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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'भाषांतर अध्ययन८ ।४४० उत्तराध्य | कायेन, तेषु दंडं न समारभेत, वधं न कुर्यादित्यर्थः. अनोजयिन्यां श्राद्धपुत्रस्य कथा वाच्या. ॥१०॥ यन सूत्रम् ___अर्थ-जगत् लोक, तेमां निश्रित आश्रित, त्रस तथा स्थावर जीवोने विषये मनथी वचनथी अथवा कायाथी कोइपण प्रकारनो ॥४४५॥ दंड देवा आरंभ न करे कोइपण प्राणीनो वध न आदरे. १० अत्रे उज्जयिनीना श्राद्धपुत्रनी कथा वांचवी. सुसणाओ नचाणं तत्त ठविज भिक्खू अप्पाण ॥जायाए घासमेसिजा ! रसँगिद्धे ने सँया भिक्खाए॥११॥ मूलार्थ-(भिख्खू) साधु (सुद्धसणाओ) शुद्ध एषणाने (नचाणं) जाणीने (तत्थ) ते एषणाने विषे (अप्पाणं) आत्माने (ठविज) स्थापन करे, (भिक्खाए) भिक्षाने खानार साधु (जायाय) यात्राने माटे (घास) ग्रासनी (पसिज्जा) गवेषणा करे. परंतु (रसगिद्धे.) || स्निग्ध (न सिया) थाय नहीं. ११ व्याख्या-भिक्षुः साधुः शुद्धेषणां ज्ञात्वा शुद्धाहारग्रहणं विज्ञाय तत्र निर्दोषग्रहणे आत्मानं स्थापयेत्, पुनः साध्वाचारं वदति-भिक्षादो भिक्षाचरो मुनिर्यात्रायै शरीरनिर्वाहाय ग्रासमाहारमेषयेद् गवेषयेत् , न पुनः साधू रसगृद्धः स्यात्. ।। ११॥ ___ अर्थ-भिक्षु-साधु, शुद्धेपणा-शुद्ध आहारनुं ग्रहण जाणीने तेमां निर्दोष ग्रहणमां आत्माने स्थापित करे. (पुनः साधुनो आचार BE कहे छे.) भिक्षाद-भिक्षित पदार्थ खानार मुनि केवल यात्रा शरीरनिर्वाहने अर्थे ग्रास आहारने खोळे. साधु पुनः रसगृद्ध-रसमां लोलुप न थाय. ११ For Private and Personal Use Only
SR No.020855
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1935
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size15 MB
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