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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥३५१ ॥ www.kobatirth.org यथार्ह भृत्यान् भोजयंति कार्येषु नियुंजयंती च भर्त्रा गृहस्वामिनी कृता. इहैव जन्मनि प्रथमस्त्रीवत्प्रमादादोषान् प्राप्नोति, अप्रमादाद द्वितीय स्त्रीवद् गुणानवाप्रतीत्युपनयः. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एम अन्य पण पूर्वे करेलां कर्मोना विपाककाळे विवेक न मेळवी शके तो पूर्वोक्त ब्राह्मणीनी दशा पामे – [ समिच्च ] अत्रे प्रमाद परिहार तथा प्रमादनो अपरिहार करवाथी शुं परिणाम आवे ते बाबत वे वणिक् स्त्रीओनुं उदाहरण कहे छेएक वणिक्रमहिला तेनो पति विदेश प्रवासे गयो त्यारे रोज पोताना शरीरनीज शुश्रूषा करवामां तत्पर रहेती, घरकाममा प्रमत्ता=गाफल, दासदासी वगेरेने खावापीवानुं देवामां पण चे दरकार रहे तेथी तेने छोडीदीधी अने वधां चाल्यां गयां, घणी परदेशथी घरे आव्यो त्यारे घरे नोकर चाकरनी हानि जोड़ ते स्त्रीने काही सूकी. ए वाणीयो पुष्कळ द्रव्य खरचीने बीजी परणी लाव्यो ते स्त्री शरीर संस्कार टापटीपमां बहु ध्यान न देतां नोकर चाकरथी काम लेवामां तेमज तेओने खावापीवानुं देवामां हमेशां जराय ममाद = गफलत न राखे तेथी धणीए तेने आखा घरनी अधिष्ठात्री=मालिक बनावी. आज जन्ममां प्रमाद राखवाथी पहेली स्त्रीनीपेठे दोषपात्र गणाय छे अने अप्रमाद रहेवाथी बीजी स्त्रीनीपेठे गुण पमाय छे. ए आ दृष्टांतनो उपनय = फलितार्थ जणाय छे. मुंहुं मुहं मोहंगुणे जैयंतं । अणेगंरूवा समणं चरतं ॥ फासा फुंसंती असमंजसं । नैं तेसुं भिक्खूं मणेसा मे ॥ ११ ॥ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्ययन ४ ॥३५१।।
SR No.020855
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1935
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size15 MB
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