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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir انها من الحالات व्या -पिंडोलगोऽपि भिक्षुर्यदि नरकान्न मुच्यते तदा दुःशीलः कषायादियुक्तस्तु नरकान्न मुच्यत एव, पिंडं उत्तराध्य- परदत्तग्रासमवलगते सेवत इति पिंडोलगः, अत्र निश्चयमाह-भिक्षादो भिक्षुरथवा गृहस्थो वा भवेत् तयोभिक्षाद- |भाषांतर यन सूत्रम् गृहस्थयोः साधुश्रावकयोमध्ये यः सुव्रतः सुष्टु शोभनानि व्रतानि यस्य स सुव्रतः, स दिवं स्वर्ग क्रमति व्रजतीत्यर्थः, अध्ययन५ ॥३७४॥ ___ अर्थः-पिंडोलग-परदत्त पिंड अन्नग्रासने सेवनार भिक्षु पण जो नरकथी मुक्त न थाय तो पछी दुःशील-कषायादियुक्त ॥३७४|| Rell तो नरकथी केम मुक्त थाय ? आ विषयमा निश्चय कहे छे-भिक्षाद-साधु, होय अथवा गृहस्थ होय ए बेयना मध्यमां जे सुव्रतJE| शोभनव्रत आचरता होय ते दिव-स्वर्ग जाय. अत्र द्रमककथा-राजगृहे कश्चिद द्रम्मक उद्यानिकानिर्गतजनेभ्यो भिक्षामलभमानो रुष्टः सर्वेषां चूर्णनाय BE बैभारगिरिशिलां चालयन् शिलांतर्निपतितः, शीलातले चूर्णितवपुः सप्तमं नरकं गतः. एवं भिक्षुरपि दुर्ध्यानेन दु:शीलत्वानरकमेव गच्छतिती परमार्थः ॥ २२ ॥ राजगृहमा कोइ एक द्रमक हतो ते उद्यानिका बगीचामांथी नीकळता जनो पासेथी भिक्षा मळी नहि तेथी रुष्ट थइ सर्वेनं चूर्ण करी नाखवानी धारणाथी वैभारगिरिनी महोटी शिला चलावतां पोतेज शिलातले आवी पडतां पोतानुं शरीर चूर्णित धइगयु अने | ते सातमे नरके गयो. एवीरीते भिक्षु पण दुर्ध्यान करवाथी दुःशील बनी नरकेज जाय छे ॥ २२ ॥ | अगारी सामाइयंगाइ । सेहो कारण फासेए ॥ पोसहं दुहओ पंक्खं । एगराइं न होवए ॥ २३ ॥ انعكاساتها التمثال الشعر ليبيا For Private and Personal Use Only
SR No.020855
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1935
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size15 MB
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