरीमां दधिवाहन नामे राजा हतो. चेट|कमहाराजानी पुत्री पद्मावती तेनी प्रिया राणी हती. एकदा ते राणी गर्भवती थइ त्यारे तेणीने गर्भप्रभावथी एवं दोहद (गर्भिणीने कंइ खावानुं, फरवानुं, वस्तु धारण करवानुं वगेरे मन थाय; जेने हेळ कहे छे ते) थयुं के 'हुं पुरुषनो वेष धारण करूं अने मारा पति मारा उपर छत्र धारण करे अने हुं हाथी उपर बेसीने बगीचामां संचरुं आ दोहद = मनोरथ = शरमने लीधे राजाने कही न शकी तेथी अंगे दुर्बळ थवा लागी एक वखते तेणीने राजाए दुर्बळतानुं कारण अति आग्रहथी पूछतां तेणीए दोहद मनोरथ को ते सांभळी राजा अति तुष्ट थइने ते राणीने पट्ट हस्ती उपर बेसाडीने पोते तेणोना मस्तक उपर छत्र धारण करी पाछळ हाथी उपर बेसीने वनमां विहार करवा चाल्या; ते समये वनमां मेघ वर्षवानो आरंभ थयो तेथी अल्लकी वगेरे विविध वृक्षनां पुष्पोना गंधथी तेमज जली सींचायेली पृथ्वीनी मृत्तिकाना गंधथी हाथी विद्दल थयो भने मदोन्मत्त बनी पोतानी मूल निवास भूमिने याद करतो ते अटवी For Private and Personal Use Only 天天 भाषांतर अध्ययन९ ||४५८।। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥ ४५९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भणी दोड्यो. पाछळ घोडासवारो तथा पाळा दोठ्या पण पहोंची न शक्या, ए हाथी, केळ्ना गर्भतुल्य कोमल शरीरवाळी गर्भिणी राणी सहित राजाने महाटवी = वेरान जंगल=मां लड़ गयो. जंगलना सपाट तथा खडवचडा उंचानीचा अनेक प्रदेशोने जोतो राजा, | सामे एक बढनुं झाड आवतुं जोइने राणीने कड़ेवा लाग्यो के—हे भद्रे ! आगल जे आ वड आवे छे तेनी एक शाखा तुं पकडीने |टींगाजे अने हुं पण एक डाळनो आश्रय लइश पछी हाथी भले एमने एम चाल्यो जाय, आम बोली राजा बडनी एक शाखा पकडी | वळगी रह्यो पण राणी तो भयथी व्यग्र वनेली तेथी वडनी शाखानुं अवलंबन न करी शकी एटले हाथी तेणीने आगळ लइ चाल्यो. | राजा तो वडथी हेठा उतरी हळवे हळवे सैन्यने मळ्यो अने पत्नीना विरहने लीधे दुःखित यतो चंपानगरीमां प्रविष्टथयो. ए दुष्ट हाथी राणीने महोटी अटवीमां लड़ गयो; त्यां तृषाथी आकुल बनेलो हाथी चारे दिशाओमां पाणी शोधवा नजर नाखतो एक सरोवर जोइ तेनी पाळ उपर थइने नीचे उतरवा जाय छे त्यां एक वृक्षने पकडी ते हाथीना स्कंध उपरथी राणी उतरी पडी अने ते हाथी तडकाथी तप्यो हतो तेथी तळावमां प्रविष्ट थयो. राणी तो जंगल जोड़ने अत्यंत भयभीत थइ मनमां चिंता करवा लागी के-क्यां ते नगर ? क्यां ते राजलक्ष्मी ? क्यां ते मंदिर=महेल ? क्यां ते सुख शय्या ? मारा दुष्कर्माना कोइ परिपाकथी मारुं ए सर्व गयुं. अथवा आ घोर वनां विविध हिंस्र प्राणीथी प्रमादवश यतां मारुं मृत्यु थाय तो मारी दुर्गति थवानी; आम मानी अप्रमत बनीने आराधना | करवा लागी सुकृतोनुं अनुमोदन करी सर्व जीवनी क्षामणा मागी सागार = अमुक संकेतबा=अनशन व्रत लइ मनमां नमस्कारनुं ध्यान करती त्यांथी उठीने ते एक दिशा भणी जाय छे त्यां आगळ जतां एक तापस=मुनि ने दीठा. तापसे तेणीने पूछ के - 'हे वत्से ! तुं केनी पुत्री ? केनी प्रिया ? तारी आकृति उपरथीज तुं मने बहु भाग्यवती जणाय छे. तारी आ अवस्था केम ? कहीनाख. For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन९ ॥ ४५९॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन९ ॥४६॥ It' अमें शमवान् तापस होइ अमाराथी कोइने भय न होय.' आवा तापसना वचन उपरथी तेने निविकार तथा निर्मल धर्मवान् जाणी उत्तराध्य पोतानो सघळो वृत्तांत कही संभळाव्यो. आ राणीना पिता चेटकराजाना आ तापस मित्र हता तेथी बोल्या के-'हे वत्से ! हवे तारे पन सूत्रम् जराय चिंता न करवी. आ भवसंसार=सर्व विपत्तिओन रहेठाण छे माटे सर्व वस्तुनी अनित्यतानुं चिंतन कर्या करवू.' आवीरीते ॥४६॥ राणाने प्रतीबोध आपी ए तापस राणीने पोताने आश्रमे लइ गया. त्यां तेणीने फळवडे प्राणयात्रा करावी, अर्थात् फळ खवरावी क्षुधा नित्ति करावी. ___ अथ च देशसीम्नि तां नीत्वा स तापस एवं जगाद हे पुत्रि! अतःपरं हलाकृष्टा सावद्या धरा वर्तते, सा मुनिभिर्नोल्लंघनीया, ततोऽहं पश्चाबलामि, अयं मार्गो दंतपुरस्य वर्तते, नत्र दंतवक्त्रनामा राजा वर्तते, इतः सुसार्थेन सह त्वं पुरे गच्छे.. एवं निगद्य स तापसः स्वाश्रमं जगाम, राज्ञी पुरांतः साध्व्युपाश्रये जगाम, तत्र साध्व्या पृष्टे तया सकलोपि वृत्तांतः कथितः. साध्वी तस्या एवमुपदेशं ददी पछी ते तापस राणीने देशने सीमाडे लइ जइ बोल्या के-'हे वत्से ! अहींथी आगळ हळवता खेडेली सदोष जमीन आवे छे ते अमाराथी ओळंगाय नहि तेथी हुँ अहींधीज पाछो वळोश, आ मार्ग दंतपुर जाय छे. दंतपुरमा दंतवक्त्र राजा छे. त्यांथी सारो साथ मळे ते संघाते तुं तारे शहेर जाजे! आम कहीने ते तापस पोताने आश्रमे गया. राणी चालती थइ अने दंतपुरमां अंदर जतां एक साध्वीओनो उपाश्रय दीठो तेमां पेठी, एक साध्वीए तेणीने पूछघु त्यारे राणीए पोतानो सघळो वृत्तांत कयो त्यारे साध्वीए उपदेश देवा मांड्यो القلعة للانفلالسالمندانه بائع For Private and Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन ॥४६॥ अस्मिन् बहुदुःखागारे संसारे मृषाभास एव सर्वेषां सर्वोऽपि भवविस्तारो भवद्भिस्त्याज्यः. एवं साध्वीवचसा उत्तराध्य- वैराग्यं गता सा तदैव दीक्षां जग्राह. स्वव्रतविघ्नभयात्सा संतमपि गर्भ न जगौ, कालांतरे तस्या उदरवृद्धौ साध्व्या यन सूत्रम् पृष्टं किमेतत्तवेति. तयोक्तं मम पूर्वावस्थासंभवो गर्भो वतते, मया तु व्रतविघ्नभयानोक्तः, ततो महत्तरा साध्वी तां ॥४६॥ साध्वीमुड्डाहनाभयेनैकांते संस्थापयामास, काठे सा पुत्रं प्रसूय रत्नकंबलेन संवृतं पितृनाममुद्रांकितं च कृत्वा श्मशाने द्राग्मुमोच, तदा श्मशानपतिर्जनंगमस्तं बालकं तथाविधमालोक्य गृहीत्वा चानपत्यायाः स्वपल्याः समार्पयत्, सा श्रमणी गुप्तचर्यया तं व्यतिकरं ज्ञात्वा महत्सराश अग्रे एवमाचख्यो, मृत पब मया यालो जातस्ततो मया त्यक्तः.स बालो लोकोत्तरकांतिर्जनंगमधाग्नि दत्तावणिकनामा ववृधे. 'आ बहु दुःखोना स्थानरुप संसारमा मृपा आभास तुल्य प्रतीत थता सर्वेना तमाम भवविस्तार छे ते तमारे त्याग करवा जोइए; आवा साध्वीना वचनोथी राणीने वैराग्य उत्पन्न थतां राणीए तेज समये दीक्षा गृहण करी. हवे जो गर्भनी बात करे तो व्रतमां विघ्न आवे एवा भयथी पोताना उदरमा गर्भ हतो छतां ते वात राणीए साध्वीने कही नहिं, थोडो समय बीततां तेणीनुं वधेलु उदर जोइ साध्वीए पूछयु के-'आ शुं? त्यारे तेणीए कछु के मारा पेटमा पूर्व अवस्थामा रहेलो गर्भ छे; पण व्रतविघ्नना १६ भयथी में तमने का नहीं. तदनंतर एक महोटी साध्वीए ते साध्वी (राणी)ने गर्भनाशना भयथी एकांतमा एक स्थळे स्थापित करी. दिवस पूरा थया त्यारे ते राणीए पुत्र जण्यो आ पुत्रने राता धावलामां वींटी पितानी नाम मुद्राथी चिन्हित करी झट जइने स्मशानमां मूक्यो. तेटलामा स्मशानपति जनंगम-चंडाळ-हरतो फरतो त्यां आवी चड्यो तेणे आ कंबळमां लपेटेला बालकने जोइने For Private and Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir اس واقع ان ان उत्तराध्य-151 उपाडी लीधो अने प्रजा विनानी पोतानी स्त्रीने आप्यो. आ वधुं पेली श्रमणी (साध्वी थपली राणी) छानीमानी संताइ उभेलीए भाषांतर पन मृत्रम् जोयुं; अने उपाश्रयमा आवी महोटी साध्वीने का के-'मरेलोज बालक मने अवतरेलो ते में त्याग करी दीधो.' ए चंडालना घरमां अध्ययन Jel अलौकिक कांतिवाळो आ वाळक अदाडे वधवा मांडयो एनुं 'अवणिक' एव॒ नाम राख्यु हतु. ॥४६२॥ ॥४३२॥ सा साध्वी सततं बहिर्वती पुत्रस्नेहेन मातंग्या सह कोमलालापैः संगतिं चक्रे, स यालः मातिवेश्मिकयालकैः सह क्रीडन् महत्तेजसा भृश राजते, आगर्भ यहुशाकाद्यशनदोषेण तस्य बालकस्य कंडूलतादोषोऽभवन् , स्वयं राजचेष्टां कुर्वाणः स बाला परचालैः सामंतीकृतैर्देहकंड्या करैः कार यति, ततो लोकैः करकंडरिति तस्य नाम दत्तं, सा साध्वी तद्विलोकनार्थ मातंगपाटके निरंतरं याति, भिक्षालब्धं मोदकादि तस्मै ददाति, अमणत्वेऽप्यपत्यजा प्रीतिस्तस्या दुस्तरेति बालकोऽपि तस्या दृष्टाया बहु विनयं करोति, प्रीतिं च दधाति,स बालकः षड्वर्षः पितुरादेशात् श्मशानं रक्षति. ए वाळकनी मा पेली साध्वी बहार जाय त्यारे हमेशां पुत्र स्नेहने लीधे पेली चांडालीनी साथे कोमळ बातोचीतो द्वारा संगति || | करे. आ बाळक पाडोशीओना वाळकोनी साथे रमे पण अत्यंत तेजस्वी होवाथी बीजा बालकोथी विशेष शोभीतो देखाइ रहे. गर्भ दशामां तेनी मायें बहु शाकादिकनुं भोजन करेल हशे ते दोषथी आ बाळकने आखे शरीरे चळ=खरजनो उपद्रव हतो. रमतां | रमतां बीजा छोकराओने कहे के-'हुं तमारो राजा छु, तमें मारा सामंत छो; तमारे मने कर आपवो जोइए? माटे तमे मारे शरीरे। चळ आवे छे त्यां खणो एटले तमे कर आप्यो गणाय? आम कही शरीरे वीजा बाळकोने हाथे खणावतो ते उपरथी लोकोए तेर्नु : تنمانی هم نال لاتتان ارائه دادن For Private and Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् भाषांतर अध्ययन९ ॥४६३॥ ॥४६३॥ 'करकंडू' [करने बदले खणाववाथी] एg नाम पाडयु. आ साध्वी थयेली राणी निरंतर ए चांडाळना पाडामां जाय अने भिक्षामां जे मोदक जेवू सारं सारु मळ्यु होय ते पेला बाळकने देती आवे. जो के ते श्रमणी साध्वी थइ हती तथापि पोताना अपत्य-छोकरां= मांनी प्रीति तेणीए तजवी दुष्कर हती. बालक पण तेणीने जोइने बहु बिनय करतो हतो अने पीति धरावतो हतो आ वाळक ज्यां | छ वर्षनो थयो त्यांतो तेना बापनी आज्ञाथी स्मशाननी रक्षानुं काम करवा लाग्यो. ___अन्यदा तस्मिन् श्मशाने रक्षति सति कोऽपि साधुर्लघु साधुप्रति तत् इमशानस्थं सुलक्षणं वंशं दर्शितवानुक्तवांश्च मूलतश्चतुरंगुलत इमं वंशमादाय यः स्वसमीपे स्थापयति सोऽवश्य राज्य प्रामोति, इदं साधुवचस्तेन बालकेन तत्रस्थेनैकेन द्विजेन च श्रुतं, द्विजस्तु तं वंशमाचतुरंगुलंमूलात् छित्वा यावद् गृहाति तावत्करकंडुना तत्करात्स वंशो गृहीतः स्वकरे, कलहं कुर्वतो द्विजस्य करकंडुनोक्तं मत्पितृश्मशानवनोत्थवंशं नाहमन्यस्मै दास्ये, स ब्राह्मणः करकंडुबालश्चेति वावपि विवदंतौ नगराधिकारिपुरो गतौ, नगराधिकारिभिर्भणितमहो याल! तवायं वंशः किं करिष्यति ? म प्राह ममायं राज्यं दास्यति, तदाधिकारिणः स्मित्वैवमृचुर्यदा तव राज्यं भवति तदा त्वयास्य ब्राह्मणस्यैको ग्रामो देयः, शिशुस्तद्धचोंगीकृत्य स्वगृहमगात्, स विप्रोऽन्यविप्रैः संभूय तं बालं हंतुमुपाक्रमत् , तं दिजोपक्रम ज्ञात्वा करकंडपिता जनंगमः स्वकलत्रपुत्रयुक्तस्तं देशं विहायानश्यत्. एक समये आ बाळक स्मशाननी रक्षा करी रह्यो छे तेटलामा त्यांथी वे साधु नीकळ्या तेमांना नाना साधुने महोटा साधुए For Private and Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | भाषांतर अध्ययन ॥४६४॥ JEका के-'आ स्मशानमां उगेलो शुभ लक्षण युक्त वांस जो मूळथी चार आंगळ आ वांस कापीने ए वंशदंड जे पोता पांसे राखे ते उत्तराध्य BE अवश्य राजा थया. आ साधुनु बचन करकंडू बाळके तथा पांसे उभेला एक ब्राह्मणे सांभळ्युं ब्राह्मणे तो झट ते वांस मूळथी चार पन सूत्रम् 28 अंगुल उपर कापीने ज्यां ए दंड लइ जावा मांडयो त्यां करकंडूये तेना हाथमाथी ए दंड झोंटीने पोताना हाथमा लीधो. ब्राह्मणे ॥४६४|| कजीयो करवा मांडयो त्यारे करकंडूये कह्यु के-मारा बापना स्मशान वनमां उगेलो आ वांस हुँ बीजाने लइ जवा नहिं द. आ ब्राह्मण तथा करकंडू बन्ने विवाद करता नगराधिकारीनी आगळ पहोंच्या. नगराधिकारी बोल्या के-'अरे बाळक ! आ बांसवें तारे JE | करवू छे? करकंडू बोल्यो के-ए बांस तो मने राज्य आपशे. आ सांभळी अधिकारीओ हस्या अने बोल्या के-गले ए बांस तु लइ PE'जा पण जो तने ज्यारे राज्य मळे त्यारे आ ब्राह्मणने एक गाम आपजे हो. 'भले एक गाम आपीश' एम बाळके कबुल कयु अने ए वश दंड लइने पोताने घरे गयो. पेलो ब्राह्मण वीजा ब्राह्मणो साथे मळीने ते करकंडू बाळकने मारवा तैयारी करी ते करकंडूनो RS| चांडाल पिता पोताना बहरां छोकरां लइने ते देश छोडी देशांतरे भागी नीकळ्या. ___ अथ सकुटुंषः स जनंगमः क्षितितलं कामन कंचनपुरं जगाम, तत्रापुत्रनृपे मृते सति सचिवैरधिवासितस्तुरगः करकंटुं दृष्ट्वा हेषारवं कृतवान् , तं सल्लक्षणं दृष्ट्वा नगरलोका जयजयारवं चक्रुः, अवादितान्यपि वाद्यानि स्वयं निनेदुः, स्वयं छत्रं शिरसि स्थितं, ततोऽमात्यैरपि नवीनानि वस्त्राणि परिधाप्य स करकंडस्तमश्वमारोहितः, यावनगरलोकैः परमप्रमोदेन स पुरांतःप्रवेशितस्तावद्विप्रास्तं म्लेच्छोऽयमिति कृत्वा न मेनिरे, तदा क्रुद्धः स शिशुस्तं दंडं रत्नमिय करे जग्राह, अधिष्ठातृदेवैव्योम्नीति घुष्टं य इमं राजानमवगणयिष्यति तस्य भूय॑सौ दंडः पतिस्यति, इत्युक्त्वा सुरा لاحقا قافلانتقالها مع تلك الانتقالاشعاع اقدامات لمكافحه الالفالي المخالفنا کر ان کا نشان نداد لان For Private and Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्तच्छिरसि पुष्पवृष्टि चक्रुः, भीताः संतो विप्रास्तस्य स्तुतिं कृत्वा वारंवारमाशीर्वादमुच्चरंति. अथ करकंडुरेवमुवाचाहो उत्तराध्य ब्राह्मणा एते भवद्भिश्चांडाला गर्हितास्ततः सर्वेऽप्यमी वाटधानकवास्तव्याश्चांडालाः संस्कारैब्राह्मणाः कार्याः, संस्कायन मुत्रम् BFभाषांना अध्ययन रादेव ब्राह्मणो जायते, न तु जात्या कश्चिद्ब्राह्मणो भवतीति भवदागमवचनात्. अथ ते ब्राह्मणाः प्रकामं भीतास्तन्नगरवाटधानकवास्तव्यांश्चाडालान् संस्काराह्मणान् चक्रुः उक्तं च-दधिवाहनपुत्रेण । राज्ञा तु करकंडुना ॥ वाटधान. ET४६५ | कवास्तव्या-श्चांडाला ब्राह्मणीकृताः॥१॥ अत्युत्सवेन कांचनपुरे प्रवेशितः स करकंडुरमात्यैन्यपट्टेऽभिषिक्ता, क्रमात्म महाप्रताप्चमत्. आ चांडाल कुटुंबसहित पृथ्वीपर फरती भटकतो कांचनपुर आवी पहींच्यो. बनाव एवा बन्यो के कांचन पुरनो राजा अपुत्र JE गुजरी गयो एटले मंत्रिोए ए राजाना घोडाने अधिवासित करी छोडयो ए घोडो फरतो फरतो गाम बहार ज्यां पेला त्रण जण मूता हता त्यां आधी करकंडू सामे जोइ हेपारव [हणहणाट] कर्यो, नगरना लोकोए करकंडूने शुभलक्षणवान् जोइ जय जय शब्द | | उच्चार्या. वगर वगाडयां वाजां पोतानी मेळे वाग्यां; स्वयं छत्र तेना मस्तक उपर धराणुं के तरतन मंत्रियोए नवां वस्त्र पहेरावी ए करकंडूने ते घोडापर बेसाडी ज्यां नगरजनना परम हर्ष साथे पुरमा प्रवेश करावे हे त्यां 'आ तो म्लेच्छ छे' आम बोलता ब्राह्मणो न मान्या. आ उपरथी क्रुद्ध ययेला करकंडूए ए दंड जो रत्ननी पेठे हाथमां धर्यो ते वारे अधिष्ठातृ देवोए आकाशवाणी कही के HBE 'जे कोइ आ राजानी अवगणना करशे तेना मस्तक उपर आ दंड पडशे.' आम बोली देवताओए तेना मस्तक उपर पुष्पनी दृष्टि करी. आ जोइ ब्राह्मणो भयभित बनी तेनी स्तुति करवा लाग्या; अने वारंवार आशिषो उच्चारवा लाग्या. त्यारे करकंडू एम बोल्या For Private and Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य पन सूत्रम् ॥ ४६६ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1/ के 'अहो ! ब्राह्मणो तमोर जो आ चंडालोना तिरस्कार कर्या तो पछी आ सा स्मशानमा रहेता चांडालोने तमारे संस्कारोयी ब्राह्मण करवा कारण तमारा आगममां कयुं छे के - 'संस्कारथीज ब्राह्मण थाय छे जाति मात्रयी कोइ पण ब्राह्मण धनुं नयो ते ब्राह्मणोए भयभीत थने ते नगरना स्मशानमा रहेनारा चांडालोने संस्कारथी ब्राह्मणो कर्या, कां छे के दधिवाहनना पुत्र करकंड राजाए स्मशानमा रहेनारा चांडालोने ब्राह्मणो कर्या त्यां अति उत्सव पूर्वक कांचनपुरमा प्रवेश करावी मंत्रिओ करकड़ने राजपाट | उपर अभिषिक्त कर्यो, क्रमे करी ते महाप्रतापी थयो. अन्यदा स वंशप्रतिवादी विप्रस्तं भूपं निशम्य ग्रामाभिलाषुकः सन् करकंडुनृपपपदि प्रासः करकडुनोपलक्ष्य तस्य विप्रस्योक्तं तव यदिष्टं तत्कथय ? ब्राह्मणेनोकं मद्गृहं चंपायां वर्तते, तेन तद्विषयग्राममेकमहमी है. एक बखते पेलो वंश दंडनी वाचतमां प्रतिवादी थयेलो ब्राह्मण पोताने आपला वचन प्रमाणे एक गाम मेळववानो अभिलाषाथी | राजा करकडूनी सभामां आवी उभो. करकंडुए तेने ओळख्या अनेक के 'तने जे इष्ट होय ते कही नाख.' ब्राह्मण कहे 'चंपानगरीमां मारुं महो घर छे तो ए चंपानगरीने लगता प्रदेशमां एक गामनी इच्छा राखुं हुं. अथ ककरडुनृपचंपापुर्नाथस्य दधिवाहनभूपतेरस्तै द्विजाय त्वद्विषयग्राममेकं देहीयाज्ञां प्राहिणोत्. आज्ञाहा| रिणं करकंडुनृपस्य दृतं विस्मितचित्तः क्रुद्धपापतिर्दधिवाहनः प्राहारे स म्लेच्छवालः मृगतुल्यः करकंडुः सिंहतुल्येन मया सह विरुध्यते, परवस्त्वभिलाष भवस्य पातकस्य तत्र स्वामिनः शुद्धिं मत्वद्गतीर्थस्नानं दास्यति. For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन९ ॥४६६॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन ॥४६॥ उत्तराध्य-IBE करकंडुराजाए चंपापुरीना पनि दधिवाहन राजा उपर आज्ञा पत्र लक्ष्यो के-ा ब्राह्मण ने तमारा देशमानुं एक गाम आपनो.15 यन सत्रमा आज्ञापत्र लइ आवेला करकंडुराजाना दूत उपर दबिवाहन राजा क्रुद्ध थइ मनमां विस्मय पामना बोल्या के-'अरे ए मृग जेनो म्लेच्छ बाल करकंड, सिंहसमा मारा जेवानी साथे विरोध करवा हिम्मत करे छे ? हे दत ! पारकी वस्तुना अभिलाष करवाथी तारा ॥४६७|| स्वामीए व्होरेला पातकनी शुद्धि, मारा खङ्गधारा तीर्थमा स्नान करवायी थइ रहेशे. एवमुक्त्वा दधिवाहनेन तिरस्कृतः स दूतस्तत्र गत्वा करकंदुनृपाय यथार्थमवदत. करकंडनृपोऽपि प्रकामं क्रुद्धः स्वसैन्यपरिबृतश्चंपापुरसमीपे समायातः. दधिवाहनोऽपि पुरीदुर्ग सजीकृल्प स्वयं पहिनिस्ससार. उभयोः सन्ये सजी भूते यावता योधु लग्ने तावता सा साध्वी तत्रागत्य करकंडुनृपतिप्रत्येवमूचेऽहो करकंदुनृप! त्वयाऽनुचितं पित्रा सह arl युद्ध किमारब्धं ? करकंडुनृपः प्राह हे महासति! कथमेष दधिवाहनोऽस्माकं पिता? साध्वी स्वस्वरूपमग्विलं तमचे. ___ आम कही करकंडुना दूतने दधिवाहन राजाए तरछोडी काठ्यो. आ हकीकत ते करकंडुनृपने यथावत् कही संभळावी ते उपरथी करकंडुनृपे अत्यंत क्रोधाविष्ट थइ पोनाना तमाम सैन्य सहित चंपापुरी समीपे आची पडाव नाख्यो. दधिवाहन राना पण पोतानी राजधानी चंपापुरीना रक्षण माटे किल्लामां बधो बंदोबस्त करी सैन्य सहित सज्ज थइ पोते बहार नीकळ्यो; युद्धारंभ थवानी तैयारी थइ तेटलामां पेली साध्वी (करकंडुनी माता) त्यां आवीने करकंडुनृपने कहेवा लागी के–'अहो करकंदुनृप ! तें आ तारा पितानी साथे आम अनुचित युद्ध केम आरंभ्यु?' त्यारे करकंडुनृप बोल्यो के-'हे महासति ! आ दधिवाहन राजा मारा पिता शी रीते?' For Private and Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन ॥४६८॥ ३९' आ समये साध्वीए पोतानुं तमाम चरित्र प्रथमथी मांडीने कही संभळाव्यु. उत्तराध्यपन सूत्रम् सआर्या मातरं दधिवाहनं च पितरं मत्वा जहर्ष, तथापि करकंडुनृपोऽभिमानास्वपितरं दधिवाहनं नेतु नोत्सहते, JE तदा साध्व्यपि दधिवाहनसमीपेगता,दधिवाहनभृत्यैरुपलक्षिता, दधिवाहनभूपाय राज्ञी साध्वीरूपा समागतेति वर्धा॥४६८॥ पनिका दत्ता. अथ दधिवाहननृपोऽपि तां साध्वीं ननाम, गर्भवृत्तांतं च पप्रच्छ. साधन्यूचे सोऽयं ते तनयो येन सह | त्वया युद्धमारब्धमस्ति. ते सांभळी ए आर्या पोतानी मा थाय तथा दधिवाहन पिता थाय ए जाणीने करकंडु मनमां हर्ष पाम्यो तथापि स्वाभिमानने लीधे पोताना दधिवाहन पिताने पण नमतुं देवा तेणे न इच्छ्यु. त्यारे पेली साध्वी दधिवाहन राजा पासे गइ तेने दधिवाहनना नोकरोए ओळखी अने राणी साध्वीरुपमा अत्रे आव्या छे एम राजा दधिवाहनने वधामणी दीधी. राजा दधिवाहन पण ते साध्वीने नम्या अने गर्भ संबंधी सघळो वृत्तांत पूछयो. साध्वीए कह्यं के–'ते आ तमारो पुत्र, जेनी साथे तमे युद्ध आरंभी रह्या छो.' अथ दधिवाहननृपः प्रीतात्मा पादचारी करकंडुनृपंप्रति गत्या हे वत्स! उत्तिष्ठेत्युक्त्वा तमुत्थाप्याश्लिष्य च शिर| स्याजिघ्रनहर्षा श्रुजलसहितैस्तीर्थजलैः पुत्रोऽयं राज्यदयेऽपि दधिवाहनेनाभिषिक्तः, दधिवाहनः कविनाशाय स्वयं दीक्षां गृहीतवान् , करकंडुनपो राज्यद्वयं पालयामास, चंपायामेव स्वावासमकरोत्, तस्य गोकुलानीष्टान्यासन्. संस्थानाकृतिवर्णविशिष्ठानि गोकुलानि कोटिसंख्यानि तेन मेलितानि, सतानि निरंतरं पश्यन् प्रकामं प्रमोदं लभते. SammemomUARRELEASE DDDDDDELDLAPELU For Private and Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥४६९।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | अन्येयुः स्फटिकसमान एको गोवत्सस्तेन गोकुलमध्ये दृष्टः, अयं कंठपर्यंतदुग्धपानैः प्रत्यहं पोषणीय इति गोपालान् स आदिष्टवान् अन्यदा स मांसैः पुष्टतनुर्बलशाली घनघर्घरशब्देनान्यवृषभान् श्रासयन् भूपतिना दृष्टः, तथापि भूपतिस्तस्मिन् वृषे प्रीतिपर एव बभूव तदनंतर दधिवाहन नृप अत्यंत प्रसन्न मनथी पगे चाली करकंडु नृप प्रति जड़ने 'हे वत्स! उठो' आम कही उठाडी आलिंगन | करी भेट्या, मस्तके घी हर्पनां आंसुथी प्रथम अने पछी तोर्थोना जलवडे दधिवाहने पोताना करकंडुपुत्रने देय राज्य उपर अभिपिक्त कर्यो. अने दधिवाहने पोते कर्मविनाशार्थ दीक्षा ग्रहण करी. त्यारे करकंडुनृप बन्ने राज्योनुं परिपालन करता चंपानगरीमांज पोते रहेवानुं रारुपुं. आ राजा करकंडने गायोना टोळां बहु गमता हतां तेथी सींगडा पूछडा बगेरे अवयवोनी सुंदरता तथा मुखा | दिकनी शोभन आकृति तेमज श्वेत कृष्ण रक्त आदिक विविध वर्ण वाळी असंख्य गायांना डोळां तेणे एकत्र करावेला हतां; अने | तेने पोते नित्य जोड़ने हर्ष पामता एक दिवसे ए गोकुलमां तेणे स्फटिकसमान वर्णनो एक बाछडी जोयो ते जोइने तेणे गोवाकोने भळामण करी के आ बाछडाने खूब पेट भरीने धवराववो. एम करतां हमेशां पेटपूर दूध मळवाथी ते बाछडो खूब मांसवाळो परिपुष्ट बन्यो पोताना बळथी वीजा नृपभोने पण त्रास आपतो मेघ गर्जना जेवा अवाजथी वराडतो राजाए जोयो तो पण राजा तेमां प्रीतिमानज रहेता. अथ साम्राज्यकार्य करणव्यग्रो भूपतिः कतिचिद्वर्षाणि यावद् गोकुले नायातः, अन्यदा तदर्शनोत्कंठः स भूप For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन९ ||४६९ ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥ ४७० ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिस्तत्र समायातः स वृषः क इति गोपालान् भूपतिः पप्रच्छ, गोपालर्जराजीर्णः पतितदशनो हीनयलो वत्सैर्घहितदेहः कृशांगः स दर्शितः तं तथाविधं दृष्ट्वा भवदर्शा विषमां विचारयन् करकंडुराजैवं वितयति, यथायं वृषभः पूर्वावस्थां मनोहरां परित्यज्येमां वृद्धावस्थां प्राप्तः, तथा सर्वोऽपि संसारी संसारे नवां नवामवस्थां प्राप्नोति, मोक्षे चैवैकावस्था, मोक्षस्तु जिनधर्मादेव प्राप्यते, अतो जिनधर्ममेव सम्यगाराधयामीति परं वैराग्यं प्राप्तः करकंडुराजा स्वयमेव प्राग्भवसंस्कारोदयात्प्रतिबुद्धः सद्यः शासनदेव्यर्पितलिंगस्तृणवद्राज्यं परित्यज्य प्रव्रज्यामाददे. उक्तं च-श्वेतं सुजातं सुविभक्तशृंगं । गोष्टांगणे वीक्ष्य वृषं जरार्त ॥ ऋद्धि वृद्धिं च समीक्ष्य घोषात्कलिङ्गराजर्षिरवाप धर्मम् ॥ १ ॥ इति करकंडुपचरित्रं समाप्तम. वे साम्राज्यना कार्यमा व्यग्र रहेता राजा केलांक वर्ष गोकुल निरीक्षण करवा न गया. एक वखते तेने पेलो बाछडो याद आवतां तेने जोवाने चाहीने राजा गोकुलस्थाने आव्या अने पूछयुं के 'ते घोळो बाछडो क्या?" गोवाळीए एक जरा जीर्ण, पडी गयेल के दांत जेना अने हीनवळ होवाथी बाछडाओ जेने ढींके मारता हता एवा घरडा वळदने देखाडी कथं के 'ते आ बाछडो' राजा ज्यारे आवा दुबळा अंगवाळो नृप जोयो त्यारे तेना मनमां आव्युं के - 'अहो आ संसारदशा केवी विषम छे, जेम आ वृषभ पूर्वनी मनोहर अवस्था त्यजीने आवी वृद्धावस्था पाम्यो तेम सर्व संसारी जनो पण आ संसारमां नवी नवी अवस्थाने पामे छे. मात्र मोक्षमांज एक अवस्था होय छे, मोक्ष तो जिनधर्मथी प्राप्त कराय के माटे जिनधर्मनुं सम्यक् आराधन करूँ' आवो विचार आवतां करकंडू राजा पोताना पूर्वभव संस्कारना उदयथी वैराग्य प्राप्ति पूर्वक प्रतिबुद्ध थया के तरतन शालनदेवीए लिंग=साधुचिन्ह= For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन ९ ||४७० ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥४७१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्पण कर्या अने पोते तृणनी पेठे राज्यनो परित्याग करी प्रव्रज्या=दीक्षानुं गृहण कर्यु. क ले के श्वेतं सुजातं घोळ, जातीलो, मरोडदार शगडांवाळो, गायोना टोळांने मोखरे जे बाछडाने जोयो हतो तेनेज फरी जराथी जीर्ण पीडित दुर्बळ टप जोड़ने कलिगराजर्षि=करकंडु, ऋद्धि तथा वृद्धि नश्वर समजातां वोधोदय थवाथी धर्मने प्राप्त थया. ( अहीं करकंड नामक प्रत्येकबुद्धनुं चरित समाप्त थाय छे.) दान करकंडराजा प्रतिबुद्धस्ततो द्विमुखराजा प्रतिबुद्धस्ततो द्विमुखचरित्रं प्रोच्यते- कांपिल्यपुरे जयवर्मराजा, तस्य गुणमाला प्रियास्ति अन्येद्युर्जयवर्मराजा स्थपतीनेवमाहाद्भुतमास्थानमंडपं कुरुत ? वास्तुशैस्तैर्भूमिपूजापुरस्सरं भूमिभागं परीक्ष्य सुमुहर्ते खातं विरचितं, तत्र खाते पंचमदिवसे नानामणिमंडितः खमणिरिव प्रज्ज्वलन मुकुटो दृष्टः, तैर्विज्ञतो राजा सहर्ष भूमितस्तं मुकुटं जग्राह विचित्रवादित्रनिघोषपूर्व महतोत्सवेन तं मुकुटं स्वगृहे प्रावेशयत्, वस्त्राद्यैः सत्कृताः शिल्पिनो विमानसदृशमास्थानमंडपं सद्यचक्रुः, चित्रकरैस्तत्सव एवं चित्रितं, भूपः शुभमुहर्ते तं | मुकुटं मस्तके निधाय तस्मिन्नास्थानमंडपे सुवर्णासने निविष्टः तस्मिन् मुक्कुटे मूर्ध्नि स्थिते सति राज्ञो मुग्वद्रयं दृश्यते, तदनु स राजा लोके द्विमुखतया विख्यातः अथेयं मुकुटकथा करकड राजा प्रतिबुद्ध थया ते पछी द्विमुख राजा प्रतिबुद्ध थया तेनुं चरित्र कहे छे - कांपिल्यपुरमां जयवर्मा राजा हता तेनां राणी गुणमाळा नामे हतां. एक दिवसे राजाए स्थापित = शिल्पीओ =ने बोलावी कं के एक महान अदभूत रचनावाळो For Private and Personal Use Only 我兆兼北北 भाषांतर अध्ययन‍ ॥४७१ ॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Je आस्थान मंडप बनावो. वास्तुविद्यानो अभिज्ञ कारीगरोए भूमिपूजा पूर्वक भूमि भागनी परीक्षा करीने सारा मुहूर्त्तमां खात कर्म शिरु ३६ उत्सराध्यB: कयु. ए खोदतां पांच मे दिवसे विविध मणि जेमां जडेला छे एवो मूर्थनी पेठे चळकतो उज्जवल मुकुट जोवामां आव्यो. कारीगरोए भाषांतर पन मुत्रम्र अध्ययन राजाने आ हकीकत जाहेर करी ते उपरथी राजाए त्यां आवी भूमिमांथी ते मुकुट गृहण करी गाजते वाजते महोटा उत्सवथी ॥४७२।। पोताना राजमहेलमा लइ जइने राख्यो. शिल्पी जनोने वस्त्रादिक आपी सत्कार्या अने ए कारीगरोए थोडाज समयमा विमान समान ॥