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उत्तराध्यपन सूत्रम्
भाषांतर अध्ययन८
॥४३५॥
॥४३५॥
व्युत्सृष्टः, न मे कोट्यापि कार्यमित्युक्त्वा स श्रमणस्ततो विहतः षण्मासान् यावच्छद्मस्थ एवासीत् , पश्चात्केवली | जातः. इतश्च राजगृहनगरांतरालमार्ग बलभद्रप्रमुखाश्चौराः संति, एतेषां प्रतियोधो मत्तो भविष्यतीति ज्ञात्वा स कपिलकेवली गतः, तैष्टः प्रोक्तश्च भोः श्रमण! नृत्यं कुरु? केवली प्राह वादकः कोऽपि नास्ति. ततस्ते पंचशनचौरास्तालानि कुट्टयंति, कपिलकेवली च गायति, तद्गीतवृत्तमाह
जेम लाभ थाय तेम लोभ थाय. लाभथी लोभ वधे छे. ये मासा सोनाने काजे कोटिथी पण निष्ठा=न थइ. अर्थात् करोड द्रव्य मागवानी इच्छाथी पण संतोष न वळ्यो आम विचारीने तृष्णानो परित्याग करी हुं संयमी थयो.' राजाए कयु-एक कोटि द्रव्य पण तमने आपुं. कपिल कहे-में तो सर्व परिग्रह तद्दन छोड्यो. मने हवे कोटि द्रव्यर्नु पण काम नथी. आटलं बोली ते श्रमण त्यांथी विहार करी गया, छ मास सुधी छाना रद्या ते पछी केवली थया. अहींथी-'राजगृह नगरना अंदरना मार्गमां बलभद्र आदिक चोरो
छे तेओने माराथी प्रबोध यशे? एम जाणीने कपिल केवली त्यां गया. ते चोरोए जेवा कपिल केवली दीठा के तेने कयु के-'हे | श्रमण! नृत्य करो.' केवली बोल्या के-'कोई बगाडनार नथी' आ उपरथी पांचसो चोर ताली पाडवा लाग्या एटले कपिल केवली गाय छे-तेमणे गायेल वृत्त कहे - अधुवे असासयंमि । संसारंमि दुक्खपउराए ॥ कि नाम हुज ते कम्मं । जेणाहं दुग्गेई ने गछेचजो॥१॥ मूलार्थ-(अधुर्व) अस्थिर तथा (आसासयम्मि) अशाश्वत तथा (दुक्खपउराए) प्रचुर दुःखवाळा (संसारम्मि) आ संसारने विषे | (किं नाम) कयु(त) ते [कम्मयं] कर्म-अनुष्ठान (होज) होय [जेण अह] जे अनुष्ठान वडे हुं (दुग्गर) दुर्गति प्रत्ये (न गच्छेज्जा) न जाउं? १
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