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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन मुत्रम् ॥४०॥ पघातक इत्यर्थः ॥६॥ पुनः कीदृशः? अजकर्करभोजी, अजस्य छागादेः कर्करमतिभ्रष्टं यच्चणकवद्भुज्यमानं ककरायते तन्मेदो दंतुरं पकं शलाकृतं मांसं तद्भुक्ते, इत्येवंशीलोऽजकर्करभोजी, पुनस्तुंदमस्यास्तीति तुंदिलो यथेप्सितभोज JEभाषांतर अध्ययन | नेन वर्धितोदरः, अत एव चितशोणितो वर्धितरुधिरः, रुधिरवृध्ध्यान्येषामपि धातूनां वृदिल्यते. ॥७॥ पूर्व 'हिसे बाले' इत्यादिनारंभोक्तिः कथिता, 'भुजमाणे सुरं मास' इत्यनेन दुर्गतिगमनभणनात्कष्टोत्पत्तिः कथिता. अथ गाथा- PREM ४०९॥ इयेन साक्षादिहेब कष्टं कथयति अर्थः-आ त्रण गाथा बडे पूर्वोक्त अर्थने दृढ करे हे एवो नर नरकमां आयुष्यने कांक्षे छ, अर्थात् नरक गति योग्य कर्मना आचरणथी ते नर नरक गतिनीज वांछना करे छे, जेम पूर्वे कहेल एलक-मेंढो आदेश-महेमानने माटे कल्पायेल होय छे. अर्थात् कोइ पापने योगे यथेष्ट भोजन खबरावीने पोषेलो मेंढो महेमानने इच्छे छे तेम ए बाल अज्ञानी हिंस्र-हिंसन शील, मृपावादी असत्य बोलनारो, अध्वनि जैन मार्गनो विलोपक, अन्यादत्तहर अन्यजनने नहिं दीधेलं हरनार, एटले अदत्तादान एवी, तथा स्तेन चोरी करी पोतानुं गुजरान चलावतो, मायी-कपट व्यवहार करतो, 'कन्हु हर'='केनुं हरी लर्ड' एवाज विचार करतो तथा शद-वक्रा चारी-कुटिलताथी भरेलो. ५ वळी ते स्त्रीविषयमा गृद्ध साकांक्ष तथा महारंभ परिग्रहमहोटा आरंभ करनारो तथा महोटा परिग्रह धारण करतो, मुरा सेवनारो तेमज मांगी खानारो, परिवूढ-मांस वधी जबाथी परिपुष्ट शरीरवान् , परंदम अन्य जीवोने दमन कर| नार अर्थात् पोतानी खातर परजीवनो उपघात करनारो. ६ पुनः ए अक्ष अजकर्करभोजी अजब-करा वगेरेनु, कर्कर एटले शूल उपर चडावी चणानी पेठे भुंनी नाखेलं चरवीवाळु मांस खानारो, अत एव तुंदिल-पेटनो गदाडो जेनो वधी गयो होय तेवो, तेम For Private and Personal Use Only
SR No.020855
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1935
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size15 MB
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