Book Title: Prakrit Gadya Padya Saurabh Part 1
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ (भाग-1) डॉ. कमलचन्द सोगाणी णाणुज्जीवो जोवी जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी राजस्थान Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ ( भाग - 1 ) (संकलन - अनुवाद एवं व्याकरणिक विश्लेषण ) डॉ. कमलचन्द सोगाणी ( पूर्व प्रोफेसर, दर्शनशास्त्र) सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर णाणुज्जीवो जौवो जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी राजस्थान Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी श्री महावीरजी ह्र 322 220 (राजस्थान) प्राप्ति स्थान 1. जैनविद्या संस्थान, श्री महावीरजी 2. साहित्य विक्रय केन्द्र दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी सवाई रामसिंह रोड, जयपुर - 302 004 द्वितीय संस्करण, 2009, 1100 मूल्य 350.00 (सजिल्द) 150.00 (पेपरबैक) पृष्ठ संयोजन आयुष ग्राफिक्स दूरभाष : 141-2708265, मो. 9414076708 मुद्रक जयपुर प्रिण्टर्स प्रा. लि. एम.आई. रोड, जयपुर - 302 001 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका पाठ संख्या पृष्ठ संख्या विषय द्वितीय- आरम्भिक प्रथम- आरम्भिक मंगलाचरण समणसुत्तं उत्तराध्ययन वज्जालग्ग अष्टपाहुड कार्तिकेयानुप्रेक्षा दसरहपव्वज्जा रामनिग्गमण-भरहरज्जविहाणं अमंगलियपुरिसस्स कहा विउसीए पुत्तबहूए कहाणगं कस्सेसा भज्जा 102 ससुरगेहवासीणं चउजामायराणं कहा 108 कुम्मे 116 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ संख्या विषय पृष्ठ संख्या व्याकरणिक विश्लेषण एवं शब्दार्थ संकेत सूची 125 मंगलाचरण 127 समणसुत्तं 133 उत्तराध्ययन 154 171 198 214 232 258 वज्जालग्ग अष्टपाहुड कार्तिकेयानुप्रेक्षा दसरहपव्वज्जा रामनिग्गमण-भरहरज्जविहाणं अमंगलियपुरिसस्स कहा विउसीए पुत्तबहूए कहाणगं कस्सेसा भज्जा ससुरगेहवासीणं चउजामायराणं कहा 317 कुम्मे 274 282 304 13. 343 परिशिष्ट (क) (ख) मूल पुस्तकों से चयनित गाथाएँ 364 सन्दर्भ पुस्तकें 373 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरम्भिक 'प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 1' का द्वितीय संस्करण पाठकों के हाथों में समर्पित करते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है। पाठकों ने प्रथम संस्करण का भरपूर उपयोग किया, इसके लिए हम पाठकों के आभारी हैं। प्राकृत भाषा भारतीय आर्य भाषा परिवार की एक सुसमृद्ध लोकभाषा रही है। भारतीय लोक जीवन के बहुआयामी पक्ष, दार्शनिक एवं आध्यात्मिक परम्पराएँ प्राकृत साहित्य में निहित हैं। महावीर और बुद्ध ने जनभाषा प्राकृत में उपदेश देकर सामान्यजनों के लिए विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। मौर्यो के काल में तो प्राकृत राजभाषा थी ही, किन्तु उसका यह क्रम सातवाहनों के काल में भी जारी रहा। दक्षिण की भाषाएँ - तेलगु, तमिल, कन्नड़, मलयालम प्राकृत से अधिक मेल खाती हैं। कालिदास के नाटकों में प्राकृत भाषा का अत्यधिक उपयोग इस बात का प्रमाण है कि उनके समय में प्राकृत बोलनेवालों की संख्या अधिक थी । प्राकृत भाषा को सीखने-समझने को ध्यान में रखकर 'प्राकृत रचना सौरभ', 'प्राकृत अभ्यास सौरभ', प्रौढ़ प्राकृत रचना सौरभ' आदि पुस्तकों का प्रकाशन किया जा चुका है। इसी क्रम में 'प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ' तैयार की गई थी। अब यह उसका द्वितीय संस्करण है। इसमें पूर्व की भाँति प्राकृत के गद्यांशों व पद्यांशों का चयन किया गया है। उनके हिन्दी अनुवाद, व्याकरणिक विश्लेषण एवं शब्दार्थ प्रस्तुत किए गए हैं। काव्यों के भावानुवाद के स्थान पर व्याकरणात्मक अनुवाद करने की पद्धति आत्मसात की गई है। इससे काव्यों के समीचीन अर्थ के साथ प्राकृत काव्यों का रसास्वादन किया जा सकेगा। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक प्रकाशन के लिए अपभ्रंश साहित्य अकादमी के विद्वान विशेषतया श्रीमती शकुन्तला जैन एवं पृष्ठ संयोजन के लिए आयुष ग्राफिक्स तथा जयपुर प्रिण्टर्स धन्यवादाह है। नरेशकुमार सेठी प्रकशचन्द जैन अध्यक्ष मंत्री प्रबन्धकारिणी कमेटी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी डॉ. कमलचन्द सोमाणी संयोजक जैनविद्या संस्थान समिति तीर्थंकर महावीर जन्म कल्याणक दिवस चैत्र शुक्ला त्रयोदशी वीर निर्वाण सम्वत् 2535 07.04.2009 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरम्भिक 'प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ' पाठकों के हाथों में समर्पित करते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है। प्राकृत भाषा भारतीय आर्य भाषा परिवार की एक सुसमृद्ध लोकभाषा रही है। भारतीय लोक जीवन के बहआयामी पक्ष, दार्शनिक एवं आध्यात्मिक परम्पराएँ प्राकृत साहित्य में निहित हैं। महावीर युग और उसके बाद विभिन्न प्राकृतों का विकास हुआ, जिनमें से तीन प्रकार की प्राकृतों का नाम साहित्य-क्षेत्र में गौरव के साथ लिया जाता है। वे हैंह्न अर्धमागधी, शौरसेनी और महाराष्ट्री। जैन आगम साहित्य एवं काव्य-साहित्य में इन्हीं तीन प्राकृतों का भारत के सांस्कृतिक इतिहास में गौरवपूर्ण स्थान है, अत: इनका सीखनासिखाना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। प्राकृत भाषा के सीखने-समझने को ध्यान में रखकर 'प्राकृत रचना सौरभ', 'प्रौढ़ प्राकृत रचना सौरभ', 'प्राकृत अभ्यास सौरभ', आदि पुस्तकों का प्रकाशन किया जा चुका है। इसी क्रम में प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ' तैयार की गई है। इसमें प्राकृत के विभिन्न ग्रन्थों से पद्यांशों व गद्यांशों का चयन किया गया है। उनके हिन्दी अनुवाद, व्याकरणिक विश्लेषण एवं शब्दार्थ प्रस्तुत किए गए हैं। इससे प्राकृत भाषा को सीखने के साथ-साथ काव्यों का रसास्वादन भी किया जा सकेगा। दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी द्वारा संचालित 'जैनविद्या संस्थान' के अन्तर्गत 'अपभ्रंश साहित्य अकादमी' की स्थापना सन् 1988 में की गई। वर्तमान में प्राकृत अपभ्रंश का अध्यापन पत्राचार के माध्यम से किया जाता है। आशा है 'प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ' प्राकृत-जिज्ञासुओं के लिए Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोगी सिद्ध होगी। इससे काव्यों में व्याकरण का प्रयोग किस तरह हुआ है उसे समझा जा सकेगा तथा काव्यों के भावानुवाद के स्थान पर व्याकरणात्मक अनुवाद करने की पद्धति आत्मसात की जा सकेगी। इससे काव्यों का अर्थ करने में समीचीनता की ओर दृष्टि रहेगी। पुस्तक प्रकाशन के लिए अपभ्रंश साहित्य अकादमी के कार्यकर्ता एवं मदरलैण्ड प्रिण्टिंग प्रेस धन्यवादाह हैं। नरेशकुमार सेठी नरेन्द्रकुमार पाटनी अध्यक्ष मंत्री प्रबन्धकारिणी कमेटी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी डॉ. कमलचन्द सोगाणी संयोजक जैनविद्या संस्थान समिति तीर्थंकर पुष्पदन्त जन्म कल्याणक दिवस मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा वीर निर्वाण सम्वत् 2530 24.11.2003 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ (भाग-1) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 2. 6. 2 पाठ मंगलाचरण = णमो अरहंताणं । णमो सिद्धाणं । णमो आयरियाणं । णमो उवज्झायाणं । णमो लोए सव्वसाहूणं ॥ 3 - 5. अरहंता मंगलं । सिद्धा मंगलं । साहू मंगलं । केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं ॥ 1 एसो पंचणमोक्कारो, सव्वपावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ॥ झायहि पंच वि गुरवे, णर- सुर- खेयर - महिए, अरहंता लोगुत्तमा । सिद्धा लोगुत्तमा । साहू लोगुत्तमा । केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो ॥ अरहंते सरणं पव्वज्जामि । सिद्धे सरणं पव्वज्जामि । साहू सरणं पव्वज्जामि | के वलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि ।। मंगलचउसरणलोयपरियरिए । आराहणणायगे वीरे ॥ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 1 मंगलाचरण 1. अरहंतो को नमस्कार। सिद्धों को नमस्कार। आचार्यों को नमस्कार। उपाध्यायों को नमस्कार। लोक में सब साधुओं को नमस्कार। यह पंच-नमस्कार सब पापों का नाश करनेवाला (है), और (इस कारण से यह) सभी मंगलों में प्रथम मंगल होता है। 3-5. अरहंत मंगल (हैं)। सिद्ध मंगल (हैं)। साधु मंगल (हैं)। केवली द्वारा उपदिष्ट धर्म मंगल (है)। अरहंत लोक में उत्तम (हैं)। सिद्ध लोक में उत्तम (हैं)। साधु लोक में उत्तम (हैं)। केवली द्वारा उपदिष्ट धर्म लोक में उत्तम (है)। (मैं) अरहंतों की शरण में जाता हूँ। (मैं) सिद्धों की शरण में जाता हूँ। (मैं) साधुओं की शरण में जाता हूँ। (मैं) केवली द्वारा उपदिष्ट धर्म की शरण में जाता हूँ। कल्याणकारी, चार प्रकार की शरण देनेवाले, लोक को विभूषित किए हुए (करनेवाले), मनुष्यों, देवताओं तथा विद्याधरों द्वारा पूजित, आराधना के लिए श्रेष्ठ (तथा) वीर (ऊर्ध्वगामी ऊर्जावाले)-(इन) पाँच गुरुओं अर्थात् आध्यात्मिक स्तम्भों को ही (तुम) ध्याओ। 1. विद्या के बल से आकाश में विचरण करनेवाले मनुष्य। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. 8. घणघाइकम्ममहणा, तिहुवणवरभव्व-कमलमत्तंडा । अरिहा अणंतणाणी, अणुवमसोक्खा जयंतु जए । अट्ठविहकम्मवियला, णिट्टियकज्जा पणट्ठसंसारा । दिट्ठसयलत्थसारा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु । पंचमहव्वयतुंगा, तक्कालि- सपरसमय - सुदधारा । णाणागुणगणभरिया, आइरिया मम पसीदंतु ॥ 10. अण्णाणघोरतिमिरे, दुरंततीरम्हि, हिंडमाणाणं । भवियाणुज्जोययरा, उवज्झाया वरमदिं देंतु ॥ 11. थिरधरियसीलमाला, ववगयराया जसोहपडिहत्था । बहुविणयभूसियंगा, सुहाई साहू पयच्छंतु ॥ 12. अरिहंता, असरीरा, आयरिया, उवज्झाय मुणिणो । पंचक्खरनिप्पण्णो, ओंकारो पंच परमिट्ठी ॥ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. प्रगाढ़ घातीकर्मों के विनाशक, अनन्तज्ञानी, अनुपम सुख (मय) (तथा) त्रिभुवन में विद्यमान मुक्तिगामी जीवरूपी कमलों (के विकास) के लिए सूर्यरूपी अरहंत जगत में जयवन्त हों। 8. सिद्ध (जो) आठ प्रकार के कर्मों से रहित हैं (जिनके द्वारा) (सभी) प्रयोजन पूर्ण किए हुए (है), (जिनके द्वारा) संसार-(चक्र) नष्ट किया हुआ (है), (तथा) (जिनके द्वारा) समग्र तत्त्वों के सार जाने गए (हैं), (वे) मेरे लिए निर्वाण (मार्ग) को दिखलावें। पाँच महाव्रतों से उन्नत, उस समय सम्बन्धी अर्थात् समकालीन स्वपर सिद्धान्त के श्रुत को धारण करनेवाले (तथा) अनेक प्रकार के गुण-समूह से पूर्ण आचार्य मेरे लिए मंगलप्रद हों। 10. (जिस अज्ञानरूपी अन्धकार के) छोर पर (पहुँचना) कठिन (है), (उस) अज्ञानरूपी घने अन्धकार में भ्रमण करते हुए संसारी (जीवों) के लिए. (ज्ञानरूपी) प्रकाश को करनेवाले उपाध्याय (मुझे) श्रेष्ठ मति प्रदान करें। 11. साधु (जो) यश-समूह से पूर्ण (हैं), (जिनके द्वारा) शीलरूपी मालाएँ दृढ़तापूर्वक धारण की गई (हैं), (जिनके द्वारा) राग दूर किए गए (हैं) (तथा जिनके द्वारा) शरीर के अंग प्रचुर विनय से अलंकृत हुए (हैं), (वे) (मुझे) (अनेक) सुख प्रदान करें। 12. अरिहन्त, अशरीर (सिद्ध), आचार्य, उपाध्याय (तथा) मुनि- ये पंच परमेष्ठी अर्थात् पाँच आध्यात्मिक स्तम्भ (हैं)। (इनके प्रथम) पाँच अक्षरों (अ+अ+आ+उ+म) से निकला हुआ 'ओम' (होता है)। 1. आत्म-स्वरूप को अच्छादित करनेवाले कर्म। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. अरहंतभासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्म। पणमामि भत्तिजुत्तो, सुदणाणमहोदहिं सिरसा। ससमय-परसमयविऊ, गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो। गुणसयकलिओ जुत्तो, पवयणसारं परिकहेउं॥ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. (जो) अरहंत द्वारा प्रतिपादित अर्थ गणधर' देवों द्वारा (शब्द-रूप में) भली प्रकार से रचा हुआ (है), (उस) श्रुत-ज्ञानरूपी महासमुद्र को भक्ति-सहित (मैं) सिर से प्रणाम करता हूँ। 14. (जो) स्व-सिद्धान्त तथा पर-सिद्धान्त का ज्ञाता (है), (जो) सैंकड़ों गुणों से युक्त (है), (जो) गम्भीर, आभायुक्त, सौम्य (तथा) कल्याणकारी (है), (वह ही) (अरहन्त के द्वारा प्रतिपादित) सिद्धान्त के सार को कहने के लिए योग्य (होता है)। 1. अरहंत के द्वारा उपदिष्ट ज्ञान को शब्दबद्ध करनेवाले। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 2 समणसुत्तं 1. सुट्टवि मग्गिज्जंतो, कत्थ वि केलीइ नत्थि जह सारो। इंदिअविसएसु तहा, नत्थि सुहं सुट्ट वि गविहूँ। 2. जह कच्छुल्लो कच्छु कंडूयमाणो दुहं मुणइ सुक्खं। मोहाउरा मणुस्सा, तह कामदुहं सुहं बिंति॥ 3. कम्मं चिणंति सवसा, तस्सुदयम्मि उव परव्वसा होति। रुक्खं दुरुहइ सवसो, विगलइ स परव्वसो तत्तो। कम्मवसा खलु जीवा, जीववसाई कहिंचि कम्माइं। कत्थइ धणिओ बलवं, धारणिओ कत्थई बलवं॥ 5. भावे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं॥ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 2 समणसुत्तं 1. खूब अच्छी प्रकार से खोजे जाते हुए भी जैसे केले के पेड़ में कहीं सार नहीं (होता है), वैसे ही इन्द्रिय-विषयों में सुख नहीं (होता है), यद्यपि (वह) (वहाँ) खूब अच्छी तरह से खोजा हुआ (होता है)। जैसे खाज-रोगवाला खाज को खुजाता हुआ दु:ख को सुख मानता है, वैसे ही मोह (रोग) से पीड़ित मनुष्य इच्छा (से उत्पन्न) दुःख को सुख कहते हैं। 3. (जब व्यक्ति) कर्म को चुनते हैं, (तो) (वे) स्वाधीन (होते हैं); किन्तु उसके विपाक' में (वे) पराधीन होते हैं; (जैसे) (जब कोई) पेड़ पर चढ़ता है (तो) (वह) स्वाधीन (होता है), (किन्तु) (जब) उससे गिरता है; (तो) वह पराधीन (होता है)। 4. (कहीं) जीव कर्मों के अधीन (होते हैं), (तो) कहीं कर्म जीव के अधीन (होते हैं); (जैसे) कहीं साहूकार बलवान (होता है), तो कहीं कर्जदार बलवान (होता है)। वस्तु-जगत से विरक्त मनुष्य दुःखरहित (होता है); संसार के मध्य में विद्यमान भी (वह) दुःख-समूह की इस अविछिन्न धारा से मलिन नहीं किया जाता है, जैसे कि कमलिनी का पत्ता जल से (मलिन नहीं किया जाता है)। 1. सुख- दुःखरूप कर्म-फल प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. धम्मो मंगलमुक्किटुं, अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो॥ 7. जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्ठिकुव्वइ। साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चई।। जा जा वज्जई रयणी, न सा पडिनियत्तई। अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जन्ति राइओ॥ जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे। एगं जिणेज्ज अप्पाणं एस से परमो जओ॥ 10. अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो। अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सिं लोए परत्थ य॥ 11. अणथोवं वणथोवं, अग्गीथोवं कसायथोवं च। ___ न हु भे वीससियव्वं, थोवं पि हु तं बहु होइ॥ 12. कोहो पीई पणासेइ, माणो विणयनासणो। माया मित्ताणि नासेइ, लोहो सव्वविणासणो॥ 10 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. अहिंसा, संयम और तप धर्म (है)। (इससे ही) सर्वोच्च कल्याण (होता है)। जिसका मन सदा धर्म में (लीन है), उस (मनुष्य) को देव भी नमस्कार करते हैं। 7. जो प्राप्त किए गए मनोहर और प्रिय भोगों को पीठ करता है (तथा) स्व-अधीन भोगों को छोड़ता है, वह ही त्यागी है, इस प्रकार कहा जाता है। 8. जो-जो रात्रि बीतती है, वह लौटती नहीं है। अधर्म करते हुए (व्यक्ति) की रात्रियाँ व्यर्थ होती हैं। 9. जो (व्यक्ति) कठिनाई से जीते जानेवाले संग्राम में हजारों के द्वारा हजारों को जीतता है (और) (जो) एक स्व को जीतता है, (इन दोनों में) उसकी यह (स्व पर जीत) परम विजय है। 10. आत्मा ही सचमुच कठिनाईपूर्वक (वश में किया जानेवाला) (होता है), (तो भी) आत्मा ही वश में किया जाना चाहिए। (कारण कि) वश में किया हुआ आत्मा (ही) इस लोक और परलोक में सुखी होता है। 11.. थोड़ा-सा ऋण, थोड़ा-सा घाव, थोड़ी-सी अग्नि और थोड़ी-सी कषाय तुम्हारे द्वारा विश्वास किए जाने योग्य नहीं है, क्योंकि थोड़ा-सा भी वह बहुत ही होता है। 12. क्रोध प्रेम को नष्ट करता है, अहंकार विनय का नाशक (होता है), कपट मित्रों को दूर हटाता है (और) लोभ सब (गुणों का) विनाशक (होता है)। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 11 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे । मायं चऽज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे॥ 14. जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे । एवं पावाई मेहावी, अज्झप्पेण समाहरे।। 15. से जाणमजाणं वा, कटुं आहम्मिअं पयं । संवरे खिप्पमप्पाणं, बीयं तं न समायरे ॥ 16. जे ममाइय-मतिं जहाति, से जहाति ममाइयं । से हु दिट्ठपहे मुणी, जस्स नत्थि ममाइयं॥ 17. सव्वगंथविमुक्को, सीईभूओ पसंतचित्तो अ। जं पावइ मुत्तिसुहं, न चक्कवट्टी वि तं लहइ॥ 18. सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविडं न मरिज्जिउं। तम्हा पाणवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं॥ 19. जह ते न पिअं दुक्खं, जाणिअ एमेव सव्वजीवाणं। सव्वायरमुवउत्तो, अत्तोवम्मेण कुणसु दयं ॥ 20. जीववहो अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ। ता सव्वजीवहिंसा, परिचत्ता अत्तकामेहिं॥ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. (व्यक्ति) क्षमा से क्रोध को नष्ट करे, विनय से मान को जीते, सरलता से कपट को और सन्तोष से लोभ को जीते। 14. जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को अपने शरीर में समेट लेता है, इसी प्रकार से मेधावी अध्यात्म के द्वारा पापों को समेट लेता है (नष्ट कर देता है)। 15. ज्ञानपूर्वक अथवा अज्ञानपूर्वक अनुचित कार्य को करके (व्यक्ति) अपने को तुरन्त रोके (और फिर) वह उसको दूसरी बार नहीं करे। 16. जो ममतावाली वस्तु-बुद्धि को छोड़ता है, वह ममतावाली वस्तु को छोड़ता है; जिसके लिए (कोई) ममतावाली वस्तु नहीं है, वह ही (ऐसा) ज्ञानी है (जिसके द्वारा) (अध्यात्म)-पथ जाना गया (है)। 17. सर्व परिग्रह से रहित (व्यक्ति) (सदा) शान्त और प्रसन्नचित्त (होता है)। और (वह) जिस मुक्ति-सुख को पाता है, उसको चक्रवर्ती भी नहीं पाता है। 18. सब ही जीव जीने की इच्छा करते हैं, मरने की नहीं, इसलिए संयत (व्यक्ति) उस पीड़ादायक प्राणवध का परित्याग करते हैं। 19. जैसे तुम्हारे (अपने) लिए दुःख प्रिय नहीं है, इसी प्रकार (दूसरे) सब जीवों के लिए जानकर उचित रूप से सब (जीवों) से स्नेह करो (तथा) अपने से तुलना के द्वारा (उनके प्रति) सहानुभूति (रखो)। 20. जीव का घात खुद का घात (होता है) जीव के लिए दया खुद के लिए दया होती है; उस कारण से आत्म स्वरूप को चाहनेवालों के द्वारा सब जीवों की हिंसा छोड़ी हुई (है)। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21. 22. 23. 24. 25. 26. 27. 14 1 तुमं सि नाम स चेव, जं हंतव्वं ति मन्नसि तुमं सि नाम स चेव, जं अज्जावेयव्वं ति मन्नसि ।। तुंगुं नं मंदराओ, आगासाओ विसालयं नत्थि । जह तह जयंमि जाणसु, धम्ममहिंसासमं नत्थि । जागरिया धम्मीणं, अहम्मीणं च सुत्तया सेया । वच्छाहिवभगिणीए, अकहिंसु जिणो जयंतीए । नाऽऽलस्सेण समं सुक्खं, न विज्जा सह निद्दया । न वेरगं ममत्तेणं, नारंभेण दयालुया ॥ जागरह नरा! णिच्चं, जागरमाणस्स वढते बुद्धी । जो सुवति ण सो धन्नो, जो जग्गति सो सया धन्नो ॥ विवत्ती अविणीअस्स, संपत्ती विणीअस्स य । जस्सेयं दुहओ नायं, सिक्खं से अभिगच्छइ॥ अह पंचहिं ठाणेहिं, जेहिं सिक्खा न लब्भई । थम्भा कोहा पमाएणं, रोगेणाऽलस्सएण य ॥ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21. देख! निस्सन्देह तू वह ही है जिसको (तू) मारे जाने योग्य मानता है। देख! निस्सन्देह तू वह ही है जिसको (तू) शासित किये जाने योग्य मानता है। 22. जैसे (जगत में) मेरु पर्वत से ऊँचा (कुछ) नहीं (है) (और) आकाश से विस्तृत (भी) (कुछ) नहीं (है), वैसे ही अहिंसा के समान जगत में (श्रेष्ठ और व्यापक) धर्म नहीं (है); (यह) (तुम) जानो। 23. धर्मात्माओं का जागरण (सक्रिय होना) और अधर्मात्माओं का सोना (निष्क्रिय होना) सर्वोत्तम (होता है); (ऐसा) वत्स देश के राजा की बहिन जयन्ती को जिन (महावीर) ने कहा था। 24. आलस्य के साथ सुख नहीं (रहता है), निद्रा के साथ विद्या (सम्भव) नहीं (होती है), आसक्ति के (साथ) वैराग्य (घटित) नहीं (होता है), (तथा) जीव-हिंसा के (साथ) दयालुता नहीं (ठहरती है)। 25. हे मनुष्यो! (तुम सब) निरन्तर जागो (आध्यात्मिक मूल्यों में सजग रहो) जागते हुए (आध्यात्मिक मूल्यों में सजग) (व्यक्ति) की प्रतिभा बढ़ती है, जो (व्यक्ति) सोता है (आध्यात्मिक मूल्यों को भूला हुआ है) वह सुखी नहीं (होता है), जो सदा जागता है (आध्यात्मिक मूल्यों में सजग है), वह सुखी (होता है)। 26. अविनीत के (जीवन में) अनर्थ (होता है) और विनीत के (जीवन में) समृद्धि (होती है); जिसके द्वारा यह दोनों प्रकार से जाना हुआ (है), वह (जीवन में) विनय को ग्रहण करता है। 27. अच्छा तो, जिन (इन) पाँच कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं की जाती है; अहंकार से, क्रोध से, प्रमाद से, रोग से तथा आलस्य से। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 15 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28. हयं नाणं कियाहीणं, हया अण्णाणओ किया। पासंतो पंगुलो दड्डो, धावमाणो य अधंओ।। 29. संजोअसिद्धीइ फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाइ। अंधो य पंगू य वणे समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा। 30. सूई जहा ससुत्ता, न नस्सई कयवरम्मि पडिआ वि। जीवो वि तह ससुत्तो, न नस्सइ गओ वि संसारे॥ 31. थोवम्मि सिक्खिदे जिणइ, बहुसुदं जो चरित्तसंपुण्णो। जो पुण चरित्तहीणो, किं तस्स सुदेण बहुएण। 32. आहारासण-णिद्दाजयं, च काऊणं जिणवरमएण। झायव्वो णियअप्पा, णाऊणं गुरुपसाएण॥ 33. जरा जाव न पीलेइ, वाही जाव न वड्डई। जाविंदिया न हायंति, ताव धम्म समायरे॥ 34. आहारोसह-सत्थाभय-भेओ जं चउव्विहं दाणं। तं वुच्चइ दायव्वं, णिद्दिट्टमुवासयज्झयणे । 16 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28. क्रियाहीन ज्ञान निकम्मा (होता है), (तथा) अज्ञान से (की हुई) क्रिया (भी) निकम्मी (होती है); (प्रसिद्ध है कि) देखता हुआ (भी) लँगड़ा (व्यक्ति) (आग से) भस्म हुआ और दौड़ता हुआ (भी) अन्धा व्यक्ति (आग से भस्म हुआ)। 29. (आचार्य) (ऐसा) कहते हैं (कि) (ज्ञान और क्रिया का) संयोग सिद्ध होने पर फल (प्राप्त होता है), क्योंकि (ज्ञान अथवा क्रियारूपी) एक पहिये से (धर्मरूपी) रथ नहीं चलता है। (समझो) अन्धा और लँगड़ा, जुड़े हुए वे (दोनों) जंगल में इकट्ठे मिलकर (आग से बचकर) नगर में गए। 30. जैसे धागे-युक्त सुई कूड़े में पड़ी हुई भी नहीं खोती है, वैसे ही संसार में स्थित भी नियम-युक्त जीव (व्यक्ति) बर्बाद नहीं होता है। 31. जो चरित्र-युक्त (है), (वह) अल्प शिक्षित होने पर (भी) विद्वान (व्यक्ति) को मात कर देता है; किन्तु जो चरित्रहीन (है), उसके लिए बहुत श्रुत-ज्ञान से (भी) क्या (लाभ) (है)? 32. जिन-सिद्धान्त में (यह कहा गया है कि) आहार, आसन और निद्रा पर विजय प्राप्त करके और (आत्मा को) गुरु-कृपा से समझकर निजआत्मा ध्यायी जानी चाहिए। 33. जब तक (किसी को) बुढ़ापा नहीं सताता है, जब तक (किसी के) रोग नहीं बढ़ता है, जब तक (किसी को) इन्द्रियाँ क्षीण नहीं होती हैं, तब तक (उसको) धर्म (आध्यात्मिकता) का आचरण कर लेना चाहिए। 34. जो दान चार प्रकार का कहा जाता है, (उसका) विभाजन आहार, औषध, शास्त्र तथा अभय (के रूप में है)। वह (दान) दिया जाना चाहिए। (ऐसा) उपासकाध्ययन में वर्णित (है)। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35. जयणा उ धम्मजणणी, जयणा धम्मस्स पालणी चेव । तव्वुड्डीकरी जयणा, एगंतसुहावहा जयणा ।। 36. जयं चरे जयं चिठे जयमासे जयं सए। जयं भुंजतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ।। 37. जरामरणवेगेणं, वुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं । 18 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35. निश्चय ही जागरुकता अध्यात्म की माता (है), निश्चय ही जागरुकता अध्यात्म की रक्षा करनेवाली (है), जागरुकता उसकी (अध्यात्म की) वृद्धि करनेवाली है। (तथा) जागरुकता (ही) निरपेक्ष सुख को उत्पन्न करनेवाली है। 36. (व्यक्ति) जागरुकतापूर्वक चले, जागरुकतापूर्वक खड़ा रहे, जागरुकतापूर्वक बैठे, जागरुकतापूर्वक सोये (ऐसा करता हुआ तथा) जागरुकतापूर्वक भोजन करता हुआ (और) बोलता हुआ (व्यक्ति) अशुभ कर्म को नहीं बाँधता है। 37. जरा-मरण के प्रवाह के द्वारा बहाकर ले जाए जाते हुए प्राणियों के लिए धर्म (अध्यात्म) टापू (आश्रय गृह) (है), सहारा (है), रक्षास्थल (है) और उत्तम शरण (है)। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 19 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. 1. पभूयरयणो राया सेणिओ मगहाहिवो । विहारजत्तं निज्जाओ मंडिकुच्छिंसि चेड़ए ॥ 4. 5. 20 पाठ उत्तराध्ययन - 3 3. तत्थ सो पासई साहुं संजयं सुसमाहियं । निसन्नं रुक्खमूलम्मि सुकुमालं सुहोइयं ॥ नाणादुम-लयाइण्णं नाणापक्खिनिसेवियं । नाणाकुसुमसंछन्नं उज्जाणं नंदणोवमं ॥ तस्स रूवं तु पासित्ता राइणो तम्मि संजए । अच्चंतपरमो आसी अतुलो रूवविम्हओ ॥ अहो! वण्णो अहो! रूवं अहो! अज्जस्स सोमया । अहो ! खंती अहो! मुत्ती अहो! भोगे असंगया ॥ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 3 उत्तराध्ययन मगध के शासक, राजा श्रेणिक (जो) प्रचुर रत्नवाले (सम्पन्न) (कहे जाते थे) सैर को निकले (और) (वे) मण्डिकुक्षी (नाम के) बगीचे में (गए)। 2. (वह) बगीचा तरह-तरह के वृक्षों और बेलों से भरा हुआ (था), तरह-तरह के पक्षियों द्वारा उपभोग किया हुआ (था), तरह-तरह के फूलों से ढका हुआ (था) और इन्द्र के बगीचे के समान (था)। 3. वहाँ उन्होंने (राजा ने) आत्म-नियन्त्रित, सौन्दर्य युक्त, पूरी तरह से ध्यान में लीन, पेड़ के पास बैठे हुए (तथा) (सांसारिक) सुखों के लिए उपयुक्त (उम्रवाले) साधु को देखा। और उसके रूप को देखकर राजा के (मन में) उस साधु में (देखे गए) सौन्दर्य के प्रति अत्यधिक, परम तथा बेजोड़ आश्चर्य (घटित) हुआ। 5. (परम) आश्चर्य! (देखो) (साधु का) (मनोहारी) रंग (और) आश्चर्य! (देखो) (आकर्षक) सौन्दर्य! (अत्यधिक) आश्चर्य। (देखो) आर्य की सौम्यता; (अत्यन्त) आश्चर्य! (देखो) (आर्य का) धैर्य; आश्चर्य! (देखो) (साधु का) सन्तोष (और) (अतुलनीय) आश्चर्य। (देखो) (सुकुमार) (साधु की) भोग में अनासक्तता। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. तस्स पाए उ वंदित्ता काऊण य पयाहिणं । नाइदूरमणासन्ने पंजली पडिपुच्छई। 7. तरुणो सि अज्जो! पव्वइओ भोगकालम्मि संजया। उवढिओ सि सामण्णे एयमढे सुणेमु ता॥ 8. अणाहो मि महारायं! नाहो मज्झ न विज्जई। अणुकंपगं सुहिं वा वि कंची नाभिसमेमऽहं ।। 9. तओ सो पहसिओ राया सेणिओ मगहाहिवो। एवं ते इड्डिमंतस्स कहं नाहो न विज्जई॥ 10. होमि नाहो भयंताणं भोगे भुंजाहि संजया। मित्त-नाईपरिवुडो माणुस्सं खु सुदुल्लहं।। 11. अप्पणा वि अणाहो सि सेणिया! मगहाहिवा। अप्पणा अणाहो संतो कस्स नाहो भविस्ससि?॥ 12. एवं वुत्तो नरिंदो सो सुसंभंतो सुविम्हिओ। वयणं असुयपुव्वं साहुणा विम्हयनितो॥ 22 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. और उसके चरणों में प्रणाम करके तथा (उसकी) प्रदक्षिणा करके (राजा श्रेणिक) (उससे) न अत्यधिक दूरी पर (और) न समीप में (ठहरा) (और) (वह) विनम्रता व सम्मान के साथ जोड़े हुए हाथ सहित (रहा) (और) (उसने) पूछा। ____7. हे आर्य! (आप) तरुण हो। हे संयत! (आप) भोग (भोगने) के समय में साधु बने हुए हो। (आश्चर्य!) (आप) साधुपन में स्थिर (प्रव्रज्या लेने को तैयार) हो। तो इसके प्रयोजन को (चाहता हूँ कि) (मैं) सुपूँ। (साधु ने कहा) हे राजाधिराज! (मैं) अनाथ हूँ। मेरा (कोई) नाथ नहीं है। किसी अनुकम्पा करनेवाले (व्यक्ति) या मित्र को भी मैं नहीं जानता हूँ। 9. तब वह मगध का शासक, राजा श्रेणिक हँस पड़ा। (और बोला) आप जैसे समृद्धिशाली के लिए (कोई) नाथ कैसे नहीं है? 10. (आप जैसे) पूज्यों के लिए (मैं) नाथ होता हैं। हे संयत! मित्रों और स्वजनों से घिरे हुए (रहकर) (आप) भोगों को भोगो, (चूँकि) सचमुच मनुष्यत्व (मनुष्य-जन्म) अत्यधिक दुर्लभ (होता है)। 11. हे मगध के शासक! हे श्रेणिक! (तू) स्वयं ही अनाथ है। स्वयं अनाथ होते हुए (तू) किसका नाथ होगा? 12. साधु के द्वारा (जब) इस प्रकार कहा गया (तब) पहले कभी न सुने गए (उसके ऐसे) वचन को (सुनकर) आश्चर्ययुक्त वह राजा (श्रेणिक) अत्यधिक हड़बड़ाया (तथा) अत्यधिक चकित हुआ। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. अस्सा हत्थी मणुस्सा मे पुरं अंतेउरं च मे। भुंजामि माणुसे भोए आणा इस्सरियं च मे॥ 14. एरिसे संपयग्गम्मि सव्वकामसमप्पिए। कहं अणाहो भवइ मा हु भंते! मुसं वए। 15. न तुम जाणे अणाहस्स अत्थं पोत्थं न पत्थिवा!। जहा अणाहो भवइ सणाहो वा नराहिवा॥ 16. सुणेह मे महारायं! अव्वक्खित्तेण चेयसा। जहा अणाहो भवति जहा मे य पवत्तियं ।। 17. कोसंबी नाम नयरी पुराणपुरभेयणी। तत्थ आसी पिया मज्झं पभूयधणसंचओ। 18. पढमे वए महारायं! अतुला मे अच्छिवेयणा। अहोत्था विउलो दाहो सव्वगत्तेसु पत्थिवा॥ 19. सत्थं जहा परमतिक्खं सरीरवियरंतरे । पविसेज्ज अरी कुद्धो एवं मे अच्छिवेयणा॥ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. मेरे ( अधिकार में ) हाथी, घोड़े (और) मनुष्य ( हैं ), मेरे ( राज्य में ) नगर और राजभवन (हैं) । (मैं) मनुष्य - सम्बन्धी भोगों को (सुखपूर्वक) भोगता हूँ, आज्ञा और प्रभुता मेरी ( ही चलती है) । वैभव के ऐसे आधिक्य में (जहाँ) समस्त अभीष्ट पदार्थ (किसी के) समर्पित (हैं), (वह) अनाथ कैसे होगा ? हे पूज्य ! इसलिए (अपने ) कथन में झूठ मत बोलो) । (साधु ने कहा ) (मैं) समझता हूँ ( कि ) हे राजा ! तुम अनाथ के अर्थ और (उसकी) मूलोत्पत्ति को नहीं ( जानते हो ) | ( अतः ) हे राजा! जैसे अनाथ या सनाथ होता है, (वैसे तुम्हें समझाऊँगा ) । जैसे (कोई व्यक्ति) अनाथ होता है और जैसे मेरे द्वारा ( उसका ) (अनाथ शब्द का ) (अर्थ) संस्थापित ( है ) ( वैसे) हे राजाधिराज ! मेरे द्वारा (किए गए) (प्रतिपादन को ) एकाग्र चित्त से सुनो। प्राचीन नगरों से अन्तर करनेवाली कौशाम्बी नामक ( मनोहारी) नगरी ( थी ) । वहाँ मेरे पिता रहते थे । ( उसके ) (पास) प्रचुर धन का संग्रह (था) । हे राजाधिराज ! ( एक बार ) प्रथम उम्र में अर्थात् तरुणावस्था में मेरी आँखों में असीम पीड़ा ( हुई) (और) हे नरेश ! शरीर के सभी अंगों बहुत जलन ( हुई)। में जैसे क्रोध युक्त दुश्मन अत्यधिक तीखे शस्त्र को शरीर के छिद्रों के अन्दर घुसाता है ( और उससे जो पीड़ा होती है) उसी प्रकार मेरी आँखों में पीड़ा (बनी हुई थी ) । प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 25 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20. 21. 22. 23. 24. 25. 26. 26 तियं मे अंतरिच्छं च उत्तमंगं च पीडई | इंदासणिसमा घोरा वेयणा परमदारुणा ॥ उवट्टिया मे आयरिया विज्जा-मंतचिगिच्छगा । अबीया सत्थकुसला मंत- मूलविसारया ॥ ते मे तिगिच्छं कुव्वंति चाउप्पायं जहाहियं । न य दुक्खा विमोयंति एसा मज्झ अणाहया ।। पिया मे सव्वसारं पि देज्जाहि मम कारणा । न य दुक्खा विमोयंति एसा मज्झ अणाहया ।। माया वि मे महाराय ! पुत्तसोगदुहऽट्टिया । न य दुक्खा विमोयंति एसा मज्झ अणाहया ।। भायरो मे महाराय ! सगा जेट्ठ- कणिट्ठगा । न य दुक्खा विमोयंति एसा मज्झ अणाहया ।। भइणीओ मे महाराय ! सगा जेट्ठ- कणिट्ठगा । न य दुक्खा विमोयंति एसा मज्झ अणाहया ॥ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20. इन्द्र के वज्र (शस्त्र) के द्वारा (किए गए आघात से उत्पन्न पीड़ा के) समान मेरी कमर और (मेरे) हृदय तथा मस्तिष्क में अत्यन्त, तीव्र (और) भयंकर पीड़ा (थी)। (उस पीड़ा ने मुझे) (अत्यधिक) परेशान किया। 21. अलौकिक विद्याओं और मंत्रों के द्वारा इलाज करनेवाले, (चिकित्सा) शास्त्र में योग्य, मंत्रों के आधार में प्रवीण, अद्वितीय (चिकित्सा) आचार्य मेरा (इलाज करने के लिए) पहुँचे। 22. जैसे हितकारी (हो) (वैसे) उन्होंने मेरी चार प्रकार की चिकित्सा की, किन्तु (इसके बावजूद भी) (उन्होंने) (मुझे) दुःख से नहीं छुड़ाया। यह मेरी अनाथता (है)। 23. (हे राजाधिराज!) (जैसे) (तुम्हें) (देना चाहिए) (वैसे) मेरे पिता ने मेरी (चिकित्सा के) प्रयोजन से (चिकित्सकों को) सभी प्रकार की धन-दौलत भी दी, फिर भी (पिता ने) (मुझे) दुःख से नहीं छुड़ाया। यह मेरी अनाथता (है)। 24. हे राजाधिराज! मेरी माता भी पुत्र के कष्ट के दुःख से पीड़ित (थी), किन्तु (फिर भी) (मेरी माता ने) (मुझे) दुःख से नहीं छुड़ाया। यह मेरी अनाथता (है)। 25. हे महाराज! मेरे निजी बड़े-छोटे भाइयों ने भी (भरसक प्रयत्न किया) ... किन्तु (उन्होंने) (भी) मुझे दुःख से नहीं छुड़ाया। यह मेरी अनाथता 26. हे राजाधिराज! मेरी निजी बड़ी-छोटी बहनों ने भी (भरसक प्रयत्न किया) किन्तु (उन्होंने) (भी) मुझे दु:ख से नहीं छुड़ाया। यह मेरी अनाथता (है)। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27. भारिया मे महाराय! अणुरत्ता अणुव्वया। अंसुपुण्णेहिं नयणेहिं उरं मे परिसिंचई। 28. अन्नं पाणं च पहाणं च गंध-मल्लविलेवणं । मए णायमणायं वा सा बाला नोव जई। 29. खणं पि मे महाराय! पासाओ वि न फिट्टई। न य दुक्खा विमोएइ एसा मज्झ अणाहया॥ 30. तओ हं एवमाहंसु दुक्खमा हु पुणो पुणो। वेयणा अणुभविउं जे संसारम्मि अणंतए॥ 31. सई च जइ मुच्चिज्जा वेयणा विउला इओ। खंतो दंतो निरारंभो पव्वए अणगारियं ।। 32. एवं च चिंतइत्ताणं पासुत्तो मि नराहिवा!। परियत्तेतीए राईए वेयणा मे खयं गया । 33. तओ कल्ले पभायम्मि आपुच्छित्ताण बंधवे । खंतो दंतो निरारंभो पव्वइओ अणगारियं ।। 34. तो हं नाहो जाओ अप्पणो य परस्स य। सव्वेसिं चेव भूयाणं तसाणं थावराण य॥ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 28 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27. हे राजाधिराज! पतिव्रता (और) (मुझसे) सन्तुष्ट मेरी पत्नी ने आँसू भरे हुए नेत्रों से मेरी छाती को भिगोया। 28. मेरे द्वारा जाना गया (हो) अथवा न जाना गया (हो), (तो भी) वह (मेरी पत्नी), (जो) तरुणी (थी), (कभी भी) भोजन और पेय पदार्थ का तथा स्नान, सुगन्धित द्रव्य, फूल (और) (किसी प्रकार के) खुशबूदार लेप का उपयोग नहीं करती (थी)। 29. हे राजाधिराज! मेरी (पत्नी) एक क्षण के लिए भी (मेरे) पास से ही नहीं जाती (थी), फिर भी (उसने) (मुझे) दुःख से नहीं छुड़ाया। यह मेरी अनाथता (है)। 30. तब मैंने (अपने मन में) इस प्रकार कहा (कि) (इस) अनन्त संसार में (व्यक्ति को) निश्चय ही असह्य पीड़ा बार-बार (होती) (है), (जिसको) अनुभव करके (व्यक्ति अवश्य ही दुःखी होता है)। 31. यदि (मैं) इस घोर पीड़ा से तुरन्त ही छुटकारा पा जाऊँ, (तो) (मैं) साधु-सम्बन्धी दीक्षा में (प्रवेश करूँगा) (जिससे). (मैं) क्षमा-युक्त, जितेन्द्रिय और हिंसा-रहित (हो जाऊँगा)। 32. हे राजा! इस प्रकार विचार करके ही (मैं) सोया था। (आश्चर्य!) क्षीण होती हुई रात्रि में मेरी पीड़ा (भी) विनाश को प्राप्त हुई। 33. तब (मैं) प्रभात में (अचानक) निरोग (हो गया)। (अत:) बन्धुओं को पूछकर साधु-सम्बन्धी (अवस्था) में प्रवेश कर गया। (जिसके फलस्वरूप) (मैं) क्षमायुक्त, जितेन्द्रिय तथा हिंसारहित (बना)। 34. इसलिए मैं निज का और दूसरे का भी तथा त्रस और स्थावर सब ही प्राणियों का नाथ बन गया। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 4 वज्जालग्ग 1. दुक्खं कीरइ कव्वं कव्वम्मि कए पउंजणा दुक्खं । संते पउंजमाणे सोयारा दुल्लहा हुंति॥ 2. गाहा रुअइ अणाहा सीसे काऊण दो वि हत्थाओ। सुकईहि दुक्खरइया सुहेण मुक्खो विणासेइ॥ 3. गाहाहि को न हीरइ पियाण मित्ताण को न संभरइ। दूमिज्जइ को न वि दूमिएण सुयणेण रयणेण॥ पाइयकव्वम्मि रसो जो जायइ तह य छयभणिएहिं। उययस्स य वासियसीयलस्स तित्तिं न वच्चामो ।। 5. पाइयकव्वस्स नमो पाइयकव्वं च निम्मियं जेण। ताहं चिय पणमामो पढिऊण य जे वि जाणंति॥ 30 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 4 वज्जालग्ग ___ 1. काव्य बड़ी कठिनाई से रचा जाता है। काव्य के रच लेने पर (उसका) पाठ बड़ी कठिनाई से (किया जाता है)। पाठ करनेवाले (व्यक्ति के) होने पर श्रोता दुर्लभ होते हैं। अच्छे कवियों द्वारा कठिनाई से रचित अनाथ गाथा दोनों ही हाथों को सिर पर रखकर रोती हैं, (जब) मूर्ख (पाठी) (गाथा-पाठ को) लापरवाही से बिगाड़ देता है। गाथा के द्वारा कौन प्रसन्न नहीं किया जाता है? प्रिय मित्रों को कौन स्मरण नहीं करता है? तथा श्रेष्ठ परोपकारी के पीड़ित होने पर कौन (व्यक्ति) पीड़ित नहीं किया जाता है? प्राकृत काव्य से जो रस उत्पन्न होता है (उससे) (हम ऊब को प्राप्त नहीं होते हैं), उसी तरह ही (जैसे) निपुण (व्यक्ति) के द्वारा बोले गए (वचनों) से तथा (अपने द्वारा पिए गए) सुगन्धित शीतल जल से (भी) (हम) ऊब को प्राप्त नहीं होते हैं। 5. प्राकृत काव्य को नमस्कार तथा जिसके द्वारा प्राकृत काव्य रचा गया है (उसको) भी (नमस्कार) तथा जो भी (लोग) (काव्य को) पढ़कर समझते हैं उनको भी (हम) प्रणाम करते हैं। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. 7. 8. 10. 11. 32 सुयणो सुद्धसहावो मइलिज्जतो वि दुज्जणजणेण । छारेण दप्पणो विय अहिययरं निम्मलो होइ ॥ सुयणो न कुप्पइ च्चिय अह कुप्पड़ मंगुलं न चिंतेइ । अह चिंतेइ न जंपइ अह जंपइ लज्जिरो होइ ॥ दिट्ठा हरंति दुक्खं जंपंता देंति सयलसोक्खाई । एयं विहिणा सुकयं सुयणा जं निम्मिया भुवणे ॥ न हसंति परं न थुवंति अप्पयं पियसयाइ जंपंति । एसो सुयणसहावो नमो नमो ताण पुरिसाणं ॥ अकवि कवि पिए पियं कुणंता जयम्मि दीसंति । कयविप्पिए वि हु पियं कुणंति ते दुल्लहा सुयणा ॥ फरुसं न भणसि भणिओ वि हससि हसिऊण जंपसि पियाई । सज्जण तुज्झ सहावो न याणिमो कस्स सारिच्छो॥ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. दुर्जन मनुष्य के द्वारा मलिन किया जाते हुए भी उज्ज्वल स्वभावी सज्जन और भी अधिक निर्मल हो जाता है जैसे क्षार के द्वारा (मलिन किया जाता हुआ) दर्पण (और भी अधिक निर्मल हो जाता सज्जन क्रोध नहीं करता है, यदि (वह) क्रोध भी करता है, (तो) अनिष्ट नहीं सोचता है, यदि (वह अनिष्ट) सोचता है, (तो) (अनिष्ट) नहीं बोलता है, यदि (वह अनिष्ट) बोलता है, (तो) लज्जा-युक्त होता है। 8. (सच है कि) मिले हुए (सज्जन व्यक्ति) (हमारे) दुःख को हरते हैं, बोलते हुए (वे) (हमको) सभी सुख देते हैं, विधि द्वारा यह शुभ (कार्य) किया गया है कि जगत में सज्जन (उसके द्वारा) बनाए गए हैं। (सज्जन पुरुष) दूसरे का उपहास नहीं करते हैं, (वे) निज की प्रशंसा नहीं करते हैं, (वे) सैंकड़ों प्रिय (बातें) बोलते हैं, यह सज्जन का स्वभाव है। उन (सज्जन) पुरुषों को (बार-बार) नमस्कार। 10. (दूसरे के द्वारा अपना) प्रिय (भला) किया जाने पर तथा (दूसरे के द्वारा अपना) प्रिय (भला) नहीं किया जाने पर भी जगत में (दूसरे का) प्रिय (भला) करते हुए (लोग) देखे जाते हैं, किन्तु (दूसरे के द्वारा अपना) अप्रिय (बुरा) किया जाने पर भी (जो) (दूसरे का) प्रिय (भला) करते हैं, वे सज्जन दुर्लभ हैं। 11. हे सज्जन! (तुम) कठोर नहीं बोलते हो, (यदि दूसरे के द्वारा कठोर) बोला गया (है), (तो) भी (तुम) हँसते हो, हँसकर प्रिय (वचनों को) बोलते हो। तुम्हारा स्वभाव किसके समान है? (हम) नहीं जानते हैं। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. नेच्छसि परावयारं परोवयारं च निच्चमावहसि । अवराहेहि न कुप्पसि सुयण नमो तुह सहावस्स ॥ 13. 14. 15. 16. 17. 18. 34 दोहिं चिय पज्जत्तं बहुएहि वि किं गुणेहि सुयणस्स । विज्जुप्फुरियं रोसो मित्ती पाहाणारेह व्व ॥ दीणं अब्भुद्धरिउं पत्ते सरणागए पियं काउं । अवरद्धेसु वि खमिउं सुयणो च्चिय नवरि जाणेइ ॥ बे पुरिसा धरइ धरा अहवा दोहिं पि धारिया धरणी । उवयारे जस्स मई उवयरियं जो न पम्हुसइ ॥ सेला चलति पलए मज्जायं सायरा वि मेल्लंति । सुयणा तहिं पि काले पडिवन्नं नेय सिढिलंति ॥ चंदणतरु व्व सुयणा फलरहिया जइ वि निम्मिया विहिणा । तह वि कुणंति परत्थं निययसरीरेण लोयस्स ॥ गुणिण गुणेहि विवेहि विहविणो होंतु गव्विया नाम । दोसेहि नवरि गव्वो खलाण मग्गो च्चिय अउव्वो । प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. हे सज्जन! (तुम) दूसरे के अपकार की इच्छा नहीं करते हो तथा (तुम) सदा दूसरे का उपकार करते हो, (तुम्हारे प्रति किए गए) अपराधों के कारण (तुम) (किसी पर भी) क्रोध नहीं करते हो, (अत:) तुम्हारे स्वभाव के लिए नमस्कार। 13. सज्जन के बहुत गुणों से भी क्या? (उसके) दो (गुणों) से ही (हमारी) तृप्ति है- (बादलों की) बिजली की तरह अस्थिर क्रोध (तथा) पत्थर की रेखा की तरह मित्रता। 14. दीन का उद्धार करना, शरण में आए हुए (व्यक्ति के) प्राप्त होने पर (उसका) प्रिय (भला) करना, (तथा अपने प्रति किए गए) अपराधों को भी क्षमा करना केवल सज्जन ही जानता है। 15. पृथ्वी दो पुरुषों को धारण करती है अथवा (यह कहा जाए कि) पृथ्वी दो के द्वारा ही धारी गई है। (प्रथम) उपकार में जिसकी मति है (द्वितीय) जो (दूसरे के द्वारा) किए गए उपकार को नहीं भूलता है। 16. प्रलय में पर्वत नष्ट होते हैं (तथा) सागर भी मर्यादा छोड़ देते हैं, (किन्तु) उस समय में भी सज्जन कभी दिए हुए वचन को शिथिल नहीं करते हैं। 17. यद्यपि चन्दन-वृक्ष की तरह सज्जन विधि के द्वारा फल-रहित (पुरस्कार रहित) बनाए गए हैं, तो भी (वे) निज शरीर से लोक का हित करते हैं। 18. गुणों से गुणी गर्वित हों, सम्पत्ति से सम्पत्तिशाली गर्वित (हों), (यह) सम्भावना (है), (किन्तु) (खलों को) केवल दोषों के कारण गर्व (होता हैं) खलों का मार्ग ही अनोखा है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. 20. 21. 22. 23. 24. 25. 36 संतं न देंति वारेंति देंतयं दिन्नयं पि हारंति । अणिमित्तवइरियाणं खलाण मग्गो च्चिय अउव्वो । जेहिं चिय उब्भविया जाण पसाएण निग्गयपयावा । समरा डहंति विंझं खलाण मग्गो च्चिय अउव्वो । सरसा विदुमा दावाणलेण डज्झति सुक्खसंवलिया । दुज्जणसंगे पत्ते सुयणो वि सुहं न पावेइ ॥ धन्ना बहिरंधलिया दो च्चिय जीवंति माणुसे लोए । न सुणंति पिसुणवयणं खलस्स रिद्धी न पेच्छति ।। एक्कं चिय सलहिज्जइ दिणेसदियहाण नवरि निव्वहणं । आजम्म एक्कमेक्केहि जेहि विरहो च्चिय न दिट्ठो ॥ पडिवन्नं दिणयरवासराण दोन्हं अखंडियं सुहइ | सूरो न दिणेण विणा दिणो वि न हु सूरविरहम्मि ॥ तं मित्तं कायव्वं जं किर वसणम्मि देसकालम्मि । आलिहियभित्तिबाउल्लयं व न परंमुहं ठाइ ॥ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. (खल) (अपने पास) होती हुई (वस्तु) को नहीं देते हैं, देते हुए (दूसरों) को रोकते हैं, दी गई (वस्तु) को भी छीन लेते हैं। बिना किसी कारण वैर करने वाले खलों का मार्ग ही अनोखा है। 20. जिन (विन्ध्य-पर्वत शृंखलाओं) के द्वारा अनार्य ऊँचे (प्रतिष्ठित) किए गए हैं, जिनके प्रसाद से (उनका) प्रताप बाहर फैलाया गया है, (आश्चर्य है) (वे अनार्य) ही विन्ध्य-पर्वत को जलाते हैं। खलों का मार्ग ही अनोखा है। 21. (जिस प्रकार) शुष्क (घास) से मिश्रित ताजे वृक्ष भी दावानल के द्वारा जला दिए जाते हैं, (उसी प्रकार) दुर्जन का साथ प्राप्त होने पर सज्जन भी सुख नहीं पाता है। 22. (मनुष्यों से) मिले हुए बहरे और अन्धे धन्य हैं, (वे) ही दो (व्यक्ति) (वास्तव में) मनुष्य लोक में जीते हैं, (क्योंकि) (वे) दुष्ट के वचन को नहीं सुनते हैं (और) दुष्ट के वैभव को नहीं देखते हैं। 23. केवल एक ही सूर्य और दिन (की मित्रता) का निर्वाह प्रशंसित किया जाता है, जिनमें से प्रत्येक (किसी) के द्वारा आजन्म विरह ही नहीं देखा गया। 24. सूर्य और दिन दोनों की (आपस में) की हुई अखण्डित (मित्रता) शोभती है। दिन के बिना सूर्य नहीं (होता है) (तथा) दिन भी निश्चय ही सूर्य के अभाव में नहीं (होता है)। 25. वह मित्र बनाया जाना चाहिए, जो निश्चय ही (किसी भी) स्थान पर (तथा) (किसी भी) समय में विपत्ति (पड़ने) पर भीत पर चित्रित पुतले की तरह विमुख नहीं रहता है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 37 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26. 27. 28. 29. 30. 31. 38 छिज्जउ सीसं अह होउ बंधणं चयउ सव्वहा लच्छी । पडिवन्नपालणे सुपुरिसाण जं होइ तं होउ ॥ कीरइ समुद्दतरणं पविसिज्जइ हुयवहम्मि पज्जलिए । आयामिज्जइ मरणं नत्थि दुलंघं सिणेहस्स ॥ एक्काइ नवरि नेहो पयासिओ तिहुयणम्मि जोन्हाए । जा झिज्जइ झीणे ससहरम्मि वड्ढेइ वडुंते ॥ झिज्जर झीणम्मि सया वड्डइ वİतयम्मि सविसेसं । सायरससीण छज्जइ जयम्मि पडिवन्नणिव्वहणं ॥ पडिवन्नं जेण समं पुव्वणिओएण होइ जीवस्स । दूरट्ठिओ न दूरे जह चंदो कुमुयसंडाणं ॥ दूरट्टिया न दूरे सज्जणचित्ताण पुव्वमिलियाणं । गयणट्ठिओ वि चंदो आसासइ कुमुयसंडाई ॥ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26. वचन दी हुई (बात) के पालन में सज्जन पुरुषों का जो होता है, वह हो, (कोई बात नहीं) यदि शीश काट दिया जाए, (यदि) बन्धन हो जाए (तथा) (यदि) पूर्णतः लक्ष्मी छोड़ दे। 27. स्नेह के लिए (इस जगत में) (कुछ भी) अलंघनीय (कठिन) नहीं है; समुद्र भी पार किया जाता है, प्रज्वलित अग्नि में (भी) प्रवेश किया जाता है (तथा) मरण (भी) स्वीकार किया जाता है। तीनों लोकों में केवल अकेले चन्द्र-प्रकाश के द्वारा स्नेह व्यक्त किया गया है, (क्योंकि) जो (वह) (प्रकाश) क्षीण चन्द्रमा में क्षीण होता है (तथा) बढ़ते हुए (चन्द्रमा) में बढ़ता है। 29. जगत में सागर और चन्द्रमा का किया हुआ (स्नेह) निर्वाह शोभता है। (चन्द्रमा के) क्षीण होने पर (सागर) सदा क्षीण होता है (तथा) (चन्द्रमा के) बढ़ते हुए होने पर (सागर) विशेष प्रकार से (सदा) बढ़ता है। 30. जैसे चन्द्रमा और (चन्द्र-विकासी) कमल-समूहों के (मध्य में) (किया हुआ) (स्नेह) (होता है), (वैसे ही) पूर्व सम्बन्ध से जीव का जिसके साथ किया हुआ (स्नेह) होता है, (वह जीव) दूरस्थित (भी) दूर नहीं (होता है)। 31. पूर्व में (आपस में) मिले हुए सज्जन चित्तों के लिए दूर स्थित (रहना) (भी) दूर (जैसा) नहीं (होता है)। (यह ज्ञातव्य है कि) गगन में स्थित भी चन्द्रमा कमल-समूहों को आश्वासन देता है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 39 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32. एमेव कह वि कस्स वि केण वि दिट्ठण होइ परिओसो। कमलायराण रइणा किं कज्जं जेण वियसंति ।। 33. कत्तो उग्गमइ रई कत्तो वियसंति पंकयवणाई। सुयणाण जए नेहो न चलइ दूरट्ठियाणं पि॥ 34. संतेहि असंतेहि य परस्स किं जंपिएहि दोसेहिं। अत्थो जसो न लब्भइ सो वि अमित्तो कओ होइ॥ 35. सीलं वरं कुलाओ दालिदं भव्वयं च रोगाओ। विज्जा रज्जाउ वरं खमा वरं सुट्ठ वि तवाओ॥ 36. सीलं वरं कुलाओ कुलेण किं होइ विगयसीलेण। कमलाइ कद्दमे संभवंति न हु हुँति मलिणाई। 37. जं जि खमेइ समत्थो धणवंतो जं न गव्वमुव्वहइ। जं च सविज्जो नमिरो तिसु तेसु अलंकिया पुहवी॥ 38. छंदं जो अणुवट्टइ मम्मं रक्खइ गुणे पयासेइ। सो नवरि माणुसाणं देवाण वि वल्लहो होइ॥ 40 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32. 33. 34. 35. 36. 37. 