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उत्तराध्यपन मुत्रम
भाषांतर अध्ययन
॥५१॥
॥५११॥
स्वीपुत्रादिक परिहरीने भिक्षाचर वनेलो तथा निर्व्यापार; अर्थात् कशी प्रवृत्तिनो आरंभ न करनार एटले पचीश क्रियारहित बनेला साधुने कशु प्रिय के अप्रिय होतुंज नथी. १५
बहुं खु मुर्णिणो भैई । अणगारस्स भिक्खुणो ॥ सवओ विप्पमुक्कस्स । एग तमणुपस्सओ ॥१६॥ | मूल-(सव्यओ) सर्व परिग्रहथी (विष्पमुकस्स) विप्रमुक्त (एगत) हुपकलो (अणुपस्सओ) विचरता एवा, तथा (अणगारस्स) घर रहित पया मुणिणो) मुनिने (भिक्खुणो) भिक्षुक छतां (बहु खु) घणुज (भई) सुख छे १६ ___ व्या०--खु इति निश्चयेन मुनेः साधोबहुभद्रं प्रचुर सुख वर्तते, कथंमृतस्य मुनेः? अनगारस्य नियतवासरहितस्य, पुनः कीदृशस्य मुनेः? भिक्षया गृहीताहारस्य, किं कुर्वतो मुनेः? एकांतमनुपश्यतः एक एवाहमियतो निश्चय एकांतस्तं निश्चयं विचारयत एकत्वभावनां कथयतः, पुनः कीदृशस्य मुनेः? सर्वतः परिग्रहाद्विप्रमुक्तस्य. ॥१६॥
अर्थ-खलु-निश्चये मुनिने बहुभद्र, एटले घणुंज सुख होय छे, केवा मुनिने? अनगार=नियतस्थानके वास न करनार तथा भिक्षावडे आहार ग्रहण करनारा तेमज एकांतनु अनुदर्शन, अर्थात् हुँ एकलोज / आवा निश्चयनु अनुचिंतन राखनार अने सर्वपरिग्रहथी विशेषे करीने प्रमुक्त थयेला मुनिने बहु मुख होय छे. १६
एयम निसामित्ता ! हेऊकारणचोइओ ॥ तओ नाम रीयरिसिं। देविंदो इणमब्बवो ॥१७॥ मूल-पय मह] आ अर्थने (निसाभित्ता) सांभळीने [तो त्यारपछी (हेऊकारणचोइओ) हेतु अने कारथी प्रेरायला एवा (देविंदो)
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