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स्तच्छिरसि पुष्पवृष्टि चक्रुः, भीताः संतो विप्रास्तस्य स्तुतिं कृत्वा वारंवारमाशीर्वादमुच्चरंति. अथ करकंडुरेवमुवाचाहो उत्तराध्य
ब्राह्मणा एते भवद्भिश्चांडाला गर्हितास्ततः सर्वेऽप्यमी वाटधानकवास्तव्याश्चांडालाः संस्कारैब्राह्मणाः कार्याः, संस्कायन मुत्रम्
BFभाषांना
अध्ययन रादेव ब्राह्मणो जायते, न तु जात्या कश्चिद्ब्राह्मणो भवतीति भवदागमवचनात्. अथ ते ब्राह्मणाः प्रकामं भीतास्तन्नगरवाटधानकवास्तव्यांश्चाडालान् संस्काराह्मणान् चक्रुः उक्तं च-दधिवाहनपुत्रेण । राज्ञा तु करकंडुना ॥ वाटधान.
ET४६५ | कवास्तव्या-श्चांडाला ब्राह्मणीकृताः॥१॥ अत्युत्सवेन कांचनपुरे प्रवेशितः स करकंडुरमात्यैन्यपट्टेऽभिषिक्ता, क्रमात्म महाप्रताप्चमत्.
आ चांडाल कुटुंबसहित पृथ्वीपर फरती भटकतो कांचनपुर आवी पहींच्यो. बनाव एवा बन्यो के कांचन पुरनो राजा अपुत्र JE गुजरी गयो एटले मंत्रिोए ए राजाना घोडाने अधिवासित करी छोडयो ए घोडो फरतो फरतो गाम बहार ज्यां पेला त्रण जण
मूता हता त्यां आधी करकंडू सामे जोइ हेपारव [हणहणाट] कर्यो, नगरना लोकोए करकंडूने शुभलक्षणवान् जोइ जय जय शब्द | | उच्चार्या. वगर वगाडयां वाजां पोतानी मेळे वाग्यां; स्वयं छत्र तेना मस्तक उपर धराणुं के तरतन मंत्रियोए नवां वस्त्र पहेरावी ए करकंडूने ते घोडापर बेसाडी ज्यां नगरजनना परम हर्ष साथे पुरमा प्रवेश करावे हे त्यां 'आ तो म्लेच्छ छे' आम बोलता ब्राह्मणो
न मान्या. आ उपरथी क्रुद्ध ययेला करकंडूए ए दंड जो रत्ननी पेठे हाथमां धर्यो ते वारे अधिष्ठातृ देवोए आकाशवाणी कही के HBE 'जे कोइ आ राजानी अवगणना करशे तेना मस्तक उपर आ दंड पडशे.' आम बोली देवताओए तेना मस्तक उपर पुष्पनी दृष्टि
करी. आ जोइ ब्राह्मणो भयभित बनी तेनी स्तुति करवा लाग्या; अने वारंवार आशिषो उच्चारवा लाग्या. त्यारे करकंडू एम बोल्या
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