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उत्तमध्य- पन सूत्रम्
॥४२१॥
वेमायाहिं खिक्खाहिं । जे नरा गिहिसुर्वया ॥ उविति माणुसी जोणिं । कम्मसच्चा हूं पाणिणा ॥२०॥ भाषांतर मुलार्थः-(जे) जे (नरा) मनुष्यो विमायाहि] विविधि प्रकारनी [सिक्वाहि] शिक्षा बडे करीने (गिहिसुब्बया) गृहस्थी छतां
अध्ययन [माणुसं] मनुष्य संबंधी (जोणि') योनिने (उचिंति) पामे छे (हु) कारणके [पाणिणो] प्राणीओ (कम्मसचा) सत्व कर्मवाळा होय छे. २०३६
||४२१॥ व्या०-मानुषी योनि के व्रजति तदाह-ये नरा विमात्राभिर्विविधप्रकागभिः शिक्षाभिहिसुव्रता भवंति, गृहिणश्च ते सुव्रताश्च गृहिसुव्रता गृहीतसम्यक्त्वादिगृहस्थद्वादशवताः, ते प्राणिनस्ते जीवा हु निश्चयेन मानुषीं योनिमुत्पद्यते, सत्यानि अवंध्यफलानि कर्माणि ज्ञानावरणीयादीनि येषां ते सत्यकर्माणः कर्मसत्याः, प्राकृतत्वात्कर्मशब्दस्य प्राग्निपातः ॥ २० ।। ____अर्थः-मानुषी योनिने कोण प्राप्त थइ शके छे? ते कहे छे-जे नरो विमात्रा-विविध प्रकारनी शिक्षा वडे गृहि सुव्रता अर्थात् सदाचरणी गृहस्थ वन्या होय एटले सम्यक्त्वादि द्वादश गृहस्थव्रत जेणे ग्रहण कर्या होय तेवा प्राणिोते जीवो 'हु'निश्चयें, कर्मसत्य जेनां कर्मो सत्य अवंध्य फळ ज्ञानावरणीयादिक होय ते सत्य कर्म-कहेवाय (अहाँ कर्म सत्य पदमां सत्य पदनो पूर्वनिपात प्राकृत होवाथी करेलो छे) एवा सत्य कर्म जीवो मानुषी योनि पामे छे. २०
जैसिं तु विउला सिक्खा । मूलयं ते अइडिया ॥ सीलवती सविसेसी । अदीगी जंति देवयं ॥२१॥ | मूलार्थ-(तु) परन्तु (जेसि) जेभोने (घिउला) विपुल (सिक्खा) शिक्षा होय छे, [ते] तेओ [मूलिअं] मूळ धनरुप (अइथिआ)
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