४७२॥ र आस्थान मंडप तैयार कयों तथा चित्रकारोए तरतज उत्तम चित्रोथी सुशोभित को. राजा जयवर्मा शुभ मुहुर्ते पेलो मुकुट मस्तके DE धारण करीने आस्थान मंडपमा सुवर्णना सिंहासन उपर विराज्या. आ वखते जेटलीवार मस्त मुकुट रहे त्यां मुधो राजाना मुख ये देखाता ते उपरथी लोकोमा ए राजानु द्विमुख नाम प्रख्यात थयुं. अरे ए मुकुटनी कथा जाणवा जेवी छे. BET अवंतीशेन चंडप्रद्योतेन तत् श्रुत्वा स्वदूतस्तत्र प्रहितः, दूनोऽपि नत्र गत्वा विमुग्वंप्रत्येवमवादीत् , हे राजन् ! तव मुकुटमिमं चंडप्रद्योतभूपतिर्मागयति, यदि तव जीवितेन कार्य तदा तस्यायं प्रेन्या, एवं दूतवचः श्रुत्वा द्विमुखनरेंद्रः प्रोवाच, रे दतः तव स्वामिनो मम मुकुटग्रहणाभिलाषः स्ववस्तुहारणायैव जातोऽस्ति, त्वं तत्र गत्वा स्वस्वामिनं बयाः, शिवादेवी राज्ञी १ अनलगिरिनामा हस्ती २ अग्निभीरुनामा रथः ३, लोहजंघनामा दुतश्चेति ४ वस्तुचतुष्टयं ममार्पयेति प्रोच्य स दूतो गले धृत्वा दहिनिष्कासित उजयिन्यां गत्वा चंडप्रद्योताय तमचो निवेदयामास. अथ ऋद्धो चंडप्रद्योतनृपतिर्गणनायकतुरंगमगजेंद्ररथपदातिदलपरिवेष्टितः स्थाने स्थाने प्राभूतपूर्वकमभ्यागतानेकराजसैन्यवर्धमानवल: पंचालदेशसीमां प्राप. For Private and Personal use only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवंतीनगरीना राजा चंडमद्योते ज्यारे आ मुकुटनी वात सांभळी त्यारे एक दूत मोकल्यो. ए दुत द्विमुखराजा पांसे आवीने उत्सराध्य-BE बोल्यो के-'हे राजन् ! तमारा ए मुकुटनी चंडमधोत राजा मागणी करे छे, माटे जो जीववा इच्छता हो तो ते मुकुट अवंतीशने BEभाषांतर यन मृत्रम् ॥ अययन९ | मोकली आपो? आवां दूतनां वचनो सांभळी द्विमुख नरेन्द्र बोल्या के-'रे दूत! तारा स्वामीने जइने कहेजे के-शिवादेवी राणी(१) ॥४७॥ अनलगिरि नामनो हाथी (२) अग्निभीरु नामनो स्थ [३] अने लोहजंघ नामनो दूत (४) ए चारे वस्तु मने अर्पण करी द्यो? आटलं |॥४७३॥ कहीने इतने गहुँ पकडी काढी मेल्यो. दुते उज्जयिनी जइने आ तमाम हकीकत राजा चंडमद्योतने कही त्यारे एकदम क्रोधाविष्ट थइ | पोताना सेनाधिपतिने आज्ञा अपी घोडा हाथी स्थ प्यादल बगेरे चतुरंग सेनाथी वीटळायेलो चंडप्रद्योत राजा युद्धयात्राए नीकल्या. मार्गमां ठेकाणे ठेकाणे मळवा आवता राजाओने पोपाक वगेरेथी सत्कारी ते ते राजाओना सैन्यथी पोताना सैन्यने वधारता वधाJe रता पंचालदेशने सीमाडे आची पहोंच्या. द्विगुणोत्साहो दिमुखनृपस्तैः सससुतैः मेनिकलक्षश्च परिवेष्टितश्चंडप्रद्योतयलं तेन भग्न, नष्ट च चंडप्रद्योतं रथानिपात्य यध्ध्वा च स्वपुरं निन्ये, द्विमुखस्तं स्वावासे भव्यरीत्या रक्षितवान्. अन्यदा चंडप्रद्योतेन प्रकामसुरूपां सलावण्यां कन्यामेकां वीक्ष्य यामिकानामेवमुक्तं, अस्य द्विमुखराजस्य कस्यपत्यानि संति? इयमंगजा कस्यास्ति? यामिका ऊचुरस्य राज्ञी वनमालापत्नी सप्तसुतान् सुपुवे, अन्यदा तया चिंतितं मया सप्त पुत्रा जनिता लालिताश्च, पुत्री तु SE नैकापि जनितेति तन्मनोरथपूर्तये सा मदनयक्षमारराध, अन्यदा सा कल्पद्रुमकलिकां स्वप्ने ददर्श, क्रमेणेमां कन्यां सुषुवे, यक्षोपयाचितं मत्वास्या मदनमंजरीति नाम कृतं, सांप्रतं सर्वलोकचमत्कारकरी यौवनागमे इयं जाता. For Private and Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अहीं द्विमुख राजा पण पोताना सात पुत्रो तथा लाखोनु सैन्य लइ सामे यया अने चंडप्रद्योतनुं सैन्य भगाडयुं अने राजा | उसराध्य-13 भाषांतर पन मूत्रम् चंडप्रद्योतने रथमांथी हेठे पाडी बांधीने पोताना पुरमा लइ गया. द्विमुखराजाए आ चंदप्रद्योत राजाने पोताना महेलमां सारी रीते अध्ययन भव्य सत्कारथी राख्या. एक समये चंडप्रद्योत राजाए द्विमुख राजाना आवासमां अत्यंत सुरूपा लावण्यवती एक कन्या दीठी, ते | JE ॥४७४|| जोइने पहेरेगीरने पूच्यु के-'राजा द्विमुखने केटला पुत्रो छ तथा केटली पुत्रोओ छे? अने हमणां जे गइ ए कोनी पुत्री?' यामिके ॥४७४॥ कयु के-आ द्विमुख राजाना पत्नी वनमाळा नामे छे तेणीए सात पुत्रोने जन्म आपेल छे. एक वख्ते राणीने विचार आव्यो के में सात पुत्रो जण्या अने रमाड्या पण एके दीकरी न जन्मी. आ मनोरथ सिद्ध करवा ते राणीए मदनयक्षनी आराधना करी, तेवामा राणीए स्वप्नमां कल्पडुमनी कलिका दीठी, ते पछी तेणीने गर्भ रह्यो अने आ कन्या जन्मी. यक्षनी मागणी प्रमाणे एनुं मदE6नमंजरी एवं नाम राख्यु. हवे तो सर्व लोकने चमत्कार करे एवी ए यौवनावस्थामां आवी छे. इति यामिकवचनं श्रुत्वाऽप्सरोऽधिकं च तद्रूपं दृष्ट्वा कामातश्चंडप्रद्योतश्चिंतयतीयं चेन्मम पत्नी स्यात्तदा मम जीवितं सफलं स्यात्, राज्यभ्रंशोऽपि मे कल्याणाय जातो यदियं मया दृष्टा, चेद् द्विमुखो राजेमां मह्यं दत्ते, तदाहमस्य यावजीवं सेवको भवामि, चंडप्रद्योतस्येदृशोऽभिप्रायस्तदा यामिकैख़त्वा विमुखराज्ञे कथितः, राजाज्ञया यामिकैश्चंडप्रद्योतः सभायामानीतः, द्विमुखराज्ञाऽभ्युत्थानं कृत्वा चंडप्रद्योतः स्वार्धासने निवेशितः, प्रांजलीभूय चैवं यभाषे, मत्प्राणास्तव वशगाः संति, मच्छ्यिस्त्वदायत्ताः संति, स्वं मम प्रभुरसि, अहमतःपरं सदैव तव सेवकोऽस्मि. For Private and Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www bath.org Acharya Si Kailassagersuri Gyanmandie भाषांतर अध्ययन ॥४७॥ आवां पहेरेगीरना वचन सांभळी अप्सराधी पण अधिक तेणीनु रूप जोइ कामात राजा चंडमधोते विचार्यु के-'जो आ मारी उत्तराध्य-JE पन सत्रम् पत्नी थाय तो मारु जीवित सफळ थाय अने आ राज्यभ्रंश पण मारा कल्याणने माटे थयो के जेथी आ कन्यानुं दर्शन थयु. 'जो द्विमुख राजा पोतानी आ पुत्री मने परणावे तो जीवता सुधी हुँ तेनो सेवक रहूं.' चंढप्रद्योतनो आ अभिपाय पेहेरेगीरे राजा द्विमु॥४७५॥ खने जाहेर कर्यो, त्यारे राजा द्विमुखे हुकम कर्यो ते उपरथी पहेरेगीरो चंडप्रद्योत राजाने द्विमुख राजा पांसे सभामा तेडी लाव्या, आ वखते द्विमुखराजाए अभ्युत्थान आपी चंदमयोतने पोताना अर्थासन उपर बेसाड्या त्यारे हाथ जोडीने चंडप्रद्योत बोल्या केमारा प्राण आपने ताचे छे, मारी तमाम राजलक्ष्मी तमारे आधीन छे. तमे मारा स्वामी प्रभु-छो अने आजथी हमेशनो हुँ आपनो सेवक छं. अथ तद्भाववेत्ता दिमुखराजा चंडप्रद्योताय तदैव निजां पुत्री ददौ, ज्योतिर्विद्भिः सुमुहर्ते दत्ते चंउप्रद्योतनृपो दिमुखराजपुत्रीं परिणीतवान, करमोक्षावसरे च तस्मै धनं द्रव्यं दत्तमवंतीदेशं च दत्तवान् , कन्यासहितं चंडप्रद्योतं स्वदेशे दिमुखो विसर्जितवान. राजा द्विमुखे चंदपयोतनो भाव जाणी पोतानी पुत्री मदनमंजरी तेने आपी अने ज्योतिपीओए बतावेल शुभ मुहूर्ते चंडपद्योत BE राजा द्विमुखराजानी पुत्रीने परण्या. कन्यानो हाथ राजाना हाथमा आपती वेळाये तेने घणुंक धन तथा बीजा पदार्थों सहित अवंती | देशनुं तेनुं राज्य आपीने कन्या सहित चंडप्रद्योत राजाने द्विमुखराजाए तेने देश पहोंचाया. For Private and Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य पन सूत्रम् ॥४७६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्यदाद्विमुखनरेन्द्रस्य पुरे लोकैरिद्रस्तंभोऽद्भुतः कृतः पूजितश्र, द्विमुखनृपोऽपि तं भृशं पूजितवान् तस्मि न्महे व्यतीतेऽन्येद्युस्तमिद्रस्तंभं विलुप्तशोभनमेध्यातः पतितं द्विमुखराजा ददर्श च एवं चिंतयामास, जनैर्यः पूजितो | मणिमालाकुसुमादिभिश्च शृंगारितः सोऽयमिद्रस्तंभः सांप्रतमीदृशो जातः यथायं स्तंभः पूर्वापरावस्थाभेदमातस्तथा | सर्वोऽपि संसारी भिन्न भिन्नामवस्थामाप्नोति, अवस्थाभेदकारणं रागद्वेषावेव, तत्प्रलयस्तु समताश्रयणाद्भवति, समता ममता परित्यागाद्भवति, ममतापरित्यागस्तु संयमं विना न भवतीति वैराग्यमापन्नः शासनदेवतासमर्पितवेषः सर्वविरतिसामायिकं द्विमुखराजा स्वयं प्रतिपद्य प्रत्येकबुद्धो बभूव उक्तं च-वीक्ष्याचितं पौरजनैः सुरेश ध्वजं च लुप्तं पतितं परेऽह्नि ॥ भूर्ति त्वभूतिं द्विमुखो निरीक्ष्य । बुद्धः प्रपेदे जिनराजधर्मे ||१|| इति द्वितीयप्रत्येकबुद्धद्विमुखचरित्रं समाप्तम् ॥२॥ एक समये द्विमुख नरेन्द्रना राजधानी नगरमां लोकोये अद्भुत इंद्रस्तंभ उभो कर्यो अने तेनी सर्वेषु पूजा करी ते साथ द्विराजाए पण अनेकवार पूजा करी. आ उत्सव व्यतीत थयो, तेने बीजे दिवसे ए इंद्रस्तंभ, सघळी शोभा जेनी नष्ट थइ छे एत्रो अपवित्र वस्तुओना वचमां पडेलो द्विमुखराजाए दीठो जोड़ने विचार्य के जनोए जेनी मणिमाळा तथा पुष्प आदिकथी पूजा करी ती ते इंद्रस्तंभ आ टाणे आ दशामां पडयो छे. जेम आ स्तंभ पूर्वावस्था तथा अपरावस्थामा भिन्नता पाम्यो तेवीज | रीते आ सर्व संसारी पण भिन्न भिन्न अवस्थाने प्राप्त थया करे छे, आ अवस्था भेदनुं कारण रागद्वेषज छे. ए रागद्वेषनो मलय समतानो आश्रय करवायीज थइ शके, समता ममता परित्यागथी मळे अने ममता परित्याग तो संयम विना न थइ शके आवा For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन‍ ॥४७६ ॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम ॥४७७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विचारो आवतां मनमां वैराग्यलब्धि था अने शासनदेवताए वेश समर्पण कर्यु तेथी ए द्विमुख राजा, सर्व पापकर्मनी निवृत्तिरुप सामायिक= चारित्र व्रत=ने प्रतिपन्न थइ स्वयमेव प्रत्येकबुद्ध थया. कई छे के वीक्ष्याचितं पुरजनोए जे इंद्रध्वजने पूज्यो हनो | तेने बीजे दिवसे लुप्त थयेलो जोइ, भूति=ऐश्वर्धने अन्य क्षणे अभूति नष्ट माय थती जाणी द्विमुख राजा प्रत्येकबुद्ध थया अने जिनराज धर्म ने प्राप्त थया. अहिं बीजा प्रत्येकबुद्ध द्विमुखनुं चरित्र समाप्त थयुं. यदा द्विमुखराजा प्रतिबुद्धस्तदानीमेव नमिराजा प्रतिबुद्धः; अथ तृतीयप्रत्येकबुद्धनमिचरित्रमुच्यते- मालवमंड| लमंडनं सुदर्शनपुरमस्ति, तत्र मणिरथो राजा, तस्य लघुभ्राता युगबाहवर्तते तस्य भार्यां सुशीला सुरूपा मदनरेखा | वर्तते सा बाल्यावस्थात आरभ्य सम्यक्त्वमूलद्वादशवतानि जग्राह तस्याः पुत्रश्चंद्रयशा वर्तते. अन्यदा मणिरथेन | मदनरेखा दृष्ट्रा तपमोहितो नृप एवं चितयतीयं मदनरेखा मम कथं वशीभवति? प्रथमं साधारणैः कृत्यैस्तां विश्वासयामि पश्चात्कामाभिलाषमपि तस्याः समये कारिष्येऽहं दुष्करं कार्य बुध्ध्या किं न सिध्ध्यति ? एवं चितयित्वा राजा तस्यै कुसुमतांबूलवस्त्रालंकारादि प्रेषयति, सापि निर्विकारा ज्येष्ठप्रेषितत्वात्सर्वं गृह्णाति ज्यारे द्विमुखराजा प्रतिबुद्ध थया तेवामांज नमिराजा प्रतिबुद्ध थया ते त्रीजा प्रत्येकबुद्ध नमिराजानुं चरित्र कहेवाय हे. मालव मंडलनुं मंडनरूप सुदर्शनपुर हतुं तेमां मणिरथ राजा राज्य करता हता तेना नानाभाइ युगबाहु नामे हता तेनी स्त्री सुरुपवाळी तथा शोभन शीलयुता मदनरेखा नामे दती; तेणीए वाळपणाथी आरंभीनेज सम्यक्त्वनां मूळभूत द्वादश व्रतोनुं ग्रहण करें For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन ९ ॥४७७॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie भाषांतर अध्ययन all॥४७८॥ हा तेणीनो पुत्र चंद्रयशा नामनो हतो, एक समये राजा मणिरथे ए मदनरेखा दीठी; तेना रुपथी मोहित थयेला राजाना मनमा एवो JE संकल्प थयो के-'आ मदनरेखा मने केम वश थाय?' प्रथम तेणीने साधारण कृत्योथी विश्वासमा लडे पछी कामाभिलाप पण पन सूत्रमा RE: टाणुं आव्ये तेणीने हु करावी शकीश. गमे तेवू दुष्कर कार्य पण बुद्धि बडे शुं न सिद्ध थाय?' आम विचार करीने राजाए तेणीने ॥४७८॥ पुष्प, तांबूल, वस्त्र, अलंकार; इत्यादिक पार्थो मोकलवा मांड्या. मदनरेखा तो निर्विकार मनथी पोताना जेठ मोकले छे एटले लेबाय एम मानी स्वीकारती हती. एकदा मणिरथस्तामेकांते स्वयमित्युवाच हे भद्रे! त्वं मां भर्तारं विधाय यथेष्टं सुखं भुंश्व? सा जगी हे गजन् ! नवघुबंधुसत्ककलत्रे मयि एतादृशं व नमरक्तं, त्वं निष्कलंकभूरिसत्यश्च पंचमो लोकपालोऽसि, एवं वदस्त्वं किं न लजसे? शस्त्राग्निविषयोगेभृत्युसाधनं बरं, निजकुलाचाररहितं जीवितं न श्रेयः, परस्त्रीलंपटाः स्वजीवितं यशश्च नाशयंति. तयैवं प्रतियोधितोऽपि नृपः कदाग्रहं न मुमोच, एवं च व्यचिंतयद्यद्यस्याः प्रीतिपात्रं मदनुबंधुर्युगबाहुापाद्यते तदेयं मम वशीभवति. अन्यदा मदनरेखा स्वप्ने पूर्णे, ददर्श, तया युगपाहवे निवेदितः, युगबाहुना कथित | तव सुलक्षणः पुत्रो भविष्यति, तस्या गुरुदेववंदनार्कदोहद उत्पन्नः, युगपाहुस्तमपूपुरत्. एक समये मणिरथ तेणीने एकां मां पोते कहेवा लाग्यो के-'हे भद्रे! मने पोतानो भार करीने तुं यथेष्ट मुख कां न भोगवे? JE आ वचन सांभळीने ते चोली के-'हे राजन! तमारा नाना भाइनी सती स्त्री हुँ, तेमां तमे आबुं अयुक्त वचन केम बोलो छो? لا اله الا اللقطة التفحه قيقا لقمانانی که این افراد لقمته فكانت النقطة r nDrama For Private and Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kabalirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie उत्तराध्यपन सत्रम् भाषांतर असायन ॥४७९|| 1४७९ तमे निष्कलंक महासत्चवान् छो, पंचम लोकपालसम छो, आq वचन बोलतां तमने शरम नथी थती? शख अग्नि अथवा विपना प्रयोगथी मृत्यु पाम, सारु पण पोताना कुलाचार रहित जीव, सारुं नहि. केमके परस्त्रीलंपट पुरुषो पोताना जीवित तथा यशनो नाश करे छे? तेणीये आवीरीने प्रतियोधित कर्यो तथापि ते राजाए पोतानो अधम आग्रड छोड्यो नहि, अने एवो विचार को के-'तेणीना प्रीतिपात्र मारा नाना भाइ युगवाहुने मरावी नारखीये त्यारे पछी ए मारे वश थशे. एक वखते मदनरेखाए स्वप्नमां पूर्ण चंद्र दीठो, आ वात तेणीए पोताना पति युगबाहुने कही त्यारे युगबाहुए का के-आ स्वप्न उपरथी तने एक मुलक्षण पुत्र थशे. आ गर्भिणी मदनरेखाने गुरु, देव वगेरेनुं वंदन करवा सो तथा तेश्रोर्नु अर्चन करवानो दोहद गर्भिणी मनोरथ उत्पन्न थयो अने ते युगवाहुए इच्छानुसार पूर्ण कर्या. __ अन्यदा युगयाहुर्वसते मदनरेखया सममुखाने रंतुं गतः, तर रत्री कदलीगृहे सुप्तः, परिवारः समंतात्तद्गृहं वेष्टयित्वा स्थितः, तदावसरं ज्ञात्वा मणिरथकृपस्तत्रैकाकी समायातः, अद्य युवराजोऽत्र कथं सुप्त इति यामिकान् प्रत्युवाच, युगवाहुरपि कदलीगृहाहहिरागत्य मणिरथपादौ ननाम, नमतोऽस्य स्कंधदेशे मगिरथः खड्गं चिक्षेप, उवाचैवं च धिग्मे प्रमादतः करात्खडगं पतित, मणिरथेगिताकारेण तदुःकर्म ज्ञात्वाऽपि स्वामीत्युपेक्षितः. इतोऽप| सर? इत्युक्तश्च मणिरथः सद्यस्ततो गतः. अन्यदा युगबाहु मदनरेखा साथे वसंतऋतुमा उद्यानमा रमवा गया. त्यांज रात्र पडवाथी कदलीगृहमा मूता, परिवारजन चारे For Private and Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir JI कोर ते कदलीगृहने घेरीने मूता हता, आ अवसर जाणीने मणिरय राजा एकलो त्यां आवी नीकळ्यो. 'आज युवराज अहीं केम | ३ उत्तराध्य-DEL | मृता?' आम पहेरेगीरने पूछ्यु नेटलामा युगबाहु कदलीगृहमांथी बहार आवी मणिरथ राजाना पगा पडी प्रणाम करवा जेवा | JE भाषांतर पन मूत्रम् अध्ययन नमे छे तेवामां तेनी कांध उपर मणिरथे खा फेंक्यो, अने बोल्यो के-'अरे धिक! मारा प्रमादथी खा हाथमाथी पडी गयो.' मणि॥४८॥ | स्थनी चेष्टा तथा आकार उपरथी तेन दुष्कर्म युगबाहु जाणी गया तथापि स्वामी जाणीने उपेक्षा करी. 'हवे अहींथी जाओ' आम ॥४८ ॥ २ कर एटले मणिरथ तेज क्षणे त्यांची चाल्यो गयो. पितृघातवार्ता निशम्य, चंद्रयश पुत्रो घातचितकित्सिकैः परिवृतस्तत्रायाता, चिकित्सिकैरंत्यावस्थागतं युगयाहूं Jt निरीक्ष्य धर्म एवात्यौषधमित्युक्तं, मदनरेखा भतुरंत्यावस्थां विलोक्य विधिनाराधना कारयामास, हे दयित मे विज्ञप्ति शृणु? धनांगनादिषु मोहं त्यज? जैनधर्म स्वीकुरु? हितं भजस्व? धर्मप्रसादादेव प्रधानं कुटुंबगेहादिकं भवांतरे प्राप्स्यसि, | सर्वाण्यपि पापानि सिद्धसाक्षिकमालोचय? पुण्यान्यनुमोदय? सर्वजीवान क्षामय? अष्टादशपापस्थानानि व्युत्मज? अनशनं कुरु? शुभभावनां भावय? चतुःशरणान्याश्रय? परमेष्टिमंत्रस्मरणं कुरु? मनसा सम्यक्त्वमाश्रय? इत्येवं मदनरेखावचनानि श्रद्दधानः पंचपरमेष्टिमंत्रं स्मरन् युगबाहुः परलोकमसाधयत्. पोताना पितानी घातवार्ता सांभळीने चंद्रयशा नामनो युगबाहुनो पुत्र घात चिकित्सक या उपर पाटापीटी करवाचाळा वैद्य ने साये लइ ज्यां आवे छे तेटलामां तो युगवाहुने अंत्य अवस्था पामी गयेला जोइ 'हवे तो धर्म एज आनं परम औषध छ For Private and Personal use only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम ॥ ४८१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एम बोल्या. मदनरेखा पोताना भर्त्तारनी छेली अवस्था जोइ विधिपूर्वक आराधना करवा लागी. 'हे दयितः मारी विज्ञप्ति सांभळो. धन तथा अंगना वगेरेमांथी मोहनो त्याग करो, जैनधर्म स्वीकारो तमारुं पोतानुं हित सेवन करो. धर्मना प्रसादे करीनेज प्रधान कुटुंब घर आदिक अन्य भवमां पामशो. सर्व पापोनी सिद्धनी साक्षीए आलोचना करो. पुण्योनुं अनुमोदन करो. सर्व जीवोने खमावो. अष्टादश पापस्थानोनो उत्सर्ग करो. अनशन व्रत गृहण करो, शुभ भावनाओनुं मनमां चिंतन करो. चारे शरणनो आश्रय ल्यो. | परमेष्ठि मंत्रनुं स्मरण करो. अने मन वढे सम्यक्त्वनो आश्रय करो. आवां मदनरेखानां वचनो श्रद्धापूर्वक सांभळी युगबाहु राजाए पंचपरमेष्ठि मंत्रनुं स्मरण करता करतां परलोक साध्यो. अथ मदनरेखा मनस्येवं चितयामास यत्स्वतंत्र ज्येष्ठो मम शीलं विध्वंसयिष्यति, ततो निःसरणावसरो मम सांप्रतमेवास्तीति निश्चित्य मदनरेखा वेगतो निर्गता, सद्य एकाकिन्येव व्रजेत्युत्पथमाश्रिता. कापि महत्वामव्यां प्राप्ता, विभावरी विरराम, जातं प्रभातं, सा देवगुरुनामस्मरणं चकार, मध्याह्ने सा प्राणयात्रां फलैरेवाकरोत् तस्यामेवात्र्यां सुप्तायास्तस्याः शीलप्रभावेण न किंचिद्भयं बभूव, सा मत्यर्धरात्रौ पुत्रं सुषुवे, पितृनामांकितमुद्रां तस्यांगुली क्षिप्त्वा रत्नकंबलेन वेष्टयित्वा शुचिभूमौ निक्षिप्य मदनरेखा शौचार्थ सरसि गता, तत्र स्नानं कुर्वती जलकरिणा शुण्डादंडेन गृहीता नभस्युत्क्षिप्ता, नभसोऽपि च पतंतीं तां कवियुवा विद्याधरो बेताढ्यं निनाय. हवे मदनरेखा मनमां एम चिंता करवा लागी के ज्येष्ठ (पोताना पतिनो मोटो भाइ ) मणिरथ मारा शीलनुं विध्वंसन करशे For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन ९ ॥४८१ ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन ॥४८२॥ माटे आ टाणेज मारे नीसरी जवानो खरो अवसर छे; आम निश्चय करी मदनरेखा वेगथी नीकली गइ. तत्काळ एकलीज चाली उत्तराध्यपन मुत्रम् BE तेथी मार्गमां भूली पडवाथी कोइ एक महोटी अटवीमा आवी चडी. रात्री विराम पामी अने प्रभात वेळा थइ त्यारे तेणीए देव गुरुनाम स्मरण कर्यु अने मध्याह्नटाणे फल खाइने प्राणयात्रा करी. ए अटवीमांज रात्रनी सूइ रही पण तेणीना शीलना प्रभावथी १४८२॥ Sai तणीने कशुए भय थयु नहि. आ सतीए अर्धरात्र वेळाए एक पुत्रने जन्म आप्यो. तेनी आंगळीमा ते बाळकना बापना नामवाळी बाटो पहेरावो तेने रत्नकंवळथी वींटाळीने पवित्र भूमिमां मूकी मदनरेखा शौचार्थ तलावमा गइ त्यां स्नान करतां जळहस्तीये मूढथी JE पकडीने आकाशमां उछाळी, आकाशमांथी पडतां तेणीने एक जुबान विद्याधरे झीली लीधी अने वैताढ्य पर्वत पर पोताने स्थाने De| उपाडी गयो. सा विद्याधरं प्राह बंधोऽहमद्य निश्यदव्यां पुत्रमजीजनं, स तु रत्नकंबलवेष्टितो मया तत्रैव मुक्तोऽस्ति, अहं तु सरसि स्नानं कुर्वती जलकरिणोत्क्षिप्ता त्वया गृहीतात्रानीता. अथ त्वं ततो मत्पुत्रमिहानय? मां वा तत्र नय! अन्यथा बालस्य तत्र मरणापद्भविष्यति, त्वं प्रसीद? मां पुत्रेण मेलय? पुत्रभिक्षाप्रदादेन त्वं मे दयां कुम? सोऽपि युवा विद्याघर एतस्यां सरागं चक्षुः क्षिपन्नेवमुवाच, गंधारदेशे रत्नव.हं नाम नगरमस्ति, तत्र विद्याधरेंद्रो मणिचूडो वर्तते, अस्य प्रिया कमलावती मणिप्रभनामानं पुत्रं मां प्रासूत, यौवनावस्थां गतस्य च मे श्रेणिद्वयराज्यं दत्वा मणिचूडः स्वयं प्रत्रज्यां जग्राह, स चारणमुनिभिश्चतुर्ज्ञानी भूत्वा सांप्रतमष्टमे (नंदीश्वर) द्वीपे जिनर्विवानि नतुं समायातोऽस्ति, अहं तत्र वंदितुं गच्छन्नभूवं, अंतराले त्वां दृष्ट्वा लात्वा चाहं पुनरत्रागतः, अतःपरं त्वं मे प्रिया भव? तवादेशकरोऽहमस्मि, مخالفته النقطة المحامثلما فعله وتبعد خاقبالكالسفن المياهلنا For Private and Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥४८३ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तव पुत्रसंबंधो मया प्रज्ञप्तीविद्यया ज्ञातः, अश्वापहृनो मिथिलेश्वरः पद्मरथाख्यस्तत्रायातः तं बालं सुरूपं दृष्ट्वा गृहीत्वा च स्वपत्न्यै ददौ तत्र स प्रकामं सुखभागस्ति. त्यां मदनरेखाए पेला विद्याधर युवकने कछु के-'हे बंधो में आज रात्रे अटवीमां पुत्र जण्यां तेने रत्नकंबळमां वींटी में त्यांज मुकेल छे. हुं तळात्रमां स्नान करती हती त्यां जळहस्तीए मने मूंढती पकडीने उछाळी ते तमे झीलीने अहीं लाच्या हवे कांतो ए मारा पुत्रने अहीं लइ आवो अथवा मने त्यां लइ जाओ. अन्यथा बालकने त्यां मरण आपत्ति थशे; माटे तमे प्रसन्न थइ मारा पुत्री मने मेळवो. मने पुत्रभिक्षा आपी मारापर दया करो. आ विद्याधर युवक ए मदनरेखा उपर सराग दृष्टि नाखतो आम बोल्यो 'गंधार देशमां रत्नवानामनुं नगर छे. त्यां मणिचूड नामे विद्याधरेंद्र रहे छे तेनी प्रिया कमलावतीए मणिप्रभ नामना पुत्रने जन्म आप्यो ते हुँ. ज्यारे हुं युवावस्था पाम्यो त्यारे बेय श्रेणिनुं राज्य मने आपीने मणिचूडे पोते प्रव्रज्या = दीक्षा = लीघी. ते चारण मुनिओनी साथे चतुर्ज्ञानी (मति, श्रुत, अवधि अने मनः पर्ययः) थइ हमणां आठमा (नंदीश्वर ) द्वीपमां जिनविवोने नमन करवा आवेला छे तेथी हुं त्यां वंदन करवा जतो हतो तेटलामां बच्चे तने पडती झीलीने फरी अहीं आव्यो. हवे तो तुं मारी प्रिया था; हुं तारो आज्ञाकारी छु. तारा पुत्रनी हकीकत में प्रज्ञप्ति विद्याथी जाणी लीधी. मिथिलापुरीना इश्वर राजा पद्मरथ घोडो हाथमां न रहेतां घणे दूर नीकळी जतां ज्यां ते तारो पुत्र मूक्यो हतो त्यां आवी चन्या. तेणे ए बालकने सुरूप जोड़ उपाडी लीधो अने पोतानी पत्नीने सोंप्यो त्यां ते बालक अत्यंत सुख भोगवे छे.' एवं तद्वचः श्रुत्वा मदनरेखाचिंतयदयं स्वतंत्रो युवा दृप्तो मे शीलभंगं करिष्यतीति तावत्कालं मे विलंबः श्रेयान For Private and Personal Use Only भाषांतर 'अध्ययन ९ ॥४८३ ॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobaith.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie यावदस्य पिता साधुन वंधते, तदुपदेशात्सर्व भव्य भविष्यतीति ध्यात्वा मदनरेखावदद हे भद्र! त्वं मां प्रथमं नंदी-R उत्तराध्य भाषांतर पन सत्रम् श्वरे नय? यथाहं तजिनर्वियानि बंदे, पश्चात्कृतकृत्याऽहं तवेप्सितं करिष्यामि. एवं तयोक्ते सहर्षों मणिप्रभस्तां विमा-३६] Feअध्ययन नांतर्निधाय नंदीश्वरद्वीपे गतः, तत्र शाश्वतजिनबिंबानि नत्वां मदनरेखात्मानं कृतार्थ मन्यमाना मणिप्रभेण समं |JE ॥४८४॥ चतुर्ज्ञानधरं चारणश्रमणं प्रासादमंडपोपविष्टं मणिचूडमुनि प्रणनाम, स मुनिस्तां सती मत्वा स्वसुतं च लंपटं मत्वा | |॥४८४॥ तथा देशनां विस्तारयामास यथासी युवा विद्याधरः स्वदारसंतोषव्रतं जग्राह, मदनरेखां च स्वांवांभगिनीं च मेने.. आवां तेना वचनो सांभळी मदनरेखा विचारमा पडी के-'आ स्वतंत्र युवान दर्पवाळो छे तेथी मारा शीलनो भंग करशे.' माटे ज्यां सुधी तेना पिता साधुने वंदन न करे त्यां सुधीनो विलंब मने ठीक मळशे? अने पछी तेना उपदेशथी तो बधु सारुं थइ रहेशे? आवी धारणा करी मदनरेखा चोली के-'हे भद्र! तमे मने प्रथम नंदीश्वरे लइ चालो जेथी हुँ पण ते जिनविंयोने वंदन करूं पछी कृतकृत्य थइने हुं तमाएं धारेलुं सफळ करीश. आधुं ज्यारे ते मदनरेखा बोली त्यारे मणिभ मनमा हर्ष पामीने तेणीने | विमानमा चेसाडी नंदीश्वर द्वीपमा लइ गयो. त्यां शाश्वत जिनबिंबोने वंदी पोताना आत्माने कृतकृत्य मानती मणिप्रभनी साथे प्रसाद मंडपमा बेठेला चारण श्रमण मणिचूडमुनिने प्रणाम कर्या. ते मुनिये आ मदनरेखाने सती जाणी अने पोताना पुत्रने लंपट जाणी एवी देशना [उपदेश] बहेबरावी के जेना श्रमणथी युवान विद्याधर मणिपभ पोतानी स्त्रीमा संतोष व्रतला मदनरेखाने It पोतानी मा तथा चेन मानी चेठो. For Private and Personal use only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य भाषांतर अध्ययन९ ॥४८५॥ ॥४८५॥ अथ सा हृष्टमानसा सती पुत्रस्य कुशलोदंतं पप्रच्छ, मुनिराह हे महानुभावे! शोक मुक्त्वा सर्व सुतवृत्तांत | श्रुणु? जंबूद्वीपे पुष्कलावती विजयोऽस्ति, तत्र मणितोरणा पुरी, तस्यां मितयशाराजा, स च चक्रवर्त्यभूत् , तस्य पुष्प वती कांता, तयोः पुष्पसिंहरत्नसिंहाभिधानौ पुत्रावभूतां, तौ सदयौ विनीतौ धर्मकर्मरतौ स्तः. अन्यदा तो राज्ये स्था| पयित्वा चक्रवर्ती तपस्यां जग्राह, तौ द्वावपि भ्रातरी चतुरशीतिलक्षपूर्वयाबद्राज्यं प्रपालयतः. एकदा च तो दीक्षां गृहीतवंती, षोडषपूर्वलक्षागि यावद्दीक्षां प्रपालयतः, अंते समाधिना मृत्वाऽच्युतकल्पे सामानिको देवी जातो. ततश्च्युत्वा घातकीखंडभरते हरिषेणराज्ञः समुद्रदत्ताभार्यासुतौ सागरबदत्ताभिधानी धार्मिको सहोदरौ जातो. हवे तो मदनरेखानुं मन हर्ष पाम्युं अने पोताना पुत्रना कुशल समाचार पूछया. मुनिये कह्यु के-'हे सति! महोटा भाग्यवाळी! शोक त्यजीने तारा पुत्रनो सर्व वृत्तांत श्रवण कर. आ जंबूद्वीपमा पुष्कलावती विजय प्रदेशमा मणितोरणा पुरी छे; तेमां मितयशा राजा चक्रवर्ती हतो तेने पुष्पवती नामे राणी हती तेथी पुष्पसिंह तथा रत्नसिंह एवा नामना बे पुत्रो थया. बन्ने पुत्रो दयालु, विनयवान् तथा धर्म कार्यमा परायण रहेता. ा बन्ने पुत्रोने राज्यपदपर स्थापित करी चक्रवर्ती पोते तपस्या गृहण करी. आ बन्ने राजपुत्रो चोराशी लाख पूर्व पर्यन्त राज्य- पालन कयुः तदनंतर एकी वख्ते बन्नेए दीक्षा ग्रहण करी सोळ लाख पूर्व पर्यन्त दीक्षाव्रतर्नु परिपालन करीने अंते समाधि पूर्वक मरण पामी अच्युत कल्पने विपये देय सामानिक देव थया. त्यांथी च्युत थइ घातकीखंडमां भरतक्षेत्रने विषये हरिषेणराजानी भार्या समुद्रदत्ताने सागर तथा देवदत्त नामना चे धार्मिक महोदर भाइओ थया. For Private and Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सत्रम् भाषांतर अध्ययन PRODDDDLAD ।।४८६॥ ॥४८६॥ अन्यदा ती बादशतीर्थकरस्य दृढसुव्रतस्य बहु व्यतिक्रांते तीर्थे सुगुरुसमीपे दीक्षामगृह्णीतां, तृतीये दिवसे तो दावपि विद्युत्पातेन मृत्वा शुक्रदेवलोके महद्धिको देवावभूतां. अन्येगुस्तौ देवावत्रैव भरते श्रीनेमिजिनेश्वरमिति पृष्टवंती हे भगवान् ! नावद्यापि कियान् संसारस्तिष्टति? स भगवान् प्राह युवयोमध्ये एको मिथिलापुरि पद्मरथो नृपो भविष्यति, तेन पद्मरथेनाश्वापहृतेन तस्मिन् वने समायातेन हे महानुभावे! स तव पुत्रो दृष्टो गृहीतश्च मिथिलायां नीत्वा स्वपत्नै समर्पितश्च, तेन तज्जन्मोत्सवो महान विहितः. एक वखते ते वेय भाइओए दृढ मुव्रत बारमा तीर्थकरना बहु तीर्थ व्यतिक्रमने अंते सद्गुरुनी समीपे जइ दीक्षा गृहण करी. दीक्षा ग्रहण कर्याने त्रीजेज दिवसे वीजळी पडवाथी मरण पामी शुक्रदेव लोकमां महोटी समृद्धिवाळा देव यया. एक दिवसे ते बन्ने देव आ भरतक्षेत्रमांज श्री नेमिनिनेश्वर पांसे जइ पूछवा लाग्या 'हे भगवन् ! अमो बन्नेने आ संसार क्यां सूधी चालु रहेशे?' | भगवान बोल्या के-तमारा बेमाथी एक मिथिलापुरीमां पद्मरथ राजा थशे. एज पद्मरथराजाने घोडो दर अटवीमां लइ गयो तेज बनमां हे महोटा प्रभाववाळी ! ए राजाये तारो पुत्र दीठो अने लइ लीधो. मिथिलामा लइ जइ पोतानी पत्नीने सोंप्यो ते दहाडे राजाए पुत्रजन्म महोत्सव महोटा उत्साहथी को.. अत्रांतरे तत्र नंदीश्वरप्रासादेंतरिक्षादेकं विमानमवततार, तन्मध्यादेको दिव्यविभूषाधरः सुरो निर्गत्य मदनरेखां त्रिःप्रदक्षिणीकृत्य प्रथम प्रणनाम, पश्चान्मुनि प्रणम्याग्रे निविष्टः सुरोमणिप्रभविद्याधरेण विनयविपर्यासकारणं पृष्टः नातलmraDDARSHAD DDDLBDAuddhaneaaDLadkius For Private and Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit www.kobatirth.org प्राहाहं पूर्वभवे युगवाहुर्मणिरथनाना बृहद्भात्रा निहतः, अनया ममाराधनानशनादिकृत्यानि कारितानि, तत्प्रभावापुत्तराध्य भाषांतर पन सूत्रम् Isdil दहमीदृशो ब्रह्मदेवलोके देवो जातः, ततो धर्माचार्यत्वादहमिनां प्रथमं प्रणतः. अध्ययन आ वात ज्यां करे छे तेटलामां ते नंदीश्वर प्रासादमां अंतरीक्षमांथी एके विमान उतयु, ते विमानमा चेठेला देवोमांथी एक 12 ॥४८७॥ ॥४८॥ दिव्यभूषण जेणे धारण करेल छे एवा देवे नीकळीने मदनरेखाने त्रण प्रदक्षिणा करी प्रथम प्रणाम कर्या अने पछी मुनिने प्रणाम करी आगळ बेसी गयो. मणिप्रभ विद्याधरे देवने विनयविपर्यासनुं कारण पूछयु. (मुनिने प्रथम वंदना करवी जोइए तेने बदले मदनरेखाने प्रथम केम विनय कर्यो.) त्यारे ते देवे का के-'हुँ पूर्वभवमा युगवाहुराजा हतो. मारा महोटा भाइ मणिरथे मने मारीनाख्यो, पण आ सती मदनरेखाये मारा आराधनार्थ अनशन वृत आदिक कृत्यो कराव्यां तेना प्रभावथी हुँ आवो ब्रह्मदेवलोकमा देव थयो. तेथी धमोचार्य गणी में आ स्त्रीने प्रथम प्रणाम कर्या. | एवं खेचरं प्रतियोध्य स सुरो मदनरेखां जगौ हे सति! त्वं समादिश? किं ते प्रियं कुर्वे? सा प्राह मम मुक्तिरेव प्रिया, नान्यत्किमपि, तथापि सुताननं दृष्टुमुत्सुकां मां स्वमितो मिथिलां पुरी नय? तत्राहं निवृतात्मना परलोकहितं करिष्यामीत्युक्तवती तां देवो मिथिलापुरीं निनाय, तत्र प्रथम मदनरेखा जिनचैत्यानि नत्वा श्रमणीनामुपाश्रये जगाम, वंदित्वा पुरो निविष्ठां तां प्रवर्निन्येवं प्रतियोधयामास, मूढचेतसो जना धर्मादिना भवक्षयमिच्छंतोऽपि मोहवशेन पुत्रादिपु स्नेहं कुर्वति, संसारे हि मातृपितृबंधुभगिनी दयितावधूमियतमपुत्रादीनामनंतशः संबंधा जाताः, लक्ष्मी For Private and Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie भाषांतर अध्ययन९ ॥४८८॥ कुटुम्बदेहादिक सर्व विनश्वरं, धर्म एवैकः शाश्वतः. इत्यादि साध्वीवाक्यैः प्रतिषुद्धा सा सती देवेन पुत्रदर्शनार्थ प्रार्थिता उत्सराध्य एवमाह, भववृद्धिकरण प्रेमपूरेण ममालं, अतःपरं तु साध्वीचरणमेव शरणमित्युक्त्वा साध्वीसमीपे सा प्रवज्यां जग्राह. पन मूत्रम् आ प्रमाणे ए विद्याधरने प्रतिबोध आपी ते पछी ते देव मदनरेखा प्रत्ये बोल्यो-'हे सति ! तुमने कहे-के तारुं हुं शुं पिय १४८८॥ | करुं? त्यारे मदनरेखाए कयुं के मने तो मुक्तिज मिया छे. वीजें कभुं मने प्रिय नथी. तथापि पुत्रनु मुख जोवाने उत्सुक हूं तो तमे मने अहिंथी मिथिलापुरी लइ चालो त्या हुँ निवृत्त मनथी परलोकहित साधीश.' आटलुं बोली एटले ते देव ए मदनरेखाने मिथिलाJE पुरी लइ चाल्या, त्यां प्रथम मदनरेखा जिन चैत्योर्नु वंदन करी श्रमणीना उपाश्रयमा गइ, त्यां साध्वीओने बंदी आगळ वेठो त्यारे JE तेने प्रवर्तिनी मुख्य साध्वी ए एम प्रतिबोध को के-मूह बुद्धिवाळा लोको धर्म विना भवक्षयनी इच्छा करे छे अने मोहवश बनी पुत्रादिकमा स्नेह राखे छे. आ संसारमा माता, पिता, भाइ, व्हेन, प्रियवधू, पियतम तथा पुत्र; इत्यादिक संबंधियोना अनेकवार | संबंध थइ गया. लक्ष्मी, कुटुंच, देह; इत्यादिक सपलं विनश्वर छे. धर्म एकज शाश्चत छे.' आवां साध्वीनां वचनो सांभळी ते सती मदनरेखा प्रतिबुद्ध थइ. साथे आवेला देवे 'चालो हवे तमारा पुत्रने जोवा जइए? आम प्रार्थना करी त्यारे ते बोली-भवनी वृद्धि JE करे एवा मेमपूरनुं मारे हवे प्रयोजन नथी. अतः पर हवे पछी तो हुँ साध्वी आचरणज शरण लइश? आ प्रमाणे देवने कहीने मदनरेखाए साध्वी समीपे पत्रज्या ग्रहण करी. | देवस्तां वंदित्वा स्वस्थाने जगाम, पश्मरथस्य गृहे यथा यथायं बालो वर्धते तथा यथा तस्यान्ये राजानोऽनमन्. ततः पद्मरथो राजा तस्य यालस्य नमिरिति नाम कृतवान् , वृद्धि ब्रजतस्तस्य पालस्य कलाचार्यसेवनात्सर्वाः कला: समा wwwwwwwwwwwwws For Private and Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुत्तराध्ययाताः, सकललोकलोचनहरं यौवनमप्यस्थायात, पित्रा चाष्टाधिकसहस्रराजकन्यापाणिग्रहणं कारितं, पद्मरथोऽस्ने भाषांतर यन सूत्रम् l राज्यं दत्वा स्वयं तपस्यां गृहीत्वा केवलज्ञानं प्राप्य मोक्षं गतवान. नमिराजा प्राज्यं राज्यं पालयामास, न्यायेन SEअध्ययन यशःपात्रमभूत्: ॥४८९॥ ॥४८॥ देव तो ते ने बांदीने पोताने स्थानके गया. मिथिलामा राजा पद्मरथने त्यां पेलो बाळक जेम जेम वृद्धि पामे छे तेम तेम अन्यराजाओ तेने नमे छे. ते उपरथी पद्मरथ राजाए ए बाळकनुं 'नमि' एवं नाम राख्यु. प्रहाटो थतां आ वाळके कला शिखवनारा आचायोनी सेवा करी तेओनी पांसेथी सकल कळा संपादन करी. आम क्रमे करी सकल लोकनां लोचनने लोभावे एवी युवावस्थाने ए प्राप्त थयो. तेने पिताए एक हजारने आठ राणीओ तेने परणावीने राजा पारथे पोतार्नु राज्य तेने आपी पोते तपस्या ग्रहण करी केवळ ज्ञान पामी मोक्षे गया; अने नमिराजा समग्रराज्य- परिपालन न्यायपुरःसर करी यशःपात्र बन्या. अथ पूर्व युगबाहुं हत्वा मणिरथनृपः सिद्धमनोरथः स्वं धाम जगाम, तत्र तदानीमेब प्रचंडसर्पण दष्टस्तुयै नरक जगाम, योात्रोरो देहिकं कृत्वा मंत्रिभियुगवाहपुत्रश्चंद्रयशा राज्येऽभिषिक्तः, सन्यायेन राज्यं पालयति. मणिरथ राजा युगबाहुने हणीने पोतानो मनोरथ सिद्ध थयो मानी पोताने धामे गया. त्यां तेज क्षणे प्रचंड नागे दंश कर्यो GET तेथी मरण पामीने चोथा नरकमां गया. बेय भाइओ औदैहिक-मुवा पछीनी उत्तर क्रिया मंत्रियोए करावीने युगबाहुना पुत्र | चंद्रयशाने राज्याभिषिक्त कर्या, आ चंद्रयशा राजा न्यायची प्रजार्नु परिपालन करी प्रजाप्रीतिपात्र यया. For Private and Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie भाषांतर अध्ययन ॥४९ अन्यदा नमिराज्ञो धवलकांतिर्गजो मदोन्मत्त आलानस्तंभमुन्मूल्यापरान हस्तिनोऽश्वान मनुष्यानपि त्रासयंश्चंउत्तराध्यपन सूत्रम् द्रयशोनृपनगरसीम्नि समायाता, चंद्रयशा नृपस्तमागतं श्रुत्वा समंतात्सुभटैर्वेष्टयित्वा स्ववशीकृत्य च जग्राह. नमि राजाष्टभिर्दिनस्तां वार्ता श्रुत्वा चंद्रयशोंतिके दृतं प्रेषितवान् , दृतोऽपि तत्र गत्वा धवलकरिणं मार्गयामास, कुपित॥४९॥ श्चंद्रयशा दृतं गले धृत्वा नगराहहिनिष्कासयामास, दूतोऽपि नमः पुरो गत्वा स्वापमानं जगौ, कुपितो नमिराजाऽतु लसैन्यैः परिवेष्टितोऽविच्छिन्नप्रयाणैः सुदर्शनपुरसमोपे समायातः, चंद्रयशा भूपतिः स्वसैन्यपरिवेष्टितो यावदभिJE मुखं युद्धार्थ चलितस्ताव्दपशकुनैारितो मंत्रिभिरेवमूचे, स्वामिन् ! कोई सज्जीकृत्य तव सांप्रतं पुरांतरेऽवस्थातुं युक्तं, Of कालविलंबेनैतत्कार्य कर्तव्यं. एक समये नमिराजानो धवलकांतिवाळो मदोन्मत्त हस्ती आलन(हाथी बांधवानो स्तंभ) उखेडी बीजा हाथी घोडा तथा मनु| प्योने त्रास पमाडतो चंद्रयशा राजाना नगर सीमाडे आव्यो. आ खबर चंद्रयशाने थतां तेणे पोताना मुभटो मोकली चारेकोरथी ए | हाथीने घेरी लइ पोताने वश करी पकडी मंगाव्यो. आ वातनी नमिराजाने आठ दिवसे खबर पडतां तेणे चंद्रयशा राजा पांसे दूत | मोकल्यो. दूते त्यां जइने ए धवल हस्तीनी मागणी करी, आ उपरथी चंद्रयशाए क्रोधाविष्ट थइ दुतने गळची पकडी नगरनी बहार कढावी मोकल्यो. आ दूते नमिराजा पांसे जइ पोताना अपमाननी तमाम हकीकत कही संभळावी; ते सांभळी कुपित थयेला नमिराजा पोतानु अतुल सैन्यथी घेरायेला सतत प्रयाण करी सुदर्शनपुरनी समोपे आवी पहोंच्या. अहीं चंद्रयशा भूपति पण पोतानी | समग्र सेना लइ युद्ध करवा माटे ज्यां अभिमुख चाल्या त्यां अपशकुने रोक्या; मंत्रियोए कयु के-'स्वामिन् ! नगरना किल्लाना पाको For Private and Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अध्ययन ॥४९ ॥ al बंदोबस्त करी आपे नगरमांज रहेg सलामती भरेलुं छे. आ काम काळविलंबे करी साधवानुं छे-अर्थात् उतावळे हडी करवानी नथी. यन सूत्रम ततश्चंद्रयशाः शतघ्नीभिर्जलाद्यपस्करैश्च कोई सज्जी कृतवान् , नमिस्तं कोई स्वसैन्यैरवेष्टयत्, अधःस्थैः सैनिकः ॥४९॥ सहोर्ध्वस्थानां सैनिकानां महान् संग्रामः प्रववृधे, नमिः कोहभंग विधातुमुपायान् विविधान् करोति, चंद्रयशा नृपस्तु कोहरक्षणे विविधानुपायान् करोति. ___आ उपरथी चंद्रयशा शतघ्नी-महोटी जंजालो-तथा जळादिक साधनोथी कोटमा बधी तैयारी करावीने तेमां रद्या. आ कोटने नमिराजाए पोताना सैन्यथी वींटाळी घेरो घाल्यो. नीचे रहेला नमिराजाना सैनिको साथे उपर रहेला चंद्रयशाना सैनिकोनो महान् संग्राम जाम्यो. नमिराजाए कोट तोडवाना विविध उपायो करवा लाग्या ते सामे चंद्रयशा कोटना रक्षण माटे अनेक उपायो योजवा लाग्या. अस्मिन्नवसरे तयोर्माता साध्वी मदनरेखा प्रवर्तिनीमनुज्ञाप्य तत्संग्रामवारणार्थ प्रथम नमिराजसैन्ये समायाता, नमिरपि हां साध्वीं ननाम, आसने चोपविश्य नमः पुरः सा साध्व्येवं वाचं विस्तारयामास, अनंतदुःखैकभाजनेऽस्मिन् संसारे वैभवं प्राप्य पापस्त्वं किं मुह्यसे? हे राजन् ! तव बंधुना चंद्रयशसा स्वयमागतो हस्ती चेद्गृहीतस्तहि तेन समं कथं युद्धं करोषि? क्रुद्धस्त्वं न किंचिद्धेत्मि, यदुक्तं-लोभी पश्येद्धनप्राप्ति । कामिनी कामुकस्तथा ।। भ्रमं पश्येदथोन्मत्तो । न किंचिच्च क्रुधाकुलः ॥१॥ For Private and Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobairthorg Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie आ अवसरे ए बन्नेनी माता साध्वी मदनरेखा प्रवत्तिनी साध्वी उपाश्रयमांनी मुख्य नियामक साध्वीनी आज्ञा लइने आ उत्तराध्य BEभाषांतर संग्राम रोकवा माटे प्रथम नमिराजाना सैन्यमां आव्यां त्यां नमिराजाए प्रणाम करी आसन उपर बेसाड्यां त्यारे नमिनी आगळ ||JE घन सूत्रम् अध्ययन | ते साध्वीए वाणी विस्तारी (बोल्या) के-'अनंत दुःखना पात्ररुप आ संसारमा मनुयभत्र पामीने पण पाप कर्म करवामां मोद्दथी ॥४९२॥ केम प्रवृत्त थाओ छो? हे राजन्! तमारा बंधु चंद्रयशाए पोतानी मेळे आवी नीकळेला हाथी कदाच पकडो लीधी तेटला माटे तेनी ॥४९२॥ RE साथे युद्ध केम आदरो छो? क्रोधवश थइ तमे कंइ पण जाणी शकता नथी. कधु छे के-लोभी०] लोभी धनप्राप्ति देखे छे, कामिनी पोताना कामुकनेज देखे छे. उन्मत्त वनेलो भ्रमन देखे छे अने क्रोधी आकुल थयेला कर देखता नथी. ॥१॥ इदं साध्वीवचो निशम्य नमिश्चितयामासायं चंद्रयशा युगवाहुपुत्रोऽस्ति, अहं तु पद्मरथपुत्रोऽस्मि, इयं साध्वी सत्यवादिनी सती कथं मम चानेन सम भ्रातृत्व वदतीति विमृश्य साध्वींप्रत्येवं भाषतेस्म हे पूज्ये! असोक? अहंक? भिन्नकुलसंभवयोर्मदेतयोः कथं भ्रातृत्वं बदसीति नमिनोक्त साध्वी प्राह हे वत्स! यौवने ऐश्वर्यभबं मदं मुक्त्वा यदि शृणोसि तदा सकलं स्वरूपं कथ्यते. अथ श्रोतुमुत्सुकाय नमितृपाय सर्व पूर्वस्वरूपं साध्वो जगाद, पुनरेवं सा यभापे सुदर्शनपुरस्वामी युगवास्तवास्य च पिता, अहं मदनरेखा तव मातेति, पद्मरथस्तु तव पालकः पिता, स्वमेन मात्रा समं मा विरोधं कुरु? बुध्ध्यस्व हितमिति साध्वीभोक्तं तथा युगयाहुनामांकितकरमुद्रादर्शनतश्च सर्व नमिः सत्यं मेने. आ साध्वीना बचन सांभळी नमिराजाना मनमा विचार आव्यो के-चंद्रयशा युगवाहुनो पुत्र के अने हुँ पारथनो पुत्र छु छतां وتعالى عدة فقه For Private and Personal use only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन मृत्रम् भाषांतर अध्ययन९ ॥४९३॥ | ॥४९३॥ आ साध्वी सत्यवादिनी होइ मने तेनो भाइ केम कहे छे? आम शंका लावी साध्वी प्रत्ये बोल्या-'हे पूज्ये! आ चंद्रयशा क्या? हुं क्यां? भिन्न भिन्न कुळमां उत्पन्न थयेला अमो बन्नेने तमे भाइ केम कह्या?' आq नमिराजान प्रश्न सांभळी साध्वी बोल्या के-हे वत्स! यौवनावस्थामां ऐश्वर्य मळवाथी यएला मदनो परित्याग करीजो सांभळो तो तमारा बन्नेनुं सकळ स्वरुप कहेवाय.' ते पछी श्रवण करवा अति उत्सुक नमिराजाने साध्वीए सर्व पूर्वस्वरूप कही संभळाव्यु अने फरी ते बोली के-सुदर्शनपुरना स्वामी युगबाहु तमारा तथा आचंद्रयशा=ना पिता थाय अने आ हुँ मदनरेखा तमारी माता थाउं. आ पमरथ राजा तो तमारो पालक पिता थाय, माटे तमे आ तमारा सहोदर भाइ साथे विरोध मा करो अने तमारा बेयर्नु हित समजो? आम मावीए कही युगवाहुना नामवाळी तेनी कर मुद्रिकाबींटी जोइने नमिए सघळ सत्य मान्यु. तां साध्वी प्रकामं चित्तोल्लासेन स्वमातरं मत्वा विशेषान्ननाम नमिः, उवाच च मातयत्वया प्रोक्तं तत्सर्व तथ्य| मेव, नात्र काचिद्विचारणास्ति, ममेयं करमुद्रा युगवाहुसुतत्वं ज्ञापयति, अयं चंद्रयशा मे ज्येष्टभ्राता वर्तते, परं लोकः कथं प्रत्यायते? लघुभ्रातृवात्सल्यतो ज्येष्टश्चेत्सन्मुखमायाति तदाहमुचितं विनयं कुर्वन् शोभामुद्वहामि. एवं नमिटपोक्तमाकर्ण्य सा साध्वी दुर्गद्वारवर्मना प्रविश्य राजसौधे जगाम. चंद्रयशाभूपस्तु तामकस्मादागतामुपलक्ष्य स्वमातर साध्वीं विशेषादभ्युत्थाय ननाम. उचितासनोपविष्टां तां साध्वीं वृत्तांतं पृष्टवान्. साध्वी सकलं वृत्तांतं नमिराजमिलनं यावत्कथयामास, चंद्रयशा नृपस्तं नमि निजलधुभ्रातरं मत्वा सभालोकानमत्येवमुवाच For Private and Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir الت الملاك भाषांतर अध्ययन ॥४९४॥ ते साध्वीए अत्यंत चित्तना उल्लासपूर्वक पोताना मा मानीने नमिए विशेप भावे नमन करीने बोल्या के-'हे मातः! तमे उत्तराध्यपन मूत्रम् JE का ते सघळं सत्य छे ए बाबतमा लेश पण विचारणा संदेह जेवू नथी. आ करमुद्रा-बीटी भने युगबाहुन तत्त्व बराबर ज्ञापित करे हे. आ चंद्रयशा मारो ज्येष्ठ बंधु थाय पण लोकने खात्री केम थाय? जो नानाभाइ प्रतिना वात्सल्यथी महोटा भाइ जो सामा ॥४९४॥ आवे तो हुँ उचित विनय करूं ए मारी शोभा कहेवाय. आq नमिराजानुं वचन सांभळी ए साध्वी दुर्गद्वारने मार्गे थइ कोटमा प्रवेश करी राजमहेले पहोंची. चंद्गयशाराजा अकस्मात् आवेला ते साध्वीने पोतानी माता तरीके ओळखी विशेषता पूर्वक अभ्युत्थान= सामा उभा थइने प्रणाम करी आसनपर बेसाडी वृत्तांत पूछवा लाग्या. साध्वीए नमिराजाने मल्या वगेरे तमाम वृत्तांत कही संभळाव्यो ते उपरथी चंद्रयशा राजाए नमिभूपने पोताना नाना भाइ मानी सर्व सभाना जनो प्रत्ये बोल्या के सुलभाः सति सर्वेषां । पुत्रपत्न्यादयः शुभाः॥ दुर्लभः सोदरो बंधु-र्लन्यते सुकृतैयदि ॥ १ ॥ इत्युक्त्वा चंद्रयशा नृपोऽपि पुराहहिनिर्गतः, नरपि तं ज्येष्ठभ्रातरमभ्यागच्छंतं दृष्ट्वा सिंहासनादुत्थाय भूतलमिलच्छिराः प्रणनाम, चंद्रयशा नृपोऽपि स्वकराभ्यां तं भूतलादुत्थाप्य भृशमालिलिंग. तुल्याकारौ तुल्यवर्णी तावेकमातृपितृत्वसंभूतत्वेन | तदा परमप्रीतिपदं जातो. लोकः सहोदरौ ज्ञातो. (मुलभाः०) सारां पत्नी पुत्र आदिक संबंधिओ तो सर्वेने मुलभ छे पण सहोदर बंधु तो दुर्लभ छे ए तो पूर्वना मुकत होय तोज | मळे छे. आम कही चंद्रयशा राजा पण नगर चहार नीकळ्या. नमिराजाए पण ते ज्येष्ठ भ्राताने अभिमुख आवता जोइ सिंहासन كشفت التحالفالح في محلات For Private and Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन९ ॥४९॥ उत्तराध्य उपरथी उभा थइने मस्तक पृथ्वी पर नमावीने प्रणाम कर्या. चंद्रयशा नृप पण पोताना बेय भुजावडे नमिने भोयपरथी उठावीने खूब | यन सूत्रम | भेटी मळ्या. समान आकारना तुल्य वर्णवाळा बन्ने एकज मावापथी उत्पन्न थयेला होवाथी ते वारे परम प्रसन्नता पाम्या. लोकोये | | पण ते बन्नेने सहोदर भाइओ तरीके ओळख्या. ॥४९ ॥ चंद्रयशा नृपस्तु तदानीमेव नमिथंधवे सुदर्शनपुरराज्यं ददौ, स्वयं संग्रामांगणमध्ये दीक्षा ललौ, क्रमेण राज्यं पालयन्नमिः क्षिती प्रचण्डाज्ञो जज्ञे. अन्यदा नमेर्वपुषि दाहज्वरो जातः, पूर्वकर्मदोषेण तस्य षण्मासिकी पीडा समुत्पन्ना, निद्रामपि न लेभे, अंतःपुरीनूपुरशब्दा अपि कर्णशुलायासन, नमिराज्ञो दाहज्वरशांतये स्वयं चंदन घर्षयंतीनामंतःपुरीणां बलयशब्दास्तु भल्लमाया बभूवुः, तत्र तभिर्वलयानि समस्तान्युत्तारितानि, एकैकं मंगलाय रक्षितं, तदानीं शब्दाश्रयणेन नमिना कश्चिन्निकटस्थः सेवकः पृष्टः, कथमधुना कंकणशन्दा न श्रूयन्ते? तेनोक्तं स्वामिन् ! भवत्पीडाकरत्वेनांतःपुरीभिः कंकणान्युत्तारितानि, एकैकं मंगलाय रक्षितमिति, नैकैककंकणशब्दाः श्रूयंते परस्परघर्षणाभावात. राजा चंद्रयशाए तो तेज समये नमि बंधुने सुदर्शनपुरनुं राज्य आपी पोते संग्रामांगण मध्ये दीक्षा लीधी. नमिराजा क्रमे BE करी राज्य- पालन करतां पृथ्वीमा प्रचंड आज्ञावान् प्रख्यात थया. एक समये नमिराजाने शरीरमा दाहज्वर आव्यो. पूर्व कर्मना दोषथी तेने छमास मूधी पीडा रही तेमां रात्रनी निद्रा न आवे; अंतःपुरनी राणीओना पगनां झांझरना शब्दो तेना कानमां शूल For Private and Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् भाषा अध्यय ॥४९६॥ ॥४९६॥ तुल्य लागता. नमिराजाना दाहज्वरनी शांति माटे जनानानी राणीयो चंदन घसे ते बखते ते स्त्रीओना हाथना कंकणना खणखणाट राजाना हृदयमा भालां जेवा थइ पडता. तेथी ते स्वीओए हाथमा सौभाग्य चिन्ह तरीके एक एक कंकण राखी बोजां उतारी नाख्या. आ उपस्थी नमिए एक बखते पांसे बेठेला सेवकने पूज्यु के-'हमणां कंकणना शब्दो केम संभळाता नथी? तेणे कधु-'हे स्वामिन् ! आपने पीडा करे एम मानी राणीयोए एक एक कंकण मंगल अर्थे राखीने बाकीनां उतारी नाग्ख्यां छे तेथी परस्पर घर्षण न थवाथी कंकण शब्दो नथी संभळाता. एवं तद्वचः श्रुत्वा प्रतिबुद्धो नमिरेवं चिंतयामास यथा संयोगतः शुभा अशुभाः शब्दा जायंते, तथा रागादिका दोषाः, संयोगत एव भवंति, यद्यस्माद्रोगादहं मुक्तः स्यां तदा सर्वसंग विमुच्य दीक्षां गृह्णामि, तस्येति ध्यायमानस्य रात्रौ सुखेन निद्रा समायाता, निद्रायां स्वप्रमेवं ददर्श, गजमारुह्याहं मंदिरगिरिमारूढः, प्रातः प्रतिबुद्धः स नीरोगो जातः, स एवं व्यचिंतयदमुं पर्वतं काप्यहमदर्श. एवमूहापोहं कुर्वतस्तस्य जातिस्मरणमुत्पन्नं नमिराजा पूर्वभवं ददर्श, यदाहं पूर्वभवे शुक्रकल्पे सुरोऽभूवं, तदाहजन्माभिषेककरणायाहमस्मिन् मेरावागम. अथ कंकणदृष्टांतेनैकत्वं सुखकारीति चिंतयन् प्रत्येकबुद्धत्वं प्राप्य प्रव्रजितो नमिः. आq तेनु बचन सांभळीने प्रतिबुद्ध थयेला नमिराजा विचारवा लाग्या के-जेम संयोगथी शुभ अशुभ शब्द थाय छे तेम। रागादि दोष पण संयोगथीज थाय छे माटे जो हुँ आ रोग थकी मुक्त थाउं त्यारे सर्व संग छोडी दइ दीक्षा गृहण करूं. ते राजाने For Private and Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥४९७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आ शुभ ध्यान करतां ते रात्रे सुखे निद्रा आवी अने निद्रामां एवं स्वप्न दीढुं के 'जाणे हाथी उपर आरूढ थइने हुं मंदर | गिरि उपर आरुढ थयो' सवारे ज्यां जाग्या त्यां नीरोग बनी गया; त्यारे तेणे विचार्य के—क्यांक ए पर्बत में जोयो ले. आम मनमा उहापोह करतां ए राजाने पोताना पूर्वभवनुं स्मरण थइ आभ्युं-तेने जातिस्मरण थयुं के ज्यारे पूर्वभवमां हुँ शुक्रकल्पमां देव थयो हतो त्यारे अत्नो जन्माभिषेक करवा माटे आ मेरुपर्वतमां आव्यो हतो. कंकणनुं दृष्टांत याद करी 'एकाकिप सुखकर छे' आयुं चितवन करतां प्रत्येकबुद्धत्वने पामी नमि मत्रजित थया. तदा राज्यमंतःपुर मेकपदे त्यजंतं नमि ब्राह्मणरूपेण शक्रः समागत्य परीक्षितवान्, प्रणतवांथ. शक्रपरीक्षासमये नमिराजसत्कं शक्रप्रश्नन मिराजर्व्युत्तररूपं सूत्रं कथयति- आ वखते एकदम राज्यनो त्याग करनारा नमिराजानी परीक्षा करवा ब्राह्मणं रुप धारण करी इंद्र आवीने प्रणाम करे | छे, त्यारे नमिराजने लगतुं इन्द्रकृत प्रश्न तथा नमिराजर्षिए आपेला तेना उत्तररूपकर गाथात्मक सूत्रग्रंथनो उपक्रम कराय छे. | नईऊण देवसोगाओ । उवन्नो माणुसंमि लोगंमिं ॥ उवसंत मोहणिजो | सरंई पोराणियं जाई ॥ १ ॥ जीई सरितं भयं । सर्ह संबुद्धो अणुर्त्तरे धम्मे ॥ पुतंववित्ते रजे । अभिनिक्खमई नमी राया ॥ २ ॥ मूलम् - (देय लोगाओ) देकलोकधी [चइऊण] चवीने ( माणुसम्मि लोगम्मि) मनुष्यलाकमां (उबवण्णो) उत्पन्न थया. ( उचसंत मोहणिज्जो) मोहनो नाश थयो छे तेवा नमिराजा (पोरणिअं) पूर्वनी (जाई) जातिने (सरह) संभारे है. ॥१॥ [भयचं) भगवान (नमि For Private and Personal Use Only 九儿美兆无儿无射美 भाषांतर अध्ययन ९ ॥४९७॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य पन सूत्रम् ॥ ४९८ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राया) नमिराजा (जाई) पूर्वनी जातिने (सरितु) स्मरण करीने (अणुत्तरे) सर्वोत्कृष्ट (धम्मे) चारित्र धर्मने (सह) पोतानी मेळे (बुद्ध) प्रतिबोध पाम्या, (पुत्तं) पुत्रने [रजे] राज्यपर (उविन्तु) स्थापन करीने (अभिनिक्खमई) दीक्षालेता हवा. ॥२॥ व्या०-- द्वाभ्यां गाथाभ्यां संबंधं वदति-नमिराजा पुत्रं राज्ये स्थापयित्वा अभिसमंतान्निःक्रामति, गृहवासान्निःसरति, अनगारो भवतीत्यर्थः, किं कृत्वा ? 'जाइ सरितु' जाति स्मृत्वा पूर्वभवं स्मृत्वा कथंभूतः स नमिः? भगवं भगवान् धैर्यसौभाग्यमाहात्म्ययशाज्ञानादियुक्तः, पुनः कीदृश: ? अनुत्तरे सर्वोत्कृष्टे श्रीजिनधर्मे सह संबुद्धः संबुद्ध:, इति द्वितीयगाथाया अर्थः स नमिः पूर्व देवलोके देव आसीत्, तेनेत्युक्तं 'चहऊण देवलोगाओ' देवलोकाच्च्युत्वा स नमिभूपो मनुष्यलोके मनुष्यजन्मन्युत्पन्नः, स च नमिभूप उपशांतमोहनीयः सन् पौराणिकां जाति | पूर्वजन्म देवलोकादि स्मरति अत्र वर्तमान निर्देशस्तत्कालापेक्षयोक्तः. ॥ २ ॥ स्वयं (चइउण०) १ (जाइ सरितु० ) वे गाथावडे संबन्ध कहे छे-नमिराजा अनगार थया केवी रीते ? ते कहे छे:— देवलोकमांथी च्युतथइने मनुष्यलोकमां उत्पन्न थया त्यां मोहनीय कर्म जेनुं उपशांत थयुं छे एवा नमिराजा पोतानी पौराणिकी=पूर्वभवनी=जाति (पूर्वजन्म) ते संभारखा लाग्या. १ जाति=पूर्वजन्म = तुं स्मरण करी, भगवान एटले धैर्य, सौभाग्य, माहात्म्य यशः, तथा ज्ञानादियुक्त = नमिराजा, अनुत्तर = सर्वोत्कृष्ट जीनधर्ममां स्वयंसंबुद्ध यह पुत्रने राज्य उपर स्थापित पोते अभिनिष्क्रामति=सर्वरीते गृहवासथी बहार नीकल्या = अनगार थया. आ नमि पूर्व देवलोकमां देव हता तेथी देवलोकधी For Private and Personal Use Only करी | च्युत थइने' एम कं. ए नमि मनुष्यमां जन्मी मोहनीय कर्म उपशांत थतां पूर्वभव-देवलोकादि स्मरे छे, आ गाथामां स्मरति ए 兆光美眺美光毛毛毛毛美能 भाषांतर अध्ययन९ ॥ ४९८ ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandie भाषांतर अध्ययन ॥४९९॥ | वर्तमान क्रियापदनो प्रयोग छे ते ते कालनी अपेक्षाथी करेल छे अर्थात् जे काळे नमिराजाने जातिस्मरण थयुं ते काळने यन सत्रम अनुलक्षीने वर्तमान काळनो प्रयोग करवामां आवेल छे. २ ॥४९९॥ सो देवलोगसरिसे । अंतेउर+वरगओवरे भोग ॥ भुजित नमीराया। बुद्धो भोगे"परिच्चयई ॥ ३॥ २६ मूलम्-(अंतेउरवरगो) अंतःपुरमा रहेला [सो] ते नमिराजा (देवलोगसरिसे) देवलोक जेवा (वरे) उत्तम एवा (भोए) भोगोने JI (जित्त) भोगवीने(बुदो प्रतिबोध पाम्या सता (नमिराया) नमि राजाए [भोगे) भोगोनो (परिचयइ) त्याग को. ॥३॥ स नमिराजा बुद्धी ज्ञाततत्वः सन, परित्यजति, किं कृत्वा? भोगान् भुक्त्वा, कथंभूतान् भोगान! वरान प्रधानान् सर्वेन्द्र पसौख्यदान, कीदृशः सन् ? बरे प्रधानेंतापुरे गतः सन् स्त्रीसमूहे प्राप्तः सन् , कीदशेतःपुरे? देवलोकसदृशे देवांगनासदृशे इत्यर्थः. भुक्तभोगस्य पुरुषस्य भोगा दुस्त्यजा इति हेतोभॊगान परित्यजतीत्युक्तं. ॥ ३॥ ___ अर्थ-ते नमिराजा बुद्ध ज्ञाततत्त्व-थइने बंधु परित्याग करे छे. केम करीने? वर=श्रेष्ठ सर्व इंद्रियोने सुख देनारा भोगो भोगवीने तेमज देवलोक सदृश देवांगना समान वरम्प्रधान अंतःपुरमा जइ-अर्थात् अप्सग जेवी राणीयोना मध्यमां विविध भोग भोगवीने ते भोगोनो परित्याग कर्यो. जेणे चिरकाळ मृधी भोग भोगव्या होय तेणे भोग त्याग दुष्कर थाय छे; पण नमिए भोग भोगवीने परित्यक्त कर्या तेथी तेणे ए दुष्कर कार्य कर्यु एबुं तात्पर्य छे. ३ मिहिलं सपुरजणवयं । बैलावरोहं च परियेणं सवं ॥ चिच्चा अभिनिक्खंतो। एंगंतमहिडिओ भयवं ॥४॥ For Private and Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥५०॥ भाषांतर अध्ययन ॥५०॥ मूलम-(सपुरजणवयं) बीजां नगरो भने जन पद (मिहिलं) मिथीला नगरीने (बल) चतुरंग सेनाने तथा (अरोह) अवगेहने (च) तथा (परिअणं) परिवारनें (सब्ब) ए सर्वेने (चिच्चा) तजी दहने (अभिनिक्खंतो) दीक्षा लीधेला (भयब) भगवान-नमिराजर्षिए (गगत') द्रव्यथी एकांत दु' कोइनो नथी. इत्यादिक भावनाओवडे (अहिंडिओ) आश्रय कों.४ व्या०--स भगवान् माहात्म्यवान् यशस्वी नमिराजा एकांतं द्रव्यतो वनखंडादिकं भावतश्च सर्वसंयोगरहितत्वं, एक एवाहमित्यतो निश्चयस्तमाश्रितः, पुनः कीदृशो नमिराजा? अभिनि:क्रांतः, अभि समंतान्निःक्रांतः संसारान्निस्मृतः, किं कृत्वा? मिथिलां सपुरजनपदां, तथा यलं, तथावरोधमंतःपुरं तथा परिजनं सर्व त्यक्त्वा, पुराणि च जनपदाश्च पुरजनपदाः, तैः सह वर्तत इति सपुरजनपदा, तां सपुरजनपदां, एतादृशीं मिथिलापुरी हित्वा. ॥४॥ ___ अर्थ-ते भगवान् माहात्म्यवान् यशस्वी नमिराजा, एकांत=द्रव्यथी वनपदेशादि, अने भावथी सर्व संयोग रहितपणु, | एटले हुँ एकलोज छु एवा निश्चयने [अधिष्ठित] आश्रित बनी, पुरनगरो तथा जनपद-देश इत्यादि सहित मिथिलाने तथा बल= सैन्य अने अवरोध जनानामांनी राणीयोने त्यजीने अभिसर्वथी निष्क्रान्त=निर्गत थयो. अर्थात् समग्र संसार बंधनथी बहार नीकळ्यो. कोलाहलँगप्भूयं । आसी मिहिलाइ पवेयंतमि ॥ तइयो राईरिसिमि । नैमिमि अभिनिक्खमंतमि ॥५॥ मुलम्-[तइया] ते वखते (पब्वय तम्मि) प्रव्रज्यो लीधेला (नमिम्मि) नमि रायरिसिम्मि] राजर्षि (अभिनिक्खमतम्मि) घरबहार नीकळे सते (मिहिलाइ) मिधिलाने विषे (कोलाहल गम्भू) कोलाहल थयो के जेमां एवुघर (भासी) थयु-कोलाहलथी व्याप्त थयु. LABDULUl For Private and Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य- व्या०--तदा तस्मिन् काले मिथिलायां नगर्या सर्व स्थानं कोलाहलकभूतमासीत् , कोलाहलोऽव्यक्तरोदनादियन सूत्रम तजनितकलकलशब्दः कोलाहलकः, भूतो जातो यस्मिस्तत्कोलाहलकभूतं, एतादृशं सर्व स्थानं गृहविहारादिकं जातं, SEअध्ययन ॥५०॥ क सति? नमो राज्यभिनि:कामति सति, गृहात्कुटुंबात्क्रोधमानमायादिभ्यो वा निःसरति सति, कथंभूते नमौ? राजर्षी, ॥५०॥ राजा चासावृषिश्वराजर्षिस्तस्मिन् राजर्षों, राज्यावस्थायामपि ऋषिरिव ऋषिस्तस्मिन् राजर्षी.॥५॥ ___ अर्थ-ते समये मिथिला नगरीमां कोलाहलमय थइ रद्यु-कोलाहल एटले अव्यक्त रोदन बूमराण वगेरेथी थतो कळकळाट JE चारे कोर थइ रह्यो. नगरमां सर्वत्र घर आराम वगेरे स्थानोमां कळकळ शब्द व्यापी रह्यो. क्यारे एम थयु? ते कहे छे-ज्यारे नमि| राजपि अर्थात् राजा होवा छतां ऋषितुल्य वर्तनवाला नमि; प्रबजित थइ घर बहार नीकळ्या त्यारे. ५ अप्भुटियं रायरिसिं । पञ्जाठाणमुत्तमं ॥ संको माहणरुवेण । इमं वयणमंब्बवी ॥ ६॥ (उत्तम) उत्तम एवा (पब्बजाठाण') दीक्षाना स्थानने विषे (अभुट्टि) उद्यमवंत थयेला (रायरिसि) नमि राजर्षि पासे (शक्को) शकाद्र [माहणरूबेण] ब्राह्मणरूपे आवीने [इम'] आ प्रमाणे (वयण') वचन (अव्यधी) बोल्या६ व्या०--नमिराजर्षि शक्रो ब्राह्मणरूपेणेदं वचनमब्रवीत्. कथंभूतं राजर्पि? उत्तम प्रव्रज्यायाः स्थानं प्रव्रज्यास्थानं | ज्ञानदर्शनचारित्रादिगुणस्थानानां निवासं प्रत्युत्थितमुद्यतमित्यर्थः ॥६॥ अर्थ-नमिराजर्षि उत्तम मत्रज्या स्थान अर्थात् ज्ञानदर्शनचारित्रादि गुणस्थानोना निवासभूत, प्रव्रज्या स्वीकारवा अभ्युत्थित For Private and Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥५०२॥ Jहा धया उद्यत थया, त्यारे शक्र=इन्द्र ए नमिराजर्षि पासे ब्राह्मणरुपे आवीने आ=(हवे कहेवाशे ते) वचन बोल्या. ६ भाषांतर किं नु भो अजमिहिलाए ! कोलाहलगसंकुला ॥ सुच्चंति दारुणा सदा । पासाएसु गिहेसु अ॥ ७ ॥ अध्ययन [भो] हे मुनि! (अज) आज मिहिलाए मिथिला नगरीमा (पासापसु) प्रासादोने विषे (गिहेसु अ) घरोने विषे (कोलाहलग संकुला कोलाहले करीने व्याप्त एवा [दारुणा] भयकर [सहा) शब्दो (किनु) शेना [सुधति] संभळाय छे. ७ ॥५०२१ व्या--किमिति प्रश्न, नु इति वित, भो इति आमंत्रणे, भो राजर्षे! अद्य मिचिलायां प्रासादेषु देवगृहेषु, भूपमंदिरेघु, च पुनस्त्रिकचतुष्कचत्वरादिषु दारुणा हृदये उद्वेगोत्पादका विलापाः कंदितादयः, शब्दाः किं नु श्रूयंते? इतींद्रो राजर्षि नर्मि पृच्छतिस्मेत्यर्थः कीदृशाः शब्दाः? कोलाहलकसंकुला अव्यक्तशब्दव्याप्ताः. ____ अर्थ-अहिं 'कि' शब्द प्रश्नना अर्थमां छे. अने नु' ए वितर्क अर्थमां छे, 'भो' ए पद आमंत्रण वाचक छे-हे राजर्षे! आजे मिथिलामा प्रासादोने विषये तथा देवगृह अने राजमंदिरोने विषये 'च' पदथी त्रिक चतुष्क चत्वर-चोतरा आदिकमां दारुण हृदयमा उद्वेग उत्पन्न करे एवा तथा कोलाहलथी व्याप्त शब्दो एटले रोकळकळना विलापो केम संभळाय छे? एम इंद्रे नमिराजर्षिने पूछ्यु.७ एयमेडं निसामित्ता । हेऊकारणचोइओ॥ तओ नमिरायरिसी । देविदं ईणमब्बवी ॥ ८ ॥ [प] आ (अह) अर्थने [निसामित्ता] सांभळीने (तओ) त्यारपछी (हेऊकारण चोइओ) तेना हेतु अने कारणो वडे प्रेरणा करायेला ADDTDrammmmmmm MANDAL For Private and Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥५०३॥ S www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (नमिरायरिसी) नमि राजर्षि (विदे) देवेंद्र प्रत्ये (इण) आ प्रमाणोना वचन (अम्बवी) बोल्पा. ८ व्या०-- तत इंद्रप्रश्नानंतरं नमिराजर्षिर्देवेन्द्रमिदमब्रवीत् किं कृत्वा ? एतमर्थमित्यर्थप्रतिपादकं शब्दं निशम्य श्रुत्वा कथंभूतो नमिराजर्षिः ? हेतुकारणाभ्यां चोदितः प्रेरितः हेतुकारणचोदीतः, तत्र हेतुः पंचावयववाक्यरूपः, तत्र कारणं च येन विना कार्यस्योत्पत्तिर्न भवति, पंच अवयवा इमे प्रतिज्ञा १ हेतु २ उदाहरण ३ उपनय ४ निगमन ५ रूपाः, पक्षवचनं प्रतिज्ञा १ साध्यसाधकं हेतुः २ तत्सादृश्यदर्शनमुदाहरणं ३ उदाहरणेन साध्येन च संयोजनमुपनयः ४ हेतूदाहरणोपनयैः साध्यास निश्चयीकरणं निगमनं ५ तथैव दर्शयति तव धर्मार्थिनोऽस्मन्नगराद्गृहात्कुटुंबादा निःसरणं दीक्षाग्रहणमयुक्तमिति प्रतिज्ञावाक्यं कस्माद्धेतोः? आकंदादिदारुणशब्दहेतुत्वात् इदं हेतुवाक्यं २ यद्यदादादिदारुणशब्दहेतुकं भवति तत्तद्धर्मार्थिनः पुरुषस्यायुक्तं, किंवत् ? हिंसादिकर्मवत् यथा हिंसादि कर्मादादिदारुणशब्द हेतुकं तद्विसादिकर्म च धर्मार्थिनोऽप्ययुक्तं भवति, इदमुदाहरणवाक्यं ३ तस्मात्तथा तवापि धर्मार्थिनो निःसरणमयु, इदमुपनयवाक्यं ४ तस्मादाकंदादिदारुणरौद्रशब्द हेतुत्वाद्विसादिकर्मवत्सर्वथा तब गृहात्कुटुंबान्नगरानिःसरणमयुक्तमेव, इति निगमनवाक्यं ५ इति पंचावयवात्मको हेतुरुच्यते. कारणं दर्शयति-यदस्य पूर्वमसतो वस्तुन | उत्पादकं तत्तस्य कारणं, भवतो गृहानिःसरणं, दारुणशब्दकार्यस्य कारणं ज्ञेयं, यदा भवतो गृहान्निःसरणं पूर्व जातं, तदा पश्चादाकंदादिशब्दलक्षणं कार्य जातं, यदा भवतो दीक्षाग्रहणं न स्यात्तदाकंदादिशब्दश्च कथं स्यादित्यर्थः ॥८॥ एवं हेतुकारणाभ्यामिद्रेण प्रेरितो नमिराजर्षिरध यदब्रवीत्तदद्येतनया गाथयाह- For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन‍ ॥५०३॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobarth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥५०४|| अर्थ-तदनंतर इंद्रे प्रश्न पूछया पछी नमिराजर्षि देवेंद्रने आ वचन बोल्या-केम करीने? ते कहे छे-आ अर्थने-एटले ३६ अर्थ बोधक शब्दने सांभळीने हेतु तथा कारण वडे प्रेरित थयेला अत्रे 'हेतु' पद पंचावयव वाक्य रूप अनुमिति मुचक छे. पांच भाषांतर अध्ययन अवयवोमां प्रतिज्ञा पक्ष वचन, १ हेतु साध्य साधक, २ उदाहरण सादृश्य दर्शन ३ उपनय-उदाहरण साथे साध्यनु संयोजन ४ | निगमन=साध्यनु निश्चयापादन ५ जेमके-'तमे धर्मार्थी होइ आ नगरमाथी घरमाथी के कुटुंबमाथी नीकळी जइ दीक्षा ग्रहण करवी ॥२०४॥ अयुक्त छे,' आ प्रतिज्ञा वाक्य; १ 'शा माटे?' 'लोकमां कोळाहळ तथा कुटुंबमां विलाप आदिक दारुण भयंकर शब्दोन हेतुभूत होवाथी,' आ हेतु वाक्य; २ जे कइ विलापादि दारुण शब्दन हेतु होय ते धर्माथिपुरुषने अयुक्त कहेवाय. जेवू के-हिंसादि कर्म जे हिंसादि कर्म घूमराण जेवा दारुण शब्द हेतु होय ते हिंसादि कर्म धमोर्थीने अयुक्त मनाय.' आ उदाहण वाक्य छे. ३ एज प्रमाणे आ तमारु घर छोडी चाली नीकळवार्नु कर्म आक्रंदादि दारुण शब्दनुं हेतु छे तेथी तमने धर्मार्थीने अयुक्त गणाय तेवु छे. आ उपनय वाक्य छे. ४ तेथी तेमज छे-एटले लोकोमा कोळाहळ तथा आकंद आदिक दारुण शब्दनु हेतु होइ हिंसादि कर्मनी पेठे आ तमारं गृह कुटुंब तथा नगरमाथी नीकली चाल्या जq ए सर्वथा अयुक्त छ,' आ निगमन वाक्य छे. ५ आ पंचावयवात्मक हेतु कहेवाय छे. हवे कारण दर्शावे छे. जे कइ प्रथम न होय तेवी वस्तुनु उत्पादक थाय ते तेनुं कारण कहेवाय. जेमके-तमारु घरमांथी नीकळी जळु दारुण शब्दरूप कार्यर्नु उत्पादक होवाथी ते कारण मनाय. ज्यारे तमारुं घरमांथी नीकळी जq प्रथम थयु ते पछी आक्रंद वगेरे शब्दात्मक कार्य उत्पन्न थयु. जो तमाएं दीक्षाग्रहण नथात तो आ आक्रंदादि शब्दो क्याथी थात? ८. आवी रीते | हेतु तथा कारण वडे इन्द्रे ज्यारे प्रेरणा करी त्यारे ते नमिराजर्षि तदनंतर जे बोल्पा ते आगळनी गाथाभोथी निरुपण करे छे. For Private and Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन ॥५०५॥ उत्तराध्य- मिहिलाए चेइए वच्छे । सीयच्छाए मणोरेमे ॥ पत्तपुप्फफलोवेए । बहणं बहुगुणे सया ॥ ९ ॥ यन सूत्रम् वारण होरमाणमि । चेइयमि मणोरमे ॥ दुहिआ असरणा अत्ता । एए कंदंति" भो खंगा ॥१०॥ ॥५०५॥ [मिहिलाए मिथिलानगरीमा (चेइए) चैत्यने विषे (सीअच्छाए) शीतळ छायावाळो (मणोरमे) मनोहर (पत्तपुष्फफलोवेए) पत्र, पुष्प अने फळे करीने सहित तथा [सया) सदा (बहुण) घणा पक्षीओने (बहुगुणे) बहु गुणकारी [वच्छे] वृक्ष छे ॥९॥ (मणोरमे) मनोहर [ने अम्मि] वृक्ष [बारण] वायु बडे हीरमाणम्मि जेमतेम फेंकते सते (भी) हे ब्राह्मण! (दुहिआ) दुःखी [अस रणा) शरणरहित (अत्ता) पीडीत थयेला एवा (एए) मा [खगा] पक्षीओ (क'दति) आक्रंद करे छे. १० व्या०--नमिराजर्षिः किमब्रवीदित्याह-मिथिलायां नगर्या चैत्ये उद्याने भो एते खगाः पक्षिणः कंदति कोलाहलं कुर्वन्ति, चितिःपत्रपुष्पफलादीनामुपचयः, चितौ साधु चित्यं, चिलमेव चैत्यमुद्यान, तस्मिन् चैत्य उद्याने एते उच्यमाना खगा विहगाः पूत्कुर्वति, कथंभूते चैत्ये? मनोरमें मनोज्ञे, पुनः कीदृशे? वृक्षः शीतलच्छाये, कीदृशैः ? पत्रपुष्पफलोपेतैः पत्रपुष्पफलयुक्तः, पुनः कीदृशे चैत्ये? बहनां खगानां बहुगुणे प्रचुरोपकारजनके इत्यर्थः एते खगाः क | सति विलपति? चैत्ये वृक्षे वातेन हियमाणे सतीतस्ततः प्रक्षिप्यमाणे सति, उद्याने देवगेहे च वृक्षे चैत्यमुदारतमित्य नेकार्थः, कथंभूते चैत्ये? मनोरमे मनोज्ञे, कीदृशा एते खगाः? दुःखिताः, पुनः कीदृशाः? अशरणाः, पुनः कीदृशाः? JE आर्ताः पीडिताः, अत्र यत्स्वजनाक्रन्दनं, तत्खगाक्रन्दनं स्वयं वृक्षकल्पो यावत्कालं तवृक्षस्य स्थितिरासीत्तावत्कालं भोगादिषु स्थिरतासीत्. ततश्चाक्रन्दादिदारुणशब्दानामभितो भवदुक्ते हेतुकारणे असिद्धे एव, एतेषां स्वजनानां मया For Private and Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन ॥५०६॥ स्वार्थभंगः कृतो नास्ति, ममाप्यत्र स्थाने एभिः स्वजनैः सहेयत्येव स्थितिः, केनाप्यधिकीकर्तुं न शक्यते, तस्मान्मम उत्तराध्यपन सूत्रम् | मिथिलातो निःसरणं दीक्षा ग्रहणं सर्वथा मिथिलावास्तव्यलोकानामाकंदशब्दहेतुः कारणं च नास्त्येवेत्यर्थः ॥१०॥ अर्थ-(वे गाथानो भेलो अन्वय छे.) नमिराजा शुं बोल्या ते कहे छे-मिथिला नगरीमा चैत्य-उद्यानने विषये इंद्र! आ बधा JE| खग-पक्षियो क्रंदन कोलाहळ करे छे. चिति एटले पत्र पुष्प फळ इत्यादिकनो उपचय, ए जेमां सारं होय ते चैत्य-उद्यान; उद्याने DE देवगेहे च वृक्षे चैत्यमुदाहृतम्-बगीचो, देवालय तथा वृक्ष; ए त्रणे चैत्य कहेवाय छे एम अनेकार्थकोषमां वचन छे. ए मनोरम | तथा शीतल छाया अने पत्र पुष्प फळवडे युक्त होवाथी बहु पक्षिओनो सदा बहुगुण घणो उपकारक एवो वृक्ष ज्यारे वायुए हिय माण एटले आम तेम दोलायमान कराय छे त्यारे ते दुःखित तेमज अशरण-बीजो कोइ आश्रय न मूजवाथी निराधार जेवा अने ३ | तेथी जे आत पीडा पामता पक्षिओ आम आनंद-कोलाहल करे छे. ९ ___अर्थः-अत्रे जे स्वजनना आक्रंदनने पक्षियोना आक्रंदनरूपे कथ्यु, पोते वृक्ष तुल्य थइ यावत्काल पर्यंत वृक्षनी स्थिति रही तावत्काल पर्यंत भोगादिकनी स्थिरता हती एट ले हवे आक्रंदादि दारुण शब्दनां तमे कहेला हेतु तथा कारण असिद्धज छे. केमके ए स्वजनोनो में लेश पण स्वार्थ भंग कर्यो नथी. मारी पण ए सर्वे स्वजनोनी साथे आटलीज स्थिति नियत होवाथी कोइथी ते अधिक करीन शकाय माटे मारु मिथिलामांथी नीसरी जq तथा दीक्षा ग्रहण सर्वथा आ मिथिलावासी लोकोना आनंद शब्दनं हेतु अथवा कारणछेज नहिं. १० For Private and Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie JEL उत्तराध्य-16 एयमढ निसामित्ती । हेऊकारणचोइओ॥ तओ नमि रायरिसिं । देविंदो ईणमब्बी ॥११॥ भाषांतर यन सूत्रम् मूल-ए) आ (अट्ट) अर्थने (निसामित्ता) सांभळीने (तओं) त्यारपछी (हेऊकारणेचोइओ) हेतुना कारणधी प्रेरायला (देविंदो अध्य ॥५०७॥ देवेद्रो (नमि) नेमि (रायरिसि) राजा प्रत्गे (इण) आ प्रमाणोना वचनो (अम्बवी) बोल्या. ११ BET॥५०७|| व्या-ततस्तदनंतरं देवेंद्रो नमिराजर्षिप्रतीदं वक्ष्यमाणं वचनमब्रवीत् , किं कृत्वा? एतमर्थ निशम्य, कीदृशो ३६ | देवेंद्रः हेतुकारणाभ्यां प्रेरितः, अथवा हेतुकारणयोर्विषये नमिराजर्षिणा प्रेरितः, पूर्व हींद्रेण नमिराजषिप्रतीत्युक्तं, JE भो नमिराजर्षे! एतेषामाकंदादिदारुणशब्दहेतुत्वात्तव दीक्षाग्रहणमयुक्तं, पुनस्तेषामाकंदादिशब्दरूपकार्यस्य तव दीक्षा ग्रहणमेव कारणमित्युक्ते सति नमिराजर्षिणा च तेषामानंदादिदारुणशब्दस्य स्वार्थ एव हेतुकारणे उक्ते, तेनासिद्धोऽयं भवदुक्तो हेतुःकारणं प्राप्य सिद्धमेवेति राजर्षिर्णेद्रः प्रेरितः सन्निदं वचनं नमिराजर्षिप्रति पुनरुवाचेत्यर्थः...११॥ ____ अर्थ-तदनंतर देवेन्द्र नमिराजर्षि पत्ये आम्हवे कहेवाशे ते वचन बोल्या. केम बोल्या? ते कहे छे-आ अर्थ सांभळीने हेतु | तथा कारणथी मेरित एवा देवेन्द्र, अथवा हेतु तथा कारण विषयमा नमिराजर्षिये प्रेरितः; प्रथम इन्द्रे नमिराजर्षि प्रत्ये कयु के-हे नमिरोजर्षे! आ आक्रंदादिक दारुण शब्दोनु हेतु होवाथी तमारे दीक्षा ग्रहण करवी योग्य नथी, केमके तेओना आक्रंदादि शब्दरूप । कार्यन तमारुं दीक्षा ग्रहण कारण हे त्यारे नभिराजर्षिए कयु के-तेओना आक्रंदादि शब्दोनु कारण तथा हेतु तेओनो स्वार्थज छे, तेथी तमे कल्पेलो हेतु असिद्ध छे, खरं कारण में कडं ते सिद्ध छे; एम राजर्षिए मेरायेला इंद्र नमिराजर्षि प्रत्ये आ वचन बोले के For Private and Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie IJEn JE भाषांतर अध्ययन ॥५०८॥ एस अग्गी य वाओ य एवं डझंति मंदिरं ॥ भयवं अंतेउरं तेणं । कोसण नौवपक्खह ॥१२॥ उत्तराध्यपन मूत्रम् IUEIL मूल-(एस) आ (अग्गी अ) अग्नि भने (वाउ अ) वायु (ए) आ तमारा (मदिर) महेलने (दज्झइ) बाळे छे (तेण) तेथी (भयव) BE भगवन् [अंतेउरं] तमारा अंतःपुरनी सन्मुख (कीसणं) केम [नावपिक्खह] तमे जोता नथी? १२ १५०८॥ च्या०-हे भगवन् ! एष प्रत्यक्षो अग्निर्वायुश्च दृश्यते, पुनरेतत प्रत्यक्षं मंदिरं दयते, तवेयध्याहारः, तव गृहं प्रज्ज्वलति हे भगवन् ! तेगं तेन कारणेन, अथवा णं इति वाक्यालंकारे, तवांतःपुरं राज्ञीवर्ग 'कीसग' इति कस्मा कारणाहापेक्षसे नावलोकसे? यद्यदात्मनो वस्तु भवति तत्तदीक्षणीयं, यथात्मीयं ज्ञानादि, तथेदं भवतोतापुरमपि ज्वलमानमवलोकनीय ॥१२॥ अर्थ-हे भगवन् ! आ प्रत्यक्ष देखातो अग्नि अने आ वायु आ (तमारु) मंदिर महल बाळे -तमारी राणीयो सहित अंत:पुर बळे छे तेने तमे केम नधी अपेक्षा करता? जे कंद वस्तु पोतार्नु होय तेनी संभाळ लेवी जोइए. जेम पोताना ज्ञानादिकनी अपेक्षा रखाय छे तेम अंतःपुर बळतुं होय तो ते तमारे जोवू जोइए. १२ ऐयमै निसामित्ता । हेऊकारणचोइओ॥ तओ नमिरायरिसी । देविदं इणमववो ॥१३॥ मूल-एवं अड) आ अर्थने (निसामित्ता) सांभळीने (तमओ) त्यारपछी (हेऊकारण चोइओ) हेतुना कारणधी प्रेरायला (नमी राय. रिसी) नमिराजा (देविंद्र) देवेंद्र प्रति [इर्ण अव्ववी) मा प्रमाणे बोल्या. १३ For Private and Personal use only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org । भाषांतर अध्ययन९ ॥५०॥ उत्तराध्य- व्या०--अस्या गाधाया अर्थस्तु पूर्ववत् , अयमेव विशेषः-नमिराजर्षिर्देवेंद्रस्य वचनं श्रुत्वा देवेंद्रप्रतीदमब्रवीत् , पन मूत्रम् He किमब्रवीदिखाह-- ॥५०९|| अर्थ-आ गाथानो अर्थ तो पूर्ववत् समजवो एटले-आ अर्थने सांभळीने ते पछी हेतु तथा कारण वडे पेरायेला नमिराजर्षि | देवेंद्रने आ प्रमाणे वचन बोल्या. विशेष एटलोज छे के-नमिराजर्षि देवेंद्रनुं वचन सांभळी देवेंद्र प्रत्ये आ वचन बोल्या. १३ । सुहं वैसामो जीवामो । जेसि मो नत्थि किंचणं । मिहिलाए डझमाणाए । ने मे डाई किंचणं॥१४॥ मूल-(सुह) सुखे करीने (वसामो) अमे पसीभो छीये अने (जीयाम) जीवीए छीये (जेसिभो) जे भमारु' (किवण') कांड पण धस्तु | (नस्थि) नथी. तेथी करीने (मिहिलाए) मिथिला नगरी (उजामाणीए) बळते सते [मे] मारु (कि'चण) कांइपण (न डज्झइ)बळतुं नथी. व्या०--भो प्राज्ञ! वयं सुखं यथास्यात्तथा वसामः सुखं तिष्टामः, सुग्वं यथास्यात्तथा जीवामः प्राणान् धारयामः, भो इत्यस्माकं किंचन किमपि स्वल्पमपि ज्ञानदर्शनाभ्यां विना परं किमपि स्वकीय नास्ति, यत्किचिदात्मीयं भवति तद्विलोक्यते, अग्निजलाधुपद्रवेभ्यो रक्ष्यते, यदात्मीयं न भवति तस्याथै केन खिद्यते? यदुक्तं-एगो मे सासओ अप्पा। नाणदंसणसंजुआ ।। सेसाणं बाहिरा भावा । सञ्चे मंजोगलक्खणा ॥१॥ तदेव दर्शयति-मिथिलायां नगर्या दह्यमाJE नायां मे मम किमपि न दह्यते, इति हेतोः सर्वेऽपि स्वजनधनधान्यादयः पदार्था मत्तोऽतिशयेन भिन्नाः, एतेषां विनाशे न चास्माकं विनाश इत्यर्थः ॥१४॥ نفنوفيامنا نيالانسان فحالمخالفيافيليكافحاقيقتاه For Private and Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-भो प्राज्ञ ! अमें सुखरूप वसिये छीए, मुखेथी स्थिति करीये छीए, सुखे करी जीविये छीए-माण धारण करी रह्या उत्तराध्य| छीए. जे अमारुं कइ स्वल्प पण (ज्ञानदर्शन विना) पर कंइ स्वकीय वस्तुज नथी; जे कंइ आत्मीय वस्तु होय तो तेने माटे नजर 126भाषांतर पन सूत्रम् अध्ययन रखाय अर्थात् अग्नि जलादिकथी तेने बचावा यत्न कराय; पण जे आत्मीय न होय तेने माटे कोण खेद करे? का छे के॥५१०॥ (एगो मे०) ज्ञानदर्शन संयुक्त मारो एक आत्माज शाश्वत छे शेष तो बधा बाह्य भाव पदार्थ संयोगलक्षण छे अर्थात् परस्पर संबंधथी ॥५१०॥ कल्पेला छे. ।।१।। एज दर्शाये हे- मिथिलानगरी दह्यमानचळवा मांडे तो पण तेमां मारुं कंद पण बळे नहि. आधी स्वजन | धनधान्यादि बधाय पदार्थो माराथी अतिशय भिन्न होवाथी एओनो विनाश थवाथी मारूं कंड पण विनष्ट यतुं नथी एम सूचव्यु.१४ | चत्तपुत्तंकलत्तस्स । निधावारस्स भिक्खुणो ॥ पियं न विजए किंचि । अप्पियपि न विजए ॥१५॥ BE मूल-(चत्तपुत्तकलत्तस) पुत्र परिवारने त्यजी दीधा छे. पवा [निव्वावारस्स खेती आदि व्यापार रहित पया [भिक्खुणो] भिक्षुने PET (किंचि) कांइपण (पि') प्रिय (न विजए) नथी तेमज (अप्पिषि) अप्रिय पण कांड [न विजय नथी. १५ व्या०--एतादृशस्य भिक्षोभिक्षाचरस्य प्रियमभियं च न किंचिद्विद्यते, कथंभूतस्य भिक्षोः? त्यक्तपुत्रकल त्रस्य, | त्यक्तानि पुत्रकलत्राणि येन स त्वक्तपुत्रकलत्रस्तस्य परिहतसुतभार्यस्य, पुनः कीदृशस्य? निर्व्यापारस्य, व्यापारानिर्गता नियापारस्तस्य निरारंभस्य पंचविंशतिक्रियारहितस्य. ॥१५॥ अर्थ-एवा भिक्षुने प्रिय के अप्रिय कंड होतुं नथी. केवाने? ते कहे के-त्यक्त के पुत्र तथा कलत्र-स्त्री-वगेरे जेणे एटले For Private and Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन मुत्रम भाषांतर अध्ययन ॥५१॥ ॥५११॥ स्वीपुत्रादिक परिहरीने भिक्षाचर वनेलो तथा निर्व्यापार; अर्थात् कशी प्रवृत्तिनो आरंभ न करनार एटले पचीश क्रियारहित बनेला साधुने कशु प्रिय के अप्रिय होतुंज नथी. १५ बहुं खु मुर्णिणो भैई । अणगारस्स भिक्खुणो ॥ सवओ विप्पमुक्कस्स । एग तमणुपस्सओ ॥१६॥ | मूल-(सव्यओ) सर्व परिग्रहथी (विष्पमुकस्स) विप्रमुक्त (एगत) हुपकलो (अणुपस्सओ) विचरता एवा, तथा (अणगारस्स) घर रहित पया मुणिणो) मुनिने (भिक्खुणो) भिक्षुक छतां (बहु खु) घणुज (भई) सुख छे १६ ___ व्या०--खु इति निश्चयेन मुनेः साधोबहुभद्रं प्रचुर सुख वर्तते, कथंमृतस्य मुनेः? अनगारस्य नियतवासरहितस्य, पुनः कीदृशस्य मुनेः? भिक्षया गृहीताहारस्य, किं कुर्वतो मुनेः? एकांतमनुपश्यतः एक एवाहमियतो निश्चय एकांतस्तं निश्चयं विचारयत एकत्वभावनां कथयतः, पुनः कीदृशस्य मुनेः? सर्वतः परिग्रहाद्विप्रमुक्तस्य. ॥१६॥ अर्थ-खलु-निश्चये मुनिने बहुभद्र, एटले घणुंज सुख होय छे, केवा मुनिने? अनगार=नियतस्थानके वास न करनार तथा भिक्षावडे आहार ग्रहण करनारा तेमज एकांतनु अनुदर्शन, अर्थात् हुँ एकलोज / आवा निश्चयनु अनुचिंतन राखनार अने सर्वपरिग्रहथी विशेषे करीने प्रमुक्त थयेला मुनिने बहु मुख होय छे. १६ एयम निसामित्ता ! हेऊकारणचोइओ ॥ तओ नाम रीयरिसिं। देविंदो इणमब्बवो ॥१७॥ मूल-पय मह] आ अर्थने (निसाभित्ता) सांभळीने [तो त्यारपछी (हेऊकारणचोइओ) हेतु अने कारथी प्रेरायला एवा (देविंदो) For Private and Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन ॥५१२॥ देवेन्द्र (नमि'रायरिसि] नमिराजाप्रत्ये (इण अव्यवी) आ प्रमाणे बोल्या. १७ उत्तराध्य व्या--इति नमिराजर्षेवचनं श्रुत्वा देवेंद्रः पुनर्नमिराजर्षिप्रतीदमब्रवीत्. ॥१७॥ पन मूत्रम् अर्थ-आ अर्थने सांभळी हेतु तथा कारण वडे प्रेरित एवा देवेंद्र नमिराजर्षि पत्ये आयु वचन बोल्या. १७ ॥५१२॥ पागारं कारयित्ताणं । गोपुरट्टालगाणि य ॥ उसुलगसयग्धोओ। तओ गच्छसि खत्तिया ॥१८॥ Kalमूल-(पागारं) किल्ला (गोपुरट्टालगाणि अ) दरवाजा, अने झरुखा [ओ सूलग] खाइ, (सयन्धीओ) मोटो तोप ए सर्वे (कारइत्ताणं) || करापाने (तो) त्यारपछी (खत्तिा ) हं क्षत्रिय! गच्छसि) तमे जाओ. १८ व्या-हे क्षत्रिय! ततः पश्चात्त्वं गच्छसि, दीक्षाथै गच्छेत्यर्थः, किं कृत्वा? पूर्व नगरस्य रक्षाथै प्रकारं कोर्ट कारG| यित्वा, पुनस्तस्य प्रकारस्य गोपुराणि प्रतोलीबाराणि कारयित्वा प्रतोलीकथनादेवार्गलासहितमहादृढकपाटानि कारयि| स्वा, पुनस्तस्य प्राकारस्याहालकानि च कारयित्वा, अहालकानि हि प्रकार कोष्टकोपरिवर्तीनि मंदरापगुच्छते. बुरजानामुपरिस्थगृहाणि संग्रामस्थानानि कारयित्वा, पुनस्तस्य प्रकारस्योसूलगेति ग्वातिका कारयित्वा, पुनस्तस्य प्राकारे शतघ्नीः कारयित्वा, शतघ्न्यो हि यंत्रविशेषाः, या हि सकृच्चालितापि शतसंख्याकान भटान् विनाशयति, दूरमारकुहकयाणारावादिपाषाणयंत्रादीन् कारयित्वा पश्चाद् ब्रजेः, अत्र हे क्षत्रियेति संबोधनमुक्तं, तेन क्षत्रियो हि रक्षाकरणे समर्थः स्यात, क्षतात्पहाराद्भयात् प्रायत इति क्षत्रियः यो हि क्षत्रियः स्यात्स पुररक्षांप्रति क्षमः स्यादिति हेतोः क्षत्रियेति RE संबोधनमुक्त. ॥१८॥ For Private and Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर उत्तराध्यपन मुत्रम ॥५१३॥ KAnmomemornmomenimamimro به الهيلا الا المجال الطالعقل البيان الهلال النفط العماليقطفنا अर्थ-हे क्षत्रिय! प्रथम प्राकार एटले नगरने फरतो रक्षणार्थ किल्लो करावीने बळी ते पाकार गढम्ने गोपुर जेमां भोगल सहित महोटां दृढ कमार होय तेवा दरवाजा कराचीने तथा ते पाकारने पाछा अट्टालक-किल्लामा योधाभोमे रहेवाना झरुखा तथा|HE | हथियार राखवाना कोठा-करावीने अने ते गढ़ने फरती उमूलगा खाइ कगवी ते किल्लामां शतघ्नी एकवार चलाववाथी एकीवखते | सेंकडो भटोनो विनाश करे तेवी जंजाळो गोठवानीने तेमज दूरथी मारवाना मोरचा तथा कपट रचनाना बाणशब्द करे तेवा पाषा | णना यंत्रो बनवावीने तत्पश्चाद् तुं दीक्षार्थे जाजे. अत्रे क्षत्रिय! ए संबोधन कडं ने उपरथी रक्षा करवा समथ क्षत्रियन होय एम जणाची जे क्षत्रिय होय तेज नगररक्षा करे तेथी क्षत्रिय संबोधन कयु. १८ एयम निसामित्ता। हेऊकारणचोइओ ॥ तओ नमी रायरिसी। देविंदमिणमब्बी १९॥ १९ गाथानो अर्थ तेरमी गाथा प्रमाणे समजी लेवो च्या०---इति देवेन्द्रवचः श्रुत्वा पुनर्नमिराजर्षिर्देवेन्द्रप्रतीदमब्रवीत्. ॥१९॥ अर्थ-आ अर्थने सांभळीने हेतु तथा कारण वडे प्रेरित नमिराजर्षि; ते पछी देवेन्दने आq बचन बोल्या. १९ सहं च नगरं किच्चा । तसंयममग्गलं ॥ खंतीनिऊणपागारं । तिगत्तं दुधंसगं ॥२०॥ ध" परकम किच्चा । ईरियं सया ॥ धिंइंच केयणं किच्ची । सच्चेणं पलिमंथए ॥२१॥ For Private and Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥५१४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तवनारायणजुत्तेणं । भित्तणं कम्म केंचुयं ॥ मुंणी विगर्येसंगामो भवाओ परिमुच्चई ॥२२॥ मूल - [सद च] श्रद्धाने (नगर) नगररूप (किश्चा) करीने तथा [तब संवर] बाह्य तपरूप संवरने (अग्गल) कमाडना आगरीया करीने तथा (खतोनिऊणपगारं) क्षांतिरूपी प्राकारने करीने (तिगुतं) त्रण गुलिवडे गुप्त एवो [दुध धंसगं] बीजाथी पराभव न माडी शकाय तेवो प्राकार करीने २० (परक्कम) पराक्रमने ( धणु) धनुषरूप (कच्चा) करीने (च) तथा (इरिअं ) इर्या समितिने [सया ] सदा [जीवं] जीवो= धनुषनी प्रत्यंचा रूप करीने (धिरं च धर्मपरनी रतिने (केअणं) केतनरूप (किच्चा करीने (सच्चेण) सत्यताथी (पलिम'थर) तैयार करते धनुषने बांधवु. २१ (तवनारायजुत्तेणं) तपरूपी बाणवडे युक्त एवा (कमकंचुअं) कर्मरूपी तरने (भिक्षूण) भेदीने [ विगयसंगामो ] कर्मरूपी संग्रामने जीतेला थवा (मुणी) साधु (भावओ) संसार थकी ( परिमुच्चर ) | मुक्त थाय छे, २१ व्या०-- तिसृभिर्गाधाभिरिंद्रवाक्यस्य प्रत्युत्तरं ददाति -- भो प्राज्ञ ! मुनिर्जिनवचनप्रमाणकृत्सा धुर्भवात्संसारात्परिमुच्यते, परि समंतान्मुक्तो भवति, मुक्तिसौरूपभाक् स्यात् कथंभूतो मुनिः? विगतसंग्रामः विगतः संग्रामो | यस्मात्स बिगतसंग्रामः, सर्वशत्रूणां विजयात्संग्रामरहितो जात इत्यर्थः स मुनिः किं कृत्वा विगतसंग्रामो जातस्तदाह श्रद्धां तत्वश्रवणरुचिरूपां समस्तगुणाधारभूतां भगवद्वचने स्थैर्यबुद्धि नगरं कृत्वा, तत्र श्रद्धानगरे उपशमवैराग्यविवेकादीनि गोपुराणि कृत्वेत्यनुक्तमपि गृह्यते, तपो द्वादशविधं, संयमं सप्तदशविधं, अर्गलाप्रधानं कपाटमपि अर्गला, ततो अर्गलाकपाटं कृत्वा, पुनस्तस्य श्रद्धानगरस्य क्षांतिं प्रकारं कृत्वा, क्षमां वमं कृत्वा कथं नृतं प्राकारं ? निपुणं | परिपूर्ण धान्यपानीयादिभिर्भृतं पुनः कथंभूतं प्राकारं ? तिसृभिर्गुप्तिभिर्गुप्तं रक्षितं, गोपुराहालकोत्सूलकखातिकास्था For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन‍ ॥५१४ ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य पन सूत्रम् ॥