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उत्तराध्ययन सूत्रम्
॥४१७|||
जे अनेक वर्षनयुत थाय छ, अर्थात् जे पल्योपम सागरोपम थाय छे, अहिं 'अनेक वर्ष नयुतानि'ने बदले पुलिंगनिर्देश माकृत होवाथी || | भाषांतर करेल छे. अथवा ज्या देवस्थितिमा अनेक वर्षनयुत काम थाय छे ते सर्वेपल्योपमसागर, तावत्ममाण आयुष दिव्यस्थिति विषयभूत, अध्ययन कर्मेधस-दुर्बुद्धि (कष्ट मेधावाळा) पुरुषो, महावीरस्वामीवारना सो वर्षथी पण ऊनओछां आयुषथी जीताय म्हारी बेसे छे.
॥४१७॥ अर्थात् तुच्छ मनुष्य सुखना लाभथी मूर्ख देवस्थिति सुखथी हीन थाय छे. १३ हवे चे गाथा बडे व्यवहारोपमा कही देखाडे छेजहा य तिन्नि वणिया । मलं चित्तणे निग्गया ॥ एगोत्थ लैंहए लाभं । एंगो मूलेणे आगओ ॥१४॥
एगो मलंपि हारिती । आगेओ तत्) वाणिओ ॥ वैवहारेउवमा एसा । एवं धैम्मे बियाणेह ॥१५॥ मृलार्थः-(जहाय) बळी जेम (तिणि] प्रण (वणिमा) वणिको (मूलं) मूळ मुंडीने (घितूण) ग्रहण करी (निग्गया) बहार नीकळ्या | (अत्थं) तेमां (एगो) एक वणिक (लाभ) लाभने (लहस) मेळवे छे, अने (तत्थ) ते त्रणमांथी (एगो) एक (वाणिओ) वणिक मूलंपि) मळ मुळीने पण (हारित्ता) हारीने (आगओ) पाछो आवे छे (ववहारे) व्यापारने विषे (एसा) आ (उवमा) उपमा कही छे (अव) | पंज प्रमाणे (धम्मे) धर्मने विषे पण [विआणह) तमे जाण १४-१५
व्या०-यथा च त्रयो वणिजः कस्यचियापारिणः समीपान्मूलं नीवीद्रव्यं गृहीत्वा स्वकीयनगरादपरनगरे गताः. अत्र त्रिषु वणिग्जनेष्वेको लाभ लभते, एको मूलेन नीवीद्रव्येण सह समागतः, एको मूलं द्रव्यमपि हारयित्वा दातमद्यपरस्त्रीवेश्यासेवनादिकुव्यापारैगमयित्वा स्वगृहमागतः. एषा व्यवहारे उपमास्ति, एषैवोपमा धर्मेऽपियूयं DE जानीथेत्यर्थः ।। १४-१५ ।।
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