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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobarth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie भाषांतर अध्ययन ॥५३०॥ JE सर्वसावद्यत्यागी न भवति, देशविरत एव स्यात्, तस्मात्सर्वनिरवद्यत्वाजिनोक्तत्वान्मोक्षार्थिना निरवद्यधर्म एवासउत्तराध्य यणीयः, साबधस्तु नाश्रयणीयः, आत्मघातादिवत् ।'४४|| यन सूत्रम् अथे-जे कोइ बाल निर्विवेकी नर, महीने महीने गात्र कुशाग्र बडे भोजन करे. अर्थात् महिनाना अपवास करी दभना अग्र ॥५३०॥ a उपर चडे एटलं अन्न लइ पारणा करे; अथवा कुशाग्रथीज आहार वृत्ति करे, अन्नादिक कंइन लीये अधवा अल्पाहारी रहेएका कष्ट वेठनारो पण, स्वारख्यात धर्म, एटले सम्यक रीते निरवद्य कथेला जिनोक्त-संयम धर्मनी पोडशी सोळमी कलाने अर्घतो नथी. माटे गृहमा रहेतो लाभ अलाभने न जाणनार नर तथा यथोक्त चारित्रने पालनार साधु; आ मां महोड़े अंतर छे. भले गृहस्थ | अत्यंत धर्मात्मा होय घरमा रही तप करतो होय तथापि सर्व सावध सदोष नो त्यागी नथी होतो वहु तो देशविरती होय. माटे सर्वथा निरवध तथा जिनोक्त होवाथी मोक्षार्थी ए निरवध धर्मज आश्रयणीय छे. जे दुष्कर होय ते आदरणीय होय तो आत्मघात | पण दुष्कर होइ आश्रयणीय थाय माटे निरवद्य होय आदरचा योग्य छे, सावधनो सर्वथा आश्रय लेवो अयोग्य छे. ४४ एयमढ़ निसामित्ता। हेऊकारणचोइओ ॥ तओ नमी रायरिसिं । देविंदमिणमब्बवी ॥४५॥ ४५ गाथानो अर्थ १७ गाथा प्रमाणे. व्या०-ततः पुनर्नमिराजर्षिप्रति देवेंद्र इदमब्रवीत्. ॥४५॥ (आ टीकानो अर्थ आगळ मुजब) हिरण सुवणं मणिमुत्तं । कसं दूसं च वाणं ॥ कोसं वढावइत्ताणं । तओ गच्छसि खेत्तिया ॥१६॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020855
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1935
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size15 MB
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