५१५॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नीयादभी रक्षितं पुनः कीदृशं प्राकारं ? दुःप्रधर्षिकं शत्रुभिर्दुराकलनीयं, पूर्वमिन्द्रेण प्राकारादीन् कारयित्वेत्युक्तं, तस्योतरमिदं ज्ञेयं. अधाधुना प्राकारादी संग्रामो विधेय इत्याह-- मुनिर्विगतसंग्रामः स्यात्, पराक्रमं क्रियायां वलस्फोरणं धनुः कृत्वा च पुनस्तस्य धनुषः सदा ईर्ष्यामियसमितिं जीवां प्रत्यंचां कृत्वा च पुनस्तस्य पराक्रमधनुषो धृतिं धैर्य धर्माभिरति केतनं श्रृंगमयं धनुर्मध्ये काष्टं मुष्टिस्थानं कृत्वा, तत्केतनं च स्नायुना दृढं बध्यते, इदमपि धैर्यकेतनं श्रृंगमयंधनुर्मध्यस्थकाष्टं सत्येन सत्यरूपस्नायुना पलिमंधए इति परिबध्नीयात्. पुनस्तप एवं नाराचा लोहमयो बाणस्तपोनाराचस्तेन युक्तं तपोनाराचयुक्तं, तेन तपोनाराचयुक्तेन तेन पूर्वोक्तेन पराक्रमधनुषा कर्मकंचुकं कर्मसन्नाहं भित्वा अत्र कर्मकंचुकग्रहणेन प्रबद्धकर्मवानत्मैवोद्धतः शत्रुः, स एव योधत्र्यः, तस्यैव कर्मकंचुकं कर्मसन्नाहं भेद्यमित्यर्थः कर्मणस्तु कंचुकत्वं तद्गतमिथ्यात्याविरतिकषायादयभाज आत्मनः श्रद्धानगरस्य रोधं कुर्वतो दुर्निवारत्यात्, कर्मकंचुकभेदात्तस्यात्मनो जितत्वात् जितकाशी जात एव, प्रकारं कारयित्वेत्यादि तस्य साधनता प्रोक्ता ||२२|| अर्थ-त्रण गाथा वढे इंद्रना वाक्यं प्रत्युत्तर आपे छे-भो माज्ञ! मुनि एटले जिनवचन प्रमाण करनार साधु, भव=ससारथी परि=सर्वतः मुक्त थाय छे मुक्ति सुखनो भागी बने छे. केवो मुनि? प्रथम तो श्रद्धा एटले तत्र श्रवण करवामां रुचिरूप, समस्त गुणोनी आधारभूत भगवद्वचनमां स्थिरता बुद्धिने नगर करीने, ते श्रद्धारूप नगरमां उपशम वैराग्य विवेकादिक गोपुर = दरवाजा करीने, (आटलं कथं नथी तो पण लेवानुं छे) तथा बार प्रकार तप अने सतर प्रकारना संयमने अर्गला=भोगळवाळां कमाड कल्पीने अने ते श्रद्धा नगरने क्षांतिरुपी प्राकार=कोट किल्लो =करीने, केवो गढ ? निपुण एटले धान्य जळ घास वगेरेथी भरेलो तथा ऋण For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन‍ ॥५१५ ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भाषांतर अध्ययनर गुप्ति अर्थात् अट्टालक, उत्मूलक तथा परिखा; ए त्रणने स्थाने मनोगुप्ति आदिक त्रण गुप्तिवडे रक्षित होइ दुःमधर्षक शत्रुओथी परा-30 उत्तराध्य भव न करी शकाय तेवं. २० पन सत्रम् अर्थ-प्रथम इन्हें 'माकारादिक करावीने' एम जे कहेल छे तेनुं आ उत्तर समजवू. हवे ए पाकारादिकमा संग्राम करवो एम का ॥५१६॥ | तेनुं निरुपण करे हे-पराक्रम-क्रियामां जोर देवू ते पराक्रम, ते रुपो.धनुष करीने, ते धनुष्नी, इदर्या आदिक पांच समि र तिने सदा जीवा-प्रत्यंचा (धनुषनी दोरी) बनावीने, अने धृति-धर्ममा अभिरति लक्षण धैर्य-ने केतन (धनुपना मध्यमां मृढ राखDE वानुं स्थान) करीने ए केतन स्थान शींगडाने अथवा काष्ठनु राखी तेने स्नायु-नांतवती दृढ बंधाय छे तेम आ केतनने पण सत्य रुपी स्नायु-तांत-वती परितः बंधन आपq. ए पराक्रमरुपी धनुष तैयार करी पछी तेने तपोमय नाराच लोढानां बाणथी युक्त | करी, अर्थात् तपरुपी बाण चढावी कर्मरुपी कंचुक बख्तर ने भदी; अहीं कर्म कवच जेणे बांध्युं छे एवो आत्माज शत्र छे ते | साथेज युद्ध करवान होवाथी तेनां कर्ममय कवचने भेदवानुं छे. कर्मगत मिथ्यात्व अविरति कषाय आदिकने सेवता आत्माना श्रद्धा नगरनो रोध करे हे तेथी कर्म ने कंचुकपणानो आरोप को छे. ए दुर्निवार कर्मकंचुकना भेदथी ते आत्मा जीतातां स्वयं जयवान् | थवाय छे ते माटे 'प्राकार कराववा' वगेरे तेनी साधनता कहेवामां आवी छे. ए साधन संपन्न थइ विगत संग्राम-शत्रु जीत्या पछी | संग्राम विराम पामतां-संसारथी मुक्त थाय छे. २२ एयमई निसामित्ता। हेऊकारणचोइओ। तओ नमिरायरिसिं । देविदो इणमब्बवी ॥२३॥ २३मी गाथानो १७मा गाथा प्रमाणे समजव., خلالها عن المعهد For Private and Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie उत्तराध्यपन सत्रम ॥५१७॥ व्या०-एतन्नमिराजर्षेर्वचनं श्रुत्वा देवेन्द्रो नमिराजर्षिप्रतीदमब्रवीत्. ॥२३॥ भाषांतर अर्थ-ओ अर्थने सांभळी हेतु तथा कारण वडे प्रेरायेला देवेन्द्र, नमिराजर्षि प्रत्ये आq बचन बोल्या. २३ अध्ययन पासाए कार्रइत्ताणं । वैद्धमाणगिहाणि य ॥ बालग्गपोइआओ य । तओ गच्छसि खत्तिया ॥२४॥ DEL॥५१७॥ मुल-(पासाए प्रासादो तथा (वद्धमाणगिहाणि अ) वर्धमान घरो (बालग पोइआओ) तथा बलभीओ-छापरा माळ विगेरे (कारताण) करावीने (तओ) स्यारपछी (खत्तिया) हे क्षत्रिय! (गच्छसि तमे जाओ. २४ व्या०--हे क्षत्रिय! ततः पश्चात्त्वं गच्छ? किं कृत्वा? प्रासादान कारयित्वा भूपयोग्यमंदिराणि कारयित्वा, पुन| वर्धमानगृहाणि, अनेकधा वास्तुविद्यानिरूपितानि वर्धमानगृहाणि कारयित्वा, बालाग्रपोतिकाच कारयित्वा वलभीः | कारयित्वा, गृहोपरि बंगलाराउटीप्रमुखाः कारयित्वेत्यर्थः अथवा बालाग्रपोतिका जलमध्यमंदिराणि कारयित्वा, षड| तुसुखदानि गृहाणि कारयित्वा पश्चाद गतव्यमित्यर्थः ॥२४॥ ___अर्थ-हे क्षत्रिय! मासाद राजाओने रहेवा योग्य महेलो-करावीने तथा वर्धमानगृह अनेक प्रकारे वास्तुशास्त्रमा वर्ण वेलां वर्धमानगृहो=करावीने तेमज बालाग्रपोतिका=आगळ नीकळती छाजलीवाळा रवेशदार बेठको अथवा वचमां पाणीना होजवाळां घरो अर्थात् छये ऋतुमा मुखदायक गृहो बनावीने ते पछी तमें जाओ. २४ एयम निसामित्ता ! हेऊकारणचोइओ॥ तओ नमी रायरिसी। देविंदमिणमब्बवी ॥२५॥ For Private and Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobarth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सत्रम् ॥५१८॥ गाथा २५मीनो अर्थ १३मी गाथा प्रमाणे जाणयो. भाषांतर व्या०--ततो नमिराजर्षिरिंद्रस्य वचनं श्रुत्वः देवेन्द्रप्रतीदमव्रतीत् ॥२५|| (आ टीकानो अर्थ अगाउ प्रमाणे) अध्ययन संसयं खलु सो कुणइ । जो मैग्गे कुणई घेरं ॥ जत्थेव गंतुमिच्छिजा । तत्थं कुविज सासयं ॥२६॥ ॥५१८॥ मूल-(जो) जे माणस [मग्गे] मार्गमा (घर') घर (कुण) करे छे (सो) ते माणस (बल) निश् [संसप] एवो सशय (कणा) करे | तेथी [जत्थेव] ज्यां (ग'तु) जवानी [इच्छिज्जा] इच्छा होष [तत्थ त्यांज [सासयं] पोतानो आश्रय (कुब्धिज्जा) करवो जोइए. २६ be ब्या--भोः प्राज्ञ! स पुरुषः संशयमेव कुरुते, यः पुरुषो मार्गे गृहं कुरुते, यो ह्येवं जानाति मम कदाचिद्रांछितपदे गमनं न भविष्यति, स एव मार्गे गृहं कुर्यात् , अत्र गृहकरणं तु मार्गप्रायमेव ज्ञेयं, यस्य तु गमनस्य निश्चयो | भवेत्स मार्गे गृहं न कुर्यादेव, अहं तु न संशयितः, मम संशयो नास्तीति हाद. सम्यक्त्वादिगुणयुक्तानां मुक्तिनिवासयोग्यत्वेन यत्रैव गंतुमिच्छेत्तत्रैव स्वाश्रयं स्वगृहं, अथवा सासयमिति शाश्वतमविनश्वर गृहं कुर्यादित्यर्थः ॥२६॥ ___ अर्थ-हे माज्ञ! जे पुरुष मार्गमां गृह करे छे ते पुरुष तो निश्चये संशयज करे छे. अर्थात् जे एम जाणतो होय के मारे वांछि- | | तस्थाने कोइ काळे जवाशे नहिं ए पुरुषज मार्गमां घर करे. अत्रे गृहकरण मार्ग जेवुज समजवानुं छे. जेने जावानो निश्चय हाय ते मार्गमां गृहज न करे. हुं कंइ संशयित नथी, केमके सम्यक्त्वादि गुणयुक्त पुरुषो मुक्तिनिवास योग्य होइ ज्यां जवाने इच्छे त्यांज | स्वाश्रय स्वस्थान करे, अथवा शाश्वत अविनश्वर गृह करी लीए थे. २६ For Private and Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन ॥५१॥ उत्तराध्य एयमढ़ निसामित्ता। हेऊकारणचोइओ ॥ तओ नमि रायरिसि । देविदो इणमब्बवी ॥ यन सूत्रम् २७मी गाथानो अर्थ १७मी गाथा प्रमाणे ॥५१९॥ व्या--ततः पुनर्देवेन्द्रो नमिराजर्वचनं श्रुत्वा नमिराजाप्रतीदं वचनमब्रवीत्.॥२७॥ (भा टीकानो अर्थ अगाउ मुजत्र) आमोसे लोमहारे य । गंठि भये य तकरे ॥ नगरस्स खेम काऊणं । तओ गच्छसि खत्तिया ॥२८॥ all मूल-(आमासे) लुटाराओने (लोमहारे) सर्वस्व खुचवी लेनाराोने [अ] तथा (गठिमेए) गांठ कापुओने (अ) तथा [तकरे] तस्कJt रना विनाशवडे (नगरस्स) नगरनु [खेम] क्षेम (काऊण) करीने [तओ] पछी (खत्तिा ) हे क्षत्रिय! (गच्छसि) तमे जाओ. २८ ... व्या०--हे क्षत्रिय! त्वं ततस्तदनंतरं गच्छेः, कि कृत्वा? नगरस्य क्षेमं कृत्वा, तन नगरे आमोषा लोमहाराः, च All पुनथिभेदास्तस्कराः खात्रपातका लुटाका विद्यते, तान् नगरान्निष्कास्य सुखं कृत्वा पश्चात्वया दीक्षा गृहीतव्या. | आमोषादयो धेते तस्कराणां भेदाः संति, आसमंतान्मुष्णति चोरयंतीत्यामोषाम्तानिवार्य, लोमहारास्ते उच्यते येडतिनिर्दयत्वेन परस्य पूर्व प्राणान् हत्वा पश्चाद् द्रव्यं गृह्णन्ति, ते लोमहाराः, लोना तंतुना पत्रमयपाशेन प्राणान् हरंतीति लोमहाराः पाशवाहकास्तानिवार्य, पुनर्गथिं द्रव्यग्रंथि घुघुरकत्रिकाक्षुरकादिप्रयोगेण भिदंति विदारयंतीति | प्रथिभेदास्तान सर्वान् तस्करान्निराकार्य नगरं तस्कररहितं कृत्वा पश्चात्परिव्रजेरित्यर्थः ॥२८॥ अर्य-तमें प्रथम आमोष लुटारा खातरपाडनारा, लोमहार-बाळनो बनावेलां दोरडांवती बीजाना प्राणने हरनारा अर्थात् पहेलां | Wwwwwws For Private and Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन इत्रम भाषांतर अध्ययन ॥५२०॥ ॥५२०॥ | मारीनाखीने पछी तेनुं सर्वस्व हरीलेनारा, तथा ग्रंथिभेदक एटले कातर छरा बगेरेथी लोकोनी गांठ तोडनारा गंठी छोडा, तस्क| रोने नीकालीने नगरनु क्षेम=निरुपद्रवता साधीने पश्चात् परिव्रज्या ग्रहण करो. २८ एयमé निसामित्ता । हेऊकारणचोइओ ॥ तओ नमिरायरिसी। देविंदमिणब्बवी ॥२९॥ २९मी गाथानो अर्थ १३मी गाथा प्रमाणे जाणवो. व्या० --तत एतद्वचनं श्रुत्वा नमिराजर्षिरिंद्रप्रतीदं वचनमब्रवीत्. ॥२९॥ (आ टोकानो अर्थ अगाउ प्रमाणे) ___ असई तु मेणुस्सेहिं । मित्थादंडो पर्युर्जए ॥ अकारिणोत्थे बझंति । मुच्चई कारगो जणो ॥३०॥ | मूल (असहं तु) अनेकवार (मणुस्सेहि) मनुष्योए (मिच्छादंडो) मिथ्या दंड [पजुजए] कराया छे. (अत्थ) आ जगतमा [अकारिणो] चोर्यादिक नहि करनाराओ पण (बझंति) बंधाय छे, (कारगो जणो) चौर्यादिक करनार मनुष्य (मुच्चद) मुकाय छे. ३० व्या-असकृद्वारंवारं मनुष्यमिध्या वृथैवापराधरहितेषु निरपराधजीवेष्वज्ञानादहंकारद्धा दंडः प्रयुज्यते, यतो पत्र संसारेऽकारिण आमोषादिक्ररकर्मणामकारो बध्यते, कारकाचामोषादीनां क्रूरकर्मणां करिश्च जना मुच्यते, अनेन तेषां तु ज्ञातुमशक्यत्वेन क्षेमकरणस्याप्यशक्यत्वं प्रोक्तं, यदिद्रियाण्यामोषतुल्यानि ज्ञेयानि, तान्येव जेयानि. अर्थ-अत्र=आ संसारमा असकृत वारंवार मनुष्योए मिथ्यादंडना प्रयोगो कराय छे. एटले के-निरपराध जोवोने अज्ञानथी अथवा अहंकारथी-दुराग्रहथी मिथ्यादंड देवाय के जेने लीधे कोइ कोइ वार अकारी-चोरी आदिक कर कर्म नहिं करनारा बंधाय छे For Private and Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir उत्तराध्य-36] अने कारक जन एटले खरेखरा चोरो वगेरे क्रूर कर्मोना करवावाला जनो मुक्त यद जाय छे, आ उपरथी जेम खरा चोर लुटारा | भाषांतर पन सत्रम | जाणवा अशक्य छे तेम तेनाथी लोकोनुं क्षेम पण दुष्कर छे एम सूचव्यु. आ विषयमा इन्द्रियोज लुटारा तुल्य होवाथी तेनेज अध्ययनर ॥५२१॥ जीतवाना छे. ३० DE॥५२॥ एयम निसामित्ता । हेऊकारणचोइओ ॥ तओ नमिरायरिसिं । देविंदो इणमब्बवी ॥३१॥ ३१मी गाथानो अर्थ १७मी गाथा प्रमाणे ___व्या०-एतन्नमिराजर्षेवनं श्रुत्वा देवेन्द्रो नमिराजर्षिप्रतीदमब्रवीत्. ॥३१॥ (आ टीकानो अर्थ अगाउ मुजब) जे के ई पत्थिवा तुझं । नो नमंति नराहिवा ॥ वेसे ते ठावइत्ताणं तओ गच्छसि खेत्तिया ॥ ३२ ॥ मुल-(नराहिया) हे नराधिप! (जे केह) जे कोर (पत्थिावा) राजाओ तुम्भ) तमने (न नमति) नमता न होय (ते) तेओने (बसे ठावरत्ताण') वश करीने (तमओ) त्यारपछी [खत्तिा ] हे क्षत्रिय! (गच्छसि) तमे जाओ. ३२ व्या०--हे क्षत्रिय! ये केचित्पार्थिवा नगराधिपतयो राजानस्तुभ्यं न नमति तान् भूपालान वश्ये स्थापयित्वा, ततो हे क्षत्रिय! त्वं गच्छ? ॥३२॥ ___ अर्थ--जे केटलाक पार्थिव. नराधिपो तमने नथी नमता तेओने वशमा स्थापित करीने अर्थात् तेओने वश करी नमाबीने ते पछी हे क्षत्रिय तमे जाओ. ३२ For Private and Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - उत्तराध्य पन सत्रम् सबसपार भाषांतर अध्ययन ॥५२२॥ DA- ॥५२२॥ -C एयम निसामित्ता। हेऊकारणचोइओ । तओ नमी रायरिसी। देविंदमिणब्बवी ॥३३॥ ३३ गाथानो अर्थ १३ गाथा प्रमाणे व्या०-ततो देवेन्द्रवचनानंतरं नमिराजर्षिर्देद्रप्रतीदमब्रवीत्. ॥३३। [आ टीकानो अर्थ अगाउ प्रमाणे] जो सहस्सं सहस्साणं । संगामे दुजाए जिणे ॥ एंगं जिणेजे अप्पाणं ऐसो से" परमो जैओ ॥३४॥ मल-(ओ) जे [जए दुर्जय एवा (संगामे) संग्रामने विषे [सहस्गण' सहस्स] लाखो सुभटीने (जिणे) जीते, ते करता जे (एग) एक (अप्पाण) आत्मानेज [जिणिज जीते (एस से) तो ते तेनो (परमो जओ) उत्कृष्ट जय छे ३४ __व्या०-यो मनुष्यः संग्रामे सुभटसहस्राणां सहस्रं जयेत्, कथंभूते संग्रामे? दुजये, अथवा कथंभूतं सुभटसहस्राणां सहस्रं ? दुर्जयं, दुःखेन जयो यस्य तद् दुर्जयं, यः कश्चिदेक एतादृशः सुभटः स्यात्, यः सुभटानां दश| लक्षं जयेत्, एकः पुनरेतादृशः पुरुषः स्याद्य आत्मानं दुष्टाचारे प्रवृत्तं तेन सह युध्येत, आत्माना सह युद्धं कुर्यादित्यर्थः. एष आत्मविजयः से इति तस्यात्मजयिनः परम उत्कृष्टो जयः प्रोक्तः, कोऽर्थः? यो ह्यात्मविजयी पुमान् भवति तस्य तस्य पुरुषस्य दशलक्षसुभटविजयिनः पुरुषान्महान् जयवादा, दशलक्षसुभटजेतुः सकाशादात्मविजयी पुमान् बलिष्ट इत्यर्थः ॥३४॥ अर्थ--जे मनुष्यसंग्रामने विषये दुर्जय-दुःखे जीताय एवा मुभट सहस्रोना सहस्रने जीते; अर्थात् एवो कोइ सुभट होय के ALBULUMUDDALULDLJuJana D - लिन समाच For Private and Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्सराध्यपन मृत्रम ॥५२३।। जे दश लक्ष सुभटोने जीते तेना करता जे कोइ एवो पुरुष होय के जे पोताना दुष्टाचारमा प्रवृत्त थयेला आत्माना साथे युद्ध करी|6भाषांतर एक आत्माने जीते ए तेनो परम-नाम उत्कृष्ट जय समजवो. दश लक्ष भटने जीतनार करतां आत्मजयी पुरुष अधिक बलवान छे अध्ययन अप्पाणमेव जुझाहि । किं ते जुज्झेण बझओ ॥ अप्पंणा एव अप्पाणं ॥ ज इता मुंहमेहऐ ॥३५॥ ॥५२३॥ (अप्पाणमेव) आत्मानी साथेज [जुज्झहि] तुं युद्ध कर (ते) तारे (वज्झओ) बाहा राजाओने आश्रयी [जुज्झेण] युद्ध करवा बडे (कि) शु फळ छे? केवळ (अप्पाणमेय) श्रात्मावडेज (अप्पाण) आत्माने (जइत्ता) जीतीने साधु (सुद्द पहए) मुक्ति सुखने पामे छे. ३५ व्या--अतो भो मुने! आत्मानमेव युध्ध्यस्व? याद्यशभिः सह युद्धेन ते किं? ततश्चात्मनैवात्मानं जित्वा मुनिः सुखमेधते पासोतीत्यर्थः, अत्रात्माशब्देन मनः, सर्वत्र सूत्रत्वानपुंसकत्वं, अतति गच्छतिप्रामोति नवीनानि नवीनान्यध्यवसायस्थानांतराणीयात्मा मन उच्यते. ॥ ३५ ॥ अर्थ-माटे हे मुने! आत्मानी साथेन युद्ध करो, बाहेरना शत्रुओथी युद्ध करी तमारे शु प्रयोजन सिद्ध करवानुं छे? तेथी आत्मावडेज आत्माने जीती सुखे वृद्धि पामे छे. अत्रे आत्मा शब्दे करी मन समजवान छे. 'सर्वत्र' ए मूत्रथी नपुंसकत्व छे. नवां नवां अध्यवसाय स्थानांतरोने 'अतति' माप्त थाय के आची व्युप्तत्ति होवाथी आत्मशब्द मननो पण वाचक होइ शके छे. ३५ पंचेंदियाणि कोहं । माणं मायं तहेव लोह य ॥ दुजयं चेवं अप्पाणं । संवर्मप्पे जिऐ जिं॥३६॥ मूल-(दुजय) दुर्जय एवा (पंचि दिआणि) पांडे इन्द्रियो, (कोह) क्रोध (माण') मान (माय') माया (तहेव) तथा (लोभच लोभ : الف الف الف الله الله الملك المملكه For Private and Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie भाषांतर अध्ययन ॥५२४॥ | (चेव) अने [अप्पाण'] दुर्जय एवु मन (सव्व) र सर्व (अप्पेजिए) आत्मा जीताये सते (जि) जीताया छे. ३६ उत्तराध्य- DEL व्या- भी प्राज्ञ! आत्मा मन एव दुर्जयं, तस्मिन्नात्मनि जिते सर्वमेतज्जितं. एतत्किं किं तदाह-पंचेंद्रियाणि, पन सूत्रम् च पुनः क्रोधो मानो माया, तथैव लोभश्चकारान्मिथ्यात्वाविरतिकषायादिकं, एतत्सर्वमरिचक्रमात्मनि जिते जित॥५२४॥ | मिति ज्ञेयं, यत्पूर्व ये केचित्पार्थिवा अनम्रा इत्युक्तं तस्योत्तरं प्रोक्तं. ॥३६॥ ____ अर्थ-ई प्राज्ञ! आत्मा मन एज दुर्जय छे, ए आत्मा जीतायो एटले पांचे इन्द्रियो, क्रोध, मान, माया, तेमज लोभ; आ| | सर्वे जीताया समजवां. गाथामा 'च' छे तेथी मिथ्यात्व अविरति कषाय इत्यादिक सघळ शत्रमंडळ एक आत्मा जीतायाथी जीताइ a गयेलु जाणी लेवु. ३६ पूर्व गाथामां देवेन्द्र 'जे केटलाएक अनम्र यार्थिवो छे' एम जे कयुं हतुं तेनुं उत्तर आ गाथाथी अपाय गयुं. एयम निसामित्ता । हेऊकारणचोइओ॥ तओ नीम रायरिसिं। देविंदो इणमब्बवो ॥३७॥ ३७ गाथानो अर्थ १७ मी गाथा प्रमाणे व्या--एतद्वचनं श्रुत्वेंद्रः पुनर्नमि राजर्षिप्रतीदमब्रवीत्. ॥३७॥ (आ टीकानो अर्थ आगळ प्रमाणे) | जइत्ता विउले जैण्णे भोइत्ता सैमणमाहणे ॥ दुचा भुच्चा य जट्टा य तेओ गच्छासि खेत्तिया ॥३८॥ मूल-(विउले) विस्तीर्ण एवा (जपणे) यशो (जात्ता) करावीने (समण माहणे) भ्रमण ब्राह्मणने (भोइत्ता) भोजन करावीने तथा (दया) दान भापीने तथा (भुथाय) पोते भोगो भोगवीने, तथा (जटाय) पोते यशो करीने (तो) त्यारपछी (वतिभा) हे क्षत्रिय! (गच्छसि) तमे जाओ. ३८ HALISAALTKAALAAMr For Private and Personal use only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य पन सूत्रम् ॥५२५॥ 兆毛毛兆兆 www.kobatirth.org व्या० - रागद्वेषयोस्त्यागं निश्चित्याथ जिनधर्मे स्थैर्य परीक्षितुमिंद्रः प्राह-भो क्षत्रिय ! ततः पञ्चात्वं गच्छ ? किं | कृत्वा ? विपुलान् विस्तीर्णान् यज्ञान् याजयित्वा विस्तीर्णान् यज्ञान् कारयित्वेत्यर्थः श्रमणब्राह्मणान् भोजयित्वा | पश्चाच्छ्रमणब्राह्मणादिभ्यो गवादीन् दत्वा च पुनर्भुक्त्वा शब्दरूपरसगंधस्पर्शादिविषयान् भुक्त्वा राजर्षित्वेन स्व| यमेव यागानिष्ट्ा पज्ञानश्वमेधादीन कृत्वा यत्प्राणिनां प्रीतिकरं स्यात्, तद्धर्माय स्यात्, यथाऽहिंसादि, तथामृनि यजापन भोजनदान भोगयजनादीनि धर्माय स्युरित्यर्थः ॥ ३८ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - पूर्वना प्रश्नोवडे नमिमां राग तथा द्वेषना त्यागनो निश्चय जाणी हवे जिनधर्ममां तेनी निष्ठानी परीक्षा करवा माटे इन्द्र बोले छे हे क्षत्रिय ! विपुल यज्ञोनां यजन करात्रीने तथा श्रमण ब्राह्मणोने भोजन करावीने अने ए श्रमण ब्राह्मणोने गायो भूमि सुवर्ण इत्यादिक दान दइने ते साधे पोते पण शब्द, स्पर्श, रूप, रस गन्धादि विषयोने यथेष्टते भोगवीने ते पछी तमे जाओ = | प्रव्रज्या ग्रहण करो. राजर्षि होवाथी पोते जाते अश्वमेघादियाग कराय पण जे प्राणिने प्रीतिकर होय ते धर्मार्थ गणाय तेथी अहिंसादि लक्ष्य राखी आ यज्ञ कराववा, भोजन कराववा, दान देवा, भोग भोगववा, ए सकळ प्रवृत्ति धर्मरूप मनाय. ३८ एयमहं निसामित्ता । हेऊकारणचोइओ ॥ तओ नमिरायरिसी । देविंद मिणमब्बवी ॥ ३९ ॥ ३९ गाथानो अर्थ तेरमी गाथा प्रमाणे समजी लेवो. व्या० - ततः पुनर्नमिराजर्षिर्देवेन्द्रप्रतीदमब्रवीत् ||३९|| ( आ गायानो अर्थ आगळ प्रमाणे ) For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन‍ ॥५२५॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य पन सूत्रम् ॥५२६॥ www.kobatirth.org जा सहस्सं सहस्साणं । मासे मासे गवं दए ॥ तस्सावि संजमो सेओ । अदितस्सवि किंचणं ॥४०॥ मूल - [जो] जे मनुष्य (मासे मासे ) महिने महिने [सहस्साण' सहस्सं] दश लाख (गव) गायो' [द] दान आपे [तस्सवि] तेने पण (किंचण अदित सवि) कांड पण दीधा विना [संजमो सभ] अहिंसादिक संयम अंगीकार करवा. ४० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्या०-यो गवां सहस्राणां सहस्रमर्थादशलक्षं गवां मासे मासे दाने पात्रेभ्यो दद्यात्तस्यैवंविधस्य गवां दशशतसहस्रदायकस्यापि तस्माद् गवां दानात्साधोः संयम आश्रवादिभ्यो विरागः श्रेयानतिशयेन प्रशस्यः, अब साधोरिति पदमध्याहार्य. कीदृशस्य साधोः? किंचित्स्वल्पं वस्त्वप्यददानस्यादातुरित्यर्थः ॥४०॥ अर्थ - जे पुरुष महिने महिने गायना सहस्रनुं पण सहस्र- एटले दश लक्ष गायों सत्पात्रें दान करे ते दश लाख गोदान | करनारना करतां कंड़ पण गाय वगेरेनुं दान न करनारनो संयम = अहिंसादि - ( आश्रवादिकथी विराग ) श्रेयान्धारे प्रशस्त छे. अत्रे साधु पदनो अध्याहार करवानो छे, अर्थात् कंइ स्वल्प वस्तुनुं पण दान न करनार संयमवान् साधु श्रेष्ठ . ॥४०॥ एयमहं निसामित्ता । हेऊकारणचोइओ ॥ तओ नमिं रायरिसिं । देविंदो इणमब्बवी ॥४१॥ ४१मी गाथानो अर्थ १७मी गाथा प्रमाणे समजयो, व्या- एतत्पूर्वोक्तमर्थ श्रुत्वा नमि राजर्षिप्रति देवेन्द्रः पुनरब्रवीत्. ॥४१॥ अथ चतुर्णामाश्रमाणां मध्ये प्रथमं गृहस्थाश्रममेव वर्णयति, प्रवज्यादाय च परीक्षयति- For Private and Personal Use Only 毛毛毛美毛毛洗毛毛毛孔张 भाषांतर अध्ययन‍ ॥५२६॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥५२७॥ अर्थ-आ पूर्वोक्त अर्थ सांभळी हेतु कारण प्रेरित एवा देवेन्द्र नमिराजर्षि प्रत्ये आम वचन बोल्या. ४१ भाषांतर हवे चारे आश्रमोना मध्यमां प्रथम गृहस्थाश्रमने वर्णवे छे अने ते साथे प्रवज्यानी दृढतानी परीक्षा पण करे छे. अध्ययन घोरासमं चईत्ताणं । अन्नं पच्छेत्थि आसमं ॥ इहैव पोसहरओ। भवाहि मणुआहिव ॥४२॥ ॥५२७॥ 6 मूल-(घोरासम) गृहस्थाधमनी (चात्ताण') त्याग करीने (अन्न आसम) बोजा चारित्र आश्रमने पित्थेसि] तमो सेयो छो, तेशु |JE योग्य छे! [मणुआहिवा] हे राजा! (इहेव) आ संसारमा रह्या थका तमे (पोलहरओ] पौषा वतमां रक्त [भवाहि] थाओ. ४२ व्या-भो मनुजाधिप! घोराश्रमं गृहस्थाश्रमं त्यक्त्वान्यं भिक्षुकाश्रमं प्रार्थयसि,घोरो हीनसत्वेनरोदुमशक्य, आ श्रम्यते विश्रामो गृह्यते यस्मिन् स आश्रमः, आश्रमाश्चत्वारः-ब्रह्मचारिगृहिवानप्रस्थभिक्षुरूपाः, तत्र गृहिणामाश्रमो हि दुरनुचरः पालयितुमशक्यस्तं परित्यज्यान्यमपरं हीनबलानां कातराणां सुखेनोदरभरणकरगसमर्थ भिक्षुणामाश्रम वांछसि. यत उक्तं--गृहाश्रमसमो धर्मो । न भूतो न भविष्यति ।। पालयति नराः शराः । क्लीवाः पाखण्डमाश्रिताः ॥शा सुर्वहं परिज्ञाय । घोरं गार्हस्थ्यमाश्रमं । मुंडननजटावेषाः । कल्पिताः कुक्षिपूर्तये ॥२॥ सर्वतः सुंदरा भिक्षा । रसा यत्र पृथक् पृथक् ।। स्यादैकयामिकी सेवा । नृपत्वं साप्तयामिकं ॥३॥ तस्मादिदं कातराणामाचरितं भवादृशानां शराणांन योग्यमिति हार्द. इहैवात्रैव गृहस्थाश्रमे पौषधे रतश्चतुर्दशीपूर्णिमोद्दिष्टामावास्याष्टम्यादितिथिषूपवासादिरतो भव ? अणुव्रतोपलक्षणं चैतत् , अस्योपादानं पर्वदिनेष्ववश्यं तपोऽनुष्टानख्यापकं, यद्यद् घोरं दुष्करं तत्तद्धर्मार्थिना | नरेणानुष्टेयं. यथानशनादीत्यंतर्गतहेतुकारणे स्वयमेव ज्ञेये. ॥४२।। For Private and Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्यापन ॥५२८॥ ___अर्थ-हे मनुजाधिप घोर एटले मुश्केलीथी पाली शकाय एवा गृहस्थाश्रमने त्यजीने अन्य=भिक्षुकाश्रमनी प्रार्थना=चाहना उत्तराध्य फरो छो? घोर एटले मनोबळ हीन पुरुषोए न नभावी शकाय एवो आश्रम, अर्थात् जेमा विश्राम लेबाय एवो अवस्था विशेष ब्रह्मपन सत्रम् चारी गृहस्थ वानप्रस्थ तथा भिक्षुः ए चार आश्रमो छे तेमां गृहस्थाश्रम पालन दुष्कर छे तेनो त्याग करी चतुर्थ आश्रम-भिक्षुदशा ॥५२८॥ हीनवल तथा व्हीकण जनो सुखे उदर भरण करवा माटे स्वीकारे-कडं छे के-( अत्रे-गृहाश्रम० इत्यादि त्रण श्लोकोना अर्थ ) अर्थ-गृहस्थाश्रम समान धर्म थयो नथी तेम थशे पण नहि, एतो खरा शूर नरो पाले छे अने पुरुषार्थ ही जनो पाखंडनो आश्रय ले छे JE|१ सामर्थ्य विनाना जनी गृहस्थाश्रमने नभाववानुं दुष्कर जाणी पेट भरवा माटे मुंड नग्न अथवा जरा धारण जेवा वेष कल्पे छे. २ भिक्षा तो सर्व प्रकारे मुंदर गणे छे कारण के जेमां नाना प्रकारना रस होय, अने ते मात्र एक पहोरनीन सेवा छे, अने बाकीना सात पहोरनुं राजा पणुं भोगववानुं होय छे. ३ तेथी एतो कातरजनोनुं काम छे, तमारा जेवा शूर नरने ए योग्य नथी. माटे आ गृहस्थाश्रममांज रहीने पौषधरत चतुर्दशी पूर्णिमा अमावास्या अष्टमी इत्यादि तिथियोमा उपवासादि तो करवामां तत्पर थाो. अणुव्रतोतुं पण आ उपलक्षण छे एटले आ वचन पर्वदिने अवश्य तपोनुष्ठान ध्यापक छे. जे दुष्कर होय ते धर्मार्थी नरे करवू, | जेवा के अनशनादिक आ अतर्गत हेतु छे. ४२ एयम निसामित्ता। हेऊकारणचोइओ ॥ तओ नमिरायरिसी । देविंदमिणमब्बवी ॥४॥ ४३मी गाथानो भर्थ १३मी गाथा प्रमाणे । For Private and Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उतराध्य पन सूत्रम् ।। ५२९ ।। 雅儿并 www.kobatirth.org व्या-अथ नमिराजर्षिर्देवेंद्रप्रति गृहस्थाश्रमाद्भिनुकाश्रमेऽधिकलाभं दर्शयनि, धर्मव्यापाररो अधिक लाभदृष्टिर्भवेत. अर्थ - ए अर्थने सांभळीने हेतु कारण प्रेरित नमि राजर्षि, ते पछी देवेन्द्रने आ आ वचन बोल्या. ४३ अहिं नमिराजर्षि देवेन्द्र प्रत्ये गृहस्थाश्रम करतां भिक्षुकाश्रममां अधिक लाभ दर्शावे छे केमके जे धर्मव्यापार परायण थ ए देखीतोज अधिक लाभ छे. मासे मासे जो बालो । कुसंग्गेणं तु भुंजए || नें सो सुअक्खायधम्मस्स । कैलं अग्इ सोलसिं ॥ ४४ ॥ मूल- (जो बालो) जे बाळक (मासे मासे उ) महिने महिने (कुसग्गेण तु) कुशना अग्रभाग पर रहे तेटलुंज (भुंजप) भोजन करे (सो) ते माणस (सुअक्खायधम्मस्स) सारी रीते प्ररूपेलो के धर्म एवा मुनिती (सोलसि) सोळमी कळाने पण (न अग्घइ) लायक थाय नहि. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्या-यः कश्चिद्वालो निर्विवेकी नरो मासे मासे कुशाग्रेणैव भुंक्ते, न तु करांगुल्यादिना भुंक्ते, या यः कश्चियावद्भोजनादि कुशस्य दर्भस्याग्रेऽधितिष्टति तावदेव भुंक्ते, अधिकं न भुंक्ते, अल्पाहारी स्यादित्यर्थः अथवा यो बालोऽज्ञानी मासे मासे कुशाग्रेणैव भुंक्ते, कुशाग्रेणाहारवृत्तिं कुर्यात्, अन्नं न किमपि भुंक्त इत्यर्थः एतादृक्कष्टकारी, सोऽपि स्वाख्यातधर्मस्य षोडशीमपि कलां नार्घति न प्राप्नोति, सुष्टु निरवद्यमाख्यातः स्वाख्यातस्यस्तस्य स्वाख्यातस्य | जिनोक्तस्य संयमधर्मस्य चारित्रस्य यः षोडशो भागस्तत्सुत्योऽप्पज्ञानी लाभालाभस्याज्ञः कुशाग्रभोजी न स्यादित्यर्थः. तस्माद् गृहे तिष्टतस्तपः कुर्वतो बालस्य यथाख्यातचारित्र पालकस्य साधोर्महदंतरं गृह्यतीवधर्मात्मा भवति, तथाति For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन‍ ॥५२९॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobarth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie भाषांतर अध्ययन ॥५३०॥ JE सर्वसावद्यत्यागी न भवति, देशविरत एव स्यात्, तस्मात्सर्वनिरवद्यत्वाजिनोक्तत्वान्मोक्षार्थिना निरवद्यधर्म एवासउत्तराध्य यणीयः, साबधस्तु नाश्रयणीयः, आत्मघातादिवत् ।'४४|| यन सूत्रम् अथे-जे कोइ बाल निर्विवेकी नर, महीने महीने गात्र कुशाग्र बडे भोजन करे. अर्थात् महिनाना अपवास करी दभना अग्र ॥५३०॥ a उपर चडे एटलं अन्न लइ पारणा करे; अथवा कुशाग्रथीज आहार वृत्ति करे, अन्नादिक कंइन लीये अधवा अल्पाहारी रहेएका कष्ट वेठनारो पण, स्वारख्यात धर्म, एटले सम्यक रीते निरवद्य कथेला जिनोक्त-संयम धर्मनी पोडशी सोळमी कलाने अर्घतो नथी. माटे गृहमा रहेतो लाभ अलाभने न जाणनार नर तथा यथोक्त चारित्रने पालनार साधु; आ मां महोड़े अंतर छे. भले गृहस्थ | अत्यंत धर्मात्मा होय घरमा रही तप करतो होय तथापि सर्व सावध सदोष नो त्यागी नथी होतो वहु तो देशविरती होय. माटे सर्वथा निरवध तथा जिनोक्त होवाथी मोक्षार्थी ए निरवध धर्मज आश्रयणीय छे. जे दुष्कर होय ते आदरणीय होय तो आत्मघात | पण दुष्कर होइ आश्रयणीय थाय माटे निरवद्य होय आदरचा योग्य छे, सावधनो सर्वथा आश्रय लेवो अयोग्य छे. ४४ एयमढ़ निसामित्ता। हेऊकारणचोइओ ॥ तओ नमी रायरिसिं । देविंदमिणमब्बवी ॥४५॥ ४५ गाथानो अर्थ १७ गाथा प्रमाणे. व्या०-ततः पुनर्नमिराजर्षिप्रति देवेंद्र इदमब्रवीत्. ॥४५॥ (आ टीकानो अर्थ आगळ मुजब) हिरण सुवणं मणिमुत्तं । कसं दूसं च वाणं ॥ कोसं वढावइत्ताणं । तओ गच्छसि खेत्तिया ॥१६॥ For Private and Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्यपन ॥५३१॥ उत्तराध्य-100 नूल-(हिरण्ण') घडेलु सोनु [सुवाण] घड्या विनानु सोनु (मणिमुत्त] मणिओ, (कस) कांसु (दूसंच) विविध जातिना वस्त्रो (बाहणं) यन सूत्रम २६ वाहनो तथा [कोस] खजानो (बढावहत्ताण) तेमा वृद्धि करीने (तओ) पछी (खत्तिमा) हे क्षत्रिय! (गच्छसि) तमे जाओ=मुनि थाओ. ॥५३१॥ व्या-अथ द्रव्यलोभत्यागं परीक्षितुमाह-हे क्षत्रिय! हिरण्यं घटितस्वर्ण, सुवर्णमघटितं, मणयश्चंद्रकांताथा इंद्रनीलाद्या वा, मुक्तं मुक्ताफलं, कांस्य कांस्यभाजनादि, दुष्यं वस्त्रादि, वाहनं रथाश्वादि, कोशं भांडागारादि, एतद् वृद्धि प्रापय्य वर्धयित्वा ततस्त्वं दीक्षायै गच्छ? अवायमाशयः-योअरिपूर्णेच्छो भवति स धर्मानुष्ठानयोग्यो न भवति. | यथा मर्मणोऽपरिपूर्णेच्छो हि भवान् साकांक्षो भविष्यति. ॥४६॥ ___अर्थ-हवे द्रव्य लोभनो त्याग कर्यो छे के केम? तेनी परीक्षा करवा माटे देवेन्द्र कहे छे-हे क्षत्रिय! हिरण्य एटले सोनाना | घडेला दागीना तथा सुवर्ण घाट घडेला विनानुं सोनु, मणि एटले चन्द्रकान्त नीलमणि इत्यादिक रत्नो, मुक्त मोती, कांस्यनां पात्रो तथा दृष्य-वसादिक, वाहन रथ घोडा वगेरे अने कोश-द्रव्यभंडार; इत्यादिनी वृद्धि करावीने ते पछी तमे दीक्षा लेवा भले | जाओ. अत्रे एवो अभिप्राय छे के-जे पोतानी इच्छाओ परिपूर्ण कर्या विना त्यागी थाय ते धर्मानुष्ठान योग्य नथी थतो. तमे हजी सुवर्णादि पदार्थोमा आकांक्ष होवाथी ए पदार्थोने खूब वृद्धिंगत करीने पछी मुनि थाो. ॥४६॥ एयमढ निसामित्ता। हेऊकारणचोइओ ॥ तओ नमिरायरिसी। देविंदइणमब्बवी ॥४७॥ ४७ गाथानो अर्थ १३मी गाथा प्रमाणे For Private and Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य घन सूत्रम् ॥ ५३२॥ www.kobatirth.org (आ टीका नो अर्थ अगाउ मुजब ) सुर्वण्णरूपस्स उ पवया भवे । सिया हुँ केलाससमा असंख्या ॥ नेरेंस लुद्धस्स ने तेहिं किंचि" । इच्छा हूँ आगाससमा अनंतिया ॥४८॥ पुढची साली जवा चे । हिरेपणं पसुभिस्सेह पंडिपुराणं नालमेगस्स । ईई विजी तेरे ॥४९॥ व्या० तत एतद्वचनं श्रुत्वा नमिराजर्षिरिद्रप्रतीदं वचनमब्रवीत्. ॥४७॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूल - [सुवण्णरुपस्स उ ] सुवर्ण अने रुपाना (सिभा) कदाचित् (कैलास समा हु) कैलास-मेरुपर्वत जेवडाज (असंखया) अलंख्य (a) पर्वत [भ] होय (तेहि) ते वडे [लुद्धस्स नरस्स] लोभी मनुष्योने (किंचि न) जरा पण तृप्ति थती नथी. (हु) कारण [इच्छा] मनुष्यनी इच्छा [आगाससभा] आकाश तुल्य [अणतिआ] अनंती होय छे. ४८ (पुढवी) समग्र पृथ्वी (साली) डांगर विगेरे (जवा) जब (चेव) तथा बोजां धान्यो, [पसुभिस्सह] तथा सर्व पशुओ सहित (हिरण्ण) तमाम सुवर्ण (पडिपुण्ण) समस्त वस्तुओं (एस्स) एकनी तृप्ति माटे (नाल) समर्थ थती नधी [इह विजा] एम जाणीने [तव चरे] बारे प्रकार तप करवो. ४९ व्या- सुवर्णस्य तु पुना रूप्यस्य चासंख्यका बहवः कैलाशसमा अत्युच्चाः स्युः, कदाचित् हु यस्मात्कारणात्प| र्वता भवेयुस्तदापि लुब्धस्य लोभग्रस्तनरस्य तैः कैलाशपर्वतममाणैः स्वर्णरूप्यपुंजैर्न किंचिदित्यर्थः, लोभवतः पुरुषस्य कदापीच्छापूर्तिर्न स्यात्. हु इति निश्वयेनेच्छाकाशसमा अनंतिका पारा. ||४८ || पुनरिच्छाया एवं प्राबल्यमाह - पृथिवी समुद्रांता, शालयः कलमषाष्टिक्यलोहितदेव भोज्यादयस्तंडुलाः, यवधान्यानि च शब्दादन्यान्यपि गोधूममुद्गादीनि For Private and Personal Use Only 兆兆毛毛挑毛兆龍龍北美 भाषांतर अध्ययन९ ॥ ५३२॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन९ ॥५३३॥ उत्तराध्य- हिरण्यं सुवर्ण घटितदीनारादिद्रव्यं हिरण्यग्रहणेन ताम्रकस्थीरादिधातवः, पशुभिर्वाश्वगजखरौष्ट्रादिभिः सह प्रति- यन सूत्रम् । पूर्ण समस्तं, एवमेकस्य पुरुषस्येच्छापूर्तये नालं न समर्थ भवति. 'इई' इत्येतद्विदित्वा साधुस्तपश्चरेत्साधुस्तपः कुर्यात् ॥५३३॥ २ इच्छानिरोध एव तपस्तद्विदध्यात्. तपसैवेच्छापूर्तिः स्यात्, तथा च सति साकांक्षत्वमसिद्धं, संतुष्टतया मम चाकां क्षणीयवस्तुन एवाभावात्. ॥४९॥ ___अर्थ-सुवर्ण तथा रुपानां कदाचित् , कैलास समा असंख्य पर्वतो होय तो पण तेनाथी लुब्ध नरने किंचित् जरा पण यतुं नथी ३६ अर्थात् इच्छा पूर्ति निश्चये नथी थती. कारणके आकाश समी इच्छा अनंत छ. ४८ पुनरपि मनुष्यनी इच्छानी प्रचलता तथा अनंतता दर्शावे छे. अर्थ-सागरान्त समग्र पृथिवी, शालि-कलम, पाष्टिक्य, लोहित, देवभोजय; इत्यादि जातना चोखा, यवधान्य, च शब्द छे ते उपरथी बीजा पण घउ मग वगेरे धान्यो, हिरण्य घडेलां द्रव्य तरीके लोकमां वपराती सोनामहोरो तेमज ताम्र कथीर वगेरे बीजा धातुओ, ते साथे घोडा हाथी गधेडा उंट आदिक पशुओ; आ समस्त प्रतिपूर्ण पदार्थो एक पुरुषनी पण इच्छा पूर्ण करवामां समर्थ नथी; एम जाणीने साधु तपश्चरण करे, केमके इच्छा निरोध करवो एज तप छे, तप बडेज इच्छापूर्ति थाय अन्यथा न थाय आ उपरथी आकांक्षत्व असिद्ध देखाडयु. सर्व प्रकारनो संतोष होवाथी मारे आकांक्षा करवा योग्य कोइ वस्तुज छे नहि आवो आशय दर्शाव्यो ।। ४९ ॥ For Private and Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन९ ॥५३४॥ एयमई निसामित्ता । हेऊकारणचोइओ ॥ तओ नमिरायरिसिं । देविंदो इणमब्बवी ॥५०॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् __५० गाथानो अर्थ १७ मी गाथा प्रमाणे व्या०-अथ पुनर्नमि मुनिप्रति देवेंद्र इदमाह. ॥५०॥ (आ टीकानो अर्थ अगाउ मुजब) ॥५३४॥ अच्छेरंगमन्भुयए । भोए चयसि पस्थिवा ॥ असंते कामे पत्थेसि । संकप्पेण विहण्णसि ॥५१॥ मूल-(पत्थिवा) हे राजा! (अच्छेरग') आश्चर्य छे के (अम्भुदए) अद्त पवा (भोप) छता भोगोने (चयसि) तमे तजो छो, अने (असते) अछता (कामे) कामभोगनी (पत्थेसि) प्रार्थना करो छो. (सकप्पेण) संकल्प बडे (विहण्णसि) तमे हणाओ छो. ५१ व्या०--हे पार्थिववैतदाश्चर्य वर्तते, यत्वमेवंविधोऽप्यदभुतान रमणीयान् भोगान त्यजसि, भोगत्यागाचासतोऽविद्यमानानप्रत्यक्षान् कामान् विषयसुखानि स्वर्गापवर्गसौख्यानि प्रार्थयसे, एतदप्याश्चर्य. अथवा तवात्र को दोषः? अतिलोभस्य विजृभितमेतदलब्धप्रधानप्रधानतरभोगसुखाभिलाषरूपेण विकल्पेन विहन्यसे, विवाध्यसे. अदृष्टस्व र्गापवर्गसुखलोभेन प्रत्यक्षाणि भोगसुखानि त्यक्त्वा पश्चात्तापेन त्वं पीड्यसे इत्यर्थः. यःसद्विवेको भवेत्स लब्धं वस्तु त्यक्त्वाऽलब्धवस्तुनि साभिलाषो न स्यात्. ५१॥ ____अर्थ-हे पार्थिव ! आ तो आश्चर्यक छे के तमे आवा (राजा) होवा छतां अद्भुत रमणीय भोगोने त्यजो छो; अने असंते ३. एटले हजी जेनुं अस्तित्व नथी एवा=अविद्यमान अप्रत्यक्ष स्वर्गादि कामभोगनी मार्थना-चाहना करो छो ए पण आश्चर्य छे. अथवा For Private and Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥ ५३५॥ www.kobatirth.org एमां तमारो शो दोष? ए तो अति लोभनोज परिणाम छे. न प्राप्त थयेला भोग सुखना अभिलाष रूप विकल्प बडे विहत थाओ छो | बाधित बनो छो. अर्थात् अदृष्ट स्वर्गापवर्ग सुखमां लोभाइ प्रत्यक्ष राज्यभोगोनां सुखोने त्यजी पश्चात्तापथी पीडाशो. केमके जे विवेक | बुद्धिवाको होय ते लब्ध वस्तु त्यजीने अलब्ध वस्तुमां अभिलाष न करे. ५१ एयमहं निसामित्ता ! हेऊकारणचोइओ ॥ तओ नमी रायरिसी । देविंदमिणमब्बवी ॥ ५२ ॥ ५२ गाथानो अर्थ १३मी गाथा प्रमाणे व्या० - ततः पुनर्नमिराजर्षिर्देवेंद्रप्रतीदमब्रवीत् ॥५२॥ ( आ टीकानो अर्थ अगाड प्रमाणे) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सेल्लं कामा विर्से कामा । कामा आसीविसोवमा ॥ कामा पत्थमाणा य । अकामा जंति" दुग्गेई ॥ ५३ ॥ मूल - (कामा) शब्दादिक काम भोगो (सल्लं) शल्यरूप के, (कामा) कामो (विसं) विष जेवां छे अने (कामो) कामो (असीविसोवमा) सर्पनी उपमावाला (कामे पत्थे माणा ) कामोनी स्तुति करता छता प्राणीओ (अकामा) ते कामनी प्राप्ति रहित ( दुग्गइं जंति ) | दुर्गतिमां जाय छे. ॥५३॥ व्या०-- एते कामा विषया विविधबाधाविधायित्वाच्छल्यं शल्यसदृशा देहमध्यप्रविष्टत्रुटित भल्लितुल्याः, प्रतिक्षणं पीडोत्पादकाः पुनः कामा विषं विषसदृशाः, यथा विषं तालपुटादि भक्षितं सन्मरणोत्पादकं, तथा कामा अपि धर्मजीवितविनाशका मुखे मधुरत्वमुत्पाद्य पश्चान्मरणमुत्पादयंति दारुणत्वात् पुनः कामा आशीविषोपमाः, For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन ९ ॥५३५|| Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir J आशी दाढाविषं येषां ते आशीविषाः सास्तेषामुपमा येषां ते आशीविषोपमाः सर्पसदृशाः, यथा सर्पदष्टा जीवा उत्तराध्यनियंते तथैव कामेर्दष्टा जीवा भियंते. यथा हि फणामणिभूषिताः सर्पाः शोभना दृश्यते, स्पृष्टाश्च विनाशाय स्युः, JE भाषांतर यन सूत्रम् अध्ययन एतादृशान् कामान प्रार्थयतो जना दुर्गति यांति. कीदृशा जनाः? अकामाः, कामसुग्वामिलापं वांछतोऽप्यलभमाना ॥५३६॥ अप्राप्तमनोरथाः कामिनो नरकादो व्रजति, तस्मादेते प्रत्यक्षं सुखोत्पादका अपि कामाः कष्टदायकत्वात्संयमधर्मश्च ॥५३३॥ सकलकष्टहरत्वाविवेकिभिः कामास्त्याज्याः, संयमो ग्राह्य इति हार्द.॥५३॥ अथ कथं दुर्गति यांतीत्याह अर्थ-आ काम-विषयामिलापो-विविधमकारनी बाधाओ आपनार होवाथी शल्य जेवा छे. जेम देहमां अंदर प्रविष्ट यइने त्रुटी गयेल भालानुं फळु अति पीडाकर थाय छे. आ काम पण तेवा होइ शल्य तुल्य छे, वळी ए काम विष सदृश छे. जेम हरताळ सोमल आदिक विष खवाइ जतां मरणजनक नीवडे छे तेम आ काम पण धर्मरूपी जीवितना विनाशक होइ मुखमां मिठाश उत्पन्न करीने पश्चात् मरण शरण करे एवा दारुण छे, तेमज ए काम आशीविषोपम=(आशी डाढमां-विष छे ते) नागनी उपमाने | योग्य छे, जेम सर्प दंश करेल जीव सधः मरे छे तेम कामवडे पराभूत थयेलो जन पण मरण पामे छे. सर्पो फणा उपरना मणिथी शोभीता देखाय पण स्पर्श थतां विनाश करे छे तेम आवा कामनी मार्थना=भाकांक्षा करता जनो दुर्गतिने पामे छे. केवा जनो? भकामा; एटले मनमा ती कामभोगनी वांछना राखता छतां मनोरथ प्राप्त न थाय एवा कामी नरकमां जाय . माटे ए मत्यक्षमा तो काम सुखोत्पादक जणाय छे तथापि परिणामे कष्टदायक होवाथी, सकल कष्टने हरनार संयमधर्म सेवनारा विवेकिजनोए ए काम For Private and Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् भाषांतर अध्यगन९ ॥५३७॥ ॥५३॥ त्याज्य छे, एवाभोए तो केवळ संयमन गृहण करवा योग्य छे. ५३ अहे वयइ कोहेण । माणेणं अहमागई ॥ माया गइ पडिग्घाओ। लोभाओ दुहओ भयं ५४। मूल-प्राणी (कोहेण) क्रोधवडे (अहे वयइ) नरकादिगतिमां जाय छे. (माणेण) मानवडे (अहमा गइ) अधमगतिमा (माया) माया वडे (गइ पडिग्घाओ) सारी गतिनो प्रतिघात-विनाश थाय छे, तथा [लोहारो] लोभ थकी [दुहओं] बन्ने प्रकारनो [भय] भय प्राप्त थाय छे. ॥५४॥ व्या०-जीवः क्रोधेनाधो प्रजति, नरके याति, मानेनाधमा गतिर्भवति, गर्दभोप्ट्रमहिषशकरादिगतिः स्यात्. मायया सुगतेः प्रतिधातः, माया सुगतरर्गला भवति, लोभाद द्विधापि भयं स्यात्, एहिकं पारलौकिकं च भयं दुःखं स्यात् कामप्रार्थने ह्यवश्य भाविनः क्रोधादयस्ते च क्रोधादय ईदृशाः, ततः कथं तत्प्रार्थनातो दुर्गतिन स्यात् ? ॥५४॥ | एवं वचनयुक्तिं श्रुत्वेंद्रो नमिराजर्षिपति क्षोभयितुमशक्तः किमकरोदित्याह ____ अर्थ-जीव क्रोधे करी अधोगति पामे छे अर्थात् नरके जाय छे; माने करी अधम गतिने पामे छे, अर्थात् गधेडा, उंट, पाडा, मूकर; इत्यादि योनिने पामे छे; मायावडे सारी गतिनो प्रतिघात थाय छे अर्थात् कपट दगा वगेरे सद्गति मळयाना आडा आगकीया तुल्य बने छ; अने लोभथी तो बेय प्रकारनां भय उत्पन्न थाय छे; अर्थात् आ लोकमां तथा परलोकमां दुःख थाय छे. हवे जे पुरुष कामनी वांछना राखनारने ए कामनो प्रतिघात थतां क्रोधादिक तो अवश्य थवाना, अने ते क्रोधादिक तो उपर कडा For Private and Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobarth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रमाणे अधोगति आदिकना हेतु छे तो पछी तेनी प्रार्थनाथी केम दुर्गति न थाय?. ५४ उत्तराध्यआ प्रमाणे वचन युक्ति श्रवण करी इन्द्र ज्यारे नमिराजर्षिने क्षोभ न पमाडी शक्यो त्यारे तेणे शुं कर्यु? ते कहे छे. भाषांतर यन सत्रम् एक अध्ययन अवैउज्झिऊण माहेण-रूवं विउविऊण इंदैत्तं ॥ वंदेइ अभित्थुणंतो। इमाहिं महुराहि बग्गृहि ॥५५॥ ॥५३८॥ ॥५३८॥ मूल-माहणरूब'] ब्राह्मणना रूपनी [अवउज्झिऊण] त्याग करीने [इंदत्त] इंद्रनु रूप [विउरूविऊण] उत्तर वैक्रियपणे विकुनि (इमाहिं) भा (महुराहि) मधुर (बग्गूहि) वाणीवडे (अभित्थुणंतो) स्तुति करता इंद्र (ई) ते राजपिने वंदना करी. ॥५५॥ व्या०-इंद्रो नमिराषिप्रति वंदते, किं कुर्वन् ? इमाभिः प्रत्यक्षं वक्ष्यमाणाभिर्मधुराभिर्वाग्भिः स्तुवन् , किं JE कृत्वा ? ब्राह्मणरूपमपोह्य त्यक्त्वा, इंद्रत्वं विकुळ विधाय. ॥२५॥ अर्थ--तदनंतर इंद्रे ब्राह्मणरूपने अने पोताना इन्द्रत्वने विकुयु पुनः प्रकृति स्थित करी, अर्थात् पाछा इन्द्र थइने आ (हवे पछी कहेवाशे ते) मधुर वाणी वडे स्तुति करता नमिरार्षिने बंदन कयु. ५५ इन्द्रे केवा प्रकारे स्तुति करी? ते कहे छे. अहो ते निर्जिओ कोहो । अहोते माणो पराजिओ ।। अहोते" निरकियो मौ। अंहोते"लोहोवसीओ॥५६॥ मल-(महो) अहो ! (ते) तमे (कोहो) कोधने (निजिओ) जीत्यो छे, (अह.) अहो! (ते) तमे (माणो) माननो (पराजिमओ) पराज्य कयों छे, (अहो) अहो! (ते) तमे (माया) मायाने (निरकिमा) निराकृता दूर करी हे (तथा) अहो! (ते) तमे [लहो] लोभने (वसीकओ) वश कर्यो के. ॥५६॥ For Private and Personal use only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandie उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥५३९॥ व्या०-अहो इत्याश्चर्ये, त्वया कोधों निर्जितः, यतो मया त्वांप्रत्युक्तमनम्रपार्थिवा वशीकर्तव्यास्तदापि त्वं न || TEEभाषांतर क्रुद्ध इत्यर्थः. अहो इत्याश्चर्ये, त्वया मानोऽपि दूरीकृतः, यतो मंदिरं दधते अंतःपुरं दद्यत इत्यायुक्तं, तथापि मयि | ३६ अध्ययन९ विद्यमाने मम पुरं ममांतःपुरं च दह्यत इति तव मनस्यहंकृति यात्, तस्मानिर्मानस्त्वं वर्तसे. अहो ईत्याश्चर्ये, त्वया मायापि निर्जिता, यतस्त्वं नगरस्य रक्षाकारणेषु प्राकाराहालकादिषु, निष्कासनयोग्येष्वामोसलोमहारग्रन्थिभेदक ॥५३९॥ | तस्करादीनां वशीकरणहननादि च मनो नोऽकरोः. अहो इत्याश्चर्ये, लोभो वशीकृतः, हिरण्यसुवर्णादिकं वर्धयित्वा पश्चाद्गंतव्यमिति श्रुत्वापि मांप्रतीच्छा तु आकाशसमाऽनंतका इत्युक्तवान् , तस्माचत्वारोऽपि कषायास्त्वया जिता इत्यर्थः ॥५६॥ __ अर्थ-अहो! (आश्चर्य पामीने बोले छे) तमे क्रोध निर्जित कर्यो; कारण के में तमने कयु के-'तमने न नमता होय तेवा राजा ओने तमारे वश करवा जोइए, तोये पण तमने जराय क्रोध न चड्यो. विशेष आश्चर्य ए के तमे मान पण पराजित कर्यो अर्थात्-में तमने कडं के मंदिर बळे के तमारा जनानाना महेल चळे छे? तथापि 'मारी समक्ष पुर तथा अंतःपुर केम बळे? एम तमारा मनमा अहंकार लेश पण न आव्यो तेथी तमाएं निर्मानपणुं स्पष्ट जणायु. बळी तमे माया पण निर्जिताछेक जीती लीधी केमके नगररक्षानां कारणोमा किल्ला बगेरेमाथी चोर लुटारा गंठीछोडा आदिकने हणवा वगेरेमा तमे मन नज कयु, अने विशेषआश्चर्यतोएजके लोभने पण वश कर्यो; अर्थात्-सुवर्णादि संपत्ति वधारवा में कयुं त्यारे तमें भाशा अनंता छे आम कहीने मने निरुत्तर कर्यो. एटले चारे कषायो तमे पूर्ण पणे जीत्या छे.५६ For Private and Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन९ अहो ते अर्जवं साहुँ । अहो ते साहूँ मईवं ॥ अहो ते उत्तमी खंति| अहो ते" भुति उत्तमा॥५७॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् ३८ मूल-(अह)) अहो! (ते) तमारु (साहु) घणु सारु [अजय] आर्जव [अहो] अहो! ते] तमार (गहु) घणु सारु' (मद्दव) मार्दव | माननो अभाव छे [अहो अहो! (ते) तमारी [उत्तमा] उत्तम एवी (खता) क्षमा तथा (अहो अहो! ते) तमारी (उत्तमा) उत्तम ॥५४॥ एबी (मुत्ति) मुक्ति-निर्लोभता छे, ५७ व्या०-अहो इति विस्मये, आश्चर्यकारि वा साधु समीचीन ते रुवावं, ऋजोः सरलस्य भाव आजचं पिनयवत्वं वर्तते. अहो आश्चर्यकारि तब साधु सुंदरं मार्दवं, मृदोर्भावो मार्दवं कोमलत्वं सदयत्वं वर्तते. अहो साध्वी तब क्षांतिः क्षमा यतते, अहो साध्वी तय मुक्तिर्वर्तते निर्लोभता वर्तते. ॥१७॥ अथ पुनर्वर्धमानगुणद्वारेणाभिष्टाति अर्थ-अहो ! (इद्र विस्मय पामी कहे छे) तमारु आर्जवसरलत्व-विनयवानपणुं साधु बहु समीचीन आश्चर्यकारी छे तेम BEतमारु मार्दव कोमल स्वभाववाळापणु दयार्द्रता पण आश्चर्यकर छे तेम तमारो क्षति क्षमा पण उत्तमा श्रेष्ठ छे तथा तमारी odi मुक्ति-निलो भता पण बहु सारी छे. ॥५७॥ इवे इंद्र वर्धमान गुणद्वारा मूलनिद्देशथी स्तुति करे छे. इहर्सि उत्तमो भते । पिच्चा होइसि उत्तमो । लोगुत्तमुत्तमं ठाणं । सिद्धि गच्छसि नीरओ ॥ ५८ ॥ मूल-भते) भगवान् ! तमे (ह) मा लोकने विषे (उत्तमो सि) उत्तम गुणवाळा (पेच्चा) परलोकमां [उत्तमो] उत्तमो [होहिसि] थशा. (नीरओ) कर्मरहित [लोगुरामुत्तम] अत्यंत उत्कृष्ट (सिद्धि) सिद्धि नामना (ठाण) स्थानने [गच्छसि] पामशो ॥८॥ For Private and Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥५४१ ॥ 兆兆蚝 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्या० - हे मुने! हे भगवन्! हे पूज्य ? स्वमिहास्मिन् जन्मन्युत्तमोऽसि सर्व पुरुषेभ्यः प्रधानोऽसि, उत्तमगुणान्वितत्वात्, 'पिचा' इति प्रेत्य परलोकेऽप्युत्तमो भविष्यसि, लोकस्योत्तमोत्तममतिशयप्रधानं स्थानमेतादृशं सिद्धि मुक्तिस्थानं नीरजा निःकर्मा गच्छसि त्वं गमिष्यसि, अत्र लोगुत्तममित्यत्र मकारः प्राकृतत्वात्, लोकोत्तमोत्तम इति वक्तव्यम् ॥५८॥ अर्थ- हे मुने! पूज्य भगवन् ! तमें आ जन्ममां उत्तम छो सर्व पुरुषोमां प्रधान छो, तेम उत्तम गुणवान् होवाथी परलोकमां उत्तम थशो. तेम लोकना उत्तमोत्तम प्रधान स्थान सिद्धि=मुक्ति स्थानने, तमें नीरजाः एटले कर्मरहित थइने पामशो. 'लोगुत्तमुराम' ए पदमां प्राकृत होवाथी 'म' रही शके ॥५८॥ एवं अभित्तो यरिसिं उत्तमाए सैद्धाए ॥ पायाहिणं कुणतो पुणो पुणो वेदए सक्को ॥ ५९ ॥ मूल - [व] आ प्रमाणे [उत्तमाप] उत्तम (सद्धार) श्रद्धावडे (रायरिसि) राजर्षिने [अभित्थुण तो] स्तुति करता तथा (पायाहिण) प्रदक्षिणा [कुणतो] करता एवा (सको) शक्र इन्द्रे (पुणो पुणे) वारवार (वंदर) तमने वंदना करी. ५९ व्या० - शक्र इंद्रो नमिराजर्षि पुनः पुनर्वदते, भूयो भूयो नमस्कुम्ते, किं कुर्वन् ? प्रदक्षिणां कुर्वन् पुनः किं कुर्वन् ? उत्तमया प्रधानया श्रद्धया रुच्या भक्त्याऽभिष्टुवन् स्तुतिं कुर्वन्नित्यर्थः ॥ ५९ ॥ अर्थ --एवी रीते उत्तम श्रद्धावडे भक्ति पूर्वक स्तुति करतो इंद्र, पुनः पुनः वार वार=नमिराजर्षिने प्रदक्षिणां करतां वंदे ले. For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन ९ ॥६४१ ॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥५४२॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तो दिऊँण पाए । चकुसलक्खणे मुणिवरेस्स || आग सेणुप्पईओ लेलियचचलकुंडलकिरीडी ॥६०॥ मूल - [ तो ] त्यारपछी ते ( मुनिवरस्स) श्रेष्ठ मुनिना [चकंकुसुलक्खणे) चक्र अने अंकुशादिक चिन्हवाळा (पाप) बे पादने [व दिऊण] वांदिने (ललिअचवल कुडलतिरीडी) मनोहर अने चपळ एवा मुगटने धारण करनार इंद्र [आगासेण] आकाश मार्गे (उप्पइओ) स्वस्थाने गया. ६० व्या० - 'तो' इति ततः शक्र आकाशमनुत्पतित उडितः किं कृत्वा मुनिवरस्य राजर्षेः पादौ वंदित्या, कीशो मुनेः पादौ ? चक्रांकुशलक्षणौ, राज्ञो हि पादयोश्चक्रांकुशलक्षणं स्थात. कीदृशः शक्रः ? ललितचपलकुंडलकिरीटी, ललिते सविलासे चपले चंचले च ते कुंडले च यस्य स ललितचपलकुंडलः, किरीटं मुकुटं यस्यास्तीति किरीटी, | ललितचपलकुंडलवासी किरीटी, च ललितचपलकुंडलकिरीटी, चपलसुंदरकुंडलमुकुटधारक इत्यर्थः ॥६०॥ अर्थ — तदनंतर शक्र = इंद्र, ए मुनिवर=नमि साधुना चक्र अंकुशादिलक्षण = चिन्ह =युक्त पाद चरणोने वंदन करी ललित=सुंदर तथा नमन करतां चपल=दोलायमान छे कुंडल तथा किरीट मुकुट जेना एवो ते इंद्र आकाशमार्गे उत्पतित थइने, अर्थात् उडीने स्वस्थाने गया. ॥ ६०॥ नमी नमे अप्पा | सक्वं सक्केंण चोइओ ॥ चोइऊण गेहूं वही । सामपणे पज्जैवडिओ ॥ ६१ ॥ मूल - (सक्ख) साक्षात् (सकेण) शकइन्द्रे (चोइओ) प्रेरणा करायला ( नमी) नमिराजर्षि [अप्पाण] पोताना आत्माने (नमेइ) नम्र For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन९ ॥५४२ ।। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन ॥२४३॥ उत्तराध्य-36 करता हवा, तथा ते (वइदेही) विदेहदेशना राजा नमि (गह) घरनो (चरऊण) त्याग करीने [समण्णे] चारित्रने विषे (पूज्जुवडिओ) यन मुत्रम उद्यमचं'त थया. ६१ व्या-नमिराजर्षिरात्मानं नमथति, आत्मानं विनयधर्मे भावयति, कथंभूतो नमिः? शक्रेण साक्षात्प्रकारेण ॥५४३॥ प्रत्यक्षीभूप चोदितः, गृहीतमनोभावः परोक्षिताशयः स नमिर्विदेहेषु विदेहदेशेषु भवो वैदेहो विदेह देशाधिपो गृहं त्यक्त्वा श्रामण्ये श्रमणस्य साधोः कर्म श्रामण्यं साधुधर्मस्तत्र पर्युपस्थित उद्यतोऽभूत , परि उपसर्गेणायमों योतते स्वयमेवोचतः, न विंद्रप्रेरणातो धर्मे विप्लुतोऽभूदिति भावः ॥६१॥ ___ अर्थ-साक्षात् प्रत्यक्ष आवीने शक्र इंद्रे पूर्वोक्त प्रकारे प्रेरणा करायेला, अर्थाद परीक्षण करी जेनो मनोभाव जाण्यो छे एवा नमिराजर्पि पोताना आत्माने नमावे छ एटले विनयधर्ममा योजे छे. किंच विदेहदेशना अधिपति नमि गृहनो त्याग करी श्रामण्य साधुधर्मने विषये पर्युपस्थित थया. अत्रे 'परि' उपसर्गनो भावार्थ एवो के के, पोते स्वयमेव उद्यत थया: इंद्रनी प्रेरणाथी धर्ममा जरा पण च्युत थया नहि. ॥६१॥ एवं कैरंति संबुका । पंडिया पविअक्खणा । णियहति भोगेसु । जहा से नमी रायरिसि त्ति बेमि॥६॥ मल [व] ए प्रमाणे (संबुद्धा) तत्वना जाणकार (पडिआ) पंडित अने (पविअक्षणा) प्रविचक्षण (कर ति) करे छे, तथा (भोगेसु) | कामभोगो थकी (विणिभट्ठति) “पाछा फरे छे, (जहा) जेम (से) ते (नमी) नमि नामना (रायरिसी) राजर्षि कामभोगथी निवृत्ति JI पाम्या तेम (त्ति बेमि) ९ कटु छु ६२ For Private and Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सत्रम् भाषांतर अध्ययन९ ॥५४४॥ ।।५४४॥ PRAMM Panddessagaand E ___व्या०-संधुद्धाः सम्यग्ज्ञाततत्वाः पंडिताः सुनिश्चितशास्त्रार्था एवममुना प्रकारेण कुर्वति, भोगेभ्यो विशेषेण | | निवर्तते, कीदृशाः संबुद्धाः? प्रविचक्षणाः, प्रकर्षेणाभ्यासातिशयेन विचक्षणाः क्रियासहितज्ञानयुक्ता इत्यर्थः. क इव भोगेभ्यो निवर्तते? यथा नमिराजर्षि गेभ्यो निवर्तित इत्यहं ब्रवीमि, सुधर्मास्वामी जंबूस्वामिनपति वदति. ॥६२।। इति तृतीयप्रत्येकवुद्धनमिराजर्षिसबंधः. संबुद्ध-सम्यक् प्रकारे ज्ञात छे तत्त्व जेणे एवा पंडितो शास्त्रार्थ निश्चयवान् पुरुपो, आवी रीते करे छे; जेम ते नमिराजर्षि सर्व भोग थकी निवृत्त थया तेवीज रीते प्रवीचक्षण थइ अर्थात् प्रकृष्ट अभ्यासातिशय वडे क्रिया सहित ज्ञान संयुक्त थइ भोगोथी विनिवृत्त थाय छे; 'इति (अहं) ब्रवीमि' आ अंतिम वाक्य, जंबृस्वामी प्रत्ये सुधर्मास्वामीनुं कहेलुं छे, एटले एम हुँ छ? आम उपसंहार वचन कहीने आ नमिराजर्षि प्रत्येकबुद्ध थया तेनो वृत्तांत समाप्त कर्यो. ____ अथ यदा नमिः प्रतिबुद्धस्तदानीमेव नगातिर्नृपः प्रतिबुद्धः. अथ नगातिनृपचरित्रं कथ्यते-अस्मिन् भरते पुंडवर्धनं नाम नगरमस्ति, तत्र सिंहरथो नाम राजा वर्तते. गंधारदेशाधिपतेस्तस्य राज्ञोऽन्यदा द्वावश्वौ प्राभृतौ समायातो, तयोः परीक्षार्थमेकस्मिंस्तुरगे राजाधिरूढः, एकस्मिंश्च तुरगेऽपरो नर आरूढः, तेन समरेश्चाश्ववारशतैः परिवृतो बाह्यरामिकायां गतः, परीक्षां कुर्वता राज्ञाश्वः प्रधानगत्या विमुक्तः, सोऽपि बलवता वेगेन निर्ययो, यथा यथा राजा वल्गामाकर्षति तथा तथा स वायुवेगवान् जातः, पुरोपवनान्यतिक्रम्य सोऽश्वो राजानं लात्वा महाटव्यां प्रविष्टः, LBOLBULU For Private and Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् भाषांतर अध्ययन ॥५४५॥ ॥५४५॥ MADDDDDDDDoor श्रांतेन भूपेन तदास्य वल्गा मुक्ता, तदा राजेनं विपरीताश्वं मन्यतेस्म, तस्मादत्तीर्य राजा भमिचरो बभूव, तं च पानीयं पाययित्वा वृक्षे वबंध, स्वप्राणवृत्तिं फलैर्विदधे. तत एकं नगमारुह्य कचित्प्रदेशे सुंदरमेकं महावासं ददर्श, राजा कुतूहलात्तस्मिन्नावासे प्रविष्टः, तत्रैकाकिनी पवित्रगात्रां कन्यां भूपतिर्दृष्टवान , सा राजानमागच्छंतं दृष्ट्वा भूरिहर्षा आसनं ददौ, राज्ञोचे का त्वं? कोऽयमद्रिनिवासः? किमिदं रम्यं धाम? कन्या प्राह भूपाल ! प्रथमं मत्पाणिगृहणं | कुरु? सांप्रतं विशिष्टं लग्नमस्ति, पश्चात्सर्व वृत्तांतमहं कथयिष्यामि तयेत्युक्ते नृपतिस्तत्र तया समं पूजितं जिनविय प्रणम्योदाहमांगल्यमलंचकार, भूपतिना परिणीता सा कन्या विविधान् भोगोपचारांश्चकार, विचित्राश्च म्वभक्तीदर्शयामास, अवसरे राजा तां प्रत्येवमाह विमलैः पुण्यैरावयोः संबंधो जातोऽस्ति, परमेकापि विचित्रचित्रा सभा नास्ति, ततो नृपतिश्चित्रकरानाकार्य मभागृहभित्तिभागाः सर्वेषां समाश्चित्रयितुं दत्ताः, सर्वेऽपि चित्रकराः स्वस्वभित्तिभागान गाढोद्यमेन चित्रयंति, तत्रैको वृद्धश्चित्रकरः सकलचित्रकलावेदी स्वभित्तिभागं चित्रयितुमारब्धवान , सहायशन्यतस्तस्य निरंतरं गृहतः कनकमंजरी रूपवती पुत्री भक्तं तत्रानयति. अन्यदा सा स्वगृहाद्भक्तमानयंती राजमार्गे गच्छंत्यश्ववारमेकं ददर्श, स च बालस्त्रीवराकादिजनसंकीर्णेऽपि राजमार्गे त्वरितमश्वमवाहयत्, लोकास्तु तद्भयादितस्ततो नष्टा, सापि कचिन्नंष्वा स्थिता, पश्चात्तत्रायाता, भक्तपानहस्तां तामागतां वीक्ष्य स वृद्धचिन्नकरः पुरीषोत्सर्गार्थ बहिर्जगाम, एकत्राहारपात्रमाच्छादयित्वा सा क्वचिद्भित्तिदेशे वणिकैर्मयूरपिच्छमालिलेख. जे समये नमिराजा प्रतिबुद्ध थया तेवामांज नगाति राजा पण प्रतिबुद्ध थया छे तेथी हवे नगाति नृपर्नु चरित्र कहेवामां आवे छे. . For Private and Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्सराध्ययन सूत्रम् | भाषांतर अध्ययन ॥