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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन९ ॥५३३॥ उत्तराध्य- हिरण्यं सुवर्ण घटितदीनारादिद्रव्यं हिरण्यग्रहणेन ताम्रकस्थीरादिधातवः, पशुभिर्वाश्वगजखरौष्ट्रादिभिः सह प्रति- यन सूत्रम् । पूर्ण समस्तं, एवमेकस्य पुरुषस्येच्छापूर्तये नालं न समर्थ भवति. 'इई' इत्येतद्विदित्वा साधुस्तपश्चरेत्साधुस्तपः कुर्यात् ॥५३३॥ २ इच्छानिरोध एव तपस्तद्विदध्यात्. तपसैवेच्छापूर्तिः स्यात्, तथा च सति साकांक्षत्वमसिद्धं, संतुष्टतया मम चाकां क्षणीयवस्तुन एवाभावात्. ॥४९॥ ___अर्थ-सुवर्ण तथा रुपानां कदाचित् , कैलास समा असंख्य पर्वतो होय तो पण तेनाथी लुब्ध नरने किंचित् जरा पण यतुं नथी ३६ अर्थात् इच्छा पूर्ति निश्चये नथी थती. कारणके आकाश समी इच्छा अनंत छ. ४८ पुनरपि मनुष्यनी इच्छानी प्रचलता तथा अनंतता दर्शावे छे. अर्थ-सागरान्त समग्र पृथिवी, शालि-कलम, पाष्टिक्य, लोहित, देवभोजय; इत्यादि जातना चोखा, यवधान्य, च शब्द छे ते उपरथी बीजा पण घउ मग वगेरे धान्यो, हिरण्य घडेलां द्रव्य तरीके लोकमां वपराती सोनामहोरो तेमज ताम्र कथीर वगेरे बीजा धातुओ, ते साथे घोडा हाथी गधेडा उंट आदिक पशुओ; आ समस्त प्रतिपूर्ण पदार्थो एक पुरुषनी पण इच्छा पूर्ण करवामां समर्थ नथी; एम जाणीने साधु तपश्चरण करे, केमके इच्छा निरोध करवो एज तप छे, तप बडेज इच्छापूर्ति थाय अन्यथा न थाय आ उपरथी आकांक्षत्व असिद्ध देखाडयु. सर्व प्रकारनो संतोष होवाथी मारे आकांक्षा करवा योग्य कोइ वस्तुज छे नहि आवो आशय दर्शाव्यो ।। ४९ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020855
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1935
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size15 MB
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