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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन मुत्रम् भाषांतर अध्ययन५ ॥३८१॥ ॥३८॥ अर्थः-मेधावी बुद्धिमान साधु, तथा भूत विषय कपायादिकथी रहित आत्मा थइ प्रसन्न रहे, केम करीने ? ते कहे छे- बालमरण अने पंडितमरण ए बन्नेनी तुलना करी अर्थात वेयन तारतम्य कळी लइने, ए बेयमांथी विशिष्टता ग्रहण करीने तेमज दयाधर्म यतिधर्मनी लांतिवडे विशेषता समजीने, एटले बीजो धर्मथी साधुधर्म क्षमावडे विशिष्ट छ एम जाणीने, विशेषतः प्रसन्न थाय-कषायादिकथी विरक्त थाय ॥ ३० ॥ तओ काले अभिप्पेए । सढी तालसमंतिए ॥ विर्णइज लोमहरिसं । भेयं देहंस कंखए ॥ ३१ ॥ भूलार्थ:-(तो)-पछो (काले)-मरणकाळ [अभिप्पेप) दृष्ट सते (सही-श्रद्धावान (अतिए) गुरुनी समीपे (तालिस)-तेवा प्रकारना (लोमहरिस')-रोमांचने (विणइज]-दूर करवा (देहस्स-शरीरना (भे)=नाशनी (कखए)=अभिलाषा करवी ॥३१॥ व्या०-ततः कषायोपशमनानतरं काले मरणसमयेऽभिप्रेते सति रुचिते सति श्रद्धी श्रद्धावानंतिके गुरूणां समीपे तादृशो भूयात् , उत्पन्न रोमहर्ष रोमांचं हा मे मरणं भावीति भयाभिसूचकं रोमोद्गमं विनयेत् स्फेटयेत् , मरणभयं न कुर्यात् , देहस्य भेदं कक्षित, शरीरस्य त्यागमभिलषेत् , यादृशो हर्षों दीक्षावसरे यादृशो हर्षः संलेखनावसरे, ताहशो हर्षो मरणसमयेऽपि विधेयो न भेतव्यमित्यर्थः. ॥ ३१॥ अर्थः-ततः कषायोपशम थया पछी काल-मरण समय ज्यारे अभिप्रेत-रुचे अर्थात् ' हवे मरण भले थाय ' एबी मनोदशा याय त्यारे श्रद्धी श्रद्धावान्-साधु गुरुनी अंतिके समीपे तारश थइ जाय, केवो थाय ? ते कहे है-रोमांच उपजे, एटले For Private and Personal Use Only
SR No.020855
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1935
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size15 MB
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