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________________ Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भाषांतर अध्ययनर गुप्ति अर्थात् अट्टालक, उत्मूलक तथा परिखा; ए त्रणने स्थाने मनोगुप्ति आदिक त्रण गुप्तिवडे रक्षित होइ दुःमधर्षक शत्रुओथी परा-30 उत्तराध्य भव न करी शकाय तेवं. २० पन सत्रम् अर्थ-प्रथम इन्हें 'माकारादिक करावीने' एम जे कहेल छे तेनुं आ उत्तर समजवू. हवे ए पाकारादिकमा संग्राम करवो एम का ॥५१६॥ | तेनुं निरुपण करे हे-पराक्रम-क्रियामां जोर देवू ते पराक्रम, ते रुपो.धनुष करीने, ते धनुष्नी, इदर्या आदिक पांच समि र तिने सदा जीवा-प्रत्यंचा (धनुषनी दोरी) बनावीने, अने धृति-धर्ममा अभिरति लक्षण धैर्य-ने केतन (धनुपना मध्यमां मृढ राखDE वानुं स्थान) करीने ए केतन स्थान शींगडाने अथवा काष्ठनु राखी तेने स्नायु-नांतवती दृढ बंधाय छे तेम आ केतनने पण सत्य रुपी स्नायु-तांत-वती परितः बंधन आपq. ए पराक्रमरुपी धनुष तैयार करी पछी तेने तपोमय नाराच लोढानां बाणथी युक्त | करी, अर्थात् तपरुपी बाण चढावी कर्मरुपी कंचुक बख्तर ने भदी; अहीं कर्म कवच जेणे बांध्युं छे एवो आत्माज शत्र छे ते | साथेज युद्ध करवान होवाथी तेनां कर्ममय कवचने भेदवानुं छे. कर्मगत मिथ्यात्व अविरति कषाय आदिकने सेवता आत्माना श्रद्धा नगरनो रोध करे हे तेथी कर्म ने कंचुकपणानो आरोप को छे. ए दुर्निवार कर्मकंचुकना भेदथी ते आत्मा जीतातां स्वयं जयवान् | थवाय छे ते माटे 'प्राकार कराववा' वगेरे तेनी साधनता कहेवामां आवी छे. ए साधन संपन्न थइ विगत संग्राम-शत्रु जीत्या पछी | संग्राम विराम पामतां-संसारथी मुक्त थाय छे. २२ एयमई निसामित्ता। हेऊकारणचोइओ। तओ नमिरायरिसिं । देविदो इणमब्बवी ॥२३॥ २३मी गाथानो १७मा गाथा प्रमाणे समजव., خلالها عن المعهد For Private and Personal Use Only
SR No.020855
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1935
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size15 MB
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