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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य घन सूत्रम् ॥ ५३२॥ www.kobatirth.org (आ टीका नो अर्थ अगाउ मुजब ) सुर्वण्णरूपस्स उ पवया भवे । सिया हुँ केलाससमा असंख्या ॥ नेरेंस लुद्धस्स ने तेहिं किंचि" । इच्छा हूँ आगाससमा अनंतिया ॥४८॥ पुढची साली जवा चे । हिरेपणं पसुभिस्सेह पंडिपुराणं नालमेगस्स । ईई विजी तेरे ॥४९॥ व्या० तत एतद्वचनं श्रुत्वा नमिराजर्षिरिद्रप्रतीदं वचनमब्रवीत्. ॥४७॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूल - [सुवण्णरुपस्स उ ] सुवर्ण अने रुपाना (सिभा) कदाचित् (कैलास समा हु) कैलास-मेरुपर्वत जेवडाज (असंखया) अलंख्य (a) पर्वत [भ] होय (तेहि) ते वडे [लुद्धस्स नरस्स] लोभी मनुष्योने (किंचि न) जरा पण तृप्ति थती नथी. (हु) कारण [इच्छा] मनुष्यनी इच्छा [आगाससभा] आकाश तुल्य [अणतिआ] अनंती होय छे. ४८ (पुढवी) समग्र पृथ्वी (साली) डांगर विगेरे (जवा) जब (चेव) तथा बोजां धान्यो, [पसुभिस्सह] तथा सर्व पशुओ सहित (हिरण्ण) तमाम सुवर्ण (पडिपुण्ण) समस्त वस्तुओं (एस्स) एकनी तृप्ति माटे (नाल) समर्थ थती नधी [इह विजा] एम जाणीने [तव चरे] बारे प्रकार तप करवो. ४९ व्या- सुवर्णस्य तु पुना रूप्यस्य चासंख्यका बहवः कैलाशसमा अत्युच्चाः स्युः, कदाचित् हु यस्मात्कारणात्प| र्वता भवेयुस्तदापि लुब्धस्य लोभग्रस्तनरस्य तैः कैलाशपर्वतममाणैः स्वर्णरूप्यपुंजैर्न किंचिदित्यर्थः, लोभवतः पुरुषस्य कदापीच्छापूर्तिर्न स्यात्. हु इति निश्वयेनेच्छाकाशसमा अनंतिका पारा. ||४८ || पुनरिच्छाया एवं प्राबल्यमाह - पृथिवी समुद्रांता, शालयः कलमषाष्टिक्यलोहितदेव भोज्यादयस्तंडुलाः, यवधान्यानि च शब्दादन्यान्यपि गोधूममुद्गादीनि For Private and Personal Use Only 兆兆毛毛挑毛兆龍龍北美 भाषांतर अध्ययन९ ॥ ५३२॥
SR No.020855
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1935
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size15 MB
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