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भाषांतर
अध्ययनर
गुप्ति अर्थात् अट्टालक, उत्मूलक तथा परिखा; ए त्रणने स्थाने मनोगुप्ति आदिक त्रण गुप्तिवडे रक्षित होइ दुःमधर्षक शत्रुओथी परा-30 उत्तराध्य
भव न करी शकाय तेवं. २० पन सत्रम्
अर्थ-प्रथम इन्हें 'माकारादिक करावीने' एम जे कहेल छे तेनुं आ उत्तर समजवू. हवे ए पाकारादिकमा संग्राम करवो एम का ॥५१६॥ | तेनुं निरुपण करे हे-पराक्रम-क्रियामां जोर देवू ते पराक्रम, ते रुपो.धनुष करीने, ते धनुष्नी, इदर्या आदिक पांच समि
र तिने सदा जीवा-प्रत्यंचा (धनुषनी दोरी) बनावीने, अने धृति-धर्ममा अभिरति लक्षण धैर्य-ने केतन (धनुपना मध्यमां मृढ राखDE वानुं स्थान) करीने ए केतन स्थान शींगडाने अथवा काष्ठनु राखी तेने स्नायु-नांतवती दृढ बंधाय छे तेम आ केतनने पण सत्य
रुपी स्नायु-तांत-वती परितः बंधन आपq. ए पराक्रमरुपी धनुष तैयार करी पछी तेने तपोमय नाराच लोढानां बाणथी युक्त | करी, अर्थात् तपरुपी बाण चढावी कर्मरुपी कंचुक बख्तर ने भदी; अहीं कर्म कवच जेणे बांध्युं छे एवो आत्माज शत्र छे ते | साथेज युद्ध करवान होवाथी तेनां कर्ममय कवचने भेदवानुं छे. कर्मगत मिथ्यात्व अविरति कषाय आदिकने सेवता आत्माना श्रद्धा
नगरनो रोध करे हे तेथी कर्म ने कंचुकपणानो आरोप को छे. ए दुर्निवार कर्मकंचुकना भेदथी ते आत्मा जीतातां स्वयं जयवान् | थवाय छे ते माटे 'प्राकार कराववा' वगेरे तेनी साधनता कहेवामां आवी छे. ए साधन संपन्न थइ विगत संग्राम-शत्रु जीत्या पछी | संग्राम विराम पामतां-संसारथी मुक्त थाय छे. २२ एयमई निसामित्ता। हेऊकारणचोइओ। तओ नमिरायरिसिं । देविदो इणमब्बवी ॥२३॥
२३मी गाथानो १७मा गाथा प्रमाणे समजव.,
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