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भाषांतर अध्ययन
॥४११॥
॥४१॥
उत्तराध्य-JE
| त्यक्त्वा, पुनर्घह प्रचुरं रजः पातकं 'संचिणिया' संचित्य समुपायं, एतावना बहुभिः परिग्रहः पातकमुपाया॑युर्षोते पन सूत्रम् स आरंभी जीवः शोचते. कथंभूतः सः? जंतुः कर्मगुरुः, कर्मभिर्गुरुः कर्मगुरुः, गुभकर्मा, स क इव शोचते? अज इव
यथा पूर्वोक्तोऽज आदेशे प्राघूर्णके आगते सति शोचते, तथा स महारंभी परिग्रही विषयी जीवो मरणसमये शोचत इत्यर्थः ॥८॥९॥ पुनस्तदेव दृढयति_ अर्थः-प्रथमतो आसन गादी तकीया वगेरे सुखासन, शयन-छत्रीपलंग हिंडोळा वगेरे, यान घोडागाडी पालखी वगेरे, वित्त-द्रव्य; इत्यादिक विविध कामना विषय भोगो भोगवी दुःखाहत अति कष्टथी मेळवेल धनने मूकीने तेमज बहु रज-शब्दबोधित पातकने समुपार्जित करी-अहीं सुधीना वर्णवेला सकल परिग्रहद्वारा पुष्कळ पातकनो संचय करी तदनंतर प्रत्युत्पन्न परायण अर्थात् प्रत्यक्ष भोगवता विषयमुखमांज तत्पर बनीने, परलोक मुख छेज नहि' एम मानी नास्तिकवादी बनेलो जन, मरणांते एटले मरण समीपे आवे त्यारे पूर्वोक्त अज जेम महेमान आवे त्यारे मस्तक छेदाती वेळाए शोक करे तेम आ जीव पण महारंभी, कर्मगुरु पोताना कर्मो वडे गुरु बोजादार थवाथी मरण समये शोक करे छे. ९ पुनरपि एन विषयने दृढ करे छे.
तेओ आउँपरिक्खीणे । चुआ देहा विहिंसंगा ॥ आसुरीयं दिस बोला। गच्छंति असा तमं ॥१०॥ मूलार्थः-(तओ) त्यार पछी (विहिंसगा) विविध प्रकारे हिंसा करनारा (बाला मूढ (आउपरिक्खीणे) आयुष्य क्षीण थये सते (देहा) देहथी चुिआ] चव्या थका (अवसा) पराधीन एवा (तप) अंधकार बडे युक्त [आसुरीय] असुर संबंधी (दिसं] नरक प्रत्ये [गच्छति]जाय छे१०
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