38. (यह ) इसी प्रकार ( है ) किसी तरह किसी (स्नेही) के लिए भी किसी (स्नेही) के द्वारा देख भी लिया जाने से परितोष होता है । ( ठीक ही है) सूर्य से कमल - ल - समूहों का ( स्नेह के अतिरिक्त और ) क्या प्रयोजन जिससे (वे) खिलते हैं? कहाँ से (तो) सूर्य उदय होता है ? और कहाँ कमलों के समूह खिलते हैं ? ( यह सच है कि) जगत में दूर स्थित भी सज्जनों का स्नेह चलायमान नहीं (होता है) । दूसरे (व्यक्ति) के विद्यमान तथा अविद्यमान कहे हुए दोषों से क्या (लाभ)? (इससे) (उसके द्वारा) अर्थ (और) यश ( कभी ) प्राप्त नहीं किया जाता है, (किन्तु ) ( इससे ) वह शत्रु बनाया गया होता है। कुल से शील ( चारित्र) श्रेष्ठतर है; तथा रोग से निर्धनता ( अधिक) अच्छी है; राज्य से विद्या श्रेष्ठतर है तथा अच्छे तप से क्षमा श्रेष्ठतर है । कुल से शील ( चारित्र) श्रेष्ठतर है ? विनष्ट शील ( चारित्र) के (होने) पर (उच्च) कुल के द्वारा क्या (लाभ) होता है ? कमल कीचड़ में उत्पन्न होते हैं, (किन्तु ) मलिन नहीं होते हैं । ( यदि सच यह है) कि समर्थ ही क्षमा करता है, और (यदि सच यह है) कि धनवान गर्व धारण नहीं करता है, और (यदि सच यह है) कि विद्यायुक्त नम्र होता है, (तो) उन तीनों के द्वारा पृथ्वी अलंकृत (होती है)। जो (योग्य व्यक्ति की ) इच्छा का अनुसरण करता है, ( उसके ) मर्म का रक्षण करता है, गुणों को प्रकाशित करता है, वह न केवल मनुष्यों का ( किन्तु) देवताओं का भी प्रिय होता है । प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 41 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39. लवणसमो नत्थि रसो विन्नाणसमो य बंधवो नत्थि। धम्मसमो नत्थि निही कोहसमो वेरिओ नत्थि॥ 40. कुप्पुत्तेहि कुलाइं गामणगराइ पिसुणसीलेहिं। नासंति कुमंतीहिं नराहिवा सुट्ठ वि समिद्धा॥ 41. मा होसु सुयग्गाही मा पत्तीय जं न दिळं पच्चक्खं । पच्चक्खे वि य दिढे जुत्ताजुत्तं वियारेह॥ 42. अप्पाणं अमुणंता जे आरंभंति दुग्गमं कज्जं। परमुहपलोइयाणं ताणं कह होइ जयलच्छी। 43. सिग्धं आरुह कज्जं पारद्धं मा कहं पि सिढिलेसु। पारद्धसिढिलियाई कज्जाइ पुणो न सिज्झंति॥ 44. झीणविहवो वि सुयणो सेवइ रण्णं न पत्थए अन्नं। मरणे वि अइमहग्धं न विक्किणइ माणमाणिक्कं॥ 45. नमिऊण जं विढप्पइ खलचलणं तिहुयणं पि किं तेण। माणेण जं विढप्पइ तणं पि तं निव्वुई कुणइ। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39. लवण के समान रस नहीं है, ज्ञान के समान बन्धु नहीं है, धर्म के समान निधि नहीं है और क्रोध के समान वैरी नहीं है। 40. कुपुत्रों के कारण श्रेष्ठ कुल भी नष्ट हो जाते हैं, दुष्ट चरित्रों के कारण श्रेष्ठ ग्राम-नगर (भी नष्ट (बर्बाद) हो जाते हैं) (तथा) श्रेष्ठ व समृद्ध नराधिपति भी कुमंत्रियों के कारण (नष्ट (असफल) हो जाते हैं)। 41. सुने हुए को ग्रहण करनेवाले मत हो। जो प्रत्यक्ष न देखा गया हो (उस पर) विश्वास मत करो (तथा) प्रत्यक्ष देखे जाने पर भी उचित और अनुचित का विचार करो। 42. अपनी (शक्ति) को न जानते हुए जो कठिन कार्य आरम्भ कर देते हैं, उन परमुख की ओर देखे (झुके) हुए (व्यक्तियों) के लिए अर्थात् उन पराश्रित व्यक्तियों के लिए जय-लक्ष्मी (सफलता) किस तरह (प्राप्त) होगी? 43. कार्य को फुर्ती से करो, प्रारम्भ किए गए कार्य को किसी तरह भी शिथिल मत करो, (क्योंकि) प्रारम्भ किए गये (तथा) फिर शिथिल किए गए कार्य सिद्ध नहीं होते हैं। 44. सज्जन (जिनका) वैभव नष्ट हुआ (है) अरण्य का ही सहारा लेता है। (अपनी पूर्ति के लिए) (वह) दूसरे से याचना नहीं करता है। (वह) अति-मूल्यवान आत्म-सम्मान रूपी लालरत्न को मरण (काल) में भी नहीं बेचता है। 45. खल-चरण में झुककर जो त्रिभुवन भी उपार्जित किया जाता है उससे क्या (लाभ है)? सम्मान से जो तृण भी उपार्जित किया जाता है, वह सुख उत्पन्न करता है। 43 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46. 47. 48. 49. 50. 44 ते धन्ना ताण नमो ते गरुया माणियो थिरारंभा । जे गरुयवसणपडिपेल्लिया वि अन्नं न पत्थंति ॥ तुंगो च्चिय होइ मणो मणंसिणो अंतिमासु वि दसासु । अत्यंतस्स वि रइणो किरणा उद्धं चिय फुरंति ॥ ता तुंगो मेरुगिरी मयरहरो ताव होइ दुत्तारो । ता विसमा कज्जगई जाव न धीरा पवज्जंति ॥ ता वित्थिण्णं गयणं ताव च्चिय जलहरा अइगहीरा । गरुया कुलसेला जाव न धीरेहि तुल्लंति ॥ ता मेरु तिणं व सग्गो घरंगणं हत्थछित्तं गयणयलं । वाहलिया य समुद्दा साहसवंताण पुरिसाणं ॥ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46. जो बड़ी विपत्ति से अति पीड़ित भी दूसरे से याचना नहीं करते हैं, वे आत्म-सम्मानी (हैं) तथा स्थिर-प्रयत्न (प्रयत्नों में स्थिर) (हैं)। (अत:) वे धन्य हैं (और) महान (हैं), उनके लिए नमस्कार। 47. प्रज्ञावान का मन (जीवन की) अन्तिम दशाओं में भी ऊँचा ही होता है। (ठीक ही है) अस्त होते हुए सूर्य की किरणें भी ऊपर की ओर ही प्रकट होती हैं। 48. तब तक (ही) मेरु-पर्वत ऊँचा (होता है), तब तक (ही) समुद्र दुर्लंघ्य होता है, तब तक ही कार्यों में गति कठिन (होती है), जब तक धीर (उनको) स्वीकार नहीं करते हैं। 49. तब तक (ही) आकाश विस्तीर्ण (लगता है), तब तक ही समुद्र अति गहरे (मालूम होते हैं), तब तक (ही) मुख्य पहाड़ महान (दिखाई देते हैं) जब तक धीरों से (उनकी) तुलना नहीं की जाती है। 50. साहसी पुरुषों के लिए मेरु जैसे कि तृण (हैं), स्वर्ग (जैसे कि) घर का आँगन (है), गगन-तल (जैसे कि) हाथ से छुआ हुआ है (और) समुद्र जैसे कि क्षुद्र नदियाँ हैं। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 5 अष्टपाहुड पाऊण णाणसलिलं णिम्मलसुविसुद्धभावसंजुत्ता। हुंति सिवालयवासी तिहुवणचूडामणी सिद्धा । 2. णाणगुणेहिं विहीणा ण लहंते ते सुइच्छियं लाहं । इय णाउं गुणदोसं तं सण्णाणं वियाणेहि ।। 3. चारित्तसमारूढो अप्पा सुपरं ण ईहए णाणी। पावइ अइरेण सुहं अणोवमं जाण णिच्छयदो॥ संजमसंजुत्तस्स य सुझाणजोयस्स मोक्खमग्गस्स। णाणेण लहदि लक्खं तम्हा णाणं च णायव्वं । 5. जह णवि लहदि हु लक्खं रहिओ कंडस्स वेज्झयविहीणो। तह णवि लक्खदि लक्खं अण्णाणी मोक्खमग्गस्स ।। 6. णाणं पुरिसस्स हवदि लहदि सुपुरिसो वि विणयसंजुत्तो। णाणेण लहदि लक्खं लक्खंतो मोक्खमग्गस्स। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 5 अष्टपाहुड (जो) (व्यक्ति) ज्ञानरूपी जल को पीकर निर्मल, शुद्ध भावों से युक्त (हैं), (वे) त्रिभुवन के आभूषण (होते हैं), (तथा) शिवालय में रहने वाले मुक्त (व्यक्ति) होते हैं। (जो) (सम्यक्) ज्ञान-गुण से रहित (हैं), वे भली प्रकार से (भी) चाहे हुए लाभ को प्राप्त नहीं करते हैं, इस प्रकार गुण-दोष को जानने के लिए (तू) उस सम्यग्ज्ञान को समझ। 3. (जो) ज्ञानी चारित्र पर पूर्णतः आरूढ़ (हैं), (वह) (अपनी) आत्मा में श्रेष्ठ (भी) पर वस्तु को नहीं देखता है। (अतः) (वह) शीघ्र अनुपम सुख प्राप्त करता है। (तुम) निश्चय से जानो। 4. संयम से जुड़े हुए तथा श्रेष्ठ ध्यान के लिए उपयुक्त (ऐसे) मोक्ष मार्ग (समता मार्ग) के लक्ष्य को (कोई भी) परमज्ञान से प्राप्त करता है (कर सकता है), इसलिए परम ज्ञान निश्चय ही समझा जाना चाहिए। 5. जैसे बाण से बींधने योग्य लक्ष्य को (निशाने) रहित रथिक बिल्कुल ही नहीं देखता है वैसे ही ज्ञानरहित (व्यक्ति) (अज्ञान के द्वारा) मोक्ष-मार्ग (समता-मार्ग) के लक्ष्य को (बिल्कुल ही) नहीं देखता है। 6. ज्ञान आत्मा में होता है, विनय से जुड़ा हुआ सत्पुरुष ही (उसको) प्राप्त करता है। (वह) मोक्ष-मार्ग (समता-मार्ग) के लक्ष्य को देखता हुआ (उस लक्ष्य को) ज्ञान के द्वारा प्राप्त करता है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. 8. 9. 10. 11. 12. 48 मइधणुहं जस्स थिरं सुदगुण बाणा सुअत्थि रयणत्तं । परमत्थबद्धलक्खो ण वि चुक्कदि मोक्खमग्गस्स ॥ धम्मो दयाविसुद्धो पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता । देवो ववगयमोहो उदययरो भव्वजीवाणं ॥ सत्तू मित्ते यसमा पसंसणिंदाअलद्धिलद्धिसमा । तणकणए समभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया ।। उत्तममज्झिमगेहे दारिद्दे ईसरे णिरावेक्खा । सव्वत्थ गिहिदपिंडा पव्वज्जा एरिसा भणिया ।। भावो हि पढमलिंगं ण दव्वलिंगं च जाण परमत्थं । भावो कारणभूदो गुणदोसाणं जिणा बिंति ॥ भावविसुद्धिणिमित्तं बाहिरगंथस्स कीरए चाओ । बाहिरचाओ विहलो अब्भंतरगंथजुत्तस्स ॥ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. जिसके लिए स्थिर मति धनुष ( है ), श्रुत (ज्ञान) डोरी ( है ), तीन रत्नों का समूह श्रेष्ठ बाण ( है ) (तथा) परमार्थ ( की प्राप्ति) का लक्ष्य दृढ़ (है), (वह) कभी मोक्ष के मार्ग ( समता के मार्ग ) से विचलित नहीं होता है । 8 9. 10. 11. 12. धर्म ( चारित्र ) ( वह है ) ( जो ) दया ( सहानुभूति के भाव ) से शुद्ध किया हुआ ( है ), संन्यास ( वह है ) ( जो ) समस्त आसक्ति से रहित ( होता है ), देव ( वह है ) ( जिसके द्वारा) मूर्च्छा नष्ट की गई (है), (और) (जो) भव्य-जीवों (समता - भाव की प्राप्ति के इच्छुक व्यक्तियों) का उत्थान करनेवाला होता है। ऐसा कहा गया है ( कि) निश्चय ही संन्यास (संन्यासी का जीवन ) शत्रु और मित्र में समान ( होता है), प्रशंसा और निन्दा में लाभ और अलाभ में (भी) समान (होता है ) ( तथा ) ( उसके जीवन में) तृण और सुवर्ण में समभाव (होता है ) । ऐसा कहा गया है ( कि) संन्यास ( संन्यासी का जीवन ) उत्तम और मध्यम गृह में गरीबी (लिए हुए व्यक्ति) में तथा अमीर (व्यक्ति) में निरपेक्ष (होता है ) ( तथा ) ( उस जीवन में ) ( संन्यासी के द्वारा ) प्रत्येक स्थान में (निरपेक्ष भाव से) आहार स्वीकृत ( होता है ) । (यह) (तुम) जानो ( कि) भाव निस्सन्देह प्रधान वेश (होता है), किन्तु (केवल) बाह्य वेश सच्चाई नहीं है। जितेन्द्रिय व्यक्ति कहते हैं ( कि) भाव ( ही ) गुण-दोषों का कारण ( सदैव ) हुआ ( है ) । भाव-शुद्धि के हेतु बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है, आन्तरिक परिग्रह (मूर्च्छा) से युक्त (व्यक्ति) का बाह्य त्याग निरर्थक है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 49 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. जाणहि भावं पढमं किं ते लिंगेण भावरहिएण। पंथिय! सिवपुरिपंथ जिणउवइ8 पयत्तेण॥ 14. जो जीवो भावंतो जीवसहावं सुभावसंजुत्तो। सो जरमरणविणासं कुणइ फुडं लहइ णिव्वाणं॥ 15. अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेयणागुणमसदं। जाणमलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं॥ 16. पढिएण वि किं कीरइ किं वा सुणिएण भावरहिएण। भावो कारणभूदो सायारणयारभूदाणं॥ 17. बाहिरसंगच्चाओ गिरिसरिदरिकंदराइ आवासो। सयलो झाणज्झयणो णिरत्थओ भावरहियाणं॥ 18. भंजसु इंदियसेणं भंजसु मणमक्कडं पयत्तेण। मा जणरंजणकरणं बाहिरवयवेस तं कुणसु॥ 19. जह दीवो गब्भहरे मारुयबाहाविवज्जिओ जलइ। तह रायानिलरहिओ झाणपईवो वि पज्जलइ॥ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. हे पथिक! (तुम) सर्वप्रथम भाव को समझो। भावरहित देश से तुम्हारे लिए क्या (लाभ)? (इस प्रकार) जितेन्द्रियों द्वारा शिवपुरी का मार्ग (परमशान्ति का मार्ग) सावधानीपूर्वक प्रतिपादित (है)। 14. जो जीव आत्म-स्वभाव का चिन्तन करता हुआ श्रेष्ठ भावों से युक्त (होता है) वह बुढ़ापा और मृत्यु का नाश करता है (और) निश्चय ही परम शान्ति को प्राप्त करता है। 15. आत्मा रस रहित, रूप रहित, गन्ध रहित, शब्द रहित तथा अदृश्यमान (है), (उसका) स्वभाव चेतना तथा ज्ञान (है), (उसका) ग्रहण बिना किसी चिह्न के (केवल अनुभव से) (होता है) (और) (उसका) आकार अप्रतिपादित (है)। 16. (हे मनुष्य)! भाव-रहित सुना हुआ होने से क्या (लाभ) प्राप्त किया जाता है, अथवा (भाव-रहित) पढ़े जाने से भी क्या (लाभ) (प्राप्त किया जाता है)। भाव (ही) गृहस्थ (एवं) साधु होने वालों का आधार बना हुआ है। 17. भाव-रहित (व्यक्तियों) के लिए बाह्य परिग्रह का त्याग, पर्वत, नदी, गुफा और घाटी में रहना तथा सकल ध्यान और अध्ययन (ये सब) निरर्थक (है)। 18. इन्द्रियरूपी सेना को छिन्न-भिन्न करो, मनरूपी बन्दर को प्रयत्नपूर्वक रोको, (तथा) जन-समुदाय को खुश करने के साधन, (केवल) बाह्य व्रतरूपी वेश को तुम धारण मत करो। 19. जिस प्रकार दीपक घर के भीतर के कमरे में हवा की बाधा से रहित जलता है, उसी प्रकार रागरूपी हवा से रहित ध्यानरूपी दीपक भी जलता है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20. उत्थरइ जा ण जर ओ रोयग्गी जा ण डहइ देहउडिं। इंदियबलं न वियलइ ताव तुमं कुणहि अप्पहियं ।। 21. मोहमयगारवेहिं य मुक्का जे करुणभावसंजुत्ता। ते सव्वदुरियखंभं हणंति चारित्तखग्गेण ॥ 22. तिपयारो सो अप्पा परभिंतरबाहिरो हु हेऊण । तत्थ परो झाइज्जइ अंतोवायेण चयहि बहिरप्पा॥ 23. अक्खाणि बाहिरप्पा अंतरअप्पा हु अप्पसंकप्पो। कम्मकलंकविमुक्को परमप्पा भण्णए देवो॥ 24. आरुहवि अंतरप्पा बहिरप्पा छंडिऊण तिविहेण। झाइज्जइ परमप्पा उवइटुं जिणवरिंदेहिं॥ 25. बहिरत्थे फुरियमणो इंदियदारेण णियसरूवचुओ। णियदेहं अप्पाणं अज्झवसदि मूढदिट्ठी ओ॥ 26. जो देहे णिरवेक्खो णिबंदो णिम्ममो णिरारंभो। आदसहावे सुरओ जोई सो लहइ णिव्वाणं॥ 52 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20. हे मनुष्य! जब तक (तुझे) वृद्ध (अवस्था) नहीं पकड़ती है, जब तक रोगरूपी अग्नि देहरूपी कुटिया को नहीं जलाती है, (जब तक) इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं होती है, तब तक तू, आत्महित कर ले। 21. जो मूर्छा, अभिमान और लालसा से मुक्त (है), तथा करुणाभाव से संयुक्त (हैं), वे चारित्ररूपी तलवार से पूर्ण पापरूपी खम्भे को नष्ट कर देते हैं। 22. निश्चय ही (भिन्न-भिन्न) कारणों से वह आत्मा तीन प्रकार का हैपरम (आत्मा), आन्तरिक (आत्मा) और बहिर (आत्मा)। (तुम) बहिरात्मा को छोड़ो, (चूँकि) उस (परम) अवस्था में आन्तरिक (आत्मा) के साधन से परम (आत्मा) ध्याया जाता है। 23. (शरीररूपी) इन्द्रियाँ (ही) बहिरात्मा (है)। (शरीर से भिन्न) आत्मा का विचार ही अन्तरात्मा (है), (तथा) कर्म-कलंक (तनाव) से मुक्त (जीव) परम-आत्मा देव (है)। (इस प्रकार यह) कहा जाता है। 24. तीन प्रकार (मन-वचन-काय) से बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा को ग्रहण कर परम आत्मा ध्याया जाता है। (यह) अरहन्तों द्वारा कथित (है)। 25. इन्द्रियों के माध्यम से बाह्य पदार्थ में (जिसका) मन लगा हुआ है, (उसके द्वारा) (निश्चय ही) निज स्वरूप भूला हुआ (है)। (इस तरह से) खेद! मूढदृष्टि वाला (व्यक्ति) निज देह (और) आत्मा को (एक) विचारता है। 26. जो देह से उदासीन है, (जो) (मानसिक) द्वन्द्व-रहित (है), ममतारहित (तथा) जीव-हिंसारहित (है), (जो) आत्म-स्वभाव में पूरी तरह संलग्न है, वह योगी परम शान्ति प्राप्त करता है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27. जो इच्छइ णिस्सरिदुं, संसारमहण्णवाउ रुद्दाओ। कम्मिंधणाण डहणं सो झायइ अप्पयं सुद्धं ॥ 28. मयमायकोहरहिओ लोहेण विवज्जिओ य जो जीवो। णिम्मलसहावजुत्तो सो पावइ उत्तमं सोक्खं॥ 29. तवरहियं जं णाणं णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो। तम्हा णाणतवेणं संजुत्तो लहइ णिव्वाणं॥ 30. ताम ण णज्जइ अप्पा विसएसु णरो पवट्टए जाम। विसए विरत्तचित्तो जोई जाणेइ अप्पाणं॥ 31. जिंदाए य पसंसाए दुक्खे य सुहएसु य। सत्तूणं चेव बंधूणं चारित्तं समभावदो॥ 32. धम्मेण होइ लिंगं ण लिंगमत्तेण धम्मसंपत्ती। जाणेहि भावधम्मं किं ते लिंगेण कायव्वो॥ 33. सीलस्स य णाणस्स य णत्थि विरोहो बुधेहिं णिहिट्ठो। णवरि य सीलेण विणा विसया णाणं विणासंति ॥ 34. वायरणछंदवइसेसियववहारणायसत्थेसु । वेदेऊण सुदेसु य तेव सुयं उत्तमं सीलं॥ 54 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27. जो भीषण संसाररूपी महासागर से (बाहर) निकलने की चाह रखता है, वह कर्मरूपी ईंधन को जलानेवाली शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है। 28. लोभ से रहित तथा अहंकार, कपट (और) क्रोध से रहित जो जीव निर्मल स्वभाव से युक्त (होता है), वह उत्तम सुख को पाता है। 29. चूँकि तपरहित ज्ञान (तथा) ज्ञानरहित तप (दोनों ही) असफल (होते हैं), इसलिए (जो व्यक्ति), ज्ञान (और) तप से संयुक्त (होता है) (वह) ही परम शान्ति को पाता है। 30. जब तक मनुष्य विषयों में प्रवृत्ति करता है, तब तक (वह) आत्मा को नहीं जानता है, (जिस योगी का) चित्त विषय से उदासीन है, (वह) योगी (ही) आत्मा को जानता है। 31. निन्दा और प्रशंसा में, दुःखों और सुखों में तथा शत्रुओं और मित्रों में समभाव (रखने) से (ही) चारित्र (होता है)। 32. धर्म (समभाव) के कारण (ही) वेश होता है, वेश मात्र से धर्म (समभाव) की प्राप्ति नहीं (होती है), (इसलिए) भाव-धर्म को समझो। तुम्हारे लिए वेश से क्या किया जायेगा? 33. विद्वानों (जागृत व्यक्तियों) द्वारा शील (चरित्र) और ज्ञान में विरोध नहीं बतलाया गया है, किन्तु (यह कहा गया कि) केवल शील (चरित्र) के बिना विषय ज्ञान को नष्ट कर देते हैं। 34. व्याकरण, छन्द, वैशेषिक, न्याय-प्रशासन (तथा) न्याय-शास्त्रों को और आगमों को जानकर (भी) तुम्हारे लिए शील (चरित्र) ही उत्तम कहा गया (है)। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 55 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 6 कार्तिकेयानुप्रेक्षा 1. जम्मं मरणेण समं संपज्जइ जोव्वणं जरा-सहियं । लच्छी विणास-सहिया इय सव्वं भंगुरं मुणह॥ 2. अथिरं परियण-सयणं पुत्त-कलत्तं सुमित्त-लावण्णं। गिह-गोहणाइ सव्वं णव-घण-विदेण सारिच्छं । 3. सुरधणु-तडिव्व चवला इंदिय-विसया सुभिच्च-वग्गा य। दिट्ठ-पणट्ठा सव्वे तुरय-गया रहवरादी य॥ पंथे पहिय-जणाणं जह संजोओ हवेइ खणमित्तं । बंधु-जणाणं च तहा संजोओ अद्भुओ होइ॥ अइलालिओ वि देहो ण्हाण-सुयंधेहिँ विविह-भक्खेहिं। खणमित्तेण वि विहडइ जल-भरिओ आम-घडओ व्व॥ 6. ता भुंजिज्जउ लच्छी दिज्जउ दाणे दया-पहाणेण। जा जल-तरंग-चवला दो तिण्णि दिणाइ चिट्टेइ।। 56 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 6 कार्तिकेयानुप्रेक्षा जन्म मरण के साथ संलग्न है, यौवन बुढ़ापे के साथ (सम्बद्ध) है, लक्ष्मी विनाश सहित होती है, इस प्रकार सबको विनाशवान जानो। परिवार, सगे-सम्बन्धी, पुत्र, स्त्री, अच्छे मित्र, शरीर की सुन्दरता, घर, गायों का समूह वगैरह सभी नये मेघ-समूह के समान अस्थिर (हैं)। इन्द्रियों के विषय, अच्छे नौकरों का समूह तथा घोड़े, हाथी, उत्तम रथ, वगैरह सभी इन्द्रधनुष और बिजली की तरह चंचल (हैं), दिखाई दिये और नष्ट हुए। 4. जिस तरह मार्ग में पथिकजनों का संयोग क्षणभर के लिए होता है उसी तरह ही बन्धुजनों का संयोग अस्थिर होता है। 5. सुगन्धित द्रव्यों से स्नान द्वारा (तथा) अनेक प्रकार के भोजन द्वारा अत्यधिक स्नेहपूर्वक लालन-पालन किया गया शरीर भी जल से भरे हुए कच्चे घड़े की तरह क्षणमात्र में ही नष्ट हो जाता है। 6. वह लक्ष्मी जो जल तरंगों के समान चंचल है, (वह) दो-तीन दिन ही ठहरती है (अतः) (उचित रूप से) भोगी जानी चाहिए (और) उत्तम दया से दान में दी जानी चाहिए। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 57 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 58 जो पुण लच्छिं संचदि ण य भुंजदि णेय देदि पत्तेसु । सो अप्पाणं वंचदि मणुयत्तं णिफलं तस्स ॥ जो वड्ढमाण- लच्छिं अणवरयं देदि धम्म- कज्जेसु । सो पंडिएहिँ थुव्वदि तस्स वि सहला हवे लच्छी ॥ एवं जो जाणित्ता विहलिय- लोयाण धम्म- जुत्ताणं । णिरवेक्खो तं देदि हु तस्स हवे जीवियं सहलं ॥ जल - बुब्बुय - सारिच्छं धण- जोव्वण-जीवियं पि पेच्छंता । मण्णंति तो वि णिच्चं अइ-बलिओ मोह - माहप्पो ॥ सीहस्स कमे पडिदं सारंगं जह ण रक्खदे को वि। तह मिच्चुणा य गहिदं जीवं पि ण रक्खदे को वि॥ अइ-बलिओ वि उद्दो मरण- विहीणो ण दीसदे को वि। रक्खिज्जंतो वि सया रक्ख पयारेहिँ विविहेहिं ॥ - आउ - क्खएण मरणं आउं दाउं ण सक्कदे को वि । तम्हा देविंदो वि य मरणाउ ण रक्खदे को वि॥ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. जो लक्ष्मी का संचय करता है किन्तु (उसे) न भोगता है और न ही पात्रों में (दान) देता है, वह स्वयं को ठगता है, उसका मनुष्यत्व (मनुष्य होना) निरर्थक है। जो बढ़ती हुई लक्ष्मी को सर्वदा धर्म के कामों में देता है उसकी लक्ष्मी सफल होती है। पण्डितों के द्वारा भी उसकी प्रशंसा की जाती है। 9. इस प्रकार (लक्ष्मी को अनित्य) जानकर जो उसको धर्म से युक्त दुःखी व्यक्तियों के लिए बिना अपेक्षा देता है, निश्चय ही उसका जीवन सफल होता है। 10. धन, यौवन और जीवन को जल के बुलबुले के समान (अस्थिर) देखते हुए भी (लोग) (उन्हें) नित्य मानते हैं। इस कारण से मोह का प्रभाव बड़ा बलवान है। 11. जिस प्रकार शेर के पंजे में फंसे हुए हिरन को कोई भी नहीं बचा सकता है, उसी प्रकार मृत्यु के द्वारा पकड़े हुए जीव को भी, कोई भी नहीं बचा सकता है। 12. अत्यन्त बलशाली, भयानक (और) रक्षा के अनेक उपायों से सदा रक्षा किये जाते हए भी कोई भी (ऐसा) नहीं देखा जाता (जो) मृत्यु से विहीन हो (जिसका मरण न होता हो)। 13. आयु के क्षय से मरण (होता है), और आयु देने के लिए कोई भी समर्थ नहीं है। इसलिए कोई (व्यक्ति) (तथा) देवेन्द्र (देवों का राजा) भी मरण से नहीं बचा सकता है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. एक्कं चयदि सरीरं अण्णं गिण्हेदि णव-णवं जीवो। पुणु पुणु अण्णं अण्णं गिण्हदि मुंचेदि बहु-वारं ।। 15. सयलट्ठ-विसय-जोओ बहु-पुण्णस्स वि ण सव्वहा होदि। तं पुण्णं पि ण कस्स वि सव्वं जेणिच्छिदं लहदि । 16. सधणो वि होदि णिधणो धण-हीणो तह य ईसरो होदि। राया वि होदि भिच्चो भिच्चो वि य होदि णर-णाहो॥ 17. सारीरिय-दुक्खादो माणस-दुक्खं हवेइ अइ-पउरं । माणस-दुक्ख-जुदस्स हि विसया वि दुहावहा हुंति॥ 18. एवं सुट्ट असारे संसारे दुक्ख-सायरे घोरे। किं कत्थ वि अत्थि सुहं वियारमाणं सुणिच्छयदो॥ 19. इक्को जीवो जायदि एक्को गब्भम्हि गिण्हदे देहं । इक्को बाल-जुवाणो इक्को वुढो जरा-गहिओ॥ 20. इक्को रोई सोई इक्को तप्पेइ माणसे दुक्खे। इक्को मरदि वराओ णरय-दुहं सहदि इक्को वि॥ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. जीव एक शरीर को छोड़ता है अन्य (शरीर) को ग्रहण करता है। (इस प्रकार वह) पुन:-पुन: अनेक बार नये-नये अन्य-अन्य (शरीरों) को ग्रहण करता है छोड़ता है। 15. बहुत पुण्यशाली के भी सभी वस्तुओं व इन्द्रिय-विषयों का संयोग __ पूर्णतया नहीं होता है। किसी का भी (उस प्रकार का) पुण्य नहीं है जिसके द्वारा (व्यक्ति) सभी इच्छित (वस्तु समूह) प्राप्त करता है। 16. धनवान धनवान भी निर्धन हो जाता है और उसी तरह धनहीन धनवान हो जाता है। राजा भी सेवक हो जाता है और सेवक भी राजा हो जाता है। 17. शारीरिक दुःख से मानसिक दुःख बहुत बड़ा होता है। क्योंकि मान सिक दु:ख से युक्त (व्यक्ति) के लिए विषय भी दु:खदायक होते हैं। 18. इस प्रकार विचार करते हुए (व्यक्ति) को (ज्ञान होता है) (कि) (इस) अत्यन्त असार संसार में घोर दुःख के सागर में क्या निश्चय से कहीं भी सुख है? 19. जीव अकेला उत्पन्न होता है। अकेला गर्भ में देह को धारण करता है। अकेला (ही) बालक और जवान (होता है)। (और) अकेला (ही) निर्बलता से ग्रसित बूढ़ा (होता है)। 20. .. अकेला रोगी (होता है), (अकेला) शोकपूर्ण (होता है)। अकेला (ही) मानसिक दुःख में तपता है, अकेला (ही) मरता है (और) बेचारा अकेला (ही) नरक के दुःख को भी सहता है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21. 22. 23. 24. 25. 26. 27. 28. 62 सव्वायरेण जाणह एक्कं जीवं सरीरदो भिण्णं । जहि दु मुणिदे जीवे होदि असेसं खणे हेयं ॥ जदि ण य हवेदि जीवो ता को वेदेदि सुक्ख - दुक्खाणि । इंदिय-विसया सव्वे को वा जाणदि विसेसेण ॥ राओ हं भिच्चो हं सिट्ठी हं चेव दुब्बलो बलिओ । इदि एयत्ताविट्ठो दोन्हं भेयं ण बुज्झेदि ॥ विरला णिसुणहि तच्चं विरला जाणंति तच्चदो तच्चं । विरला भावहि तच्चं विरलाणं धारणा होदि ॥ तच्चं कहिज्जमाणं णिच्चल-भावेण गिण्हदे जो हि । तं चिय भावेदि सया सो वि य तच्चं वियाणेइ || मणुव - गईए वि तओ मणुव-गईए महव्वदं सयलं । मणुव-गदीए झाणं मणुव-गदीए वि णिव्वाणं ।। इय दुलहं मणुयत्तं लहिऊणं जे रमंति विसएसु । ते लहिय दिव्व-रयणं भूइ - णिमित्तं पजालंति ॥ भोयण - दाणं सोक्खं ओसह दाणेण जीवाण अभय-दाणं सुदुल्लहं सत्थ- दाणं च । सव्व - दाणेसु ॥ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21. पूर्ण सावधानीपूर्वक, शरीर से भिन्न एक जीव को जानो, क्योंकि निश्चय ही जीव के जाने हुए होने पर सभी (पर वस्तुएँ) क्षणभर में हेय होती हैं। 22. यदि जीव नहीं है तो सुख और दःखों को कौन जानता है? तथा विशेषरूप से सभी इन्द्रियों के विषयों को कौन जानता है? 23. मैं राजा (हूँ), मैं सेवक (हूँ), मैं नगर सेठ (हूँ), (मैं) निर्बल (हँ), (मैं) बलवान (हूँ)। इस प्रकार एक ही स्थान में प्रविष्ट दोनों के भेद (आत्मा व शरीर के) को (वह) नहीं जानता है। 24. (जगत में) विरले (ही) तत्त्व को सुनते हैं, विरले तत्त्वरूप से ही तत्त्व को जानते हैं, विरले तत्त्व का चिन्तन करते हैं और विरलों की तत्त्व में धारणा होती है। 25. जो (गुरुओं के द्वारा) कहे जाते हुए तत्त्व को निश्चल भावपूर्वक ग्रहण करता है और सदा उसको ही भाता है अर्थात् चिन्तन करता है वह ही तत्त्व को जानता है। 26. मनुष्यगति में ही तप (होता है)। मनुष्यगति में (ही) समस्त महाव्रत (होते हैं)। मनुष्यगति में (ही) ध्यान (होता है)। मनुष्यगति में ही मोक्ष (होता है)। 27. इस प्रकार दुर्लभ मनुष्यत्व को पाकर जो (पाँचों इन्द्रियों के) विषयों में रमते हैं वे दिव्यरत्न को पाकर (उसे) भस्म हेतु जलाते हैं। 28. औषधदान के साथ शास्त्रदान और भोजनदान (जीवों के लिए) सुख (उत्पन्न करता है)। जीवों के लिए अभयदान सब दानों में अत्यन्त दुर्लभ है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29. उत्तम-णाण-पहाणो उत्तम-तवयरण-करण-सीलो वि। अप्पाणं जो हीलदि मद्दव-रयणं भवे तस्स। 30. जो चिंतेइ ण वंकं ण कुणदि वंकं ण जंपदे वंकं। ण य गोवदि णिय-दोसं अज्जव-धम्मो हवे तस्स॥ 31. सम-संतोस-जलेणं जो धोवदि तिव्व-लोह-मल-पुंजं। भोयण-गिद्धि-विहीणो तस्स सउच्चं हवे विमलं ।। 32. जो धम्मिएसु भत्तो अणुचरणं कुणदि परम-सद्धाए। पिय-वयणं जंपंतो वच्छल्लं तस्स भव्वस्स ।। 33. पर-तत्ती-णिरवेक्खो दुट्ठ-वियप्पाण णासण-समत्थो। तच्च-विणिच्छय-हेदू सज्झाओ झाण-सिद्धियरो। 34. जो अप्पाणं जाणदि असुइ-सरीरादु तच्चदो भिण्णं। जाणग-रूव-सरूवं सो सत्थं जाणदे सव्वं ॥ 35. जो णवि जाणादि अप्पं णाण-सरूवं सरीरदो भिण्णं। सो णवि जाणदि सत्थं आगम-पाठं कुणंतो वि। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29. उत्तम ज्ञान में प्रधान व उत्तम तपस्या व चारित्र का पालन करनेवाला भी जो स्वयं की निन्दा करता है (अर्थात् जिसे यह मद नहीं है कि वह उत्कृष्ट ज्ञानी व तपस्वी है) उसके मार्दवरूपी रत्न होता है। 30. जो (व्यक्ति) कुटिल विचार नहीं करता, कुटिल (कार्य) नहीं करता और कुटिल (बात) नहीं बोलता तथा अपना दोष नहीं छिपाता, उसके आर्जव धर्म होता है। 31. जो समभाव और सन्तोष रूपी जल से प्रचण्ड लोभ रूपी मल के समूह को धोता है, भोजन की आसक्ति से विहीन (होता है) उसके निर्मल शौचधर्म होता है। 32. जो भक्त प्रिय वचन बोलता हुआ परमश्रद्धा से धार्मिकजनों में अनुकूल आचरण करता है, उस भव्य के वात्सल्य (गुण) (कहा गया है)। 33. स्वाध्याय पर की वार्ता से निरपेक्ष होता है, दुष्ट विकल्पों का नाश करने में समर्थ (होता है)। तत्त्व के निश्चय में कारण है और ध्यान की सिद्धि करने वाला है। 34. जो आत्मा को (इस) अपवित्र शरीर से, निश्चय से भिन्न ज्ञायकरूप स्वभाव को जानता है। वह सब शास्त्रों को जानता है। 35. जो ज्ञान स्वरूप आत्मा को शरीर से भिन्न नहीं जानता है, वह ___ आगम का पाठ करते हुए भी शास्त्र को नहीं जानता है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 65 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 7 दसरहपव्वज्जा 1. एव सुणिऊण राया, कम्मविवागं जणस्स सयलस्स। संसारगणभीओ, इच्छइ घेत्तूण पव्वज्जं। 2. सद्दाविया य सिग्धं, सामन्ता आगया समन्तिजणा। काऊण सिरपणाम, उवविट्ठा आसणवरेसु॥ सामिय! देहाऽऽणत्तिं, किं करणिज्जं? भडेहि संलवियं । भणियं य दसरहेणं, पव्वज्जं गिण्हिमो अज्जं॥ अह तं भणन्ति मन्ती, सामिय! किं अज्ज कारणं जायं। धणसयलजुवइवग्गं, जेण तुमं ववसिओ मोत्तुं?॥ 5. तो भणइ नरवरिन्दो, पच्चक्खं वो जयं निरवसेसं। सुक्कं व तणमसारं, डज्झइ मरणग्गिणा णिययं॥ पुस्तक में 'भाणिया' शब्द है। लेकिन व्याकरण के नियनमानुसार 'भणियं' उचित प्रतीत होता है। पाठ में 'धणियं' शब्द है। हमने यहाँ पउमचरियं भाग-1, पृष्ठ 250 पर बताए गए 'निययं' शब्द का प्रयोग किया है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 7 दशरथप्रव्रज्या 1. सब लोगों के ऐसे कर्मफल को सुनकर संसार भ्रमण से डरा हुआ राजा प्रव्रज्या लेने की इच्छा करता है। 2. शीघ्र ही सामन्त बुलाए गए। मंत्रीजनों के साथ (वे) आ गए। सिर से प्रणाम करके उत्तम आसनों पर बैठे। हे स्वामी! आज्ञा दें (कि) क्या किया जाना चाहिए? (ऐसा) सुभटों के द्वारा वार्तालाप किया गया। दशरथ के द्वारा कहा गया कि आज (हम) प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं (करेंगे)। 4. तब मंत्री उनको कहते हैं (कि) हे स्वामी! आज क्या कारण उत्पन्न हुआ है जिससे कि आप धन एवं समस्त स्त्री-समूह को छोड़ने के लिए (प्रव्रज्या के लिए) उद्यत हुए हो। 5. तब राजा कहता है कि हे मनुष्यों (तुम्हारे) समक्ष यह (स्पष्ट है कि) (जैसे) सूखा हुआ तिनका असार है (उसी प्रकार) सारा जगत (असार) है (और) मरणरूपी अग्नि से लगातार जलाया जाता है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 67 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवियाण जं सुगिज्झं, अग्गिज्झं अभवियाण जीवाणं। तियसाण पत्थणिज्जं, सिवगमणसुहावहं धम्मं॥ 7. तं अज्ज मुणिसयासे, धम्मं सुणिऊण जायसंवेगो। संसारभवसमुदं, इच्छामि अहं समुत्तरिउं॥ 8. अहिसिञ्चह मे पुत्तं, पढमं चिय रज्जपालणसमत्थं । पव्वज्जामि अविग्धं, जेणांहं अज्ज वीसत्थो॥ 9. सुणिऊण वयणमेयं, पव्वज्जानिच्छियं नरवरिन्दं। सुहडा-ऽमच्च-पुरोहिय, पडिया सोयण्णवे सहसा॥ 10. नाऊण निच्छियमई, दिक्खाभिमुहं नराहिवं एत्तो। अन्तेउरजुवइजणो, सव्वो रुविउं समाढत्तो॥ 11. दट्टण तारिसं चिय, पियरं भरहो खणेण पडिबुद्धो। चिन्तेइ नेहबन्धो, दुच्छेज्जो जीवलोगम्मि॥ 12. तायस्स किं व कीरइ, पव्वज्जाववसियस्स पुहईए?। पुत्तं ठवेइ रज्जे, जेणं चिय पालणट्ठाए। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. जो धर्म भव्यों के लिए ग्रहण करने योग्य (सुग्राह्य) है, अभव्य जीवों के लिए ग्रहण करने योग्य नहीं ( अग्राह्य) है देवों के लिए (जो) अभिलाषा किये जाने योग्य है ( वह) (धर्म) मोक्ष में जाने के लिए सुखजनक (मार्ग) है। आज मुनियों के पास धर्म को सुनकर वैराग्य उत्पन्न हुआ है। इसलिए मैं संसार में जन्मरूपी समुद्र को पार करने की (के लिए) इच्छा करता हूँ। (तुम) राज्य का पालन करने में समर्थ मेरे प्रथम पुत्र का ही अभिषेक करो जिससे विश्वस्त ( होकर) मैं आज निर्विघ्न संन्यास ग्रहण करता हूँ ( कर सकूँ) । प्रव्रज्या लेने के लिए दृढ़ निश्चयवाले राजा को (या) ( उसके ) ऐसे वचन को सुनकर सुभट, अमात्य और पुरोहित अचानक शोकरूपी समुद्र में गिरे (या पड़े) । इस कारण से दृढ़मति और दीक्षा की ओर अभिमुख राजा को जानकर अन्तःपुर की स्त्रियाँ व लोग सभी रोने के लिए उत्तेजित हुए । उस प्रकार ही पिता को देखकर भरत तत्काल जागृत हुआ (और) (उसने सोचा (कि) जीवलोक में स्नेह बन्धन मुश्किल से छेदा जाने वाला (होता है) । प्रव्रज्या के लिए प्रयत्नशील पिता के लिए पृथ्वी का क्या किया जाता है ( उद्देश्य है ) । इसीलिए ही ( उसके ) पालने के प्रयोजन से राज्य में (राजा) पुत्र को स्थापित करता है । प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 69 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 70 आसन्नेण किमेत्थं, इमेण खणभङ्गुरेण देहेणं । दूरट्ठिएसु अहियं, काऽवत्था बन्धवेसु भवे ? ॥ एक्कोऽत्थ एस जीवो, दुहपायवसंकुले भवारण्णे । भमइ च्चिय मोहन्धो, पुणरवि तत्थेव तत्थेव ॥ तो सव्वकलाकुसला, भरहं नाऊण तत्थ पडिबुद्धं । सोगसमुत्थयहियया, परिचिन्तइ केगई देवी ॥ नय मे पई न पुत्तो, दोण्णि वि दिक्खाहिलासिणो जाया । चिन्तेमि तं उवाय, जेण सुयं वो नियत्तेमि ।। तो सा विणओवगया, भणइ निवं केगई महादेवी । तं मे वरं पयच्छसु, जो भणिओ सुहडसामक्खं ॥ भणइ तओ नरवसभो, दिक्खं मोत्तूण जं पिए भणसि । तं अज्ज तुज्झ सुन्दरि ! सव्वं संपाडइस्सामि ॥ सुणिऊण वयणमेयं, रोवन्ती केगई भणइ कन्तं । दढनेहबन्धणं चिय, विरागखग्गेण छिन्नं ते ॥ एसा दुद्धरचरिया, उवइट्ठा जिणवरेहि सव्वेहिं । कह अज्ज तक्खणं चिय, उप्पन्ना संजमे बुद्धी ? | सुरवइसमेसु सामिय! निययं भोगेसु लालियं देहं । खर-फरुस-कक्कसयरे, कह अरिहसि परिसहे जेउं ? | प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. समीपवर्ती होने के कारण ( भी ) इस क्षणभंगुर देह से यहाँ क्या (प्रयोजन ) ( है ) ( यदि ऐसा है तो) बाँधवों के दूरस्थित होने पर (तो) ( इससे ) अधिक क्या अवस्था होगी (होती है ) ? ( अर्थात् बाँधवों से भी क्या प्रयोजन) फिर यहाँ अकेला ही यह मोहान्ध जीव दुःख एवं पाप से भरे हुए भवरूपी जंगल में जहाँ-तहाँ घूमता है। भरत को इस प्रकार जागा हुआ जानकर सब कलाओं में कुशल, (व) शोक से आच्छादित हृदय से देवी कैकेयी सोचने लगी। न ही मेरे पति और न ही पुत्र ( है ) । दोनों ही दीक्षा के अभिलाषी हुए हैं। ( इस कारण ) उस उपाय को सोचती हूँ जिससे पुत्र को तो लौटा लूँ। तब विनयसहित वह महादेवी कैकेयी राजा को कहती है मुझे वह वर दो जो (वर) सुभटों के समक्ष कहा गया था । तब राजा कहता है है प्रिये ! हे सुन्दरी ! दीक्षा को छोड़कर जो कहोगी वह आज तुम्हारे लिए सब दूँगा । इस वचन को सुनकर रोती हुई कैकेयी पति को कहती है, आपके द्वारा वैराग्य रूपी तलवार से स्नेह का दृढ़ बन्धन निश्चय ही काट डाला गया है। सभी जिनवरों द्वारा इस दुर्धर चर्या का उपदेश दिया गया। आज तत्काल ही संयम में बुद्धि कैसे उत्पन्न हुई? हे स्वामी! सुरपति के समान भोगों में आपका शरीर पाला हुआ है, (आप) अत्यन्त, तीव्र, कठोर और कर्कश परीषहों को जीतने के लिए कैसे समर्थ होओगे ? प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 71 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22. 23. 24. 25. 26. 27. 28. 29. 72 चलणगुलीऍ भूमिं विलिहन्ती केगई समुल्लवइ । पुत्तस्स मज्झ सामिय! देहि समत्थं इमं रज्जं ॥ तो दसरहो पत्तो, सुन्दरि ! पुत्तस्स तुज्झ रज्जं ते । दिन्नं मए समत्थं, गेणहसु मा णे चिरावेहि ॥ तो दसरहेण सिग्घं, पउमो सोमित्तिणा समं पुत्तो । वाहरिओ वसहगई, समागओ कयपणामो य ॥ वच्छ ! महासंगामे, सारत्थं केगईऍ मज्झ कयं । तुट्ठेण वरो दिन्नो, सव्वनरिन्दाण पच्चक्खं ॥ " तो गईऍ रज्जं पुत्तस्स विमग्गियं इमं सयलं । किं वा करेमि वच्छय ! पडिओ चिन्तासमुद्दे हं ॥ भरहो गिves दिक्खं, तस्स विओगम्मि केगई मरइ । अहमवि य निच्छएणं, होहामि जए अलियवाई ॥ तो भणइ पउमनाहो, ताय! तुमं रक्ख अत्तणो वयणं । य भोगकारणं मे, तुज्झ अकित्तीऍ लोगम्मि ॥ न जाएण सुएण पहू! चिन्तेयव्वं हियं निययकालं । जेण पिया न य सोगं, गच्छइ एगं पि य मुहुत्तं ॥ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22. पैरों की अँगुली से भूमि को खोदती हुई कैकेयी कहती है, हे स्वामी! ____ मेरे पुत्र को यह समस्त राज्य दे दो।। 23. तब दशरथ ने कहा हे सुन्दरी! मेरे द्वारा तुम्हारे पुत्र के लिए समस्त राज्य दे दिया गया है। तुम (इसे) ग्रहण करो, देर मत करो। 24. तब दशरथ के द्वारा लक्ष्मण के साथ राम शीघ्र (बुलाए गए)। वृषभ के समान गतिवाले (राम) बाहर से आए और (उनके द्वारा) प्रणाम किया गया। 25. हे वत्स! महासंग्राम में कैकेयी के द्वारा मेरा सारथिपन किया गया। तुष्ट होने के कारण (मेरे द्वारा) सभी राजाओं के समक्ष (एक) वर दिया गया। 26. अब कैकेयी के द्वारा पुत्र के लिए यह सारा राज्य माँगा गया है। हे वत्स! (मैं) क्या करूँ (करता हूँ) मैं (तो) चिन्तारूपी समुद्र में डूब गया हूँ। 27. भरत दीक्षा ग्रहण कर रहा है। उसके वियोग में कैकेयी मर रही है और निश्चयपूर्वक ही मैं भी संसार में मिथ्याभाषी होऊँगा। 28. इस पर राम कहते हैं हे तात! आप स्वयं का वचन रखें। लोक में आपकी अकीर्ति (हो) (तो) मेरे लिए कभी भी सुख का कारण नहीं है। 29. हे प्रभु! प्रिय पुत्र के द्वारा हृदय में सदैव (ऐसा) सोचा जाना चाहिए जिससे पिता एक मुहर्त को भी कभी शोक प्राप्त न करें। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 73 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30. 31. 32. 33. 34. 35. 37. गन्तूण निययजणणी, आउच्छइ राहवो कयपणामो । अम्मो ! वच्चामि अहं, दूरपवासं खमेज्जासु ॥ 74 सुणिऊण वयणमेयं, सहसा तो मुच्छिऊण पडिबुद्धा । भणइ सुयं रोवन्ती, पुत्तय! किं मे परिच्चयसि ? ॥ कह कह वि अणाहाए, लद्धो सि मणोरहेहि बहुएहिं । होहिसि पुत्ताऽऽलम्बो, पारोहो चेव साहाए ॥ भरहस्स मही दिन्ना, ताएणं केगईवरनिमित्तं । सन्तेण मए नेच्छइ, एस कुमारो महिं भोत्तुं ॥ दिक्खाभिहो राया, पुत्तय! दूरं तुमं पि वच्चिहिसि । पइ - पुत्तविरहिया इह, कं सरणमहं पवज्जामि ? ।। 36. जणणीऍ सिरपणामं, काऊणं सेसमाइवग्गस्स । पुणरवि य नरवरिन्दं, पणमइ रामो गमणसज्जो ॥ विञ्झगिरिमत्थए वा, मलए वा सायरस्स वाऽऽसन्ने । काऊण पइट्ठाणं, तुज्झ फुडं आगमिस्सं हं ॥ आपुच्छिया य सव्वे, पुरोहिया - ऽमच्च - बन्धवा सुहडा । रह-गय- तुरङ्गमा वि य, पलोइया निद्धदिट्ठीए ॥ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30. जाकर (राम के द्वारा) अपनी माता प्रणाम की गई। (और) राम ने आज्ञा ली। हे माता! मैं दूर प्रवास को जाता हूँ। (आप मुझे) क्षमा करें। अपना माता प्रणाम की गई। (और) राम ने आज्ञा 31. ऐसे वचन को सुनकर (माता) उस समय अचानक मूर्च्छित होकर जागी। पुत्र को रोती हुई कहती है। हे पुत्र! क्या (तुम) मेरा परित्याग करते हो? 32. बहुत से मनोरथों के द्वारा (तुम) किसी तरह (मेरे द्वारा) प्राप्त किये गये हो। हे पुत्र! (तुम) (मुझ) शरणरहित के लिए आलम्बन होओगे (जैसे) शाखा के लिए बीज ही (आलम्बन) (होता है)। 33. कैकेयी के वर के कारण पिता के द्वारा भरत को पृथ्वी दी गई (और) यह कुमार मेरे होने के कारण पृथ्वी को भोगने के लिए (भोगने की) इच्छा नहीं करता है। 34. हे पुत्र! राजा दीक्षा के अभिमुख हैं, तुम भी दूर जाओगे। पति और पुत्र से विरहित मैं (अब) यहाँ किसकी शरण में जाऊँगी। 35. (राम ने कहा) विंध्याचल के शिखर पर, मलय पर्वत पर तथा सागर के समीप स्थिति करके मैं निश्चय ही तुम्हारे लिए आऊँगा। 36. राम (अपनी) माता व शेष मातृवर्ग को सिर से प्रणाम करके जाने के लिए तैयार है। तथा पुनः राजा को प्रणाम करता है। 37. पुरोहित, अमात्य, बन्धुजन तथा सुभट पूछे गए और रथ, हाथी एवं घोड़े भी स्निग्ध दृष्टि से देखे गए। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 75 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38. चाउव्वण्णं च जणं, आपुच्छेऊण निग्गओ रामो। वइदेही वि य ससुरं, पणमइ परमेण विणएणं॥ 39. सव्वाण सासुयाणं, काऊणं चलणवन्दणं सीया। सहियायणं च निययं, आपुच्छिय निग्गया एत्तो॥ गन्तूण समाढत्तं, रामं दट्टण लक्खणो रुट्ठो। ताएण अयसबहुलं, कह एवं पत्थियं कज्जं? 41. एत्थ नरिन्दाण जए, परिवाडीआगयं हवइ रज्जं। विवरीयं चिय रइयं, ताएण अदीहपेहीणं । 42. रामस्स को गुणाणं, अन्तं पावेइ धीरगरुयस्स?। लोभेण जस्स रहियं, चित्तं चिय मुणिवरस्सेव॥ 43. 43. अहवाम रज्जवरथा, स अहवा रज्जधुरधरं, सव्वं फेडेमि अज्ज भरहस्स। ठावेमि कुलाणीए, पुहइवई आसणे रामं॥ 44. एएण किं व मज्झं, हवइ वियारेण ववसिएणऽज्जं?। नवरं पुण तच्चत्थं, ताओ जेट्टो य जाणन्ति ॥ 45. कोवं च उवसमेउं, पणमिय पियरं परेण विणएणं। आपुच्छइ दढचित्तो, सोमित्ती अत्तणो जणणी॥ 46. संभासिऊण भिच्चे, वज्जावत्तं च धणुवरं घेत्तुं। घणपीइसंपउत्तो, पउमसयासं समल्लीणो॥ 76 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38. और चतवर्ण के लोगों की आज्ञा लेकर राम निकले तथा सीता ने भी ससुर को अत्यन्त आदर के साथ प्रणाम किया (करती है)। 39. सभी सासुओं के चरणों में वन्दन करके तथा अपनी सखियों एवं (अन्य) जनों की अनुमति लेकर सीता यहाँ से निकली। 40. जाने के लिए उद्यत राम को देखकर लक्ष्मण रुष्ट हुआ (और सोचा कि) पिता के द्वारा बहुत अपयश वाला ऐसा कार्य क्यों चाहा गया? 41. (यहाँ) इस जगत में राजाओं के लिए राज्य परिपाटी से उत्पन्न होता है, (किन्तु) अदूरदर्शी पिता के द्वारा (यह कार्य) विपरीत ही रचा गया है। 42. जिसका चित्त ही लोभ से रहित है मुनिवर के समान धैर्यशाली महान राम के गुणों के अन्त को कौन पाता है। 43. अथवा राज्य के भार को धारण करने वाले पृथ्वीपति राम को कुलपरम्परा से प्राप्त आसन पर बैठाता हूँ। (और) आज भरत का सब कुछ नाश करता हूँ। 44. अथवा आज मेरे ऐसे गम्भीर विचार (करने) से क्या होता है (होगा)? फिर सत्य को (तो) सिर्फ पिता और बड़े भाई ही जानते हैं। 45. क्रोध को शान्त करके तथा अपेक्षाकृत अधिक विनयसहित पिता को प्रणाम करके दृढ़चित्त लक्ष्मण अपनी माता को पूछता है। 46. भृत्यों के साथ बातचीत करके और वज्रावर्त धनुष को लेकर अत्यन्त प्रेमयुक्त व लीन राम के पास (गया)। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 77 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47. पियरेण बन्धवेहि य, सामन्तसएसु परिमिया सन्ता। रायभवणाउ एत्तो, विणिग्गया सुरकुमार व्व॥ 48. सुयसोगतावियाओ, धरणियलोसित्तअंसुनिवहाओ। कह कह वि पणमिऊणं, नियत्तियाओ य जणणीओ।। 49. काऊण सिरपणामं, नियत्तिओ दसरहो य रामेणं । सहवड्डिया य बन्धू, कलुणपलावं च कुणमाणा॥ 50. जंपन्ति एक्कमेक्कं, एस पुरी जइ वि जणवयाइण्णा। जाया रामविओए, दीसइ विझाडवी चेव॥ 51. लोगो वि उस्सुयमणो, जंपइ धन्ना इमा जणयधूया। जा वच्चइ परदेसं, रामेण समं महामहिला। 52. नयणजलसित्तगत्तं, पेच्छय जणणिं इमं पमोत्तूणं । चलिओ रामेण सम, एसो च्चिय लक्खणकुमारो॥ 53. तेसु कुमारेसु समं, सामन्तजणेण वच्चमाणेणं। सुन्ना साएयपुरी, जाया छणवज्जिया तइया॥ 54. न नियत्तइ नयरजणो, धाडिज्जन्तो वि दण्डपुरिसेहिं। ताव य दिवसवसाणे, सूरो अत्थं समल्लीणो। 55. नयरीएँ मज्झयारे, दिलु चिय जिणहरं मणभिरामं। हरिसियरोमञ्चइया, तत्थ पविट्ठा परमतुट्ठा। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47. पिता, बन्धुजन तथा सैंकड़ों सामन्तों से इस प्रकार घिरे हुए रहे तथा (वे) राजभवन से देवकुमार की भाँति बाहर निकले। 48. पुत्र के शोक से तपायी हुई तथा (जिनके) आँसुओं के समूह से जमीन भिगोयी हुई है (ऐसी) माताएँ प्रणाम करके किसी तरह लौटायी गई। 49. सिर से प्रणाम करके दशरथ तथा करुण रुदन करते हुए साथ में बढ़े हुए बन्धु (समूह) राम के द्वारा (वापस) लौटाया गया। 50. प्रत्येक (लोग) बात करते हैं (कि) यद्यपि यह नगरी जनपद से परिपूर्ण थी (फिर भी) राम के वियोग में विंध्याटवी की भाँति ही देखी जाती है। 51. शोकान्वित मनवाले लोग भी कहते हैं (कि) यह महान नारी सीता धन्य है जो राम के साथ परदेस जा रही है। ___ और देखो, यह लक्ष्मण कुमार भी आँसुओं से भीगे हुए शरीरवाली इस माता को छोड़कर राम के साथ चल दिया। 53. उस समय उन कुमारों के साथ जाते हुए सामन्तजनों के कारण साकेतपुरी शून्य (तथा) उत्सवरहित हो गई। 54. दिन का अन्त होने पर सूर्य अस्त हुआ तब तक भी (उनको जाते हुए देखने में) लीन नागरिक सेनापति द्वारा बाहर निकाले जाने पर भी (वापस) नहीं लौटते हैं। 55. (उनके द्वारा) नगरी के मध्य में ही मन के लिए रुचिकर जिनमन्दिर देखा गया। हर्ष से पुलकित व अत्यन्त प्रसन्न (उन्होंने) उसमें प्रवेश किया। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 79 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 8 रामनिग्गमण-भरहरज्जविहाणं 1. अह तत्थ जिणाययणे, निदं गमिऊण अवरत्तम्मि। लोगे सुत्तपसुत्ते, नीसंचारे विगयसद्दे॥ 2. घेत्तुं धणुवररयणं, सीयासहिया जिणं नमंसित्ता। सणियं विणिग्गया ते, दो चेव जणं पलोयन्ता॥ 3. एयं चिय सुणमाणा, पेच्छन्ता जणवयस्स विणिओगं। अह निग्गया पुरीओ, सणियं ते गूढदारेणं॥ अवरदिसं वच्चन्ता, दिट्ठा सुहडेहि मग्गमाणेहिं। गन्तूण पणमिया ते, भावेण ससेन्नसहिएहिं ।। सीहा सहावमन्थरगईएँ सणियं तु तत्थ नरवसहा। गाऊयमेत्तठाणं, वच्चन्ति सुहं बलसमग्गा॥ गामेसु पट्टणेसु य, पूइज्जन्ता जणेण बहुएणं । पेच्छन्ति वच्चमाणा, खेड-मडम्बाऽऽगरं वसुहं। 80 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 8 राम का निर्गमन-भरत का राज्यक्रम (इसके बाद) उस जिन विश्राम स्थल में नींद भोगकर अर्द्धरात्रि में लोगों के गहरी निद्रा में सोये हुए होने पर (लोगों के) संचाररहित और शब्दरहित होने पर। 2. श्रेष्ठ धनुषरूपी रत्न को लेकर (तथा) जिन (भगवान) को नमन करके सीता के साथ वे दोनों ही (राम और लक्ष्मण) (उन) लोगों को देखते हुए धीरे से निकल गये। 3. इस प्रकार जनसमूह के कार्य को देखते हुए सुनते हुए, वे गुप्तद्वार से (होकर) धीरे से नगर से ही (बाहर) निकले। इस प्रक अपनी सेनासहित खोजते हुए सुभटों के द्वारा पश्चिम दिशा में जाते हुए (वे) देख लिए गये (वहाँ) जाकर वे भावपूर्वक प्रणाम किए गए। तब स्वभाव से मन्थर गति से युक्त सिंह राजकुमार सेनासहित सुखपूर्वक मात्र दो कोस स्थान को जाते हैं। 6. गाँवों और नगरों में बहुत से लोगों के द्वारा पूजे जाते हुए (वे) चलते हुए खेट (नदी और पर्वतों से वेष्टित नगर), मडम्ब (ग्राम विशेष जिसके एक योजन तक कोई गाँव नहीं हो) और आकर (सुगन्धित काष्ठ विशेष से युक्त) पृथ्वी को देखते हैं। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 81 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. अह ते कमेण पत्ता, हरि-गय-रुरु-चमर-सरहसद्दालं। घणपायवसंछन्नं, अडविं चिय पारियत्तस्स ॥ 8. पेच्छन्ति तत्थ भीमा, बहुगाहसमाउला जलसमिद्धा। गम्भीरा नाम नदी, कल्लोलुच्छलियसंघाया। 9. तो राघवेण भणिया, सुहडा सव्वे वि साहणसमग्गा। तुम्हे नियत्तियव्वं, एयं रणं महाभीमं॥ 10. ताएण भरहसामी, ठविओ रज्जम्मि सयलपुहईए। गच्छामि दाहिणपहं, अवस्स तुब्भे नियत्तेह॥ 11. अह ते भणन्ति सुहडा, सामि! तुमे विरहियाण किं अम्हं। रज्जेण साहणेण य, विविहेण य देहसोक्खणं?॥ 12. सीह-ऽच्छभल्ल-चित्तय-घणपायव-गिरिवराउले रणे। समयं तुमे वसामो, कुणसु दयं असरणाणऽम्हं॥ 13. आउच्छिऊण सुहडे, सीयं भुयावगूहियं काउं। रामो उत्तरइ नइं, गम्भीरं लक्खणसमग्गो। 14 रामं सलक्खणं ते, परतीरावट्ठियं पलोएउं । हाहारवं करेन्ता, सव्वे वि भडा पडिनियत्ता ।। 82 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. 8. 9. 10. 11. 12. और वे क्रम से (विचरण करते हुए) सिंह, गज, रुरु (मृगविशेष), चमरीमृग एवं शरभ से शब्दायमान (तथा) सघन वृक्षों से आच्छन्न ही पारियात्र (देश विशेष) के जंगल में पहुँचे। वहाँ (वे) बहुत (से) भयंकर मगरमच्छों से व्याप्त जल से समृद्धगम्भीरा नामक नदी को देखते हैं (जिसमें ) तरंगों का समूह उठा हुआ (है)। तब राम के द्वारा सैन्य से युक्त सब ही सुभट कहे गये (कि), यह जंगल अत्यन्त भयंकर ( है ) ( इसीलिए) तुम्हारे द्वारा लौट जाना चाहिए । पिता के द्वारा राज्य में भरत सकल पृथ्वी के स्वामी निश्चित किए गए हैं। (मैं) दक्षिण पथ को जाता हूँ। तुम सब निश्चयपूर्वक लौट जाओ । ( तब ) वे सुभट कहते हैं- हे स्वामी! तुमको परित्याग करके राज्य, सैन्य और विविध देह सुख से भी क्या (प्रयोजन है ) ? सिंह, रीछ, भालू, चीते और सघन वृक्षों एवं पर्वतों से व्याप्त जंगल में (हम) आपके साथ रहेंगे ( रहते हैं ) । हम अशरणों के लिए (आप) दया करें। 13. सुभटों की अनुज्ञा लेकर (और) हाथों से अलिंगित की हुई सीता को पकड़कर राम ने लक्ष्मण के साथ गम्भीर नदी पार की ( करते हैं) । 14. दूरवर्ती किनारे पर स्थित लक्ष्मण सहित राम को देखकर वे सब ही सुभट विलाप करते हुए वापस लौटे। