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5 भूयांसश्च तेऽचिमालिनश्च भूयोचिंमालिनस्तद्वत्यभा येषां ते भूयोर्चिमालिप्रभाः. उत्तराध्य
DEभाषांतर पन सूत्रम् ___अर्थः-त्रणे गाथानो एक वाक्यरुपे समन्वय होवाथी कुलक कहेवाय छे, ते भिक्षाद-साधुओ अथवा गृहस्थो संयम तथा तपः
अध्ययन५ शीखी-गुरुपासेथी उपदेशद्वारा हृदयमा धारण करी परिनिर्वत थया अर्थात् विधृत के कषाय तथा मल जेनां एवा थाय त्यारे ॥३७९॥
| तेओ उत्तर=सर्वे देवलोकोनी उपर रहेलां पंच अनुत्तर विमानात्मक-जे स्थानमा उत्पन्न यता देवाने मिथ्यात्वनो अभाव होवाथी ॥३७९॥ सम्यक्त्व सधः थाय हे, तथा विमोह-अज्ञानरहित वळी द्युतिमान-दिप्तियुक्त अनयक्ष देवोए समाकीर्ण-व्याप्त, एवां स्थानोने अनुपूर्वशः एक पछी एक प्राप्त थाय छे, अहीं प्राकृत होवाथी लिंगनो व्यत्यय दोष नथी गणातो पुनरपि ते स्थानोनां विशेषण कहे छे-आवास चारेकोर क्यांय पण दुःखलेश न होवाथी आहादपूर्वक जेमा रहेवाय छे एवां स्थानो पामे छे; ए साधु गृहस्थ त्यां रहीने यशस्वी थाय छे, आ ठेकाणे बीजो टीकामां कहेलां साधु तथा श्रावकनां विशेषणो ले ते पण कहे छे ते साधु तथा गृहस्थ जीव देव थाय त्यारे केना थाय छे ? ते कहे छे-दीर्घायुष-पल्य सागरोपमजीवी बने छे, बळी ऋद्धिमान हेम रत्नादि समृद्धिसम्पन्न, अने कामरूपी स्वेच्छाप्रमाणे रूप धारण करनारा मनमा धारे तेवां रुप धारण करी शके तेवा तेमज अधुनोपपन्नसंकाश-जेनी कांति दीप्ति ऋद्धि तथा वर्णादिक जोइने 'हमणांज उत्पन्न थया होय' तेवा जणाता, विशेषमां भूयोर्चिमालिपभ= कोटिमूर्यसमान ज्योतिवडे शोभता एवा ते साधुश्री अथवा गृहस्थो क्रमे करी ते पूर्वोक्त स्थानोने प्राप्त थाय छे. आम आ त्रणे गाथानो एकत्र अर्थ छे ॥ २८ ॥
तेसि सुच्चास पुजीणं । संजयाणं वुसीमओ ॥ संतसति मरणंते । नं सीलवंता बढुस्सुया ॥ २९ ॥
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