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उत्तराध्य- मूलार्थ:-(उ) वळी (इह) अहीं (एगे) परतीथिको (मण्ण ति) माने डे, तथा (पावर्ग) पापनो (अपचक्वाय) विना निरोधे पण मनु- भाषांतर यन सूत्रम् प्य (आयरिय) आचारमा (विदित्ताण) जाणीनेज (सतदुक्खा) सर्व दुःखथी (विमुबह मुक्त थाय के. ॥९॥
15 अध्ययन व्या०-इहास्मिन् संसारे एके केचित्कापिलिकादयो ज्ञानवादिन इति मन्यते, इतीति कि? पापक हिंसादिकमप्र॥३९ ॥
॥३९३॥ त्याख्याय पापमनालोच्यापि मनुष्य आचारिकंस्वकीयस्वकीयमतोद्भवानुष्टानसमूहं विदित्वा, ज्ञात्वा,सर्वदुःखाद्विमुच्यते एतावता तत्वज्ञानान्मोक्षावाप्तिः, इति वदंति जनानांतु ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः, ज्ञानवादिनांतु ज्ञानमेव मुक्त्यंगमिति.॥९॥
अर्थः-इह=आ संसारमा एके केटलाएक-कपिलानुयायी ज्ञानवादिओ एम माने छे के पापक हिंसादिक=नु प्रत्याख्यान कर्या विना अर्थात् ए पाप तरफ लक्ष्य दीधा विना पण मनुष्य आचारिक-पोतपोताना मतमा निर्दिष्ट अनुष्ठान समूहने जाणीने सर्व दुःखथी Rai मुक्त थवाय छे, आ उपरथी तेओ तत्त्वज्ञानथी मोक्ष प्राप्ति थाय छे, एम बोले छे भेद एटलो छे के जैनसिद्धांतमा ज्ञान तथा क्रिया २४ यवढे मोक्ष थाय छे ज्यारे ज्ञानवादी केवल ज्ञाननेज मुक्तिर्नु अंग माने छे. ॥९॥
भणेता अकरिता ये । बंधमोक्खपईन्निणा॥ वाया वोरियेमेत्तेण । समासासंति अप्पयं ॥ १०॥ मूलार्थः-(भणता) शान भणता (य) पण (अकरिता) मोक्षना उपायन अनुष्ठान नहि करता, तथा (बंधमोकखपाणो)बंध मोक्षनी प्रतिक्षा करता, एवो, (वाधावीरिभमेत्तेण) मात्र वाणीना धीयवडे करीनेज (अप्पय') आत्माने (समासासंति) आश्वासन आपे छे. ॥१०॥
व्या०-पुनस्त एव ज्ञानवादिनो बंधमोक्षप्रतिज्ञिनो वाचा वीर्यमात्रेण केवलं वाकशरत्वेमात्मानं समाश्वासयति,
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