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 83 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. अन्ने पुण गिहधम्मं, घेत्तूण नराहिवा विसयहुत्ता। पत्ता साएयपुरी, भरहस्स फुडं निवेएन्ति। 16. सीया-लक्खणसहिओ, न नियत्तो राघवो गओ रण्णं। सोऊण वयणमेयं, भरहो अइदुक्खिओ जाओ। 17. पुत्तेसु पर विएसं, गएसु अवराइया य सोमित्ती। भत्तारे पव्वइए, सोयसमुद्दम्मि पडियाओ। 18. सुयसोगदुक्खियाओ, ताओ दट्ठण केगई देवी। तो भणइ निययपुत्तं, वयणमिणं मे निसामेहि॥ 19. निक्कण्टयमणुकूलं, पुत्त! तुमे पावियं महारज्ज। पउमेण लक्खणेण य, रहियं न य सोहए एयं॥ 20. ताणं चिय जणणीओ, पुत्तविओगम्मि जायदुक्खाओ। काहिन्ति मा हु कालं, आणेहि लहुं वरकुमारे। 21. जणणीऍ वयणमेयं, सुणिऊण तुरंगमं समारूढो। तुरन्तो च्चिय भरहो, ताणं अणुमग्गओ लग्गो॥ 22. इय दिट्ठा वि य समयं, महिलाए ते कुमारवरसीहा। पुच्छन्तो पहियजणं, वच्चइ भरहो पवणवेगो॥ 23. अह ते नईएँ तीरे, वीसममाणा महावणे भीमे। सीयाएँ समं पेच्छइ, भरहो पासत्थवरधणुया॥ 84 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. (दूसरे) अन्य विषयाभिमुख राजा भी गृहधर्म को ग्रहणकर साकेतपुरी पहुँचे। (और) भरत को स्पष्ट कहते हैं (कि) 16. सीता व लक्ष्मण सहित राम नहीं लौटे (और) वन में चले गये। यह वचन सुनकर भरत अत्यन्त दु:खी हुआ। 17. पुत्रों के दूसरे देश गये हुए होने पर (तथा) पति के प्रव्रजित होने पर अपराजिता और सुमित्रा शोक समुद्र में पड़ गई (डूब गई)। 18. तब पुत्र के शोक में उनको दु:खी देखकर देवी कैकेयी अपने पुत्र को कहती है, मेरा यह वचन सुन। 19. हे पुत्र! तुम्हारे द्वारा निष्कन्टक (तथा) अनुकूल महाराज्य पाया गया है (किन्तु) राम और लक्ष्मण के बिना यह नहीं शोभता है। 20. पुत्र के वियोग में दुःखी हुई उनकी माताएँ (भविष्य में) काल (प्राप्त) न कर लें (अतः) (तुम) शीघ्र ही (उन) कुमारवरों को ले आओ। 21. माता का यह वचन सुनकर घोड़े पर सवार भरत शीघ्रता करता हुआ उनके पीछे-पीछे लग गया (चला)। 22. इस प्रकार पथिकजनों को पूछता हुआ पवन के (समान) वेगवाला भरत चलता जाता है (चला) और सिंह के जैसे वे कुमारवर महिला के साथ देखे गये हैं। 23. भयंकर महावन में नदी के किनारे पर सीता के साथ विश्राम करते हुए तथा पास में उत्तम धनुष रखे हुए उनको निश्चय ही भरत देखता है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 85 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24. बहुयदिवसेसु देसो, जो वोलीणो कुमारसीहेहिं। सो भरहेण पवन्नो, दियहेहिं छहि अयत्तेणं ।। सो चक्खुगोयराओ, तुरयं मोत्तूण केगईपुत्तो। चलणेसु पउमणाहं, पणमिय मुच्छं समणुपत्तो।। पडिबोहिओ य भरहो, रामेणालिङ्गिओ सिणेहेणं। सीयाएँ लक्खणेण य, बाढं संभासिओ विहिणा॥ 27. भरहो नमियसरीरो, काऊण सिरञ्जलिं भणइ राम। रज्जं करेहि सुपुरिस! सयलं आणागुणविसालं ।। 28. अहयं धरेमि छत्तं, चामरधारो य हवइ सत्तुंजो। लच्छीहरो य मन्ती, तुज्झऽन्नं सुविहियं किं वा?॥ 29. जाव इमो आलावो, वट्टइ तावं रहेण तूरन्ती। तं चेव सुमद्देसं, संपत्ता के गई देवी॥ 30. ओयरिय रहवराओ, पउमं आलिङ्गिऊण रोवन्ती। संभासेइ कमेणं, सीयासहियं च सोमित्तिं ॥ 31. तो केगई पवुत्ता, पुत्त! विणीयापुरिम्मि वच्चामो। रज्जं करेहि निययं, भरहो वि य सिक्खणीओ ते॥ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24. कुमार सिंहों के द्वारा जो देश बहुत दिनों में पार किया (था) वह भरत के द्वारा आसानी से छ: दिनों में पाया गया (पार किया गया)। 25. चक्षु से प्रत्यक्ष होने पर वह कैकेयी पुत्र घोड़े को छोड़कर राम को चरणों में प्रणाम करके मूर्छा को सम्प्राप्त हुआ। 26. बोध दिया गया भरत राम के द्वारा स्नेहपूर्वक आलिंगन किया गया (तथा) सीता और लक्ष्मण के द्वारा क्रम से अत्यन्त (खूब सारी) बातचीत की गई। 27. झुके हुए शरीरवाला भरत सिर पर अंजलि करके आज्ञा गुण से समृद्ध राम को कहता है- हे सुपुरुष! (आप) सकल राज्य को (पालन) करें। 28. मैं छत्र धारण करूँगा (करता हूँ) और शत्रुघ्न चामरधर (चंवर करने वाला) होगा (होता है) लक्ष्मण मंत्री (होगा)। आपके लिए अन्य आचरणीय (चीज) क्या है? 29. जबकि ऐसी बातचीत हो रही थी (होती है) उसी समय रथ से शीघ्रता करती हुई समान उद्देश्य को प्राप्त हुई कैकेयी देवी (आ पहुँची)। 30. रथ से नीचे उतरकर रोती हुई सीतासहित राम को और लक्ष्मण को आलिंगन कर क्रम से कहती है। 31. तब कैकेयी ने कहा- हे पुत्र! (हम) अयोध्या नगरी चलते हैं। (तुम) अपना राज्य करो और तुम्हारे द्वारा भरत भी सिखाया जाना चाहिए (शिक्षा दी जानी चाहिए)। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32. तो भणइ पउमणाहो, अम्मो! किं खत्तिया अलियवाई। होन्ति महाकुलजाया? तम्हा भरहो कुणउ रज्ज। 33. तत्थेव काणणवणे, भरहं ठवेइ रज्जे, पच्चक्खं सव्वनरवरिन्दाणं । रामो सोमित्तिणा सहिओ॥ 34. नमिऊण केगईए, भुयासु उवगूहिउं भरहसामि। अह ते सीयासहिया, संभासिय सव्वसामन्ते ॥ दक्खिणदेसाभिमुहा, चलिया भरहो वि निययपुरहुत्तो। पत्तो करेइ रज्जं, इन्दो जह देवनयरीए॥ 35. 88 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32. तब राम कहते हैं- हे माता! क्या बड़े कुल में उत्पन्न हुए क्षत्रिय मिथ्याभाषी होते हैं? इसलिए भरत राज्य करे। 33. वहाँ ही (उसी) वन में सब राजाओं के समक्ष लक्ष्मण के साथ राम ने भरत को राज्य पर बिठाया। 34-35.कैकेयी को नमस्कार करके भरत राजा को भुजाओं में आलिंगन करके (तथा) सब सामन्तों से बातचीत करके सीता सहित वे दक्षिण देश के सम्मुख चल पड़े। भरत भी अपने राज्य के सम्मुख पहुँच गया (वहाँ पहुँचकर) देवनगरी में इन्द्र के जैसे राज्य करने लगा (करता है)। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 89 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 9 अमंगलियपुरिसस्स कहा 1. एगंमि नयरे एगो अमंगलिओ मुद्धो पुरिसो आसि। सो एरिसो अत्थि, जो को वि पभायंमि तस्स मुहं पासेइ, सो भोयणं पि न लहेज्जा। पउरा वि पच्चूसे कया वि तस्स मुहं न पिक्खंति। नरवइणा वि अमंगलियपुरिसस्स वट्टा सुणिआ। परिक्खत्थं नरिंदेण एगया पभायकाले सो आहूओ, तस्स मुहं दिटुं जया राया भोयणत्थमुवविसइ, कवलं च मुहे पक्खिवइ, तया अहिलंमि नयरे अकम्हा परचक्कभएण हलबोलो जाओ। तया नरवइ वि भोयणं चिच्चा सहसा उत्थाय ससेण्णो नयराओ बाहिं निग्गओ। 2. भयकारणमदट्ठण पुणो पच्छा आगओ। समाणो नरिंदो चिंतेइ'अस्स अमंगलियस्स सरूवं मए पच्चक्खं दिटुं तओ एसो हंतव्वो' एवं चिंतिऊण अंमगलियं बोल्लाविऊण वहत्थं चंडालस्स अप्पेइ। जया एसो रुयंतो, सकम्मं निंदतो चंडालेण सह गच्छं तो अत्थि, तया एगो कारुणिओ बुद्धिनिहाणो वहाई नेइज्जंतमाणं तं दट्टणं कारणं णच्चा तस्स रक्खणाय कण्णे किंपि कहिऊण उवायं दंसेइ। हरिसंतो जया वहत्थंभे ठविओ, तया चंडालो तं पुच्छइ- 'जीवणं विणा तव कावि इच्छा सिया, तया मग्गियव्वं ।' सो करेइ- 'मज्झ नरिंदमुहदसणेच्छा अत्थि' तया सो नरिंदसमीवमाणीओ। नरिंदो तं पुच्छ इ- 'किमेत्थ आगमणपओयणं?' प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 9 अमांगलिक पुरुष की कथा 1. एक नगर में एक अमांगलिक मूर्ख पुरुष था। वह ऐसा था जो कोई भी प्रभात में उसके मुँह को देखता वह भोजन भी नहीं पाता (उसे भोजन भी नहीं मिलता)। नगर के निवासी भी प्रात:काल में कभी भी उसके मुँह को नहीं देखते थे। राजा के द्वारा भी अमांगलिक-पुरुष की बात सुनी गई। परीक्षा के लिए राजा के द्वारा एक बार प्रभातकाल में वह बुलाया गया, उसका मुख देखा गया। ज्योंहि राजा भोजन के लिए बैठा और मुँह में (रोटी का) ग्रास रखा, त्योहिं समस्त नगर में अकस्मात् शत्रु के द्वारा आक्रमण के भय से शोरगुल हुआ। तब राजा भी भोजन को छोड़कर (और) शीघ्र उठकर सेनासहित नगर से बाहर निकला। 2. फिर भय के कारण को न देखकर बाद में आ गया। अहंकारी राजा ने सोचा- इस अमांगलिक का स्वरूप मेरे द्वारा प्रत्यक्ष देखा गया, इसलिए यह मारा जाना चाहिए। इस प्रकार विचारकर अमांगलिक को बुलवाकर वध के लिए चाण्डाल को सौंप दिया। जब यह रोता हुआ स्व-कर्म की (को) निन्दा करता हुआ चाण्डाल के साथ जा रहा था, तब एक दयावान, बुद्धिमान ने वध के लिए ले जाए जाते हुए उसको देखकर, कारण को जानकर उसकी रक्षा के लिए कान में कुछ कहकर उपाय दिखलाया। (इसके फलस्वरूप वह) प्रसन्न होते हुए (चला)। जब (वह) वध के खम्भे पर खड़ा किया गया तब चाण्डाल ने उसको पूछा- जीवन के अलावा तुम्हारी कोई भी (वस्तु की) इच्छा है, तो (तुम्हारे द्वारा) (वह वस्तु) माँगी जानी चाहिए। उसने कहामेरी इच्छा राजा के मुख-दर्शन की है। तब वह राजा के समीप लाया गया। राजा ने उसको पूछा- यहाँ आने का प्रयोजन क्या है? प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 91 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. सो कहेइ- 'हे नरिंद, पच्चूसे मम मुहस्स दसणेण भोयणं न लब्भइ, परंतु तुम्हाणं मुहपेक्खणेण मम वहो भविस्सइ, तया पउरा किं कहिस्संति? मम मुहाओ सिरिमंताणं मुहदंसणं केरिसफलयं संजाअं, नायरा वि पभाए तुम्हाणं मुहं कहं पासिहिरे।' एवं तस्स वयणजुत्तीए संतुट्ठो नरिंदो वहाएसं निसेहिऊणं पारितोसिअं च दच्चा तं अमंगलियं संतोसी। 92 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. उसने कहा- हे राजा! प्रात:काल में मेरे मुख के दर्शन से (तुम्हारे द्वारा) भोजन ग्रहण नहीं किया गया, परन्तु तुम्हारा मुख देखने से मेरा वध होगा तब नगर के निवासी क्या कहेंगे? मेरे मुँह (दर्शन) की तुलना में श्रीमान् के मुख-दर्शन ने कैसे फल को उत्पन्न किया? नागरिक भी प्रभात में तुम्हारे मुख को कैसे देखेंगे? इस प्रकार उसकी वचन-युक्ति से राजा सन्तुष्ट हुआ। (वह) वध के आदेश को रद्द करके और उसको पारितोषिक देकर (प्रसन्न हुआ)। (इससे) वह अमांगलिक भी सन्तुष्ट हुआ। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 10 विउसीए पुत्तबहूए कहाणगं 1. कम्मि नयरे लच्छीदासो सेट्ठी वरीवट्टइ। सो बहुधणसंपत्तीए गव्विट्ठो आसि। भोगविलासेसु एव लग्गो कयावि धम्म ण कुणेइ। तस्स पुत्तो वि एयारिसो अत्थि। जोव्वणे पिउणा धम्मिअस्स धम्मदासस्स जहत्थ-नामाए सीलवईए कन्नाए सह पाणिग्गहणं पुत्तस्स कारावियं। सा कन्ना जया अट्ठवासा जाया, तया तीए पिउपेरणाए साहुणीसगासाओ सव्वण्णधम्मसवणेण सम्मत्तं अणुव्वयाई य गहीयाई, सव्वण्णधम्मे अईव निउणा संजाआ। 2. जया सा ससुरगेहे आगया तया ससुराई धम्माओ विमुहं दट्ठण तीए बहुदुहं संजायं। कहं मम नियवयस्स निव्वाहो होज्जा? कहं वा देवगुरुविमुहाणं ससुराईणं धम्मोवएसो भवेज्जा, एवं सा वियारेइ। 3. एगया ‘संसारो असारो, लच्छी वि असारा, देहोवि विणस्सरो, एगो धम्मो च्चिय परलोगपवन्नाणं जीवाणमाहारु' त्ति उपएसदाणेण नियभत्ता सव्वण्णधम्मेण वासिओ कओ। एवं सासूमवि कालंतरे बोहेइ। ससुरं पडिबोहिउं सा समयं मग्गेइ। 94 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 10 विदुषी पुत्रवधू का कथानक 1. किसी नगर में लक्ष्मीदास सेठ भली प्रकार से रहता था। वह बहुत धनसम्पत्ति के कारण अत्यन्त गर्वीला था। भोगविलासों में ही (वह) लगा हुआ (था) (और) कभी भी धर्म नहीं करता था। उसका पुत्र भी ऐसा (ही) था। यौवन में पिता द्वारा धार्मिक धर्मदास की यथानाम शीलवती कन्या के साथ पुत्र का विवाह करवा दिया गया। जब वह कन्या आठ वर्ष की हुई, तब उसके द्वारा पिता की प्रेरणा से (एक) साध्वी के पास सर्वज्ञ के धर्म के श्रवण से सम्यक्त्व और अणुव्रत ग्रहण किए गए। सर्वज्ञ के धर्म में (वह) बहुत निपुण हुई। 2. जब वह ससुर के घर में आ गई, तब ससुर आदि को धर्म से विमुख देखकर, उसके द्वारा बहुत दुःख प्राप्त किया गया। मेरे निजव्रत का निर्वाह कैसे होगा? अथवा देवगुरु से विमुख ससुर आदि के लिए धर्म का उपदेश कैसे (सम्भव) होगा? इस प्रकार वह विचार करती है। 3. संसार असार (है), लक्ष्मी भी असार (है), देह भी विनाशशील (है), एक धर्म ही परलोक जानेवाले जीवों के लिए आधार (है), इस प्रकार एक बार उपदेश देने से निज पति सर्वज्ञ के धर्म से संस्कारित किया गया। कुछ समय पश्चात् (वह) इस प्रकार सास को भी समझाती है। ससुर को समझाने के लिए वह समय खोजने लगी। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 95 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. एगया तीए घरे समणगुणगणालंकिओ महव्वई नाणी जोव्वणत्थो एगो साहू भिक्खत्थं समागओ। जोव्वणे वि गहीयवयं संतं दंतं साहुं घरंमि आगयं दट्ठण आहारे विज्जमाणे वि तीए वियारियं- 'जोव्वणे महव्वयं महादुल्लहं, कहं एएण एयंमि जोव्वणत्तणे गहीयं?' ति परिक्खत्थं समस्साए पुढे- 'अहुणा समओ न संजाओ, किं पुव्वं निग्गया?' तीए हिययगयभावं नाऊण साहुणा उत्तं- 'समयनाणं-कया मच्चू होस्सई त्ति नत्थि नाणं, तेण समयं विणा निग्गओ।' सा उत्तरं नाऊण तुट्ठा। मुणिणा वि सा पुट्ठा- 'कइ वरिसा तुम्ह संजाया?' मुणिस्स पुच्छाभावं नाऊण वीसवासेसु जाएसु वि तीए 'बारसवास' त्ति उत्तं। पुणरवि ते सामिस्स कइ वासा जात' त्ति? पुढं। तीए पियस्स पणवीसवासेसु जाएसु वि पंचवासा उत्ता, एवं सासूए 'छम्मासा' कहिया। ससुरस्स पुच्छाए सो 'अहुणा न उप्पण्णो अत्थि' ति भणिआ। 5. एवं वहू-साहूणं वा अंतट्टिएण ससुरेण सुआ। लद्धभिक्खे साइंमि गए सो अईव कोहाउलो संजाओ, जओ पुत्तवहु मं उद्दिस्स 'न जाओ' त्ति कहेइ। रुट्ठो सो पुत्तस्स कहणत्थं हटुं गच्छइ। गच्छन्तं ससुरं सा वएइ- 'भोत्तूणं हे ससुर! तुं गच्छसु।' ससुरो कहेइ- 'जइ हं न जाओ म्हि, तया कहं भोयणं चव्वेमि-भक्खेमि' इअ कहिऊण हट्टे गओ। पुत्तस्स सव्वं वुत्तंतं कहेइ- 'तव पत्ती दुरायारा असम्भवयणा अत्थि, अओ तं गिहाओ निक्कासय।' 96 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. एक बार उसके घर में श्रमण-गुण-समूह से अलंकृत महाव्रती, ज्ञानी, यौवन में स्थित एक साधु भिक्षा के लिए आए। यौवन में ही व्रत को ग्रहण किए हुए शान्त और जितेन्द्रिय साधु को घर में आया हुआ देखकर आहार को प्राप्त करते हुए होने पर ही उसके द्वारा विचार किया गया- यौवन में महाव्रत अत्यन्त दुर्लभ (है)। इनके द्वारा इस यौवन अवस्था में (महाव्रत) कैसे ग्रहण किए गए? इस प्रकार परीक्षा के लिए समस्या का (उत्तर) पूछा गया- अभी समय न हुआ, पहिले ही (आप) क्यों निकल गए? उसके हृदय में उत्पन्न भाव को जानकर साधु के द्वारा कहा गया- ज्ञान समय (है)। कब मृत्यु होगी, इस प्रकार ज्ञान (किसी को) नहीं है, इसलिए समय के बिना निकल गया। वह उत्तर को समझकर सन्तुष्ट हुई। मुनि के द्वारा वह भी पूछी गई- तुम्हें उत्पन्न हुए कितने वर्ष हुए? मुनि के प्रश्न के आशय को जानकर बीस वर्ष हो जाने पर भी उसके द्वारा इस प्रकार बारह वर्ष कहे गए। फिर, तुम्हारे स्वामी के (जन्म हुए) कितने वर्ष हुए? इस प्रकार (यह) पूछा गया। उसके द्वारा प्रिय के (जन्म हुए) पच्चीस वर्ष हो जाने पर भी पाँच वर्ष कहे गये। इस प्रकार सासू के छः माह कहे गये, ससुर के लिए पूछने पर वह अभी उत्पन्न नहीं हुआ है' इस प्रकार (शब्द) कहे गए। 5. इस प्रका बहू और साधु की वार्ता भीतर बैठे हुए ससुर के द्वारा सुनी गई। भिक्षा को प्राप्त साधु के चले जाने पर वह अत्यन्त क्रोध से व्याकुल हुआ, क्योंकि पुत्रवधु मुझको लक्ष्य करके कहती है कि (मैं) उत्पन्न नहीं हुआ। वह रूठ गया, (और) पुत्र को कहने के लिए दुकान पर गया। जाते हुए ससुर को वह कहती है- हे ससुर! आप भोजन करके जाएँ। ससुर कहता है यदि मैं उत्पन्न नहीं हुआ हूँ, तो भोजन कैसे चबाऊँगा-खाऊँगा। इस प्रकार, कहकर दुकान पर गया। पुत्र को सब वार्ता कहता है- तेरी पत्नी दुराचारिणी है और अशिष्ट बोलनेवाली है, इसलिए (तुम) उसको घर से निकालो। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 97 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. सो पिउणा सह गेहे आगओ। वहुं पुच्छइ- किं माउपिउणो अव-माणं कयं? साहुणा सह वट्टाए किं असच्चमुत्तरं दिण्णं?' तीए उत्तं- 'तुम्हे मुणिं पुच्छह, सो सव्वं कहिहिइ।' ससुरो उवस्सए गंतूण सावमाणं मुणिं पुच्छइ- 'हे मुणे, अज्ज मम गेहे भिक्खत्थं तुम्हे किं आगया?' मुणी कहेइ- 'तुम्हाण घरं ण जाणामि, तुमं कुत्थ वससि?' सेट्ठी वियारेइ 'मुणी असच्चं कहेइ।' पुणरवि पुढे- 'कत्थ वि गेहे बालाए सह वट्टा कया किं?' मुणी कहेइ- ‘सा बाला अईव कुसला, तीए मम वि परिक्खा कया।' तीए हं वुत्तो- 'समयं विणा कहं निग्गओ सि?' मए उत्तरं दिण्णं“समयस्स- 'मरणसमयस्स'- नाणं नत्थि, तेण पुत्ववयम्मि निग्गओ म्हि।" मए वि परिक्खत्थं सव्वेसिं ससुराईणं वासाइं पुट्ठाई। तीए सम्म कहियाइं। सेट्ठी पुच्छइ- 'ससुरो न जाओ इअ तीए किं कहियं?' मुणिणा उत्तं- 'सा चिय पुच्छिज्जउ, जओ विउसीए तीए जहत्थो भावो नज्जइ। 7. ससुरो गेहं गच्चा पुत्तवहुं पुच्छइ- 'तीए मुणिस्स पुरओ किमेवं वुत्तंमे ससुरो जाओ वि न।' तीए उत्तं- "हे ससुर, धम्महीणमणुसस्स माणवभवो पत्तो वि अपत्तो एव, जओ सद्धम्मकिच्चेहिं सहलो भवो न कओ सो मणुसभवो निप्फलो चिय। तओ तुम्ह जीवणं पि धम्महीणं सव्वं गयं! तेण मए कहिअं-मम ससुरस्स उप्पत्ती एव न।" एवं सच्चत्थाणे तुट्ठो धम्माभिमुहो जाओ। पुणरवि पुढे- 'तुमए सासूए छम्मासा कहं कहिआ?' तीए उत्तं 'सासुं पुच्छह' । सेट्टिणा सा पुट्ठा। ताए वि कहिअं- “पुत्तवहणं वयणं सच्चं, जओ मम सव्वण्णुधम्मपत्तीए छम्मासा एव जाया, जओ इओ छम्मासाओ पुव्वं कत्थ वि मरणपसंगे अहं गया। तत्थ थीणं विविहगुणदोसवट्टा जाया।" 98 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. वह पिता के साथ घर में आया। (वह) बहू को पूछता है (तुम्हारे द्वारा) माता-पिता का अपमान क्यों किया गया? साधु के साथ वार्ता में असत्य उत्तर क्यों दिए गए? उसके द्वारा कहा गया- तुम (ही) मुनि को पूछो, वह सब कह देंगे। ससुर ने उपासरे में जाकर अपमानसहित मुनि को पूछा- हे मुनि! आज मेरे घर में भिक्षा के लिए तुम क्यों आए? मुनि ने कहा- तुम्हारे घर को नहीं जानता हूँ, तुम कहाँ रहते हो? सेठ विचारता है कि मुनि असत्य कहता है। फिर पूछा गया- क्या किसी भी घर में बाला के साथ वार्ता की गई? मुनि ने कहा- वह बाला अत्यन्त कुशल है। उसके द्वारा मेरी भी परीक्षा की गई। उसके द्वारा मैं कहा गया- समय के बिना (तुम) कैसे निकले हो? मेरे द्वारा उत्तर दिया गया- समय का-मरण समय का ज्ञान नहीं है, इसलिए आयु के पूर्व में ही निकल गया हूँ। मेरे द्वारा भी परीक्षा के लिए ससुर आदि सभी के वर्ष (आयु) पूछे गए (तो) उसके द्वारा (बाला के द्वारा) अच्छी तरह (उचित प्रकार से) (उत्तर) कहे गए। सेठ ने पूछा- ससुर उत्पन्न नहीं हुआ, यह उसके द्वारा क्यों कहा गया? मुनि के द्वारा कहा गया- वह ही पूछी जाए, क्योंकि उस विदुषी के द्वारा यथार्थ भाव जाने जाते (जाने गये) हैं। 7. ससुर घर जाकर पुत्रवधू से पूछता है- उसके द्वारा मुनि के समक्ष इस प्रकार से क्यों कहा गया (कि) मेरा ससुर उत्पन्न ही नहीं (हुआ) है। उसके द्वारा कहा गया- हे ससुर! धर्महीन मनुष्य का मनुष्यभव प्राप्त किया हुआ भी प्राप्त नहीं किया हुआ (अप्राप्त) ही है, क्योंकि सत् धर्म की क्रिया के द्वारा (मनुष्य) भव सफल नहीं किया गया (है) (तो) वह मनुष्य जन्म निरर्थक ही है। उस कारण से तुम्हारा सारा जीवन धर्महीन ही गया, इसलिए मेरे द्वारा कहा गया- मेरे ससुर की उत्पत्ति ही नहीं है। इस प्रकार सत्य कारण पर (वह) सन्तुष्ट हुआ और धर्माभिमुख हुआ। फिर पूछा गया- तुम्हारे द्वारा सासू की (उम्र) छः मास कैसे कही गई? उसके द्वारा कहा गया (उत्तर दिया गया)- सासू को पूछो। सेठ के द्वारा वह पूछी गई। उसके द्वारा भी कहा गया- पुत्रवधू के वचन सत्य हैं, क्योंकि मेरी सर्वज्ञ-धर्म की प्राप्ति में छः माह ही हुए हैं, क्योंकि इस लोक में छ: मास पूर्व मैं कहीं भी मृत्यु प्रसंग में गई। वहाँ (उस) स्त्री (बहू) के विविध गुण-दोषों की वार्ता हुई। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 99 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. एगाए वुड्ढाए उत्तं- “नारीण मज्झे इमीए पुत्तवहू सेट्ठा। जोव्व-णवए वि सासूभत्तिपरा धम्मकज्जम्मि स एव अपमत्ता, गिहकज्जेसु वि कुसला नन्ना एरिसा। इमीए सासू निब्भगा, एरिसीए भत्तिवच्छलाए पुत्त-वहूए वि धम्मकज्जे पेरिज्जमाणावि धम्मं न कुणेइ, इमं सोऊण बहुगुण-रंजिआ तीए मुहाओ धम्मो पत्तो। धम्मपत्तीए छम्मासा जाया, तओ पुत्त-वहूए छम्मासा कहिआ, तं जुत्तं।" 9. पुत्तो वि पुट्ठो, तेण वि उत्तं- “रत्तीए समयधम्मोवएसपराए भज्जाए संसारासारदसणेण भोगविलासाणं च परिणामदुहदाइत्तणेण वासाणईपूरतुल्लजुव्वणत्तणेण य देहस्स खणभंगुरत्तणेण जयम्मि धम्मो एव सारु त्ति उवदिट्ठो हं सव्वण्णुधम्माराहगो जाओ, अज्ज पंचवासा जाया। तओ वहूए मं उद्दिस्स पंचवासा कहिआ, तं सच्चं।" एवं कुटुंबस्स धम्मपत्तीए वटाए विउसीए य पुत्तवहूए जहत्थवयणं सोऊण लच्छीदासो वि पडिबुद्धो वुड्डत्तणे वि धम्मं आराहिअ सग्गई पत्तो सपरिवारो। 100 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. ( वहाँ ) एक वृद्धा के द्वारा कहा गया- स्त्रियों के मध्य में इसकी पुत्र-वधू श्रेष्ठ है । यौवन की अवस्था में भी वह सासू की भक्ति में लीन (तथा) धर्म कार्य में भी अप्रमादी है, गृहकार्यों में भी कुशल ( उसके ) समान अन्य नहीं है। इसकी सासू अभागी है ऐसी भक्ति प्रेमी पुत्रवधु द्वारा धर्म - कार्य में प्रेरित किए जाते हुए भी धर्म नहीं करती है। इसको सुनकर बहू के गुणों से प्रसन्न हुई ( मेरे द्वारा ) उसके मुख से धर्म प्राप्त किया गया। धर्म- -लाभ में छः मास हुए । इसलिए पुत्रवधु के द्वारा छः मास कहे गये, वह युक्त है। 9. पुत्र भी पूछा गया, उसके द्वारा भी कहा गया- रात्रि में सिद्धान्त और धर्म के उपदेश में लीन पत्नी के द्वारा संसार में असार के दर्शन से और भोगविलास के परिणाम के दुःखदाईपन से, वर्षा नदी के जल-प्रवाह के समान यौवनावस्था के कारण और देह की क्षणभंगुरता से, जगत में धर्म ही सार (है), इस प्रकार बताया गया मैं सर्वज्ञ के धर्म का आराधक बना, आज पाँच वर्ष पूरे हुए, इसलिए बहू के द्वारा मुझको लक्ष्य करके पाँच वर्ष कहे गए, वह सत्य है। इस प्रकार कुटुम्ब के लिए धर्म-लाभ की वार्ता से विदुषी पुत्रवधु के यथार्थ वचन को सुनकर लक्ष्मीदास भी ज्ञानी (हुआ) और बुढ़ापे में (उसके द्वारा ) भी धर्म पाला गया । ( उसने ) सपरिवार सन्मार्ग प्राप्त किया । प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 101 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 11 कस्सेसा भज्जा 1. हत्थिणाउरे नयरे सूरनामा रायपुत्तो नाणागुणरयण-संजुत्तो वसइ। तस्स भारिया गंगाभिहाणा सीलाइगुणालंकिया परमसोहग्गसारा। सुमइनामा तेसिं धूया। सा कम्मपरिणामवसओ जणय-जणणी-भाया-माउलेहिं पुढो पुढो वराणं दिन्ना। 2. चउरो वि ते वरा एगम्मि चेव दिणे परिणेउं आगया परोप्परं कलहं कुणन्ति। तओ तेसिं विसमे संगामे जायमाणे बहुजणक्खयं दट्टण अग्गिम्मि पविट्ठा सुमइकन्ना। तीए समं णिविडणेहेण एगो वरो वि पविट्ठो। एगो अट्ठीणि गंगप्पवाहे खिविउं गओ। एगो चिआरक्खं तत्थेव जलपूरे खिविऊण तदुक्खणं मोहमहागह-गहिओ महीयले हिण्डइ। चउत्थो तत्थेव ठिओ तं ठाणं रक्खंतो पइदिणं एगमन्नपिंडं मुअंतो कालं गमेइ। 3. अह तइओ नरो महीयलं भमन्तो कत्थवि गामे रंधणघरम्मि भोअणं कराविऊण जिमिउं उवविठ्ठो। तस्स घरसामिणी परिवेसइ। तया तीए लहुपुत्तो अईव रोइइ। तओ तीए रोसपरव्वसं गयाए सो बालो जलणम्मि खिविओ। सो वरो भोयणं कुणंतो उट्टिउं लग्गो। सा भणइ- “अवच्चरूवाणि कस्स वि न अप्पियाणि होति, जेसिं कए पिउणो अणे-गदेवयापूयादाणमंतजवाइं किं किं न कुणन्ति। तुमं सुहेण भोयणं करेहि। पच्छा वि एयं पुत्तं जीवइस्सामि।" तओ सो वि भोयणं विहिऊण सिग्धं उट्टिओ जाव ताव तीए 102 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 11 यह किसकी पत्नी (है) 1. हस्तिनापुर नगर में शूर नामक राजपुत्र रहता था (जो) नाना गुणरूपी रत्नों से युक्त (था)। उसकी पत्नी गंगा नामवाली, शीलादि गुणों से अलंकृत और परम सौभाग्यशाली (और पराक्रमवाली) (थी)। सुमति नामक उनकी पुत्री थी। वह कर्मफल के वश से पिता, माता, भाई और मामा के द्वारा अलग-अलग वरों के लिए दे दी गई। 2. चारों ही वे वर एक ही दिन विवाह करने के लिए आ गये। (और) आपस में कलह करने लगे। तब उनके (मध्य में) उत्पन्न होते हुए विषम संग्राम में बहुत मनुष्यों के क्षय को देखकर सुमति कन्या आग में प्रविष्ट हुई, उसके साथ घनिष्ठ स्नेह के कारण एक वर भी प्रविष्ट हुआ। एक अस्थियों को गंगा के प्रवाह में डालने के लिए गया। एक चिता की राख को वहाँ ही जलधारा में डालकर उस दुःख के कारण मोहरूपी महाग्रहों से पकड़ा हुआ पृथ्वी पर भ्रमण करने लगा। चौथा वहाँ ही ठहरा। उस स्थान की रक्षा करते हुए प्रतिदिन एक अन्न पिण्ड को छोड़ता हुआ काल बिताने लगा। 3. अब तीसरा मनुष्य पृथ्वी पर घूमता हुआ किसी ग्राम में पाकगृह में भोजन बनवाकर जीमने के लिए बैठा। उसके लिए घर स्वामिनी ने (भोजन) परोसा। तब उसका छोटा पुत्र अत्यन्त रोया। तब वह क्रोध की वशीभूतता को प्राप्त हुई। उसके द्वारा वह बालक अग्नि में फेंक दिया गया। वह वर भोजन करता हुआ उठने के लिए उद्यत हुआ। उसने कहा- “सन्तानरूप किसी के लिए भी अप्रिय नहीं होते हैं जिनके लिए माता-पिता अनेक देवताओं की पूजा, दान, मंत्र, जप आदि क्या-क्या नहीं करते हैं। तुम सुखपूर्वक भोजन करो। पीछे ही (मैं) इस पुत्र को जीवित कर दूंगी।" तब वह भी भोजन करके शीघ्र उठा, प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 103 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियघरमज्झाओ अमयरस-कुप्पयं आणिऊण जलणम्मि छडुक्खेवो कओ। वालो हसंतो निग्गओ। जणणीए उच्छंगे नीओ। 4. तओ सो वरो झायइ- “अहो अच्छरिअं! अहो अच्छरिअं! जं एवंविहजलणजलिओ वि जीविओ। जइ एसो अमयरसो मह हवइ ता अहमवि तं कन्नं जीवावेमि' त्ति चिंतिऊण धुत्तत्तेण कूडवेसं काऊण रयणीए तत्थेव ठिओ। अवसरं लहिऊण तं अमयरसकूवयं गिण्हिऊण हत्थिणाउरे आगओ। 5. तेण पुण तीए जणयादिसमक्खं चिआमज्झे अमयरसो मुक्को। सा सुमइ कन्ना सालंकारा जीवंती उट्ठिया। तया तीए समं एगो वरो वि जीविओ। कम्मवस्सओ पुणो चउरो वि वरा एगओ मिलिआ। कन्नापाणिग्गहणत्थमन्नोन्नं विवायं कुणंता बालचंदरायमन्दिरे गया। चउहिं वि कहिअं राइणो नियनियसरूवं। राइणा मंतिणो भणिया जहा- “एयाणं विवायं भंजिऊण एगो वरो पमाणीकायव्वो।" मंतिणो वि सव्वे परोप्परं वियारं कुणंति। न पुण केणावि विवाओ भज्जइ। जओआसन्ने रणरंगे मूढे मंते तहेव दुब्भिक्खे। जस्स मुहं जोइज्जइ सो पुरिसो महियले विरलो। 6. तया एगेण मंतिणा भणियं- "जइ मन्नह ता विवायं भज्जेमि।" तेहिं जंपियं- “जो रायहंसव्व गुणदोसपरिक्खं काऊण पक्खावायरहिओ वायं भंजइ तस्स वयणं को न मन्नइ?" तओ तेण भणियं- “जेण जीविया, 104 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसी समय उसके द्वारा (स्त्री के द्वारा) निज घर के भीतर से अमृत रस के घड़े को लाकर अग्नि में छिड़काव किया गया। बालक हँसता हुआ निकला। माता के द्वारा गोद में लिया गया। 4. तब उस वर ने सोचा, “अहो आश्चर्य! अहो आश्चर्य! इस प्रकार अग्नि से जला हुआ भी जिया। यदि यह अमृतरस मेरे लिए होता है तो मैं भी उस कन्या को जिलाऊँगा। इस प्रकार सोचकर धूर्तता से कपट वेश धारण करके रात्रि में वहाँ ही ठहरा। अवसर पाकर उस अमृत रस के घड़े को लेकर, हस्तिनापुर आ गया। 5. उसके द्वारा फिर उसके पिता आदि के समक्ष चिता के मध्य में अमृत रस छोड़ा गया। वह सुमति कन्या अलंकारसहित जीती हुई उठी। तब उसके साथ एक वर भी जिया। कर्म के वश से फिर चारों ही वर एक-एक करके मिल गए। कन्या से विवाह करने के लिए आपस में विवाद करते हुए बालचन्द राजा के मन्दिर में गए। चारों के द्वारा ही राजा के लिए अपनी-अपनी बात कही गई। राजा के द्वारा मंत्री कहे गए- बड़े निश्चय से इनके विवाद को समाप्त करके एक वर प्रमाणित किया जाना चाहिए। सब मंत्रियों ने भी आपस में विचार किया। किसी के द्वारा भी विवाद नहीं सुलझा। क्योंकि समीपस्थ युद्ध में, कर्त्तव्य की सूझ से हीन व्यक्ति में, परामर्श में, उसी प्रकार अकाल में जिसका मुँह देखा जाता है वह पुरुष पृथ्वी पर दुर्लभ (होता है)। 6. तब एक मंत्री के द्वारा कहा गया- “यदि (तुम लोग) मानोगे तब विवाद हल कर दूँगा।" उनके द्वारा कहा गया "जो राजहंस के समान गुण-दोष की परीक्षा करके पक्षपात रहित.(होकर) विवाद को सुलझाता है उसकी बात को कौन नहीं मानेगा।" तब उसके द्वारा कहा गया- “जिसके द्वारा जिलाया गया, प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 105 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सो जम्महेउत्तणेण पिया जाओ। जो सहजीविओ सो एगजम्म-ट्ठाणेण भाया। जो अट्ठीण गंगामज्झम्मि खिविउं गओ सो पच्छापुण्णकरणेण पुत्तसमो जाओ। जेण पुण तं ठाणं रक्खियं, सो भत्ता।" एवं मंतिणा विवाए भग्गे, चउत्थेण वरेण कुरुचंदाभिहाणेण सा परिणीआ। 106 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह जन्म हेतुत्व के कारण पिता हुआ। जो एक साथ जिया वह एक जन्मस्थान होने के कारण भाई ( हुआ ) । जो अस्थियों को गंगा के मध्य में डालने के लिए गया वह पीछे पुण्य करने के कारण पुत्र के समान हुआ और जिसके द्वारा वह स्थान रक्षा किया गया वह पति है । इस प्रकार मंत्री द्वारा विवाद नष्ट किये जाने पर कुरुचन्द नामवाले चौथे वर के साथ वह परणी गई। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 107 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 12 ससुरगेहवासीणं चउजामायराणं कहा 1. कत्थ वि गामे नरिंदस्स रज्जसंतिकारगो पुरोहिओ आसि। तस्स एगो पुत्तो, पंच य कन्नगाओ संति। तेण चउरो कन्नगाओ विउसमाहण-पुत्ताणं परिणाविआओ। कयाई पंचमीकन्नगाए विवाहमहूसवो पारद्धो। विवाहे चउरो जामाउणो समागया। पुण्णे विवाहे जामायरेहिं विणा सव्वे संबंघिणो नियनियघरेसु गया। जामायरा भोयणलुद्धा गेहे गंतुं न इच्छंति। पुरोहिओ विआरेइ- 'सासूए अईव पिया जामायरा, तेण अहुणा पंच छ दिणाई एए चिटुंतु, पच्छा गच्छेज्जा।' ते जामायरा खज्जरसलुद्धा तओ गच्छिउं न इच्छेज्जा। परुप्परं ते चिंतेइरे- 'ससुर-गिहनिवासो सग्गतुल्लो नराणं' किल एसा सुत्ती सच्चा, एवं चिंतिऊणं एगाए भित्तीए एसा सुत्ती लिहिआ। एगया एवं सुत्तिं ससुरेण वाइऊण चिंतिअं- 'एए जामायरा खज्जसरलुद्धा कयावि न गच्छेज्जा, तओ एए बोहियव्वा' एवं चिंतिऊण तस्स सिलोगपायस्स हिटुंमि पायत्तिगं लिहिअं "जइ वसइ विवेगी पंच छव्वा दिणाई। दहिघयगुडलुद्धा मासमेगं वसेज्जा स हवइ खरतुल्लो माणवो माणहीणो॥" 2. तेहिं जामायरेहिं पायत्तिगं वाइअं पि खज्जरसलुद्धत्तणेण तओ गंतुं नेच्छंति। ससुरो वि चिंतेइ- 'कहं एए नीसारिअव्वा? साउभोयणरया एए खरसमाणा माणहीणा संति, तेण जुत्तीए निक्कासणिज्जा।' पुरोहिओ नियं भज्जं पुच्छइ-एएसिं जामाऊणं भोयणाय किं देसि?' सा कहेइ 108 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 12 ससुर के घर में रहनेवाले चार दामादों की कथा 1. किसी ग्राम में राजा के राज्य में शान्ति स्थापित करनेवाला पुरोहित रहता था। उसके एक पुत्र और पाँच कन्याएँ थीं। उसके द्वारा चार कन्याएँ विज्ञ ब्राह्मण पुत्रों के साथ विवाह करवा दी गई। किसी समय पाँचवीं कन्या का विवाह महोत्सव प्रारम्भ हुआ। विवाह में चार दामाद साथ-साथ आये। विवाह के पूर्ण होने पर दामादों के अलावा सब सम्बन्धी अपने-अपने घर चले गये। भोजने के लोभी दामाद घर में जाने के लिए इच्छुक नहीं थे। पुरोहित ने विचार किया- (ये) दामाद सासू के अत्यन्त प्रिय हैं। इसलिए अभी ये पाँच छ: दिन ठहरे (रुके) हैं पीछे चले जायेंगे। वे भोजन-रस लोभी दामाद बाद में (भी) जाने के लिए इच्छुक नहीं हुए। आपस में उन्होंने विचार कियाससुर के घर में रहना मनुष्यों के लिए स्वर्गतुल्य (होता है)। निश्चय ही यह सूक्ति सच्ची है। इस प्रकार विचारकर एक भीत पर यह सूक्ति लिखी गई। एक बार इस सूक्ति को पढ़कर ससुर के द्वारा विचार किया गया- ये भोजनरस लोभी दामाद कभी भी नहीं जायेंगे, तब ये समझाए जाने चाहिए। इस प्रकार सोचकर उस श्लोक के चरण के नीचे तीन चरण लिखे गयेविवेकीजन 5-6 दिन ही रहते हैं, यदि दही, घी एवं गुड का लोभी एक मास रहता है, (तो) वह मनुष्य गधे के समान मानहीन ही होता है। 2. उन दामादों के द्वारा (यद्यपि) तीनों पाद पढ़े गये तब भी भोजनरस के लालची होने के कारण जाने की इच्छा नहीं की। ससुर ने भी विचार किया- ये कैसे निकाले जाने चाहिए? स्वादिष्ट भोजन में लीन ये गधे के समान मानहीन हैं, इसलिए (ये) युक्तिपूर्वक निकाले जाने चाहिए। पुरोहित अपनी पत्नी को पूछता है- (तुम) इन दामादों को भोजन के लिए क्या देती हो? उसने कहा प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 109 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अइप्पियजामायराणं तिकालं दहि-घय-गुडमीसिअमन्नं पक्कन्नं च सएव देमि।' पुराहिओ भज्जं कहेइ-अज्जयणाओ आरब्भ तुमए जामायराणं वज्जकुडो थूलो रोडगो घयजुत्तो दायव्वो।' 3. पियस्स आणा अणइक्कमणीअ, त्ति चिंतिऊण सा भोयणकाले ताणं थूलं रोट्टगं घयजुत्तं देइ। तं दट्टणं पढमो मणीरामो जामाया मित्ताणं कहेइ- “अहुणा एत्थ वसणं न जुत्तं, नियघरंमि अओ साउभोयणं अत्थि, तओ इओ गमणं चिय सेयं । ससुरस्स पच्चूसे कहिऊण हं गमिस्सामि।" ते कहिंति- “भो मित्त! विणा मुल्लं भोयणं कत्थ सिया, एयं वज्जकुडरोट्टगं साउं गणिऊण भोत्तव्वं, जओ- ‘परन्नं दुल्लहं लोगे' इअ सुई तए किं न सुआ? तव इच्छा सिया तया गच्छसु, अम्हाणं ससुरो कहिही तया गमिस्सामो।" एवं मित्ताणं वयणं सोच्चा पभाए ससुरस्स अग्गे गच्छित्ता सिक्खं आणं च मग्गेइ। ससुरो वि तं सिक्खं दाऊण 'पुणावि आगच्छे ज्जा' एवं कहिऊण किंचि अणुसरिऊण अणुण्णं देइ। एवं पढमो जामायरो ‘वज्जकुडेण मणीरामो' निस्सरिओ। 4. पुणरवि भज्जं कहेइ- अहुणा अज्जयणाओ जामायराणं तिल-तेल्लेण जुत्तं रोदृगं दिज्जा।' सा भोयणसमए जामायराणं तिलतेल्लजुत्तं रोट्टगं देइ। तं दट्टण माहवो नाम जामायरो चिंतेइ- 'घरंमि वि एयं लब्भइ, तओ इओ गमणं सुहं, मित्ताणं पि कहेइ- 'हं कल्ले गमिस्सं, जओ भोयणे तेल्लं समागयं।' तया ते मित्ता कहिंति- “अम्हकेरा सासू विउसी अत्थि, तेण सीयलं तिलतेल्लं चिअ उयरग्गिदीवणेण सोहणं, न घयं, तेण तेल्लं देइ, अम्हे उ अत्थ ठास्सामो।" तया माहवो नाम जामायरो ससुरपासे गच्चा सिक्खं अणुण्णं च मग्गेइ। तया ससुरो 'गच्छ गच्छ' त्ति अणुण्णं देइ, न सिक्खं । एवं 'तिलतेल्लेण माहवो' बीओ वि जामायरो गओ। तइअचउत्थजामायरा न गच्छति। 'कहं एए निक्कास 110 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिप्रिय दामादों के लिए तीन बार दही, घी, गुड से मिश्रित अन्न और पकवान सदैव देती हूँ। पुरोहित ने पत्नी को कहा- तुम्हारे द्वारा दामादों के लिए कठोर की हुई स्थूल (और) घी लगी हुई रोटी दी जानी चाहिए। 3. पति की आज्ञा टाली नहीं जानी चाहिए। इस प्रकार विचारकर वह भोजन के समय उनके लिए स्थूल रोटी घी लगी हुई देती है। उसको देखकर प्रथम मणीराम (नामक) दामाद ने मित्रों को कहा- अब यहाँ रहना ठीक नहीं है। निज घर में इसकी अपेक्षा स्वादिष्ट भोजन है, इसलिए यहाँ से गमन ही उत्तम (है)। ससुर को प्रभात में कहकर मैं जाऊँगा। उन्होंने (मित्रों ने) कहा- हे मित्र! बिना मूल्य भोजन कहाँ है (इसलिए) यह कठोर की हुई रोटी स्वाद वाली गिनकर खाई जानी चाहिए। क्योंकि लोक में दूसरे की रोटी दुर्लभ है। यह कहावत तुम्हारे द्वारा क्या नहीं सुनी गई? तुम्हारी इच्छा है तो जाओ, हमारे लिए तो ससुर कहेंगे तो (हम) जायेंगे। इस प्रकार मित्रों के वचन को सुनकर प्रभात में ससुर के आगे जाकर सीख और आज्ञा माँगी। ससुर भी उसको शिक्षा देकर 'फिर भी आना' इस प्रकार कहकर कुछ पीछे जाकर आज्ञा दी। इस प्रकार प्रथम दामाद मणीराम, कठोर की हुई रोटी से निकाल दिया गया। 4. फिर पत्नी को कहता है- अब आज से दामादों के लिए तिल के तेल से युक्त रोटी दी जानी चाहिए। वह भोजन के समय दामादों के लिए तिल के तेल से युक्त रोटी देती है। उसको देखकर माधव नाम दामाद विचार करता है। घर में भी यह प्राप्त किया जाता है, इसलिए यहाँ से गमन सुखकारी है, मित्रों को भी कहता है- मैं कल जाऊँगा, क्योंकि भोजन में तेल दिया गया (है)। तब उन मित्रों ने कहा- हमारी सासु विदुषी है, क्योंकि शीतल तिलों का तेल ही उदर की अग्नि का उद्दीपक होने के कारण सुन्दर है, घी नहीं, इसलिए तेल देती है। हम सब ही यहाँ ठहरेंगे। तब माधव नामक दामाद ससुर के पास जाकर सीख व अनुज्ञा माँगता है। तब ससुर ने जाओ, जाओ (कहा), इस प्रकार आज्ञा दी, सीख नहीं दी। इस प्रकार तिल के तेल के कारण माधव नामक दूसरा दामाद गया। तीसरे चौथे दामाद नहीं गए। किस प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 111 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जा' इअ चिंतित्ता, लद्धवाओ ससुरो भज्जं पुच्छेइ- 'एए जामाउणो रत्तीए सयणाय कया आगच्छन्ति?' तया पिया कहेइ- कयाइ रत्तीए पहरे गए आगच्छेज्जा, कया दुतिपहरे गए आगच्छंति।' 5. पुरोहिओ कहेइ- 'अज्ज रत्तीए दारं न उग्घाडियव्वं, अहं जागरिस्सं।' ते दोण्णि जामायरा संझाए गामे विलसिउं गया, विविहकीलाओ कुणंता नहाइं च पासंता, मज्झरत्तीए गिहद्दारे समागया। पिहिअं दारं दट्टण दारुघाडणाए उच्चसरेण अक्कोसंति- ‘दारं उग्घाडेसु' त्ति तया दारसमीवे सयणत्थे पुरोहिओ जागरंतो कहेइ- 'मज्झारत्तिं जाव कत्थं तुम्हे थिआ? अहुणा न उग्याडिस्सं, जत्थ उग्घाडिअद्दारं अत्थि, तत्थ गच्छेह' एवं कहिऊण मोणेण थिओ। तया ते दुण्णि समीवत्थियाए तुरंगसालाए गया। तत्थ आत्थरणाभावे अईवसीयबाहिया तुरंगमपिट्ठच्छाइआवरणवत्थं गहिऊण भूमीए सुत्ता। तया विजयरामेण जामाउणा चिंतिअं- ‘एत्थ सावमाणं ठाउं न उइअं।' तओ सो मित्तं कहेइ- हे मित्त! अम्हं सुहसज्जा का? इमं भूलोट्टणं च कत्थ? अओ इओ गमणं चिअ वरं।' स मित्तो बोल्लेइ- 'एआरिसदुहे वि परन्नं कत्थ?' अहं तु एत्थ ठाहिस्सं। तुमं गंतुमिच्छसि जई', तया गच्छसु।' तओ सो पच्चूसे पुरोहियसमीवे गच्चा सिक्खं अणुण्णं च मग्गीअ। तया पुरोहिओ सुट्ट त्ति कहेइ। एवं सो विजयरामो ‘भूसज्जाए विजयरामो' वि निग्गओ। 6. अहुणा केवलं केसवो जामायरो तत्थ थिओ संतो गंतुं नेच्छइ। पुरोहिओ वि केसवजामाउणो निक्कासणत्थं जुत्तिं विआरेइ। एगया नियपुत्तस्स कण्णे किंचि वि कहिऊण जया केसवजामायरो भोयणत्थं उवविट्ठो, पुरोहिअस्स य पुत्तो समीवे ठिओ वट्टइ, तया पुरोहिओ समागओ समाणो पुत्ते पुच्छइ- 'वच्छ!' एत्थ मए रुप्पगं मुत्तं तं च केण प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 112 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार ये निकाले जाने चाहिए, इस प्रकार विचार करके उपाय प्राप्त किया हुआ ससुर पत्नी को पूछता है- ये दामाद रात्रि में सोने के लिए कब आते हैं? तब पत्नी ने कहा- कभी रात्रि में एक प्रहर गये आते हैं, कभी दो-तीन प्रहर गये आते हैं। 5. पुरोहित ने कहा- आज रात्रि में द्वार नहीं खोला जाना चाहिए, मैं जानूँगा। वे दोनों दामाद सायंकाल ग्राम में मनोरंजन के लिए गए। विविध क्रीड़ाएँ (कीला) करते हुए और नाटक देखते हुए मध्यरात्रि में घर के द्वार पर साथसाथ आए। द्वार को ढका हुआ देखकर द्वार खोलने के लिए उच्च स्वर से पुकारा- द्वार खोलो। तब द्वार के समीप सोने के लिए जागते हुए पुरोहित ने कहा- मध्यरात्रि को भी तुम कहाँ ठहरे? अब नहीं खोलूँगा। जहाँ द्वार खुला है, वहाँ जाओ। इस प्रकार कहकर मौन से बैठा। तब वे दोनों समीप में स्थित घुड़साल में गए। वहाँ बिस्तर के अभाव में अत्यन्त ठण्ड से रोगी होने के कारण घोड़े की पीठ पर ढकनेवाले आवरण वस्त्र को ग्रहण करके भूमि पर सोए। तब विजयराम दामाद के द्वारा विचारा गया- यहाँ अपमान-सहित ठहरने के लिए उचित नहीं है! तब उसने मित्र को कहा- हे मित्र! हमारी सुख शय्या क्या है? और यह जमीन पर लोटना कैसे होगा? अत: यहाँ से गमन ही श्रेष्ठ है। उस मित्र ने कहा- इस जैसे दु:ख में भी पर अन्न कहाँ? मैं तो यहाँ ठहरूँगा। यदि तुम जाने की इच्छा रखते हो तो जाओ। तब उसने प्रभात में पुरोहित के समीप जाकर सीख व अनुज्ञा माँगी तब पुरोहित ने कहा, अच्छा। इस प्रकार वह विजयराम, ‘भूशय्यासे विजयराम' भी निकाला गया। 6. अब केवल केशव दामाद वहाँ ठहरा, रहा, जाने की इच्छा नहीं की। पुरोहित भी केशव दामाद को निकालने के लिए युक्ति विचारता है। एक बार निज पुत्र के कान में कुछ भी कहकर जब केशव दामाद भोजन के लिए बैठा। पुरोहित का पुत्र समीप बैठा रहा तब मानसहित पुरोहित आया (और) पुत्र को पूछा- हे पुत्र! यहाँ मेरे द्वारा रुपया छोड़ा गया है और वह किसके द्वारा लिया गया है? उसने कहा- मैं नहीं जानता हूँ। पुरोहित कहता है प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 113 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गहिअं?' सो कहइ- 'अहं न जाणामि।' पुरोहिओ बोल्लेइ- 'तुमए च्चिय गहि, हे असच्चवाइ! पाव! धिट्ठ! देहि ममं तं, अन्नहा तुमं मारइस्सं हं' ति कहिऊण सो उवाणहं गहिऊण मारिउं धाविओ। पुत्तो वि मुट्टि बंधिऊण पिउस्स सम्मुहं गओ। दोणि ते जुज्झमाणे दट्ठण केसवो ताणं मज्झे गंतूण- ‘मा जुज्झह, मा जुज्झह' त्ति कहिऊण ठिओ। तया सो पुरोहिओ हे जामायर! 'अवसरसु अवसरसु' कहिऊण त उवाणहेण पहरेइ। पुत्तो वि 'केसव! दूरीभव दूरीभव' त्ति कहिऊण मुट्ठीए तं केसवं पहरेइ। एवं पिउपुत्ता केसवं ताडिंति। तओ सो तेहिं धक्कामुक्केण ताडिज्जमाणो सिग्धं भग्गो, एवं धक्कामुक्केण केसवो' सो अकहिऊण गओ। 7. तद्दिणे पुरोहिओ निवसहाए विलंबेण गओ। नरिंदो तं पुच्छइ- 'किं विलंबेण तुमं आगओ सि।' सो कहेइ- 'विवाहमहूसवे चउरो जा-मायरा समागआ। ते उ भोयणरसलुद्धा चिरं ठिआवि गंतुं न इच्छंति। तओ जुत्तीए सव्वे निक्कासिआ ते एवंवज्जकुडेण मणीरामो, तिलतेल्लेण माहवो। भूसज्जाए विजयरामो, धक्कामुक्केण केसवो॥ त्ति, सव्वो वुत्तंतो नरिंदस्स अग्गे कहिओ। नरिंदो वि तस्स बुद्धीए अईव तुट्ठो। उवएसोजामायरचउक्कस्स सुणिऊण पराभवं । ससुरस्स गिहावासे सम्माणं जाव संवसे॥ 114 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हारे द्वारा ही लिया गया है, हे असत्यवादी! हे पापी! हे धीठ! उसको मुझे दो। अन्यथा मैं तुमको मारूँगा। इस प्रकार कहकर वह जूता लेकर मारने के लिए दौड़ा। पुत्र भी मुट्ठी को बाँधकर पिता के सम्मुख हो गया। वे दोनों लड़ते हुए (रहे) तब केशव उनको देखकर उनके मध्य में जाकर, मत लड़ो, मत लड़ो इस प्रकार कहकर खड़ा रहा। तब वह पुरोहित, हे दामाद! हटोहटो कहकर उसको जूते से पीटता है। पुत्र भी हे केशव! दूर हो, दूर हो इस प्रकार मुट्ठी से उस केशव को पीटता है। इस प्रकार पिता-पुत्र ने केशव को ताड़ा। तब वह उनके द्वारा धक्का मुक्के से ताड़ा जाते हुए शीघ्र भाग गया, इस प्रकार धक्का मुक्के से वह केशव बिना कहकर गया। 7. उस दिन पुरोहित राजसभा में देर से गया। राजा ने उसको पूछा- तुम देर से क्यों आए हो? उसने कहा- विवाह महोत्सव में चार दामाद आए थे। वे भोजनरस के लोभी चिरकाल तक ठहरे और जाने के लिए इच्छा नहीं करते हैं। तब युक्तिपूर्वक वे सभी निकाले गये, इस प्रकारकठोर की हुई रोटी से मणीराम, तिल के तेल से माधव, भूशय्या से विजयराम (और) धक्का-मुक्के से केशव निकाले गए। इस प्रकार सभी वृत्तान्त राजा के सामने कहा गया। राजा भी उसकी बुद्धि से अत्यन्त सन्तुष्ट हुआ। उपदेशचार दामाद के पराभव को सुनकर (तुम) ससुर के गृहवास में सम्मानपूर्वक ही बसो। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 115 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - कुम्मे 1. जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी नामं नयरी होत्था, तीसे णं वाणारसीए नयरीए बहिया उत्तर - पुरच्छिमे दिसिभागे गंगाए महानदीए मयंगतीरद्दहे नामं दहे होत्था, अणुपुव्व-सुजाय - वप्प- - गंभीर - सीयल-जले अच्छ-विमल-सलिल-पलिच्छन्ने 116 13 2. तत्थ णं बहूणं मच्छाण य कच्छपाण य गाहाण य मगराण य सुंसुमाराण य सइयाण य साहस्सियाण य सयसाहस्सियाण य जूहाई निब्भयाइं निरुव्विग्गाई सुहंसुहेणं अभिरममाणाइं अभिरममाणाइं विहरंति । 3. तस्स णं मयंगतीरद्दहस्स अदूरसामंते एत्थ णं महं एगे मालुया - कच्छए होत्था, तत्थ णं दुवे पावसियालगा परिवसंति - पावा चंडा रोद्दा तल्लिच्छा साहसिया लोहियपाणी आमिसत्थी आमिसाहारा आमिसप्पिया आमिसलोला आमिसं गेवसमाणा रत्तिं वियालचारिणो दिया पच्छन्नं चावि चिट्ठति । 4. तए णं ताओ मयंगतीरद्दहाओ अन्नया कयाइं सूरियंसि चिरत्थमि-यंसि लुलियाए संझाए पविरलमाणुसंसि णिसंतपडिणिसंतंसि समाणंसि दुवे प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ कूर्म 1. हे जंबू ! उस काल में (और) उस समय में वाणारसी नामक नगरी थी, उस वाणारसी नगरी के बाहर गंगा ( नामक ) महानदी के उत्तर-पूर्व दिशा भाग में मृतगंगातीरहृद नामक झील (जलाशय) था, (जिसके ) क्रमशः सुन्दर तट (थे)। जल ठण्डा व गहरा ( था ) ( तथा ) ( जिसमें ) स्वच्छ, निर्मल जल रोका हुआ ( था ) । 13 2. उसमें सैकड़ों, सहस्त्रों और लाखों अनेक ( प्रकार की ) मछलियों, कछुओं, घड़ियालों, मगरों के और ( सुंसुमार जाति के ) जलचर जीवों के (कई ) समूह भयरहित, उद्वेगरहित, प्रसन्नतापूर्वक एवं शान्तिपूर्वक रमते हुए तल्लीन होते हुए क्रीड़ा करते ( थे) । प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 3. उस मृतगंगातीरहृद के दूर नहीं ( किन्तु ) पास में यहाँ एक विस्तृत मालुकाकच्छ था। उसमें दो पापी श्रृंगाल रहते हैं (थे) । (वे) पापी, क्रोधी, रुद्र और खून के हाथवाले, (इष्ट वस्तु को प्राप्त करने में) तल्लीन, साहसी ( थे) । (वे) माँस के इच्छुक (थे), माँसाहारी, माँसप्रिय, ( एवं ) माँसलोलुप माँस को खोजते हुए रात्रि में, विकाल में घूमनेवाले थे। दिन में गुप्तरूप से चुपचाप ही रहते थे। 4. तत्पश्चात् किसी समय सूर्य के दीर्घकाल से अस्त होने पर सन्ध्या के समाप्त होने पर (रात्रि के समय ) शान्त, विश्रान्त, अहंकारी थोड़े मनुष्य होने 117 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुम्मगा आहारत्थी आहारं गवेसमाणा सणियं सणियं उत्तरंति। तस्सेव मयंगतीरद्दहस्स परिपेरंतेणं सव्वओ समंता परिघोलेमाणा परिघोलेमाणा वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति। 5. तयाणंतरं च णं ते पावसियालगा आहारत्थी जाव आहारं गवेसमाणा मालुयाकच्छयाओ पडिणिक्खमंति। पडिणिक्खमित्ता जेणेव मयंगतीरे दहे तेणेव उवागच्छंति। उवागच्छित्ता तस्सेव मयंगतीरद्दहस्स परिपेरंतेणं परिघोलेमाणा परिघोलेमाणा वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति। 6. तए णं ते पावसियाला ते कुम्मए पासंति, पासित्ता जेणेव ते कुम्मए तेणेव पहारेत्थ गमणाए। 7. तए णं ते कुम्मगा ते पावसियालए एज्जमाणे पासंति। पासित्ता भीता तत्था तसिया उव्विग्गा संजातभया हत्थे य पाए य गीवाओ य सएहिं सएहिं काएहिं साहरंति, साहरित्ता निच्चला निप्पंदा तुसिणीया संचिट्ठति। 8. तए णं ते पावसियालया जेणेव ते कुम्मगा तेणेव उवागच्छति। उवागच्छित्ता ते कुम्मगा सव्वओ समंता उव्वत्तेन्ति, परियत्तेन्ति, आसारेन्ति, संसारेन्ति, चालेन्ति, घट्टेन्ति, फंदेन्ति, खोभेन्ति, नहेहिं आलुंपंति, दंतेहि य अक्खोडेंति, नो चेव णं संचाएंति तेसिं कुम्मगाणं सरीरस्स आबाहं वा, पबाहं वा, वाबाहं वा उप्पाएत्तए छविच्छेयं वा करेत्तए। 9. तए णं ते पावसियालया एए कुम्मए दोच्चं पि तच्चंपि सव्वओ समंता उव्वत्तेति, जाव नो चेव णं संचाएंति करेत्तए। ताहे संता तंता 118 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर, आहार के इच्छुक, दो कछुए आहार को खोजते हए धीरे-धीरे बाहर निकलते (थे)। उस ही मृतगंगातीरहद की सीमा में सब ओर से चारों ओर फिरते हुए विचरण करते हुए निर्वाह के साधन को बनाते हुए गमन करते हैं (थे)। 5. और उसके पश्चात् आहार के इच्छुक वे पापी शृगाल आहार को खोजते हुए मालुकाकच्छ से बाहर निकलते हैं। बाहर निकलकर मृतगंगातीरहृद जिस तरफ था उस तरफ ही (उसके) समीप आते हैं। समीप आकर उस ही मृतगंगातीरहद की सीमा में घूमते हुए विचरण करते हुए, निर्वाह साधन बनाते हुए, गमन करते हैं। 6. तत्पश्चात् वे पापी सियार उन कछुओं को देखते हैं। देखकर जहाँ वे कछुए (हैं) वहाँ (उन्होंने) जाने के लिए निश्चय किया। 