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उत्तराध्ययन सूत्रम्
नमिराजर्षिप्रत्युत्तरं दत्ते तावनगातिराजर्षिरेवमुवाच, यदा राज्यं परित्यज्य भवान् मुक्ताबुत्सहते तदान्यं किमप्याख्यातुं नाहति. अथ करकंडमुनिस्तान बीन् प्रत्येवमुवाच साधुषु साधुहितं वदन्न दृष्यो भवनि, कंडूपशमनाय कर्णधृतोऽपि शलाकासंचयोऽयुक्त एव, परमसहता मया धृतास्तीति. एवं चत्वारोऽपि परस्परं संबुद्धाः सत्यवादिनः संयमाराधकाः केवलज्ञानमासाथ शिवं जग्मुः. अत्र नमिप्रसंगात्मत्येकबुद्धचतुष्टयकथा कथिता. ।।
भाषांतर अध्ययन९
॥५७२॥
॥५७२।
एक समये ते करकंडू, द्विमुख, नमि तथा नगाति; चारे प्रत्येकबुद्ध संयमी महात्माओ विहार करता करता क्षोणी प्रतिष्ठ | नगरने विषये आवी चड्या. त्यां चार द्वारना देवकुळमां क्रमथी पूर्वादिक चार दिशाओना द्वारोथी चारे एक काळे प्रविष्ट थया,
तेने आदर देवा माटे चार मुखवाळो यक्ष चारे कोरथी संमुख थयो त्यारे करकंडू मुनिए पोताना देहना कंडू (चळ) रोगना उपशमन (मटाडवा) माटे कान उपर राखेली खणवानी शळाका संताढी एटले द्विमुख संयमिए कह्यु-नगर, अंत:पुर, राज्य अने आखो देश,
आ बधानो त्याग कर्यो हवे संचय केम करो छो! करकंडू मुनि हजी ज्यां तेने उत्तर देवा जाय छे तेटलामां तो ए द्विमुख मुनिने | नमिराजर्षिए कह्यु-वर्धा राजकार्य छोडयां, फरी हवे आशुं शिक्षा कार्य करवान आदर्यु ? ज्यां द्विमुखमुनि नमिराजर्षिने उत्तर | देवा जाय छे तेटलामां तो वच्चे नगाति राजर्षि बोल्या के-ज्यारे तमे राज्यनो परित्याग करीने मुक्ति पामवा उत्साह करो छो all त्यारे अन्यने कइ पण कहेवाने तमने घटतुं नथी. आम उत्तरोत्तर एक पछी एक बोली रह्या त्यारे करकंडू संयमी ते द्विमुखादि त्रणे
प्रत्ये एम बोल्या के-'साधुओमां साधुओ हित कहेनारनो दोष न कहेवाय. चळ मटाइवाने कान उपर राखेली शळाकानो संचय
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