५४६| ।.५४६॥ आ भरतखंडमां द्रवर्धन नामे नगर हाँ, तेमां सिंहस्थ नामनो राजा राज्य करतो हतो, ते राजाने गांधारदेशना अधिपति | राजाए एक बखते थे घोडा भेट तरीके मोकल्या; आ चे घोडानी परीक्षा करवा तेमांना एक घोडा उपर राजा पोते सवार थया अने वीजा घोडा उपर एक बीजो पुरुप आरुट थयो तेने साथे लइ वीजा पण सेंकड घोडासबारोथी परिवारित थइ राजा बहारना | बागमा गया, त्यां राजाए पोताना घोडानी परीक्षा करतां घोडाने पूर्ण गतिमा छोड्यो. आ घोडो बलवान् वेगधी नीकली पड्यो. राजा जेम जेम चोकहुँ खेचता जाय छे तेम तेम वायु समान वेगथी घोडो पड्यो जाय छे. नगरना उपवनाने आळंगी ते घोडो राजाने लइ महोटा जंगलमां पेठो. थाकेला राजाए ते टाणे चोकहुं छोडो दीधुं, एटले घोडी उभी रह्यो त्यारं राजाए ए घोडाने विपरीताश्व मान्या. अर्थात् चोकहुँ खेचवाथी दोडे अने ढीलु मुकवाथी उभो रहे ए घोडानी सामान्य टेव करतां उलटुं गणाय तेथी ए घोडाने विपरीत शिक्षावाळो भान्यो. राजा घोडा उपरथी उतरी पृथ्वीपर चालवा मांड्या अने ए घोडाने पाणी पाइ एक झाडे बांधी पोते फळादिवथी आहारवृत्ति करी. तदनंतर एक नग-पर्वत उपर चड्या त्यां कोई सुंदर प्रदेशमा एक महोटी आवास दीठो, कुतूहलथी राजा ए आवासमा पेसे छे त्यां तेमां एकली पवित्र गावाळी एक कन्याने राजाए दीठी. ते कन्याए राजाने आवता जोई घणोज हर्ष पामी आसन आप्यु. राजाए तेणीने ज्यारे पूछयु के-'तमे कोण छो' 'अहिं आ पर्वतमां वास कम करो छा?' अने आ रमणीय धाम शुं छे?' त्यारे कन्याये कयु के-'हे भूपाल ! पहेला आप मारूं पाणिग्रहण करो अर्थात् मने परणो, हमणां घणी उत्तम लग्न वेळा छे; पछी हुँ मारो सपळो वृत्तांत आपने कहीश. ए कन्याना आवां वचन सांभळी तेणीनी साथे पूजित जिन| विंचने प्रणाम करी राजाये उद्वाहमंगळनो अंगीकार को, ज्यारे राजा तेणीने परण्या ते वारे ते कन्या राजाने माटे विविध प्रका For Private and Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अधाम९ उत्तराध्य- रना भोगोपचार करवा लागी अने पोतानी विचित्र भक्ति दर्शावचा लागी. एक अवसरे राजा ते कन्या प्रति बोल्या के-विमल यन सूत्रम पुण्यवडे आपणा बेयनो संबंध थयेलो छे पण आ स्थानमा एके विविध चित्रवाळी सभा नथी. एम कही राजा सिंहरथे चित्रकारीने बोलावी सभागृहनी भींतो चीतरवा माटे सर्व चित्रकाराने सरखा भींतोना भाग नीमी दीधा. तेथी दरेक चित्रकार पोतपाताने भागे ॥५४७॥ J सोंपेला भीतना प्रदेशोने दृढ उद्यमी चीतरवा मंडया. तेमां एक वृद्ध चित्रकार हतो ते सकळ चित्र कळानो जाणकार हतो तेणे पोताने भागे आपेला भीतना विभागने चितरवानों आरंभ कर्यो. पोते सहाय रहित होइ हमेशां तेने घरेथी तेनी कनकवती नामनी अति रूपवती कन्या ए वृद्ध चित्रकार माटे भात (खावान) लइने आवती. एक समये पोताने घेरथी ते भात लइने आवती हती त्यां | राजमार्गमा एक घोडासवारने दीठो, आ सबार बालक, स्त्री गरीब अशक्त वगेरे जनोथी संकीर्ण राजमार्गमा घोडाने वेगथी हांकतो हतो, तेना भयथी लोको आम तेम भाग नाश करता इता, आ कन्या पण एक वाजु भागीने उभी रही, तेथी थोडी वारे त्यां आवी. भात तथा पाणी हाथमां लइने आरती ते पुत्रीने जोइने पेलो तेनो पिता वृद्ध चित्रकार मलोत्सर्ग (शौच) करवा बहार गयो. ते वारे आ कन्याये पोताना हाथमार्नु भात ( अन्नपाणीनुं ठाम ) एक ठेकाणे मूकी ढांकीने भीतना एक छेडामा रंगनी पीछी वती | एक मोरपीछ आळेव्यु. ___ अथ तत्र राजा सप्राप्तः, भित्तिचित्राणि पश्यन कुमार्यालेखिते केकिपिच्छे साक्षास्पिच्छ मन्यमानः करं चिक्षेप. भित्तास्फालनतो नखभंगेन विलक्षीभूतं तं नृपं सामान्यपुरुषमेव जानती सा चित्रकर पुत्र्येवमाह चतुर्थः पादस्त्वमद्य मया लब्धः, नृपः प्राह पूर्व त्वया के त्रयः पादा लब्धाः? सांप्रतमहं कथं त्वया चतुर्थः पादो लब्धः? सा प्राह श्रूयतां? For Private and Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन मुत्रम् भाषांतर अध्ययन ॥५४८॥ DADODARAULARAM ॥५४८॥ م طالب لیست قیمت مناسب योऽद्य मया राजमार्ग त्वरीतमश्वं वाहयन् बालीस्त्रप्रमुखजनान् वासयन् दृष्टः स मूर्खत्वे प्रथमः पादो लब्धः, द्वितीयः पद इहत्यो राजा यः कुटुंबलोकसाहितैश्चित्रकरैः समं भितिभागं जरातुरस्य मम पितुर्ददो. तृतीयः पादो मम पिता, यो नित्यं भक्त समायाते बहिर्याति. चतुर्थस्त्वं योऽस्मिन भित्तिदेशे मल्लिखिते मयूरपिच्छे कर चिक्षेप, परमेवं त्वया न विमृष्टं यत्र सुधाघृष्टे भित्तिदेशे निराधारा मयूरपिच्छस्थितिः कुतो भवति ? एवं तस्या वचश्चातुरीरंजितो राजा तत्पाणिग्रहणवांछकः सन् तस्याः पितु समीपे स्वमंत्रिणं प्रेषयित्वा तां पार्थितवान, पित्रापि सा दत्ता, समुहूर्ते राज्ञा परिणीता प्रकामं प्रेमपात्रं बभूव, सर्वातःपुरीषु मुख्या जाता, विविधानि दृष्यानि रत्नाभरणानि चाससाद. एकदा तया मदनाभिधा स्वदासी रहस्येवं बभाषे भद्रे ! यदा मद्रतिश्रांतो भूपतिः स्वपिति तदा त्वयाहमेवं पृष्टव्या स्वा| मिनि ! कयां क्थयेति. तयोक्तमवश्यमहं तदानीं प्रश्नयिष्ये, अथ रात्रिसमये राजा तगृहे समायतः, तां भुक्त्वा रतिश्रांतो राजा यावत्स्वपिति तावता दास्येयं पृष्टा स्वामिनि ! कथां कथय ? राज्ञी प्राह यावद्राजा निद्रां प्रामोति तावन्मौनं कुरु ? प्रश्चात्वदने यथेच्छं कथा कथयिष्यामि, राजापि तां कथां श्रोतुकामः कपटनिद्रया सुष्वाप, पुनर्दास्या सांप्रतं कथां कथयेति पृष्टा चित्रकरपुत्री कथा कथयितुमारेभे, मधुपुरे वरुणः श्रेष्टी एककरप्रमाणदेवकुलमकारयत्, चतु:करप्रमाणो देनस्तत्र स्थापितः, स देवस्तस्मै चितितार्थदायको बभूव. अथ दासी प्राहकहस्ते देवकुठे चतुःकरप्रमाणो देवः कथं मातः? इति तया पृष्टे सा राज्ञी माहेमं रहस्यं तव कल्यरात्रौ कथयिष्यामि, अद्य तु निद्रा समायातीति प्रोच्य सा राज्ञी राजशय्यापुरो भूभौ सुप्ता, सा दास्यपि स्वगृहे गता, राजा मनस्येवं चिंतयामास कल्यरात्रा For Private and Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir IEE1 . भाषांतर अध्ययन९ ॥२४९|| वपीदं कथानकं मया श्रोतव्यमिति निश्चित्य राजा सुप्तः सुखं निद्रामवाप. द्वितीयदिनेऽपि राजा तस्या एव गृहे रात्रौ उत्तराध्य समायतः, रात्र्यधं यावदतिसुखं भुंक्ते, पश्चाद्रतिश्रांतो राजा पूर्वकथानकश्रवणाय कपटनिद्रया सुप्तः, दासी प्राह स्वामिनि ? कथानकरहस्यं वद ? राज्ञी प्राहकहस्ते देवकुले चत्वारः करा यस्य स चतुःकरो देवो नारायणादिकस्तत्र ॥५४९॥ स्थापित इत्यर्थः. एका कथा समासा. थोडीवारमा राजा त्यां अव्या तेणे भौंतो उपरना चित्रो जोतां आ कुमारिकाए चीत्रेलो मोरपीछ दीठी. खरेखर मोरपीछज के एम मानीने राजाए तेना उपर हाथ नाख्यो ते भींत साथे अथडाणो तेथी तेनो नख जरा भांगतां राजा विलक्ष=मोठो पडयो; तेने जोइने 'आ कोइ सामान्य पुरुष हशे' एम जाणीने ए चित्रकारनी पुत्रीए तेने का के–मने चौथो पाद आज तमे जड्या. राजाए JE/ कह्य-'पहेला त्रण पाद तने क्या मल्या छे अने आ टाणे हुं चोथो पाद तने केम मल्यो?' ते कन्या बोली के सांभळो; जे भाजे में राजमार्गमां घोडो दोडावतां स्त्री वाल वगेरे जनोने त्रास आपतो एक जण दीठो ते मूर्खतानो पहेलो पाद मने जड्यो ते पछी अहींनी | राजा के जेणे कुटुंब लोकसहित चित्रकारोनी साथे आ जराथी आतुर मारा पिताने चितरवा माटे भीतनो सरखो भाग चीतरवा RE| भाप्यो छे ए बीजो पाद राजा तथा बीजो पाद मारो पिता के जे रोज हुँ भात लइने आq के ते टाणे जंगल जवाने बहार नीकले के ३ अने चोथो मूर्खत्वनो पाद तुं पोते के जे आ भित्तिदेशमां में आळेखेला मयूर पिच्छ उपर हाथ नाखतां एटलो पण विचार नथी | करतो के आ छोथी चकचकती भींत उपर निराधार मोरपीछ केम होइ शके? आवी तेणीनी वचन चातुरीथी रंजीत थयेला राजाए | ते कन्या- पाणिगृहण करवानी वांछाथी तेणीना पिता समीपे पोताना मंत्रीने मोकली प्रार्थना करावी. पिताए आपवा हा पाडी For Private and Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 136 एटले सारं मुहूर्च जोवरावी राजा तेणीने परण्या. आ चित्रकारनी पुत्री राजानी परम मपात्र बनी, जनानानी सर्व राणीयोमा JE उत्तराध्यमुख्य मनावा लागी अने विविध प्रकारना वस्त्रो तथा रत्नजडित आभरणो पामी. एक समये पोतानी मदना नामनी दासीने एका Tiभाषांतर यन सत्रम् अध्ययन९ तमां का के-ज्यारे मारी साये भोगविलास करीने राजा पोढे त्यारे आवीने मने एम पूछq के-स्वामिनि ! कथा कहेशो: वार्ता संभळावशो? ए दासीये कड्यु के-बहु सारु, ते वखते हुँ आवीने तमने ए प्रमाणे पूछीश. जे दिवसे पा राणीनो वारो आन्यो ते ॥५५०|| Jह दिवसे राजा तेणीने महेले पधार्या अने क्रीडा श्रांत थइ राजा जेवा सूवे छे के पेली मदना दासी आवीने वोली 'वार्ता कहेशो ने? JE राणीये का 'राजा ज्यां सुधी उधे त्यां मुधी मौन रहे. पछो हुँ तने वार्ता कहीश. आ वात राजा सांभळी गया तेथी ए वार्ता पोते सांभळवानी इच्छाथी उघी गया जेवो डोळ कर्यो. पेली दासी बोली के-हवे तो राजा पोढी गया माटे वार्ता शिरु करो; त्यारे | ते चित्रकार पुत्री कथा कहेवा मांडे छे-मधुपुरमा वरुण नामना श्रेष्ठिए (शेठे) एक हाथ ममाणनु देवालय करावी तेमां चार हाथनी २१ देव मूर्तिनी स्थापना करी. ते देव ए शेठने मनमा धारे ते पदार्थ देता हता. वचमां दासी बोली उठी के-एक हाथना देवळमां Jचार हाथनी मूर्ति माय केम? त्यारे ते राणी बोल्यां के ए रहस्य हुँ तने काल रात्रे कहीश आज तो निद्रा आवे छे तेथी मइ रहीश. HE] आम बोली ते राणी राजाना पलंग पासे भूमि उपरज मूइ गइ. ते दासी पण पोताने घरे गइ. राजाए मनमा विचार्यु के-काल रात्रे पण मारे ए वार्ता सांभळवी; आवो निश्चय करी राजा मूता अने सुखे निद्रा करी, बीजे दिवसे पण राना ते राणीनेज आवासे रात्रे आव्या. अर्धरात्र पर्यंत क्रीडा विनोद करी आंत थइ पहेला दिवसनी कथानुं शेष सांभळवानी आतुरताथी कपट निद्राथी मूता. दासीए ज्यारे 'डवे कालनी वार्ता आज पूरी करो, का त्यारे राणी बोल्या के-एक हाथना देवळमां चार छे हाथ जेना एवा चतु For Private and Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन मुत्रम् भाषांतर अध्ययन९ ॥५५१॥ ॥५५१॥ भुज नारायण देव स्थाप्या. एम समजवानुं छे. आम कथानी समाप्ती करी. ___अथ तृतीयदिनरात्रावपि राजा तथैव कपटनिद्रया सुप्तः, दासी पुनः कथामद्य कथयति तामाह, सा प्राह विध्याचले पर्वते कोऽपि रक्ताशोकनः पोटोऽस्ति, तस्य घनानि पत्राणि संति, परं छाया नाभवत्. दासी प्राह पत्रावृतस्य तस्य छाया कथं न जाता? राज्ञी प्राहेनद्रहस्यं तव कल्यरात्री कथयिष्यामि, अद्याहं रनिर्माता निद्रासुखमनुभविष्यामीत्युक्त्वा सुप्ता, दासी तु स्वगृहे गता. अपररात्री राजा भोगान् भुंक्त्वा तथैवरात्रौ सुप्तः, दासी प्राह स्वामिनि ! कल्यसत्ककथारहस्य कथनीयं. राज्ञी प्राह तस्य वृक्षस्य सूर्यातपतप्तस्य मूर्षि छाया नास्ति, अध एव छायास्तीत्यर्थः. इति द्वितीया कथा. ॥ त्रीजे दिवसे पण राजाए, राणीने महोले आची पूर्ववत् कपट निद्राथी मूता त्यारे पेली दासीए कथा कहेवा प्रेरणा करवाथी राणी बोल्या के-विंध्याचल पर्वतमां एक राता अशोकनो प्रौढ वृक्ष इतो, तेनां पानडां बहु घाटां हतां पण तेने छांया नहोती. दासी बोली-पानडांथी चारेकोर वीटलायेला वृक्षनी छांया केम न होय? राणी बोल्यां= एर्नु रहस्य हु तने काल रात्रे कहीश आज तो क्रीडाथी श्रांत थइ छु तेथी निद्रासुखनो अनुभव लेवा इच्छु छु।' आम कही मूइ रह्यां, दासी पण तेने घरे गइ. चोथे दिवसे पण | राजा भोगसुख लइने पूर्ववत् मूता के दासी आवीने बोली के-स्वामिनि ! कालनी कथानु रहस्य कहो राणी बोल्यां-ते वृक्ष मूर्यना तडकाथी तपतो हतो तेना मस्तक उपर छांया नहोती; नीचे छाया हती. आम बीजी कथा कही. For Private and Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर 1॥५५२।। __अथ पुनस्तथैव नृपे सुप्ते दासीपृष्टा राज्ञी कथामाह-कचिन्निवेशे कश्चिदुष्टश्चरन् कदापि बंबूलतरं ददर्श, JE उत्तराध्य-DE JE तदभिमुखां ग्रीवां कुर्वन्नप्राप्ततरुच्छाखः प्रकामं खिन्नस्तस्यैव बंबूलतरोरुपयुत्सर्ग कृतवान्. तदा दासी राज्ञों पप्रच्छ हे यन सूत्रम | स्वामिनि ! कथमेतद् घटते? स्वग्रीवया यो बंबूलतरं न प्राप्तस्तदुपरि कथमसाबुत्सर्ग चकार? राझी प्राहाद्य निद्रा ॥५५२॥ TEE समायाति, तेनैतत्कथारहस्यं कल्यरात्रावश्यं कथयिष्यामीत्युक्त्वा सुप्ता, कल्यदिनरात्री तथैव नृपे सुप्ते दासीपृष्टा राज्ञी तत्कधारहस्यमाह स ऊष्ट्रः कृपमध्यस्धं बंबूलतरं ददशेति परमार्थः इति तृतीया कथा । पांचमे दिवसे पुनः एज प्रमाणे राजा सूता के दासीये आवीने पूछतां राणीए कथारंभ कर्यो. कोइ प्रदेशमा कोइ एक ऊंटे | चरतां चरतां एक बावळनो वृक्ष दीठो. ऊंटे तेना भणी पोतानी डोक पसारी पण ए वृक्षनी डाळी नहिं पकडावाथी अत्यंत खेद पाम्यो 56 अने कंटाळीने ते बावळना झाड उपर मूतरी लींडां कर्या. त्यारे दासीये पूछ्यु के-हे स्वामिनि! आ वात केम घटे? पोतानी डोकथी जे वावळनी डाळने पण न पहोंची शक्यो तेना उपर मूत्र तथा मळ केम करी शके? राणी कहे-आज तो हवे मने निद्रा आवे छे | Marl तेथी ए कथानु रहस्य आवती काले हुँ तने अवश्य समजावीश. आटलुं बोली मुइ गया. आने वळते दिवसे पाछा ते राजा ज्यारे | भोगांते मूवानों ढोंग करी पलंगपर मूता त्यारे दासीना पूछवाथी राणी ते कथानु रहस्य बोल्या के-ए बावळनो वृक्ष कूवामां उगेलो | हतो एटले डोकथी पहोंची न शकाणु ने पूंठ वाळी मृतयों तथा लीडां कर्या ते ए बावळ उपर पड्यां. एज आ कथानो परमार्थ . परीते आ त्रीजी कथा कही संभळावी. For Private and Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobarth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie पुनस्तथैव नृपे सुप्ते दासीपृष्टा राज्ञी कथाभाचख्यो, कस्मिंश्चिन्नगरे काचित्कन्या भृशं रूपसौभाग्यवती ह्यस्ति, ६ उत्तराध्ययन मृत्रम तदर्थ तन्मातृपितृभ्यां त्रयो वरा आहताः समायताः, तदानीं फणिना दष्टा सा कन्या मृता, तया समं मोहादेको अध्ययन BE वरस्तचितां प्रविष्टो भस्मसाहभूव, द्वितीयस्तस्मपिंडदाता तद्भस्मोपरि वासं चकार, तृतीयस्तु सुरमाराध्यामृतं पाप, ॥५५३॥ ॥५५३|| तदमृतेन च तचिता सिक्ता, कन्यां प्रथनं वरं च सद्योऽजीवयत् , कन्याप्युत्थिता तांस्त्रीन् वरान् ददश. राज्ञी दासी | माह हे सखि! बृद्धि? तस्याः कन्यायाः को वरो युक्तः? दासी पाहाहं न वेद्मि, त्वमेव बूहि? राज्ञी पाहाय निद्रा | सामायातीत्युक्त्वा सुप्ता. द्वितीयदिनरात्रौ दासीपृष्टा सावदत् , यस्तस्याः संजीवकः स पिता, यः सहोदभूतः स | बंधुः, यो भस्मपिंडदाता स तत्पतिरिति चतुर्थी कथा. फरीने पण एज रीते राजा मूता पछी दासीए पूछतां राणीए कथा आदरी कोइ एक नगरमा कोइ एक कन्या अति रूप सौभाग्यवती हती ते कन्याने माटे तेना मातापिताए बोलाववाथी त्रण वर आव्या तेटलामा ते कन्याने काळो नाग दंशतां कन्या Pal मरण पामी, ते कन्यामां अतिमोह पामेलो एक वर ते कन्यानी चितामा भेळो बळी मुवो अने राख थयो, बीजो वर ते राख पांसे 35 पिंडदान करी ए भस्म उपर तेणे वौस कर्यो; अने त्रीजाए देवन आराधन करी अमृत मेळव्यु. हवे ते अमृत ए कन्यानी चिता उपर Jt छांटतां कन्या तथा तेनो पहेलो वर जीवतां थयां. कन्या उठी त्यां तेणीए त्रण वर जोया आ वात करी राणीये दासीने पूछ्यु केJE हे सखि ! तुं बोली नाख के-ए कन्यानो योग्य वर कयो? दासी कहे मने मूजतुं नथी, तमेज कहो. राणी कहे आजतो रात्र घणी | गइ छे, निद्रा आवे छे तेथी काल रात्रे कहीश, आम कही मृतां. फरी चीजे दिवसे रात्रीये दासीना पूछवाथी राणी बोल्या के For Private and Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir Jह जेणे ते कम्याने जीवाडी ते तो ते कन्यानो पिता थयो, जे तेणीनी साथेज जीवतो थयो ते तो ए कन्यानो भाइ गणाय पण जे |JE उत्तराध्यभस्मपिंड दाता हतो तेज ते कन्यानो पति याय, आम चोथी कथा कही.. भाषांतर यन सूत्रम् अध्ययन JE तथैव राम्रो नृपे सुप्ते दासीपृष्टा राज्ञी माह कश्चिन्नृपः स्वपत्न्यै दिव्यमलंकारं सुगुप्तभूमिगृहे रत्नालोकात्सुवर्णका॥५५४॥ 1५५४॥ गरेरजीघटत, तत्रेकः स्वर्णकार: संध्यां पतितां ज्ञातवान्. राज्ञी प्राह हे सखि! तेन कथं रखालोकसाहिते सुगुप्तभूमिगृहे || यामिनिमुखं ज्ञातं? दासी माह नाहं वेनि त्वमेव ब्रूहि? राज्ञो माहाद्य सांप्रतं निद्रा समायातीत्युक्त्वा सुप्ता. द्वितीय| दिनरात्रौ दासीपृष्टा राज्ञी माह स सुवर्णकारो रात्र्यंधोऽस्तीति परमार्थः. इति पंचमी कथा. Ka हमेशना नियम प्रमाणे रात्रे राजा मृता त्यारे दासी मदनानी कथा सांभळवानी मागणी उपरथी कनकमंजरी राणी बोल्या के कोइ राजाए पोतानी प्रिया राणीने माटे दिव्य रत्नालंकार एकांतना भोयरामा मात्र रत्ननाज अजवाळांमां सोनीयो पांसे घडावा मांड्यां. तेमां एक सोनी बोली उठ्यो के-रात पडी. राणीये दासीने कयु के-'हे सखि! रत्नना प्रकाशवाळा ए गुप्त भोयरामां रात BE पड्यानी ते सोनीने केम खबर पडी? दासी कहे हुं न समजी, तमेज कहो. राणीये का आजतो निद्रा आवे छे काले कहोश. आटलु बोली सूइ रह्यां. बीजे दिवसे रात्रे ज्यारे राजाने मुइ गयेला जाणी दासीये आवी पूछ्यु के-ए सोनीने भोयरामां रात्र पड्यानी केम खबर पडी? त्यारे राणी कहे के-ए सोनी रातआंधळा हतो तेथी पोते देखतो बंध थया ते उपरथी तेणे जाण्यु के रात्र थइ. आ पांचमी कथा कडेवाइ. For Private and Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobaith.org Acharya Si Kailassagersuri Gyanmandie गगन उत्तराध्य पुनरेकदा मृपे सुप्ते दासीपृष्टा राज्ञी प्राह केनापि राज्ञा द्वौ मलिम्लुचौ निश्छिद्रपेटायां क्षिप्त्वा समुद्रमध्ये प्रवा-13 भाषांतर यन मृत्रम हिती, कापि तटे सा पेटी लग्ना, केनचिन्नरेण गृहीता, उद्घाट्य तौ दृष्ट्वा पृष्टौ भो युवयोरत्र क्षिप्तयोरथ कतमो दिवसोऽयं? तयोर्मध्ये एकः प्राहाद्य चतुर्थो दिवसः, राज्ञी पाह हे सखि ! तेन कथं चतुर्थो दिवसो ज्ञातः ? दासी माहाहं IPE५५५॥ ॥५५॥ न वेद्मि, त्वमेव बद? राजी त्वद्य मांप्रतं निद्रा समायातीत्युक्त्वा सुप्ता. द्वितीयदिनरात्रौ दासीपृष्टा राज्ञी माह स | चतुर्थदिनवक्ता पुरुषस्तुर्यज्वरी वर्तते, इति परमार्थः. इति षष्टी कथा. वळी अन्य दिवसे ज्यारे कनकमंजरीने महोले राजा आवीने कपट निद्राथी रोजनी पेठे मूता त्यारे दासी मदनानी प्रेरणाथी राणी कथा कहे छे-कोइ एक राजाए वे चोरने पकडी छीडा वगरनी पेटीमां पूरी समुद्रमा ते पेटी बहेती मूकी ते पेटी कोइ किनारे लागतां कोइ पुरुषे लइने उघाडी त्यांचे जणने दीठा आ माणसे पेला पेटीमांना जणने पूछ्यु के तमने आ पेटीमां पूर्या केटला दिवस थया त्यारे एक बोल्यो के-आज चोथो दिवस छे. दासीए पूछ्यु के-ए बंध पेटीमा चोथो दिवस तेणे केम जाण्यो? राणी कई आजतो मोडं थयु ने निद्रा आवे छे काले कहीश, आम कही मइ रह्यां. बीजे दिवस रात्रे दासीना पूछबाथी राणीए कह्यु के-ए JE: चोरने चोथीयो ताव आवतो हतो ते जे दिवसे पूर्यो तेदी तात्र हतो अने पेटी उघडी त्यारे पण ताव आव्यो हतो तेथी तेणे जाणी लीधुं के आजे चोथो दिवस छे, आम छट्टी कथा थइ. पुनरन्यदा दासीपृष्टा रात्रौ सा राज्ञी कथामाचख्यौ, काचित्स्त्री सपत्नीहरणभयेन निजांगभूषणानि पेटायां । For Private and Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie mahar JE क्षित्वा मुद्रां च दत्वालोकभूमौ मुमोच. अन्यदा सा स्त्री सखीनिवासे गता, सपनी च विजनं विलोक्य तां पेटाउत्तराध्य-D मुद्घाट्यानेकाभरणश्रेणिमध्यादेकं हारं निष्कास्य तनयायै ददो, तनया च स्वपतिगृहे तं सुगुप्तं चकार, कियत्काला-JE भाषांतर पन सत्रम् अध्ययन९ नंतरं सा स्त्री तत्रायाता, तां पेटां दूरादवलोक्यैवं ज्ञातवती यदस्याः पेटाया मध्यान्मम हारोऽनयापहृत इति सा स्त्री ॥५५६॥ तां सपत्नी चौर्येण दृष्यामास, सपत्नी शपथान करोति, हारापहारं न मन्यते, तदा सा स्त्री तां सपत्नी दुष्टदेवपाद- ॥५५६॥ JE स्पर्शशपथायाकर्षितवती, तदानीं भयभ्रांता सपत्नी तं हारं तनयागृहादानीय तस्यै ददौ. दासी माह हे स्वामिनि ! JE तया कथं ज्ञातो हारापहारः ? राज्ञी प्राह कल्यरात्री कथयिष्यामीत्युक्त्वा सा सुप्ता. द्वितीयदिनरात्रौ पुनस्तया पृष्टा 6 राज्ञी माह सा पेटा स्वच्छकाचमय्यस्तीति परमार्थः. इति सप्तमी कथा. ॥ पुनरपि रात्रे राजा आवी भोगांते कपट निद्रावश थया त्यारे दासीना पूछवाथो राणी बोल्यां-कोइ एक स्त्री पोतानी शोक्यना भयथी पोताना अंग भूपण एक पेटीमां नाखी उपर सील करी कोइ न देखे तेवा स्थाने मृकी. एक दिवस ते खी पोतानी सखीने घरे गइ त्यारे तेणीनी शोक्ये रेहूं जोइ ते पेटी उघाडो तेमांथी एक हार लइ पोतानी दीकराने आप्यो दीकरीए पोताना पतिने घरे जइ क्यांक संताड्या. थोडा वखत पछी ते स्त्री ज्यारे आवी अने दूरथीज पेटी जोइने जाणी लीधुं के-आमाथी हार कोके लोधो छे. तरतज शोक्य उपर चोरीनो शक राखी सोगन देवा मांड्या पण शोके न मान्यु त्यारे दुष्ट देवना चरण स्पर्श करावी सोगन खबरावा मांड्या तेथी भयभ्रांत थयेली शोक्ये पोतानी दीकरीने त्यांथी हार मगावीने आप्यो. दासी कहे-पेटी दूरयो जोइने केम तेने खबर | For Private and Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम ॥५५७।। 兆毛毛毛兆兆我, - Within Rider Rauchen R www.kobatirth.org पडी के हार गयो छे. बीजे दिवसे राणीये खुळासो कर्यो के ए पेटी स्वच्छ स्फटिक मणिनी होवाथी जाणी गड़. आ प्रमाणे सातमी कथा पूर्ण था. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुनरपि दासीष्टाया तयोक्तं — कस्यचिद्राज्ञः कन्या केनापि खेटेनापहता, तस्य राज्ञश्वत्वारः पुरुषाः संनि, एको निमित्तवेदी, द्वितीय रथकृत्, तृतीयः सहस्रयोधा. चतुर्थो वैद्यः तत्र निमित्तवेदी दिशं विवेद, रथकृदिव्यं रथं चकार, स्वगामिनं तं रथमारुह्य सहस्रयोधी, वैद्यथ विद्याधरपुरे गती, सहस्त्रयोधी तु तं खेटं हतवान् हन्यमानेन | खेटेन कन्या शिरश्छिन्नं, तदैव तेन वैद्येन शिर औषधेन संयोजितं राजा पश्चादागतेभ्य एभ्यतु सुतां ददौ, कन्या प्राहैषुमध्याद्यो मया सह चिताप्रवेशं करिष्यति तमहं वरिष्यामिति प्रोच्य मा कन्या सुरंगद्वारि रचितायां चितायां प्रविष्टा, यस्तया सह तत्र प्रविष्टः स तां कन्यामूढवान् दामी प्राह हे स्वामिनि! चतुर्षु मध्ये कोऽत्र प्रविष्टः ? राज्ञी प्राहाथ रतिश्रमार्त्ताया में निद्रा समायातीत्युक्त्वा सुप्ता, द्वितीयवासररात्रौ पुनर्दासीपृष्टा राशी प्राह निमि तवेदी इयं न मरिष्यतीति मत्वा चितां प्रविष्टस्तामूढवानिति परमार्थः इत्यष्टमी कथा. बीबीजे दिवसे रोजनी पेठे राजा मृता पछी दासीना पूछवाथी राणी बोली के कोई एक राजानी कुंबरीने कोइ आकाशचारी उपाडी गयो. आ राजा पांसे चार पुरुषो हता, एक निमित्त वेदी-नेत्रस्फुरणादि उपरथी शुभ अशुभ परिणाम जाणनारो, बीजो रथकार (सुतार), त्रीजो सहस्र योधी अने चोथो वैद्य; तेमां निमित्त वेदीये बतान्युं के 'आ दिशामां गइ छे' रथकारे आकाश गामी For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन ९ ॥५५७॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन ।.५५८ रथ बनाव्यो, ए रथमां बेसी सहस्रयोधी तण वैद्य ए विद्याधर पुरीमां गया त्यां जइ ए विद्याधरने हण्यो ते वारे हणातां दणातां ते उत्तराध्य-2 विद्याधरे कन्यानुं मस्तक कापी नाख्यु तेज क्षणे वैये औषध प्रयोगथी कन्या मस्तक संयोजित करी दीधुं. कन्या लइने चारे जणा यन मृत्रम् | राजा पांसे आव्या त्यारे राजाए ए कन्या चारेने आपी दीधी, ते वखते कन्या बोली के-आ चारेमाथी मारी साथे जे चितामां | ॥५५८ प्रवेश करशे तेने हुँ वरीश; आटलं बोली पोते प्रथमथी खोदावी राखेली सुरंगना द्वार उपर चिता करावी हती तेमां प्रविष्ट थइ ते समये ए कन्यानी साथे जे चितामा पेठो तेने ते कन्या परणी. दासीए पूछ्यु हे स्वामिनि ! ए चारमा कोण पेठो? राणी कहे अटाणे DEI निद्रा आवे छे तेथी काल रात्रे कहीश. एम बोली मृइ गइ. बीजे दिवस रात्रे हमेशनी पेटे राजा पोठ्या पछी दासीना पूछवाथी राणीये कयु के-निमित्तवेदी जाणी शक्यो के आ मरशे नहि तेथी ते तेनी साथे पेठो. सुरंग मार्गे नीकली तेणीने परण्यो. आ o आठमी कथा कहेवाणी. पुनरपि रात्रौ पृष्टा राज्ञी कथा माह-जयपुरे नगरे सुंदरनामा राजास्ति. सोऽन्यदा विपरीताश्वेनैकस्यामटव्यां ३ JE नीतः, ततो वल्गां शिथिलीकृत्याश्वात्स राजोत्तीर्य तम श्वं कचित्तरौ बध्वा स्वयमितस्ततो भ्रमन् कस्मिंश्चित्सरसि जलं, पपौ, तत्रैकां सुरूपां तापसपुत्रीं ददर्श, तापसपुत्र्याहूतः स तापसाश्रमं पाप, तत्र तापसास्तस्य भृशं सत्कार चक्रुः सा कन्या तापसैस्तस्मै दत्ता, राज्ञा च परिणीता, तां नवोढां कन्यां गृहीत्वा तमेवाश्वमारुह्य पश्चादलितः, अंतरालमार्गे कचित्सरःपाल्यां राजा सुप्नो जाग्रनेवास्ति, राज्ञी तु सुप्ता निद्राणा च. अथ केनापि राक्षसेन तत्रागत्य नृप For Private and Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम ॥५५९॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | स्यैवं कथितं षण्मासान् यावद् वुभुक्षितोऽहमग्र त्वां भक्ष्यं प्राप्य तृप्तो भविष्यामि, अन्यथा मद्वांछितं देहि ? राज्ञोक्तं ब्रूहि स्ववांछितं? तेनोक्तं कचिदष्टादशवर्षीयो ब्राह्मणः शिरसि पितृदत्तपदस्त्वया खड्गेन हतः सप्तदिनमध्ये चेहलि| दयते तदाहं त्वां मुंचामि नान्यथेति राज्ञा तत्प्रतिपन्नं. फरी रात्रे रोजने टाणे दासीनी प्रेरणाथी राजाए कथा कही के-जयपुर नगरमां सुंदर नामे राजा हतो ते एक दिवसे विपरीताश्व=चोकहुं ताणवाथी दोडे अने चोकडं ढीलुं मूकवाथी उभो रहे एबी अवळी टेव वाळा घोडा=उपर चडीने फरवा नीकल्यो त्यां ए घोडो राजाने एक अटवी=जंगल=मां लइ गयो. राजा चोकहुं ढीलुं मूकी घोडा परथी उतरी ए घोडाने कोइ झाड साथे बांधी | पोते आम तेम भमतो कोइ तळावमां पाणी पीये छे त्यां एक सुरूपा तापस पुत्री दीठी. आ तापस पुत्री ते राजाने बोलावी तापस आश्रममां लइ गइ. ते वखते ते तापसोये राजानो अत्यंत सत्कार करी ते कन्या ए राजाने आपी. राजाए कन्याने परणी ए नवोढाने साथै लइ एज घोडा उपर चडीने पाछा वळ्या मार्गमां एक तळावनी पार उपर राजा मृतो पण जागतोज हतो अने राणी तो जंघी गइ हती; तेटलामां कोइ एक राक्षसे त्यां आवीने राजाने कछु के-हुँ छ मासथी भूख्यो हुं हुं आज तुं भक्ष्य मल्यो तेथी तारुं | भक्षण करी तृप्त थइश. तारे बचनुं होय तो मारुं वांछित दे. राजाये कं- 'बोल तारुं शुं वांछित छे?' राक्षस कहे एक अढार वर्षनो ब्राह्मण बाळक तेनो बाप तेना माथा पर पग मूकीने आपे ते तारे खड्ग बडे हणीने सात दिवसनी अंदर मने बलि तरीके दे तो तने मूकी दर्ज' राजाए कबूल कर्यु. राक्षस अदृश्य थयो. For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन ९ ॥