7. तत्पश्चात् वे कछुए उन पापी सियारों को आते हुए देखते हैं, देखकर (वे) आतंकित, डरे हुए त्रासित और घबराए हुए (थे)। उत्पन्न हुए भय के कारण वे हाथों को और पैरों और गर्दन को अपने-अपने शरीरों में छिपाते थे, छिपाकर निश्चल, स्थिर (और) मौन रहते थे। 8. तत्पश्चात् वे पापी सियार जहाँ वे कछुए (थे) वहाँ आते हैं। आकर उन कछुओं को सब तरफ से चारों तरफ से उलटा करते हैं, पलटते हैं, घुमाते हैं, हटाते हैं, चलाते हैं, हिलाते हैं, फरकाते हैं, लोटपोट करते हैं, नाखुनों से फाड़ते हैं, और दाँतों से खींचते हैं, परन्तु उन कछुओं के शरीर के लिए मानसिक पीड़ा या विशेष पीड़ा या सन्ताप उत्पन्न करने के लिए या चमड़ी छेदन करने के लिए (समर्थ नहीं हुए)। 9. तत्पश्चात् वे पापी सियार इन कछुओं को दो बार, तीन बार, सब ओर से, चारों तरफ से उलटा करते हैं, परन्तु (शरीर के लिए बाधा) करने के प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 119 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परितंता निम्विन्ना समाणा सणियं सणियं पच्चोसक्कंति, एगंतमवक्कमंति, निच्चला निप्फंदा तुसिणीया संचिट्ठति। 10. तत्थ णं एगे कुम्मए ते पावसियालए चिरंगए दूरगए जाणित्ता सणियं सणियं एगं पायं निच्छु भइ। तए णं ते पावसियालया तेणं कुम्मएणं सणियं सणियं एगं पायं नीणियं पासंति। पासित्ता ताए उक्किट्ठाए गईए सिग्धं चवलं तुरियं चंडं जइणं वेगिई जेणेव से कुम्मए तेणेव उवागच्छति। उवागच्छित्ता तस्स णं कुम्मगस्स तं पायं नखेहिं आलुंपंति दंतेहिं अक्खोडेंति, तओ पच्छा मंसं च सोणियं च आहारेंति, आहारित्ता तं कुम्मगं सव्वओ समंता उव्वत्तेति जाव नो चेव णं संचाइंति करेत्तए, ताहे दोच्चं पि अवक्कमंति, एवं चत्तारि वि पाया जाव सणियं सणियं गीवं णाणेइ। तए णं ते पावसियालया तेणं कुम्मएणं गीवं णीणियं पासंति, पासित्ता सिग्धं चवलं तुरियं चंडं नहेहिं दंतेहिं कवालं विहाडेंति, विहाडित्ता तं कुम्मगं जीवियाओ ववरोवेंति, ववरोवित्ता मंसं च सोणियं च आहारेंति। 11. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरियउवज्झायाणं अंतिए पव्वइए समाणे पंच य से इंदियाई अगुत्ताई भवंति, से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं सावगाणं साविगाणं हीलणिज्जे, परलोए वि य णं आगच्छइ बहूणि दंडणाणि जाव अणुपरियट्टइ, जहा कुम्मए अगुत्तिंदिए। 120 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए समर्थ नहीं होते हैं। तब थके हुए परेशान हुए अत्यन्त बैचेन हुए दुःखी, क्रोधी (शृगाल) धीरे-धीरे पीछे हटते हैं, एकान्त में जाते हैं। निश्चल, स्थिर, चुप ठहरते हैं। 10. वहाँ एक कछुआ उन पापी सियारों को दीर्घकाल व्यतीत होने पर दूर गया हुआ जानकर धीरे-धीरे एक पैर को बाहर निकालता है। तत्पश्चात् वे पापी सियार देखते हैं (कि) उस कछुए के द्वारा धीरे-धीरे एक पैर बाहर निकाला हुआ (है) (यह) देखकर उनके द्वारा उत्कृष्ट गति से (चला गया), और वे जल्दी से, स्फूर्तिपूर्वक, तेजी से, आवेशपूर्वक, वेगपूर्वक (और) शीघ्रता पूर्वक, जहाँ वह कछुआ था वहाँ समीप आते हैं। समीप आकर उस कछुए के उस पैर को नाखुनों से फाड़ते हैं, दाँतों से तोड़ते हैं। उसके बाद माँस और रक्त का भोजन करते हैं, भोजन करके उस कछुए को चारों तरफ से, सब तरफ से उलटा करते हैं तब भी (उस कछुए की चमड़ी का छेदन) करने के लिए नहीं समर्थ होते हैं। उस समय दूसरी बार भी (शृगाल) बाहर निकलते हैं (दूर जाते हैं) (इसी प्रकार) तब चारों पैर (विदीर्ण किये जाते हैं) (कुछ देर बाद कछुआ) धीरे-धीरे गर्दन बाहर निकालता है। तत्पश्चात् वे पापी सियार उस कछुए के द्वारा बाहर निकाली गई गर्दन को देखते हैं। देखकर जल्दी से, स्फूर्तिपूर्वक, तेजी से, आवेशपूर्वक दाँतों से, नाखुनों से कपाल अलग करते हैं। अलग करके उस कछुए को जीवन से रहित करते हैं जीवन रहित करके माँस और रुधिर का आहार करते हैं। 11. इसी प्रकार हे आयुष्मान श्रमण! जो हमारे निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी आचार्य और उपाध्याय के समीप उपस्थित होते हुए दीक्षित हुआ (है) उसकी पाँचों इन्द्रियाँ असंयमित होती है तो वह इस ही भव में बहुत साधुओं द्वारा बहुत श्रमणियों द्वारा, श्रावकों द्वारा श्राविकाओं द्वारा अवज्ञा करने योग्य होते हैं परलोक में भी बहुत दण्ड पाते हैं और वह (संसार में) परिभ्रमण करता हैं। जैसे इन्द्रियों का गोपन (संयम) नहीं करनेवाला कछुआ (मृत्यु को प्राप्त हुआ)। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 121 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. तए णं ते पावसियालया जेणेव से दोच्चए कुम्मए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तं कुम्मयं सव्वओ समंता उव्वत्तेति जाव दंतेहिं अक्खुडंति जाव करित्तए। 13. तए णं ते पावसियालया दोच्चं पि तच्चं पि जाव नो संचाएंति तस्स कुम्मगरस्स किंचि आबाहं वा पबाहं वा विबाहं वा जाव (उप्पाएत्तए) छविच्छेयं वा करित्तए, ताहे संता तंता परितंता निव्विन्ना समाणा जामेव दिसिं पाउब्भूआ तामेव दिसिं पडिगया। 14. तए णं से कुम्मए ते पावसियालए चिरंगए दूरगए जाणित्ता सणियं सणियं गीवं नेणेइ, नेणित्ता दिसावलोयं करेइ, करित्ता जमगसमगं चत्तारि वि पाए नीणेइ, नीणेत्ता ताए उक्किट्ठाए कुम्मगईए वीइवयमाणे वीइवयमाणे जेणेव मयंगतीरद्दहे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छिता मित्त-नाइनियग-सयण-संबंधि-परियणेणं सद्धिं अभिसमन्नागए यावि होत्था। 15. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं समणो वा समणी वा आयरियउवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे पंच से इंदियाई गुत्ताई भवंति, जाव से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं साविगाण य अच्चणिज्जे वंदणिज्जे नमंसणिज्जे पूयणिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएण पज्जुवासणिज्जे भवइ। 122 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. तत्पश्चात् वे पापी सियार, जहाँ वह दूसरा कछुआ था वहाँ पहुँचे। पहुँचकर उस कछुए को सब दिशाओं में चारों तरफ से उलटा करते हैं, जब तक दाँतों से टूटते नहीं है। किन्तु (ऐसा) करने के लिए (समर्थ नहीं हुए)। 13. तत्पश्चात् वे पापी सियार दूसरी बार और तीसरी बार (दूर चले गए) किन्तु उस कछुए के लिए थोड़ी भी मानसिक पीड़ा अथवा विशेष पीड़ा या सन्ताप उत्पन्न करने के लिए तथा उसकी चमड़ी छेदन करने के लिए (समर्थ नहीं हो सके)। तब (वे) थके हुए, परेशान, अत्यन्त बैचेन हुए, दुःखी होते हुए जिस दिशा में प्रकट हुए थे उसी दिशा को लौट गए। 14. बहुत समय बीतने पर तत्पश्चात् वह कछुआ उन पापी सियारों को दूर गया हुआ जानकर धीरे-धीरे गर्दन को बाहर निकालता है। (गर्दन) बाहर निकालकर सब दिशाओं में अवलोकन करता है। (अवलोकन) करके एक साथ चारों पैरों को भी बाहर निकालता है। तब (पैरों को) बाहर निकालकर उत्कृष्ट कूर्मगति से दौड़ते-दौड़ते जहाँ मृतगंगातीरहृद नामक हृद था, वहाँ पहुँचता है, और पहुँचकर (उसे) मित्र, समान जाति, आत्मीय स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों का साथ प्राप्त हुआ। 15. हे आयुष्मान श्रमण! इसी प्रकार हमारा जो श्रमण या श्रमणी आचार्य या उपाध्यायों के निकट मुण्डित होकर गृहस्थ से मुनि (धर्म) दीक्षित हआ उसकी (कछुए के) समान पाँचों इन्द्रियाँ संयमित होती हैं। वह इस भव में ही बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों, और बहुत श्राविकाओं द्वारा पूजा करने योग्य, वन्दना करने योग्य, नमन करने योग्य, अर्चना करने योग्य, सत्कार करने योग्य (तथा) सम्मान करने योग्य (होता है) (वह) कल्याण, (है) मंगल, (है) देव, (है) जिनमन्दिर (है) (तथा) विनयपूर्वक उपासना करने योग्य होता है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 123 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषण एवं शब्दार्थ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत-सूची भूक अक -अकर्मक क्रिया अनि -अनियमित आज्ञा -आज्ञा कर्म -कर्मवाच्य क्रिविअ -क्रिया विशेषण अव्यय प्रे -प्रेरणार्थक क्रिया भवि -भविष्यत्काल भाव -भाववाच्य -भूतकाल -भूतकालिक कृदन्त व -वर्तमानकाल वकृ -वर्तमानकृदन्त वि -विशेषण विधि -विधि विधिकृ -विधि कृदन्त स -सर्वनाम संकृ . -सम्बन्धक कृदन्त सक -सकर्मक क्रिया सवि -सर्वनाम विशेषण स्त्री -स्त्रीलिंग स्वा -स्वार्थिक • ( ) - इस प्रकार के कोष्ठक में मूल शब्द रखा गया है। • [( )+( )...] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर+चिह्न शब्दों में सन्धि का द्योतक है। यहाँ अन्दर के कोष्ठकों में मूल शब्द ही रखे गए हैं। • [( )-( )-( )...] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर :-' चिह्न समास का द्योतक है। • [[( )-( )-( )...] वि] जहाँ समस्तपद विशेषण का कार्य करता है वहाँ इस प्रकार के कोष्ठक का प्रयोग किया गया है। • जहाँ कोष्ठक के बाहर केवल संख्या (जैसे 1/1, 2/1 आदि) ही लिखी है वहाँ उस कोष्ठक के अन्दर का शब्द 'संज्ञा' है। • जहाँ कर्मवाच्य, कृदन्त आदि प्राकृत के नियमानुसार नहीं बने हैं वहाँ कोष्ठक के बाहर ‘अनि' भी लिखा गया है। 1/1 अक या सक- उत्तम पुरुष/एकवचन 1/2 अक या सक- उत्तम पुरुष/एकवचन प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 125 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेकृ -हेत्वर्थक कृदन्त तुवि -तुलनात्मक विशेषण 2/1 अक या सक-मध्यम पुरुष/एकवचन 2/2 अक या सक-मध्यम पुरुष/बहुवचन 3/1 अक या सक- अन्य पुरुष/एकवचन 3/2 अक या सक- अन्य पुरुष/बहुवचन ___4/1- चतुर्थी/एकवचन 4/2- चतुर्थी/बहुवचन 5/1- पंचमी/एकवचन 5/2- पंचमी/बहुवचन 6/1- षष्ठी/एकवचन 6/2- षष्ठी/बहुवचन 7/1- सप्तमी/एकवचन 7/2- सप्तमी/बहुवचन 8/1- सम्बोधन/एकवचन 8/2- सम्बोधन/बहुवचन 1/1- प्रथमा/एकवचन 1/2- प्रथमा/बहुवचन 2/1- द्वितीया/एकवचन 2/2- द्वितीया/बहुवचन 3/1- तृतीया/एकवचन 3/2- तृतीया/बहुवचन 126 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-1 मंगलाचरण 1. नमस्कार णमो अरहताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो अव्यय (अरहत) 4/2 अव्यय (सिद्ध) 4/2 अव्यय (आयरिय) 4/2 अव्यय (उवज्झाय) 4/2 अव्यय (लोअ) 7/1 [(सव्व) वि-(साहु) 4/2] अरहंतों को नमस्कार सिद्धों को नमस्कार आचार्यों को नमस्कार उपाध्यायों को उवज्झायाणं' णमो लोए सव्वसाहूणं नमस्कार लोक में सब साधुओं को 2. यह एसो पंचणमोकारो सव्वपावप्पणासणो पंच-नमस्कार (एत) 1/1 सवि [(पंच) वि-(णमोक्कार) 1/1] [(सव्व) वि-(पाव)-(प्पणासण) 1/1 वि] (मंगल) 6/2 अव्यय (सव्व) 6/2 सवि (पढम) 1/1 वि मंगलाणं सब पापों का नाश करनेवाला मंगलों में और सभी सव्वेर्सि पढम प्रथम होता है हवइ (हव) व 3/1 अक 1. 2. ‘णमो' के योग में चतुर्थी होती है। जिस समुदाय में से एक छाँटा जाता है उस समुदाय में षष्ठी अथवा सप्तमी होती है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 127 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (मंगल) 1/1 मंगल मंगलं 3-5. अरहंता अरहंत मंगल मंगलं सिद्धा मंगलं सिद्ध मंगल साहू साधु मंगल केवली द्वारा उपदिष्ट मंगलं केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं धर्म मंगल अरहंता अरहंत लोक में उत्तम लोगुत्तमा सिद्ध सिद्धा लोगुत्तमा (अरहंत) 1/2 (मंगल) 1/1 (सिद्ध) 1/2 (मंगल) 1/1 (साहु) 1/2 (मंगल) 1/1 [(केवलि)-(पण्णत्त) भूक 1/1 अनि] (धम्म) 1/1 (मंलग) 1/1 (अरहत) 1/2 [(लोग)+(उत्तमा)] [(लोग)-(उत्तम) 1/2 वि] (सिद्ध) 1/2 [(लोग) + (उत्तमा)] [(लोग)-(उत्तम) 1/2 वि] (साहु) 1/2 [(लोग) + (उत्तमा)] [(लोग)-(उत्तम) 1/2 वि] [(केवलि)-(पण्णत) भूकृ 1/1 अनि] (धम्म) 1/1 [(लोग) + (उत्तमो)] [(लोग)-(उत्तम) 1/1 वि] (अरहंत) 2/2 (सरण) 2/1 (पव्वज्ज) व 1/1 सक (सिद्ध) 2/2 (सरण) 2/1 लोक में उत्तम साधु साहू लोगुत्तमा केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो लोक में उत्तम केवली द्वारा उपदिष्ट धर्म अरहते सरणं पव्वज्जामि सिद्धे सरणं लोक में उत्तम अरहंतों की शरण में जाता हूँ सिद्धों की शरण में 1. 'जाना' अर्थवाली क्रियाओं के साथ द्वितीया होती है। 128 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पव्वज्जामि साहू सरणं पव्वज्जामि केवलिपण्णत्तं (पव्वज्ज) व 1/1 सक (साहु) 2/2 (सरण) 2/1 (पव्वज्ज) व 1/1 सक [(केवलि)-(पण्णत्त) भूक 2/1 अनि] (धम्म) 2/1 (सरण) 2/1 (पव्वज्ज) व 1/1 सक जाता हूँ साधुओं की शरण में जाता हूँ केवली द्वारा उपदिष्ट धर्म की शरण में जाता हूँ धम्म सरणं पव्वज्जामि 6. पंच वि झायहि (झाय') विधि 2/1 सक ध्यान करो (ध्याओ) (पंच) 2/2 वि पाँच अव्यय गुरवे (गुरव) 2/2 गुरुओं (को) मंगलचउसरणलोयपरियरिए [(मंगल) वि-(चउसरण) वि कल्याणकारी, चार (लोय)-(परियर) भूकृ 2/2] (प्रकार की) शरण देनेवाले, लोक को विभूषित किये हुए णर-सुर-खेयर-महिए [(णर)-(सुर)-(खेयर)- (मह) भूक 2/2] मनुष्यों, देवताओं तथा विद्याधरों द्वारा पूजित आराहणणायगे [(आराहण)-(णायग') 2/2] आराधना के लिए श्रेष्ठ (वीर) 2/2 वि वीर वीरे 7. घणघाइकम्ममहणा तिहुवणवरभव्वकमलमत्तंडा [(घण) वि-(घाइकम्म)-(महण) 1/2 वि] प्रगाढ़ घातीकर्मों के विनाशक (तिहुवण)-(वर')-(भव्व) त्रिभुवन में विद्यमान (कमल)-(मत्तंड) 1/2 मुक्तिगामी जीवरूपी कमलों के लिए सूर्यरूपी (अरिह) 1/2 अरहंत अरिहा झा-झाय (अकारान्त धातुओं के अतिरिक्त अन्य) स्वरान्त धातुओं में विकल्प से अ (य) जोड़ा जाता है। परिकृ-परिकर-परियर-परियरिअ-परियरिए (भूक 2/2) परिकृ (परिकर परियर-विभूषित करना)। यहाँ ‘णायग' विशेषण की तरह प्रयुक्त है, कोशों में इसे संज्ञा बताया गया है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्तज्ञानी अणंतणाणी अणुवमसोक्खा जयंतु (अणंतणाणि) 1/2 वि [(अणुवम) वि-(सोक्ख) 1/2 वि] (जय) विधि 3/2 अक (जअ) 7/1 अनुपम सुख जयवन्त हों जगत में जए अट्ठविहकम्मवियला आठ प्रकार के कर्मों से रहित णिट्ठियकज्जा पणट्ठसंसारा दिट्ठसयलत्थसारा [(अट्ठविह) वि-(कम्म)-(वियल) 1/2 वि] [(णिट्ठिय) भूकृ अनि-(कज्ज) 1/2] [(पणट्ठ) भूकृ अनि-(संसार) 1/2] [(दिट्ठ)+ (सयल)+(अत्थ) + (सारा)] [(दिट्ठ) भूकृ अनि-(सयल) वि (अत्थ)-(सार) 1/2] (सिद्ध) 1/2 (सिद्धि) 2/1 (अम्ह) 4/1 स (दिस) विधि 3/2 सक प्रयोजन पूर्ण किए हुए संसार नष्ट किया हुआ समग्र तत्त्वों के सार जाने गये सिद्धा सिद्धिं सिद्ध निर्वाण (मार्ग) को मेरे लिए दिखलावें मम दिसंतु पंचमहव्वयतुंगा [(पंच) वि-(महव्वय)-(तुंग) 1/2 वि] पाँच महाव्रतों से उन्नत तक्कालिय-सपरसमयसुदधारा [(त) सवि-(क्कालिय) वि-(स) वि- समकालीन स्व-पर (पर) वि-(समय)-(सुद)-(धार) 1/2 वि] सिद्धान्त के श्रुत को धारण करनेवाले णाणागुणगणभरिया [(णाणा') वि-(गुण)-(गण)-(भर) अनेक प्रकार के गुण-समूह भूकृ 1/2] से पूर्ण आइरिया (आइरिय) 1/2 आचार्य (अम्ह) 4/1 स मेरे लिए पसीदंतु (पसीद) विधि 3/2 अक मंगलप्रद हों 10. अण्णाणघोरतिमिरे [(अण्णाण) वि-(घोर) वि-(तिमिर) 7/1] अज्ञानरूपी घने अन्धकार में 1. वरम् (अ)-वर= यह उस वाक्य खण्ड के साथ प्रयुक्त होता है जिसमें अपेक्षित वस्तु विद्यमान है। (संस्कृत हिन्दी कोश) समास के आरम्भ में विशेषण के रूप में प्रयोग होता है। (संस्कृत-हिन्दी कोश) मम 130 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुरंततीरम्हि हिंडमाणाणं भवियाणुज्जोययरा कठिन, छोर पर भ्रमण करते हुए (के लिए) संसारी (जीवों) के लिए प्रकाश को करनेवाले [(दुरंत) वि-(तीर) 7/1] (हिंड) वकृ 4/2 [(भवियाण)+ (उज्जोययरा)] भवियाण (भविय) 4/2 वि उज्जोययरा (उज्जोययर) 1/2 वि (उवज्झाय) 1/2 [(वर) वि-(मदि) 2/1] (दा) विधि 3/2 सक उवज्झाया वरमदि उपाध्याय श्रेष्ठ मति प्रदान करें दंतु 11. थिरधरियसीलमाला शीलरूपी मालाएँ दृढ़तापूर्वक धारण की गई राग दूर किये गये यश-समूह से पूर्ण ववगयराया जसोहपडिहत्था बहुविणयभूसियंगा [(थिर')-(धरिय) भूकृ-(सील)(माला) 1/2] [(ववगय) वि-(राय) 1/2] [(जस)-(ओह) + (पडिहत्था)] [(जस)-(ओह)-(पडिहत्थ) 1/2] [(बहु) + (विणय) + (भूसिय) +(अंगा)] [(बहु) वि-(विणय)(भूसिय) भूक-(अंग) 1/2] (सुह) 2/2 (साहु) 1/2 (पयच्छ) विधि 3/2 सक प्रचुर विनय से अलंकृत हुए शरीर के अंग सुख सुहाई साहू पयच्छंतु साधु प्रदान करें 12. अरिहंत अरिहंता असरीरा अशरीर आयरिया (अरिहंत) 1/2 (असरीर) 1/2 (आयरिय) 1/2 (उवज्झाय) मूलशब्द 1/2 (मुणि) 1/2 आचार्य उपाध्याय उवज्झाय' मुणिणो मुनि 2. थिर (क्रिविअ)= दृढ़तापूर्वक, थिर-थिर, यहाँ अनुस्वार का लोप हुआ है। कर्ताकारक के स्थान में केवल मूल संज्ञाशब्द भी काम में लाया जा सकता है। (पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 518) प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 131 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचक्खरनिप्पण्णो पाँच अक्षरों से निकला हुआ ओंकारो [(पंच)+(अक्खर) + (निप्पण्णो)] [(पंच) वि-(अक्खर)-(निप्पण्ण) भूक 1/1 अनि] (ओंकार) 1/1 (पंच) 1/2 वि (परमिट्टी) 1/2 पंच परमिट्ठी ओम् पंच परमेष्ठी 13. अरहंतभासियत्थं अरहंत द्वारा प्रतिपादित अर्थ गणहरदेवेहिं गंथियं सम्म पणमामि भत्तिजुत्तो सुदणाणमहोदहिं सिरसा [(अरहंत) + (भासिय)+ (अत्थं)] [(अरहंत)-(भासिय)-भूकृ(अत्थ) 1/1] [(गणहर)-(देव) 3/2] (गंथ) भूकृ 1/1 अव्यय (पणम) व 1/1 सक [(भत्ति)-(जुत्त) 1/1 वि [(सुद)-(णाण)-(महोदहि) 2/1] (सिर) 3/1 अनि गणधर देवों द्वारा रचा हुआ भली प्रकार से प्रणाम करता हूँ भक्ति-सहित श्रुत ज्ञानरूपी महासमुद्र को सिर से Tuloksellel. 14. ससमय-परसमयविऊ स्व-सिद्धान्त तथा परसिद्धान्त का ज्ञाता गम्भीर गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो गुणसयकलिओ जुत्तो पवयणसारं परिकहे [(स) वि-(समय)-(पर) वि(समय)-(विउ) 1/1 वि] (गंभीर) 1/1 वि (दित्तिम) 1/1 वि (सिव) 1/1 वि (सोम) 1/ वि [(गुण)-(सय) वि-(कल) भूकृ 1/1] (जुत्त) 1/1 वि (पवयण)-(सार) 2/1 (परिकह) हेक आभायुक्त कल्याणकारी सौम्य सैकड़ों गुणों से युक्त योग्य सिद्धान्त के सार को कहने के लिए 1. अकर्मक क्रिया से बना होने के कारण कर्तृवाच्य में प्रयुक्त। 132 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-2 समणसुत्तं अव्यय खूब अच्छी प्रकार से भी वि मग्गिज्जंतो अव्यय (मग्ग) कर्म वकृ. 1/1 अव्यय कत्थवि खोजे जाते हुए कहीं केले के पेड़ में (केली) 7/1 केली नत्थि अव्यय नहीं अव्यय जह सारो इंदिअविसएसु (सार) 1/1 [(इंदिअ)-(विसअ) 7/2] | अव्यय जैसे सार इन्द्रिय-विषयों में वैसे ही तहा नत्थि अव्यय नहीं (सुह) 1/1 अव्यय सुख खूब अच्छी तरह से यद्यपि खोजा हुआ अव्यय गवि, (गविट्ठ) भूकृ 1/1 अनि 2. जैसे खाज रोगवाला खाज को जह कच्छुल्लो कच्छु कंडूयमाणो दुहं मुणइ सुक्खं अव्यय (कच्छुल्ल) 1/1 वि (कच्छु) 2/1 (कंडूय) वकृ 1/1 (दुह) 2/1 (मुण) व 3/1 सक (सुक्ख ) 2/1 खुजाता हुआ दुःख को मानता है सुख प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 133 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहाउरा मोह से पीड़ित मणुस्सा तह [(मोह)+ (आउरा)] [(मोह)(आउर) 1/2 वि] (मणुस्स) 1/2 अव्यय [(काम)-(दुह) 2/1] (सुह) 2/1 (बू) व 3/2 सक मनुष्य वैसे ही इच्छा (से उत्पन्न) दुःख को कामदुहं सुहं बिंति कहते हैं 3. कम्म चिणंति कर्म को चुनते हैं। स्वाधीन सवसा तस्सुदयम्मि उसके, विपाक में परव्वसा होंति रुक्खं (कम्म) 2/1 (चिण) व 3/2 सक (सवस) 1/2 वि [(तस्स) + (उदयम्मि)] तस्स (त) 6/1 सवि उदयम्मि (उदय) 7/1 अव्यय (परव्वस) 1/2 वि (हो) व 3/2 अक (रुक्ख ) 2/1 (दुरुह) व 3/1 सक (सवस) 1/1 वि (विगल) व 3/1 अक (त) 1/1 स (परव्वस) 1/1 वि (त) 5/1 सवि पराधीन होते हैं पेड़ पर चढ़ता है स्वाधीन गिरता है दुरुहइ सवसो विगलइ वह पराधीन परव्वसो तत्तो उससे A. कम्मवसा खलु जीवा जीववसाई कहिंचि [(कम्म)-(वस) 1/2 वि] अव्यय (जीव) 1/2 [(जीव)-(वस) 1/2 वि अव्यय कर्मों के अधीन पादपूर्ति के लिए प्रयुक्त जीव जीवों के अधीन कहीं 134 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्माई कत्थइ धणिओ बलवं' धारणिओ कत्थई ' बलवं' 5. भावे' विरत्तो मणुओ विसोगो एएण दुक्खोहपरंपरेण न लिप्पई ' भवमज्झे वि संतो जलेण वा पोक्खरिणीपलासं 1. 2. 3. प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ (कम्म) 1/2 अव्यय ( धणिओ) 1 / 1 वि ( बलवं) 1 / 1 वि अनि ( धारणिअ) 1 / 1 वि अव्यय ( बलवं) 1 / 1 वि अनि (भाव) 7/1 (वित्त ) 1 / 1 वि ( मणुअ ) 1/1 ( विसोग ) 1 / 1 वि (अ) 3 / 1 सवि [(दुक्ख ) + (ओह) + (परंपरेण ) ] [(दुक्ख) - (ओह) - (परंपर) 3 / 1 ] अव्यय (लिप्पइ) व कर्म 3 / 1 सक अनि [ ( भव) - (मज्झ ) 7 / 1] अव्यय (संत) 1 / 1 वि (जल) 3 / 1 अव्यय [ ( पोक्खरिणी) - (पलास ) 1 / 1 ] कर्म कहीं धनिक ( साहूकार ) बलवान कर्जदार कहीं बलवान वस्तु-जगत से विरक्त मनुष्य दुःख इस (से) की अविच्छिन्न बलवत्→बलवान्→बलवं । (अभिनव प्राकृति व्याकरण, पृष्ठ 427 ) (पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 572) छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'इ' को 'ई' किया गया है। पंचमी विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-136) दुःख- समूह धारा से नहीं लीपा जाता है (मलिन किया जाता है) संसार के मध्य में भी विद्यमान जल से जैसे कि कमलिनी का पत्ता 135 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म धम्मो मंगलमुक्किट्ठ कल्याण, सर्वोच्च अहिंसा संयम अहिंसा संजमो तवो देवा तप (धम्म) 1/1 [(मंगल)+ (उक्किट्ठ)] मंगलं (मंगल) 1/1 वि उक्किट्ठ (उक्किट्ठ) 1/1 वि (अहिंसा) 1/1 (संजम) 1/1 (तव) 1/1 (देव) 1/2 अव्यय (त) 2/1 स (नमंस) व 3/2 सक (ज) 6/1 स (धम्म) 7/1 अव्यय वि तं नमसंति जस्स धम्मे उसको नमस्कार करते हैं जिसका धर्म में सया सदा मणो (मण) 1/1 मन पिए भोए (ज) 1/1 स अव्यय और (कंत) 2/2 वि मनोहर (को) (पिअ) 2/2 वि प्रिय (को) (भोअ) 2/2 भोगों को लद्धे (लद्ध) भूक 2/2 अनि प्राप्त किये गये विपिट्ठिकुव्वइ [(विपिट्ठ') मूलशब्द 2/1 पीठ, करता है कुव्वइ (कुव्व) व 3/1 सक] साहीणे [(स)+ (अहीणे) स्व-अधीन (को) (स)-(अहीण) 2/2 वि] चयइ (चय) व 3/1 सक छोड़ता है (भोअ) 2/2 भोगों को 1. किसी भी कारक में मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जाता है। (पिशल प्राकृत भाषा व्याकरण, पृष्ठ 517) यह नियम विशेषण पर भी लागू किया जा सकता है। भोए 136 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हु चाइ त्ति वुच्चई ' 8. जा 55 जा वज्जई 2 रयणी न सा 124 पडिनियत्तई ' अहम्म कुणमाणस्स अफला जन्ति राइओ' 9. जो सहस्स सहस्साणं 1. 2. 3. 4. 5. (त) 1 / 1 सवि अव्यय (चाइ) मूलशब्द 1 / 1 वि अव्यय ( वुच्चर) व कर्म 3 / 1 सक अनि प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ (जा) 1 / 1 सवि (जा) 1 / 1 सवि ( वज्ज) व 3 / 1 अक ( रयणी) 1 / 1 अव्यय (ता) 1 / 1 स ( पडिनियत्त ) व 3 / 1 अक ( अहम्म) 2 / 1 (कुण ) वकृ 6 / 1 (अफल ) 1/2 वि (जा) व 3 / 2 अक ( राइ) 1 / 2 (जा) 1 / 1 स ( सहस्स) 2 / 1 वि (सहस्स) 6 / 2 वि वह ही त्यागी इस प्रकार कहा जाता है जो बीतती है रात्र नहीं वह लौटती है अधर्म करते हुए की व्यर्थ किसी भी कारक में मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जाता है। (पिशल प्राकृत भाषा व्याकरण, पृष्ठ 517 ) यह नियम विशेषण पर भी लागू किया जा सकता है। जाती हैं ( होती हैं) रात्रियाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'इ' को 'ई' किया गया है। दीर्घ स्वर के आगे यदि संयुक्त अक्षर हो तो उस दीर्घ स्वर का ह्रस्व स्वर हो जाता है, जान्तिजन्ति (हेम प्राकृत व्याकरण 1-84 ) विभक्ति जुड़ते समय दीर्घ स्वर बहुधा कविता में ह्रस्व हो जाते हैं (पिशल, प्राकृत भाषा व्याकरण, पृष्ठ 182 ) कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण, 3-134 ) जो हजारों को हजारों के द्वारा 137 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगामे दुज्जए जिणे' एगं जिणेज्ज अप्पाणं एस परमो जओ 10. अप्पा चेव दमेयव्वो अप्पा हु God खलु दु अप्पा दंतो सुही होइ अस्सिं लोए परत्थ य 11. अणथोवं 1: 138 ( संगाम) 7/1 (दुज्जअ ) 7/1 वि ( जिण) व 3 / 1 सक (एग ) 2 / 1 वि (जिण) व 3 / 1 सक (अप्पाण) 2/1 ( एत) 1 / 1 सवि (त) 6/1 स (परम) 1 / 1 वि (जअ ) 1 / 1 ( अप्प ) 1 / 1 अव्यय (दम) विधि 1 / 1 ( अप्प ) 1 / 1 अव्यय अव्यय (दुद्दम) 1 / 1 वि ( अप्प ) 1 / 1 (दंत) भूकृ 1 / 1 अनि (हि) 1/1 (हो) व 3 / 1 अक (इम) 7/1 सवि (लोअ) 7/1 अव्यय अव्यय [(अण) 1 - (थोव) ] (अण) 1 / 1 थोवं (अ) पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ-676 संग्राम में कठिनाई से जीते जानेवाले जीतता है एक जीतता है स्व को यह उसकी परम विजय आत्मा ही वश में किया जाना चाहिए आत्मा Fic ही tic सचमुच कठिनाईपूर्वक आत्मा वश में किया हुआ सुखी होता है इस (में) लोक में परलोक में और ऋण, थोड़ा सा प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वणथोवं अग्गीथोवं कसायथोवं [(वण)'-(थोवं)] (वण) 1/1 थोवं (अ) [(अग्गी) 1/1-थोवं (अ)] [(कसाय)' 1/1-थोवं (अ)] अव्यय घाव, थोड़ा सा अग्नि, थोड़ी सी कषाय, थोड़ी सी और __ अव्यय नहीं अव्यय (तुम्ह) 3/1 स (वीसस) विधिकृ 1/1 वीससियव्वं तुम्हारे द्वारा विश्वास किये जाने योग्य थोड़ा सा थोवं अव्यय अव्यय अव्यय क्योंकि 2. GON (त) 1/1 स वह अव्यय (हो) व 3/1 अक बहुत होता है 12. माणो कपट कोहो (कोह) 1/1 क्रोध पीई (पीइ) 2/1 प्रेम को पणासेड़ (पणास) व 3/1 सक नष्ट करता है (माण) 1/1 अहंकार विणयनासणो [(विणय)-(नासण) 1/1 वि] विनय का नाशक माया (माया) 1/1 मित्ताणि (मित्त) 2/2 मित्रों को नासेइ (नास) व 3/1 सक नाश करता है (दूर हटाता है) (लोह) 1/1 कर्ताकारक के स्थान में केवल मूल संज्ञाशब्द भी काम में लाया जा सकता है। (पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ-518) छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु अग्गि को ‘अग्गी' किया गया है। यदि एक वाक्य में पुलिंग, स्त्रीलिंग, नपुंसकलिंग शब्द हैं तो सर्वनाम नपुंसक लिंग के अनुसार होगा। लोभ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 139 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वविणासणो [(सव्व) वि-(विणासण) 1/1 वि] सब (गुणों) का विनाशक 13. उवसमेण हणे कोहं माणं क्षमा से नष्ट करें क्रोध को मान को मद्दवया जिणे (उवसम) 3/1 (हण) विधि 3/1 सक (कोह) 2/1 (माण) 2/1 (मद्दव) स्वार्थिक 'य' 5/1 (जिण) विधि 3/1 सक (माया) 2/1 [(च)+ (अज्जव)+(भावेण)] च (अ)=और [(अज्जव)-(भाव) 3/1] (लोभ) 2/1 संतोसओ' (संतोस) 5/1 (जिण) विधि 3/1 सक विनय से जीते कपट को और, सरलता से मायं चऽज्जवभावेण लोभं संतोसओ जिणे लोभ को संतोष से जीते 14. जहा जिस प्रकार कुम्मे कछुआ अपने अंगों को अव्यय (कुम्म) 1/1 [(स) वि-(अंग) 2/2] (स) स्वार्थिक 'अ' प्रत्यय 7/1 (देह) 7/1 (समाहर) व 3/1 सक सअंगाई सए देहे समाहरे अपने शरीर में एकत्र करता है (समेट लेता है) इसी प्रकार से पापों को एवं अव्यय मेधावी पावाई मेहावी अज्झप्पेण समाहरे (पाव) 2/2 (मेहावि) 1/1 वि (अज्झप्प) 3/1 (समाहर) व 3/1 सक अध्यात्म के द्वारा समेट लेता है संतोसाओ-संतोसओ, विभक्ति जुड़ते समय दीर्घ स्वर बहुधा कविता में ह्रस्व हो जाते हैं। (पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 182)। 140 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. से जाणमजाणं वा कहुँ आहम्मिअं पयं संवरे खिप्पमप्पाणं बीयं 21. न समायरे 16. जे 15 ममाइय-मतिं जहाति ममाइयं से हु दिपहे hea मुणी ཝཱ जस्स नत्थि ममाइयं 1. 2. प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ (त) 1 / 1 स [ ( जाणं) + (अजाणं)] जाणं (क्रिविअ ) अजाणं (क्रिविअ ) अव्यय अव्यय (आहम्मिअ ) 2 / 1 वि ( पय) 2 / 1 ( संवर) विधि 3 / 1 सक [(खिप्पं)+(अप्पाणं)] खिप्पं (अ) अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 अव्यय (त) 2 / 1 स अव्यय ( समायर) विधि 3 / 1 सक छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'इ' को 'ई' किया गया है। यहाँ अनुस्वार का आगम हुआ है। (ज) 1 / 1 स [(ममाइय) वि- (मति) 2 / 1 ] (जहा) व 3 / 1 सक (ममाइय) 2 / 1 वि (त) 1 / 1 स अव्यय [(दिट्ठ) भूक अनि - (पह) 1 / 1 ] (for) 1/1 (ज) 4 / 1 स अव्यय (ममाइय) 1 / 1 वि वह पूर्व अज्ञानपूर्वक अथवा करके अनुचित कार्य को रोके तुरन्त अपने को दूसरी बार उसको नहीं करे जो ममतावाली वस्तु-बुद्धि को छोड़ता है ममतावाली वस्तु को वह ही जाना गया, पथ ज्ञानी जिसके लिए नहीं ममतावाली वस्तु 141 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. सव्वगंथविमुक्को सर्व परिग्रह से रहित शान्त सीईभूओ पसंतचित्तो प्रसन्नचित्त और जिस पाव [(सव्य)-(गंथ)-(विमुक्क) भूकृ 1/1 अनि] (सीईभूअ) भूकृ 1/1 अनि [(पसंत) भूक अनि-(चित्त) 1/1] अव्यय (ज) 2/1 सवि (पाव) व 3/1 सक [(मुत्ति)-(सुह) 2/1] अव्यय (चक्कवट्टि) 1/1 अव्यय (त) 2/1 स (लह) व 3/1 सक पाता है मुक्तिसुख को मुत्तिसुहं नहीं चक्कवट्टी चक्रवर्ती भी उसको पाता है लहइ 18. सव्वे (सव्व) 1/2 सवि सब जीवा (जीव) 1/2 जीव वि अव्यय इच्छति जीवि मरिज्जि तम्हा पाणवहं (इच्छ) व 3/2 सक इच्छा करते हैं (जीव) हे जीने के लिए (जीने की) अव्यय नहीं (मर) हेकृ मरने के लिए (मरने की) अव्यय इसलिए [(पाण)-(वह) 2/1] प्राणवध का (को) (घोर) 2/1 वि पीड़ादायक शीतीभत-शीतीभूत-सीईभूअ। (Monier William Sanskrit, Eng. Dict.) (P. 1078, Col. 2) Tranquillised इच्छार्थक धातुओं के साथ हेत्वर्थ कृदन्त का प्रयोग होता है।। 'मर' क्रिया में 'ज्ज' प्रत्यय लगाने पर अन्त्य 'अ' का 'इ' होने से मरिज्ज बना और इसमें हेत्वर्थक कृदन्त के उं प्रत्यय को जोड़ने से पूर्ववर्ती 'अ' को 'ई' होने के कारण 'मरिज्जिउं' बना है। इसका अर्थ 'मरिउं' की तरह होगा। घोरं 142 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निग्गंथा वज्जयंति (निग्गंथ) 1/2 (वज्जयंति) व 3/2 सक अनि (त) 2/1 सवि संयत परित्याग करते हैं ण उस DO अव्यय तुम्हारे लिए नहीं प्रिय पिअं दुक्खं दुःख जानकर जाणि एमेव सव्वजीवाणं सव्वायरमुवउत्तो (तुम्ह) 4/1 स अव्यय (पिअ) 1/1 वि (दुक्ख) 1/1 (जाण) संकृ अव्यय [(सव्व) सवि-(जीव) 4/2] [(सव्व)+(आयरं)+ (उवउत्तो)] (एच) एशि-(अयर) 2/13 उवउत्तो' (उवउत्त) पंचमी अर्थक 'ओ' प्रत्यय [(अत्त) + (उवम्मेण)] [(अत्त)-(उवम्म) 3/1] (कुण) विधि 2/1 सक (दया) 2/1 इसी प्रकार सब जीवों के लिए सब (जीवों से) स्नेह, उचित रूप से अत्तोवम्मेण कुणसु दयं अपने से तुलना के द्वारा करो सहानुभूति 20. जीववहो अप्पवहो जीवदया अप्पणो [(जीव)-(वह) 1/1] [(अप्प)-(वह) 1/1] [(जीव)-(दया) 1/1] (अप्पण) 4/1 (दया) 1/1 (हो) व 3/1 अक अव्यय [(सव्व) सवि-(जीव)-(हिंसा) 1/1] जीव का घात खुद का घात जीव के लिए दया खुद के लिए दया होती है उस कारण से सब जीवों की हिंसा दया होड़ ता सव्वजीवहिंसा 1. उवउत्त+ओ= उवउत्तओ-उवउत्तो। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 143 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचत्ता अत्तकामेहिं (परिचत्ता) भूकृ 1/1 अनि (अत्तकाम) 3/2 वि छोड़ी हुई आत्म स्वरूप को चाहनेवालों के द्वारा F FEE FE (तुम्ह) 1/1 स (अस) व 2/1 अक अव्यय (त) 1/1 सवि निःसन्देह वह अव्यय ही जिसको हंतव्वं (ज) 2/1 स (हंतव्व) विधिकृ 1/1 अनि अव्यय मारे जाने योग्य ति देख मन्नसि (मन्न) व 2/1 सक मानता है (तुम्ह) 1/1 स (अस) व 2/1 अक अव्ययय (त) 1/1 सवि निःसन्देह वह अव्यय जिसको (ज) 2/1 स (अज्जाव) विधिकृ 1/1 शासित किये जाने योग्य अज्जावेयव्वं ति मन्नसि अव्यय देख (मन्न) व 2/1 सक मानता है 22. तुंगं मंदराओ आगासाओ विसालयं नत्थि (तुंग) 1/1 वि ऊँचा अव्यय नहीं (मंदर) 5/1 मेरु पर्वत से (आगास) 5/1 आकाश से (विसाल) स्वार्थिक 'य' प्रत्यय 1/1 वि विस्तृत अव्यय अव्यय जैसे नहीं जह 144 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यय वैसे ही तह जयंमि जगत में जानो जाणसु धम्ममहिंसासमं (जय) 7/1 (जाण) विधि 2/1 सक [(धम्म)+(अहिंसा)+(समं)] धम्म (धम्म) 1/1 [(अहिंसा)-(सम) 1/1 वि] अव्यय धर्म, अहिंसा के समान नत्थि नहीं 23. जागरण जागरिया धम्मीणं अहम्मीणं सुत्तया सेया वच्छाहिवभगिणीए (जागरिया) 1/1 (धम्मि) 6/2 वि (अहम्मि) 6/2 वि अव्यय (सुत्त) 1/1 वि 'य' स्वार्थिक (सेया) 1/1 वि [(वच्छ) + (अहिव)+ (भगिणीए)] [(वच्छ)-(अहिव)-(भगिणी) 4/1] (अ-कह) भू 3/1 सक (जिण) 1/1 (जयंती) 4/1 धर्मात्माओं का अधर्मात्माओं का और सोया हुआ (सोना) सर्वोत्तम वत्स देश के राजा की बहन (के लिए) अकहिंसु जिणो जयंतीए' कहा था जिन ने जयंती के लिए (को) 24. नाऽऽलस्सेण' नहीं, आलस्य के समं साथ [(ना)+(आलस्सेण)] ना (अव्यय) आलस्सेण (आलस्स) 3/1 अव्यय (सुक्ख) 1/1 अव्यय (विज्जा) 1/1 अव्यय सुक्खं सुख नहीं विज्जा विद्या सह साथ 2. पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 753 'कह', आदि के योग में (जिससे कुछ कहा जाय उसमें) चतुर्थी विभक्ति होती है। समं, सह आदि के योग में तृतीया विभक्ति होती है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 145 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निद्दया' न वेरग्गं ममत्तेणं नारंभेण दयालुया 25. जागरह नरा णिच्चं जागरमाणस्स वडते बुद्धी जो सुवति ण सो धन्नो जो जग्ग सो सया धन्नो 26. विवत्ती अविणीअस्स संपत्ती 1. 146 ( निद्दा) 3 / 1 अनि अव्यय (वेरग) 1 / 1 ( ममत्त ) 3 / 1 (न) + (आरंभेण) न (अव्यय) आरंभेण (आरम्भ ) 3 / 1 ( दयालुया ) 1 / 1 (जागर) विधि 2 / 2 अक (नर) 8/2 अव्यय (जागर) वकृ 6/1 (वड्ढ ) व 3 / 1 अक (बुद्धि) 1 / 1 (ज) 1 / 1 स (सुव) व 3 / 1 अक अव्यय (त) 1 / 1 स ( धन्न) 1 / 1 वि (त) 1 / 1 स (जग्ग) व 3 / 1 अक (त) 1 / 1 स अव्यय ( धन्न) 1 / 1 वि (faafa) 1/1 ( अविणीअ ) 6 / 1 (संपत्ति) 1 / 1 समं, सह आदि के योग में तृतीया विभक्ति होती है। निद्रा के नहीं वैराग्य आसक्ति के नहीं जीव हिंसा के दयालुता जागो मनुष्यों निरन्तर जागते हुए (व्यक्ति) की बढ़ती है प्रतिभा जो सोता है नहीं वह सुखी जो जागता है वह सदा सुखी अनर्थ अविनीत के समृद्धि प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विणीअस्स (विणीअ) 6/1 वि अव्यय विनीत के और जिसके द्वारा, यह जस्सेयं दुहओ नायं सिक्खं (जस्स)+ (एयं) जस्स (ज) 6/1 स एयं (एय) 1/1 सवि अव्यय (नाय) भूकृ 1/1 अनि (सिक्खा ) 2/1 (त) 1/1 सवि (अमिगच्छ) व 3/1 सक दोनों प्रकार से जाना हुआ विनय को वह अभिगच्छइ ग्रहण करता है 27. अह पंचहिं ठाणेहिं जेहिं सिक्खा अच्छा तो पाँच कारणों से अव्यय (पंच) 3/2 वि (ठाण) 3/2 (ज) 3/2 सवि (सिक्खा) 1/1 अव्यय जि शिक्षा (लब्भइ) व कर्म 3/1 सक अनि लब्भई थम्भा कोहा पमाएणं रोगेणाऽलस्सएण (थम्भ) 5/1 (कोह) 5/1 (पमाअ) 3/1 [(रोगेण)+(आलस्सएण)] रोगेण (रोग) 3/1 आलस्सएण (आलस्स) स्वार्थिक 'अ' प्रत्यय 3/1 नहीं प्राप्त की जाती है अहंकार से क्रोध से प्रमाद से रोग से, आलस्य से अव्यय तथा कभी-कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग तृतीया विभक्ति के स्थान पर होता है। (हेम प्राकृत व्याकरण, 3-134) छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'इ' को 'ई' किया गया है। किसी कार्य का कारण व्यक्त करने वाली (स्त्रीलिंग भिन्न) संज्ञा में तृतीया या पंचमी विभक्ति का प्रयोग होता है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 147 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निकम्मा 28. हयं नाणं कियाहीणं ज्ञान क्रियाहीन निकम्मी हया अण्णाणओ अज्ञान से किया पासंतो पंगुलो दहो धावमाणो (हय) 1/1 वि (नाण) 1/1 [(किया)-(हीण) 1/1 वि] (हया) 1/1 (अण्णाण-अण्णाणाओअण्णाणओ) 5/1 (किया) 1/1 (पास) वकृ 1/1 (पंगुल) 1/1 वि (दड) भूकृ 1/1 अनि (धाव) व 1/1 अव्यय (अंधअ) 1/1 वि क्रिया देखता हुआ लँगड़ा भस्म हुआ दौड़ता हुआ और अन्धा व्यक्ति अंधओ 29. संयोग सिद्ध होने पर संजोअसिद्धी फलं वयंति [(संजोअ)-(सिद्धि) 7/1] (फल) 1/1 (वय) व 3/2 सक फल कहते हैं अव्यय नहीं एगचक्केण रहो क्योंकि एक पहिये से रथ अव्यय [(एग) वि-(चक्क) 3/1] (रह) 1/1 (पया) व 3/1 सक (अंध) 1/1 वि अव्यय (पंगु) 1/1 वि पयाइ अंधो चलता है अन्धा और लँगड़ा किसी कार्य का कारण व्यक्त करने वाली (स्त्रीलिंग भिन्न) संज्ञा में तृतीया या पंचमी विभक्ति का प्रयोग होता है। विभक्ति जुड़ते समय दीर्घ स्वर बहुधा कविता में ह्रस्व हो जाते हैं। (पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, 82) 2. 148 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वणे समिच्चा जंगल में इकट्ठे मिलकर (वण) 7/1 (समिच्चा) संकृ अनि (त) 1/2 स (संपउत्त) 1/2 वि (नगर) 2/1 (पविठ्ठ) भूक 1/2 अनि संपउत्ता नगरं पविट्ठा जुड़े हुए नगर में (को) गए 30. जहा जैसे ससुत्ता धागेयुक्त नहीं (सूई) 1/1 अव्यय (ससुत्त) 1/1 वि अव्यय (नस्स) व 3/1 अक (कयवर) 7/1 (पड) भूकृ 1/1 अव्यय नष्ट होती है (खोती है) नस्सई कयवरम्मि पडिआ कूड़े में पड़ी हुई वि जीवो (जीव) 1/1 जीव अव्यय ही तह अव्यय ससुत्तो (ससुत्त) 1/1 वि अव्यय (नस्स) व 3/1 अक वैसे ही नियम-युक्त नहीं नष्ट होता है (बर्बाद होता है) स्थित नस्सइ गओ (गअ) भूकृ 1/1 अनि वि भी संसारे अव्यय (संसार) 7/1 संसार में दो शब्दों को जोड़ने के लिए कभी-कभी दो बार 'य' का प्रयोग 'और' अर्थ में किया जाता है। . सभी गत्यार्थक क्रियाओं के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। यहाँ भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग कर्तृवाच्य में है। जाना, चलना अर्थ की क्रियाओं में भूतकालिक कृदन्त कर्तृवाच्य में भी होता है।। छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'इ' को 'ई' किया गया है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 149 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31. थोवम्मि सिक्खिदे (थोव) 7/1 वि (सिक्ख) भूकृ 7/1 (जिण) व 3/1 सक जिणइ अल्प (होने पर) शिक्षित होने पर जीत लेता है (मात कर देता है) विद्वान को जो चरित्र-युक्त बहुसुदं जो चरित्तसंपुण्णो जो जो पुण किन्तु (बहुसुद) 2/1 वि (ज) 1/1 सवि [(चरित्त)-(संपुण्ण) भूकृ 1/1 अनि] (ज) 1/1 सवि अव्यय [(चरित्त)-(हीण) भूक 1/1 अनि] (किं) 1/1 सवि (त) 4/1 स (सुद) 3/1 (बहुअ) 3/1 वि । अनि] चरित्रहीन चरित्तहीणो किं क्या तस्स सुदेण बहुएण 32. उसके लिए श्रुत ज्ञान से बहुत (से) आहारासणणिद्दाजयं [(आहार)+(आसण)+ (णिद्दा) + (जय)] [(आहार)-(आसण)-(णिद्दा)-(जय) 2/1] आहार, आसन और निद्रा पर विजय (को) और प्राप्त करके अव्यय काऊणं जिणवरमएण जिन-सिद्धान्त में झायव्वो ध्यायी जानी चाहिए (काऊणं) संकृ अनि [(जिणवर)-(मअ)' 3/1] (झा) विधिकृ 1/1 [(णिय)-(अप्प) 1/1] (णा) संकृ [(गुरु)-(पसाअ) 3/1] णियअप्पा निज आत्मा णाऊणं समझकर गुरुपसाएण गुरु-कृपा से 33. जरा (जरा) 1/1 बुढ़ापा 1. कभी-कभी तृतीया विभक्ति का प्रयोग सप्तमी विभक्ति के स्थान पर किया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) 150 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यय जब तक नहीं जाव न पीलेइ वाही सताता है रोग जाव जब तक नहीं वड्डई। बढ़ता है जाविंदिया अव्यय (पील) व 3/1 सक (वाहि) 1/1 अव्यय अव्यय (वढ) व 3/1 अक [(जाव) + (इंदिया)] जाव (अव्यय) इंदिया (इंदिय) 1/2 अव्यय (हाय) व 3/2 अक अव्यय (धम्म) 2/1 (समायर) विधि 3/1 सक जब तक, इन्द्रियाँ नहीं हायंति क्षीण होती हैं ताव धम्म समायरे तब तक धर्म (को) आचरण कर लेना चाहिए 34. आहारोसहसत्थाभय-भेओ जो चउव्विहं दाणं [(आहार)+(ओसह)+ (सत्थ) + (अभय)+ आहार, औषध, शास्त्र, (भेओ)] [(आहार)-(ओसह)-(सत्थ)- अभय (के रूप में) (अभय)-(भेअ) 1/1] विभाजन (ज) 1/1 सवि (चउव्विह) 1/1 वि चार प्रकार का (दाण) 1/1 दान (त) 1/1 सवि वह (वुच्चइ) व कर्म 3/1 सक अनि कहा जाता है (दा) विधिकृ 1/1 दिया जाना चाहिए [(णिद्दि8) + (उवासय)+ (अज्झयणे)] वर्णित, णिद्दि] (णिद्दिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि उपासकाध्ययन में [(उवासय)-(अज्झयण) 7/1] वुच्चइ दायव्वं णिद्दिद्रुमुवासयज्झयणे 35. जयणा जागरुकता (जयणा) 1/1 छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'इ' को 'ई' किया गया है। 1. प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 151 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्मजणणी जयणा धम्मस्स पालणी चेव अव्यय निश्चय ही (धम्म)-(जणणी) 1/1 अध्यात्म की माता (जयणा) 1/1 जागरुकता (धम्म) 6/1 अध्यात्म की (पालणी) 1/1 वि रक्षा करनेवाली अव्यय निश्चय ही [(त)-(व्वुड्डीकरी) 1/1 वि] उसकी वृद्धि करनेवाली (जयणा) 1/1 जागरुकता [(एंगत)+(सुह)+(आवहा)] निरपेक्ष सुख को उत्पन्न [(एंगत) वि-(सुह)-(आवह(स्त्री)आवहा) करनेवाली 1/1 वि] (जयणा) 1/1 जागरुकता तव्वुड्डीकरी जयणा एगंतसुहावहा जयणा 36. जयं जागरुकतापूर्वक चले जयं जागरुकतापूर्वक खड़ा रहे (स्थिर रहे) चिट्टे जयमासे क्रिविअ (चर) विधि 3/1 सक क्रिवि (चिट्ठ) विधि 3/1 सक [(जयं)+ (आसे)] जयं (क्रिविअ) आसे (आस) विधि 3/1 अक क्रिविअ (सअ) विधि 3/1 अक क्रिविअ (भुज) वकृ 1/1 (पाव) वकृ 1/1 (कम्म) 2/1 जयं सए जयं भुंजतो पावं कम्म जागरुकतापूर्वक, बैठे जागरुकतापूर्वक सोये जागरुकतापूर्वक भोजन करता हुआ बोलता हुआ अशुभ (को) नहीं बाँधता है अव्यय (बंध) व 3/1 सक बंध 37. जरामरणवेगेणं [(जरा)-(मरण)-(वेग) 3/1] (वहहह्रवुज्झ) वकृ कर्म 4/2 अनि वुज्झमाणाण जरा-मरण के प्रवाह के द्वारा बहाकर ले जाये जाते हुए प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 152 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिणं' धम्मो दीवो पइट्ठा य गई सरणमुत्तमं 1. प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ (पाणि) 4/2 ( धम्म) 1 / 1 ( दीव) 1 / 1 (पइट्ठा) 1 / 1 अव्यय ( गइ) 1 / 1 [ ( सरणं) + (उत्तमं ) ] सरणं (सरण) 1/1 उत्तमं (उत्तम) 1/1 प्राणियों के लिए धर्म विभक्ति जुड़ते समय दीर्घ स्वर बहुधा कविता में ह्रस्व हो जाते हैं। (पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण पृष्ठ 182) टापू सहारा और रक्षास्थल शरण, उत्तम 153 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-3 उत्तराध्ययन 1. पभूयरयणो राया सेणिओ मगहाहिवो प्रचुर रत्नवाला (सम्पन्न) राजा श्रेणिक [(पभूय) वि-(रयण) 1/1 वि] (राय) 1/1 (सेणिअ) 1/1 [(मगह)+(अहिवो)] [(मगह)-(अहिव) 1/1] (विहारजत्त) 2/1 (निज्जाअ) भूकृ 1/1 अनि (मण्डिकुच्छ) 7/1 (चेइअ) 7/1 विहारजत्तं निज्जाओ मंडिकुच्छिसि चेइए मगध के शासक सैर को निकले मण्डिकुक्षी (में) बगीचे में नाणादुमलयाइण्णं' नाणापक्खिनिसेवियं [(नाणा)-(दुम)-(लया)-(इण्ण) भूकृ 1/1 अनि [(नाणा)-(पक्खि)-(निसेविय) भूकृ 1/1 अनि [(नाणा)-(कुसुम)-(सं-छन्न) भूक 1/1 अनि] (उज्जाण) 1/1 [(नन्दण)+(उवमं)] [(नन्दण)-(उवम) 1/1 वि] तरह-तरह के वृक्षों और बैलों से भरा हुआ तरह-तरह के पक्षियों द्वारा उपभोग किया हुआ तरह-तरह के फूलों से ढका हुआ बगीचा इन्द्र के बगीचे के समान नाणाकुसुमसंछन्नं उज्जाणं नंदणोवमं 'गमन' अर्थ में भूतकालिक कृदन्त कर्तृवाच्य में प्रयुक्त होता है। कभी-कभी सप्तमी का प्रयोग द्वितीया के स्थान पर पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135) समास के प्रारम्भ में विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है। (आप्टेः संस्कृत हिन्दी कोश) समास के अन्त में इसका अर्थ होता है के समान' (आप्टे: संस्कृत हिन्दी कोश) प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. तत्थ सो पास' साहु संजयं सुसमाहियं निसन्नं रुक्खमूलम्मि सुकुमा सुहोइयं 4. तस्स रूवं पासित्ता राइणो तम्मि संजए अच्चंतपरमो आसी अतुलो रुविम्हओ 5. अहो वण्णो अहो 1. प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ अव्यय (त) 1 / 1 सवि (पास) व 3 / 1 सक ( साहु) 2 / 1 (संजय) भूक 2 / 1 अनि ( सु-समाहिय) भूकृ 1 / 1 अनि ( निसन्न) भूक 2 / 1 अनि [ (रुख) - (मूल) 7 / 1] ( सुकुमाल) 2 / 1 वि [(सुह) + (उइयं )] [ ( सुह) - ( उइय) भूकृ 1 / 1 अनि ] अव्यय ( वण्ण) 1 / 1 अव्यय छन्द की मात्रा के लिए 'इ' को 'ई' किया गया है। (त) 6 / 1 स (रूव) 2 / 1 अव्यय (पास) संकृ (राय) 6 / 1 (त) 7 / 1 सवि संजए (संजअ ) 7/1 [ (अच्चतं) वि - (परम) 1 / 1 ] (अस) भू 3 / 1 अक (अतुल) 1 / 1 वि [ (रूव) - (विम्हअ ) 1 / 1] वहाँ उन्होंने देखता है (देखा) साधु को आत्म-नियन्त्रित (को) पूरी तरह से ध्यान में लीन (को) बैठे (को) हुए पेड़ के पा सौन्दर्य-युक्त (को) सुखों के लिए उपयुक्त उसके रूप को और देखकर राजा के उस साधु में अत्यधिक, परम हुआ बेजोड़ सौन्दर्य के प्रति आश्चर्य आश्चर्य रंग आश्चर्य 155 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूवं (रूव) 1/1 सौन्दर्य अहो अव्यय आश्चर्य अज्जस्स सोमया अहो आर्य की सौम्यता खंती अहो मुत्ती अहो भोगे (अज्ज) 6/1 (सोमया) 1/1 अव्यय (खंति) 1/1 अव्यय (मुत्ति) 1/1 वि अव्यय (भोग) 7/1 (असंगया) 1/1 आश्चर्य धैर्य आश्चर्य सन्तोष आश्चर्य भोग में असंगया अनासक्तता 6. उसके चरणों में पाए और प्रणाम करके वंदित्ता काऊण करके य (त) 6/1 स (पाअ) 7/1 अव्यय (वंद) संकृ (काऊण) संकृ अनि अव्यय (पयाहिणा) 2/1 [(नाइदूरं)+(अणासन्ने)] नाइदूरं (अव्यय)अणासन्ने (अणासन्न) 7/1 (पंजलि) 1/1 वि तथा प्रदक्षिणा पयाहिणं नाइदूरमणासन्ने न अत्यधिक दूरी पर, न समीप में पंजली विनम्रता व सम्मान के साथ जोड़े हुए हाथसहित पूछता है (पूछा) पडिपुच्छई (पडिपुच्छ) व 3/1 सक 7. तरुणो तरुण (तरुण) 1/1 (अस) व 2/1 अक सि पूरी गाथा के अन्त में आनेवाली 'इ' का क्रियाओं में बहुधा 'ई' हो जाता है। (पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ- 138) 156 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे आर्य! अज्जो पव्वइओ भोगकालम्मि संजया उवढिओ (अज्ज) 8/1 (पव्वइअ) भूकृ 1/1 अनि [(भोग)-(काल) 7/1] (संजय) 8/1 (उविट्ठअ) भूकृ 1/1 अनि साधु बने हुए भोग के समय में हे संयत! स्थिर (प्रव्रज्या लेने को तैयार) सि सामण्णे एयमढे (अस) व 2/1 अक (सामण्ण) 7/1 [(एयं) + (अट्ठ)] एयं (एय) 2/1 सवि अट्ठ (अट्ठ) 2/1 (सुण) विधि 1/1 सक साधुपन में इसके, प्रयोजन को सुणेमु ता अव्यय अणाहो अनाथ मि मि हे राजाधिराज! महारायं' नाहो नाथ मज्झ मेरा (अणाह) 1/1 वि (अस) व 1/1 अक (महाराय) 8/1 (नाह) 1/1 वि (अम्ह) 6/1 वि अव्यय (विज्ज) व 3/1 अक (अणुकंपग) 2/1 वि (सुहि) 2/1 अव्यय नहीं विज्जई अणुकंपगं सुहिं अनुकम्पा करनेवाले मित्र को वा वि अव्यय भी किसी कंची (क) 2/1 स नाभिसमेमऽहं [(न) + (अभिसमेम) + (अहं)] न (अव्यय) अभिसमेम (अभिसमे) व 1/2 सक अहं (अम्ह) 1/1 स 1. अनुस्वार का आगम (हेम प्राकृत व्याकरण 1-26) नहीं, जानता हूँ, प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 157 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तओ अव्यय तब सो (त) 1/1 सवि वह पहसिओ राया सेणिओ हँसा (हँस पड़ा) राजा श्रेणिक मगहाहिवो मगध का शासक एवं जैसे (पहस) भूकृ 1/1 (राय) 1/1 (सेणिअ) 1/1 [(मगह)+ (अहिवो)] [(मगह)-(अहिव) 1/1] अव्यय (तुम्ह) 4/1 स (इड्डिमंत) 4/1 वि अव्यय (नाह) 1/1 अव्यय (विज्ज) व 3/1 अक इड्डिमंतस्स कहं नाहो आप (के लिए) समृद्धिशाली के लिए कैसे नाथ विज्जई 10. होमि नाहो भयंताणं भोगे भुंजाहि संजया मित्त-नाईपरिवुडो होता हूँ नाथ पूज्यों के लिए भोगों को भोगो (हो) व 1/1 अक (नाह) 1/1 (भयंत) 4/2 वि (भोग) 2/2 (भुंज) विधि 2/1 सक (संजय) 8/1 [(मित्त)-(नाई)-(परिवुड) भूकृ 1/1 अनि] (माणुस्स) 1/1 अव्यय [(सु)-(दुल्लह) 1/1 वि] हे संयत! मित्रों और स्वजनों से घिरे हुए मनुष्यत्व सचमुच अत्यधिक, दुर्लभ माणुस्सं खु सुदुल्लहं 1. 