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भाषांतर अध्यापन
॥५२८॥
___अर्थ-हे मनुजाधिप घोर एटले मुश्केलीथी पाली शकाय एवा गृहस्थाश्रमने त्यजीने अन्य=भिक्षुकाश्रमनी प्रार्थना=चाहना उत्तराध्य
फरो छो? घोर एटले मनोबळ हीन पुरुषोए न नभावी शकाय एवो आश्रम, अर्थात् जेमा विश्राम लेबाय एवो अवस्था विशेष ब्रह्मपन सत्रम्
चारी गृहस्थ वानप्रस्थ तथा भिक्षुः ए चार आश्रमो छे तेमां गृहस्थाश्रम पालन दुष्कर छे तेनो त्याग करी चतुर्थ आश्रम-भिक्षुदशा ॥५२८॥ हीनवल तथा व्हीकण जनो सुखे उदर भरण करवा माटे स्वीकारे-कडं छे के-( अत्रे-गृहाश्रम० इत्यादि त्रण श्लोकोना अर्थ )
अर्थ-गृहस्थाश्रम समान धर्म थयो नथी तेम थशे पण नहि, एतो खरा शूर नरो पाले छे अने पुरुषार्थ ही जनो पाखंडनो आश्रय ले छे JE|१ सामर्थ्य विनाना जनी गृहस्थाश्रमने नभाववानुं दुष्कर जाणी पेट भरवा माटे मुंड नग्न अथवा जरा धारण जेवा वेष कल्पे छे.
२ भिक्षा तो सर्व प्रकारे मुंदर गणे छे कारण के जेमां नाना प्रकारना रस होय, अने ते मात्र एक पहोरनीन सेवा छे, अने बाकीना सात पहोरनुं राजा पणुं भोगववानुं होय छे. ३ तेथी एतो कातरजनोनुं काम छे, तमारा जेवा शूर नरने ए योग्य नथी. माटे आ गृहस्थाश्रममांज रहीने पौषधरत चतुर्दशी पूर्णिमा अमावास्या अष्टमी इत्यादि तिथियोमा उपवासादि तो करवामां तत्पर थाो.
अणुव्रतोतुं पण आ उपलक्षण छे एटले आ वचन पर्वदिने अवश्य तपोनुष्ठान ध्यापक छे. जे दुष्कर होय ते धर्मार्थी नरे करवू, | जेवा के अनशनादिक आ अतर्गत हेतु छे. ४२ एयम निसामित्ता। हेऊकारणचोइओ ॥ तओ नमिरायरिसी । देविंदमिणमब्बवी ॥४॥
४३मी गाथानो भर्थ १३मी गाथा प्रमाणे
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