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भाषांतर अध्ययन८
॥४४८
उत्तराध्य
फलिताम्रस्य सौभाग्य माल्य दर्शनात् ॥ हाथी उपर चड्या एवं स्वप्न आवे तो राज्य मळे श्रीफळन दर्शन थाय तो लक्ष्मी प्राप्ति पन सूत्रम् थाय; फलित आंबो स्वप्नमां देखे तो पुत्रप्राप्ति थाय अने पुष्पहार स्वप्नमां आवे तो सौभाग्य लाभ थाय छे. इत्यादि स्वप्न शास्त्र,
तथा अंगविद्या अंगस्फुरणशास्त्र-जेवां के-शिरसः स्फुरणे राज्यं हृदय स्फुरणे सुखम् ॥ वाहोश्च मित्र मिलनं जंघयोर्भोग संगमता ॥४४८॥
BEमस्तक प्रदेश फरके तो राज्य मळे, हृदय स्फुरणथी मुख थाय वाहु फरके तो मित्र मळे अने जंघा स्फुरण थाय तो भोग संगम - थाय; इत्यादि सर्व मिथ्याश्रुत कहेवाय ते साधुए प्रयोज्य जाणीने उपयोग करवानुं नथी, धर्मदासगणिए का छे के
जोइ निमित्त अक्खर कोउय आएस भूय कम्महि ॥ करणाणुमोयणिज्जे साहुस्स तवक्खओ होइ ॥ १॥
ज्योतिष, निमित, अक्षर, कौतुक, आदेश, भूतकर्म; इत्यादि साधु करे अथवा अनुमोदे तो साधुना तपःनो क्षय थाय छे. माटे BEI साधुए ए सर्व वर्जवां १३
इह जीवियं अनियमित्ता। पभट्ठा समाहि जोएहिं ते कामभोगरसगिद्धा । उवजंति असुरे काएं ॥१४॥ मूलार्थ-(इइ) आ (जीवियं) जीवितने (अनिअमेता) अनियमित राखीने (समाहिजोपहि) समाधि (पन्भट्ठा) भ्रष्ट थया होय अने (कामभोग रसगिद्धा) कामो भोगमा आसक्त होक (ते) तेओ मरीने (आसुरे) असुर देव संबंधी (काए) निकायने विषे (उववजति) उत्पन्न थाय छे. १४
व्या-ते कामभोगरसगृद्धा आसुरे काये उत्पद्यते, किं कृत्वा? इहास्मिन् संसारे जीवितमात्मानं तपोविधानादिना, 'अनियमित्ता' इत्यनियंत्र्यावशीकृत्य, ते के? ये समाधियोगेभ्यः प्रभृष्टाः, समाधिना स्थैर्येण योगा मनोवा
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