2. किम्+चित् = कंचित् (2/1) = कंचि = कंची (मात्रा के लिए दीर्घ) अनुस्वार का आगम (हेम प्राकृत व्याकरण 1-26) 158 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. अप्पणा अव्यय स्वयं वि अव्यय अनाथ अणाहो सि सेणिया मगहाहिवा हे श्रेणिक! (अणाह) 1/1 (अस) व 2/1 अक (सेणिअ) 8/1 [(मगह)-(अहिवा)] [(मगह)-(अहिव) 8/1] अव्यय (अणाह) 1/1 (संत) वकृ 1/1 अनि (क) 6/1 स (नाह) 1/1 (भव) भवि 2/1 अक हे मगध के शासक स्वयं अप्पणा अणाहो संतो अनाथ होते हुए किसका कस्स नाहो भविस्ससि नाथ होगा 12. एवं वुत्तो कहा गया नरिंदो राजा सो सुसंभंतो सुविम्हिओ वयणं असुयपुव्वं साहुणा विम्हयन्नितो अव्यय इस प्रकार (वुत्त) भूकृ 1/1 अनि (नरिंद) 1/1 (त) 1/1 सवि वह [(सु) (अ)-(संभंत) भूकृ 1/1 अनि] अत्यधिक, हड़बड़ाया [(सु) (अ)-(विम्हिअ) भूकृ 1/1 अनि] अत्यधिक, चकित हुआ (वयण) 2/1 वचन को (असुयपुव्व) 2/1 वि पहले कभी न सुने गये (साहु) 3/1 साधु के द्वारा [(विम्हय)+(अन्नितो)] आश्चर्ययुक्त [(विम्हय)-(अन्नित) भूकृ 1/1 अनि] 13. अस्सा . (अस्स) 1/2 घोड़े 1. समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर परस्वर में दीर्घ के स्थान पर ह्रस्व हो जाया करते हैं। (हेम प्राकृत व्याकरण, 1-4) प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 159 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हत्थी हाथी मणुस्सा मनुष्य मेरे नगर अंतेउरं राजभवन और भुंजामि माणुसे भोए (हत्थि ) 1/2 (मणुस्स) 1/2 (अम्ह) 6/1 स (पुर) 1/1 (अंतेउर) 1/1 अव्यय (अम्ह) 6/1 स (भुंज) व 1/1 सक (माणुस) 2/2 वि (भोअ) 2/2 (आणा) 1/1 (इस्सरिय) 1/1 अव्यय (अम्ह) 6/1 स भोगता हूँ मनुष्य सम्बन्धी (भोगों) को भोगों को आणा आज्ञा इस्सरियं प्रभुता और मेरी 14. एरिसे संपयग्गम्मि वैभव के आधिक्य में (एरिस) 7/1 वि [(संपया)+ (अग्गम्मि)] [(संपया)-(अग्ग) 7/1] [(सव्व)-(काम)-(सपप्प) भूकृ 1/1] अव्यय सव्वकामसमर्माप्पए कहं अणाहो समस्त अभीष्ट पदार्थ समर्पित कैसे (अणाह) 1/1 अनाथ भवइ (भव) व 3/1 अक होता है (होगा) मा अव्यय मत निश्चयसूचक हे पूज्य! अव्यय (भंत) 8/1 वि (मुसा) 2/1 (वअ) 7/1 कथन में अव्यय नहीं (तुम्ह) 1/1 स तुम प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाणे अणाहस्स अत्थं पोत्थं (जाण) व 1/1 सक (अणाह) 6/1 (अत्थ) 2/1 (पोत्था) 2/1 अव्यय (पत्थिव) 8/1 समझता हूँ अनाथ के अर्थ को मूलोत्पत्ति को और पत्थिवा हे राजा! जहा अव्यय जैसे अणाहो अनाथ (अणाह) 1/1 (भव) व 3/1 अक भवइ होता है सणाहो (सणाह) 1/1 सनाथ या अव्यय (नराहिव) 8/1 नराहिवा हे राजा! 16. सुणेह महारायं (सुण) विधि 2/2 सक (अम्ह) 3/1 स (महाराय) 8/1 (अव्वक्खित्त) 3/1 वि (चेय) 3/1 अव्यय सुनो मेरे द्वारा हे राजाधिराज! एकाग्र (चित्त) से चित्त से जैसे अव्वक्खित्तेण चेयसा जहा अणाहो भवति (अणाह) 1/1 अनाथ (भव) व 3/1 अक जहा अव्यय (अम्ह) 3/1 स अव्यय (पवत्तिय) भूकृ 1/1 अनि होता है जैसे मेरे द्वारा पादपूरक संस्थापित (प्रवृत्त किया हुआ) पवत्तियं पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 676 आदरसूचक में बहुवचन होता है। अनुस्वार का आगम हुआ है (हेम प्राकृत व्याकरण, 1-26) प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 161 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौशाम्बी 17. कोसंबी नाम नयरी नामक (कोसंबी) 1/1 अव्यय (नयरी) 1/1 [(पुराण)-(पुर)(भेयण(स्त्री)भेयणी) 1/1] नगरी पुराणपुरभेयणी प्राचीन नगरों से अन्तर करनेवाली तत्थ अव्यय वहाँ आसी रहते थे पिता पिया (अस) भू 3/1 अक (पिउ) 1/1 (अम्ह) 6/1 स [(पभूय) वि-(धण)-(संचअ) 1/1] मेरे मज्झं पभूयधणसंचओ प्रचुर धन का संग्रह 18. पढमे वए महारायं अतुला (पढम) 7/1 वि (वअ) 7/1 (महाराय) 8/1 [(अतुल(स्त्री)अतुला) 1/1 वि] (अम्ह) 6/1 स (अच्छि )-(वेयणा) 1/1 (अहोत्था) भू 3/1 अक (विउल) 1/1 वि (दाह) 1/1 [(सव्व) वि-(गत्त) 7/2] (पत्थिव) 8/1 प्रथम (उम्र) में उम्र में हे राजाधिराज! असीम मेरी आँखों में पीड़ा अच्छिवेयणा अहोत्था विउलो दाहो सव्वगत्तेसु पत्थिवा बहुत जलन शरीर के सभी अंगों में हे नरेश! 19. सत्थं जहा परमतिक्खं सरीरवियरंतरे (सत्थ) 2/1 अव्यय [(परम) वि-(तिक्ख) 2/1 वि] [(सरीर)+(वियर)+ (अन्तरे)] [(सरीर)-(वियर)-(अन्तर) 7/1] शस्त्र को जैसे अत्यधिक तीखे को शरीर के छिद्रों के अन्दर 162 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं मेरी और पविसेज्ज (पविस) व 3/1 सक घुसाता है अरी (अरि) 1/1 दुश्मन कुद्धो (कुद्ध) 1/1 वि क्रोधयुक्त अव्यय उसी प्रकार (अम्ह) 6/1 स मेरी अच्छिवेयणा [(अच्छि )-(वेयणा) 1/1] आँखों में पीड़ा 20. तियं (तिय). 2/1 कमर में (अम्ह) 6/1 स अन्तरिच्छं (अंतरिच्छ) 2/1 हृदय (में) अव्यय उत्तमंगं (उत्तमंग) 2/1 मस्तिष्क (में) अव्यय तथा पीडई (पीड) व 3/1 सक परेशान करती है (किया है) इंदासणिसमा [(इंद) + (असणि)+ (समा)] [(इंद)- इन्द्र के वज्र के द्वारा (पीड़ा) (असणि)-(सम(स्त्री)समा) 1/1 वि] के समान घोरा (घोर-घोरा) 1/1 वि भयंकर वेयणा (वेयणा) 1/1 पीड़ा परमदारुणा [(परम) वि-(दारुण-दारुणा) 1/1 वि] अत्यन्त तीव्र 21. उवट्ठिया (उविठ्ठय) भूकृ 1/2 अनि पहुँचे (अम्ह) 6/1 स मेरा आयरिया (आयरिय) 1/2 आचार्य विज्जामंतचिगिच्छगा [(विज्जा)-(मंत)-(चिगिच्छग) 1/2] अलौकिक विद्याओं और मंत्रों के द्वारा इलाज करनेवाले यहाँ पाठ होना चाहिए पवेसेज्ज (पविस-पवेस प्रे व 3/1 सक) तिय (त्रिक) = कमर (Monier Williams : Sans. Eng. Dict.) आकाश और पृथ्वी के बीच का मध्यवर्ती प्रदेश (कटि और मस्तिष्क के बीच का हिस्सा) कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण, 3-137) प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 163 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अबीया सत्थकुसला मंत-मूलविसारया 22. (अ-बीय) 1/2 वि [(सत्थ)-(कुसल) 1/2 वि] [(मंत)-(मूल)-(विसारय) 1/2 वि] अद्वितीय शास्त्र में योग्य मंत्रों के आधार में प्रवीण तिगिच्छ (त) 1/2 स (अम्ह) 6/1 स (तिगिच्छा) 2/1 (कुव्व) व 3/2 सक (चाउप्पाय) 2/1 वि [(जहा)+ (हिय)] जहा (अ) हियं (हिय) 2/1 वि वे (उन्होंने) मेरी चिकित्सा करते हैं (की) चार प्रकार की जैसे, हितकारी कुव्वंति चाउप्पायं जहाहियं अव्यय नहीं अव्यय किन्तु दुःख से दुक्खा विमोयंति (दुक्ख) 5/1 (विमोय) व 3/2 सक (एता) 1/1 सवि छुड़ाते हैं (छुड़ाया) एसा यह मज्झ मेरी (अम्ह) 6/1 स (अणाहया) 1/1 अणाहया अनाथता 23. पिया पिता ने मेरे सव्वसारं (पिउ) 1/1 (अम्ह) 6/1 स [(सव्व) वि-(सार) 2/1] अव्यय (दा) विधि 2/1 सक सभी प्रकार की धन-दौलत पि भी देज्जाहि देना चाहिए (दी) कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण, 3-137) पूरी या आधी गाथा के अन्त में आनेवाली 'इ' का क्रियाओं में बहुधा 'ई' हो जाता है। (पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 138) हेम प्राकृत व्याकरण, 3-178 164 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मम मेरी कारणा (अम्ह) 6/1 स (कारण) 5/1 अव्यय प्रयोजन से अव्यय नहीं फिर भी दुःख से छुड़ाते हैं (छुड़ाया) दुक्खा विमोयंति एसा (दुक्ख) 5/1 (विमोय) व 3/2 सक (एता) 1/1 सवि (अम्ह) 6/1 स (अणाहया) 1/1 यह मज्झ मेरी अणाहया अनाथता 24. माया माता मेरी महाराय पुत्तसोगदुहऽट्टिया (माया) 1/1 अव्यय (अम्ह) 6/1 स (महाराय) 8/1 [(पुत्त)-(सोग)-(दुह)-(अट्टिया) 1/1 वि] अव्यय अव्यय (दुक्ख) 5/1 (विमोय) व 3/2 सक (एता) 1/1 सवि (अम्ह) 6/1 स (अणाहया) 1/1 हे राजाधिराज! पुत्र के कष्ट के दुःख से पीड़ित नहीं किन्तु दुःख से दुक्खा विमोयंति एसा छुड़ाते हैं (छुड़ाया) यह मेरी मज्झ अणाहया अनाथता 25. भायरो. भाई ने महाराय (भायर) 1/2 (अम्ह) 6/1 स (महाराय) 8/1 हे महाराज! (सगा) 1/2 वि निजी [(जेट्ट)-(कणिट्ठग) 1/2 वि 'ग' स्वा.] बड़ा या छोटा अव्यय नहीं सगा जेट्ठ-कणिट्ठगा प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 165 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किन्तु दुक्खा दुःख से विमोयंति छुड़ाते हैं (छुड़ाया) अव्यय (दुक्ख ) 5/1 (विमोय) व 3/2 सक (एता) 1/1 सवि (अम्ह) 6/1 स (अणाहया) 1/1 एसा यह मज्झ मेरी अणाहया अनाथता 26. भइणीओ मेरी महाराय (भइणी) 1/2 बहनों ने (अम्ह) 6/1 स (महाराय) 8/1 हे राजाधिराज! (सगा) 1/2 वि निजी [(जेठ)-(कणिठ्ठग) 1/2 वि 'ग' स्वा.] बड़ी या छोटी अव्यय सगा जेट्ठ-कणिट्ठगा नहीं अव्यय किन्तु दुःख से दुक्खा विमोयंति छुड़ाते हैं (छुड़ाया) एसा (दुक्ख) 5/1 (विमोय) व 3/2 सक (एता) 1/1 सवि (अम्ह) 6/1 स (अणाहया) 1/1 यह मज्झ मेरी अणाहया अनाथता 27. भारिया पत्नी ने मेरी हे राजाधिराज! महाराय अणुरत्ता अणुव्वया अंसुपुण्णेहिं नयणेहिं (भारिया) 1/1 (अम्ह) 6/1 स (महाराय) 8/1 (अणुरत्त(स्त्री)अणुरत्ता) 1/1 वि (अणुव्वया) 1/1 [(अंसु)-(पुण्ण) भूकृ 3/2 अनि] (नयण) 3/2 (उर) 2/1 (अम्ह) 6/1 स सन्तुष्ट पतिव्रता आँसू भरे हुए से नेत्रों से छाती को . 2 मेरी 166 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसिंचई (परिसिंच) व 3/1 सक भिगोती है (भिगोया) 28. अन्नं (अन्न) 2/1 (पाण) 2/1 पाणं भोजन (को) पेय (पदार्थ) को और पहाणं स्नान अव्यय (ण्हाण) 2/1 अव्यय [(गंध)-(मल्ल)-(विलेवण) 2/1] गंध-मल्लविलेवणं और सुगन्धित द्रव्य, फूल, खुशबूदार लेप का (को) मेरे द्वारा मए णायमणायं (अम्ह) 3/1 स [(णायं)+(अणायं)] णायं (णाय) भूकृ 1/1 अनि अणायं (अणाय) भूकृ 1/1 अनि जाना गया, न जाना गया अव्यय अथवा वह बाला (ता) 1/1 सवि (बाला) 1/1 [(न)+(उवभुंजई)] न (अव्यय) उवभुंजई' (उवभुंज) व 3/1 सक नोवभुंजई तरुणी नहीं, उपयोग करती है (थी) 29. खणं अव्यय एक क्षण के लिए महाराय पासाओ अव्यय (अम्ह) 6/1 स मेरी (महाराय) 8/1 हे राजाधिराज! (पास) 5/1 पास से अव्यय अव्यय नही (फिट्ट) व 3/1 अक जाती है (जाती थी) अव्यय नहीं अव्यय फिर भी पूरी गाथा के अन्त में आनेवाली 'ई' का क्रियाओं में बहुधा 'ई' हो जाता है। (पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 138) फिट्टई 1. प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 167 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुक्खा विमोएइ (दुक्ख) 5/1 (विमोअ) व 3/1 सक (एता) 1/1 सवि (अम्ह) 6/1 स (अणाहया) 1/1 दुःख से छुड़ाती हैं (छुड़ाया) यह एसा मज्झ मेरी अणाहया अनाथता 30. तओ अव्यय तब एवामहंसु इस प्रकार, (अम्ह) 1/1 स [(एवं)+(आहेसु)] एवं (अव्यय) आहेसु' (आह) भू 1/1 सक (दुक्खमा) 1/1 वि अव्यय कहा दुक्खमा असह्य निश्चय ही बार-बार पुणो पुणो वेयणा अणुभविउं अव्यय (वेयणा) 1/1 (अणुभव) संकृ अव्यय (संसार) 7/1 (अणंतअ) 7/1 वि पीड़ा अनुभव करके पादपूर्ति संसार में अनन्त (में) संसारम्मि अणंतए 31. सई अव्यय तुरन्त अव्यय जइ मुच्चिज्जा वेयणा विउला अव्यय यदि (मुच्चिज्जा) विधि कर्म 1/1 सक अनि छुटकारा पा जाऊँ (वेयणा) 5/1 पीड़ा से (विउल) 5/1 वि घोर अव्यय इससे (खंत) 1/1 वि क्षमायुक्त (दंत) 1/1 वि जितेन्द्रिय इओ खंतो दंतो 1. पूरी गाथा के अन्त में आनेवाली 'इ' का क्रियाओं में बहुधा 'ई' हो जाता है। (पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 138) 168 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरारंभो पव्वए (निरारंभ) 1/1 वि (पव्वअ) 7/1 (अणगारिय) 2/1 वि हिंसा-रहित दीक्षा में साधु सम्बन्धी (में) अणगारियं 32. एवं अव्यय इस प्रकार चिंतइत्ताणं पासुत्तो मि विचार करके सोया हूँ (था) हे राजा! क्षीण होती हुई नराहिवा परियत्तंतीए अव्यय (चिंत) संकृ (पासुत्त) भूकृ 1/1 अनि (अस) व 1/1 अक (नराहिव) 8/1 (परियत्त वकृ-परियत्तंत(स्त्री) परियत्तती) वकृ 7/1 (राई) 7/1 (वेयणा) 1/1 (अम्ह) 6/1 स (खय) 2/1 (गय-गया) भूकृ 1/1 अनि राईए वेयणा रात्रि में पीड़ा मेरी विनाश को गई (प्राप्त हुई) खयं गया 33. तओ कल्ले पभायम्मि तब निरोग प्रभात में आपुच्छित्ताण बंधवे खंतो अव्यय (कल्ल) 1/1 वि (पभाय) 7/1 (आपुच्छ) संकृ (बंधव) 2/2 (खंत) 1/1 वि (दंत) 1/1 वि (निरारंभ) 1/1 वि (पव्वइअ) भूकृ 1/1 अनि पूछकर बन्धुओं को क्षमायुक्त जितेन्द्रिय हिंसा-रहित प्रवेश कर गया दंतो निरारंभो पव्वइओ 1. 2. पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 755 कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-138) प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 169 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणगारियं (अणगारिय) 2/1 वि साधु-सम्बन्धी (में) 34. अव्यय इसलिए (अम्ह) 1/1 स नाथ नाहो जाओ अप्पणो हुआ (बन गया) निज का (नाह) 1/1 (जाअ) भूकृ 1/1 अनि (अप्प) 6/1 वि अव्यय (पर) 6/1 वि अव्यय और परस्स दूसरे का भी सब ही (का) सव्वेसिं (सव्व) 6/2 वि चेव अव्यय भूयाणं प्राणियों का तसाणं (भूय) 6/2 (तस) 6/2 वि (थावर) 6/2 वि त्रस का थावराण स्थावर का अव्यय और . कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) 170 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-4 वज्जालग्ग दुक्खं बड़ी कठिनाई से रचा जाता है कीरइ कव्वं काव्य कव्वम्मि कए पउंजणा क्रिवि (कीरइ) व कर्म 3/1 सक अनि (कव्व) 1/1 (कव्व) 7/1 (कअ) भूकृ 7/1 अनि (पउंजणा) 1/1 क्रिविअ (संत) 7/1 वि (पउंज) व 7/1 (सोयार) 1/2 (दुल्लह) 1/2 वि (हु) व 3/2 अक दुक्खं काव्य (रच लेने) पर किए (रचे) हुए होने पर पाठ बड़ी कठिनाई से होने पर पाठ करते हुए (होने पर) श्रोता संते पउंजमाणे सोयारा दुल्लहा दुर्लभ हुति होते हैं 2. गाहा गाथा रुअइ रोती है अणाहा अनाथ सिर पर सीसे काऊण (गाहा) 1/1 (रुअ) व 3/1 अक (अणाह-अणाहा) 1/1 वि (सीस) 7/1 (काऊण) संकृ अनि (दो) 2/1 वि अव्यय (हत्थ(स्त्री)हत्था) 2/2 (सुकइ) 3/2 [(दुक्ख)-(रइया) भूकृ 1/1] रखकर दोनों हत्थाओ सुकईहि दुक्खरइया हाथों को अच्छे कवियों द्वारा कठिनाई से रचित प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 171 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसानी से (लापरवाही से) सुहेण मुक्खो विणासेइ 3.. गाहाहि क्रिविअ (मुक्ख) 1/1 वि (विणास) व 3/1 सक मूर्ख बिगाड़ देता है (गाहा) 3/2 (क) 1/1 सवि गाथा के द्वारा कौन नहीं हीरइ पियाण मित्ताण अव्यय (हीरइ) व कर्म 3/1 सक अनि (पिय) 6/2 वि (मित्त) 6/2 प्रसन्न किया जाता है प्रिय (को) मित्रों को कौन को (क) 1/1 सवि नहीं संभरइ दूमिज्जइ को अव्यय (संभर) व 3/1 सक (दूम) व कर्म 3/1 सक (क) 1/1 सवि अव्यय स्मरण करता है पीडित किया जाता है कौन नहीं अव्यय तथा दूमिएण पीडित होने पर सुयणेण' (दूम) भूक 3/1 (सुयण) 3/1 (रयण) 3/1 वि परोपकारी रयणेण श्रेष्ठ 4. प्राकृत काव्य से पाइयकव्वम्मि रसो [(पाइय)-(कव्व) 7/1] (रस) 1/1 (ज) 1/1 सवि स्मरण अर्थ की क्रियाओं के साथ कर्म में षष्ठी होती है। कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137 की वृद्धि) कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-136) 172 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जायइ तह य छेयभणिएहिं (जा) व 3/1 अक अव्यय [(छेय)-(भण) भूकृ 3/2] उत्पन्न होता है उसी तरह ही निपुण के द्वारा बोले गये (वचन) से जल से उययस्स वासियसीयलस्स तितिं (उयय) 6/1 अव्यय [(वास) भूकृ-(सीयल) 6/1 वि] (तित्ति) 2/1 अव्यय तथा सुगन्धित शीतल (से) ऊब को नहीं वच्चामो (वच्च) व 1/2 सक जाते हैं (प्राप्त होते हैं) पाइयकव्वस्स' प्राकृत काव्य को नमो नमस्कार पाइयकव्वं प्राकृत काव्य [(पाइय)-(कव्व) 4/1] अव्यय [(पाइय)-(कव्व) 1/1] अव्यय (निम्म) भूकृ 1/1 . (ज) 3/1 सवि (त) 4/2 स अपभ्रंश तथा निम्मियं जेण रचा गया जिसके द्वारा उनको ताह' चिय अव्यय प्रणाम करते हैं पणमामो पढिऊण पढ़कर तथा (पणम) व 1/2 सक (पढ) संकृ अव्यय (ज) 1/2 सवि अव्यय (जाण) व 3/2 सक जाणंति. समझते हैं जो (उत्पन्न होना) के योग में पंचमी या सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है। 'जा' से 'जायइ' बनाने के लिए 'अ' (य) विकल्प से जोड़ दिया जाता है। कभी-कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग तृतीया या पंचमी विभक्ति के स्थान पर पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) 'नमो' (नमस्कार अर्थ) के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 173 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. सुयणो सुद्धसहाव मइलिज्जतो वि दुज्जजण छारेण दप्पणो विय अहिययरं निम्मलो होइ 7. सुयणो न कुप्पइ च्चिय अह कुप्पइ मंगलं न चिंतेइ अह चिंतेइ न जंपड़ अह जंपड़ लज्जिरो होइ 174 ( सुयण) 1 / 1 [ (सुद्ध) वि - (सहाव ) 1 / 1] वि] ( मइल) कर्मवकृ 1 /1 अव्यय [ ( दुज्जण) - ( जण ) 3 / 1] (छार ) 3 / 1 (दप्पण) 1 / 1 अव्यय ( अहिययर) 1 / 1 तुवि ( निम्मल) 1 / 1 वि (हो) व 3 / 1 अक (सुयण) 1 / 1 अव्यय (कुप्प ) व 3 / 1 सक अव्यय अव्यय (कुप्प) व 3 / 1 सक (मंगुल) 2 / 1 अव्यय ( चिंत) व 3 / 1 सक अव्यय ( चिंत) व 3 / 1 सक अव्यय (जंप) व 3 / 1 सक अव्यय (जंप) व 3 / 1 सक ( लज्जिर) 1 / 1 वि (हो) व 3 / 1 अक सज्जन उज्ज्वल स्वभावी मलिन किया जाते हुए भी दुर्जन मनुष्य के द्वारा. क्षार के द्वारा दर्पण जैसे और भी अधिक निर्मल हो जाता है। सज्जन नहीं क्रोध करता है भी यदि क्रोध करता है अनिष्ट नहीं सोचता है नहीं सोचता है नहीं बोलता है यदि बोलता है लज्जा-युक्त होता है प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. दिट्ठा हरंति दुक्खं जंपता देंति सयलसोक्खाई Ἐ· विहिणा सुक सुयणा '15 निम्मिया भुवणे 9. 1 न हसंति' परं न थुवंति अप्पयं पियसयाइ ' जंपंति एसो सुयणसहावो नमो नमो 1. 2. 3. प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ (दिड ) भूक 1 / 1 अनि (हर) व 3 / 2 सक ( दुक्ख ) 2 / 1 (जंप) वकृ 1/2 (दा) व 3 / 2 सक [(सयल) वि - (सोक्ख) 2/2] (एअ) 1/1 सवि (fafe) 3/1 (सु-कय) भूक 1 / 1 अनि (सुयण) 1/2 अव्यय (निम्म) भूकृ 1/2 (भुवण) 7/1 अव्यय ( हस) व 3 / 2 सक (पर) 2/1 अव्यय (थुव) व 3 / 2 सक ( अप्पय) 2 / 1 'य' स्वार्थिक [(पिय) वि - (सय) 2/2] (जंप) व 3/2 सक ( एत) 1 / 1 सवि [ ( सुयण) - (सहाव ) 1 / 1] अव्यय अव्यय मिले हुए हरते हैं दुःख को बोलते हुए देते हैं सभी सुख यह विधि द्वारा शुभ ( कार्य ) किया गया सज्जन कि बनाये गये जगत में हस क्रिया ‘उपहास करना' अर्थ में कर्म के साथ प्रयुक्त होती है। (देखें संस्कृत कोश ) पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ- 516 'नमो' के योग में चतुर्थी होती है। नहीं उपहास करते हैं दूसरे का नहीं प्रशंसा करते हैं निज की सैंकड़ों प्रिय बोलते हैं यह सज्जन का स्वभाव नमस्कार नमस्कार Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताण उनको (त) 4/2 सवि (पुरिस) 4/2 पुरिसाणं पुरुषों को 10. अकए वि का वि पिए पियं (अकअ) भूकृ 7/1 अनि नहीं किया जाने पर अव्यय तथा (कअ) भूक 7/1 अनि किया जाने पर अव्यय (पिअ) 7/1 वि प्रिय (पिय) 2/1 वि प्रिय (कुण) वकृ 1/2 (जय) 7/1 जगत में (दीसंति) व कर्म 3/2 सक अनि देखे जाते हैं [(कय) भूकृ अनि-(विप्पिअ) 7/1 वि] अप्रिय किया जाने पर अव्यय करते हुए कुणंता जयम्मि दीसंति कयविप्पिए अव्यय किन्तु प्रिय पियं कुणंति करते हैं (पिय) 2/1 वि (कुण) व 3/2 सक (त) 1/2 सवि (दुल्लह) 1/2 वि (सुयण) 1/2 दुर्लभ सज्जन दुल्लहा सुयणा 11. फरुसं कठोर न भणसि भणिओ (फरुस) 2/1 अव्यय (भण) व 2/1 सक (भण) भूकृ 1/1 अव्यय (हस) व 2/1 अक (हस) संकृ नहीं बोलते हो बोला गया वि भी हससि हसिऊण हँसते हो हँसकर 1. णमो' के योग में चतुर्थी होती है। 176 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंपसि पियाई (जंप) व 2/1 सक (पिय) 2/2 वि (सज्जण) 8/1 (तुम्ह) 6/1 स (सहाव) 1/1 बोलते हो प्रिय (वचनों) को हे सज्जन! सज्जण तुम्हारा तुज्झ सहावो स्वभाव अव्यय नहीं याणिमो (याण) व 1/2 सक (क) 6/1 सवि (सारिच्छ) 1/1 वि जानते हैं किसके कस्स सारिच्छो समान 12. नेच्छसि नहीं, परावयारं परोवयारं निच्चमावहसि अवराहेहि [(न) + (इच्छसि)] न अव्यय इच्छसि (इच्छ) व 2/1 सक इच्छा करते हो [(पर) + (अवयारं)][(पर)-(अवयार) 2/1] दूसरे के अपकार की [(पर) + (उवयारं)][(पर)-(उवयार) 2/1] दूसरे का उपकार अव्यय तथा [(निच्चं)+ (आवहसि)] निच्चं (अव्यय) सदा, आवहसि (आवह) व 2/1 सक करते हो (अवराह) 3/2 अपराधों के कारण अव्यय (कुप्प) व 2/1 सक क्रोध करते हो (सुयण) 8/1 हे सज्जन! अव्यय नमस्कार (तुम्ह) 4/1 स तुम्हारे (सहाव) 4/1 स्वभाव के लिए नहीं कुप्पसि सुयण नमो सहावस्स 13. दोहिं चिय पज्जत्तं बहुएहि (दो) 3/2 वि अव्यय (पज्जत्त) 1/1 (बहुअ) 3/2 वि अव्यय बहुत से प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 177 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि क्या गुणों से सज्जन के बिजली की तरह अस्थिर गुणेहि सुयणस्स विज्जुप्फुरियं रोसो मित्ती पाहाणरेह क्रोध (किं) 1/1 सवि (गुण) 3/2 (सुयण) 6/1 [(विज्जु)-(प्फुरिय) 2/1 वि] (रोस) 1/1 (मित्ती) 1/1 [(पाहाण)-(रेहा) 1/1] (आगे संयुक्त अक्षर (व्व) के आने से दीर्घ स्वर ह्रस्व हुआ) अव्यय मित्रता पत्थर की रेखा की तरह 14. दीणं अब्भुद्धरि दीन का (को) उद्धार करना प्राप्त होने पर शरण में आये हुए पत्ते सरणागए (दीण) 2/1 (अब्भुद्धर) हेकृ (पत्त) 7/1 वि [(सरण)+ (आगए)] [(सरण)-(आगअ) भूकृ 7/1 अनि] (पिय) 2/1 वि (काउं) हेकृ अनि (अवरद्ध) 7/2 अव्यय (खम) हेकृ (सुयण) 1/1 पियं काउं अवरद्धेसु' प्रिय करना अपराधों को वि भी खमि क्षमा करना सुयणो सज्जन च्चिय अव्यय ही अव्यय केवल नवरि जाणे (जाण) व 3/1 सक जानता है कभी-कभी प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) की वृत्ति 'समर्थ' आदि का बोध करानेवाले शब्दों के साथ हेकृ का प्रयोग होता है। कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135) 178 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. ܩ पुरिसा धर धरा अहवा दोहिं पि धारिया धरणी उवयारे जस्स मई उवयरियं जो न पम्हुसाइ 16. सेला चलंति पलए मज्जायं सायरा वि मेल्लंति सुयणा हिं पि काले पडिवन्नं प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ (a) 2/2 fa (पुरिस) 2/2 (धर) व 3 / 1 सक (ERT) 1/1 अव्यय (दो) 3/2.वि अव्यय (धार) भूकृ 1 / 1 ( धरणि) 1 / 1 (उवयार) 7/1 (ज) 6 / 1 सवि (मइ) 1 / 1 (उवयर) भूक 2/1 (ज) 1 / 1 सवि अव्यय (पम्हुस ) व 3 / 1 सक (सेल) 1/2 (चल) व 3 / 2 अक ( पलअ ) 7/1 ( मज्जाय) 2 / 1 ( सायर) 1/2 अव्यय (मेल्ल) व 3 / 2 सक (सुयण) 1/2 (त) 7 / 1 सवि अव्यय (काल) 7/1 ( पडिवन्न) भूक 2 / 1 अनि दो पुरुषों को धारण करती है पृथ्वी अथवा दो के द्वारा to tic ही धारी गई है पृथ्वी उपकार में जिसकी मति किये गये उपकार को जो नहीं भूलता है पर्वत नष्ट होते हैं प्रलय में मर्यादा सागर भी छोड़ देते हैं सज्जन उस (में) भी समय में दिये हुए वचन को 179 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यय नेय सिढिलंति कभी नहीं शिथिल करते हैं (सिढिल) व 3/2 सक 17. चंदणतरु व्व सुयणा फलरहिया जइ वि निम्मिया विहिणा तहवि कुणंति परत्थं निययसरीरेण लोयस्स [(चंदण)-(तरु) 1/1] चन्दन वृक्ष (आगे संयुक्त अक्षर (व्व) के आने से दीर्घ स्वर ह्रस्व हुआ है) अव्य की तरह (सुयण) 1/2 सज्जन [(फल)-(रह) भूक 1/2] फलरहित अव्यय यद्यपि (निम्म) भूक 1/2 बनाए गए (विहि) 3/1 विधि के द्वारा अव्यय तो भी (कुण) व 3/2 सक करते हैं (परत्थ) 2/1 हित [(निय) वि 'य' स्वार्थिक-(सरीर) 3/1] निज शरीर से (लोय) 6/1 लोक का 18. गुणिणो गुणेहि विहवेहि विहविणो होंतु गव्विया गुणी गुणों से सम्पत्ति से सम्पत्तिशाली (गुणि) 1/2 (गुण) 3/2 (विहव) 3/2 (विहवि) 1/2 (हो) विधि 3/2 अक (गव्विय) 1/2 वि अव्यय (दोस) 3/2 गर्वित सम्भावना दोषों के कारण दोसेहि नवरि अव्यय गव्वो केवल गर्व खलों का मार्ग (गव्व) 1/1 (खल) 6/2 (मग्ग) 1/1 खलाण मग्गो 180 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च्चिय अउव्वो 19. संतं न देंति वारेंति देतयं दिन्नयं पि हारंति अणिमित्तवइरियाणं खलाण मग्गो च्चिय अउव्वो 20. जेहिं चिय उब्भविया जाण पसाएण निग्गयपयावा समरा ति विंझं खलाण मग्गो च्चिय प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ अव्यय (अउव्व) 1 / 1 वि (संत) 2 / 1 वि अव्यय (दा) व 3 / 2 सक (वार) व 3 / 2 सक (दा) वकृ 2/1 'य' स्वार्थिक प्रत्यय (दिन्न) 2 / 1 वि 'य' स्वार्थिक प्रत्यय अव्यय (हार) व 3 / 2 सक [(अणिमित्त)-(वइरिय) 6 / 2 वि] (खल) 6/2 ( मग्ग) 1 / 1 अव्यय (अउव्व) 1 / 1 वि (ज) 3 / 2 सवि अव्यय (उब्भव) भूकृ 1/2 (ज) 6/2 स (पसाअ ) 3/1 [ ( निग्गय) भूक अनि - (पयाव ) 1/2 ] (समर) 1 / 2 (डह) व 3 / 2 सक (fast) 1/2 (खल) 6/2 ( मग्ग) 1 / 1 अव्यय ही अनोखा होती हुई नहीं देते हैं रोकते हैं को हु ईको भी छीन लेते हैं बिना किसी कारण वैर करनेवाले खलों का मार्ग ही अनोखा hc जिनके द्वारा ही ऊँचे किए गये हैं जिनके प्रसाद से बाहर फैलाया गया है, प्रताप अनार्य जाते हैं विन्ध्य पर्वत को खलों का मार्ग 181 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अउव्वो (अउव्व) 1/1 वि अनोखा 21. सरसा (सरस) 1/2 वि ताजे वि अव्यय दुमा दावाणलेण डझंति सुक्खसंवलिया दुज्जणसंगे पत्ते सुयणो (दुम) 1/2 (दावाणल) 3/1 (डझंति) व कर्म 3/2 सक अनि [(सुक्ख) वि-(संवलिय) 1/2 वि] [(दुज्जण)-(संग) 7/1] (पत्त) 7/1 वि (सुयण) 1/1 अव्यय (सुह) 2/1 वृक्ष दावानल के द्वारा जला दिये जाते हैं शुष्क (घास) से मिश्रित दुर्जन का साथ प्राप्त होने पर सज्जन भी सुख अव्यय नहीं पावेइ (पाव) व 3/1 सक पाता है 22. bilehell.bas.titlot.ible : धन्ना धन्य मिले हुए बहरे और अन्धे बहिरंधलिया हो च्चिय जीवंति माणुसे लोए (धन्न) 1/2 [(बहिर) + (अंधल)+ (इया)][(बहिर) वि-(अंधल) वि-(इय) 1/2 वि] (दो) 1/2 वि अव्यय (जीव) व 3/2 अक (माणुस) 7/1 (लोअ) 7/1 अव्यय (सुण) व 3/2 सक [(पिसुण)-(वयण) 2/1] (खल) 6/1 (रिद्धि) 2/2 जीते हैं मनुष्य (लोक) में लोक में नहीं सुनते हैं दुष्ट के वचन को सुणंति पिसुणवयणं दुष्ट के खलस्स रिद्धी वैभव को अव्यय नहीं 182 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेच्छंति 23. एक्कं चिय सलहिज्जइ दिसदियहाण नवरि निव्वहणं आजम्म एक्मेक्aहि जेहि विरहो च्चिय न दिट्ठो 24. पडिवन्नं दिणयरवासराण दोह अखंडियं सुहइ सूरो न दिणेण ' विणा वि न हु 1. प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ (पेच्छ) 3/2 सक (एक्क) 1 / 1 वि अव्यय ( सलह ) व कर्म 3 / 1 सक [ ( दिस) - ( दियह) 6/2] अव्यय (निव्वहण ) 1/1 अव्यय ( एक्कमेक्क) 3 / 2 वि (ज) 3/2 स (विरह) 1 / 1 अव्यय अव्यय (दिट्ठ) भूकृ 1 / 1 अनि 'बिना ' के योग में द्वितीया, तृतीया या पंचमी विभक्ति होती है । ( पडिवन्न) भूकृ 1 / 1 अनि [(दिणयर) - (वासर) 6/2] (a) 6/2 fa ( अ - खंड) भूकृ 1 / 1 (सुह) व 3 / 1 अक (सूर) 1/1 अव्यय ( दिण ) 3 / 1 अव्यय अव्यय अव्यय अव्यय देखते हैं एक ही प्रशंसित किया जाता है सूर्य और दिन का केवल निर्वाह आजन्म प्रत्येक के द्वारा जिनमें से विरह ही नहीं देखा गया की हुई सूर्य और दिन की दोनों की अखण्डित शोभती है सूर्य नहीं दिन के बिना भी नहीं निश्चय ही 183 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरविरहम्मि [(सूर)-(विरह) 7/1] सूर्य के अभाव में 25. वह मित्र मित्तं कायव्वं बनाया जाना चाहिए जो किर (त) 1/1सवि (मित्त) 1/1 (कायव्व) विधिकृ 1/1 अनि (ज) 1/1 स अव्यय (वसण) 7/1 [(देस)-(काल) 7/1] [(आलिह) भूकृ-(भित्ति)-(बाउल्ल) 1/1 'य' स्वार्थिक अव्यय वसणम्मि देसकालम्मि निश्चय ही विपत्ति (पड़ने) पर स्थान व समय पर चित्रित, भीत पर, पुतले आलिहियभित्तिबाउल्लयं की तरह व परंमुहं अव्यय (परंमुह) 1/1 वि (ठा) व 3/1 अक नहीं विमुख रहता है ठाइ 26. छिज्जउ सीसं अह होउ बंधणं चयउ सव्वहा (छिज्जउ) विधि कर्म 3/1 सक अनि ___ काट दिया जाए (सीस) 1/1 शीश अव्यय यदि (हो) विधि 3/1 अक हो जाए (बंधण) 1/1 बन्धन (चय) विधि 3/1 सक छोड़ दे अव्यय पूर्णतः (लच्छी ) 1/1 लक्ष्मी [(पडिवन्न) भूकृ अनि-(पालण) 7/1] वचन दी हुई (बात) के पालन में (सुपुरिस) 6/2 सज्जन पुरुषों का (ज) 1/1 सवि (हो) व 3/1 अक होता है (त) 1/1 सवि वह लच्छी पडिवन्नपालणे inl t... सुपुरिसाण 184 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होउ (हो) विधि 3/1 अक 27. कीरइ समुद्दतरणं पविसिज्जइ हुयवहम्मि पज्जलिए आयामिज्जड (कीरइ) व कर्म 3/1 सक अनि [(समुद्द)-(तरण) 1/1] (पविस) व कर्म 3/1 सक (हुयवह) 7/1 (पज्जल) भूकृ 7/1 (आयाम) व कर्म 3/1 सक (मरण) 1/1 अव्यय (दुलंघ) 1/1 वि (सिणेह) 4/1 किया जाता है समुद्र भी पार प्रवेश किया जाता है अग्नि में प्रज्वलित स्वीकार किया जाता है मरण मरणं नत्थि नहीं दुलंघ अलंघनीय स्नेह के लिए सिणेहस्स 28. अकेले एक्काइ नवरि केवल नेहो स्नेह पयासिओ तिहुयणम्मि जोण्हाए व्यक्त किया गया है तीनों लोकों में चन्द्र प्रकाश के द्वारा (एक्काइ) वि अव्यय (नेह) 1/1 (पयास) भूकृ 1/1 (तिहुयण) 7/1 (जोण्हा) 3/1 (जा) 1/1 स (झिज्ज) व 3/1 अक (झीण) 7/1 वि (ससहर) 7/1 (वडू) व 3/1 अक (वड्ड) वकृ 7/1 जा झिज्जइ झीणे ससहरम्मि वड्डे वढते 29. झिज्जइ क्षीण होता है क्षीण (चन्द्रमा) में चन्द्रमा में बढ़ता है बढ़ते हुए में (झिज्ज) व 3/1 अक क्षीण होता है 1. कर्ता कारक में केवल मूलशब्द भी काम में लाया जा सकता है। (पिशल: प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 518) प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 185 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झीणम्मि सया वहइ वहु॑तयम्मि सविसेसं सायरससीण छज्जइ जयम्मि पडिवन्नणिव्वहणं 30. पडिवन्नं जेण समं पुव्वणिओएण होइ जीवस्स दूरट्ठिओ IT Too न दूरे जह चंदो कुमुयसंडाणं 31. दूरट्ठिया न दूरे सज्जणचित्ताण पुव्वमिलियाणं 1. 186 (झीण) 7 / 1 वि अव्यय (वड्ड) व 3 / 1 अक ( वड्ड) वकृ 'य' स्वार्थिक 7/1 (क्रिविअ ) [ ( सायर) - (ससि) 6 / 2] (छज्ज) व 3 / 1 अक ( पडिवन्न) भूकृ 1 / 1 अनि (ज) 3 / 1 स अव्यय [ ( पुव्व) - ( णिओअ ) 3 / 1] (हो) व 3 / 1 अक ( जय) 7/1 जगत में [ ( पडिवन्न) भूक अनि - ( णिव्वहण ) 1 / 1 ] किया हुआ निर्वाह [ (दूर) अ = दूर - (ट्ठिय) भूक 1/2 अनि ] अव्यय अव्यय [ ( सज्जण) - (चित्त) 4 / 2] [ ( पुव्व) क्रिविअ = पूर्व में - ( मिल ) भूकृ 4/2] 'सम' के योग में तृतीया विभक्ति होती है। क्षीण होने पर सदा बढ़ता है बढ़ते हुए होने विशेष प्रकार से साथ पूर्व सम्बन्ध से होता है (जीव ) 6/1 जीव का [ (दूर) अ = दूर (ट्ठिअ ) भूक 1 / 1 अनि ] दूरस्थित अव्यय नहीं अव्यय अव्यय (चंद) 1 / 1 [ ( कुमुय ) - (संड) 6 / 2] सागर और चन्द्रमा का शोभता है किया हुआ जिसके दूर फासले पर ) जैसे चन्द्रमा कमल-समूहों के दूर स्थित नहीं दूर फासले पर ) सज्जन चित्तों के लिए पूर्व में मिले हुए प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयणहिओ गगन में स्थित चंदो [(गयण)-(ट्ठिअ) भूकृ 1/1] अव्यय (चंद) 1/1 (आसास) व 3/1 सक [(कुमुय)-(संड) 2/2] आसासह चन्द्रमा आश्वासन देता है कमल-समूहों को कुमुयसंडाई 32. एमेव कह वि अव्यय अव्यय इसी प्रकार किसी तरह किसी के लिए कस्स (क) 4/1 सवि वि अव्यय भी (क) 3/1 सवि किसी के द्वारा केण वि दिद्वेण होइ परिओसो भी देख लिया जाने से होता है परितोष कमल-समूहों का कमलायराण अव्यय (दिट्ठ) भूकृ 3/1 अनि (हो) व 3/1 अक (परिओस) 1/1 [(कमल)+ (आयराण)] [(कमल)-(आयर) 6/2] (रइ) 3/1 (कि) 1/1 सवि (कज्ज ) 1/1 (ज) 3/1 स (वियस) व 3/2 अक रइणा सूर्य से किं क्या कज्जं जेण वियसंति प्रयोजन जिससे खिलते हैं 33. कत्तो अव्यय उम्गमइ. (उग्गम) व 3/1 अक (रइ) 1/1 रई कत्तो वियसंति पंकयवणाई सुयणाण अव्यय (वियस) व 3/2 अक [(पंकय)-(वण) 1/2] (सुयण) 6/2 कहाँ से उदय होता है सूर्य और कहाँ खिलते हैं कमलों के समूह सज्जनों का प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 187 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जए नेहो (जअ) 7/1 जगत में (नेह) 1/1 स्नेह अव्यय नहीं (चल) व 3/1 अक चलायमान होता है [(दूर) अ-दूर- (ट्ठिअ) भूक 6/2 अनि] दूर, स्थित अव्यय चलइ दूरट्ठियाणं पि 34. संतेहि असंतेहि विद्यमान अविद्यमान य परस्स किं तथा दूसरे के क्या कहे हुए (से) दोषों से जंपिएहि दोसेहिं # # FEEEEEEEEEEEEEEEEEET अत्थो अर्थ (संत) 3/2 वि (असंत) 3/2 वि अव्यय (पर) 6/1 वि (किं) 1/1 सवि (जंप) भूक 3/2 (दोस) 3/2 (अत्थ) 1/1 (जस) 1/1 अव्यय (लब्भइ) व कर्म 3/1 सक अनि (त) 1/1 स अव्यय (अमित्त) 1/1 (कअ) भूकृ 1/1 अनि (हो) व 3/1 अक जसो यश नहीं प्राप्त किया जाता है लब्भइ सो वह किन्तु शत्रु अमित्तो कओ बनाया गया होता है होइ 35. सीलं वरं कुलाओ (सील) 1/1 अव्यय (कुल) 5/1 (दालिद्द) 1/1 (भव्व) 1/1 वि स्वार्थिक ‘य' प्रत्यय शील श्रेष्ठतर कुल से निर्धनता अच्छी दालिदं भव्वयं अव्यय तथा 188 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोगाओ विज्जा रज्जाउ' वरं खमा वरं सुठु वि तवाओ' 36. सीलं वरं कुलाओ कुण किं होइ विगयसीलेण कमलाइ कद्दमे संभवंति न हु हुति मलिणाई netics 37. जं 4. 1. 2. 3. प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ (रोग) 5/1 (विज्जा) 1 / 1 ( रज्ज ) 5 / 1 अव्यय (खमा ) 1 / 1 अव्यय अव्यय अव्यय ( तव ) 5 / 1 (सील) 1 / 1 अव्यय (कुल) 5/1 (कुल) 3 / 1 (किं) 1/1 सवि (हो) व 3 / 1 अक [ ( विगय) भूक अनि - (सील) 3 / 1 ] (कमल) 1/2 (कद्दम) 7/1 (संभव) व 3 / 2 अक अव्यय अव्यय (हु) व 3 / 2 अक (मलिण) 1/2 वि अव्यय रोग से विद्या राज्य से श्रेष्ठतर क्षमा श्रेष्ठतर अच्छे तथा तप से शील श्रेष्ठतर कुल से कुल के द्वारा क्या होता है विनष्ट शील के ( होने ) पर कमल कीचड़ में उत्पन्न होते हैं नहीं जिससे तुलना की जाती है उसमें पंचमी विभक्ति होती है। कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण, 3-137) पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 516 प्रश्न सूचक अव्यय होते हैं मलिन ही 189 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जि अव्यय कि क्षमा करता है खमेइ समत्थो धणवंतो (खम) व 3/1 सक (समत्थ) 1/1 वि (धणवंत) 1/1 वि समर्थ धनवान अव्यय कि गव्वमुव्वहइ अव्यय नहीं [(गव्वं)+ (उव्वहइ)] गव्वं (गव्व) 2/1 गर्व, धारण करता है उव्वहइ (उव्वह) व 3/1 सक अव्यय कि अव्यय और विद्यायुक्त नम्र सविज्जो नमिरो तिसु' तेसु अलंकिया पुहवी (सविज्ज) 1/1 वि (नमिर) 1/1 वि (ति) 7/2 स (त) 7/2 स (अलंकिया) 1/1 वि (पुहवी) 1/1 तीनों के द्वारा उनके द्वारा अलंकृत पृथ्वी 38. इच्छा का (को) जो जो अणुवट्टइ मम्म अनुसरण करता है मर्म का (को) रक्षण करता है रक्खइ (छंद) 2/1 (ज) 1/1 सवि (अणुवट्ट) व 3/1 सक (मम्म) 2/1 (रक्ख) व 3/1 सक (गुण) 2/2 (पयास) व 3/1 सक (त) 1/1 स अव्यय (माणुस) 6/2 (देव) 6/2 गुणों को पयासेइ प्रकाशित करता है वह नवरि न केवल माणुसाणं मनुष्यों का देवताओं का देवाण 1. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135) 190 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यय भी वल्लहो प्रिय (वल्लह) 1/1 वि (हो) व 3/1 अक होइ होता है 39. [(लवण)-(सम) 1/1 वि] लवण के समान लवणसमो नत्थि अव्यय नहीं रसो (रस) 1/1 [(विन्नाण)-(सम) 1/1 वि] अव्यय रस ज्ञान के समान विन्नाणसमो और य बंधवो (बंधव) 1/1 बन्धु नहीं नत्थि धम्मसमो धर्म के समान नत्थि नहीं अव्यय [(धम्म)-(सम) 1/1 वि] अव्यय (निहि) 1/1 [(कोह)-(सम) 1/1 वि] अव्यय निधि निही कोहसमो क्रोध के समान नत्थि नहीं 40. कुप्पुत्तेहि कुलाई गामणगराइ पिसुणसीलेहिं नासंति कुमंतीहिं नराहिवा (कुप्पुत्त) 3/2 कुपुत्रों के कारण (कुल) 1/2 कुल [(गाम)-(णगर) 1/2] ग्राम-नगर [(पिसुण)-(सील) 3/2] दुष्ट चरित्रों के कारण (नास) व 3/2 अक नष्ट हो जाते हैं (कुमंति) 3/2 कुमंत्रियों के कारण [(नर)+(अहिवा)][(नर)-(अहिव) 1/2] नराधिपति अव्यय श्रेष्ठ वि अव्यय समिद्धा (समिद्ध) 1/2 वि समृद्ध 41. मत मा होसु अव्यय (हो) विधि 2/1 सक प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 191 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुयग्गाही मा सुने हुए को ग्रहण करनेवाले मत विश्वास करो पत्तीय जं देखा गया दिटुं पच्चक्खं प्रत्यक्ष [(सुय) वि-(ग्गाही) 1/1 वि] अव्यय (पत्तीय) विधि 2/1 सक (ज) 1/1 सवि (दिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि (पच्चक्ख) 1/1 अव्यय अव्यय (दिट्ठ) भूक 7/1 अनि [(जुत्त)+(अजुत्तं)][(जुत्त)-(अजुत्त) 2/1 वि] (वियार) विधि 2/2 सक वि और दिढे जुत्ताजुत्तं देखे जाने पर उचित और अनुचित का (को) विचार करो वियारेह 42. अप्पाणं अपनी शक्ति को न जानते हुए अमुणंता जो आरंभंति (अप्पाण) 2/1 (अमुण) वकृ 1/2 (ज) 1/2 स (आरंभ) व 3/2 सक (दुग्गम) 2/1 वि (कज्ज) 2/1 [(पर)-(मुह)-(पलोअ) भूक 4/2] दुग्गम कज्जं परमुहपलोइयाणं आरम्भ कर देते हैं कठिन कार्य परमुख की ओर देखे हुए के लिए उनके लिए किस तरह होती है (होगी) जय-लक्ष्मी ताणं कह होइ जयलच्छी (त) 4/2 सवि अव्यय (हो) व 3/1 अक [(जय)-(लच्छी ) 1/1] 43. सिग्धं करो आरुह कज्जं अव्यय तेजी से (फुर्ती से) (आरुह) विधि 2/1 सक (कज्ज) 2/1 कार्य को प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमान काल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता है। 1. 192 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारद्ध प्रारम्भ किये गये को (पारद्ध) भूक 2/1 अनि अव्यय मा मत अव्यय किसी तरह पि अव्यय सिढिलेसु पारद्धसिढिलियाई (सिढिल) विधि 2/1 सक [(पारद्ध) भूकृ अनि-(सिढिल) भूकृ 1/2] (कज्ज) 1/2 भी शिथिल करो प्रारम्भ किये गये, शिथिल किये गये कार्य कज्जाइ पुणो अव्यय फिर न नहीं अव्यय (सिज्झ) व 3/2 अक सिज्झंति सिद्ध होते हैं 44. मरणे झीणविहवो [(झीण) वि-(विहव) 1/1] नष्ट हुआ, वैभव अव्यय सुयणो (सुयण) 1/1 सज्जन सेवइ (सेव) व 3/1 सक सहारा लेता है रणं (रण्ण) 2/1 अरण्य का (को) अव्यय नहीं पत्थए (पत्थ) व 3/1 सक याचना करता है अन्न (अन्न) 2/1 वि दूसरे से (मरण) 7/1 मरण में अव्यय भी अइमहग्धं [(अइ) अ=अति-(महग्घ) 2/1] अति मूल्यवान अव्यय विक्किण (विक्किण) व 3/1 सक बेचता है माणमाणिक्कं [(माण)-(माणिक्क) 2/1] आत्मसम्मान रूपी रत्न को 45. नमिऊण (नम) संकृ झुककर पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 516 2. 'याचना' अर्थ की क्रिया के साथ द्वितीया विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। वि नहीं प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 193 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *15 विढप्पइ खलचलणं' तिहुयणं पि किं तेण माणेण *15 जं विढप्पड़ तणं पि तं निव्वुई कुणइ 46. ते धन्ना ताण नमो' ते गरुया माणिणो थिरारंभा जे गरुयवसणपडिपेल्लिया 1. 2. 194 (ज) 1 / 1 सवि (विढप्पर) व कर्म 3 / 1 सक अनि [ (खल) - (चलण) 2 / 1] (तिहुयण) 1/1 अव्यय (किं) 1 / 1 सवि (त) 3 / 1 स ( माण ) 3 / 1 (ज) 1 / 1 सवि (विढप्पइ) व कर्म 3 / 1 सक अनि (तण) 1 / 1 अव्यय (त) 1 / 1 स (निव्वुइ) 2/1 (कुण) व 3 / 1 सक (त) 1/2 स (धन्न) 1/2 वि (त) 4/2 स अव्यय (त) 1/2 स (गरुय) 1 / 2 वि (माणि) 1 / 2 वि [(थिर) + (आरंभा ) ] [(थिर) वि- ( आरम्भ ) 1/2] (ज) 1/2 सवि जो उपार्जित किया जाता है खल - चरण में त्रिभुवन भी क्या उससे सम्मान से जो उपार्जित किया जाता है 即 तृण भी वह सुख उत्पन्न करता है जो बड़ी विपत्ति से अति [ (गरुय) - (वसण) - (पडिपेल्ल) भूकृ 1/2] पीड़ित कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) 'नमो' के योग में चतुर्थी होती है। वे धन्य हैं उनके लिए नमस्कार वे महान आत्म-सम्मानी स्थिर प्रयत्न प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि अव्यय अन्नं (अन्न) 2/1 अव्यय (पत्थ) व 3/2 सक दूसरे से नहीं याचना करते हैं पत्थंति 47. तुंगो ऊँचा च्चिय होता है 61.#111.1let (तुंग) 1/1 वि अव्यय (हो) व 3/1 अक (मण) 1/1 (मणंसि) 6/1 (अंतिम) 7/2 वि अव्यय होइ मणो मणसिणो अंतिमासु वि मन प्रज्ञावान का अन्तिम (दशाओं) में दसासु अत्यंतस्स दशाओं में अस्त होते हुए की वि भी रइणो (दसा)7/2 (अत्थ) वकृ 6/1 अव्यय (रइ) 6/1 (किरण) 1/2 (क्रिविअ) अव्यय (फुर) व 3/2 अक किरणा सूर्य की किरणें ऊपर की ओर उद्धं चिय फुरंति प्रकट होती हैं 48. ता अव्यय तब तक ऊँचा तुंगो मेरुगिरी मयरहरो मेरु पर्वत समुद्र (तुंग) 1/1 वि (मेरुगिरि) 1/1 (मयरहर) 1/1 अव्यय (हो) व 3/1 अक (दुत्तार) 1/1 वि ताव होड़ तब तक होता है दुर्लंघ्य दुत्तारो 'याचना' अर्थ की क्रिया के साथ द्वितीया विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 195 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ता तब तक कठिन विसमा कज्जगई अव्यय (विसमा) 1/1 वि [(कज्ज)-(गइ) 1/1] अव्यय कार्यों में गति जाव अव्यय जब तक नहीं धीर स्वीकार करते हैं धीरा (धीर) 1/2 वि (पवज्ज) व 3/2 सक पवज्जति 49. अव्यय तब तक ता वित्थिण्णं विस्तीर्ण गयणं आकाश ताव तब तक च्चिय जलहरा अइगहीरा समुद्र अति गहरे ता (वित्थिण्ण) 1/1 वि (गयण) 1/1 अव्यय अव्यय (जलहर) 1/2 [(अइ)-(गहीर) 1/2 वि] अव्यय (गरुय) 1/2 वि (कुलसेल) 1/2 वि अव्यय अव्यय (धीर) 5/1 वि (तुल्लंति) व कर्म 3/2 सक अनि तब तक महान गरुया कुलसेला मुख्य पहाड़ जाव जब तक नहीं धीरेहि तुल्लंति धीरों से तुलना की जाती है 50. मेरु मेरु तिणं तृण जैसे कि व (मेरु) 1/1 (तिण) 1/1 अव्यय (सग्ग) 1/1 [(घर) + (अंगणं)] [(घर)-(अंगण) 1/1] जिससे तुलना की जाती है उसमें पंचमी विभक्ति होती है। सग्गो घरंगणं स्वर्ग घर का आँगन 1. 196 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हत्थछित्तं गयणयलं हाथ से छुआ हुआ गगन-तल वाहलिया क्षुद्र नदियाँ [(हत्थ)-(छित्त) 1/1 वि] [(गयण)-(यल) 1/1] (वाहलिया) 1/2 अव्यय (समुद्द) 1/2 (साहसवंत) 4/2 वि (पुरिस) 4/2 जैसे कि समुद्र समुद्दा साहसवंताण पुरिसाणं साहसी के लिए पुरुषों के लिए प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 197 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. पाऊण णाणसलिलं णिम्मलसुविसुद्ध - भावसंजुत्ता हुं सिवालयवासी तिहुवणचूडामणी सिद्धा 2. विहीणा ण लहंते ते सुइच्छियं to लाहं इय णाउं गुणदो तं 2. 1. 198 पाठ-5 अष्टपाहुड (पा) संकृ [ ( णाण) - ( सलिल) 2 / 1] [ ( णिम्मल) - (सुविसुद्ध ) वि - (भाव) - ( संजुत्त) 1/2 वि ] (हु) व 3/2 अक [(सिवालय) - (वासि) 1/2 वि] [ ( तिहुवण ) - (चूडामणि) 1 / 2 ] (सिद्ध) 1/2 [ ( णाण) - (गुण) 3/2] ( विहीण ) 1/2 वि अव्यय (लह) व 3 / 2 सक (त) 1/2 सवि [(सु) अ= भली प्रकार से ( इच्छ) भूक़ 2 / 1 ] (ITE) 2/1 अव्यय (णा) हेकृ [( गुण) - (दोस) 2 / 1 ] (त) 2 / 1 सवि पीकर ज्ञानरूपी जल को निर्मल, शुद्ध भावों से युक्त होते हैं शिवालय में रहनेवाले त्रिभुवन के आभूषण मुक्त ज्ञान-गुण से रहित नहीं प्राप्त करते हैं वे भली प्रकार से, चाहु लाभ को इस प्रकार जानने के लिए गुण-दोष को कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-136) उस प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान को सण्णाणं वियाणेहि (सण्णाण) 2/1 (वियाण) आज्ञा 2/1 सक समझ 3. अप्पा ण अव्यय जाण जानो चारित्तसमारूढो [(चारित्त) + (सम)+(आरूढ़ो)] चारित्र पर पूर्णत: आरूढ़ [(चारित्त)-(सम) अ= पूर्णतः (आरूढ़) भूक 1/1 अनि] (अप्प) 2/1 अपभ्रंश आत्मा में सुपरं [(सु) (अव्यय) श्रेष्ठ, श्रेष्ठ, परं-(पर) 2/1 वि] पर वस्तु को नहीं ईहए (ईह) व 3/1 सक देखता है णाणी (णाणि) 1/1 वि ज्ञानी पावइ (पाव) व 3/1 सक प्राप्त करता है अइरेण अव्यय शीघ्र (सुह) 2/1 सुख अणोवमं (अणोवम) 2/1 वि अनुपम (जाण) विधि 2/1 सक णिच्छयदो (णिच्छय) पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय निश्चय से 4. संजमसंजुत्तस्स [(संजम)-(संजुत्त) भूकृ 6/1 अनि] संयम से जुड़े हुए अव्यय तथा सुझाणजोयस्स [(सु) अ= श्रेष्ठ श्रेष्ठ, (झाण)-(जोय) 6/1 वि] ध्यान के लिए उपयुक्त मोक्खमग्गस्स [(मोक्ख)-(मग्ग) 6/1] मोक्ष मार्ग के णाणेण (णाण) 3/1 परम ज्ञान से (लह) व 3/1 सक प्राप्त करता है लक्खं (लक्ख) 2/1 लक्ष्य को तम्हा अव्यय इसलिए 1. इसका प्रयोग प्राय: कर्तृवाच्य में किया जाता है। 2. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) लहदि । प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 199 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णाणं (णाण) 1/1 परम ज्ञान अव्यय (णा) विधिकृ 1/1 निश्चय ही समझा जाना चाहिए णायव्वं 5. नहीं fillriti जह अव्यय जैसे णवि अव्यय लहदि (लह) व 3/1 सक देखता है अव्यय बिल्कुल लक्खं (लक्ख ) 2/1 लक्ष्य को रहिओ (रहिअ) 1/1 वि रथिक कंडस्स (कंड) 6/1 बाण से वेज्झयविहीणो (वेज्झय) 'य' स्वार्थिक वि-(विहीण) बींधने योग्य, रहित 1/1 वि] तह अव्यय वैसे ही णवि अव्यय नहीं लक्खदि (लक्ख) व 3/1 सक देखता है लक्खं (लक्ख) 2/1 लक्ष्य को अण्णाणी (अण्णाणि) 1/1वि ज्ञानरहित मोक्खमग्गस्स [(मोक्ख)-(मग्ग) 6/1] मोक्ष-मार्ग के 6. णाणं (णाण) 1/1 ज्ञान पुरिसस्स' (पुरिस) 6/1 आत्मा में हवदि (हव) व 3/1 अक होता है लहदि (लह) व 3/1 सक प्राप्त करता है सुपुरिसो (सु-पुरिस) 1/1 सत्पुरुष अव्यय 'लह' का अर्थ यहाँ देखना है। देखें, संस्कृत-हिन्दी कोश, वामन शिवराम आप्टे कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) 200 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजुत् णाणेण लहदि लक्ख लक्खंतो मोक्खमग्गस्स 7. महं जस्स थिरं सुदगुण बाणा अथ रयणत्तं परमत्थबद्धलक्खो णवि चुद मोक्खमग्गस्स' 8. धम्मो दयावसुद्धो पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता देवो ववगयमोहो उदययरो 1. प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ [विणय ) - ( संजुत्त) 1 / 1 वि] ( णाण) 3 / 1 (लह) व 3 / 1 सक ( लक्ख) 2/1 ( लक्ख) वकृ 1 / 1 [ ( मोक्ख ) - ( मग्ग) 6 / 1] [ ( मइ ) - ( धणुह ) 1 / 1] (ज) 4 / 1 स (थिर) 1 / 1 वि [ ( सुद) - (गुण) मूलशब्द 1 / 1] (बाण) 1 / 2 अव्यय ( रयणत) 1 / 1 [ ( परमत्थ) - (बद्ध) भूकृ अनि ( लक्ख) 1 / 1] अव्यय (चुक्क) व 3 / 1 अक [ ( मोक्ख ) - ( मग्ग) 6/1] ( धम्म) 1 / 1 [(दया) - (विसुद्ध ) 1 / 1 वि] ( पव्वज्जा ) 1 / 1 [(सव्व) वि - (संग) - (परिचत्ता) भूकृ 1 / 1 अनि] (देव) 1 / 1 [ ( ववगय) भूक अनि - ( मोह) 1 / 1 ] (उदययर) 1 / 1 वि विनय से जुड़ा हुआ ज्ञान के द्वारा प्राप्त करता है लक्ष्य को देखता हुआ मोक्ष - मार्ग के मति, धनुष जिसके लिए स्थिर श्रुत (ज्ञान) डोरी बाण श्रेष्ठ तीन रत्नों का समूह परमार्थ का, दृढ़, लक्ष्य कभी नहीं विचलित होता है मोक्ष मार्ग से धर्म दया से संन्यास समस्त आसक्ति से रहित शुद्ध कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) किया हुआ देव नष्ट की गई, मूर्च्छा उत्थान करनेवाला 201 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव्वजीवाणं 9. सत्तूमित्ते य समा पसंसणिंदा अलद्धिलद्विसमा तणकणए समभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया 10. उत्तममज्झिमगेहे दारिद्दे ईसरे णिरावेक्खा सव्वत्थ गिहिदपिंडा पव्वज्जा एरिसा भणिया 11. भावो हि पढमलिंगं ण 1. 2. 