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उत्तराध्य-३ यन मृत्रम्
॥३२४॥
बडे अनुगत युक्त होइ परवशता भोगवता अर्थात् रागद्वेषादिग्रस्त बनेला, ए अधर्मना हेतु होवाथी अधर्म कहेवाता आवी रीते जुगुप्सामानतेना परिचयने निवरता, निंदा सर्वत्र निषिद्ध छे तेथी निंदा न करता गुण ज्ञानादि गुणोनी आकांक्षा करे,
भाषांतर अभिलाषा राखे. क्यां सुधी ?-ज्यां सुधी शरीरभेद आ शरीरनु पतन थाय तावत्पर्यंत निंदा परहरि ज्ञानादि गुणोने संपा- DF अध्ययन४ दन करवामां नित्य तत्पर रहे. एम ९ बोलु छु. आम सुधर्मास्वामी जंबूस्वामीने कहे . ॥ १३ ॥
॥३५४॥ इति प्रमादाप्रमादयोयोपादेयसूचकमसंस्कृतप्रथमपदोपलक्षितमसंस्कृताख्यं चतुर्थमध्ययनं संपूर्ण.
आवीरीते प्रमाद तथा अप्रमादनी क्रमे करी हेयता परित्याज्यता तथा अप्रमादनी उपादेयताअनुष्ठेयतानुसूचक. आरंभमां प्रथम ' असंस्कृत' ए पदथी उपलक्षित आ असंस्कृताख्य चतुर्थ अध्ययन संपूर्ण थयु. इति श्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रार्थदीपिकायामुपाध्यायश्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिशिष्यलक्ष्मीवल्लभगणिविरचितायां
चतुर्थमध्ययनस्यार्थः संपूर्णः श्रीरस्तु ॥ इति श्रीमदउत्तराध्ययनमूत्रार्थदीपिका मामनी उपाध्याय श्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिना शिष्य लक्ष्मीवल्लभगणिए विरचित
दृचिमां चतुर्थअध्ययननो अर्थ संपूर्ण थयो
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