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उत्तराध्ययन सूत्रम्
भाषांतर अध्ययन
॥४०२॥
॥४०२।।
पूर्वमनुत्तरज्ञान्यनुत्तरदशीति विशेषणद्वयमुक्त्वा पुनरनुत्तरज्ञानदर्शनधर इति विशेषणमुक्तं, तेन केवलदर्शनयोरेकसमयांतरेण युगपदुत्पत्तिः सचिता, अनयोः कथंचिदभेदोऽभेदश्च सूचितः, पुनरुक्तदोषो न ज्ञेयः ॥१८॥
॥ इति क्षुल्लकग्रंथित्वाध्ययनं. अब्राध्ययने क्षल्लकस्य साधोनिग्नेथित्वमुक्तमित्यर्थः ॥ इति श्रीमदुत्तराध्ययनम्त्रार्थदीपीकायामुपाध्यायश्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिशिष्यलक्ष्मीवल्लभगणिविरचितायां क्षुल्लक| ग्रंथित्वाध्ययनस्य षष्ठस्यार्थः सपूर्ण ॥ श्रीरस्तु ।।
अर्थः-सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे छे के-हे जंबू! ते अर्हन ज्ञातपुत्र महावीरे आवी रीते उदाहृत करेल छे एवीज रीते हु तमारी आगळ बोलुं छु. अर्हन् इंद्रादिके पूज्य ज्ञात प्रसिद्ध, सिद्धर्थ क्षत्रियना पुत्र=ज्ञातपुत्र कहेवाया. ए महावीर केवा? भगवान अष्टप्रातिहार्य आदिक अतिशय महात्म्ये करी युक्त, तथा विशाला=त्रिशाला, तेना पुत्र, अथवा विशाल तीर्थ यशः प्रभृति गुण जेना ते वैशालिक, वळी व्याख्याता द्वादश पर्षदाओमां समवसरणावसरे धर्मोपदेश करनारा, अनुत्तरज्ञानी=सर्वोत्कृष्ट ज्ञानवान् अनुत्तरदर्शी सर्वोत्कृष्ट दर्शन संपन्न तथा अनुत्तर ज्ञानदर्शन धर=केवल ज्ञान तथा वर दर्शनने धारण करनारा थया. १८
अर्थः-अत्रे पहेला अनुत्तरज्ञानी तथा अनुत्तरदर्शी कहीने पुनरपि अनुत्तर ज्ञान दर्शन घर विशेषण का तेनो आशय एवो छे के-केवल ज्ञान अने दर्शननी एक समयान्तरे युगपत् उत्पत्ति सूचन करीने ए बन्नेनो कथंचित् भेद तथा अभेद दर्शाव्यो तेथी पुनरुक्ति दोषनी संभावना करवानी नथी..
अर्थः-आ अध्ययनमा क्षुल्लक साधुनु निर्ग्रथित्व कह्यं तेथी आ क्षुल्लक ग्रंथित्वाध्ययन कडेवायुं. इति श्रीउत्तराध्ययनदीपिका के जे श्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिशिष्य श्रीलक्ष्मीवल्लभगणि विरचित छे तेमां पृष्ठ अध्ययन पूर्ण थयु.
كفالقطان علائعات معاد للالتطعت علاقتنا ماتم
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