202 [ ( भव्व) - (जीव ) 6 / 2] [ ( सत्तू ) ' - ( मित्त) 7 / 1] अव्यय (सम (स्त्री) समा) 1 / 1 वि (पसंस ) 2 - (णिंदा) - (अलद्धि) - (लद्धि) - (सम (स्त्री) समा) 1 / 1 वि [ ( तण ) - (कणअ) 7 / 1] [ ( समभावा) 1 / 1 वि] ( पव्वज्जा ) 1 / 1 (एरिस (स्त्री) एरिसा) 1 / 1 वि (भण) भूक़ 1 / 1 अव्यय [(गिहिद) - (पिंडा)][(गिह) भूकृ 1 / 1 अनि - (पिंड) 1/2 ] (पव्वज्जा) 1/1 (एरिस (स्त्री) एरिसा) 1 / 1 वि (भण) भूकृ 1 / 1 [(उत्तम) वि - (मज्झिम) वि - (गेह) 7 / 1] उत्तम और मध्यम गृह में (दारिद्द) 7/1 गरीबी में (ईसर) 7/1 अमीर (व्यक्ति) में (णिरावेक्ख (स्त्री) णिरावेक्खा ) 1 / 1 वि निरपेक्ष प्रत्येक स्थान में स्वीकृत, आहार (भाव) 1 / 1 अव्यय [ ( पढम) वि - (लिंग) 1 / 1] अव्यय छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'त्तु' को 'तू' किया गया है। छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'पसंसा' को 'पसंस' किया गया है। भव्य जीवों का शत्रु और मित्र में निश्चय ही समान प्रशंसा और निन्दा में, लाभ और अलाभ में समान तृण और सुवर्ण में समभाव संन्यास ऐसा कहा गया है संन्यास ऐसा कहा गया है भाव निस्सन्देह प्रधान वेश नहीं प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दव्वलिंगं बाह्य वेश नहीं जाण जानो परमत्थं सच्चाई [(दव्व)-(लिंग) 1/1] अव्यय (जाण) विधि 2/1 सक (परमत्थ) 1/1 (भाव) 1/1 (कारण)-(भूद) भूकृ 1/1 अनि [(गुण)-(दोस) 6/2] (जिण) 1/2 (बू) व 3/2 सक भावो कारणभूदो गुणदोसाणं जिणा बिंति भाव कारण हुआ गुण-दोषों का जितेन्द्रिय व्यक्ति कहते हैं भाव-शुद्धि के हेतु बाह्य परिग्रह का किया जाता है 12. भावविसुद्धिणिमित्तं बाहिरगंथस्स कीरए चाओ बाहिरचाओ विहलो अब्भंतरगंथजुत्तस्स त्याग [(भाव)-(विसुद्धि)-(णिमित्त) 1/1] [(बाहिर) वि-(गंथ) 6/1] (कीरए) व कर्म 3/1 सक अनि (चाअ) 1/1 [(बाहिर) वि-(चाअ) 1/1] (विहल) 1/1 वि [(अब्भंतर) वि-(गंथ)-(जुत्त) 6/1 वि बाह्य त्याग निरर्थक आन्तरिक, परिग्रह से युक्त का 13. जाणहि भावं समझो भाव को सर्वप्रथम पढमं ति क्या (जाण) विधि 2/1 सक (भाव) 2/1 अव्यय (किं) 1/1 सवि (तुम्ह) 4/1 स (लिंग) 3/1 [(भाव)-(रह) भूक 3/1] (पंथिय) 8/1 [(सिवपुरि)-(पंथ) 1/1] लिंगेण . भावरहिएण पंथिय सिवपुरिपंथं तुम्हारे लिए वेश से भावरहित से हे पथिक! शिवपुरी का मार्ग 1. प्राकृतमार्गोपदेशिका, पृष्ठ 152 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 203 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिणउवइटुं [(जिण)-(उवइट्ठ) 1/1 वि] (क्रिविअ) जितेन्द्रियों द्वारा प्रतिपादित सावधानीपूर्वक पयत्तेण 14. जो (ज) 1/1 सवि जीवो जीव चिन्तन करता हुआ. भांवतो जीवसहावं सुभावसंजुत्तो आत्म-स्वभाव का श्रेष्ठ, (जीव) 1/1 (भाव) वकृ 1/1 [(जीव)-(सहाव) 2/1] [(सु) अ= श्रेष्ठ(भाव)-(संजुत्त) 1/1 वि] (त) 1/1 सवि [(जर)-(मरण)-(विणास) 2/1] (कुण) व 3/1 सक भावों से युक्त सो वह जरमरणविणासं कुणइ फुडं अव्यय बुढ़ापा और मृत्यु का नाश करता है निश्चय ही प्राप्त करता है परम शान्ति को लहइ णिव्वाणं (लह) व 3/1 सक (णिव्वाण) 2/1 15. अरसमरूवगंधं रस रहित, रूप रहित गन्ध रहित अव्वत्तं चेयणागुणमसहं अदृश्यमान चेतना, स्वभाव शब्द रहित [(अरसं)+(अरूवं)+ (अगंध)] अरसं (अरस) 1/1 वि अरूवं (अरूव) 1/1 वि अगंधं (अगंध) 1/1 वि (अव्वत्त) 1/1 वि [(चेयणा)+ (गुणं)+ (असई)]] [(चेयणा)-(गुण) 1/1 वि] असदं (असद्द) 1/1 वि [(जाणं) + (अलिंग)+(गहणं)] जाणं (जाण) 1/1 [(अलिंग) वि(ग्गहण) 1/1] [(जीव) + (अणिघि8) + (संठाणं)] जीवं (जीव) 1/1 [(अणिद्दिट्ठ) वि-(संठाणं) 1/1] जाणमलिंगग्गहणं ज्ञान, बिना किसी चिह्न के ग्रहण जीवमणिहिट्ठसंठाणं आत्मा, अप्रतिपादित आकार 16. पढिएण (पढ) भूक 3/1 पढ़े जाने से 204 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि किं कीर किं वा सुणिएण भावरहिएण भावो कारणभूदो सायारणयारभूदाणं 17. बाहिरसंगच्चाओ गिरिसरिदरिकंदराइ आवासो सयलो झाणज्झयणो णिरत्थओ भावरहियाणं 18. भंजसु इंदियसेणं भंजसु मणमक्कड पयत्तेण मा जणरंजणकरणं प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ अव्यय (किं) 1/1 सवि (कीरइ) व कर्म 3 / 1 सक अनि ( किं) 1 / 1 सवि अव्यय (सुण) भूक 3 / 1 [ ( भाव ) - ( रहिअ ) 3 / 1 वि] (भाव) 1 / 1 [ ( कारण ) - (भूद) 1 / 1 वि] [(सायार) + (अणयार) + (भूदाणं)] [ ( सायार) वि - ( अणयार) वि(भूद) 6 / 2 वि] [ ( बाहिर) वि - ( संग ) - (च्चाअ) 1 / 1 ] [(गिरि) - (सरि) - (दरि) - (कंदरा) 7/1] (आवास) 1/1 (सयल) 1 / 1 वि [ ( झाण) + (अज्झयणो ) ] [ ( झाण) - ( अज्झयण) 1 / 1 ] ( णिरत्थअ) 1 / 1 वि [(भाव) - (रहिय) 4 / 2 वि] (भंज) विधि 2 / 1 सक [ ( इंदिय) - ( सेणा ) 2 / 1] (भंज ) विधि 2 / 1सक [ (मण) - (मक्कड) 2/1] (क्रिविअ ) अव्यय [(जण) - (रंजण) - (करण) 2 / 1] भी क्या प्राप्त किया जाता है क्या अथवा सुना हुआ होने से भाव-रहित भाव आधार बना हुआ गृहस्थ, साधु होने वालों का बाह्य परिग्रह का त्याग पर्वत, नदी, गुफा और घाटी में रहना सकल ध्यान और अध्ययन निरर्थक भाव रहित के लिए छिन्न-भिन्न करो इन्द्रियरूपी सेना को छिन्न-भिन्न करो मनरूपी बन्दर को प्रयत्नपूर्वक मत जन-समुदाय को खुश करने के साधन 205 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहिरवयवेस बाह्य व्रतरूपी वेश को [(बाहिर) वि- (वय)-(वेस) मूलशब्द 2/1] (तुम्ह) 1/2 सवि (कुण) विधि 2/1 सक कुणसु धारण करो 19. जह दीवो गब्भहरे मारुयबाहाविवज्जिओ जलइ तह अव्यय जिस प्रकार (दीव) 1/1 दीपक (गब्भहर) 7/1 घर के भीतर के कमरे में [(मारुय)-(बाहा)-(विवज्जिअ) 1/1 वि] हवा की बाधा से रहित (जल) व 3/1 अक जलता है अव्यय उसी प्रकार [(राय) + (अनिल) + (रहिओ)](राय)- रागरूपी हवा से रहित (अनिल)-(रहिअ) 1/1 वि] [(झाण)-(पईव) 1/1] ध्यानरूपी दीपक अव्यय (पज्जल) व 3/1 अक जलता है रायानिलरहिओ झाणपईवो वि पज्जलइ 20. उत्थरइ (उत्थर) व 3/1 अक आच्छादन करती है (पकड़ती है) अव्यय जब तक नहीं ओ अव्यय (जर) 1/1वि अपभ्रंश वृद्ध (अवस्था) अव्यय सम्बोधन [(रोय)+ (अग्गी)][(रोय)-(अग्गि) 1/1] रोगरूपी, अग्नि अव्यय जब तक रोयग्गी जा ण अव्यय नहीं डहइ देहउडिं (डह) व 3/1 सक (देह)-(उडि) 2/1 [(इंदिय)-(बल) 1/1] जलाती है देहरूपी, कुटिया को इन्द्रियों की शक्ति इंदियबलं अव्यय नहीं 206 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वियलइ ताव तुमं कुहि अप्पहिय 21. मोहमयगारवेहिं य मुक्का 15 करुणभावसंजुत्ता सव्वदुरियखंभं हणंति चारित्तखग्गेण 22. तिपयारो सो अप्पा परब्भिंतरबाहिरो ऊण' तत्थ परो झाइज्जइ 1. प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ ( वियल) व 3 / 1 अक अव्यय (तुम्ह) 1 / 1 स (कुण) विधि 2 / 1 सक [ ( अप्प ) - (हिय) 2 / 1 ] [ ( मोह) - (मय) - (गारव) 3 / 2 ] अव्यय (मुक्क) 1/2 वि (ज) 1/2 सवि [(करुण) - (भाव) - (संजुत्त) 1 / 2 वि] (त) 1 / 2 सवि [ ( सव्व) वि- (दुरिय) - (खंभ) 2 / 1 ] (हण) व 3 / 2 सक [ ( चारित) - (खग्ग) 3 / 1] [(ति) वि - ( पयार ) 1 / 1] (त) 1/1 सवि ( अप्प ) 1 / 1 [ ( पर) + (अब्भिंतर) + (बाहिरो) [ ( पर) वि - ( अब्धिंतर) वि - (बाहिर) 1/1 fa] अव्यय ( हेउ) 6/2 अव्यय (पर) 1 / 1 वि (झा) व कर्म 3 / 1 सक क्षीण होती है। तब तक तू कर ले आत्म-हित मूर्च्छा, अभिमान और लालसा से तथा मुक्त जो करुणाभाव से संयुक्त वे पूर्ण पापरूपी खम्भे को नष्ट कर देते हैं चारित्ररूपी तलवार से तीन प्रकार का वह आत्मा परम, आन्तरिक और बहिर कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) निश्चय ही कारणों से उस अवस्था में परम ध्याया जाता है 207 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतोवायेण आन्तरिक, साधन से [(अंत)+ (उवायेण)] अंत (अव्यय) उवायेण (उवाय) 3/1 (चय) विधि 2/1 सक (बहिरप्प) 2/1 अपभ्रंश छोडो चयहि बहिरप्पा बहिरात्मा को 23. अक्खाणि बहिरप्पा अंतरअप्पा अप्पसंकप्पो कम्मकलंकविमुक्को परमप्पा (अक्ख) 1/2 इन्द्रियाँ (बहिरप्प) 1/1 बहिरात्मा [(अंतर)-(अप्प) 1/1] अन्तरात्मा अव्यय [(अप्प)-(संकप्प) 1/1] आत्मा का विचार [(कम्म)-(कलंक)-(विमुक्क) 1/1 वि] कर्म-कलंक से मुक्त (परमप्प) i/1 परम-आत्मा (भण्ण) व कर्म 3/1 सक अनि कहा जाता है (देव) 1/1 भण्णए देवो देव 24. आरुहवि' अंतरप्पा बहिरप्पा छंडिऊण तिविहेण ग्रहण कर अन्तरात्मा को बहिरात्मा को (आरुह) संकृ अपभ्रंश (अंतरप्प) 2/1 अपभ्रंश (बहिरप्प) 2/1 अपभ्रंश (छंड) संकृ (तिविह) 3/1 (झा) व कर्म 3/1 सक (परमप्पा) 1/1 (उवइट्ठ) 1/1 वि (जिणवरिंद) 3/2 छोड़कर तीन प्रकार से झाइज्जइ परमप्पा उवइ8 जिणवरिंदेहिं ध्याया जाता है परम आत्मा कथित अरहन्तों द्वारा 25. बहिरत्थे बाह्य पदार्थ में [(बहिर) + (अत्थे)][(बहिर) वि(अत्थ) 7/1] [(फुरिय) भूकृ-(मण) 1/1] फुरियमणो लगा हुआ, मन 'आ' पूर्वक ‘रुह' धातु के अर्थ प्रयुक्त संज्ञा के अनुसार विभिन्न प्रकार के होते हैं। (आरुह+ अवि= आरुहवि) यहाँ ‘अवि' प्रत्यय जोड़ा गया है। 208 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रियों के माध्यम से इंदियदारेण णियसरूवचुओ निज स्वरूप भूला हुआ णियदेहं [(इंदिय)-(दार) 3/1] [(णिय) वि-(सरूव)-(चुअ) भूकृ 1/1 अनि] [(णिय) वि-(देह) 2/1] (अप्पाण) 2/1 (अज्झवस) व 3/1 सक [(मूढ) वि-(दिट्ठि) 1/1 वि] अप्पाणं अज्झवसदि मूढदिट्ठी निज देह आत्मा को विचारता है मूढ दृष्टिवाला खेद ओ अव्यय ___ 26. देह से उदासीन णिरवेक्खो णिइंदो णिम्ममो णिरारंभो आदसहावे सुरओ (ज) 1/1 सवि (देह) 7/1 (णिरवेक्ख) 1/1 वि (णिबंद) 1/1 वि (णिम्मम) 1/1 वि (णिरारंभ) 1/1 वि [(आद)-(सहाव) 7/1] [(सु) अ= पूरी तरह-(रअ) भूकृ 1/1 अनि (जोइ) 1/1 (त) 1/1 सवि (लह) व 3/1 सक (णिव्वाण) 2/1 द्वन्द्व रहित ममतारहित जीव-हिंसारहित आत्म-स्वभाव में पूरी तरह, संलग्न योगी जोई सो लहइ णिव्वाणं प्राप्त करता है परमशान्ति 27. जो इच्छइ णिस्सरितुं संसारमहण्णवाउ (ज) 1/1 सवि (इच्छ) व 3/1 सक (णिस्सर) हेकृ [(संसार)-(महण्णव) 5/1] चाह रखता है निकलने की संसाररूपी महासागर से 1. कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-136) 'इच्छा' अर्थ में हेकृ का प्रयोग होता है। 2. प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 209 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुद्दाओ कम्मिंधणाण' हणं सो झाय अप्पयं सुद्धं 28. मयमायकोहरहिओ लोहेण विवज्जिओ य जो जीवो म्मिलसहावत्त सो पावइ उत्तमं सोक्खं 29. तवरहियं जं 15 णाणं 1. 2. 3. 210 ( रुद्द) 5 / 1 वि [(कम्म) + (इंधणाण)] [ ( कम्म ) - (इंधण) 6/2] (डहण) 2 / 1 वि (त) 1 / 1 सवि (झा) व 3 / 1 सक ( अप्पय ) 2 / 1 (सुद्ध) 2 / 1 वि [(मय) - (माय) - (कोह) - (रहिअ) 3 1/1 fa] (लोह) 3/1 ( विवज्जिअ ) 1 / 1 वि अव्यय (ज) 1 / 1 सवि (जीव ) 1 / 1 [(णिम्मल) - (सहाव) - (जुत्त) 1 / 1 वि] (त) 1 / 1 सवि (पाव) व 3 / 1 सक (उत्तम) 2 / 1 वि (सोक्ख) 2 / 1 [ ( तव ) - ( रहिय) 1 / 1 वि] अव्यय ( णाण) 1 / 1 भीषण (से) कर्मरूपी ईंधन को जलानेवाली वह ध्यान करता है। आत्मा का ( को ) शुद्ध का ( को ) अहंकार, कपट, क्रोध से रहित लोभ से रहित तथा जो जीव निर्मल स्वभाव से युक्त वह पाता है उत्तम सुख को तपरहित चूँकि कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) अकारान्त धातुओं के अतिरिक्त अन्य स्वरान्त धातुओं में विकल्प से 'अ' (य) जोड़ने के पश्चात् प्रत्यय जोड़ा जाता है। कारण के साथ या समास के अन्त में इसका अर्थ होता है, मुक्त, वंचित, रहित । ज्ञान प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानरहित णाणविजुत्तो तवो तप वि अकयत्थो तम्हा णाणतवेणं संजुत्तो लहइ णिव्वाणं [(णाण)-(विजुत्त) 1/1 वि] (तव) 1/1 अव्यय (अकयत्थ) 1/1 वि अव्यय [(णाण)-(तव) 3/1 वि] (संजुत्त) 1/1 वि (लह) व 3/1 सक (णिव्वाण) 2/1 असफल इसलिए ज्ञान (और) तप से संयुक्त पाता है परमशान्ति को 30. ताम अव्यय तब तक ण नहीं णज्जइ अप्पा जानता है आत्मा को विषयों में विसएसु णरो मनुष्य पवट्टए अव्यय (णज्ज) व 3/1 सक (अप्प) 2/1 अपभ्रंश (विसअ) 7/2 (णर) 1/1 (पवट्ट) व 3/1 अक अव्यय (विसअ) 7/1 [(विरत्त)-(चित्त) 1/1] (जोइ) 1/1 (जाण) व 3/1 सक (अप्पाण) 2/1 जाम विसए' विरत्तचित्तो प्रवृत्ति करता है जब तक विषय से उदासीन, चित्त योगी जोई जाणेइ जानता है आत्मा को अप्पाणं 31. जिंदाए य (णिंदा) 7/1 अव्यय (पसंसा) 7/1 निन्दा में और प्रशंसा में पसंसाए 1. कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-136) प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 211 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुक्खे दुःखों में और 1.1. सुहएसु सुखों में तथा (दुक्ख) 2/2 अव्यय (सुह) 'अ' स्वार्थिक प्रत्यय 7/2 अव्यय (सत्तु) 6/2 अव्यय (बंधु) 6/2 (चारित्त) 1/1 (समभाव) पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय सत्तूणं चेव बंधूणं चारित्तं समभावदो शत्रुओं में और मित्रों में चारित्र समभाव से 32. धम्मेण धर्म के कारण होइ होता है लिंगं वेश ण 1.1.1111:11 लिंगमत्तण धम्मसंपत्ती जाणेहि भावधम्म किं (धम्म) 3/1 (हो) व 3/1 अक (लिंग) 1/1 अव्यय [(लिंग)-(मत्त) 3/1] [(धम्म)-(संपत्ति) 1/1] (जाण) आज्ञा 2/1 सक [(भाव)-(धम्म) 2/1] (किं) 1/1 सवि (त) 4/1 सवि (लिंग) 3/1 (का) विधिकृ 1/1 नहीं वेश मात्र से धर्म की प्राप्ति समझो भाव-धर्म को क्या लिंगेण तुम्हारे लिए वेश से किया जायेगा (किया जाना चाहिए) कायव्वो' 33. सीलस्स (सील) 6/1 शील में कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) यहाँ विधि का प्रयोग भविष्य अर्थ में हुआ है। 212 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ य णाणस्स ' य णत्थि विरोहो बुधे णिद्दिट्ठो नवरि य सीलेण विणा विसया णाणं विणासंति 34. वायरणछंदवइसेसियववहारणायसत्थेसु' वेदेऊण सुदेसु य तेव सुयं उत्तमं सीलं अव्यय ( णाण) 6/1 अव्यय अव्यय (farta) 1/1 (बुध) 3 / 2 वि ( णिद्दिट्ठ) भूक 1 / 1 अनि अव्यय अव्यय (सील) 3 / 1 अव्यय (विसय) 1/2 ( णाण) 2 / 1 (विणास ) व 3 / 1 सक [ ( वायरण) - (छंद) - ( वइसेसिय) - (ववहार) - ( णाय) - ( सत्थ) 7 / 2 ] (वेद) संकृ (सुद) 7/2 अव्यय [(ते) + (एव) ] त (तुम्ह) 4 / 1 सवि एव (अव्यय) (सुय) भूकृ 1 / 1 अनि (उत्तम) 1 / 1 वि (सील) 1 / 1 और ज्ञान में दोबारा प्रयोग नहीं विरोध विद्वानों द्वारा बतलाया गया केवल किन्तु शील के बिना विषय ज्ञान को नष्ट कर देते हैं व्याकरण, छन्द, वैशेषिक न्याय प्रशासन, न्याय शास्त्रों को जानकर आगमों को 1. कभी - कभी 'और' अर्थ को प्रकट करने के लिए 'य' का प्रयोग दो बार किया जाता है। 2. कभी - कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण और तुम्हारे लिए, ही कहा गया उत्तम शील 3-134) 3. 'विणा' के योग में द्वितीया, तृतीया या पंचमी विभक्ति होती है। 4. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135) प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 213 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-6 कार्तिकेयानुप्रेक्षा (जम्म) 1/1 जन्म जम्म मरणेण (मरण) 3/1 मरण के समं संपज्जइ जोव्वणं जरा-सहियं लच्छी विणास-सहिया अव्यय साथ (संपज्ज) व 3/1 अक संलग्न है (जोव्वण) 1/1 यौवन [(जरा)-(सहिय) 1/1 वि] बुढ़ापे के साथ (लच्छी ) 1/1 लक्ष्मी [(विणास)-(सहिय(स्त्री)सहिया) 1/1 वि] विनाश सहित अव्यय इस प्रकार (भंगुर) 2/1 वि विनाशवान (मुण) विधि 2/1 सक जानो इय भंगुरं मुणह अस्थिर अथिरं परियण-सयणं (अथिर) 1/1 वि [(परियण)-(सयण) 1/1] [(पुत्त)-(कलत्त) 1/1] [(सुमित्त)-(लावण्ण) 1/1] पुत्त-कलत्तं सुमित्त-लावण्णं परिवार, सगे-सम्बन्धी पुत्र, स्त्री अच्छे मित्र, शरीर की सुन्दरता घर, गायों का समूह वगैरह सभी गिह-गोहणाइ [(गिह)-(गोहण)+(आइ)] [(गिह)-(गोहण)-(आइ)- 1/2] (सव्व) 1/1 स सव्वं 1. 'सम' के योग में तृतीया होती है। किसी भी कारक में मूलसंज्ञाशब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशल, प्राकृत भाषा व्याकरण पृष्ठ 517) 214 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णव-घण- विंदेण' सारिच्छं 3. सुरधणु-तडव्व चवला इंदिय-विसया सुभिच्च व य दिट्ठ - पणट्ठा सव्वे तुरय-गया रहवरादी य 4. पंथे -वग्गा पहिय-जणाणं जह संजोओ हवेइ खणमित्तं बंधु-जाणं च तहा संजोओ अद्धुओ होइ [(णव) - (घण) - (विंद ) 3 / 1 ] ( सारिच्छ ) 1 / 1 वि [ ( सुरधणु ) - (तडि ) 2 1 / 1- (व्व) (अ) = की तरह ] (चवल) 1/2 वि [ ( इंदिय) - (विसय) 1/2] [ ( सुभिच्च) - ( वग्ग ) 1/2] अव्यय [ ( दिट्ठ) - (पणट्ठ) भूक 1/2 अनि ] ( सव्व) 1 / 2 सवि [ ( तुरय) - ( गय) 1 / 2 ] [ (रह) - (वर) + (आदी)] [ (रह) - (वर) - ( आदि) 1/2] अव्यय ( पंथ) 7/1 [ ( पहिय) - ( जण) 6 / 2] अव्यय ( संजोअ) 1/1 ( हव) व 3 / 1 अक अव्यय [ ( बंधु) - (जण) 6 / 2] अव्यय अव्यय (संजोअ) 1/1 (अद्धअ) 1/1 वि (हो) व 3 / 1 अक नए मेघ-समूह समान इन्द्रधनुष और बिजली की तरह चंचल इन्द्रियों के विषय अच्छे नौकरों का समूह तथा दिखाई दिये और नष्ट हुए सभी घोड़े, हाथी उत्तम रथ वगैरह तथा के मार्ग में पथिकजनों का 1. समान के योग में तृतीया विभक्ति आती है। 2. आगे संयुक्ताक्षर व्व होने के कारण 'तडी' के स्थान पर 'तडि' हुआ है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ जिस तरह संयोग होता है क्षणभर के लिए बन्धुजनों को निश्चय वाचक (ही) उसी तरह संयोग अस्थिर होता है 215 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. अइलालिओ वि देहो हाण - सुगंधेहिँ विविह-भक्खेहिं खणमित्तेण वि विहडइ जल-भरिओ आम-घडओ 18 व्व 6. E भुंजिज्ज लच्छी दिज्जउ दाणे दया-पहाणेण जा जल - तरंग - चवला दो तिण्णि दिणाइ' चिट्ठेइ 7. जो 1. 216 [ ( अइ = अव्यय) - (लालिय) भूक 1/1 अनि ] [वि ( अ ) = भी (देह) 1 / 1] [ ( ण्हाण ) - ( सुगंध ) 3/2] [ ( विविह) - (भक्ख ) 3/2] (खणमित्त) क्रिविअ अव्यय (विहड ) व 3 / 1 अक [(जल) - (भरिअ) 1/1 वि] [(आम) वि - (घडअ ) 1 / 1 ] 'अ' स्वार्थिक अव्यय अव्यय (ता) 1 / 1 सवि (भुंज + इज्ज) विधि कर्म 3 / 1 सक ( लच्छी) 1/1 ( दिज्जउ ) विधि कर्म 3/1 सक अनि (दाण) 7/1 [ (दया) - ( पहाण) 3 / 1 वि] (जा) 1 / 1 सवि [(जल) - (तरंग) - (चवला) 1 / 1 वि] (दो) 1/2 वि (ति) 1 / 2 वि (दिण) 1/2 (चिट्ठ) व 3 / 1 अक (ज) 1/1 स पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 516 अत्यधिक, स्नेहपूर्वक लालन-पालन किया गया शरीर भी सुगन्धित द्रव्यों के स्नान से अनेक प्रकार के भोजन से क्षणमात्र में ही नष्ट हो जाता है जल से भरे हुए कच्चे घड़े की तरह वह भोगी जावे (भोगी जानी चाहिए) लक्ष्मी दी जानी चाहिए दान में उत्तम दया से जो जल तरंगों के समान चंचल दो तीन दिन ठहरती है 合 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण किन्तु लच्छिं संचदि अव्यय (लच्छी ) 2/1 (संच) व 3/1 सक अव्यय लक्ष्मी का (को) संचय करता है अव्यय (भुंज) व 3/1 सक भुंजदि णेय अव्यय भोगता है न ही देता है पात्रों में पत्तेसु सो वह (दा) व 3/1 सक (पत्त) 7/2 (त) 1/1 स (अप्पाण) 2/1 (वंच) व 3/1 सक (मणुयत्त) 1/1 वि (णिप्फल) 1/1 (त) 6/1 स अप्पाणं वंचदि मणुयत्तं णिप्फलं स्वयं को ठगता है मनुष्यत्व निरर्थक उसका 8. बढ़ती हुई लक्ष्मी को सर्वदा देता है धर्म के कामों में सो वह पण्डितों के द्वारा पंडिएहिँ प्रशंसा की जाती है ..irkel (ज) 1/1 स वड्डमाण-लच्छिं [(वड्ढ) वकृ-(लच्छी ) 2/1] अणवरयं (अणवरय) 1/1 देदि (दा) व 3/1 सक धम्म-कज्जेसु [(धम्म)-(कज्ज) 7/2] (त) 1/1 स (पंडिअ) 3/2 वि थुव्वदि (थुव्वदि) व कर्म 3/1 सक अनि (त) 6/1 स वि अव्यय सहला (सहला) 1/1 वि (हव) व 3/1 अक लच्छी (लच्छी ) 1/1 1. पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 676 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ उसकी भी सफल होती है लक्ष्मी 217 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं अव्यय इस प्रकार जो जानकर जाणित्ता विहलिय-लोयाण धम्म-जुत्ताणं णिरवेक्खो (ज) 1/1 सवि (जाण) संकृ [(विहलिय) वि-(लोय) 4/2] [(धम्म)-(जुत्त) 4/2 वि] (णिरवेक्ख) 1/1 (त) 2/1 स (दा) व 3/1 सक दुःखी व्यक्तियों के लिए धर्म से युक्त बिना अपेक्षा उसको देता है निश्चय ही देदि nes अव्यय तस्स हवे जीवियं उसका होता है (त) 6/1 स (हव) व 3/1 अक (जीविय) 1/1 (सहल) 1/1 वि जीवन सहलं सफल 10. जल-बुब्बुय-सारिच्छं धण-जोव्वण-जीवियं पि पेच्छंता मण्णंति [(जल)-(बुब्बुय)-(सारिच्छ) 2/1 वि] जल के बुलबुले के समान [(धण)-(जोव्वण)-(जीविय) 2/1] धन, यौवन और जीवन को अव्यय भी (पेच्छ) वकृ 1/2 देखते हुए (मण्ण) व 3/2 सक मानते हैं अव्यय इस कारण से अव्यय (णिच्च) 2/1 वि [(अइ (अ)= अति-(बलिअ) 1/1] बड़ा (अति) बलवान [(मोह)-(माहप्प) 1/1] मोह का प्रभाव तो वि णिच्चं नित्य अइ-बलिओ मोह-माहप्पो 11. सीहस्स कमे (सीह) 6/1 (कम) 7/1 शेर के पंजे में 1. पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 676 218 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिदं सारंग जह ण रक्खदे को वि तह मिच्चुणा य गहिदं जीवं पि ण रक्खदे को वि 12. अइ-बलिओ वि उद्दो मरण- विहीणो ण दीस को वि रक्खिज्जतो वि सया रक्ख- पयारेहिं विविहेहिं प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ (पड - पडिद) भूकृ 2/1 (सारंग) 2 / 1 अव्यय अव्यय ( रक्ख) व 3 / 1 सक अव्यय अव्यय (मिच्चु ) 3/1 अव्यय (गह - गहिद) भूक 2/1 (जीव ) 2 / 1 अव्यय अव्यय ( रक्ख) व 3 / 1 सक अव्यय [ ( अइ (अ) = अत्यन्त ) - (बलिअ ) 1/1 fa] अव्यय ( रउद्द) 1 / 1 वि [ ( मरण) - ( विहीण ) 1 / 1 वि] अव्यय ( दीसदे) व कर्म 3 / 1 सक अनि (क) 1 / 1 स अव्यय ( रक्ख) वकृ कर्म 1 / 1 अव्यय अव्यय [ ( रक्ख) - ( पयार ) 3/2] (fafas) 3/2 फँसे हुए हिरन को जिस प्रकार नहीं बचा सकता है कोई भी उसी प्रकार के मृत्यु पादपूर्ति के लिए पकड़े हुए जीव को भी नहीं बचा सकता है कोई भी द्वारा अत्यन्त, बलशाली भी भयानक से विहीन मृत्यु नहीं देखा जाता है कोई भी रक्षा किए जाते हु भी सदा रक्षा के उपायों से अनेक 219 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. आउ-क्खएण आयु के क्षय से मरणं मरण आउं [(आउ)-(क्खय) 3/1] (मरण) 1/1 (आउ) 2/1 (दा) हेकृ अव्यय आयु (को) देने के लिए दाउं ण नहीं (सक्क ) व 3/1 अक सक्कदे को वि समर्थ है कोई भी इसलिए देवेन्द्र (क) 1/1 स वि (अव्यय) अव्यय (देविंद) 1/1 तम्हा देविंदो वि अव्यय अव्यय मरणाउ (मरण) 5/1 अव्यय और मरण से नहीं बचाता है (बचा सकता है) कोई भी (रक्ख ) व 3/1 सक रक्खदे को वि अव्यय 14. एक्कं चयदि सरीरं एक छोड़ता है शरीर को अन्य को अण्णं गिण्हेदि णव-णवं जीवो ग्रहण करता है नये-नये (एक्क) 2/1 वि (चय) व 3/1 सक (सरीर) 2/1 (अण्ण) 2/1 सवि (गिण्ह) व 3/1 सक [(णव)-(णव) 2/1 वि] (जीव) 1/1 अव्यय [(अण्ण)-(अण्ण) 2/1 स] (गिण्ह) व 3/1 सक (मुंच) व 3/1 सक [(बहु) वि-(वार) 2/1] जीव पुणु पुणु अण्णं अण्णं गिण्हदि पुनः पुनः अन्य-अन्य को ग्रहण करता है छोड़ता है अनेक बार मुंचेदि बहु-वारं 220 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. सयलटू-विसयजोओ [(सयल+अट्ठ)-(विसय)-(जोओ)] सभी वस्तुओं व इन्द्रिय[(सयल)-(अट्ठ)-(विसय)-(जोअ) 1/1] विषयों का संयोग [(बहु)-(पुण्ण) 6/1] बहुत पुण्यशाली के अव्यय बहु-पुण्णस्स अव्यय नहीं सव्वहा होदि पूर्णतया होता है अव्यय (हो) व 3/1 अक (त) 1/1 स (पुण्ण ) 1/1 वह पुण्णं पुण्य अव्यय भी अव्यय नहीं किसी का कस्स (क) 6/1 स वि सव्वं जेणिच्छिदं अव्यय (सव्व) 2/1 सवि सभी [(जेण) + (इच्छिदं)] जेण (ज) 3/1 स जिसके द्वारा इच्छिदं (इच्छ) भूक 2/1 इच्छित (वस्तु-समूह) (लह) व 3/1 सक प्राप्त करता है लहदि 16. सधणो धनवान वि होदि णिधणो धण-हीणो [(स) वि-(धण) 1/1] अव्यय (हो) व 3/1 अक (णिधण) 1/1 वि [(धण)-(हीण) 1/1 वि] हो जाता है निर्धन धनहीन तह अव्यय उसी तरह और अव्यय ईसरो होदि धनवान हो जाता है (ईसर) 1/1 (हो) व 3/1 अक (राय) 1/1 देखें, संस्कृत-हिन्दी कोश, वामन शिवराम आप्टे। राया राजा प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 221 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि होदि भिच्चो भिच्चो वि य होदि रणाहो 17. सारीरिय- दुक्खादो मास - दुक्खं हवे अइ-पउरं माणस - दुक्ख जुदस्स हि विसया वि दुहावहा हुंति 18. एवं सु असारे संसारे दुक्ख - सायरे घोरे किं कत्थ वि अत्थि 222 अव्यय (हो) व 3 / 1 अक ( भिच्च) 1/1 (fired) 1/1 अव्यय अव्यय (हो) व 3 / 1 अक ( णरणाह) 1 / 1 [ ( सारीरिय) वि- (दुक्ख ) 5 / 1 ] [ ( माणस ) वि - (दुक्ख ) 1 / 1 ] ( हव) व 3 / 1 अक [(अइ) अ=अति- (पउर) 1 / 1 वि] [ ( माणस) वि- ( दुक्ख ) - (जुद ) 4 / 1 ] अव्यय ( विसय) 1/2 अव्य (दुहावह) 1/2 वि (हु) व 3/2 अक अव्यय अव्यय (असार) 7 / 1 वि (संसार) 7/1 [ ( दुक्ख ) - ( सायर) 7/1] वि (घोर) 7 / 1 (किं) 1 / 1 स अव्यय (अस) व 3 / 1 अक भी हो जाता है सेवक सेवक भी और हो जाता है राजा शारीरिक दुःख से मानसिक दुःख होता है बहुत बड़ा मानसिक दुःख से के लिए क्योंकि विषय भी दुःखदायक होते हैं इस प्रकार अत्यन्त असार संसार में दुःख घोर क्या कहीं भी है सागर में युक्त प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख (सुह) 1/1 (वियार) वकृ 2/1 पंचमी अर्थक अव्यय विचार करते हुए निश्चय से सुहं वियारमाणं सुणिच्छयदो 19. इक्को जीवो जायदि एक (अकेला) जीव उत्पन्न होता है अकेला गर्भ में एक्को गब्भम्हि गिण्हदे (इक्क) 1/1 वि (जीव) 1/1 (जाय) व 3/1 अक (एक्क) 1/1 वि (गब्भ) 7/1 (गिण्ह) व 3/1 सक (देह) 2/1 (इक्क) 1/1 वि [(बाल)-(जुवाण) 1/1] (इक्क) 1/1 वि (वुड्ड) 1/1 वि [(जरा)-(गहिअ) भूकृ 1/1 अनि] देहं धारण करता है देह को अकेला इक्को बाल-जुवाणो इक्को बालक और जवान अकेला वुड्डो बूढ़ा जरा-गहिओ निर्बलता से ग्रसित 20. इक्को अकेला रोई रोगी सोई इक्को तप्पेड़ माणसे दुक्खे (इक्क) 1/1 वि (रोइ) 1/1 वि (सोइ) 1/1 वि (इक्क) 1/1 वि (तप्प) व 3/1 अक (माणस) 7/1 वि (दुक्ख) 7/1 (इक्क) 1/1 वि (मर) व 3/1 अक (वराअ) 1/1 वि [(णरय)-(दुह) 2/1] (सह) व 3/1 सक (इक्क) 1/1 वि . इक्को मरदि शोकपूर्ण अकेला तपता है मानसिक दुःख में अकेला मरता है बेचारा नरक के दुःख को सहता है अकेला वराओ णरय-दुहं सहदि इक्को प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 223 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यय 21. सव्वायरेण पूर्ण सावधानीपूर्वक जाणह जानो एक्कं [(सव्व) + (आयरेण)] [(सव्व)-(आयर) 3/1 क्रिविअ] (जाण) विधि 2/2 सक (एक्क ) 2/1 वि (जीव) 2/1 (सरीर) 5/1 (भिण्ण) 2/1 वि एक जीव को शरीर से जीवं सरीरदो भिण्णं जम्हि भिन्न अव्यय अव्यय मुणिदे जीवे होदि असेसं खणे (मुण) भूकृ 7/1 (जीव) 7/1 (हो) व 3/1 अक (असेस) 1/1 वि अव्यय (हेय) 1/1 वि क्योंकि निश्चय ही जाने हुए होने पर जीव के होती है सभी (वस्तुएँ) क्षणभर में हेय अव्यय यदि अव्यय नहीं अव्यय तथा (हव) व 3/1 अक जीवो (जीव) 1/1 जीव तो को ता अव्यय (क) 1/1 सवि वेदेदि (वेद) व 3/1 सक सुक्ख-दुक्खाणि [(सुक्ख)-(दुक्ख) 2/2] इंदिय-विसया [(इंदिय)-(विसय) 2/2] सव्वे (सव्व) 2/2 सवि 1. पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 132-133 कौन जानता है सुख और दु:खों को इन्द्रियों के विषयों को सभी 224 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को कौन (क) 1/1 सवि अव्यय वा तथा जाणदि (जाण) व 3/1 सक क्रिविअ जानता है विशेषरूप से विसेसेण 23. राओ (राअ) 1/1 राजा (अम्ह) 1/1 स भिच्चो दास (सेवक) सिट्ठी नगर सेठ चेव दुर्बल/निर्बल दुब्बलो बलिओ बलवान (भिच्च) 1/1 (अम्ह) 1/1 स (सिट्ठी) 1/1 (अम्ह) 1/1 स अव्यय (दुब्बल) 1/1 वि (बलिअ) 1/1 वि अव्यय [(एगत्त-एयत्त)+ (आविट्ठो)][(एयत्त) आविट्ठो (आविट्ठ) भूकृ 1/1 अनि] (दु) 6/2 वि (भेय) 2/1 अव्यय (बुज्झ) व 3/1 सक इदि एयत्ताविट्ठो ilan.l.4.+111111:111nil.. इस प्रकार एक ही स्थान में, प्रविष्ट दोनों के भेद को दोण्हं भेयं ण नहीं जानता है बुज्झेदि 24. विरला णिसुणहि तच्चं (विरल) 1/2 वि विरले (णिसुण) व 3/2 सक सुनते हैं (तच्च) 2/1 तत्त्व को (विरल) 1/2 वि विरले (जाण) व 3/2 सक जानते हैं (तच्च) पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय क्रिवि तत्त्वरूप से ही विरला जाणंति तच्चदो 1. 2. अपभ्रंश का प्रत्यय है। देखें, श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 206 पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 132-133 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 225 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तच्चं विरला भावहि ' तच्चं " विरलाणं धारणा होदि 25. तच्चं कहिज्जमाणं णिच्चल-भावेण गिण्हदे जो 15 24. mp हि तं चिय भावेदि सया सो वि य तच्चं वियाणेइ 26. मणुव-गईए वि तओ 1. 2. 226 ( तच्च) 2 / 1 (विरल) 1 / 2 वि (भाव) व 3 / 2 सक ( तच्च) 2 / 1 (विरल) 6/2 ( धारणा ) 1 / 1 (हो) व 3 / 1 अक (त) 1 / 1 स अव्यय अव्यय ( तच्च) 2/1 (वियाण) व 3 / 1 सक [ ( मणुव) - (गइ) 7 / 1 ] अव्यय (737) 1/1 तत्त्व को विरले चिन्तन करते हैं ( तच्च) 2 / 1 तत्त्व को कहे जाते हुए ( कह + इज्ज+माण) वकृ कर्म 2/1 [ ( णिच्चल) वि - (भाव) 3 / 1 क्रिविअ ] निश्चल भाव पूर्वक (गिण्ह) व 3 / 1 सक ग्रहण करता है (ज) 1 / 1 स जो अव्यय (त) 2 / 1 स अव्यय (भाव) व 3 / 1 सक अव्यय तत्त्व में विरलों की धारणा होती है और उसको tic चिन्तन करता है सदा वह ही पादपूरक तत्त्व को जानता है अपभ्रंश का प्रत्यय है। देखें, श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 206 कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) मनुष्यगति में ही तप प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यगति में मणुव-गईए महव्वदं सयलं मणुव-गदीए झाणं मणुव-गदीए महाव्रत समस्त मनुष्यगति में [(मणुव)-(गइ) 7/1] (महव्वद) 1/1 (सयल) 1/1 वि [(मणुव)-(गदि) 7/1] (झाण) 1/1 [(मणुव)-(गदि) 7/1] अव्यय (णिव्वाण) 1/1 ध्यान मनुष्यगति में वि ही णिव्वाणं मोक्ष अव्यय इस प्रकार 27. इय दुलहं मणुयत्तं लहिऊणं दुर्लभ मनुष्यत्व को पाकर रमंति (दुलह) 2/1 वि (मणुयत्त) 2/1 (लह) संकृ (ज) 1/2 स (रम) व 3/2 अक (विसय) 7/2 (त) 1/2 स (लह) संकृ [(दिव्व) वि-(रयण) 2/1] [(भूइ)-(णिमित्त) 1/1] | (पजाल) व 3/2 सक रमते हैं विषयों में विसएसु लहिय दिव्व-रयणं पाकर दिव्यरत्न को भस्म के हेतु जलाते हैं भूइ-णिमित्तं पजालंति 28. भोयण-दाणं सोक्खं ओसह-दाणेण सत्थ-दाणं भोजनदान सुख (को) औषधदान के (साथ) [(भोयण)-(दाण) 1/1] (सोक्ख) 2/1 [(ओसह)-(दाण) 3/1] [(सत्थ)-(दाण) 1/1] अव्यय (जीव) 4/2 [(अभय)-(दाण) 1/1] शास्त्रदान और जीवों के लिए जीवाण अभय-दाणं अभयदान प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 227 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदुल्लहं [(सु) (अ)-(अत्यन्त)-(दुल्लह) 1/1] अत्यन्त दुर्लभ [(सव्व)-(दाण) 7/2] सब दानों में सव्व-दाणेसु 29. उत्तम-णाण-पहाणो उत्तम-तवयरणकरण-सीलो उत्तम ज्ञान में प्रधान उत्तम तपस्या व चारित्र का पालन करनेवाला वि भी अप्पाणं [(उत्तम)-(णाण)-(पहाण) 1/1 वि] [(उत्तम)-(तवयरण)-(करण)(सील) 1/1 वि] अव्यय (अप्पाण) 2/1 (ज) 1/1 स (हील) व 3/1 सक [(मद्दव)-(रयण) 1/1] (भव) व 3/1 अक (त) 6/1 स जो हीलदि मद्दव-रयणं भवे स्वयं की जो निन्दा करता है मार्दवरूपी रत्न होता है उसके तस्स 30. जो चिंतेइ विचार करता है (ज) 1/1 स (चिंत) व 3/1 सक अव्यय (वंक) 2/1 वि वं नहीं कुटिल नहीं ण अव्यय कुणदि वंकं करता है कुटिल ण नहीं (कुण) व 3/1 सक (वंक) 2/1 वि अव्यय (जंप) व 3/1 सक (वंक) 2/1 वि अव्यय जंपदे वं करता है कुटिल नहीं ण अव्यय गोवदि णिय-दोसं (गोव) व 3/1 सक [(णिय) वि-(दोस) 2/1] और छिपाता है अपना दोष 1. पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 676 228 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्जव - धम्मो हवे' तस्स 31. सम-संतोस - जलेणं जो धोवदि तिव्व-लोह-मल- - पुंज भोयण गिद्धि-विहीणो तस्स सउच्चं हवे' विमलं 32. जो धम्मिएसु भत्तो अणुचरणं कुदि परम-सद्धाए पिय-वयणं जंपतो वच्छल्लं तस्स भव्वस्स [ ( अज्जव ) - ( धम्म) 1 / 1] ( हव) व 3 / 1 अक (त) 6 / 1 स [(सम) वि-(संतोस) - (जल) 3 / 1 ] (ज) 1 / 1 स (धोव) व 3 / 1 सक [ ( तिव्व) - (लोह) - (मल) - (पुंज) 2 / 1 ] [(भोयण) - (गिद्धि)( विहीण ) 1 / 1 वि] (त) 6 / 1 स (सउच्च) 1 / 1 ( हव) व 3 / 1 अक (विमल ) 1 / 1 वि (कुण) व 3 / 1 सक [ ( परम ) - (सद्धा) 3 / 1 क्रिविअ ] [ ( पिय) - ( वयण) 2 / 1] ( जंप ) वकृ 1 / 1 (वच्छल्ल) 1/1 (त) 6 / 1 स (भव्व) 6 / 1 1. पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 676 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ (ज) 1 / 1 स (धम्मिअ) 7/2 ( भत्त) 1 / 1 [ (अणु) - (चरण) ] अणु अ = अनुकूल चरणं (चरण) 2/1 आर्जव धर्म होता है उसके समभाव और सन्तोषरूपी जल से जो धोता है प्रचण्ड लोभरूपी मल के समूह को भोजन की आसक्ति से विहीन उसके शौचधर्म होता है निर्मल जो धार्मिकजनों में भक्त अनुकूल, आचरण करता है परम श्रद्धा से प्रिय वचन बोलता हुआ वात्सल्य उसके भव्य (जीव ) के 229 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33. पर-तत्ती-णिरवेक्खो दुट्ठ-वियप्पाण णासण-समत्थो तच्च-विणिच्छय-हेदू सज्झाओ झाण-सिद्धियरो [(पर)-(तत्ति)'-(णिरवेक्ख) 1/1] [(दुट्ट)-(वियप्प) 6/2] [(णासण) वि-(समत्थ) 1/1 वि] [(तच्च)-(विणिच्छय)-(हेदु) 1/1] (सज्झाअ) 1/1 [(झाण)-(सिद्धि-यर) वि 1/1] पर की वार्ता से निरपेक्ष दुष्ट विकल्पों का नाश करने में समर्थ तत्त्व के निश्चय में कारण स्वाध्याय ध्यान की सिद्धि करनेवाला आत्मा को 34. जो अप्पाणं जाणदि असुइ-सरीरादु तच्चदो भिण्णं जाणग-रूव-सरूवं सो जानता है अपवित्र शरीर से निश्चय से (ज) 1/1 स (अप्पाण) 2/1 (जाण) व 3/1 सक [(असुइ) वि-(सरीर) 5/1] (तच्च) पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय (भिण्ण) 2/1 [(जाणग)-(रूव)-(सरूव) 2/1] (त) 1/1 स (सत्थ) 2/1 (जाण) व 3/1 सक (सव्व) 2/1 भिन्न ज्ञायकरूप स्वभाव को वह शास्त्र को (शास्त्रों को) जानता है सत्थं जाणदे सव्वं सब 35. जो (ज) 1/1 स जो णवि अव्यय जाणदि जानता है आत्मा को अप्पं (जाण) व 3/1 सक (अप्प) 2/1 [(णाण)-(सरूव) 2/1] (सरीर) 5/1 ज्ञानस्वरूप णाण-सरूवं सरीरदो शरीर से 1. समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर परस्पर दीर्घ के स्थान पर ह्रस्व हो जाया करते हैं। (हेम प्राकृत व्याकरण 1-4) पिशल, प्राकृत भाषाओ का व्याकरण, पृष्ठ 132-133 230 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिण्णं भिन्न (भिण्ण) 1/1 वि (त) 1/1 स मो वह णवि अव्यय नहीं जाणदि जानता है सत्थं (जाण) व 3/1 सक (सत्थ) 2/1 [(आगम)-(पाठ) 2/1] (कुण) वकृ 1/1 आगम-पाठं कुणंतो शास्त्र को आगम का पाठ करते हुए अव्यय भी प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 231 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. एव सुणिऊण राया कम्मविवागं जणस्स सयलस्स संसारगमणभीओ इच्छइ घेत्तूण पव्वज्जं 2. सद्दाविया य सिग्घं सामन्ता आगया समन्तिजणा काऊण सिरपणामं विट्ठा आसणव 232 पाठ-7 दसरहपव्वज्जा अव्यय (सुण) संकृ (राया) 1 / 1 (कम्मविवाग ) 2 / 1 ( जण ) 6 / 1 (सयल) 6 / 1 वि [(संसार) - (गमण ) - (भीअ) भूकृ 1 / 1 अनि ] (इच्छ) व 3 / 1 सक ( घेत्तूण) हे अि ( पव्वज्जा) 2 / 1 (सद्दाव) प्रे भूकृ 1 / 2 अव्यय अव्यय ( सामन्त ) 1 / 2 (आगय) भूकृ 1/2 अनि [(स) वि- (मंति) - ( जण) 1 / 2 ] (काऊण) संकृ अनि [(सिर) - (पणाम) 2/1] ( उवविट्ठ) भूकृ 1 / 2 अनि [ ( आसण) - (वर) 7 / 2] ऐसे सुनकर राजा कर्मफल को लोगों के सब संसार भ्रमण से डरा हुआ इच्छा करता है लेने के लिए (लेने की ) प्रव्रज्या बुलाए गए ही शीघ्र सामन्त आ गए मंत्रीजनों के साथ करके सिर बैठे उत्तम आसनों पर प्रणाम प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामिय देहाऽऽणत्तिं हे स्वामी! आज्ञा दें, किं क्या करणिज्जं भडेहि संलवियं भणियं (सामिय) 8/1 [(देह)+ (आणत्ति)] देह (दा) विधि 2/2 सक आणत्तिं (आणत्ति) 2/1 अव्यय (कर) विधिकृ 1/1 (भड) 3/2 (संलव) भूकृ 1/1 (भण) भूकृ 1/1 अव्यय (दसरह) 3/1 (पव्वज्जा ) 2/1 (गिण्ह) व 1/2 सक अव्यय किया जाना चाहिए सुभटों के द्वारा वार्तालाप किया गया कहा गया कि दशरथ के द्वारा दसरहेणं पव्वज्जं गिण्हिमो प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं अज्जं आज A. अह अव्यय तब भणन्ति (त) 2/1 स (भण) व 3/2 सक (मन्ति) 1/2 (सामिय) 8/1 उनको कहते हैं मंत्री हे स्वामी! मन्ती सामिय किं अव्यय क्या अज्ज आज कारणं कारण जायं धणसयलजुवइवग्गं अव्यय (कारण) 1/1 (जाय) भूक 1/1 अनि [(धण)-(सयल) वि(जुवइ)-(वग्ग) 2/1] अव्यय (तुम्ह) 1/1 स उत्पन्न हुआ है धन एवं समस्त स्त्री समूह को जिससे कि तुम (आप) जेण तुम पुस्तक में 'भाणिया' शब्द है। लेकिन व्याकरण के नियमानुसार ‘भणियं' उचित प्रतीत होता है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 233 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ववसिओ मोत्तुं (ववसिअ) भूक 1/1 अनि (मोत्तुं) हेकृ अनि उद्यत हुए हो छोड़ने के लिए अव्यय तब (भण) व 3/1 सक कहता है भणइ नरवरिन्दो पच्चक्खं (नरवरिन्द) 1/1 राजा समक्ष हे मनुष्यो! वो जगत जयं निरवसेसं सुक्कं सारा (पच्चक्ख) 1/1 संबोधन (जय) 1/1 (निरवसेस) 1/1 वि (सुक्क) भूकृ 1/1 अनि अव्यय [(तणं)+ (असार)] तणं (तण) 1/1 असारं (असार) 1/1 वि (डज्झ) व कर्म 3/1 सक अनि [(मरण) (अग्गिणा)] [(मरण)-(अग्गि) 3/1] अव्यय सूखा हुआ जैसे कि तणमसारं तिनका, असार डज्झइ मरणग्गिणा जलाया जाता है मरणरूपी अग्नि से निययं लगातार 6. भवियाण भव्यों के लिए जो सुगिज्झं अग्गिज्झं अभवियाण (भविअ) 4/2 वि (ज) 1/1 स (सुगिज्झ) विधिकृ 1/1 अनि (अग्गिज्झ) विधिकृ 1/1 अनि (अभविय) 4/2 वि (जीव) 4/2 (तियस) 4/2 (पत्थ) विधिकृ 1/1 जीवाणं ग्रहण करने योग्य ग्रहण करने योग्य नहीं है अभव्यों के लिए जीवों के लिए देवों के लिए अभिलाषा किये जाने योग्य (है) तियसाण पत्थणिज्जं 1. पाठ में 'धणियं' शब्द है। हमने यहाँ पउमचरियं भाग-1, पृष्ठ संख्या 250 पर ‘धणिय' के स्थान पर बताए गए निययं शब्द का प्रयोग किया है। 234 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिवगमणसुहावहं [(सिव)-(गमण)(सुहावह) 1/1 वि] मोक्ष में जाने के लिए सुखजनक धर्म धम्म (धम्म) 1/1 अव्यय अज्ज मुणिसयासे धम्म सुणिऊण जायसंवेगो संसारभवसमुदं अव्यय [(मुणि)-(सयास) 7/1] (धम्म) 2/1 (सुण) संकृ [(जाय) भूकृ-(संवेग) 1/1] [(संसार)-(भव)-(समुद्द) 2/1] (इच्छा ) व 1/1 सक (अम्ह) 1/1 स (समुत्तर) हेकृ इसलिए आज मुनियों के पास धर्म को सुनकर वैराग्य उत्पन्न हुआ है संसार में जन्मरूपी समुद्र को इच्छा करता हूँ इच्छामि अहं समुत्तरिउं पार करने की (के लिए) अहिसिञ्चह पढमं चिय रज्जपालणसमत्थं (अहिसिञ्च) विधि 2/2 सक अभिषेक करो (अम्ह) 6/1 स (पुत्त) 2/1 पुत्र को (का) (पढम) 2/1 वि प्रथम अव्यय [(रज्ज)-(पालण)-(समत्थ) 2/1] राज्य का पालन करने में समर्थ (पव्वज्जा) व 1/1 सक संन्यास ग्रहण करता हूँ [(अ) निषेधवाचक अव्यय-(विग्घ) 1/1] निर्विघ्न (जेण) + (अहं) जेण (अव्यय) अहं (अम्ह) 1/1 स मैं अव्यय आज (वीसत्थ) 1/1 वि विश्वस्त पव्वज्जामि अविग्छ जेणाहं. जिससे, अज्ज वीसत्थो 9. सुणिऊण (सुण) संकृ सुनकर प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 235 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वयणमेयं पव्वज्जानिच्छियं नरवरिन्द सुहडाऽमच्च- पुरोहिय' पडिया सोयण्णवे सहसा 10. नाऊण निच्छियमई दिखाभमुहं नराहिवं एत्तो अन्तेउरजुवइजणो सव्वो रुविडं समादत्तो 11. दहूण तारिसं चिय पियरं भरहो 1. 2. 236 [(वयणं)+(एयं)] वयणं ( वयण) 2 / 1 एयं (ए) 2 / 1 सवि [[ (पव्वज्जा) - (निच्छिय) 2 / 1 ] वि] ( नरवरिन्द ) 2 / 1 [(सुहड) + (अमच्च) - ( पुरोहिय)] [ ( सुहड) - ( अमच्च) - ( पुरोहिय) 1 / 2 ] (पड) भूकृ 1/2 [(सोय) + (अण्णवे ) ] [ ( सोय) - ( अण्णव) 7 / 1] अव्यय (ना) संकृ (निच्छियमइ ) 2 2 / 1 वि [(दिक्खा) - (अभिमुह) 2 / 1 वि] ( नराहिव ) 2 / 1 अव्यय [ ( अन्तेउर) - ( जुवइ ) - ( जण) 1 / 1 ] (सव्व) 1 / 1 सवि (रुव) हेकृ ( समाढत्त) 1 / 1 वि (दट्ठूण) संकृ अनि (तारिस) 2 / 1 वि अव्यय (पियर) 2 / 1 ( भरह ) 1 / 1 वचन को, ऐसे प्रव्रज्या लेने के लिए दृढ़ निश्चयवाले राजा को सुभट, अमात्य व पुरोहित गिरे शोकरूपी समुद्र अचानक जानकर दृढ़ति दीक्षा की ओर अभिमुख राजा को इस कारण से अन्तःपुर की स्त्रियाँ व लोग सभी रोने के लिए उत्तेजित हुए कभी-कभी किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लिया जा सकता है। पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517 मूल पाठ में शब्द 'निच्छियमई' है । किन्तु व्याकरण के नियमानुसार दिक्खाभिमुहं के अनुसार यहाँ 'निच्छियमई' शब्द उपयुक्त लगता है। देखकर उस प्रकार ही पिता को भरत प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्काल खणेण पडिबुद्धो चिन्तेइ नेहबन्धो दुच्छेज्जो अव्यय (पडिबुद्ध) भूकृ 1/1 अनि (चिन्त) व 3/1 सक [(नेह)-(बन्ध) 1/1] (दुच्छेज्ज) 1/1 वि जागृत हुआ सोचता है (सोचा) स्नेह बन्धन जिसका छेदन मुश्किल से हो सके (मुश्किल से छेदा जानेवाला) जीवलोक में जीवलोगम्मि (जीवलोग) 7/1 12. तायस्स किं कीरइ पव्वज्जाववसियस्स (ताय) 4/1 (किं) 1/1 स अव्यय (कीरइ) व कर्म 3/1 सक अनि [(पव्वज्जा)-(ववसिय) 4/1] (पुहइ) 6/1 (पुत्त) 2/1 (ठव) व 3/1 सक (रज्ज) 7/1 पुहईए पिता के लिए क्या पादपूर्ति के लिए किया जाता है प्रव्रज्या के लिए प्रयत्नशील पृथ्वी का पुत्र को स्थापित करता है राज्य में इसीलिए ही निश्चयसूचक अव्यय पालने के प्रयोजन से ठवेइ रज्जे जेणं अव्यय चिय पालणट्ठाए अव्यय [(पालण)+ (अट्ठाए)] [(पालण)-(अट्ठा) 3/1] 13. समीपवर्ती होने के कारण आसन्नेण किमेत्थं क्या (प्रयोजन) इमेण खणभंगुरेण देहेणं (आसन्न) 3/1 वि [(किं) + (एत्थं)] किं (किं) 1/1 स एत्थं (अव्यय) (इम) 3/1 सवि (खणभंगुर) 3/1 वि (देह) 3/1 (दूरहिअ) 7/2 वि इस क्षणभंगुर देह से दूरस्थित होने पर दूरट्टिएसु प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 237 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहियं अधिक काऽवत्था (अहिय) 1/1 वि [(का)+ (अवत्था)] (का) 1/1 सवि अवत्था (अवत्था) 1/1 (बन्धव) 7/2 (भव) व 3/1 अक क्या, अवस्था बन्धवेसु बाँधवों के भवे होती है (होगी) 14. एक्कोऽत्थ अकेला यहाँ एस यह जीव जीवो दुहपायवसंकुले भवारणे [(एक्को )+(अत्थ)] एक्को (एक्क) 1/1 वि अत्थ (अव्यय) (एत) 1/1 सवि (जीव) 1/1 [(दुह)-(पायव)-(संकुल) 7/1 वि] [(भव)+आरण्णे)] [(भव)-(आरण्ण) 7/1] (भम) व 3/1 सक अव्यय [(मोह)+ (अन्धो)] [(मोह)-(अन्ध) 1/1] अव्यय दुःख एवं पाप से भरे हुए भवरूपी जंगल में घूमता है भमइ च्चिय मोहन्धो मोहान्ध पुणरवि फिर तत्थेव तत्थेव अव्यय जहाँ-तहाँ 15. तो अव्यय सव्वकलाकुसला इस प्रकार सब कलाओं में कुशल भरत को भरह नाऊण जानकर तत्थ [(सव्व)-(कला)(कुसल(स्त्री)कुसला) 1/1 वि] (भरह) 2/1 (ना) संकृ अव्यय (पडिबुद्ध) भूक 2/1 अनि [(सोग)-(समुत्थयं) वि(हियय) 5/1] (परिचिन्त) व 3/1 सक वहाँ पडिबुद्धं सोगसमुत्थयहियया परिचिन्तइ जागा हुआ शोक से आच्छादित हृदय से सोचती है 238 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवी 16. न य मे पई ई न पुत्तो दोण्णि वि दिक्खाहिलासिणो जाया चिन्तेमि तं उवायं जेण यं वो नियत्तेमि 17. तो सा विणओवगया भणइ निवं केई महादेवी प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ (केगई) 1 / 1 (देवी) 1/1 अव्यय अव्यय ( अम्ह ) 6 / 1 स (पइ) 1/1 अव्यय (पुत्त) 1 / 1 (दो) 1/2 वि अव्यय [(दिक्खा) + (अहिलासिणो ) ] [(दिक्खा) - (अहिलासिण) 1 / 1 वि] (जाय) भूकृ 1/2 अनि ( चिन्त) व 1 / 1 सक (त) 2 / 1 सवि ( उवाय) 2 / 1 अव्यय (सुय) 2/1 मो-वो (अव्यय) ( नियत्त) व 1 / 1 अक अव्यय (ता) 1 / 1 सवि [ ( विणअ) + ( उवगया ) ] [ ( विणअ) - ( उवगया) 1 / 1 वि] (भण) व 3 / 1 सक (fra) 2/1 (केगई) 1/1 (महादेवी) 1/1 कैकेयी देवी न ही और मेरे पति न ही पुत्र दोनों कळ दीक्षा के अभिलाषी हुए हैं सोचती हूँ उस उपाय को जिससे पुत्र को तो लौटा लूँ (लौटाती हूँ) तब वह विनयसहित कहती है राजा को कैकेयी महादेवी 239 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ता) 2/1 सवि पयच्छसु जो भणिओ (अम्ह) 6/1 स (वर) 2/1 (पयच्छ) विधि 2/1 सक (ज) 1/1 स (भण) भूकृ 1/1 [(सुहड)-(सामक्ख) 1/1] कहा गया था सुभटों के समक्ष सुहडसामक्खं 18. भणइ (भण) व 3/1 सक कहता है अव्यय तब राजा तओ नरवसभो दिक्खं मोत्तूण दीक्षा को छोड़कर पिए हे प्रिये! कहती हो (कहोगी) भणसि (नरवसभ) 1/1 (दिक्खा ) 2/1 (मोत्तूण) संकृ अनि (ज) 2/1 स (पिअ) 8/1 (भण) 2/1 सक (त) 2/1 स अव्यय (तुम्ह) 4/1 स (सुन्दरि) 8/1 (सव्व) 2/1 स (संपाडअ) भवि 1/1 सक वह अज्ज . आज तुज्झ सुन्दरि तुम्हारे लिए हे सुन्दरी! सव्वं सब संपाडइस्सामि दूंगा 19. सुणिऊण वयणमेयं रोवन्ती केगई (सुण) संकृ [(वयणं) + (एयं)] वयणं (वयण) 2/1 एयं (एअ) 2/1 सवि (रोवन्त-रोवन्ती) वकृ 1/1 (केगई) 1/1 (भण) व 3/1 सक (कन्त) 2/1 सुनकर वचन को, इस रोती हुई कैकेयी कहती है पति को भणइ कन्तं 240 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दढनेहबन्धणं चिय विरागखग्गेण छिन्नं [(दढ)-(नेह)-(बन्धण) 1/1] अव्यय [(विराग)-(खग्ग) 3/1] (छिन्न) भूकृ 1/1 अनि (तुम्ह) 3/1 स स्नेह का दृढ़ बन्धन निश्चय (ही) वैराग्यरूपी तलवार से काट डाला गया आपके द्वारा 20. इस दुर्धरचर्या एसा दुद्धरचरिया उवइट्ठा जिणवरेहि सव्वेहिं (एता) 1/1 सवि [(दुद्धर)-(चरिया) 1/1] (उवइट्ठ-उवइट्ठा) भूकृ 1/1 अनि (जिणवर) 3/2 (सव्व) 3/2 उपदेश दिया गया जिनवरों द्वारा सभी कह अव्यय कैसे अज्ज अव्यय आज तक्खण (तक्खण) 1/1 तत्काल चिय अव्यय उप्पन्ना संजमे (उप्पन्न-उप्पन्ना) भूकृ 1/1 अनि (संजम) 7/1 (बुद्धि) 1/1 उत्पन्न हुई संयम में बुद्धि बुद्धी सुरपति के समान हे स्वामी! 21. सुरवइसमेसु सामिय निययं भोगेसु लालियं आपका भोगों में [(सुरवइ)-(सम) 7/2 वि] (सामिय) 8/1 (नियय) 1/1 वि (भोग) 7/2 (लालिय) भूक 1/1 अनि (देह) 1/1 [(खर)-(फरुस)(कक्कसयर) 2/2] पाला हुआ है शरीर देहं खर-फरूसकक्कसयरे अत्यन्त, तीव्र कठोर और कर्कश अव्यय कह अरिहसि (अरिह) व 2/1 सक समर्थ होते हो (होओगे) प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 241 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसहे जे (परिसह) 2/2 (जेउ) हेकृ अनि परीषहों को जीतने के लिए 22. चलणङ्गुलीए पैरों की अँगुली से भूमि को खोदती हुई भूमि विलिहन्ती केगई समुल्लवइ कैकेयी [(चलण)+ (अंगुलीए)] [(चलण)-(अंगुली) 3/1] (भूमी) 2/1 (विलिह) वकृ 1/1 (केगई) 1/1 (समुल्लव) व 3/1 सक (पुत्त) 4/1 (अम्ह) 4/1 स (सामिय) 8/1 (दा) विधि 2/1 सक (समत्थ) 2/1 वि (इम) 2/1 सवि (रज्ज) 2/1 कहती है पुत्र को पुत्तस्स' मज्झ सामिय हे स्वामी! दे दो देहि समत्थं समस्त इम यह रज्जं राज्य 23. ता अव्यय तब दसरहो पवुत्तो सुन्दरि पुत्तस्स दशरथ ने कहा हे सुन्दरी! पुत्र के लिए तुम (दसरह) 1/1 (पवुत्त) भूकृ 1/1 अनि (सुन्दरी) 8/1 (पुत्त) 4/1 (तुम्ह) 1/2 स (रज्ज) 1/1 (तुम्ह) 6/1 स (दिन्न) भूकृ 1/1 अनि (अम्ह) 3/1 स (समत्थ) 1/1 वि रज्जं राज्य तुम्हारे दिन्नं दे दिया गया है मेरे द्वारा मए समत्थं समस्त 1. 2. देने के योग में चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग होता है। यहाँ सकर्मक क्रिया से बने हुए भूतकालिक कृदन्त का कर्तृवाच्य में प्रयोग हुआ है। 242 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गेण्हसु (गेण्ह) व 2/1 सक ग्रहण करो मा अव्यय मत णे अव्यय पादपूरक देर करो (चिराव) व 2/1 सक चिरावेहि 24. तब अव्यय (दसरह) 3/1 दशरथ के द्वारा शीघ्र (बुलाए गए) अव्यय राम लक्ष्मण के दसरहेण सिग्धं पउमो सोमित्तिणा समं पुत्तो वाहरिओ वसहगई साथ (पउम) 1/1 (सोमित्ति) 3/1 अव्यय (पुत्त) 1/1 अव्यय [(वसह)-(गइ) 1/1 वि] बाहर से वृषभ के समान गतिवाले (राम) समागओ आए कयपणामो (समागअ) 1/1 वि [(कय) भूकृ अनि-(पणाम) 1/1] अव्यय किया गया, प्रणाम और 25. हे वत्स! महासंग्राम में सारथिपन कैकेयी के द्वारा मेरा वच्छ (वच्छ) 8/1 महासंगामे [(महा)-(संगाम) 7/1] सारत्थं (सारत्थ) 1/1 केगईए (केगई) 3/1 मज्झ (अम्ह) 6/1 स कयं (कय) भूकृ 1/1 अनि तु?ण (तुट्ठ) 3/1 वरो (वर) 1/1 दिन्नो (दिन्न) भूकृ 1/1 अनि सव्वनरिन्दाण [(सव्व)-(नरिन्द) 6/2] 1. 