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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य ओळंगीने (सोलवंता) शीलवंत (सबिसेसा) उतरोत्तर गुणने अंगिक्त करनारा [भदीणा] दीनता रहित (देवयं) देवलोकमां (जाति) जाय छे | पन सूत्रम् ३८ व्या-तुरेवार्थे, येषां जीवानां विपुला विस्तीर्णा शिक्षा ग्रहणासेवनादिकास्ति ते जीवा मूलकमिव | ३८ अध्ययन नृभवत्वमतिकांताः संतो देवत्वं याति प्राप्नुवंति. किंभूतास्ते जीवाः? शीलवंतः सदाचारः. पुनः कथंभूतास्ते? सवि॥४२२॥ ॥४२२॥ शेषाः, सह विशेषणेनोत्तरगुणेन वर्तत इति सविशेषाः, पुनः कीदृशाः? अत एवादीनाः, न दीनाः संतोषभाज इत्यर्थः.२१ ___अर्थः-अहीं 'तु' एवना अर्थमां छे. जे जीवोने विपुला=विस्तीर्ण शिक्षा ग्रहण आ सेवनादिक मळी होय छे ते जीवो मूलक एक मूळीयाने जेम ओळंगी जाय तेन नृभवत्व-मनुष्यभवने अतिक्रांत थइ देवत्वने पामे छे. केवा जीवो देवत्व पामे छे? ते कहे छे शलवान् सदाचरणी, सविशेष उत्तम गुण सम्पन्न तथा अदीन-संतोष सेवी; एवां विशेषणोवाळा जीवो मनुष्य भवमाथी देवत्व प्राप्त करी शके छे. २१ एवंमदीणवं भिक्खं । अगारिं च वियाणिया ।। कहनु जिच्चं मेलिक्खं । जिच्चमीणो न संविदे"॥२२॥ मूलार्थ-(पर्व) पज रीते (अदीणव) दीनता रहित पवा (भिक्खु) साधुने [च अने (अगारि) गृहस्थीने (विभाणीमा) जाणीने BE oil [कहनु] केवी रीते रिलिक्ख'] देवत्वादिक लाभने (जिचं) हारी जाय? तथा (जिचमाणो) हारतो धको (न संविहे) केम न जाणे?२२ व्या-पंडितः पुमान् 'एलिक्खं ईदृक्षं 'जिच्च' इति जेयं जेतव्यं देवगतिमनुष्यगतिरूपं जीयमान इंद्रियविषयैहार्यमाणा, कथं नुन संविदेत् ? कथं न जानीत? अपि तु पंडितो ज्ञपरिज्ञयेवं जानीतैव. किं कृत्वा? एवममुना प्रका Dowwणलाकाखा SRDCPEDIORadDDEDoDI For Private and Personal Use Only
SR No.020855
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1935
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size15 MB
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