५५९॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 13 अथ प्रभाते राजा नतचलितः कुशलेन स्वपुरे गतः, सैनिकाः सर्वेऽपि मिलिताः, राज्ञा स्वमंत्रिणे राक्षसवृत्तांतः उत्तराध्य-26 भाषांतर JE कथितः, मंत्रिणा सुवर्णपुरुषो निर्माय पटहवादनपूर्व नगरे भ्रामितः, एवं चोद्घोषितं यो ब्राह्मणपुत्रो राक्षसस्य यन मूत्रम् अध्ययन९ जीवितदानेन नृपजीवितदानं दत्ते तस्य पित्रोरयं सुवर्णपुरुषो दीयते. इयमुघोषणा षड्दिनानि यावरात्र जाता, सप्त-16 ॥५६०॥ मदिने एकः प्राज्ञो ब्राह्मणपुत्रस्तां निर्घोषणां श्रुत्वैव मातापित्रो रबोधयत्, प्राणा गत्वराः संति, मातापित्रोद्रक्षा ॥५६॥ प्राणेः क्रियते तदा वर, तेनाह नृपजीवितरक्षार्थ स्वजीवितं राक्ष साय दत्वा सुवर्णपुरुषंदापयामि. | राजा पण त्यांथी सवारमा चाली पत्नी सहित कुशलताथी पोताने नगर पहोंच्यो, सर्व सैनिको भेळा थया, राजाए राक्षसनो वृत्तांत पोताना मंपिने कही संभळाव्यो. मंत्रिये एक सुवर्णनो पुरुष बनान्यो अने ते पुरुष पडो वजडावी दोल पीटावी नगरमां | फेरव्यो ने जाहेर कराव्यु के-जे ब्राह्मण पुत्र राक्षसने पोतार्नु जीवित आपी राजाने जीवित दान आपे तेना मा बापने आ मुवर्ण पुरुष देवानो छे. छ दिबस सुधी आवी घोषणा दंढेरो ज्यारे थयो त्यारे सातमे दिवसे एक मान ब्राह्मण पुत्रे ते दंढेरो सांभळीने पोताना माता पिताने कार्य के-आ माण तो ज्यारे त्यारे जवानाज छे, जो एमाण वडे माता पितानी रक्षा कराय तो घणु सारु, | माटे हुँ नृपना जीवितनी रक्षा अर्थे मारूं जीवित राक्षसने अर्षी तमोने सुवर्ण पुरुष देवरावं. एवं वारंवारमाग्रहेण पित्रोरनुमतिं गृहीत्वा राजसमीपे गतः, राज्ञा तत्पितुःपादौ शिरसि दापयित्वा स्वयमाकर्षितखड्गेन पृष्ठो भूत्वा राक्षसस्य समीपं स नीता, यावता राक्षसो दृष्टस्तावता नृपेणोक्तं भो ब्राह्मणपुत्र! इष्ट स्मर? For Private and Personal use only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सत्रम् भाषांतर अध्ययन एवं नृपेणोक्तः स ब्राह्मणपुत्र इतस्ततो नेत्रे निःक्षिपन् जहास, तदा राक्षसस्तुष्टः माह यदिष्टं तन्मार्गय? स प्राह यदि त्वं तुष्टस्तदा हिंसां त्यज? जिनोक्तं दयाधर्म कुरु ? राक्षसेनापि तहचसा दयाधर्मः प्रतिपन्नः, राजादयोऽपि तं दारकं प्रशंसितयंतः. अथ दासी प्राह हे राज्ञि! तस्य ब्राह्मणपुत्रस्य को हास्यहेतुः? तयोक्तं सांप्रतं मे निद्रा सामायातीत्युक्त्वा सुप्ता, दितीयदिने दासीपृष्टा सा राज्ञी प्राह हे हलेऽयं तस्य हास्यहेतु:-नृणां हि माता पिता नृपः शरणं, ते त्रयोऽपि मत्पार्श्वस्थाः, अहं पुनः कस्य शरणं यामीति तस्य हास्यमुत्पन्नमिति परमार्थः इति नवमी कथा. ॥५६॥ ॥५६॥ ___ आम तेणे ज्यारे वारंवार आग्रहथी कहेवा मांडयुं त्यारे माता पिताए मांड अनुमति आपी के ते ब्राह्मण पुत्र राजा पांसे गयो अने पोतानो संकल्प कह्यो. राजा तेना पिताना पग एना मस्तक उपर देवरावीने ए ब्राह्मण पुत्रने आगळ करी पाछळ पोते उघाड़े खड्ग हाथमां लइ राक्षस पांसे लइ गयो. ज्यां राक्षसने जोयो त्यां राजाए ब्राह्मणपुत्रने कथं के-तारा इष्टदेवनुं स्मरण | करी ले-आ समये ए ब्राह्मण पुत्र चारे कोर नजर फेरवी खडखड हसी पडयो; त्यारे राक्षस प्रसन्न थइने बोल्यो के-'तने जे इष्ट होय ते मारी पांसे मागी ले.' त्यारे ए ब्राह्मण बालके कयु के-जो तुं मने तुष्ट थयो हो अने मने गमे ते मागी लेवा कहे छे तो हुँ एटलुंज मागु छ के-'तुं हिंसा त्यजी दे, जिन कथित दया धर्म स्वीकार? राक्षसे तेना वचनथी दया धर्म अंगीकार को. राजा बगेरे सये ए ब्राह्मण बालकनी प्रशंसा करी. मदना दासी बोली के 'हे स्वामिनि! राक्षसनो बलिदान थइ उभेलो ए ब्राह्मण बालक हस्यो केम? राणी कहे-दमणा तो मने निद्रा आवे छे, काले तेना हसवानो हेतु कहीश; आम कहीने मृइ गया. बीजे दिवसे फरी For Private and Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org उत्तराध्ययन सूत्रम्ह राजा मूइ गया पछी दासीए पूछतां राणी चोल्यां के-'हे सखि ! मनुष्योने माता, पिता, तथा राजा; आ ण दुःख टाणे शरणे जवाना स्थान लोकमां कहेवाय त त्रणे आटाणे मारे पडखे छतां मारे केनुं शरण लेवू? अर्थात् त्रणेमां एके मने शरण आपी शके तेम नथी आम मनमा लावी ए ब्राह्मण बालक इस्यो; अने ए बालकना धैर्य उपरथी तथा तेनी माता पिता प्रतिनी उच्च भावना उपरथी राक्षस प्रसन्न थइ गयो. आ नवमी कथा कही. | भाषांतर अध्ययन ॥५६२॥ ॥५६२॥ एवं सा चित्रकरसुता कथाभिर्मुहुर्महुमोहयंती राजानं वशीचकार, राजा तु तस्यामेवासक्तोऽन्यासां राज्ञीनां Saनामापि न जग्राह. ततस्तस्याश्छिद्राणि पश्यत्यः सर्वा अपि सपत्न्यः परमं द्वेषं वहंते, चित्रकरसुता तु निरंतरं मध्याह्ने रहस्येकाकिनी कपाटयुगलं दत्वा गृहांतः प्रविश्य पूर्ववस्त्राणि प्रावृत्यात्मानमेवं निनिंद, हे आत्मंस्तवायं पूर्ववेषः, सांप्रतं राजप्रसादादुत्तमामवस्थां प्राप्य गर्व मा कुर्याः ? एवमात्मनः शिक्षा ददती तां दृष्ट्वा सपत्न्यो राजानमेवं विज्ञपयामासुः, हे स्वामिन्नेषा क्षुद्रा तवानिशं कार्मणं कुरुते, यद्यस्माकं वचनं न मन्यसे तदा मध्याहे स्वयं तद्गृहे गत्वा तस्याः स्वरूपं विलोकयेति. अथ भूपतिस्तासां वाक्यं निशम्य मध्याह्न तस्या गृहे गतः, सा तु तथैव पूर्वनेपथ्यं परिधायात्मनः शिक्षां ददती भूपतिना दृष्टा, सर्वाण्यपि तद्वचांसि श्रुतानि, तस्या निगर्वतां ज्ञात्वा परमं प्रमोदमवाप. स इमां पट्टराज्ञी चकार, इयं च विशेषान्मनोविनोदं चकार. आवी रीते ते चित्रकारनी पुत्री कनकमंजरीये रोज नवी नवी कौतुक उपजावे एवी कथामो संभळावी वारंवार राजाने मोह For Private and Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥५६३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पमाडती राजाने एवो वश कर्यो के राजा बीजी राणीओनुं नाम पण न लेतां तेमांज आसक्त थयो, तेथी तेनी बीजी शोक्यो कनकमंजरीनां छिद्र जोवा द्वेषथी मेराय तत्पर थइ, आ चित्रकार पुत्री तो रोज मध्यान्ह समये एकांतमां पोताना ओरडानां कमाड बंध करी अंदर एकली पोतानां पूर्वनां वस्त्र पहेरी पोताना आत्माने एम निंदती के- 'हे आत्मा ! तारो आ पूर्वनो वेष छे, मणां तने राजानी प्रसन्नताथी उत्तम अवस्था मळी छे तेनो तुं जराय गर्व मा कर' आबी रीते आत्माने शिखामण देती ए तेनी शोक्यए जोड़ने राजाने क♚ के - 'हे स्वामिन्! आ क्षुद्रा = हलकी जातनी=आपे आणी छे ते तो आपना उपर कामण करे छे, जो अमारुं कहेतुं आप न मानता होतो मध्यान्ह टाणे तेना घरमां आप पोते जड़ने तेणीनुं स्वरूप जुओ, राजा आ वचनो सांभळी मध्यान्ह समये ए चित्रकार पुत्रीने ओरडे जड़ चड्या त्यां तेणे ए राणीने पोतानो पूर्व वेष पहेरी आत्माने शिखामण देती दीठी. तेणीना वधां वचनो सांभळ्यां, तेनी गर्न रहितता जाणी राजा परम हर्ष पाम्या, अने तेणीने पट्टराणी करी तेथी ते राणी राजाना मनने अधिक विनोद देनारी था. अन्यदा तन्नगराद्याने विमलाचार्यः समायातः राज्ञ्या सह नृपस्तद्वंदनाय तत्र गतः, नगरलोकोऽपि तद्वंदनार्थ गतः, तदा विमलाचार्यो देशनां चकार, चित्रकरसुता नृपश्च द्वावपि प्रतिबुद्धौ श्रावकधर्मे गृहीतवतौ परस्परमना| बाधया त्रिवर्गसाधनं कुरुतः अन्येद्युस्तया दत्तपंचपरमेष्टिनमस्कारः स पिता मृतो व्यंतरो जातः. कालांतरेणाहतं |धर्ममाराध्य चित्रकरसुता राज्ञी मृता देवीत्वं प्राप, ततश्च्युत्वा वैतात् पर्वते तोरणाभिधे पुरे दृटशक्तिखेचरस्य For Private and Personal Use Only 毛脱毛骗兆能眺 भाषांतर अध्ययन ९ ॥५६३॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobaith.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् भाषांतर अध्ययन ॥५६४॥ पुत्री कनकमाला बभूव, प्राप्तयौवनां तामेकदा वीक्ष्य कंदर्पतप्तो वासवनामा कश्चित् खेचरोऽपय तामत्र महाद्री मुक्त्वा स्वचित्ते प्रमोदं बभार, अत्र विद्याबलात्समयां सामग्री विधाय स वासवविद्याधरो याबद्धर्वोदाहाय समुत्सु| कोऽभवत्तावत्कनकमालाग्रजस्तदनुपदिकस्तत्रायातो वासवं विद्याधरमधिक्षिप्तवान् , तौ दावपि कोपाद् घोरं युद्धं कुर्वाणो परस्परमहारा मृतौ, कनकमाला तु भृशं भ्रातृशोक चकार, तदानीं कश्चिद्देदस्तत्रागत्य कनकमालांप्रत्येवमवादीत् , हे पुत्रि! भ्रातृशोक मुंच? चित्तं स्वस्थं कुरु? ईदृश एव संसारोऽस्ति, त्वं मम पूर्वभवे पुण्यभूः. तिष्ट त्वम|त्रैव गिरौ? अब स्थितायास्तव सर्व भव्यं भविष्यति. ॥५६४॥ هنا قال لها وفنونه وو । एक समये ते नगरना उधानमा विमलाचार्य नामे साधु आव्या राणी सहित राजा तेने वंदन करवा गया, नगरना लोको पण वंदन करवा आवता हता, त्यारे विमलाचार्य देशना करता हता ते सांभळी राजा तथा राणी बन्ने प्रतिबुद्ध थया अने बन्नेये श्रावकधर्म ग्रहण कर्यो. पछी बन्ने परस्पर वाध न आवे तेवी रीते त्रिवर्ग साधन करवा लाग्या. एक दिवसे ते राणी (कनकमंजरी)ए तेना पिता चित्रकार वृद्धने पंचपरमेष्ठि नमस्कारनो उपदेश दीधो ते पछी ते मरीने व्यंतर थयो. कालांतरे आहेत धर्मने आराधी ए चित्रकारपुत्री राणी पण मृत्यु पामीने देवी थइ. देवी भावथी च्युत यइने वैताढ्य पर्वत पर तोरण नामना पुरमा दृढशक्ति खेचरनी कनकमाला नामे पुत्री थइ, ते ज्यारे यौवन पामी त्यारे तेने जोइ कामातुर बनेलो एक वासव नामनो खेचर तेणीनुं हरण करी जड़ तेने महान् पर्वतमा मूकीने पोताना मनमा हर्ष पाम्यो. आ पर्वतमा पोतानी विद्याना बळ्थी विवाहनी समग्र सामग्री एकठी करी ज्यां For Private and Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie उत्तराध्य-EB गांधर्व विवाह विधियी तेणीने परणवानी तैयारी करे छे तेटलामा ए कनकमाळानो महोटो भाइ पगेरुं शोधतो त्यां आवी पहोंच्यो; भाषांतर यन सूत्रम् तेणे ए वासय विद्याधरनो ज्यारे अधिक्षेप कर्यो त्यारे वेय कुपित थइ युद्ध करवा लाग्या, अने परस्पर घोर प्रहार करवाथी बन्ने अध्ययन९ ॥५६५॥ मरण पाम्या. कनकमाळा तो भायनो अत्यंत शोक करवा लागी ते टाणे कोइ एक देव त्या आवीने कनकमाळाने बोल्या के-'हे पुत्रि! BE॥५६५॥ भाइनो शोक मूकी दइने चित्त स्वस्थ कर, आ संसार एवोज छे. तुं पोते पूर्व भवमा मारी पुत्री हती. हवे तुं आ पर्वतांज स्थिति | कर. अहिं स्थिति करतांज तारुं सर्व सारं थशे. एवं देववचनमाकर्ण्य कनकमाला चिंतयामास कोऽसौ देवः? कथमस्याहं पुत्री? असो मयि नियति, अहमप्यस्मिन स्निह्यामि, यावदेवं कनकमाला चिंतयति तावत्तजनको विद्याधरेन्द्रो दृढशक्तिनामा धावन तत्रायातः, स्वपुत्रं स्वर्ण तेजसं विरोधिनं यासवविद्याधरं च मृतं दृष्ट्वा, छिन्नमस्तकां च तां पुत्रीं दृष्ट्वं विचारयामास, अयं सुत इयं सुतायं शत्रुस्त्रयोऽप्यमीईगवस्था प्राप्ताः, स्वरोपमं जगत्सर्व दृश्यते. एवं ध्यायतस्तस्य दृढशक्तिविद्याधरस्य जातिसारणमुत्पन्नं, असो शासनदेवीप्रदत्तवेषश्चारणश्रमणो यतिरभूत्. ___आवु देवनुं वचन सांभळी कनकमाळा विचारवा लागी के-आ देव कोण? हुँ एनी पुत्री केम? आ मारा उपर स्नेह राखे छे JE| मने पण एना उपर स्नेह थाय छे. आवी रीते ज्यां कनमाळा चिंतन करे छे त्यां तो तेना जनक-पिता दृढशक्ति विद्याधरेन्द्र दोडता all त्या आल्या, सुवर्ण जेवा तेजस्वी पोताना पुत्रने तथा वासव विद्याधरने मृत पडेला जोइने ते साथे छेदायेल छे मस्तक जेनुं एवी For Private and Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir JE पोतानी पुत्रीने जोइ विचारवा लाग्या के-आ पुत्र, आ पुत्री अने आ शत्रु; त्रणेय आची अवस्थाने पाम्यां !! आ सर्व जगत् तो| उत्तराध्य-DEL भाषांतर स्वप्न समान छे. आq ध्यान करतां दृढ शक्ति विद्याधरने जातिस्मरण (पूर्व भवर्नु भान) उपर्नु, एटले एने शासन देवीए साधु वेष | JE यन सूत्रम् अध्ययन९ | आप्यो अने ते चारण श्रमण यति थया. ॥५६६॥ ॥५६६॥ अथ स व्यंतरस्तया पुच्या सह तं श्रमणं ननाम, जीवंतीं तां पुत्री वीक्ष्य स चारणश्रमणस्तं व्यतरं नमंतIndमपृच्छत् किमिदर्मिद्रजालं मया द्रष्टाच्यंतरः प्राह तव पुत्रशत्रू मिथो वियुध्य मृतो, इयं च कन्या जीवंत्यपि मृता दर्शिता, मुनिः प्राह कथं त्वया माया कृता? स व्यंतरः स्मृत्वैवमाह हे मुनिनायकैतत् शृणु? क्षितिप्रतिष्टनृपतेर्जितशत्रोरियं प्राग्भवे पत्न्यभवत् , चित्रांगदनाम्नश्चित्रकृतो ममैषां पुत्र्यभवत् , एतया प्राग्भवेत्यसमये मम ममस्कारा दत्ताः, तत्प्रभावादहं व्यंतरो जातः, एषापि मृता देवी जाता, देवीत्वनुभूय तव सुतात्र भवे जाता, तेन विद्याधरेणापहृत्यात्र चैत्ये मुक्ता, वासवाख्यखेचरेणावासं कृत्वा विवाहसामग्री मेलयित्वा विवाहः कतुमारब्धः, ततश्च कनकतेजनामा वृद्धभ्राता समायात. ततो दो क्रुद्धौ दुर्धर्षयुद्धेऽन्योन्यशस्त्रघातेन मरणमापतुः, असावपि भ्रातृशुचार्दिता स्थिता. हवे पेलो व्यंतर ते पुत्री सहित आ श्रमणने नम्यो त्यारे ते पुत्रीने जीवती जोइ ते चारण श्रमणे नमता व्यंतरने पूछयु केशुं में आ बधुं इंद्र जाळ दी?? व्यंतर बोल्यो-तमारो पुत्र तथा शत्रु परस्पर युद्ध करीने मृत यया अने आ कन्या तो जीवती छतां पण الفالفا لما لللللللل وفي For Private and Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥५६७॥ 兆4 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुवेली देखाडी मुनिए पूछयुं के 'शुं तें माया करी?' ते टाणे याद करीने व्यंतर बोल्यो के - 'हे मुनि नायक! ए बाबत सांभळो| क्षितिमतिष्टना राजा जितशत्रुनी आ पूर्व भवे पत्नी हती अने चित्रांगद नामनो हुं चित्राकार तेनी आ पुत्री हती पूर्वभवे अंत म | आणे मने पंचपरमेष्ठि नमस्कार दीघा तेना प्रभावथी हुं व्यंतर थयो; अने ए मरीने देवी थइ. देवी भवनो अनुभव लड़ने आ भवमां तारी पुत्री थइ ते विद्याधरे अपहरण करी आ चैत्यमां मूकी. हवे ए वासव नामना खेचरे आवास करी विवाह सामग्री भेळी करी | परणवा तैयारी करी तेटलामां कनकतेजा नामनो महोटो भाइ आवी पहोंच्यो. ते पछी बेय क्रोधे भराय दुर्धर्ष युद्धमा अन्योन्य शस्त्राघातथी मरण पाम्या, ते टाणे आ पण भाइना शोकधी दुःखित थइ गड़. अन्यत्रार्थमायातेन मया सा दृष्टा, एतस्या बंधौ चौरे च मृते यावदिमामहमाश्वासयामि तावद्भवतोऽत्र प्राप्ताः, मया वितृष्टमियमनेन जनकेन समं मा यात्विति मयैतस्या गोपनमाया विहिता, यत्तव निराशत्वं मया तदानों कृतं तत्क्षंतत्र्यं. मुनिरुवेऽहो व्यंतर ! या त्वया तदा माया कृता स मम भवहारिणी जाता, तेन मम भवतोपकृतं, न किंचिदपराद्धं एवमुक्त्वा स मुनिर्धर्माशिषं दत्वान्यत्र विजहार अथ प्राग्भववृत्तांतं श्रुत्वा सा कन्या जातिस्मरणभागभूत्, तदा प्राग्जन्मजनकं तं व्यंतरमाह हे तात! तं पूर्वभवपति मे मेलय? व्यंतरः प्राह स ते प्राग्भवभर्ता जितशत्रु नृपतिर्देवीभूय च्युतः सांप्रतं सिंहरथो नाम राजा जातोऽस्ति स गंधारदेशे पुंडूवर्धननगराद श्वापहृतोत्र समायास्यति, स हि त्वामत्रैव सकलसामय्या परिणेष्यति यावत्स इहाभ्येति तावत्वमत्रैव तिष्ठेत्युक्वा स व्यंतरः सुराचले शाश्वतजिनविवानि नंतुं गतवान्. For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन ९ ॥५६७॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥५६८॥ نفرانس www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बीजे दिवसे यात्रार्थ आवेला में ते दीठी, आनो भाइ तथा चोर तो मृत पडेला हता. हुं आने आश्वासन आपतो हतो त्यां तो तमें अहीं प्राप्त थया. में विचार्य के 'आ तेना वापनी साथे जाओ मां' एटला सारूं में आने संताडवाने माया रचीने तमने ते वखते | जे निराश कर्या ते माटे क्षमा करवी. मुनि बोल्या अहो व्यंतर ! ते ए टागे जे माया करी ते तो मारा भवने हरनारी थइ पडी, तेथी तो ते मारो घणो उपकार कर्यो; मारो कंइ पण तें अपराध नथी कर्यो, आम कही ते मुनि ए व्यंतरने धर्माशीष आपीने पोते अन्यत्र विहार कर्यो हवे आ कन्याये पोताना पूर्वभवनी बात सांभळी तेथी तेने जातिस्मरण लाभ थयो; त्यारे पोताना पूर्वभवना | जनक ते व्यंतरने कहेवा लागी के-'हे तात! ते मारा पूर्वभवना पतिने मने मेळवी द्यो?' त्यारे व्यंतरे कछु के- ते तारो पूर्वभवनो भर्त्ता जितशत्रु राजा देव थइने च्युत थयो अने हालमां ते सिंहस्थ नामनो राजा अवतर्यो छे अने गंधार देशमां पुंड्रवर्धन नगरथी घोडे घणे दूर अपहृत (आकृष्ट = खेंचायेलो) अत्रे आवशे, अने ते सकल सामग्री संपादन पूर्वक तने अत्रे परणशे; माटे ज्यां सूधी ते अत्रे आवी पहोंचे तात्पर्यंत तारे अत्रेज स्थिति करवानी छे; एम बोलीने ते व्यंतर सुराचलने विषये शाश्वत जिनर्विवोतुं नमन करवा चाली नीकळ्यो. इमं सर्ववृत्तांतं कथयित्वा सा कन्या राजानं प्रत्याह हे स्वामिस्त्वमत्र मद्भाग्याकर्षितः समायातः सिंहरथराजापीमां पूर्वभवकथां श्रुत्वा पूर्वभवश्वशुरो व्यंतरः स्मृतः पुनस्तत्रागात्, दिव्यवादित्रनिर्घोषं कृतवान् मध्याह्ने जिनविवान्यभ्यर्च्य नृपोऽभुंक्त ततस्तेन व्यंतरेण पूरिताशेषवांछितोऽसौ नृपतिस्तत्र मासमेकं स्थितवान् चिरकालेन स्व For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन९ ।।५६८।। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir BEI उत्तराध्य-26 यन मूत्रम् भाषांतर अध्ययन ॥५६९॥ राज्यानिष्टशंकी राजा तां दयितांप्रतीदमाह प्रिये! प्रबलो वैरिव्रजो मे राज्यमुपद्रोष्यति, ततोऽहं स्वपुरं यामि. दयिता जगाद यदि राज्यं मोक्तुं न शक्यते तदा व्योमगमनसाधिका प्रज्ञप्तिविद्यां मन्मुखाद गृहाण? यतस्तव व्योमंगतियथासुखं स्यात् , प्रदत्तां तां विद्यामासाद्य सिंहरथो राजा विद्याधराग्रणीभूव, प्राग्भवप्रेमसंपूर्णा तां प्रियामापृच्छय स रांजा स्वपुरे व्योममार्गेण समायतः, तत्र पुरे कियदिनानि स्थित्वा सिंहरथो नृपतिस्त पर्वतं पुनर्गतः. एवं स्वनगरादस्मिन्नगे नित्यं गतागति कृर्वन्नृपतिः सिंहरथो लोकान्नगातिरिति नाम पाप. ॥५६९॥ ___सघळो वृत्तांत कडीने ते कन्या राजा प्रत्ये बोली के-'हे स्वामिन् ! तमें अत्रे मारा सद्भाग्यना आकर्षणथी खेंचाइने आव्या छो सिंहरथ राजा पण आ पूर्वभव कथा सांभळीने पूर्वभवना ससरा व्यतरने याद करतां ते पण अत्रे आव्या अने दिव्यवादित्रना नाद कर्या. मध्यान्ह समय जिनबियोने पूजी राजा जम्या. ते पछी ते व्यंतरे तेनी सकळ वांछनायो पूरी अने ए राजा त्यां एक मास स्थिति करी रह्या. केटलेक काळे पोताना राज्यनी अनिष्ट शंकावाळा ते राजा ते पोतानी दयिता प्रत्ये बोल्या के-'हे पिय प्रबळ शत्रु गण मारा राज्यमा उपद्रव करशे तेथी हुँ हवे मारा नगरमा जवा इच्छु छु। दयिता बोलीके-जो राज्य मूकी न शकाय तो मारी पांसेथी आकाशगमननी साधिका विद्या गृहण करो जेथी तमे सुखे आकाश गमन करी शको. पछी पोतानी मिया पांसेथी आकाश 3 गतिनी विद्या मेळवी सिंहरथ राजा विद्याधरनो मुख्य थयो. अने पूर्वभवना संबंध जन्य प्रेमथी पूर्ण पोतानी ए मियानी रजा लइ ते राजा आकाश मार्गे पोताने नगर आव्यो, ते पुरमा केटलाक दिवस रही पाछो ए सिंहरथ राजा ते पर्वत उपर आव्या. आम पोताना For Private and Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ नगरथी नित्य नग उपर गत आगत करवा लाग्या ते उपरथी तेनुं लोकमां नगाति नाम प्रसिद्ध थयु. उत्तराध्य-DEL भाषांतर यन सूत्रम् २ अन्यदा तत्र नगे तं भूपं स व्यंतर एवमाहाहं मत्स्वामिनिर्देशादेशांतरं गमिष्यामि, त्वं मत्पुत्रीं स्वनगरे नीत्वेमं JE अध्ययन९ नगं शन्यं माकार्षीः. एवमुक्त्वा स व्यंतरः स्थानांतरमगात् , नृपस्तनगे महन्नगरं व्यधात् , नगातिपुरमिति नाम ॥५७०।। कृतवान् , तत्रस्थो राजा तया राज्या सह भोगान् भुंजन सुखेन कालं निर्गमयति. तत्र राज्यं पालयतस्तस्य बहुतरः ॥५७०॥ KE कालो ययौ. अन्यदा नगातिनृपः पुरपरिसरे वसंतोत्सवं दृष्टुं जगाम, मार्गे मंजरीपुंजमंजुलमाम्रवृक्षमद्राक्षीत् , तत ३६ एका मंजरी नृपतिर्लीलया स्थकरेण जग्राह, गतानुगतिका लोका अपि तस्य मंजरीफलपत्रादिकं जगृहः, भूमिपाल: क्रीडां कृत्वा ततः पश्चादलितस्तमाम्रवृक्ष काष्ठशेषमालोक्यैवं चितितवान् , अयमाम्रवृक्षो नेत्रप्रीतिकरो यो मया EG पूर्वमागच्छता सृष्टः, सोऽयं काष्टशेषो विगतशोभः सांप्रतं दृश्यते, यथायं तथा सर्वोऽपि जीवः कुटुंबधनधान्यदेहाal दिसौंदर्यभ्रष्टो नैव शोभा प्रामोनि, एतच्च सर्व विनश्वरं यावन्न क्षीयते तावत्संयमे यत्नः कार्यः, इति चिंतयन्नगातिः Jछ मतिबुद्धो जातः, शासनदेवीप्रदत्तवेषः संयममाददे. एक समये ते नगमां राजा सिंहरथने ते व्यंतर एम बोल्यो के-'हवे हुं मारा स्वामीनी आज्ञाथी देशांतरे जइश तो तमें पोताने | hdनगर मारी पुत्रीने तेडी जइ आ पर्वतने शून्य करशो मां ? आटलुं बोली ते व्यंतर स्थानांतरे गयो. राजाए ते नगमा महोटुं नगर RE| वसावी तेनुं नगातिपुर नाम करी तेमां राजाए राणीनी साथे नाना प्रकारना भोग भोगवतो सुखेथी काळ गाळतो इतो, एम त्यां For Private and Personal use only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir HI उत्तराध्य- राज्य पाळतां केटलोक काळ वीत्यो. एक समये राजा नगातिपुरी समीपे वसंतोत्सव निरखवा नीकल्या, त्यां मार्गमां मंजरीपुंजथी सुंदर भाषांतर यन सूत्रम् अर्थात् मोरना भरावथी शोभीतो एक आम्रवृक्ष दीठो; राजाये तेमांथी एक मंजरी मोरनोझुमखो लीला बुद्धिथी पोताने हाथे तोडी PE अध्ययन ॥५७१॥ लीधो. लोक तो हमेशा मतानुगतिक होय छे तेथी राजानुं जोइ बीजा लोकोए पण कोइए मोर लोधो, कोइये कुंपळ पत्र लीधां, ॥५७१॥ | कोइए नना फळ (खाखटी) लीधां, अने कोइए तो वळी डाळखीयो तोडी. राजा क्रीडा करीने पाछा बळ्या ज्यां ए आम्र पांसे आवीने | जुए छे तो ए आम्रवृक्षने काष्ठ शेष जोइ मनमां चिंतन करवा लाग्या 'अरे जे आम्रवृक्ष प्रथम अहीं आवतां केवो नेत्रने पीनि उत्पन्न कर तेवो देख्यो हतो ते आ अटाणे काष्ठ शेष शोभा रहित देखाय छे. जेम आ तेमज सर्वे जीवो पण धनधान्य कुटुंब देह आदिक सर्वे सादर्य भ्रष्ट यतां शोभताज नथी. अरे आ विनश्वर सघळु ज्यां सुधी क्षय न पामे त्यां मूधीमां संयम विषये यत्न करवो जरुरनो छे; आq चिंतन करतां नगाति प्रतिबुद्ध थया; त्यारे शासन देवताए वेष अर्यो अने पोते संयम गृहण कर्यो. ___अन्यदा ते करकंडुद्विमुखनमिनगातिराजानश्चत्वारोऽपि प्रत्येकबुद्धाः संयमिनो विहरतोऽन्येयुः क्षोणीप्रतिष्टनगरे प्राप्ताः, तत्र चतुर्मुख देवकुले क्रमतः पूर्वाद्येषु चतुर्दिग्द्वारेषु युगपत्प्रविष्टाः, तेषामादरकरणार्ध चतुर्मुखो यक्षः समं तात्सन्मुखोऽभवत् , तदानीं करकंडमुनिः स्वदेहकंडरोगोपशमनाय कर्णवृतां शलाकां गोपयन द्विमुखेन संयमिनोक्तः JE पुरमंतःपुरं राज्यं देशं च विमुच्य पुनस्त्वं किं संचयं कुरूषे? करकंडूमुनियांवत्तंपति वक्ति तावन्नमिराजर्षिणा द्विमु | खंमत्येवमुक्तं सर्वाणि राज्यकार्याणि मुक्त्वा पुनस्त्वया किमिदं शिक्षारूपं कार्य कर्तुमारब्धं? यावद् विमुखो मुनि Matpatava بالبلاد لا اله الا اللقطة المقالات ع التكليف + For Private and Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् नमिराजर्षिप्रत्युत्तरं दत्ते तावनगातिराजर्षिरेवमुवाच, यदा राज्यं परित्यज्य भवान् मुक्ताबुत्सहते तदान्यं किमप्याख्यातुं नाहति. अथ करकंडमुनिस्तान बीन् प्रत्येवमुवाच साधुषु साधुहितं वदन्न दृष्यो भवनि, कंडूपशमनाय कर्णधृतोऽपि शलाकासंचयोऽयुक्त एव, परमसहता मया धृतास्तीति. एवं चत्वारोऽपि परस्परं संबुद्धाः सत्यवादिनः संयमाराधकाः केवलज्ञानमासाथ शिवं जग्मुः. अत्र नमिप्रसंगात्मत्येकबुद्धचतुष्टयकथा कथिता. ।। भाषांतर अध्ययन९ ॥५७२॥ ॥५७२। एक समये ते करकंडू, द्विमुख, नमि तथा नगाति; चारे प्रत्येकबुद्ध संयमी महात्माओ विहार करता करता क्षोणी प्रतिष्ठ | नगरने विषये आवी चड्या. त्यां चार द्वारना देवकुळमां क्रमथी पूर्वादिक चार दिशाओना द्वारोथी चारे एक काळे प्रविष्ट थया, तेने आदर देवा माटे चार मुखवाळो यक्ष चारे कोरथी संमुख थयो त्यारे करकंडू मुनिए पोताना देहना कंडू (चळ) रोगना उपशमन (मटाडवा) माटे कान उपर राखेली खणवानी शळाका संताढी एटले द्विमुख संयमिए कह्यु-नगर, अंत:पुर, राज्य अने आखो देश, आ बधानो त्याग कर्यो हवे संचय केम करो छो! करकंडू मुनि हजी ज्यां तेने उत्तर देवा जाय छे तेटलामां तो ए द्विमुख मुनिने | नमिराजर्षिए कह्यु-वर्धा राजकार्य छोडयां, फरी हवे आशुं शिक्षा कार्य करवान आदर्यु ? ज्यां द्विमुखमुनि नमिराजर्षिने उत्तर | देवा जाय छे तेटलामां तो वच्चे नगाति राजर्षि बोल्या के-ज्यारे तमे राज्यनो परित्याग करीने मुक्ति पामवा उत्साह करो छो all त्यारे अन्यने कइ पण कहेवाने तमने घटतुं नथी. आम उत्तरोत्तर एक पछी एक बोली रह्या त्यारे करकंडू संयमी ते द्विमुखादि त्रणे प्रत्ये एम बोल्या के-'साधुओमां साधुओ हित कहेनारनो दोष न कहेवाय. चळ मटाइवाने कान उपर राखेली शळाकानो संचय For Private and Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir IAL भाषांतर अध्ययन९ ॥५७३॥ पण साधुने अयुक्तज छे; पण ए चळनी पीडा सहन न करी में शळाका धारण करी छे. आम चारे मुनिओ परस्पर संबुद्ध थइ सत्य- उत्तराध्य-HE यन सूत्रम् वादी तथा संयमाराधक रही केवळज्ञान संपन्न बनी शिव-परम कल्याण मोक्ष प्राप्त थया. नमिराजर्पिना प्रसंगथी नमिराजर्षिना जेवा चारे प्रत्येकबुद्धना चरित्रनी कथानुं निरुपण कयु. ॥५७३॥ ॥ इति नमिप्रव्रज्याख्यं नवममध्ययनं संपूर्णम्. ।। - -- ॥नमिप्रव्रज्याख्य नवम अध्ययन संपूर्ण थयुं ॥ . इति श्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रार्थदीपिकायामुपाध्यायश्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिशिष्यश्रीलक्ष्मीवल्लभगणिविरचितायां नमिप्रव्रज्याख्यनवमाध्ययनस्यार्थः संपूर्णः ॥ श्रीरस्तु ॥ इति श्रीमत् उत्तराध्ययन सूत्रनी उपाध्याय लक्ष्मीकीर्ति गणिशिष्य उपाध्याय लक्ष्मीवल्लभमूरि विरचिता अर्थ दीपिका नामनी | टीकामां नमि प्रवज्यानामक नवम अध्ययनो अर्थ संपूर्ण थयो. ईद्वितीयो भागः समाप्तः। For Private and Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 國家会计) $$$$$$$$$$$$$$$ $$ $$$$$ $$$$$$$ 会不会不会从会 听听听听听听听听F इति श्रीमदुतराध्ययनसूत्रे द्वितीयो भागः समाप्तः 555555555 $$$$$$$$ $$$ $$ $$$$$ $$$ For Private and Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 10940 Far Private and Personal Use Only