'सह' के योग में तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है। किया गया तुष्ट होने के कारण वर दिया गया सभी राजाओं के प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 243 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चक्खं (पच्चक्ख) 1/1 समक्ष 26. अव्यय अब केगईए रज्जं कैकेयी के द्वारा राज्य पुत्र के लिए माँगा गया है पुत्तस्स (केगई) 3/1 (रज्ज) 1/1 (पुत्त) 4/1 (विमग्गिय) भूक 1/1 (इम) 1/1 सवि (सयल) 1/1 वि (किं) 2/1 स विमग्गियं इम यह सारा सयलं किं क्या वा करेमि वच्छय पडिओ चिन्तासमुद्दे अव्यय (कर) व 1/1 सक (वच्छय) 8/1 (पड) भूकृ 1/1 [(चिन्ता)-(समुद्द) 7/1] (अम्ह) 1/1 स पादपूरक करता हूँ (करूँ) हे वत्स! डूब गया हूँ चिन्तारूपी समुद्र में भरत 27. भरहो गिण्हइ दिक्खं तस्स विओगम्मि (भरह) 1/1 (गिण्ह) व 3/1 सक (दिक्खा) 2/1 (त) 6/1 स (विओग) 7/1 (केगई) 1/1 (मर) व 3/1 अक [(अहं)+ (अवि)] अहं (अम्ह) 1/1 स अवि (अव्यय) अव्यय (निच्छय) 3/1 क्रिविअ (हो) भवि 3/1 अक (जअ) 7/1 ग्रहण करता है (कर रहा है) दीक्षा उसके वियोग में कैकेयी मरती है (मर रही है) केगई मरइ अहमवि भी और निच्छएणं होहामि निश्चयपूर्वक होऊँगा संसार में जए 244 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलियवाई 28. तो भणइ पउमनाहो ताय तुमं रक्ख अत्तणो वयणं न य भोगकारणं मे तुज्झ अकित्ती लोगम्मि 29. जाएण सुण पहू चिन्तेयव्वं हियं निययकालं जेण पिया न य सोगं गच्छइ 1. प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ ( अलियवाइ) 1 / 1 वि अव्यय (भण) व 3 / 1 सक ( पउमनाह ) 1 / 1 ( ताय ) 8 / 1 ( तुम्ह) 1 / 1 स ( रक्ख) व 2 / 1 सक ( अत्त) 6 / 1 ( वयण) 2 / 1 अव्यय [ ( भोग) - (कारण) 1 / 1] ( अम्ह) 4 / 1 स ( तुम्ह ) 6 / 1 स [(अ) - (कित्ति) 'अ' स्वार्थिक 1 / 1 ] (लोग) 7/1 (जाअ ) 3 / 1 वि (सुअ) 3/1 (पहु) 8/1 ( चिंत) विधि 1 / 1 (हिया) 12/1 [ ( नियय) - (काल) 2 / 1 क्रिविअ ] अव्यय (पिउ) 1/1 मिथ्याभाषी इस पर कहता है (कहते हैं) राम हे तात! तुम (आप) रखो (रखें) स्वयं का वचन कभी भी नहीं सुख का कारण मेरे लिए तुम्हारी ( आपकी ) अकीर्ति लोक में हृदय में सदैव जिससे पिता अव्यय जिससे ( सोग ) 2 / 1 शोक ( गच्छ ) व 3 / 1 सक प्राप्त करते हैं ( प्राप्त करें) कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) प्रिय पुत्र हे प्रभु! सोचा जाना चाहिए के द्वारा 245 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (एग) 2/1 वि एक अव्यय अव्यय पादपूरक (मुहुत्त) 2/1 मुहूर्त को 30. जाकर गन्तूण निययजणणी आउच्छ राहवो कयपणामो अम्मो ! वच्चामि अहं (गन्तूण) संकृ अनि [(निअय)-(जणणि) 1/1] (आउच्छ) व 3/1 सक (राहव) 1/1 [(कय) भूकृ अनि-(पणाम) 1/1] अव्यय (वच्च) व 1/1 सक (अम्ह) 1/1 स [(दूर)-(पवास) 2/1] (खम) विधि 2/1 सक अपनी माता आज्ञा लेता है (आज्ञा ली) राम ने प्रणाम की गई हे माता! जाता हूँ दूरपवासं दूर प्रवास को क्षमा करें खमेज्जासु 31. सुणिऊण वयणमेयं सुनकर वचन को, सहसा अचानक तो मुच्छिऊण पडिबुद्धा भणइ (सुण) संकृ [(वयणं)+ (एयं)] वयणं (वयण) 2/1 एयं (एय) 2/1 सवि अव्यय अव्यय (मुच्छ) संकृ (पडिबुद्ध) भूकृ 1/1 अनि (भण) व 3/1 सक (सुय) 2/1 (रोवन्त-रोवन्ती) वकृ 1/1 (पुत्त) 8/1 (किं) 1/1 स (अम्ह) 6/1 स (परिच्चय) व 2/1 सक तब/उस समय मूर्च्छित होकर जागी कहती है पुत्र को रोवन्ती पुत्तय रोती हुई हे पुत्र! क्या मेरा परिच्चयसि परित्याग करते हो 246 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32. कह कह वि. अव्यय किसी तरह शरणरहित के लिए प्राप्त किये गये हो अणाहाए लद्धो सि मणोरहेहि बहुएहिं होहिसि पुत्ताऽऽलम्बो (अणाह-अणाहा) 4/1 वि (लद्ध) भूकृ 1/1 अनि (अस) व 2/1 अक (मणोरह) 3/2 (बहुअ) 3/2 वि (हो) भवि 2/1 अक [(पुत्त)+(आलम्बो)] पुत्त (पुत्त) 8/1 आलम्बो (आलम्ब) 1/1 (पारोह) 1/1 मनोरथों के द्वारा बहुत से होवोगे हे पुत्र, आलम्बन पारोहो बीज चेव अव्यय साहाए (साहा) 4/1 शाखा के लिए 33. भरहस्स भरत को मही दिन्ना ताएणं केगईवरनिमित्तं सन्तण पृथ्वी दी गई पिता के द्वारा कैकेयी के वर के कारण होने के कारण मए (भरह)' 4/1 (मही) 1/1 (दिन्न) भूकृ 1/1 अनि (ताअ) 3/1 [(केगई)-(वर)-(निमित्त) 1/1] (सन्त) 3/1 वि (अम्ह) 3/1 स [(न)+ (इच्छइ)] न (अ) इच्छइ (इच्छ) व 3/1 सक (एत) 1/1 सवि (कुमार) 1/1 (मही) 2/1 (भोत्तुं) हेकृ अनि मेरे नेच्छ नहीं, इच्छा करता है एस यह कुमारो. महिं भोत्तुं कुमार पृथ्वी को भोगने के लिए 1. 'देने' के योग में चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 247 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34. दिक्खाभिमुहो दीक्षा के अभिमुख (हैं) राया पुत्तय हे पुत्र! भी [(दिक्खा)+ (अभिमुहो)] [(दिक्खा)-(अभिमुह) 1/1] (राय) 1/1 (पुत्त) 8/1 अव्यय (तुम्ह) 1/1 स अव्यय (वच्च) भवि 2/1 सक [(पइ)-(पुत्त)-(विरहिय) 1/1] अव्यय (क) 2/1 स [(सरणं)+(अहं)] सरणं (सरण) 2/1 अहं (अम्ह) 1/1 स (पव्वज्जा ) व 1/1 सक वच्चिहिसि पइ-पुत्तविरहिया इह जाओगे पति और पुत्र से विरहित (अब) यहाँ किसकी शरण को (शरण में) सरणमहं पव्वज्जामि जाता हूँ (जाऊँगी) 35. विञ्झगिरिमत्थए [(विंझ)-(गिरि)-(मत्थअ) 7/1] अव्यय वा विन्ध्याचल के शिखर पर और मलय पर्वत पर मलए (मलअ) 7/1 वा अव्यय तथा सागर के सायरस्स वाऽऽसन्ने तथा समीप काऊण पइट्ठाणं (सायर) 6/1 [(वा)+(आसन्ने)] वा (अ) आसन्ने (आसन्न) 7/1 (काऊण) संकृ अनि (पइट्ठाण) 2/1 (तुम्ह) 4/1 स अव्यय (आगम) भवि 1/1 सक (अम्ह) 1/1 स करके स्थिति (को) तुम्हारे लिए निश्चय ही आऊँगा आगमिस्से व्याकरण के नियमानुसार यहाँ ‘आगमिस्सं' शब्द उचित प्रतीत होता है। 248 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36. जणणीए सिरपणामं काऊणं सेसमाइवग्गस्स पुरव य नरवरिन्द पणमइ रामो गमणसज्जो 37. आपुच्छिया य सव्वे पुरोहियाऽमच्चबन्धवा सुडा रह-गय-तुरंगमा वि य पलोइया निद्धदिट्ठीए 38. चाउव्वण्णं च जणं आपुच्छेऊण निग्गओ ( जणणी) 1 4/1 [(सिर) - (पणाम) 2/1] (काऊणं) संकृ अनि [(सेस) - (माइ) - ( वग्ग ) 1 4 / 1 ] अव्यय अव्यय ( नरवरिंद) 2 / 1 (पणम) व 3 / 1 सक (राम) 1 / 1 [ ( गण ) - ( सज्ज ) 1 / 1 वि] (चाउव्वण्ण) 2 / 1 वि अव्यय ( जण ) 2 / 1 (आपुच्छ) संकृ (निग्गअ ) भूकृ 1 / 1 अनि 1. 'पणम' के योग में चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग होता है । प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ अव्यय (पलोइय) भूकृ 1 / 2 अनि [(निद्ध) - (दिट्ठि) 3 / 1] माता को सिर से प्रणाम करके शेष मातृवर्ग को पुनः तथा राजा को प्रणाम करता है (आपुच्छ) भूक 1/2 अव्यय (सव्व) 1/2 स सब [(पुरोहिय)-(अमच्च) - ( बन्धव) 1/2 ] पुरोहित, अमात्य, बन्धुजन (सुहड) 1 / 2 सुभट [ (रह) - (गय) - (तुरंगम) 1 / 2] रथ, हाथी एवं घोड़े अव्यय भी राम जाने के लिए तैयार पूछे गए तथा और देखे गए स्निग्ध दृष्टि से चतुवर्ण और लोगों की आज्ञा लेकर निकले 249 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामो राम (राम) 1/1 (वइदेही) 1/1 वइदेही वि सीता ने अव्यय तथा ससुर को अव्यय (ससुर) 2/1 (पणम) व 3/1 सक (परम) 3/1 वि (विणय) 3/1 ससुरं पणमइ परमेण विणएणं प्रणाम करती है (किया) अत्यन्त आदर के साथ 39. सव्वाण सभी सासुयाणं काऊणं चलणवन्दणं सीया सहियायणं (सव्व) 6/2 सवि (सासुया) 6/2 (काऊणं) संकृ अनि [(चलण)-(वन्दण) 2/1] (सीया) 1/1 [(सहिया)-(यणं) 2/1] अव्यय (णियय) 2/1 वि (आपुच्छ) संकृ (निग्गय) भूक 1/1 अनि (एत) 5/1 स सासुओं के करके चरणों में वन्दन सीता सखियों एवं (अन्य) जनों की तथा निययं आपुच्छिय निग्गया अपनी अनुमति लेकर निकली एत्तो यहाँ से 40. जाने के लिए गन्तूण समाढत्तं उद्यत राम राम को देखकर द₹ण लक्खणो रुट्टो (गन्तूण) हेकृ अनि (समाढत्त) 2/1 वि (राम) 2/1 (दह्रण) संकृ अनि (लक्खण) 1/1 (रुट्ठ) भूकृ 1/1 अनि (ताअ) 3/1 [(अयस)-(बहुल) 1/1 वि] लक्ष्मण रुष्ट हुआ पिता के द्वारा बहुत अपयश वाला ताएण अयसबहुलं कह अव्यय क्यों 250 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसा एयं पत्थियं (एय) 1/1 स (पत्थ) भूकृ 1/1 (कज्ज) 1/1 चाहा गया कज्ज कार्य 41. अव्यय इस एत्थ नरिन्दाण जए परिवाडीआगयं हवइ रज्जं विवरीयं चिय रइयं (नरिन्द) 4/2 राजाओं के लिए (जअ) 7/1 जगत में [(परिवाडी)-(आगय) भूकृ 1/1 अनि] परिपाटी से उत्पन्न (हव) व 3/1 अक होता है (रज्ज) 1/1 राज्य (विवरीअ) 1/1 विपरीत अव्यय (रअ) भूक 1/1 रचा गया (ताअ) 3/1 पिता के द्वारा [(अ)-(दीहपेहि) 6/2] अदूरदर्शियों का ताएण अदीहपेहीणं 42. को गुणाणं अन्तं पावेड़ धीरगरुयस्स लोभेण (राम) 6/1 राम के (क) 1/1 कौन (गुण) 6/2 गुणों के (अन्त) 2/1 अन्त को (पाव) व 3/1 सक पाता है [(धीर)-(गरुय) 6/1 वि] धैर्यशाली, महान् (लोभ) 3/1 लोभ से (ज) 6/1 स जिसका (रहिय) 1/1 रहित (चित्त) 1/1 चित्त अव्यय [(मुणिवरस्स) + (एव)] मुणिवर के, मुणिवरस्स (मुणिवर) 6/1 एव (अव्यय) समान जस्स रहियं . चित्तं चिय मुणिवरस्सेव प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 251 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43. अव्यय अहवा रज्जधुरधुरं [(रज्ज)-(धुर)-(धर) 2/1 वि] अथवा राज्य के भार को धारण करनेवाले सब कुछ नाश करता हूँ आज सव्वं फेडेमि अज्ज भरहस्स' ठावेमि कुलाणीए (सव्व) 2/1 (फेड) व 1/1 सक अव्यय (भरह) 6/1 (ठा) व 3/1 प्रे सक [(कुल)+(आणीए)] [(कुल)-(आणीअ) भूक 7/1 अनि] (पुहइवइ) 2/1 (आसण) 7/1 (राम) 2/1 भरत का बैठाता हूँ कुल परम्परा से प्राप्त पुहइवई पृथ्वीपति को आसन पर आसणे राम राम को 44. एएण (एअ) 3/1 सवि किं अव्यय क्या मेरे आज अव्यय अथवा मज्झं (अम्ह) 6/1 स हवइ (हव) व 3/1 अक होता है वियारेण (वियार) 3/1 विचार से ववसिएणऽज्जं [(ववसिएण)+ (अज्जं)] गम्भीर, ववसिएण (ववसिअ) भूक 3/1 अनि अज्ज (अव्यय) नवरं अव्यय सिर्फ अव्यय फिर तच्चत्थं (तच्चत्थ) 2/1 सत्य को ताओ (ताअ) 1/1 पिता जेट्टो (जेट्ठ) 1/1 बड़े भाई कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) पुण 1. 252 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूछता है दृढ़चित्त अव्यय जाणन्ति (जाण) व 3/2 सक जानते हैं 45. कोवं (कोव) 2/1 क्रोध को अव्यय तथा उवसमेउं (उवसम) संकृ शान्त करके पणमिय (पणम) संकृ प्रणाम करके पियरं (पियर) 2/1 पिता को परेण अव्यय अपेक्षाकृत अधिक विणएणं (विणय) 3/1 क्रिविअ विनयसहित आपुच्छइ (आपुच्छ) व 3/1 सक दढचित्तो [(दढ)-(चित्त) 1/1 वि] सोमित्ती (सोमित्ति) 1/1 लक्ष्मण अत्तणो (अत्तण) 4/1 अपनी जणणी (जणणी) 4/1 माता को 46. संभासिऊण (संभास) संकृ बातचीत करके भिच्चे (भिच्च) 7/1 भृत्यों के साथ वज्जावत्तं (वज्जावत्त) 2/1 वज्रावर्त अव्यय धणुवरं (धणुवर) 2/1 धनुष को (घेत्तुं) संकृ अनि लेकर धणपीइसंपउत्तो [(धण)-(पीइ)-(संपउत्त) 1/1 वि] अत्यन्त प्रेमयुक्त पउमसयासं [(पउम)-(सयास) 1/1] राम के पास समल्लीणो (समल्लीण) 1/1 लीन 47. पियरेण (पियर) 3/1 पिता बन्धवेहि (बन्धव) 3/2 बन्धुजन कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभिक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135) और घेत्तुं प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 253 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ य अव्यय तथा सैंकड़ों सामन्तों से सामन्तसएसु परिमिया घिरे हुए सन्ता रायभवणाउ राजभवन से [(सामन्त)-(सय) 7/2]" (परिमिय) भूकृ 1/2 अनि (सन्त) 1/2 वि [(राय)-(भवण) 5/1] अव्यय (विणिग्गय) भूकृ 1/1 अनि (सुरकुमार) 1/1 अव्यय एत्तो विणिग्गया इस प्रकार बाहर निकले देव कुमार की भाँति सुरकुमार 48. सुयसोगतावियाओ धरणियलोसित्तअंसुनिवहाओ [(सुय)-(सोग)-(ताविअ-ताविआ) पुत्र के शोक भूक 1/2 अनि] से तपायी हुई [(धरणियल)+ (ओसित्त) आँसुओं के (अंसु)+ (निवहाओ)] समूह के कारण [(धरणियल)-(ओसित्त)-(अंसु) जमीन भिगोयी (निवह) 5/1] अव्यय किसी तरह (पणम) संकृ प्रणाम करके (नियत्त-नियत्तिय-नियत्तिया) भूक 1/2 लौटायी गई अव्यय तथा (जणणी) 1/2 माताएँ कह कह वि पणमिणं नियत्तियाओ जणणीओ 49. काऊण करके सिपणाम नियत्तिओ दसरहो (काऊण) संकृ अनि [(सिर)-(पणाम) 2/1] (नियत्त) भूकृ 1/1 (दसरह) 1/1 सिर से प्रणाम लौटाया गया दशरथ अव्यय तथा राम के द्वारा साथ में बड़े हुए रामेणं (राम) 3/1 सहवड्डिया [(सह) अ= साथ-(वड्ड)' भूकृ 1/1] य . अव्यय 1. समूहवाचक के योग में प्रथमा विभक्ति का प्रयोग हुआ है। 254 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धू बन्धु कलुणपलावं (बन्धु) 1/1 [(कलुण)-(पलाव) 2/1] अव्यय करुण रुदन भी कुणमाणा (कुण) वकृ 1/2 करते हुए 50. जंपन्ति एक्कमेक्कं बात करते हैं प्रत्येक एस यह पुरी जइ वि जणवयाइण्णा नगरी यद्यपि जनपद से परिपूर्ण (जंप) व 3/2 सक (एक्कमेक्क) 1/1 वि (एता) 1/1 सवि (पुरी) 1/1 अव्यय [(जणवय)+ (आइण्णा)] [(जणवय)-(आइण्ण) भूकृ 1/2 अनि] (जाया) भूकृ 1/2 अनि [(राम)-(विओअ) 7/1] (दीसइ) व कर्म 3/1 सक अनि [(विझ) + (अडवी)] [(विझ)-(अडवी) 1/1] [(च)+ (एवं)] च (अव्यय) एव (अव्यय) थी जाया रामविओए दीसइ राम के वियोग में देखी जाती है विन्ध्याटवी विझाडवी चेव की भाँति 51. लोगो वि उस्सुयमणो जंपइ लोग भी शोकान्वित मनवाले कहता है (कहते हैं) धन्य धन्ना इमा (लोग) 1/1 अव्यय [(उस्सुय)-(मण) 1/1 वि (जंप) व 3/1 सक (धन्न-धन्ना) 1/1 (इमा) 1/1 सवि (जणयधूया) 1/1 (जा) 1/1 स (वच्च) व 3/1 सक (परदेस) 2/1 (राम) 3/1 यह जणयधूया जनकपुत्री (सीता) जा वच्च परदेसं जा रही है परदेस राम के रामेण प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 255 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ समं महामहिला अव्यय [(महा)-(महिला) 1/1] महान् नारी 52. नयणजलसित्तगत्तं [(नयणजल)-(सित्त)-(गत्ता) 2/1 वि] आँसुओं से भीगे हुए शरीरवाली देखो, और पेच्छय जणणिं माता को इस छोड़कर पमोत्तूणं चलिओ रामेण [(पेच्छ)-(य)] (पेच्छ) विधि 2/1 सक- य (अव्यय) (जणणी) 2/1 (इमा) 2/1 सवि (पमोत्तूणं) संकृ अनि (चल) भूकृ.1/1 (राम) 3/1 अव्यय (एत) 1/1 स अव्यय (लक्खणकुमार) 1/1 चल दिया राम के सम साथ यह एसो च्चिय भी लक्खणकुमारो लक्ष्मण कुमार 53. तेसु उन कुमारेसु कुमारों के समं साथ सामन्तजणेण वच्चमाणेणं (त) 7/2' सवि (कुमार) 7/21 अव्यय [(सामन्त)-(जण) 3/1] (वच्च) वक़ 3/1 (सुन्न-सुन्ना) 1/1 (साएयपुरी) 1/1 (जाय-जाया) भूकृ 1/1 अनि [(छण)-(वज्जिय-वज्जिया)] भूकृ 1/1 अनि सुन्ना साएयपुरी जाया सामन्तजनों के कारण जाते हुए शून्य साकेतपुरी हो गई उत्सवरहित छणवज्जिया तइया अव्यय उस समय 1. नलाग पाया जाता। हम प्राकत कभी-कभी ततीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता व्याकरण 3-135) 256 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54. न अव्यय नहीं नियत्तइ नयरजणो धाडिज्जन्तो लौटता है (लौटते हैं) नागरिक बाहर निकाले जाने पर वि भी दण्डपुरिसेहिं सेनापति द्वारा ताव (नियत्त) व 3/1 अक (नयरजण) 1/1 (धाड) कर्म वकृ 1/1 अव्यय [(दण्ड)-(पुरिस) 3/2] अव्यय अव्यय [(दिवस)-(अवसाण) 7/1] (सूर) 1/1 (अत्थ) भूकृ 1/1 अनि (समल्लीण) 1/1 वि तब तक दिवसवसाणे सूरो अत्थं समल्लीणो दिन का अन्त होने पर सूर्य अस्त हुआ लीन 55. नयरीए मज्झयारे दिटुं चिय जिणहरं मणभिरामं (नयरी) 6/1 (मज्झयार) 7/1 (दिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि नगरी के मध्य में देखा गया अव्यय जिनमन्दिर मन के लिए रुचिकर हरिसियरोमञ्चइया हर्ष से पुलकित (जिणहर) 1/1 [(मण)+ (अभिरामं)] [(मण)-(अभिराम) 1/1 वि] [(हरिस- ‘इय' स्वा (हरिसिय)(रोमञ्चइय) 1/2 वि अव्यय (पविठ्ठ) भूकृ 1/2 अनि [(परम)-(तुट्ठ) वि 1/2] तत्थ उसमें प्रवेश किया पविट्टा परमतुट्ठा अत्यन्त प्रसन्न 1. व्याकरण के नियमानुसार यहाँ ‘अत्थो' होना चाहिए। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 257 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-8 रामनिग्गमणं-भरहरज्जविहाणं अह पादपूरक तत्थ उस जिन विश्राम स्थल में जिणाययणे निदं गमिऊण अड्वरत्तम्मि लोगे सुत्तपसुत्ते अव्यय (त) 7/1 सवि [(जिन) + (आययणे)] [(जिण)-(आययण) 7/1] (निद्दा) 2/1 (गम) संकृ [(अड)-(रत्त) 7/1] (लोग) 7/1 [(सुत्त)-(पसुत्त) भूकृ 7/1 अनि] नींद भोगकर अर्द्धरात्रि में लोग (लोगों) के गहरी निद्रा में सोये हुए होने पर संचाररहित होने पर शब्दरहित होने पर नीसंचारे विगयसद्दे (नीसंचार) 7/1 वि [(विगय) भूकृ अनि-(सद्द) 7/1 वि] घेत्तुं लेकर धणुवररयणं सीयासहिया जिणं (घेत्तुं) संकृ अनि [(धणु)-(वर) वि-(रयण) 2/1] [(सीया)-(सहिय) 1/2 वि] (जिण) 2/1 (नमंस) संकृ अव्यय (विणिग्गय) भूकृ 1/2 अनि (त) 1/2 सवि (दो) 1/2 वि श्रेष्ठ धनुषरूपी रत्न को सीता के साथ जिन (भगवान) को नमन करके धीरे से निकल गये नमंसित्ता सणियं विणिग्गया ht ' दोनों अव्यय 258 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ , Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जण (जण) 2/1 (पलोय) वकृ 1/2 लोगों को देखते हुए पलोयन्ता 3. एयं अव्यय इस प्रकार चिय अव्यय सुणमाणा पेच्छन्ता (सुण) वकृ 1/2 (पेच्छ) वकृ 1/2 [(जण)-(वय) 6/1] (विणिओग) 2/1 सुनते हुए देखते हुए जनसमूह या जनपद के कार्य को जणवयस्स विणिओगं अव्यय अह निग्गया पादपूरक (बाहर) निकले नगर से धीरे से पुरीओ (निग्गय) भूकृ 1/2 अनि (पुरी) 5/1 अव्यय (त) 1/2 सवि [(गूढ)-(दार) 3/1] सणियं गूढदारेणं गुप्त द्वार से अवरदिसं वच्चन्ता दिट्ठा सुहडेहि मग्गमाणेहि [(अवर) वि-(दिसा) 2/1] (वच्च) वकृ 1/2 (दिट्ठ) भूकृ 1/2 अनि (सुहड) ३/2 (मग्ग) वकृ 3/2 (गन्तूण) संकृ अनि (पणम) भूकृ 1/2 (त) 1/2 सवि (भाव) 3/1 क्रिविअ [(स) वि-(सेन्न)-(सहिअ) 3/2 वि] पश्चिम दिशा (को) में जाते हुए देख लिए गये सुभटों के द्वारा खोजते हुए (सुभटों) के द्वारा जाकर प्रणाम किये गये गन्तूण पणमिया ते भावेण ससेन्नसहिएहिं भावपूर्वक अपनी सेनासहित 5. सीहा (सीह) 1/2 [(सहाव)-(मन्थर)-(गइ) 3/1] सहावमन्थरगईए सिंह स्वभाव से मन्थर गति से युक्त प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 259 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सणियं अव्यय धीरे से अव्यय पादपूरक तत्थ अव्यय तब नरवसहा गाऊयमेत्तठाणं वच्चन्ति (नरवसह) 1/2 [(गाऊय)-(मेत्त)-(ठाण) 2/1] (वच्च) व 3/1 सक (सुहं) 2/1 क्रिवि [(बल)-(समग्ग) 1/2] राजकुमार मात्र दो कोस स्थान को जाते हैं सुखपूर्वक सेनासहित सुहं। बलसमग्गा 6. गाँवों में गामेसु पट्टणेसु पूइज्जन्ता जणेण बहुएणं पेच्छन्ति वच्चमाणा खेड-मडम्बाऽऽगरं (गाम) 7/2 (पट्टण) 7/2 अव्यय (पूअ) कर्म व 1/2 (जण) 3/1 (बहुअ) 3/1 वि (पेच्छ) व 3/1 सक (वच्च) वकृ 1/2 [(खेड)-(मडम्बा)-(ऽऽगर) 2/1] नगरों में और पूजे जाते हुए लोगों के द्वारा बहुत (लोगों) के द्वारा देखते हैं चलते हुए खेट, मडम्ब और आकार (युक्त) को पृथ्वी को वसुहं (वसुहा) 2/1 7. अह क्रम से अव्यय और (त) 1/2 सवि कमेण (कम) 3/1 क्रिविअ पत्ता (पत्त) भूकृ 1/2 अनि पहुँचे हरि-गय-रुरु-चमर- [(हरि)-(गय)-(रुरु)-(चमर)- सिंह, गज, रुरु, चमरीमृग सरहसद्दालं (सरह)-(सद्दाल) 2/1 वि] एवं शरभ से शब्दायमान घणपायवसंछन्नं [(घण)-(पायव)-(संछन्न) 2/1 वि] सघन वृक्षों से आच्छन्न कभी-कभी संज्ञा शब्द की द्वितीया विभक्ति का एकवचन रूप भी क्रिया विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है। संस्कृत व्याकरण, डॉ. प्रीतिप्रभा गोयल। 1. 260 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंगल (में) को अडविं चिय (अडवी) 2/1 अव्यय (पारियत्त) 6/1 पारियत्तस्स पारियात्र के 8. पेच्छन्ति (पेच्छ) व 3/2 सक देखते हैं तत्थ अव्यय वहाँ भीमा बहुगाहसमाउला जलसमिद्धा गम्भीरा नाम (भीम) 2/2 वि भयंकर [(बहु) वि-(गाह)-(समाउल) 2/2 वि] बहुत मगरमच्छों से व्याप्त [(जल)-(समिद्ध) 2/2 वि] जल से समृद्ध (गम्भीरा) 2/2 गम्भीरा (नदी) अव्यय नामक (नदी) 2/2 नदी को [(कल्लोल)+ (उच्छलिय) तरंगों का समूह (संघाया)] [(कल्लोल)-(उच्छलिय)- उठा हुआ (है) (संघाय) 2/2 वि] नदी कल्लोलुच्छलियसंघाया अव्यय तब राघवेण भणिया राम के द्वारा कहे गये सुभट सुहडा सव्वे सब वि साहणसमग्गा तुम्हे नियत्तियव्वं एयं (राघव) 3/1 (भण) भूकृ 1/2 (सुहड) 1/2 (सव्व) 1/2 सवि अव्यय [(साहण)-(समग्ग) 1/2]] (तुम्ह) 3/1 स (नियत्त) विधिकृ 1/1 (एय) 1/1 सवि (रण्ण) 1/1 [(महा)-(भीम) 1/1] सैन्य से युक्त तुम्हारे द्वारा लौट जाना चाहिए यह रणं जंगल महाभीम अत्यन्त भयंकर 1. पवित्र नदी होने के कारण आदरार्थक बहुवचन का प्रयोग हुआ है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 261 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. ताएण भरहसामी ठविओ रज्जम्मि सयलपुहईए गच्छामि दाहिणपहं (ताअ) 3/1 [(भरह)-(सामी) 1/1] (ठव) भूकृ 1/1 (रज्ज) 7/1 [(सयल) वि-(पुहइ) 6/1] (गच्छ) व 1/1 सक (दाहिण)-(पह) 2/1 पिता के द्वारा भरत, स्वामी निश्चित किये गए राज्य में सकल पृथ्वी के जाता हूँ दक्षिण पथ को निश्चयपूर्वक तुम सब लौट जाओ अवस्स तुब्भे नियत्तेह अव्यय (तुम्ह) 1/2 स (नियत्त) विधि 2/2 अक 11. अह अव्यय वाक्यालंकार (त) 1/2 सवि भणन्ति कहते हैं सुहडा सामि सुभट हे स्वामी! तुमे विरहियाण किं अम्हं रज्जेण (भण) व 3/2 सक (सुहड) 1/2 (सामि) 8/1 (तुम्ह) 2/1 स (विरह) संकृ (किं) 1/1 स (अम्ह) 4/1 स (रज्ज) 3/1 (साहण) 3/1 वि अव्यय (विविह) 3/1 वि अव्यय [(देह)-(सोक्ख) 3/1] तुमको परित्याग करके क्या (प्रयोजन) हमारे लिए राज्य से सैन्य से साहणेण और विविहेण विविध य देहसोक्खेणं देहसुख से 1. यहाँ अनुस्वार का लोप हुआ है। 262 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. सीह-ऽच्छभल्लचित्तय-घणपायवगिरिवराउले [(सीह)-(अच्छ)-(भल्ल)(चित्तय)-(घण) वि-(पायव)(गिरिवर)-(आउले) 7/1 वि] (रण्ण) 7/1 रणे सिंह, रीछ, भालू, चीते और सघन वृक्षों एवं पर्वतों से व्याप्त (वन) में जंगल में साथ तुम्हारे (आपके) रहते हैं (रहेंगे) करें समयं अव्यय वसामो कुणसु दयं असरणाणऽम्हं (तुम्ह) 3/1 स (वस) व 1/2 सक (कुण) विधि 2/1 सक (दया) 2/1 [(असरणाण)+(अम्ह)] (असरण) 4/2 (अम्ह) 4/2 स दया अशरणों के लिए, हम 13. आउच्छिऊण सुहडे सीयं भूयावगूहियं अनुज्ञा लेकर सुभटों की (को) सीता को हाथों से आलिंगित की (आउच्छ) संकृ (सुहड) 2/2 (सीया) 2/1 [(भूय+अवगृह)] [(भूय)-(अवगृह) भूक 2/1] (काउं) संकृ अनि (राम) 1/1 (उत्तर) व 3/1 सक (नई) 2/1 (गम्भीर) 2/1 [(लक्खण)-(समग्ण) 1/1] काउं रामो पकड़कर राम उत्तर पार करते हैं नई नदी गम्भीरं गम्भीर लक्ष्मण के साथ लक्खणसमग्गो 14. राम राम को सलक्खणं लक्ष्मण सहित (राम) 2/1 [(स) वि-(लक्खण) 2/1] (त) 1/2 सवि [(पर) + (तीर)+ (अवट्ठिय)] [(पर)-(तीर)-(अवट्ठिय) 2/1 वि] (पलोअ) संकृ परतीरावट्टियं दूरवर्ती किनारे पर स्थित देखकर पलोएउं प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 263 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाहारवं करेन्ता विलाप करते हुए सब सव्वे (हाहारव) 2/1 (कर) वकृ 1/2 (सव्व) 1/2 सवि अव्यय (भड) 1/2 [(पडि)-(नियत्त) भूकृ 1/2 अनि] वि भडा सुभट वापिस लौटे पडिनियत्ता 15. अन्ने अन्य पुण गिहधम्म घेत्तूण नराहिवा विसयहुत्ता (अन्न) 1/2 सवि अव्यय [(गिह)-(धम्म) 2/1] (घेत्तूण) संकृ अनि (नराहिव) 1/2 (दे) [(विसय)-(हुत्त) 1/2 वि] (पत्त) भूकृ 1/2 अनि (साएयपुरी) 1/1 (भरह) 4/1 (फुड) 2/1 क्रिविअ (निवेअ) व 3/2 सक पत्ता गृहधर्म को गृहण कर राजा विषयाभिमुख पहुँचे साकेतपुरी भरत को (के लिए) स्पष्ट रूप से कहते हैं साएयपुरी भरहस्स निवेएन्ति 16. सीया-लक्खणसहिओ सीता व लक्ष्मण सहित नहीं लौटे राम नियत्तो राघवो गओ रणं सोऊण वयणमेयं [(सीया)-(लक्खण)-(सहिअ) 1/1] अव्यय (नियत्त) भूकृ 1/1 अनि (राघव) 1/1 (गअ) भूकृ 1/1 अनि (रण्ण) 2/1 (सोऊण) संकृ अनि [(वयणं) + (एयं)] वयणं (वयण) 2/1 एयं (एअ) 2/1 सवि (भरह) 1/1 वन सुनकर वचन यह भरहो भरत 264 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्यन्त दुःखी अइदुक्खिओ जाओ [(अइ)-(दुक्खिअ) 1/1 वि] (जा) भूकृ 1/1 हुआ 17. पुत्तेसु पुत्रों के पर दूसरे विएस गएसु अवराइया (पुत्त) 7/2 अव्यय (विएस) 2/1 (गअ) भूक 7/2 अनि (अवराइया) 1/1 अव्यय (सोमित्ती) 1/1 (भत्तार) 7/1 (पव्वइअ) 7/1 वि [(सोय)-(समुद्द) 7/1] (पड) भूकृ 1/2 सोमित्ती भत्तारे देश गये हुए होने पर अपराजिता और सुमित्रा पति के प्रव्रजित होने पर शोक समुद्र में पड़ (डूब) गई पव्वइए सोयसमुद्दम्मि पडियाओ 18. पुत्र के शोक में दुःखी उनको सुयसोगदुक्खियाओ ताओ दह्ण केगई देखकर कैकेयी देवी देवी [(सुय)-(सोग)-(दुक्खिय) 2/2 वि] (ता) 2/2 सवि (दळूण) संकृ अनि (केगई) 1/1 (देवी) 1/1 अव्यय (भण) व 3/1 सक [(नियय) वि-(पुत्त) 2/1] [(वयणं)+ (इणं)] वयणं (वयण) 2/1 इणं (इम) 2/1 सवि (अम्ह) 6/1 स (निसाम) विधि 2/1 सक भणइ निययपुत्तं वयणमिणं तब कहती है अपने पुत्र को वचन यह (इस) मेरा निसामेहि सुन 19. निक्कण्टयमणुकूलं [(निक्कण्टयं)+ (अणुकूलं)] निक्कण्टयं (निक्कण्टय) 2/1 वि अणुकूलं (अणुकूल) 2/1 वि। निष्कन्टक, अनुकूल प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 265 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे पुत्र! तुम्हारे द्वारा पाया गया महाराज्य पावियं महारज्जं पउमेण लक्खणेण (पुत्त) 8/1 (तुम्ह) 3/1 स (पाव) भूक 1/1 (महारज्ज) 1/1 (पउम) 3/1 (लक्खण) 3/1 अव्यय (रहिय) भूकृ 1/1 अनि राम के लक्ष्मण के और रहियं बिना अव्यय नहीं अव्यय सोहए (सोह) व 3/1 अक (एअ) 1/1 सवि पादपूर्ति शोभता है यह एयं 20. ताणं (ता) 6/2 स उनकी चिय जणणीओ पुत्तविओगम्मि जायदुक्खाओ काहिन्ति अव्यय निश्चयवाचक (जणणी) 1/2 माताएँ [(पुत्त)-(विओग) 7/1] पुत्र के वियोग में [(जाय) भूक अनि-(दुक्खा) 1/2 वि] दुःखी हुई (का) भवि 3/1 सक कर लें अव्यय अव्यय पादपूर्ति (काल) 2/1 काल (आण) विधि 2/1 सक ले आओ अव्यय शीघ्र [(वर) वि-(कुमार) 2/2] कुमारवरों को कालं आणेहि लहुं वरकुमारे 21. जणणीए वयणमेयं (जणणी) 6/1 [(वयणं)+ (एयं)] वयणं (वयण) 2/1 एयं (एअ) 2/1 सवि (सुण) संकृ माता का वचन, यह सुणिऊण सुनकर 266 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुरंगमं समारुढो घोड़े पर चढ़ा हुआ (सवार) शीघ्रता करता हुआ तुरन्तो (तुरंगम) 2/1 (समारुढ) 1/1 वि (तूर) वकृ 1/1 अव्यय (भरह) 1/1 (त) 6/2 स (अणुमग्ग) पंचमी अर्थक 'ओ' प्रत्यय (लग्ग) भूकृ 1/1 अनि च्चिय भरहो ताणं अणुमग्गओ लग्गो भरत उनके पीछे-पीछे लग गया (चला) 22. इय अव्यय (दिट्ठ) भूकृ 1/2 अनि इस प्रकार देखे गये दिट्ठा अव्यय पादपूर्ति और अव्यय अव्यय समयं महिलाए साथ महिला के कुमारवरसीहा पुच्छन्तो (महिला)3/1 (त) 1/2 सवि [(कुमार)-(वर)-(सीहा) 1/2] (पुच्छ) वकृ 1/1 [(पहिय)-(जण) 2/1] (वच्च) व 3/1 सक (भरह) 1/1 [(पवण)-(वेग) 1/1 वि] सिंह के जैसे कुमारवर पूछता हुआ पथिकजनों को पहियजणं जाता है वच्चइ भरहो पवणवेगो भरत पवन के (समान) वेगवाला 23. अव्यय (त) 2/2 सवि (नइ) 6/1 (तीर) 7/1 (वीसम) वकृ 1/2 [(महा)-(वण) 7/1] (भीम) 7/1 वि निश्चय ही उनको नदी के किनारे पर विश्राम करते हुए महावन में वीसममाणा महावणे भीमे भयंकर प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 267 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीयाए (सीया) 3/1 सीता के समं अव्यय साथ पेच्छा देश (पेच्छ) व 3/1 सक देखता है भरहो (भरह) 1/1 भरत पासत्थवरधणुया [(पासत्थ) वि-(वर) वि पास में रखे हुए (धणुय) 2/2] उत्तम धनुष को 24. बहुयदिवसेसु [(बहुय) वि-(दिवस) 7/2] बहुत दिनों में देसो (देस) 1/1 जो (ज) 1/1 सवि वोलीणो (वोलीण) 1/1 वि पार किया कुमारसीहेहिं [(कुमार)-(सीह) 3/2] कुमार सिंहों के द्वारा सो (त) 1/1 सवि वह भरहेण (भरह) 3/1 भरत के द्वारा पवन्नो (पवन्न) भूकृ 1/1 अनि पाया गया दियहेहिं (दियह) 3/21 दिनों में छहि (छ) 3/2 वि छः अयत्तेणं (अ-यत्त) 3/1 क्रिविअ आसानी से 25. सो (त) 1/1 सवि चक्खुगोयराओ [(चक्खु)- (गोयर) 5/1] चक्षु से प्रत्यक्ष होने के कारण तुरयं (तुरय) 2/1 घोड़े को मोत्तूण (मोत्तूण) संकृ अनि छोड़कर केगईपुत्तो [(केगई)-(पुत्त) 1/1] कैकेयी पुत्र (चलण) 7/2 चरणों में पउमणाहं [(पउम)-(णाह) 2/1] राम को पणमिय (पणम) संकृ प्रणाम करके (मुच्छा ) 2/1 मूर्छा को समणुपत्तो (समणुपत्त) 1/1 वि सम्प्राप्त हुआ कभी-कभी तृतीया विभक्ति का प्रयोग सप्तमी विभक्ति के स्थान पर पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) वह चलणेसु मुच्छ 268 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26. पडिबोहिओ य भरहो रामेणालिंगिओ सिणेहेणं सीयाए लक्खणेण य बाढ संभासिओ विहिणा 27. भरहो नमियसरीरो काऊण सिरञ्जलिं भाइ रामं रज्जं करेहि सुपुर सयलं आणागुणविसालं 28. अहयं धरेमि छत्तं प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ (पडिबोहि) भूक 1/1 अव्यय (भरह) 1 / 1 [ (रामेण ) + (आलिंगिओ ) ] [ (राम) 3 / 1 ( आलिंगिअ ) 1 / 1 वि] (सिणेह ) 3 / 1 क्रिविअ ( सीया) 3 / 1 ( लक्खण) 3 / 1 अव्यय अव्यय (संभास) भूकृ 1/1 (विहि) 3 / 1 क्रिविअ ( भरह) 1 / 1 [ ( नमिय) वि - ( सरीर) 1 / 1] (काऊण) संकृ अनि [(सिर) + (अंजलि ) ] [ ( सिर) - ( अंजलि ) 2/1] (भण) व 3 / 1 सक (राम) 2 / 1 ( रज्ज) 2 / 1 (कर) विधि 2 / 1 सक (सुपुरिस) 8/1 (सयल) 2 / 1 वि [ ( आणा ) - ( गुण) - (विसाल ) 2 / 1 वि] ( अम्ह) 1 / 1 स (धर) व 1 / 1 सक (छत्त) 2 / 1 बोध दिया गया पादपूर्ति भरत राम के द्वारा आलिंगन किया गया स्नेहपूर्वक सीता के द्वारा लक्ष्मण के द्वारा और अत्यन्त ( खूब सारी) बातचीत की गई क्रम से भरत झुके हुए शरीरवाला करके सिर पर अंजलि कहता है राम को राज्य को (पालन) करो (करें) हे सुपुरुष ! सकल आज्ञा गुण समृद्ध धारण करता हूँ (करूँगा ) छत्र 269 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चामरधारो य हवइ सत्तुंजो लच्छीहरो य मन्ती तुज्झऽन्नं सुविहियं किं वा 29. जाव इमो आलावो वट्टइ तावं रहेण तूरन्ती तं चेव समुद्दे संपत्ता केई देवी 30. ओयरिय रहवराओ 270 [ ( चामर) - (धार) 1 / 1 वि] अव्यय ( हव) व 3 / 1 अक (सत्तुंज) 1/1 ( लच्छीहर) 1 / 1 अव्यय (मन्ति) 1 / 1 [ ( तुज्झ ) - (अन्नं) 1 /1] तुज्झ ( तुम्ह) 4 / 1 स अन्नं (अन्न) 1 / 1 स (सुविहिय) 1 / 1 वि अव्यय अव्यय (इम) 1 / 1 सवि ( आलाव ) 1 / 1 ( वट्ट) व 3 / 1 अक अव्यय (रह) 3 / 1 (तूर) वकृ 1 / 1 अव्यय (ओयर) संकृ ( रहवर) 5/1 चामरधर ( चंवर धारण करनेवाला) और होता है (होगा ) शत्रुघ्न लक्ष्मण पादपूर्ति मन्त्री आपके लिए अन्य आचरणीय बातचीत हो रही है ( थी) उसी समय रथ से शीघ्रता करती हुई हेतुसूचक अव्यय अव्यय पादपूर्ति [(सम) + (उद्देसं)][(सम) - ( उद्देस) 2 / 1 ] समान उद्देश्य को ( संपत्त ) भूकृ 1 / 1 अनि प्राप्त हुई (केगई) 1/1 कैकेयी (देवी) 1/1 देवी क्या जबकि ऐसी नीचे उतरकर रथ से प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमं आलिंगिऊण रोवन्ती संभासेइ कमेणं सीयासहियं (पउम) 2/1 (आलिंग) संक (रोव) वकृ 1/1 (सम्भास) व 3/1 सक (कम) 3/1 क्रिवि [(सीया)-(सहिय) 2/1 वि] अव्यय (सोमित्ति) 2/1 राम को आलिंगन कर रोती हुई कहती है क्रम से सीतासहित और सोमित्तिं लक्ष्मण को 31. तब केगई कैकेयी ने पवुत्ता कहा हे पुत्र! अयोध्या नगरी अव्यय (केगई) 1/1 (पवुत्त) भूक 1/1 अनि (पुत्त) 8/1 [(विणीया)-(पुरी) 7/1] (वच्च) व 1/2 सक (रज्ज) 2/1 (कर) विधि 2/1 सक (णियय) 2/1 वि (भरह) 1/1 पुत्त विणीयापुरिम्मि वच्चामो रज्जं करेहि निययं भरहो चलते हैं राज्य करो अपना भरत अव्यय अव्यय और सिक्खणीओ (सिक्ख) विधिकृ 1/1 (तुम्ह) 3/1 स सिखाया जाना चाहिए तुम्हारे द्वारा 32. तो . अव्यय तब भणइ पउमणाहो अम्मो कहता है (कहते हैं) राम (भण) व 3/1 सक (पउमणाह) 1/1 (अम्मा) 8/1 अव्यय हे माता! किं क्या खत्तिया (खत्तिय) 1/2 क्षत्रिय प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 271 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलियवाई होन्ति मिथ्याभाषी होते हैं बड़े कुल में उत्पन्न हुए इसलिए महाकुलजाया [(अलिय)-(वाइ) 1/2] (हो) व 3/2 अक [(महा) वि-(कुल)-(जा) भूकृ 1/2] अव्यय (भरह) 1/1 (कुण) विधि 3/1 सक (रज्ज) 2/1 तम्हा भरहो भरत करे कुणउ रज्जं राज्य 33. तत्थेव वहाँ, काणणवणे वन में पच्चक्खं प्रत्यक्ष (समक्ष) सब राजाओं के सव्वनरवरिन्दाणं भरहं [(तत्थ) + (एव)] तत्थ (अव्यय) एव (अव्यय) (काणण-वण) 7/1 (पच्चक्ख) 1/1 [(सव्व)-(नरवरिंद) 6/2] (भरह) 2/1 (ठव) व 3/1 सक (रज्ज) 7/1 (राम) 1/1 (सोमित्ति) 3/1 (सहिअ) 1/1 वि ठवेड़ भरत को बैठाता है (बिठाया) राज्य पर रामो राम लक्ष्मण के सोमित्तिणा सहिओ साथ 34. नमिऊण केगईए भुयासु उवगूहिउँ भरहसामि (नम) संकृ (केगई) 4/1 (भुय) 7/2 (उवगृह) संकृ [(भरह)-(सामि) 2/1] अव्यय (त) 1/2 सवि [(सीया)-(सहिय) 1/2 वि] (संभास) संकृ [(सव्व)-(सामन्त) 2/2] नमस्कार करके कैकेयी को भुजाओं में आलिंगन करके भरत राजा को पादपूरक अह सीता सहित सीयासहिया संभासिय सव्वसामन्ते कहकर सब सामन्तों को 272 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35. दक्खिणदेसाभिमुहा चलिया भरहो भरत वि भी निययपुरहुत्तो पत्तो [(दक्खिण)-(देस)-(अभिमुह) 1/2 वि] दक्षिण देश के सम्मुख (चल) भूकृ 1/2 चल पड़े (भरह) 1/1 अव्यय [(नियय) वि-(पुर)-(हुत्त) 1/1 वि] अपने राज्य के सम्मुख (पत्त) भूक 1/1 अनि पहुँच गया (कर) व 3/1 सक करता है (करने लगा) (रज्ज) 2/1 राज्य (इन्द) 1/1 अव्यय जैसे [(देव)-(नयरि) 7/1] देवनगरी में करेइ रज्ज इन्दो जह देवनयरीए प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 273 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-9 अमंगलियपुरिसस्स कहा अमंगलियपुरिसस्स अमांगलिक पुरुष की [(अंमगलिय)-(पुरिस) 6/1] (कहा) 1/1 कहा कथा एगम्मि एक नगर में नयरे एक एगो अमंगलिओ अमांगलिक मूर्ख मुद्धो पुरुष पुरिसो आसि (एग) 7/1 वि (नयर) 7/1 (एग) 1/1 वि (अमंगलिय) 1/1 वि (मुद्ध) 1/1 वि (पुरिस) 1/1 (अस) भू 3/1 अक (त) 1/1 स (एरिस) 1/1 वि (अस) व 3/1 अक (ज) 1/1 स (क) 1/1 स था सो वह ऐसा एरिसो अस्थि है (था) जो जो को कोई FEEEEEEEEEEEE वि अव्यय पभायंमि तस्स मुहं पासेइ सो भोयणं (पभाय) 7/1 (त) 6/1 स (मुह) 2/1 (पास) व 3/1 सक (त) 1/1 स (भोयण) 2/1 अव्यय प्रात:काल में/प्रभात में उसके मुँह को देखता है वह भोजन भी न अव्यय नहीं 274 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लहेज्जा (लह) व 3/1 सक (पउर) 1/2 वि पाता है नगर के निवासी पउरा भी वि पच्चूसे कया वि प्रात:काल में कभी भी तस्स उसके मुँह को नहीं पिक्खंति देखते हैं राजा के द्वारा नरवइणा वि भी अमांगलिक पुरुष की बात अमंगलियपुरिसस्स वा सुणिआ परिक्खत्थं नरिंदेण अव्यय (पच्चूस) 7/1 अव्यय (त) 6/1 स (मुह) 2/1 अव्यय (पिक्ख) व 3/2 सक (नरवइ) 3/1 अव्यय [(अमंगलिय)-(पुरिस) 6/1] (वट्टा) 1/1 (सुण) भूकृ 1/1 (परिक्खत्थं) क्रिविअ (नरिंद) 3/1 अव्यय [(पभाय)-(काल) 7/1] (त) 1/1 स (आहूअ) भूक 1/1 अनि (त) 6/1 स (मुह) 1/1 (दिट्ठ) भूक 1/1 अनि अव्यय (राअ) 1/1 (भोयणत्थं) क्रिविअ उवविसइ (उवविस) व 3/1 अक (कवल) 2/1 अव्यय (मुह) 7/1 सुनी गई परीक्षा के लिए राजा के द्वारा एक बार प्रभातकाल में एगया पभायकाले सो वह बुलाया गया उसका आहूओ तस्स मुहं दिटुं मुख देखा गया ज्योहि जया राया भोयणत्थमुवविसइ राजा भोजन के लिए बैठता है कवलं ग्रास और मुँह में प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 275 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्खिवइ रखता है (रखा) त्योंहि तया अहिलंमि समस्त (पक्खिव) व 3/1 सक अव्यय (अहिल) 7/1 वि (नयर) 7/1 अव्यय [(परचक्क)-(भय) 3/1] नयरे नगर में अकम्हा परचक्कभएण अकस्मात् शत्रु के द्वारा आक्रमण के भय से शोरगुल हुआ हलबोलो जाओ तया तब नरवइ राजा भी भोयणं चिच्चा (हलबोल) 1/1 (जाअ) भूकृ 1/1 अनि अव्यय (नरवइ) 1/1 अव्यय (भोयण) 2/1 (चिच्चा) संकृ अनि अव्यय (उट्ठ- उत्थ) संकृ [(स) वि-(सेण्ण) 1/1] (नयर) 5/1 अव्यय (निग्गअ) भूकृ 1/1 अनि भोजन को छोड़कर शीघ्र सहसा उठकर सेनासहित उत्थाय ससेण्णो नयराओ बाहिं निग्गओ नगर से बाहर निकला भयकारणमदट्ठण भय के कारण को, न, देखकर [(भय)+(कारणं) + (अदट्टण)] [(भय)-(कारण) 2/1] [(अ)-(दळूण)] (अ) अव्यय (दळूण) संकृ अनि अव्यय फिर बाद में अव्यय पुणो पच्छा आगओ समाणो नरिंदो चिंतेइ आ गया अहंकारी (आगअ) भूकृ 1/1 अनि (समाण) 1/1 वि (नरिंद) 1/1 (चिंत) व 3/1 सक राजा सोचता है (सोचा) 276 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्स अमंगलियस्स अमांगलिक का सरूवं स्वरूप मेरे द्वारा मए पच्चक्खं प्रत्यक्ष दिटुं देखा गया इसलिए तओ एसो हंतव्वो (इम) 6/1 सवि (अमंगलिय) 6/1 वि (सरूव) 1/1 (अम्ह) 3/1 स (पच्चक्ख) 1/1 (दिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि अव्यय (एत) 1/1 स (हंतव्व) विधिकृ 1/1 अनि अव्यय (चिंत) संकृ (अमंगलिय) 2/1 (बोल्ल) प्रे संकृ (वहत्थं) क्रिविअ (चंडाल) 4/1 (अप्प) व 3/1 सक अव्यय (एत) 1/1 स (रुअ) वकृ 1/1 [(स)-(कम्म) 2/1] (निंद) वकृ 1/1 (चंडाल) 3/1 यह मारा जाना चाहिए इस प्रकार विचारकर अमांगलिक को चिंतिऊण अमंगलियं बोल्लाविऊण वहत्थं चंडालस्स बुलवाकर वध के लिए चाण्डाल को सौंपता है (सौंपा) अप्पेइ जया जब एसो रुयंतो सकम्म निंदंतो यह रोता हुआ स्वकर्म को (की) निन्दा करता हुआ चण्डाल के चंडालेण अव्यय साथ सह गच्छंतो जा रहा (गच्छ) वकृ 1/1 (अस) व 3/1 अक अत्थि है (था) तया अव्यय तब एगो एक कारुणिओ बुद्धिणिहाणो (एग) 1/1 वि (कारुणिअ) 1/1 वि [(बुद्धि)-(णिहाण) 1/1 वि] दयावान बुद्धिमान ने (बुद्धि के भण्डार) प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 277 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहाई णेइज्जन्तं आणं द₹णं कारणं (वह-वहा-वहाइ) 4/1 वध के लिए (णेअ-णेइज्ज-णेइज्जंत) कर्म वकृ 2/1 ले जाए जाते हुए (आण) 2/1 क्रिविअ आदेश (त) 2/1 स उसको (दळूणं) संकृ अनि देखकर (कारण) 2/1 कारण को (णच्चा) संकृ अनि जानकर (त) 6/1 स उसकी (रक्ख ण) 4/1 रक्षा के लिए (कण्ण ) 7/1 कान में णच्चा तस्स रक्खणाय कण्णे किंपि अव्यय कुछ कहिऊण कहकर उवायं दंसेड़ हरिसंतो (कह) संकृ (उवाय) 2/1 (दंस) व 3/1 सक (हरिस) वकृ 1/1 उपाय दिखलाता है (दिखलाया) प्रसन्न होते हुए जया अव्यय जब वध के खम्भे पर वहत्थंभे ठविओ खड़ा किया गया तब तया चंडालो चाण्डाल उसको पुच्छइ जीवणं [(वह)-(त्थंभ) 7/1] (ठव) भूकृ 1/1 अव्यय (चंडाल) 1/1 (त) 2/1 स (पुच्छ) व 3/1 सक (जीवण) 2/1 अव्यय (तुम्ह) 6/1 स (का) 1/1 स वि (अव्यय) भी (इच्छा ) 1/1 विणा पूछता है (पूछा) जीवन के बिना (अलावा) तुम्हारी कोई भी इच्छा तव कावि इच्छा 1. 2. अनुस्वार का आगम हुआ है। इस शब्द में वकृ. के दो प्रत्यय न्त और माण लगे हैं। व्याकरण के नियमानुसार एक ही प्रत्यय का प्रयोग होना चाहिए। 278 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिया तया मग्गियव्वं सो कहेइ मज्झ नरिंदमुहदंसणेच्छा अत्थि तया सो नरिंदसमीवमाणी ओ नरिंदो तं पुच्छइ किमेत्थ आगमणपओयणं 3. सो कहेइ हे नरिंद पच्चूसे मम मुहस्स दंसणेण भोयणं न प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ अव्यय अव्यय ( मग्ग) विधिकृ 1 / 1 (त) 1 / 1 स ( कह) व 3 / 1 सक ( अम्ह ) 6 / 1 स [(नरिंद) + (मुह) + (दंसण) + (इच्छा)] [(नरिंद) - (मुह) - (दंसण) - (इच्छा) 1 / 1] (अस) व 3 / 1 अक अव्यय (त) 1 / 1 स [(नरिंद) + (समीवं) + (आणीओ ) ] [ ( नरिंद) - (समीव) 1/1] आणीओ (आणी ) भूकृ 1 / 1 ( नरिंद) 1 / 1 (त) 2 / 1 स (पुच्छ) व 3 / 1 सक [(किं)+(एत्थ)] किं (किं) 1/1 स एत्थ (अव्यय) [ ( आगमण ) - (पओयण) 1 / 1] (त) 1 / 1 स ( कह) व 3 / 1 सक ( नरिंद ) 8 / 1 ( पच्चूस ) 7/1 (अम्ह) 6/1 स (मुह ) 6 / 1 (दंसण) 3 / 1 ( भोयण) 1 / 1 अव्यय माँगी जानी चाहिए वह कहता है मेरी राजा के मुख दर्शन की इच्छा है तब वह राजा के समीप लाया गया राजा उसको पूछता है क्या यहाँ आने का प्रयोजन है वह (उसने) कहता है ( कहा) हे राजा प्रात: काल में मेरे मुख के दर्शन से भोजन नहीं 279 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्भइ (लब्भइ) व कर्म 3/1 सक अनि पाया जाता है (ग्रहण किया जाता है) परन्तु तुम्हाणं मुहपेक्खणेण मम मेरा वहो वध भविस्सइ तया पउरा किं कहिस्संति मम मेरे मुहाओ सिरिमंताणं मुहदसणं केरिसफलयं अव्यय परन्तु (तुम्ह) 6/2 तुम्हारा [(मुह)-(पेक्खण) 3/1] मुख देखने से (अम्ह) 6/1 स (वह) 1/1 (भव) भवि 3/1 अक होगा अव्यय तब (पउर) 1/2 नगर के निवासी (किं) 1/1 स क्या (कह) भवि 3/2 सक कहेंगे (अम्ह) 6/1 स (मुह) 5/1 मुँह की तुलना में (सिरिमंत) 6/2 श्रीमान के [(मुह)-(दसण) 1/1] मुखदर्शन ने [(केरिस)-(फल)][(केरिस) वि कैसे, फल को फलय (फल) 'व' स्वार्थिक प्रत्यय 2/1] (संजाअ) भूकृ 1/1 अनि उत्पन्न किया (नायर) 1/2 नागरिक अव्यय भी (पभाअ) 7/1 प्रभात में (तुम्ह) 6/2 स तुम्हारे (मुह) 2/1 अव्यय कैसे (पास) भवि 3/2 सक देखेंगे अव्यय इस प्रकार (त) 6/1 स उसकी संजा नायरा वि पभाए तुम्हाणं मुहं मुख को कहं पासिहिरे एवं तस्स 1. कभी-कभी सकर्मक क्रिया से बने हुए भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग कर्तृवाच्य में किया जाता है। 280 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचन-युक्ति से सन्तुष्ट हुआ वयणजुत्तीए संतुट्ठो नरिंदो वहाएसं राजा वध के आदेश को निसेहिऊणं पारितोसिअं [(वयण)-(जुत्ति) 3/1] (संतुट्ठ) भूक 1/1 अनि (नरिंद) 1/1 [(वह)+ (आएस)] [(वह)-(आएस) 2/1] (निसेह) संकृ (पारितोसिअ) 2/1 अव्यय (दच्चा) संकृ अनि (त) 1/1 स (अमंगलिय) 1/1 वि (संतोस) भू 3/1 अक रद्द करके पारितोषिक और देकर दच्चा वह अमांगलिक भी अमंगलियं संतोसी सन्तुष्ट हुआ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 281 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-10 विउसीए पुत्तबहूए कहाणगं विउसीए पुत्तबहूए कहाणगं (विउसी) 6/1 वि [(पुत्त)-(बहू) 6/1] (कहाणग) 1/1 विदुषी पुत्रवधू का कथानक 1. कम्मि किसी नगर में नयरे लच्छीदासो सेट्टी लक्ष्मीदास सेठ वरीवह (क) 7/1 स (नयर) 7/1 (लच्छीदास) 1/1 (सेट्ठि) 1/1 [(वरी) (अव्यय)वट्टइ (वट्ट) व 3/1 अक] (त) 1/1 स [(बहु) वि-(धण)-(संपत्ति) 3/1] (गविट्ठ) 1/1 वि (अस) भूका 3/1 अक [(भोग)-(विलास) 7/2] भली प्रकार, रहता (था) बहुत धन-सम्पत्ति के कारण अत्यन्त गर्वीला बहुधणसंपत्तीए गविट्रो आसि भोगविलासेसु था भोगविलासों में एव अव्यय लग्गो लगा हुआ (था) कभी भी कयावि धम्म (लग्ग) भूकृ 1/1 अनि अव्यय (धम्म) 2/1 अव्यय (कुण) व 3/1 सक (त) 6/1 स (पुत्त) 1/1 धर्म नहीं ण कुणेइ करता है (था) तस्स उसका पुत्तो पुत्र अव्यय 282 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसा एयारिसो अत्थि जोव्वणे पिउणा है (था) यौवन में पिता के द्वारा धार्मिक धर्मदास की धम्मिअस्स धम्मदासस्स जहत्थनामाए सीलवईए यथानाम शीलवती कन्नाए कन्या के सह पाणिग्गहणं साथ विवाह पुत्तस्स कारावियं पुत्र का करवा दिया गया सा वह कन्ना (एयारिस) 1/1 वि (अस) व 3/1 अक (जोव्वण) 7/1 (पिउ) 3/1 (धम्मिअ) 6/1 वि (धम्मदास) 6/1 (जहत्थनाम) 3/1 (सीलवइ) 3/1 (कन्ना) 3/1 अव्यय (पाणिग्गहण) 1/1 (पुत्त) 6/1 (कर) प्रे भूकृ 1/1 (ता) 1/1 सवि (कन्ना ) 1/1 अव्यय [(अट्ठ)-(वास) 1/1] (जा) भूक 1/1 अनि अव्यय (ती) 3/1 स [(पिउ)-(पेरणा) 3/1] [(साहुणी)-(सगास) 5/1] [(सव्वण्ण)-(धम्म)-(सवण) 3/1] (सम्मत्त) 1/2 (अणुव्वय) 1/2 अव्यय (गहीय) भूकृ 1/2 अनि (सव्वण्ण)-(धम्म) 7/1 अव्यय कन्या जया जब अट्ठवासा आठ वर्ष की जाया तब तया तीए पिउपेरणाए साहुणीसगासाओ सव्वण्णधम्मसवणेण सम्मत्तं अणुव्वयाई उसके द्वारा पिता की प्रेरणा से साध्वी के पास सर्वज्ञ के धर्म के श्रवण से सम्यक्तव अणुव्रत और ग्रहण किये गये सर्वज्ञ के धर्म में गहीयाई सव्वण्णधम्मे अईव बहुत निपुण निउणा (निउण(स्त्री)निउणा) 1/1 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 283 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजाआ (संजाअ(स्त्री)संजाआ) 1/1 जया जब वह ससुरगेहे आगया ससुर के घर में आ गई तया तब ससुराई ससुर आदि को अव्यय (ता) 1/1 स [(ससुर)- (गेह) 7/1] (आगय(स्त्री)आगया) भूकृ 1/1 अनि अव्यय [(ससुर) + (आई)] [(ससुर)-(आइ) 2/1] (धम्म) 5/1 (विमुह) 2/1 वि (दळूण) संकृ अनि (ती) 3/1 स [(बहु) वि-(दुह) 1/1] (संजाय) भूकृ 1/1 अनि धर्म से विमुख देखकर धम्माओ विमुहं द₹ण तीए बहुदुहं संजायं उसके द्वारा बहुत दुःख प्राप्त किया गया कैसे अव्यय कहं मम नियवयस्स होज्जा कहं निजव्रत का होगा कैसे वा देवगुरुविमुहाणं ससुराईणं (अम्ह) 6/1 स [(निय)-(वय) 6/1] (हो) भवि 3/1 अक अव्यय अव्यय [(देव)-(गुरु)-(विमुह) 4/2 वि] [(ससुर) + (आइ)] [(ससुर)-(आइ) 4/2] [(धम्म) + (उवएसो)] [(धम्म)-(उवएस) 1/1] (भव) भवि 3/1 अक अव्यय अथवा देवगुरु से विमुख ससुर आदि के लिए धम्मोवएसो धर्म का उपदेश होगा भवेज्जा एवं इस प्रकार सा वह (ता) 1/1 स (वियार) व 3/1 अक वियारेइ विचार करती है 284 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. एक बार संसार असार लक्ष्मी भी असार वि भी विनाशशील एक धर्म ही परलोक जानेवाले एगया अव्यय संसारो (संसार) 1/1 असारो (असार) 1/1 लच्छी (लच्छी ) 1/1 अव्यय असारा (असार(स्त्री)असारा) 1/1 देहो (देह) 1/1 अव्यय विणस्सरो (विणस्सर) 1/1 एगो (एग) 1/1 वि धम्मो (धम्म) 1/1 च्चिय अव्यय परलोगपवन्नाणं [(परलोग)-(पवन्न) 4/2 वि] जीवाणमाहारु [(जीवाणं)+(आहारु) जीवाणं (जीव) 4/2 आहारु (आहार)' 1/1 त्ति अव्यय उवएसदाणेण [(उवएस)-(दाण) 3/1] नियभत्ता (निय)-(भत्तु) 1/1 सव्वण्णधम्मेण [(सव्वण्ण)-(धम्म) 3/1] वासिओ (वास) भूकृ 1/1 कओ (कअ) भूकृ 1/1 अनि अव्यय सासूमवि [(सासुं)+ (अवि)] सासु (सासू) 2/1 अवि (अव्यय) कालंतरे [(काल)+(अंतरे)] [(काल)-(अंतर) 7/1] बोहेइ (बोह) व 3/1 सक ससुरं (ससुर) 2/1 अपभ्रंश का प्रत्यय है। जीवों के लिए, आधार इस प्रकार उपदेश देने से निजपति सर्वज्ञ के धर्म से संस्कारित किया गया इस प्रकार सासू को, भी कुछ समय पश्चात् समझाती है ससुर को प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 285 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिबोहि समझाने के लिए वह सा समयं मग्गेइ (पडिबोह) हेकृ (ता) 1/1 स (समय) 2/1 (मग्ग) व 3/1 सक समय/अवसर खोजती है (खोजने लगी) एगया तीए घर समणगुणगणालंकिओ महव्वइ नाणी जोव्वणत्थो साहू भिक्खत्थं समागओ अव्यय एक बार (ती) 6/1 स उसके (घर) 7/1 घर में [(समण)-(गुण)-(गण) + (आलंकिओ)] श्रमण-गुण-समूह [(समण)-(गुण)-(गण)-(आलंकिअ) से अलंकृत भूकृ 1/1 अनि] (महव्वइ) 1/1 वि महाव्रती (नाणि) 1/1 वि ज्ञानी [(जोव्वण)-(त्थ) 1/1 वि] यौवन में स्थित (एग) 1/1 वि एक (साहु) 1/1 साधु (भिक्खत्थं) क्रिविअ भिक्षा के लिए (समागअ) भूकृ 1/1 अनि आए (जोव्वण) 7/1 यौवन में अव्यय [(गहीय) भूक अनि-(वय) 2/1] ग्रहण किये हुए, व्रत को (संत) 2/1 वि (दंत) 2/1 वि जितेन्द्रिय (साहु) 2/1 साधु को (घर) 7/1 घर में (आगय) भूकृ 2/1 अनि आया हुआ (दह्रण) संकृ अनि देखकर (आहार) 7/1 आहार (विज्ज) वकृ 7/1 प्राप्त करते हुए होने पर अव्यय जोव्वणे वि गहीयवयं संतं साहुं घरंमि आगयं दह्रण आहारे विज्जमाणे 286 प्राकृत गद्य-पद्य सौर Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीए वियारियं उसके द्वारा विचार किया गया यौवन में जोव्वणे महाव्रत महव्वयं महादुल्लहं कहं एएण एयंमि जोव्वणत्तणे गहीयं (ती) 3/1 स (वियार) भूकृ 1/1 (जोव्वण) 7/1 (महव्वय) 1/1 (महादुल्लह) 1/1 अव्यय (एत) 3/1 स (एत) 7/1 सवि [(जोव्वण)-(त्तण) 7/1] (गहीय) भूकृ 1/1 अनि अव्यय (परिक्खत्थं) क्रिवि (समस्सा ) 6/1 (पुट्ठ) भूकृ 1/1 अनि अव्यय अत्यन्त दुर्लभ कैसे इसके (इनके) द्वारा इस यौवन अवस्था में ग्रहण किये गये ति इस प्रकार परीक्षा के लिए परिक्खत्थं समस्साए समस्या का पूछा गया अभी अहुणा समओ (समअ) 1/1 समय नहीं अव्यय (संजाअ) भूकृ 1/1 अनि हुआ संजाओ किं अव्यय पुव्वं निग्गया क्यों पहले ही निकल गए उसके हृदय में उत्पन्न भाव को तीए हिययगयभावं नाऊण जानकर अव्यय (निग्ग) भूकृ 1/1 अनि (ती) 6/1 स [(हियय)-(गय)-(भाव) 2/1] (ना) संकृ (साहु) 3/1 (उत्त) भूकृ 1/1 अनि [(समय)-(नाण) 1/1] अव्यय (मच्चु) 1/1 (हो) भवि 3/1 अक साहुणा उत्तं साधु के द्वारा कहा गया समयनाणं समय, ज्ञान कया कब मृत्यु मच्चू होस्सइ होगी प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 287 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्ति नत्थि नाणं तेण समयं विणा निग्गओ सा उत्तरं नाऊण तुट्ठा मुणिणा वि सा पुट्ठा कइ वरिसा तुम्ह संजाया मुणिस्स पुच्छाभावं नाऊण वीसवासेसु जाएसु वि तीए बारसवास त्ति उत्तं पुरवि 288 अव्यय अव्यय ( नाण) 1 / 1 अव्यय (समय) 2 / 1 अव्यय (निग्ग) भूकृ 1 / 1 अनि (ता) 1 / 1 स (उत्तर) 2 / 1 (ना) संकृ ( तुट्ठ) भूकृ 1 / 1 अनि (for) 3/1 अव्यय (ता) 1 / 1 स (पुट्ठ) भूकृ 1 / 1 अनि अव्यय ( वरिस ) 1/2 ( तुम्ह ) 1 / 1 स (संजाय) भूकृ 1/2 अनि ( मुणि) 6 / 1 [ ( पुच्छा) - (भाव) 2 / 1] . (ना) संकृ [(वीस) - (वास) 7 / 2] (जाअ) भूकृ 7 /2 अनि अव्यय (ती) 3 / 1 स (बारस) - (वास) 1/1 अव्यय (उत्त) भूकृ 1 / 1 अनि अव्यय इस प्रकार नहीं ज्ञान इसीलिए समय के बिना निकल गया वह उत्तर को समझकर सन्तुष्ट हुई मुनि द्वारा भी वह पूछी गई कितने वर्ष तुम्हे उत्पन्न हुए मुनि के प्रश्न के आशय को जानकर बीस वर्ष होने पर भी उसके द्वारा बारह वर्ष इस प्रकार कहे गए फिर प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते सामिस्स कइ वासा जात त्ति पुट्ठ तीए पियस्स पणवीसवासेसु जासु वि पंचवासा उत्ता एवं सासूए छम्मासा कहिया ससुरस्स पुच्छाए सो अहुणा न उप्पण्णो अत्थि de ति भणिआ 5. एवं वहू-साहूणं प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ ( तुम्ह ) 6 / 1 स (सामि ) 6/1 (क) 1/2 वि (वास) 1 / 2 (जात) भूक 1 / 1 अनि अव्यय ( पुट्ठ) भूकृ 1 / 1 अनि (ती) 3/1 स ( पिय) 6/1 [(पणवीस) - (वास) 7/2] (जाअ) भूकृ 7 / 2 अनि अव्यय [(पंच) - (वास) 1/2 ] (उत्त) भूक 1/2 अनि अव्यय (सासू ) 6/1 ( छम्मास ) 1/2 (कह ) भूकृ 1 / 2 (ससुर) 4/1 (पुच्छा) 7/1 (त) 1 / 1 स अव्यय अव्यय ( उप्पण्ण) भूक 1 / 1 अनि (अस) व 3 / 1 अक अव्यय (भण) भूक 1/2 अव्यय [(वहू) - (साहु) 6/1] तुम्हारे स्वामी के कितने वर्ष हुए इस प्रकार पूछा गया उसके द्वारा प्रिय के पच्चीस वर्ष होने पर भी पाँच वर्ष कहे गए इस प्रकार सासू के छः मास कहे गए ससुर पूछने पर के लिए वह अभी नहीं उत्पन्न हुआ है इस प्रकार कहे गए इस प्रकार बहू और साधु की 289 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वडा अंतट्टिएण ससुरेण सुआ लद्धभिक्खे वार्ता भीतर बैठे हुए ससुर के द्वारा सुनी गई भिक्षा को प्राप्त साहुमि साधु के गए चले जाने पर वह (वट्टा) 1/1 [(अंत)-(ट्ठिअ) भूक 3/1 अनि] (ससुर) 3/1 (सुअ) भूकृ 1/1 अनि [(लद्ध) भूकृ अनि-(भिक्ख) 7/1] (साहु) 7/1 (गअ) भूकृ 7/1 अनि (त) 1/1 स अव्यय [(कोह)-(आउल) 1/1] (संजाअ) भूकृ 1/1 अनि अव्यय [(पुत्त)-(वहू) 1/1] (अम्ह) 2/1 स (उद्दिस्स) संकृ अनि अव्यय (जाअ) भूकृ 1/1 अनि अत्यन्त अईव कोहाउलो संजाओ जओ क्रोध से व्याकुल हुआ क्योंकि पुत्तवहु पुत्रवधु मुझको लक्ष्य करके उद्दिस्स नहीं जाओ त्ति अव्यय उत्पन्न हुआ इस प्रकार कहती है कहेइ रुट्टो रूठ गया सो पुत्तस्स कहणत्थं (कह) व 3/1 सक (रुट्ठ) भूकृ 1/1 अनि (त) 1/1 स (पुत्त) 4/1 (कहणत्थं) क्रिविअ (हट्ट) 2/1 (गच्छ) व 3/1 सक (गच्छ) वकृ 2/1 (ससुर) 2/1 (ता) 1/1 स (वय) व 3/1 सक कहने के योग में चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग होता है। गच्छइ गच्छन्तं ससुरं वह पुत्र को कहने के लिए दुकान को (पर) जाता है (गया) जाते हुए ससुर को वह कहती है सा वएइ 1. 290 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोत्तूणं हे ससुर (भोत्तूण) संकृ अनि (ससुर) 8/1 (तुम्ह) 1/1 स (गच्छ) विधि 2/1 सक (ससुर) 1/1 (कह) व 3/1 सक अव्यय भोजन करके हे ससुर! तुम (आप) जाओ (जाएँ) गच्छसु ससुरो कहेइ ससुर कहता है जइ यदि (अम्ह) 1/1 स नहीं जाओ अव्यय (जाअ) भूकृ 1/1 अनि (अस) व 1/1 अक उत्पन्न हुआ हूँ तब कैसे भोजन चबाता हूँ (चबाऊँगा) खाता हूँ (खाऊँगा) इस प्रकार इअ कहकर दुकान पर गया तया अव्यय कहं अव्यय भोयणं (भोयण) 2/1 चव्वेमि (चव्व) व 1/1 सक भक्खेमि (भक्ख ) व 1/1 सक अव्यय कहिऊण (कह) संकृ (हट्ट) 7/1 गओ (गअ) भूकृ 1/1 अनि (पुत्त) 4/1 सव्वं (सव्व) 2/1 सवि वुत्तंतं (वुत्तंत) 2/1 कहेइ (कह) व 3/1 सक तव (तुम्ह) 6/1 स पत्ती (पत्ती) 1/1 दुरायारा (दुरायार) 1/1 वि असब्भवयणा [(असब्भ)-(वयण) 1/1 वि] अस्थि (अस) व 3/1 अक 1. कहने के योग में चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग होता है। पुत्तस्स पुत्र को सब वार्ता कहता है तेरी पत्नी दुराचारिणी अशिष्ट बोलनेवाली प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 291 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अओ तं गिहाओ निक्कासय 6. सो पिउणा' सह गेहे आगओ वहुं पुच्छइ किं माउपिउणो अवमाणं कयं साहुणा' सह वट्टाए किं असच्चमुत्तरं दिण्णं तीए उत्तं तुम्हे मुणि पुच्छह सो 1. 292 अव्यय (ता) 2 / 1 स (गिह) 5 / 1 (निक्कस) अनि प्रे विधि 2 / 1 सक (त) 1 / 1 स (पिउ ) 3 / 1 (तुम्ह) 1/2 स (for) 2/1 (पुच्छ) विधि 2 / 2 सक (त) 1 / 1 स सह के योग में तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता I इसीलिए उसको घर से निकालो अव्यय (गेह) 7/1 (आगअ) भूकृ 1 / 1 अनि (वहू) 2/1 (पुच्छ) व 3 / 1 सक अव्यय [( माउ ) - (पिउ) 6/1] (अवमाण) 1/1 ( कय) भूकृ 1 / 1 अनि ( साहु ) 3 / 1 अव्यय ( वट्टा) 7/1 अव्यय असत्य [(असच्च) + (उत्तरं )] असच्चं (असच्च) 1 / 1 उत्तरं (उत्तर) 1 / 1 उत्तर ( दिण्ण) भूक 1 / 1 अनि दिये गये (ती) 3 / 1 स उसके द्वारा ( उत्त) भूकृ 1 / 1 अनि वह पिता के साथ घर में आया बहू को पूछता है क्यों माता-पिता का अपमान किया गया के साहु साथ वार्ता में क्यों कहा गया तुम ( ही ) मुनि को पूछो वह प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वं सब कह देंगे कहिहिइ ससुरो उवस्सए गंतूण सावमाणं ससुर उपासरे में जाकर (सव्व) 2/1 सवि (कह) भवि 3/1 सक (ससुर) 1/1 (उवस्सय) 7/1 (गंतूण) संकृ अनि [(स) + (अवमाण)] [(स)-(अवमाण) 1/1 वि] (मुणि) 2/1 (पुच्छ) व 3/1 सक (मुणि) 8/1 अव्यय मुर्णि पुच्छ हे मुणे अज्ज अपमान सहित मुनि को पूछता है हे मुनि! आज मम गेहे (अम्ह) 6/1 स (गेह) 7/1 (भिक्खत्थं) क्रिविअ घर में भिक्खत्थं भिक्षा के लिए तुम्हे तुम किं क्यों आगया आये मुणी (तुम्ह) 1/2 स अव्यय (आगय) भूकृ 1/2 अनि (मुणि) 1/1 (कह) व 3/1 सक (तुम्ह) 6/2 स (घर) 2/1 मुनि कहेइ तुम्हाण कहता है तुम्हारे घर को अव्यय नहीं जाणमि जानता हूँ (जाण) व 1/1 सक (तुम्ह) 1/1 स तुमं तुम अव्यय कहाँ कुत्थ. वससि सेट्ठी वियारेड (वस) व 2/1 अक (सेट्ठि) 1/1 (वियार) व 3/1 सक (मुणि) 1/1 (असच्च) 2/1 रहते हो सेठ विचारता है मुनि मुणी असच्चं असत्य प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 293 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहे पुरवि पुट्ठ कत्थवि गेहे बालाए सह वट्टा कया किं मुणी कहे सा बाला अईव कुसला मम वि परिक्खा कया ती • ho वुत्तो समयं विणा कहं निग्गओ सि 1. 294 ( कह ) व 3 / 1 सक अव्यय (पुट्ठ) भूकृ 1 / 1 अनि अव्यय (गेह) 7/1 (बाला) 3 / 1 अव्यय ( वट्टा ) 1 / 1 ( कय) भूकृ 1 / 1 अनि अव्यय ( मुणि) 1 / 1 ( कह) व 3 / 1 सक (ता) 1 / 1 सवि ( बाला) 1 / 1 अव्यय (कुसल (स्त्री) कुसला) 1 / 1 वि (ती) 3/1 स ( अम्ह ) 6 / 1 स अव्यय (परिक्खा ) 1 / 1 ( कय) भूकृ 1 / 1 अनि (ती) 3 / 1 स ( अम्ह) 1 / 1 स (वृत्त) भूकृ 1 / 1 अनि (समय) 12/1 अव्यय अव्यय (निग्ग) भूकृ 1 / 1 अनि (अस) व 2 / 1 अक बिना के योग में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है। कहता है फिर पूछा गया किसी भी घर में बाला के साथ वार्ता की गई क्या मुनि 5 कहता है वह बाला अत्यन्त कुशल उसके द्वारा मेरी भी परीक्षा की गई उसके द्वारा कहा गया समय के बिना कैसे निकले प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मए मेरे द्वारा उत्तरं उत्तर दिण्णं दिया गया समयस्स समय का (अम्ह) 3/1 स (उत्तर) 1/1 (दिण्ण) भूकृ 1/1 अनि (समय) 6/1 [(मरण)-(समय) 6/1] (नाण) 1/1 [(न)+(अत्थि)] न (अव्यय) नहीं, अत्थि (अस) व 3/1 सक मरणसमयस्स मरण समय का नाणं ज्ञान नत्थि नहीं, अव्यय तेण पुव्ववयम्मि निग्गओ इसीलिए आयु के पूर्व में निकल गया [(पुव्व)-(वय) 7/1] (निग्ग) भूकृ 1/1 अनि (अस) व 1/1 अक (अम्ह) 3/1 स म्हि हूँ मए मेरे द्वारा वि अव्यय भी परिक्खत्थं सव्वेसिं ससुराईणं परीक्षा के लिए सभी के ससुर आदि के (परिक्खत्थं) क्रिविअ (सव्व) 6/2 सवि [(ससुर)+ (आइ)] [(ससुर)-(आइ) 6/2] (वास) 1/2 (पुट्ठ) भूक 1/2 अनि (ती) 3/1 स वासाई वर्ष पुट्ठाई तीए सम्म कहियाई सेट्ठी पुच्छड़ ससुरो पूछे गये उसके द्वारा अच्छी तरह कहे गये अव्यय सेट (कह) भूकृ 1/2 (सेट्टि) 1/1 (पुच्छ) व 3/1 सक (ससुर) 1/1 पूछता है (पूछा) ससुर न अव्यय नहीं जाओ (जाअ) भूक 1/1 अनि इअ अव्यय उत्पन्न हुआ यह उसके द्वारा तीए (ती) 3/1 स प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 295 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यय किं कहियं मुणिणा क्यों कहा गया मुनि के द्वारा उत्तं कहा गया सा वह च्चिय पुच्छिज्जउ जओ विउसीए तीए जहत्थो (कह) भूकृ 1/1 (मुणि) 3/1 (उत्त) भूक 1/1 अनि (ता) 1/1 स अव्यय (पुच्छ) विधि कर्म 3/1 सक अव्यय (विउसी) 3/1 वि (ती) 3/1 सवि (जहत्थ) 1/1 वि (भाव) 1/1 (नज्जइ) व कर्म 3/1 सक अनि पूछी जाए क्योंकि विदुषी के द्वारा उस यथार्थ भावो भाव नज्जइ जाना जाता है (जाने जाते हैं) ससुरो ससुर गेहं घर जाकर गच्चा पुत्तवहुं पुच्छइ तीए मुणिस्स पुत्रवधू को पूछता है उसके द्वारा (ससुर) 1/1 (गेह) 2/1 (गच्चा) संकृ अनि [(पुत्त)-(वहू) 2/1] (पुच्छ) व 3/1 सक (ती) 3/1 स (मुणि) 6/1 अव्यय [(किं) + (एवं)] किं (अव्यय), एवं (अव्यय) (वुत्त) भूकृ 1/1 अनि (अम्ह) 6/1 स (ससुर) 1/1 (जाअ) भूकृ 1/1 अनि मुनि के पुरओ किमेवं समक्ष क्यों, इस प्रकार कहा गया मेरा ससुरो ससुर जाओ उत्पन्न हुआ वि अव्यय ही अव्यय नहीं 296 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीए उत्तं हे ससुर धम्महीणमणुसस्स माणवभवो पत्तो (पत) उसके द्वारा कहा गया हे ससुर! धर्महीन मनुष्य का मनुष्य भव प्राप्त किया हुआ भी प्राप्त नहीं किया हुआ ही क्योंकि सत् धर्म की क्रिया के द्वारा 1/ जा वि (ती) 3/1 स (उत्त) भूक 1/1 अनि (ससुर) 8/1 [(धम्महीण)-(मणुस) 6/1] [(माणव)-(भव) 1/1] 1/1 अनि अव्यय (अपत्त) भूकृ 1/1 अनि अव्यय अव्यय [(सद्धम्म)-(किच्चा) 3/2] (सहल) 1/1 वि (भव) 1/1 अव्यय (कअ) भूकृ 1/1 अनि (त) 1/1 स [(मणुस)-(भव) 1/1] (निप्फल) 1/1 वि अव्यय अपत्तो एव जओ सद्धम्मकिच्चेहिं सहलो भवो सफल भव न नहीं किया गया वह कओ सो मणुसभवो निष्फलो चिय मनुष्य जन्म निरर्थक तओ अव्यय उस कारण से तुम्हारा तुम्ह जीवणं (तुम्ह) 6/1 स (जीवण) 1/1 जीवन पि अव्यय धर्महीन धम्महीणं सव्वं सारा गया तेण (धम्महीण) 1/1 (सव्व) 1/1 सवि (गय) भूक 1/1 अनि अव्यय (अम्ह) 3/1 स (कह) भूकृ 1/1 (अम्ह) 6/1 स मए इसीलिए मेरे द्वारा कहा गया कहिअं मम मेरे प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 297 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ससुरस्स उप्पत्ती (ससुर) 6/1 (उप्पत्ति) भूकृ 1/1 अनि ससुर की उत्पत्ति एव अव्यय न अव्यय नहीं एवं सच्चत्थाणे इस प्रकार सत्य कारण पर सन्तुष्ट हुआ धर्माभिमुख धम्माभिमुहो जाओ पुणरवि पुढे हुआ फिर पूछा गया तुम्हारे द्वारा सासू की छः मास तुमए सासूए छम्मासा कहं कैसे कहिआ तीए अव्यय [(सच्च)-(त्थाण) 7/1] (तुट्ठ) भूकृ 1/1 अनि [(धम्म)+(अभिमुह)] [(धम्म)-(अभिमुह) 1/1] (जाअ) भूकृ 1/1 अनि अव्यय (पुट्ठ) भूकृ 1/1 अनि (तुम्ह) 3/1 स (सासू) 6/1 (छम्मास) 1/1 अव्यय (कह) भूकृ 1/1 (ती) 3/1 स (उत्त) भूकृ 1/1 अनि (सासू) 2/1 (पुच्छ) विधि 2/2 सक (सेट्ठि) 3/1 (ता) 1/1 स (पुट्ठ) भूकृ 1/1 अनि (ता) 3/1 स अव्यय (कह) भूकृ 1/1 [(पुत्त)-(वह) 6/1] (वयण) 1/1 (सच्च) 1/1 कही गई उसके द्वारा कहा गया सासू को उत्तं सासुं पुच्छह सेट्टिया सा पूछो सेठ के द्वारा वह पूछी गई उसके द्वारा पुट्ठा ताए वि भी कहा गया पुत्रवधू के कहिअं पुत्तवहूणं वयणं सच्चं वचन सत्य 298 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जओ क्योंकि मम सव्वण्णुधम्मपत्तीए छम्मासा मेरी सर्वज्ञ धर्म की प्राप्ति में अव्यय (अम्ह) 6/1 स [(सव्वष्णु)'-(धम्म)-(पत्ति) 7/1] (छम्मास) 1/1 अव्यय (जाय) भूकृ 1/1 अनि छः मास एव जाया अव्यय क्योंकि जओ इओ छम्मासाओ अव्यय (छम्मास) 5/1 इस लोक में छ: माह अव्यय कत्थ अव्यय कहीं अव्यय भी मरणपसंगे मृत्यु प्रसंग में अहं गई [(मरण)-(पसंग) 7/1] (अम्ह) 1/1 स (गया) भूकृ 1/1 अनि अव्यय (थी) 6/2 [(विविह)-(गुण)-(दोस)-(वट्टा) 1/1] (जाय) भूकृ 1/1 अनि गया तत्थ थीणं विविहगुणदोसवट्टा वहाँ स्त्री के विविध गुण दोषों की वार्ता जाया 8. एगाए वुड्ढाए उत्तं (एग) 3/1 वि (वुड्डा) 3/1 (उत्त) भूकृ 1/1 अनि (नारी) 6/2 (मज्झ) 7/1 (इम) 6/1 स [(पुत)-(वहू) 1/1] एक वृद्धा के द्वारा कहा गया स्त्रियों के मध्य में नारीण मज्झे इमीए इसकी पुत्तवहू पुत्रवधू 1. अपभ्रंश का शब्द है। पूर्व-पुव्वं (से पहले) का प्रयोग अपादान के साथ होता है। 2. प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 299 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेट्ठा जोव्वणवए श्रेष्ठ यौवन की अवस्था में वि भी सासूभत्तिपरा धम्मकज्जम्मि सासू की भक्ति में लीन धर्म कार्य में वह और अप्रमादी अपमत्ता गिहकज्जेसु गृहकार्यों में वि कुसला नन्ना कुशल नहीं, अन्य ऐसी एरिसा इमीए इसकी सासू (सेठ्ठ) 1/1 वि स्त्री [(जोव्वण)-(वअ) 7/1] अव्यय [(सासू)-(भत्ति)-(पर) 1/1 वि] [(धम्म)-(कज्ज) 7/1] (ता) 1/1 स अव्यय (अपमत्त) 1/1 वि [(गिह)-(कज्ज) 7/2] अव्यय (कुसल) 1/1 वि [(न)+ (अन्ना)] (न) अव्यय, अन्ना (अन्न) 1/1 (एरिस) 1/1 वि (इम) 6/1 स (सासू) 1/1 (निब्भग) 1/1 वि (एरिसी) 3/1 वि [(भत्ति)-(वच्छला) 3/1 वि] (पुत्तवहू) 3/1 अव्यय [(धम्म)-(कज्ज) 7/1] [(पेर) + (इज्ज)+(माण)+ (अवि)] [(पेर)-(इज्ज)-(माण) कर्म वकृ] अवि (अव्यय) (धम्म) 2/1 अव्यय (कुण) व 3/1 सक (इम) 2/1 स (सोऊण) संकृ अनि [(बहू)-(गुण)-(रंज) भूकृ 1/1] सासू निब्भगा एरिसीए भत्तिवच्छलाए पुत्तवहूए वि धम्मकज्जे पेरिज्जमाणावि अभागी ऐसी भक्ति प्रेमी पुत्रवधू द्वारा भी धर्म कार्य में प्रेरित किए जाते हुए, भी धम्म नहीं करती है इसको कुणेइ इमं सोऊण बहुगुणरंजिआ सुनकर बहू के गुणों से प्रसन्न हुई 300 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीए उसके मुहाओ धम्मो पत्तो धम्मपत्तीए मुख से धर्म प्राप्त किया गया धर्म लाभ में छम्मासा छ: मास जाया (ती) 6/1 स (मुह) 5/1 (धम्म) 1/1 (पत्त) भूक 1/1 अनि [(धम्म)-(पत्ति) 7/1] (छम्मास) 1/1 (जाय) भूकृ 1/1 अनि अव्यय (पुत्तवहू) 3/1 (छम्मास) 1/1 (कह) भूकृ 1/1 (त) 1/1 स (जुत्त) 1/1 वि तओ पुत्तवहूए इसलिए पुत्रवधू के द्वारा छ: मास कहे गये छम्मासा कहिआ • 'E - EEEEEEE पूछा गया उसके द्वारा कहा गया रत्तीए समयधम्मोवएसपराए (पुत्त) 1/1 अव्यय (पुट्ठ) भूकृ 1/1 अनि (त) 3/1 स अव्यय (उत्त) भूकृ 1/1 अनि (रत्ति) 7/1 [(समय)-(धम्म)+ (उवएस)-(पराए)] [(समय)-(धम्म)-(उवएस)-(पर) 3/1 वि] (भज्जा ) 3/1 [(संसार)-(असार)-(दंसण) 3/1] [(भोग)-(विलास) 6/2] अव्यय [(परिणाम)-(दुह)-(दाइत्तण) 3/1] [(वासा)-(णई)-(पूर)-(तुल्ल)(जुव्वणत्तण) 3/1] रात्रि में सिद्धान्त और धर्म के उपदेश में लीन भज्जाए संसारासारदसणेण भोगविलासाणं पत्नी के द्वारा संसार में असार के दर्शन से भोगविलास के और परिणाम दुःखदाईपन से वर्षा नदी के जल प्रवाह के समान यौवनावस्था के कारण परिणामदुहदाइत्तणेण वासाणईपूरतुल्लजुव्वणत्तणेण प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 301 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देहस्स खणभंगुरत्तणेण जयम्मि धम्मो एव सारु सार त्ति उवदिट्टो सव्वण्णुधम्माराहगो जाओ अज्ज पंचवासा अव्यय और (देह) 6/1 देह की [(खण)-(भंगुरत्तण) 3/1] क्षणभंगुरता से (जय) 7/1 जगत में (धम्म) 1/1 धर्म अव्यय (सार)11/1 अव्यय इस प्रकार (उवदिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि बताया गया (अम्ह) 1/1 स [(सव्वण्णु)-(धम्म)-(आराहग) 1/1] सर्वज्ञ के धर्म का आराधक (जाअ) भूकृ 1/1 अनि बना अव्यय आज [(पंच)-(वास) 1/2] पाँच वर्ष (जाय) भूकृ 1/2 अनि अव्यय इसीलिए (वहू) 3/1 बहू के द्वारा (अम्ह) 2/1 स (उद्दिस्स) संकृ अनि लक्ष्य करके [(पंच)-(वास) 1/2] पाँच वर्ष (कह) भूकृ 1/2 कहे गये (त) 1/1 स (सच्च) 1/1 सत्य अव्यय इस प्रकार (कुडुंब) 4/1 कुटुम्ब के लिए [(धम्म)-(पत्ति) 6/1] धर्मलाभ की (वट्टा) 3/1 वार्ता से (विउसी) 6/1 जाया तओ वहूए मुझको उद्दिस्स पंचवासा कहिआ वह सच्चं कुडुबस्स धम्मपत्तीए वट्टाए विउसीए विदुषी 1. 2. अपभ्रंश का प्रत्यय है। अपभ्रंश का शब्द है। 302 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और पुत्रवधू के यथार्थ वचन को पुत्तवहए जहत्थवयणं सोऊण लच्छीदासो वि पडिबुद्धो अव्यय (पुत्तवहू) 6/1 [(जहत्थ)-(वयण) 2/1] (सोऊण) संकृ अनि (लच्छीदास) 1/1 अव्यय (पडिबुद्ध) 1/1 वि (वुडत्तण) 7/1 सुनकर लक्ष्मीदास भी ज्ञानी वुड्डत्तणे बुढ़ापे में वि अव्यय भी (धम्म) 1/1 धर्म धम्म आराहिअ पाला गया सग्गई पत्तो सपरिवारो (आराह) भूकृ 1/1 (सग्गइ) 1/1 (पत्त) भूकृ 1/1 अनि (सपरिवार) 1/1 सन्मार्ग प्राप्त किया सपरिवार व्याकरण के नियमानुसार यहाँ 'आराहिअं' होना चाहिए। यहाँ सकर्मक क्रिया से बने हुए भूतकालिक कृदन्त का कर्तृवाच्य में प्रयोग हुआ है। 2. प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 303 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-11 कस्सेसा भज्जा कस्सेसा [(कस्स)+ (एसा)] कस्स (क) 6/1 सवि एसा (एता) 1/1 स (भज्जा ) 1/1 किसकी यह भज्जा पत्नी 1. हत्थिणाउरे हस्तिनापुर (में) नगर में नयरे सूरनामा' शूरनामक रायपुत्तो णाणागुणरयण-संजुत्तो वसइ राजपुत्र नाना गुणरूपी रत्नों से युक्त रहता है (था) उसकी पत्नी गंगा नामवाली तस्स (हत्थिणाउर) 7/1 (नयर) 7/1 [(सूर) 1/1 नाम (अ) नामक] (रायपुत्त) 1/1 [(णाणा)-(गुण)-(रयण)(संजुत्त) भूकृ 1/1 अनि] (वस) व 3/1 अक (त) 6/1 स (भारिया) 1/1 [(गंगा)+(अभिहाणा)] [(गंगा)-(अभिहाणा) 1/1 वि] [(सील)+ (आइ)+ (गुण)+ (अलंकिया)] [(सील)-(आइ)(गुण)-(अलंकिया) 1/1 वि] [(सुमइ) 1/1 नाम (अ) = नामक] (त) 6/2 स (धूया) 1/1 (ता) 1/1 स भारिया गंगाभिहाणा सीलाइगुणालंकिया शीलादि गुणों से अलंकृत सुमइनामा सुमति नामक उनकी तेसिं पुत्री धूया सा वह नाम= 'नामक' अर्थवाले अव्यय का प्रयोग जब संज्ञा के साथ किया जाता है तब ह्रस्व का दीर्घ हो जाता है। 304 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्पपरिणामवसओ जणय-जणणी-भायामाउलेहिं पुढो-पुढो वराणं दिन्ना [(कम्म)-(परिणाम)-(वस) 5/1] [(जणय)-(जणणी)-(भाय)(माउल) 3/2] अव्यय (वर) 4/2 (दिन्ना) भूक 1/1 अनि कर्मफल के वश से पिता, माता, भाई और मामा के द्वारा अलग-अलग वरों के लिए दे दी गई 2. चउरो (चउ) 1/2 वि अव्यय (त) 1/2 स वरा । एगम्मि चेव दिणे परिणे आगया विवाह करने के लिए आ गये परस्पर आपस में परोप्परं कलहं कलह करते हैं (करने लगे) कुणन्ति (वर) 1/2 (एग) 7/1 वि अव्यय (दिण) 7/1 (परिण) हेकृ (आगय) भूकृ 1/2 अनि (परोप्पर) 2/1 क्रिवि (कलह) 2/1 (कुण) व 3/2 सक अव्यय (त) 6/2 स (विसम) 7/1 वि (संगाम) 7/1 (जा-जाअ) वकृ 7/1 [(बहु)-(जण)-(क्खय) 2/1] (दह्ण) संकृ अनि (अग्गि) 7/1 (पविठ्ठ) भूकृ 1/1 अनि तब उनके तओ तेसिं विसमे संगामे जायमाणे विषम संग्राम में उत्पन्न होते हुए बहुत मनुष्यों के क्षय को बहुजप्पक्खयं देखकर दहूण अग्गिम्मि पविट्ठा आग में प्रविष्ट हुई 1. इस शब्द के कर्म, करण और अपादान के एकवचन के रूप क्रियाविशेषण की भाँति प्रयुक्त होते हैं। आप्टे: संस्कृत हिन्दी कोश। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 305 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमति कन्या उसके साथ सुमइकन्ना तीए समं णिविडणेहेण एगो वरो घनिष्ठ स्नेह के कारण एक वर वि पविट्ठो प्रविष्ट हुआ एक अस्थियों को गंगा के प्रवाह में डालने के लिए अट्ठीणि गंगप्पवाहे खिविउं गओ एगो चिआरक्खं तत्थेव गया एक [(सुमइ)-(कन्ना) 1/1] (ती) 3/1 स अव्यय [(णिविड) वि-(णेह) 3/1] (एग) 1/1 वि (वर) 1/1 अव्यय (पविठ्ठ) भूक 1/1 अनि (एग) 1/1 वि (अट्ठि) 2/2 [(गंग)-(प्पवाह) 7/1] (खिव) हेकृ (गअ) भूकृ 1/1 अनि (एग) 1/1 वि [(चिआ)- (रक्ख) 2/1] [(तत्थ)+(एव)] तत्थ (क्रिविअ), एव-अव्यय [(जल)-(पूर) 7/1] (खिव) संकृ (तदुक्ख) 3/1 [(मोह)-(महा)-(गह)-(गह) भूकृ 1/1] (महीयल) 7/1 (हिण्ड) व 3/1 सक (चउत्थ) 1/1 वि [(तत्थ) + (एव)] तत्थ (क्रिविअ), एव (अ) (ठिअ) भूकृ 1/1 अनि (त) 2/1 सवि (ठाण) 2/1 चिता की राख को वहाँ, ही जलधारा में डालकर जलपूरे खिविऊण तदुक्खेण मोहमहागह-गहिओ महीयले उस दु:ख के कारण मोहरूपी महा-ग्रहों से पकड़ा हुआ पृथ्वी पर भ्रमण करता है (करने लगा) चौथा वहाँ, ही हिण्डइ चउत्थो तत्थेव ठिओ ठहरा . उस ठाणं स्थान की 306 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्खंतो पइदिणं एगमन्नपिंड रक्षा करने हेतु प्रतिदिन एक अन्न पिण्ड को (रक्ख) वकृ 1/1 अव्यय [(एग)+ (अन्न)+(पिंड)] [(एग)-(अन्न)-(पिंड) 2/1] (मुअ) वकृ 1/1 (काल) 2/1 (गम) व 3/1 सक मुअंतो कालं छोड़ता हुआ काल बिताता है (बिताने लगा) गमेह 3. अव्यय अब अह तइओ (तइअ) 1/1 वि तीसरा नरो महीयलं भमन्तो कत्थवि मनुष्य पृथ्वी पर घूमता हुआ किसी ग्राम में पाकगृह में भोजन गामे रंधणघरम्मि भोअणं बनवाकर कराविऊण जिमिउं उवविट्ठो जीमने के लिए (नर) 1/1 (महीयल) 2/1 (भम) वकृ 1/1 अव्यय (गाम) 7/1 [(रंधण)-(घर) 7/1] (भोअण) 2/1 (कर+आव) प्रे. संकृ (जिम) हेकृ (उवविठ्ठ) भूकृ 1/1 अनि (त) 4/1 स (घर)-(सामिणी) 1/1 (परिवेस) व 3/1 सक अव्यय (ती) 6/1 स [(लहु) वि-(पुत्त) 1/1] अव्यय (रोअ) व 3/1 अक बैठा तस्स घरसामिणी परिवेसड़ उसके लिए घर स्वामिनी परोसती है (परोसा) तया तब उसका छोटा पुत्र तीए लहुपुत्तो अईव रोइइ अत्यन्त रोता है (रोया) 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 307 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यय तओ तीए रोसपरव्वसं तब उसके द्वारा क्रोध की वशीभूतता (को) प्राप्त हुई और गया सो वह बालो बालक अग्नि में जलणम्मि खिविओ सो फेंक दिया गया वह (ती) 3/1 स [(रोस)-(पर)-(व्वस) 2/1] (गया) भूकृ 1/1 अनि अव्यय (त) 1/1 स (बाल) 1/1 (जलण) 7/1 (खिव) भूकृ 1/1 (त) 1/1 स (वर) 1/1 (भोयण) 2/1 (कुण) वकृ 1/1 (उट्ठ) हेकृ (लग्ग) भूक 1/1 अनि (ता) 1/1 स (भण) व 3/1 सक [(अवच्च)-(रूव) 1/2] (क) 4/1 स वरो वर भोयणं भोजन कुणंतो उट्टि लग्गो सा करता हुआ उठने के लिए उद्यत हुआ वह (उसने) कहती है (कहा) सन्तानरूप किसी के लिए भणइ अवच्चरूवाणि कस्स अव्यय भी नहीं अप्रिय होते हैं जिनके कए लिए अव्यय अप्पियाणि (अप्पिय) 1/2 वि होंति (हो) व 3/2 अक जेसिं (ज) 6/2 स अव्यय पिउणो (पिउ) 1/2 अणेगदेवयापूयादाणमंतजवाइं [(अणेग)+(देवया)+(पूया)+ (दाण)+ (मंत) + (जव)+ (आई)][(अणेग)-(देवया)(पूया)-(दाण)-(मंत)(जव)-(आइ) 2/1] माता-पिता अनेक देवताओं की पूजा, दान, मंत्र, जप आदि 308 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किं-किं क्या-क्या नहीं करते हैं तुम कुणन्ति तुमं सुहेण भोयणं करेहि (किं) 1/1 स अव्यय (कुण) व 3/2 सक (तुम्ह) 1/1 स (सुह) 3/1 क्रिविअ (भोयण) 2/1 (कर) विधि 2/1 सक अव्यय अव्यय (एअ) 2/1 सवि (पुत्त) 2/1 (जीवअ) भवि 1/1 सक सुखपूर्वक भोजन करो पीछे पच्छा इस पुत्तं जीवइस्सामि तओ पुत्र को जीवित कर दूंगी अव्यय तब (त) 1/1 स वह अव्यय भी भोयणं भोजन विहिऊण करके सिग्छ शीघ्र उट्टिओ उठा जाव ताव तीए (भोयण) 2/1 (विह) संकृ अव्यय (उट्ठ) भूकृ 1/1 अव्यय (ती) 3/1 स [(णिय) वि-(घर)-(मज्झ) 5/1] [(अमय)-(रस)(कुप्प) 2/1 य स्वार्थिक] (आण) संकृ (जलण) 7/1 (छडुक्खे व) 1/1 (कअ) भूकृ 1/1 अनि (बाल) 1/1 (हस) वकृ 1/1 उसी समय उसके द्वारा निज घर के भीतर से अमृतरस के घड़े को णियघरमज्झाओ अमयरसकुप्पयं लाकर अग्नि में आणिऊण जलणम्मि छडुक्खेवो कओ बालो हसंतो छिड़काव किया गया बालक हँसता हुआ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 309 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निग्गओ जणणीए उच्छंगे नीओ 4. तओ सो वरो झायइ अहो अच्छरियं •15 एवंविहजलणजलिओ वि जीविओ जइ एसो अमयरसो मह हवइ ता अहमवि 21. कन्नं जीवावेमि त्ति चिंतिऊण धुत्तत्तेण 310 ( निग्गअ ) भूकृ 1 / 1 अनि ( जणणी) 3 / 1 ( उच्छंग) 7/1 (नी) भूक 1 / 1 अव्यय (त) 1 / 1 सवि (वर) 1 / 1 ( झा - झाअ ) व 3 / 1 सक अव्यय (अच्छरिअ ) 1/1 अव्यय ( एवंविह ( अ ) = इस प्रकार ) - [ ( जलण) - (जल) भूक 1 / 1 ] अव्यय (जीव) भूक 1/1 अव्यय ( एत) 1 / 1 सवि [ ( अमय ) - (रस) 1 / 1] (अम्ह) 4 / 1 स ( हव) व 3 / 1 अक अव्यय [(अहं)+(अवि)] अहं ( अम्ह ) 1 / 1स अवि (अ) (ता) 2 / 1 सवि (कन्ना) 2 / 1 ( जीव + आव) प्रे. व 1/1 सक अव्यय (चिंत) संकृ ( धुत्तत) 3 / 1 निकला माता के द्वारा गोद में लिया गया तब वह वर सोचता है ( सोचा ) कि आश्चर्य कि इस प्रकार अग्नि से जला हुआ भी जिया यदि यह अमृतरस मेरे लिए होता है तो मैं, भी उस कन्या को जिलाऊँगा इस प्रकार सोचकर धूर्तता से प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूडवेसं काऊण रयणी तत्थेव ठिओ अवसरं लहिऊण तं अमयरसकूवयं गिण्हिऊण हत्थिणाउरे आगओ 5. तेण पुण ती जणयादिसमक्खं चिआमज्झे अमयरसो मुक्को सा सुमइकन्ना सालंकारा जीवंती उट्ठिया तया प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ [ ( कूड) - (वेस) 2 / 1] (काऊण) संकृ अनि ( रयणी) 7/1 [ ( तत्थ) + (एव)] तत्थ (क्रिविअ ) एव (अ) (ठिअ) भूक 1 / 1 अनि ( अवसर ) 2 / 1 (लह) संकृ (त) 2 / 1 सवि [ ( अमय) - (रस) - (कूवय ) 2 / 1 ] (गिह) संकृ (हत्थिणाउर) 7/1 (आगअ ) भूकृ 1 / 1 अनि (त) 3 / 1स अव्यय (ती) 6 / 1 स [ ( जणय) + (आदि) + (समक्खं)] [(जणय) - (आदि) - (समक्ख ) 1 / 1 ] [(चिआ ) - (मज्झ ) 7/1] [ ( अमय ) - (रस) 1 / 1 ] (मुक्क) भूकृ 1 / 1 अनि (ता) 1/1 सवि [ ( सुमइ ) - ( कन्ना) 1 / 1] [ ( स ) + ( अलंकारा) (स ) वि ( अलंकारा ) 1 / 1] (जीव) वकृ 1/1 ( उट्ठ) भूक 1 / 1 अव्यय कपटवेश धारण करके रात्रि में वहाँ, ही ठहरा अवसर पाकर उस अमृतरस के घड़े को लेकर हस्तिनापुर आ गया उसके द्वारा फिर उसके पिता आदि के समक्ष चिता के मध्य में अमृतरस छोड़ा गया वह सुमति कन्या अलंकारसहित जीती हुई उठी तब 311 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ती) 3/1 स उसके तीए समं अव्यय साथ एगो एक वरो वर वि जीविओ जिया कम्मवस्सओ कर्म के वश से फिर चउरो चारों वरा वर (एग) 1/1 वि (वर) 1/1 अव्यय (जीव) भूक 1/1 [(कम्म)-(वस्स) 5/1 क्रिविअ] अव्यय (चउ) 1/2 वि अव्यय (वर) 1/2 अव्यय (मिल) भूकृ 1/2 [(कन्ना)+(पाणिग्गहण)+ (अत्थं) + (अन्नोन्न)] [(कन्ना)-(पाणिग्गहण)(अत्थ) 2/1 (अन्नोन्न) अव्यय] (विवाय) 2/1 (कुण) वकृ 1/2 [(बालचन्दराय)-(मंदिर) 7/1] (गय) भूकृ 1/2 अनि (चउ) 3/2 एगओ मिलिआ कन्नापाणिग्गहणत्थमन्नोन्नं एक-एक करके मिल गए कन्या से विवाह करने के लिए आपस में विवायं विवाद कुणंता बालचंदरायमन्दिरे करते हुए बालचन्द राजा के मन्दिर में गया चउहिं चारों के द्वारा अव्यय कही गयी कहिअं राइणो नियनियसरूवं (कह) भूकृ 1/1 (राइ) 4/1 [(निय) वि-(निय) वि-(सरूव) 1/1] (राइ) 3/1 (मंति) 1/2 (भण) भूकृ 1/2 राजा के लिए अपनी-अपनी बात राजा के द्वारा राइणा मंतिणो मंत्री भणिया कहे गये 'साथ' के योग में ततीया विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। 312 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहा अव्यय एयाणं बड़े निश्चय से इनके विवाद को समाप्त करके विवायं भंजिऊण एगो (एअ) 6/2 स (विवाय) 2/1 (भंज) संकृ (एग) 1/1 वि (वर) 1/1 (पमाणीकायव्व) विधिकृ 1/1 अनि (मंति) 1/2 एक वरो वर प्रमाणित किया जाना चाहिए मंत्रियों ने अव्यय भी पमाणीकायव्वो मंतिणो वि सव्वे परोप्परं वियारं कुणंति सब आपस में (सव्व) 1/2 स (परोप्पर) 2/1 क्रिवि (वियार) 2/1 (कुण) व 3/2 सक विचार करते हैं (किया) नहीं अव्यय पुण फिर केणावि किसी के द्वारा, भी विवाओ विवाद भज्जइ जओ आसन्ने अव्यय [(केण)+ (अवि)] केण (क) 3/1 स, अवि (अ) (विवाअ) 1/1 (भज्जइ) व कर्म 3/1 सक अनि अव्यय (आसन्न) 7/1 वि [(रण)-(रंग) 7/1] (मूढ) 7/1 रणरंगे मले सुलझाता है (सुलझा) क्योंकि समीपस्थ युद्ध में कर्त्तव्य की सूझ से हीन व्यक्ति में परामर्श में उसी प्रकार अकाल में मंते तहेव दुभिक्खे जस्स (मंत) 7/1 अव्यय (दुब्भिक्ख) 7/1 (ज) 6/1 स (मुह) 1/1 (जो+इज्ज) व कर्म 3/1 सक जिसका मुँह देखा जाता है जोइज्जइ प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 313 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सो पुरिसो महिले विरलो 6. तया एगेण मंतिणा भणियं जइ मन्नह ता विवायं भज्जेमि तेहिं जंपियं जो रायहंसव्व गुणदोसपरिक्खं काऊण पक्खवायरहिओ वायं भंज तस्स वयणं को न मन्नइ तओ तेण 314 (त) 1/1 सवि ( पुरिस) 1 / 1 (महियल) 7/1 (विरल) 1 / 1 वि अव्यय (एग ) 3 / 1 वि (मंति) 3 / 1 (भण) भूकृ 1 / 1 अव्यय (मन्न) विधि 2 / 2 सक अव्यय ( विवाय) 2 / 1 (भज्ज) व 1 / 1 सक (त) 3/2 स ( जंप ) भूक 1 / 1 (ज) 1 / 1 स [ ( रायहंस) 1 / 1 (व्व ( अ ) = समान ) ] [(गुण) - (दोस) - (परिक्खा) 2 / 1] (कर) संकृ [ ( पक्खवाय) - ( रहिअ ) 1 / 1 वि] (वाय) 2 / 1 (भंज ) व 3 / 1 सक (त) 6 / 1 स ( वयण ) 2 / 1 (क) 1/1 स अव्यय (मन्न) व 3 / 1 सक अव्यय (त) 3 / 1 स वह पुरुष पृथ्वी पर दुर्लभ तब एक मंत्री के द्वारा कहा गया यदि मानो ( मानोगे ) तब विवाद हल करता हूँ (कर दूँगा ) उनके द्वारा कहा गया राजहंस के समान गुण-दोष की परीक्षा करके पक्षपातरहित विवाद को सुलझाता है उसकी बात को कौन नहीं मानता है ( मानेगा) तब उसके द्वारा प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भणियं जेण जीविया सो कहा गया जिसके द्वारा जिलाया गया वह जन्म हेतुत्व के कारण (भण) भूकृ 1/1 (ज) 3/1 स (जीव) प्रे. भूकृ 1/1 (त) 1/1 स [(जम्म)-(हेउ)-(त्तण) 3/1] (पिउ) 1/1 (जाअ) भूकृ 1/1 अनि (ज) 1/1 स [(सह (अ)=साथ)-(जीव) भूकृ 1/1] (त) 1/1 स [(एग)-(जम्म)-(ट्ठाण) 3/1] जम्महेउत्तणेण पिया जाओ जो सहजीविओ पिता हुआ जो साथ जिया वह एगजम्मट्ठाणेण एक जन्म स्थान होने के कारण भाई जो भाया जो अट्ठीणि गंगामज्झम्मि खिविउं अस्थियों को गंगा के मध्य में डालने के लिए गओ गया सो पच्छापुण्णकरणेण (भाउ) 1/1 (ज) 1/1 स (अट्ठि) 2/2 [(गंगा)-(मज्झ) 7/1] (खिव) हेकृ (गअ) भूकृ 1/1 अनि (त) 1/1 स [(पच्छा(अ)= पीछे)-(पुण्ण)(करण) 3/1] [(पुत्त)-(सम) 1/1 वि] (जाअ) भूकृ 1/1 अनि (ज) 3/1 स अव्यय (त) 1/1 स (ठाण) 1/1 (रक्ख) भूकृ 1/1 (त) 1/1 सवि (भत्तु) 1/1 वह पीछे पुण्य करने के कारण पुत्र के समान हुआ जिसके द्वारा पुत्तसमो जाओ जेण पुण . और वह स्थान ठाणं रक्खियं सो रक्षा किया गया वह पति भत्ता प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 315 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं अव्यय मंतिणा विवाए भग्गे इस प्रकार मंत्री द्वारा विवाद नष्ट किये जाने पर चौथे वर के साथ कुरुचन्द नामवाले चउत्थेण (मंति) 3/1 (विवाअ) 7/1 (भग्ग) भूक 7/1 अनि (चउत्थ) 3/1 वि (वर) 3/1 [(कुरुचन्द) + (अभिहाणेण)] [कुरुचन्द)-(अभिहाण) 3/1] (ता) 1/1 स (परिणी) भूकृ 1/1 वरेण कुरुचंदाभिहाणेण वह सा परिणीआ परणी गई 316 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ससुरगेहवासीणं चउजामायराणं कहा 1. कत्थवि गामे नरिंदस्स रज्जसंतिकारगो पुरोहिओ आसि तस्स एगो पुत्तो पंच य ससुरगेहवासीणं चउजामायराणं कहा कन्नगाओ संति तेण चउरो कन्नगाओ विउसमाहणपुत्ताणं परिणाविआओ काई प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ पाठ-12 [(ससुर) - (गेह) - (वासि ) 6 / 2 वि] [ ( उ ) - (जामायर) 6 /2] ( कहा ) 1 / 1 अव्यय ( गाम) 7/1 ( नरिंद) 6/1 [ (रज्ज) - (संति) - (कारग) 1 / 1 वि] (पुरोहिअ ) 1/1 (अस) भू 3 / 1 अक (त) 6 / 1 स (एग ) 1 / 1 वि (पुत्त) 1 / 1 (पंच) 1/2 वि अव्यय ( कन्नगा) 1 / 2 (अस) व 3 / 2 अक (त) 3 / 1 स (चउ) 1/2 वि (कन्नगा) 1/2 [ ( विउस) - (माहण) - ( पुत्त) 6 / 2 ] (परिण + आवि) प्रे. भूक 1/2 अव्यय ससुर के घर में रहनेवाले चार दामादों की कथा किसी ग्राम में राजा के राज्य में शान्ति स्थापित करनेवाला पुरोहित रहता था उसके एक पुत्र पाँच और कन्याएँ हैं (थीं) उसके द्वारा चार कन्याएँ विज्ञ ब्राह्मण पुत्रों के (साथ) विवाह करवा दी गई किसी समय 317 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमीकन्नगाए विवाहमहूसवो पारद्धो विवाहे चउरो जामाउणो समागया पुणे विवाहे जामायरेहिं' विणा सव्वे संबंधिणो नियनियघरे गया जामायरा भोयणलुद्धा गेहे गंतु न इच्छं पुरोहिओ विआरेइ सासूए अईव पिया जामायरा 1. 318 [ ( पंचमी) वि - ( कन्नगा ) 6 / 1 ] [ (विवाह) - (महूसव) 1 / 1] (पार) भूकृ 1 / 1 अनि (विवाह) 7/1 (चउ) 1/2 वि (जामाउ ) 1/2 [(सम) + (आगया)] [ ( सम) अव्यय - (आगय) भूक 1/2 अनि ] (पुण्ण) 7 / 1 वि (faars) 7/1 (जामायर) 3/2 अव्यय (सव्व) 1/2 सवि (संबंधि) 1/2 [ ( निय) वि - ( निय) वि - (घर) 7 / 2] ( गय) भूकृ 1 / 2 अनि ( जामायर) 1 / 2 [ ( भोयण) - (लुद्ध) 1/2] (गेह) 7/1 (तु) हे अनि अव्यय ( इच्छ) व 3 / 2 सक (पुरोहिअ ) 1/1 (विआर) व 3 / 1 सक (सासू) 6/1 अव्यय ( पिय) 1/2 वि (जामायर) 1/2 'बिना' के साथ तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है। पाँचवीं कन्या का विवाह महोत्सव प्रारम्भ हुआ विवाह में चार दामाद साथ-साथ आये पूर्ण होने पर विवाह दामादों के बिना ( अलावा) सब संबंधी अपने-अपने घर में गये दामाद भोजन के लोभी घर में जाने के लिए नहीं इच्छा करते हैं पुरोहित विचार करता है के सासू अत्यन्त प्रिय हैं दामाद प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ཝཿ་ སྠཱ ལྒ पंच छ दिणाई एए चिट्ठतु पच्छा गच्छेज्जा' ते עב जामायरा खज्जरसलुद्धा तओ गच्छिउं न इच्छेज्जा परुप्परं ते चिंतेइरे ससुर-गिहनिवासो सग्गतुल्लो नराणं किल एसा सुत्ती सच्चा एवं चिंतिऊणं 1. 2. प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ अव्यय अव्यय (पंच) 1/2 वि (छ) 1/2 वि (faur) 1/2 (एअ) 1/2 सवि (चिट्ठा) विधि 3 / 2 अक अव्यय ( गच्छ ) विधि 3 / 2 सक (त) 1/2 सवि (जामायर) 1/2 [(खज्ज) - (रस) - (लुद्ध) 1 / 2 वि] अव्यय (गच्छ) हेकृ अव्यय (इच्छ) भू 3 / 2 सक (परुप्पर) 2 / 1 क्रिवि (त) 1/2 स ( चिंत) व 3 / 2 सक [(ससुर)-(गिह)-(निवास) 1 / 1] [(सग्ग) - (तुल्ल) 1/1 वि] (नर) 4/2 अव्यय ( एता ) 1 / 1 सवि (सुत्ती ) 1 / 1 ( सच्चा) 1/1 अव्यय (चिंत) संकृ इसलिए अभी पाँच छः दिन ये ठहरे पीछे चले जायेंगे वे दामाद to भोजन-रस-लोभी बाद में जाने के लिए नहीं इच्छा की आपस में वे विचार करते हैं ससुर के घर में रहना स्वर्ग के समान मनुष्यों के लिए निश्चय ही प्राकृत में 'ज्जा' प्रत्यय किसी भी काल के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। नोट, देखें पृष्ठ संख्या 281 यह सूक्ति सच्ची इस प्रकार विचार करके 319 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक एगाए भित्तीए भीत पर एसा यह सूक्ति लिखी गई लिहिआ एगया एक बार इस एयं सुत्तिं ससुरेण (एगा) 7/1 वि (भित्ति) 7/1 वि (एता) 1/1 सवि (सुत्ती) 1/1 (लिह) भूकृ 1/1 अव्यय (एआ) 2/1 सवि (सुत्ति) 2/1 (ससुर) 3/1 (वाय) संकृ (चिंत) भूकृ 1/1 (एअ) 1/2 सवि (जामायर) 1/2 [(खज्ज)-(रस)-(लुद्ध) 1/2 वि] अव्यय सूक्ति को ससुर के द्वारा पढ़कर विचार किया गया वाइऊण चिंति एए जामायरा खज्जरसलुद्धा कयावि दामाद भोजन-रस-लोभी कभी भी अव्यय नहीं गच्छेज्जा (गच्छ) भवि 3/2 सक जायेंगे तओ अव्यय तब एए बोहियव्वा समझाए जाने चाहिए एवं इस प्रकार चिंतिऊण सोचकर (एअ) 1/2 स (बोह) विधिकृ 1/2 अव्यय (चिंत) संकृ (त) 6/1 सवि [(सिलोग)-(पाय) 6/1] (हिट्ठि) 7/1 [(पाय)-(त्तिअ) 1/1] (लिह) भूकृ 1/1 तस्स सिलोगपायस्स हिटुंमि पायत्तिगं लिहिअं उस श्लोक के चरण के नीचे तीन चरण लिखे गये जइ अव्यय यदि वसई (वस) व 3/1 अक (विवेगि) 1/1 वि रहता है विवेकी विवेगी 320 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच छव्वा दिणाई दहिघयगुडलुद्धा मासमेगं मास, (पंच) 1/2 वि पाँच (छ) 1/2 वि छः (दिण) 1/2 दिन [(दहि)-(घय)-(गुड)-(लुद्ध) 1/2 वि] दही, घी एवं गुड़ का लोभी [(मासं)+ (एग)] मासं (मास) 2/1 एग (एग) 2/1 वि (वस) व 3/1 अक रहता है (त) 1/1 सवि वह (हव) व 3/1 अक होता है [(खर)-(तुल्ल) 1/1 वि] गधे के समान (माणव) 1/1 मनुष्य (माणहीण) 1/1 वि मानहीन एक वसेज्जा हवा खरतुल्लो माणवो माणहीणो तेहिं जामायरेहिं पायत्तिगं वाइअं पि खज्जरसलुद्धत्तणेण (त) 3/2 सवि (जामायर) 3/2 [(पाय)-(त्तिग) 1/1 वि] (वाय-वाअ) भूकृ 1/1 अव्यय [(खज्ज)-(रस)-(लुद्धत्तण) 3/1 वि] उन दामादों के द्वारा तीनों पाद पढ़े गये भी भोजनरस के लालची होने के कारण तओ तब गंतुं जाने के लिए नेच्छंति नहीं. इच्छा करते हैं ससुरो अव्यय (गंतुं) हेकृ अनि [(न) + (इच्छंति)] न अव्यय इच्छंति (इच्छ) व 3/2 सक (ससुर) 1/1 अव्यय (चिंत) व 3/1 सक अव्यय (एअ) 1/2 स ससुर भी चिंतेइ विचार करता है कैसे कह एए प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 321 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीसारिअव्वा साउभोयणरया निकाले जाने चाहिए स्वादिष्ट भोजन में लीन एए खरसमाणा गधे के समान मानहीन माणहीणा संति तेण जुत्तीए निक्कासणिज्जा पुरोहिओ नियं भज्जं इसलिए युक्तिपूर्वक निकाले जाने चाहिए पुरोहित अपनी पत्नी को पुच्छड़ एएसिं जामाऊणं भोयणाय (नीसार) विधिकृ 1/2 [(साउ)-(भोयण)-(रय) 1/2 वि] (एअ) 1/2 स [(खर)-(समाण) 1/2 वि] (माणहीण) 1/2 वि (अस) व 3/2 अक अव्यय (जुत्ति) 3/1 क्रिवि (निक्कस) प्रे विधिकृ 1/2 (पुरोहिअ) 1/1 अव्यय (भज्जा ) 2/1 (पुच्छ) व 3/1 सक (एअ) 4/2 सवि (जामाउ) 4/2 (भोयण) 4/1 (किं) 1/1 सवि (दा) व 2/1 सक (ता) 1/1 स (कह) व 3/1 सक [(अइ)-(प्पिय) वि-(जामायर) 4/2] [(ति) वि-(काल) 2/1] [(दहि)+(घय)-(गुड)+ (मीसिअं)+(अन्न)] [(दहि)-(घय)-(गुड)-(मीसिअ) वि(अन्न) 2/1 वि] (पक्कन्न) 2/1 पूछता है इन दामादों को भोजन के लिए किं क्या देसि सा कहेइ अइप्पियजामायराणं तिकालं दहि-घय-गुडमीसिअमन्नं देती हो उसने (वह) कहती है अति प्रिय दामादों के लिए तीन बार दहि, घी, गुड़ से मिश्रित अन्न पक्कन्नं पकवान च अव्यय और अव्यय सएव देमि सदैव देती हूँ (दा) व 1/1 सक 322 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरोहिओ भज्ज कहेइ अज्जयणाओ आरब्भ तुमए (पुरोहिअ) 1/1 (भज्जा ) 2/1 (कह) व 3/1 सक (अज्जण) क्रिविअ 5/1 (आरब्भ) संकृ अनि (तुम्ह) 3/1 स (जामायर) 4/2 [(वज्ज)-(कुड) भूक 1/1 अनि] (थूल) 1/1 वि (रोट्टग) 1/1 [(घय)-(जुत्त) 1/1 वि] (दा) विधिकृ 1/1 पुरोहित पत्नी को कहता है आज से शुरूआत करके तुम्हारे द्वारा दामादों के लिए कठोर की हुई स्थूल (मोटी) रोटी घी से युक्त दी जानी चाहिए जामायराणं वज्जकुडो थूलो रोडगो घयजुत्तो दायव्वो 3. पियस्स आणा पति की आज्ञा नहीं, टाली जानी चाहिए अणइक्कमणी त्ति इस प्रकार चिंतिऊण विचार कर सा भोयणकाले वह भोजन के समय (पिअ) 6/1 (आणा) 1/1 [(अण)+ (अइक्कमणीय)] अण (अ) अइक्कमणीअ (अइक्कम) विधिकृ 1/1 अव्यय (चिंत) संकृ (ता) 1/1 स [(भोयण)-(काल) 7/1] (त) 4/2 स (थूल) 2/1 वि (रोट्टग) 2/1 [(घय)-(जुत्त) 2/1 वि (दा) व 3/1 सक (त) 2/1 स (दट्ठणं) संकृ अनि (पढम) 1/1 (मणीराम) 1/1 उनके लिए ताणं थूलं रोट्टगं घयजुत्तं स्थूल रोटी घी लगी हुई देती है (दी) उसको देखकर दट्ठणं पढमो मणीरामो प्रथम मणीराम ! | प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 323 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जामाया मित्ताणं' कहे अहुणा एत्थ वसणं न जुत्तं नियघरं मि अओ साउभोयणं अत्थि तओ इओ गमणं चिय सेयं ससुरस्स पच्चूसे कहिऊण गमिस्सामि ते कहिंति भो मित्त विणा मुल्लं भोयणं 1. 324 (जामाउ ) 1 / 1 ( मित्त) 4/2 ( कह) व 3 / 1 सक अव्यय अव्यय ( वसण) 1 / 1 अव्यय ( जुत्त) 1 / 1 वि [ ( निय) वि - (घर) 7/1] अव्यय [ ( साउ) वि - (भोयण) 1 / 1 ] (अस) व 3 / 1 अक अव्यय अव्यय (गमण ) 1 / 1 अव्यय (सेअ) 1/1 (ससुर) 4/1 ( पच्चूस ) 7/1 (कह) संकृ (अहं) 1 / 1 स (गम) भवि 1 / 1 सक (त) 1/2 स (कह) व 3 / 2 सक ( भो मित्त) 8 / 1 अव्यय ( मुल्ल) 2 / 1 ( भोयण) 1 / 1 'कह' क्रिया के साथ चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग होता है। दामाद ने मित्रों को कहता है ( कहा ) अब यहाँ रहना नहीं ठीक (है) निजघर में इसकी अपेक्षा स्वादिष्ट भोजन sc इसलिए यहाँ से गमन ही उत्तम ससुर को प्रभात में कहकर मैं जाऊँगा वे (उन्होंने) कहते हैं ( कहा ) हे मित्र! बिना मूल्य भोजन प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यय कहाँ कत्थ सिया एयं वज्जकुडरोदृगं यह कठोर की हुई रोटी अव्यय (एअ) 1/1 सवि [(वज्ज)-(कुड) भूकृ अनि(रोट्टग) 1/1] (साउ) 1/1 वि (गण) संकृ (भोत्तव्वा) विधिकृ 1/1 अनि साउं स्वादवाली गणिऊण भोत्तव्वं गिनकर खाई जानी चाहिए क्योंकि जओ अव्यय परन्नं दूसरे की रोटी दुर्लभ दुल्लहं लोगे लोक में इअ यह कहावत तुम्हारे द्वारा क्या नहीं सुनी गई सुआ तव (तुव) [(पर) वि-(अन्न)] [(पर) वि-(अन्न) 1/1] (दुल्लह) 1/1 वि (लोग) 7/1 अव्यय (सुइ) 1/1 (तुम्ह) 3/1 स (कि) 1/1 स अव्यय (सुअ) भूकृ 1/1 अनि (तुम्ह) 6/1 स (इच्छा ) 1/1 अव्यय अव्यय (गच्छ) विधि 2/1 सक (अम्ह) 4/2 स (ससुर) 1/1 (कह) भवि 3/1 सक अव्यय (गम) भवि 1/2 सक तुम्हारी इच्छा इच्छा सिया है तया गच्छसु अम्हाणं ससुरो कहिही तब जाओ हमारे लिए ससुर कहेंगे तया तो गमिस्सामो जायेंगे 1. कह-कहिहिइ-संधि-कहिही (अपवाद) प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 325 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं मित्ताणं वयणं सोच्चा पभाए ससुरस्स अग्गे गच्छित्ता सिक्खं आणं च मग्गेइ ससुरो वि तं सिक्खं दाऊण पुणावि आगच्छेज्जा एवं कहिऊण किंचि अणुसरिऊण अणुण्णं दे एवं पढमो जामायरो to 326 अव्यय ( मित्त) 6/2 ( वयण) 2 / 1 ( सोच्चा) संकृ अनि ( पभाअ ) 7/1 (ससुर) 6 / 1 अव्यय (गच्छ) संकृ (FHONET) 2/1 (आणा) 2 / 1 अव्यय ( मग्ग) व 3 / 1 सक (ससुर) 1 / 1 अव्यय (त) 2 / 1 स (सिक्खा) 2/1 (दा) संकृ [ ( पुण) + (अविं)] पुण (अ) अवि (अ) ( आगच्छ ) विधि 2 / 1 अक अव्यय (कह) संकृ अव्यय ( अणुसर) संकृ (अणुण्ण) 2 / 1 (दा) व 3/1 सक अव्यय ( पढम) 1/1 (जामायर) 1 / 1 इस प्रकार मित्रों के वचन सुनकर प्रभात में ससुर के आगे जाकर सीख आज्ञा और माँगता है (माँगी) ससुर भी उसको सीख देकर फिर भी आना इस प्रकार कहकर कुछ पीछे जाकर आज्ञा देता है (दी) इस प्रकार प्रथम दामाद प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्जकुडेण मणीरामो निस्सरिओ [(वज्ज)-(कुड) 3/1 वि] (मणीराम) 1/1 (निस्सर) भूकृ 1/1 कठोर की हुई रोटी से मणीराम निकाल दिया गया 4. पुणरवि अव्यय फिर भी पत्नी को कहता है भज्जं कहेइ अहुणा अज्जयणाओ अब जामायराणं तिलतेल्लेण आज से दामादों के लिए तिल के तेल से जुत्तं युक्त रोट्टगं दिज्जा रोटी दी जानी चाहिए सा वह भोयणसमए जामायराणं तिलतेल्लजुत्तं रोट्टगं (भज्जा ) 2/1 (कह) व 3/1 सक अव्यय (अज्जयण) क्रिविअ 5/1 (जामायर) 4/2 [(तिल)-(तेल्ल) 3/1] (जुत्त) 1/1 वि (रोट्टग) 1/1 (दिज्जा) कर्म अनि 1/1 (ता) 1/1 स [(भोयण)-(समय) 7/1] (जामायर) 4/2 [(तिल)-(तेल्ल)-(जुत्त) 2/1 वि] (रोट्टग) 2/1 (दा) व 3/1 सक (त) 2/1 स (दह्ण) संकृ अनि (माहव) 1/1 अव्यय (जामायर) 1/1 (चिंत) व 3/1 सक (घर) 7/1 अव्यय (एअ) 2/1 स (लब्भइ) व कर्म 3/1 सक अनि भोजन के समय दामादों के लिए तिल के तेल से युक्त रोटी देती है उसको देखकर दहण माहवो माधव नाम नामक दामाद जामायरो चिंतेइ घरंमि विचार करता है घर में भी यह एयं लब्भइ प्राप्त किया जाता है प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 327 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तओ अव्यय इसलिए यहाँ से अव्यय गमन इओ गमणं सुहं मित्ताणं सुखकारी मित्रों के लिए पि भी कहेइ कहता है कल्ले कल गमिस्सं जाऊँगा क्योंकि भोजन में जओ भोयणे तेल्लं समागयं तेल दिया गया है तया तब (गमण) 1/1 (सुह) 1/1 वि (मित्त) 4/2 अव्यय (कह) व 3/1 सक (अम्ह) 1/1 स (कल्ल) 7/1 (गम) भवि 1/1 सक अव्यय (भोयण) 7/1 (तेल्ल) 1/1 (समागय) भूकृ 1/1 अनि अव्यय (त) 1/2 स (मित्त) 1/2 (कह) व 3/2 सक (अम्ह+केर) 6/2 (सासू) 1/1 (विउसी) 1/1 (अस) व 3/1 अक अव्यय (सीयल) 1/1 [(तिल)-(तेल्ल) 1/1] अव्यय [(उयर)+(अग्गि)+ (दीवणेण)] [(उयर)-(अग्गि)-(दीवण) 3/1] (सोहण) 1/1 वि मित्र मित्ता कहिंति अम्हकेरा कहते हैं (कहा) हमारी सासू विदुषी सासू विउसी अस्थि तेण क्योंकि शीतल तिल का तेल सीयलं तिलतेल्लं चिअ उयरग्गिदीवणेण उदर की अग्नि का उद्दीपक होने के कारण सोहणं सुन्दर 1. शौरसेनी रूप है। 328 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यय नहीं घयं (घय) 2/1 घी तेण तेल्लं अव्यय (तेल्ल) 2/1 (दा) व 3/1 सक इसलिए तेल देती है हम सब देइ अम्हे (अम्ह) 1/2 स अव्यय ही अत्थ अव्यय यहाँ ठहरेंगे ठास्सामो (ठा) भवि 1/2 अक तया अव्यय तब माहवो (माहव) 1/1 माधव नाम अव्यय नामक जामायरो दामाद ससुरपासे ससुर के पास में (जामायर) 1/1 [(ससुर)-(पास) 7/1] (गच्चा) संकृ अनि (सिक्खा) 2/1 (अणुण्णा ) 2/1 गच्चा सिक्खं जाकर सीख अणुण्णं अव्यय अनुज्ञा (आज्ञा) और/व माँगता है (मग्ण) व 3/1 सक अव्यय तब मग्गेइ तया ससुरो गच्छ (ससुर) 1/1 (गच्छ) विधि 2/1 सक (गच्छ) विधि 2/1 सक ससुर ने जाओ जाओ गच्छ त्ति अव्यय इस प्रकार अणुण्णं (अणुण्णा ) 2/1 (दा) व 3/1 सक देड़ आज्ञा देता है (दी) नहीं सिक्खं सीख अव्यय (सिक्खा ) 2/1 अव्यय [(तिल)-(तेल्ल) 3/1] एवं तिलतेल्लेण इस प्रकार तिल के तेल के कारण प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 329 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधव दूसरा माहवो बीओ वि जामायरो गओ (माहव) 1/1 (बीअ) 1/1 वि अव्यय (जामायर) 1/1 (गअ) भूक 1/1 अनि [(तइअ) वि-(चउत्थ) वि(जामायर) 1/2] दामाद गया तइअचउत्थजामायरा अव्यय तीसरे, चौथे दामाद नहीं जाते हैं (गये) किस प्रकार गच्छति (गच्छ) व 3/2 सक कहं अव्यय (एअ) 1/2 स (निक्कस) प्रे विधिकृ 1/2 निक्कासणिज्जा इअ चिंतित्ता लद्धवाओ निकाले जाने चाहिए इस प्रकार विचार करके प्राप्त किया हुआ, उपाय ससुरो भज्जं पुच्छेइ अव्यय (चिंत) संकृ [(लद्ध)+(उवाओ)] (लद्ध) भूकृ 1/1 अनि (उवाअ) 1/1 (ससुर) 1/1 (भज्जा ) 2/1 (पुच्छ) व 3/1 सक (एअ) 1/2 सवि (जामाउ) 1/2 (रत्ति) 7/1 (सयण) 4/1 अव्यय (आगच्छ) व 3/2 सक ससुर पत्नी को पूछता है एए दामाद जामाउणो रत्तीए रात्रि में सयणाय सोने के लिए कया कब आगच्छन्ति आते हैं तया अव्यय तब पिया (पिया) 1/1 (कह) व 3/1 सक कहेइ पत्नी (ने) कहती है (कहा) कभी कयाइ अव्यय 330 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्तीए रात्रि में पहरे प्रहर (रत्ति) 7/1 (पहर) 7/1 (गअ) भूकृ 7/1 अनि (आगच्छ) व 3/2 सक गये गए आगच्छेज्जा आते हैं अव्यय कभी दो-तीन प्रहर कया दुतिपहरे गए आगच्छति [(दु)-(ति)-(पहर) 7/1] (गअ) भूकृ 7/1 अनि (आगच्छ) व 3/2 सक गये आते हैं 5. पुरोहिओ कहेइ अज्ज रत्तीए दारं पुरोहित कहता है (कहा) आज रात्रि में द्वार नहीं उग्याडियव्वं खोला जाना चाहिए अहं जागरिस्सं जागूंगा (पुरोहिअ) 1/1 (कह) व 3/1 सक अव्यय (रत्ति) 7/1 (दार) 1/1 अव्यय (उग्घाड) विधिकृ 1/1 (अम्ह) 1/1 स (जागर) भवि 1/1 अक (त) 1/2 सवि (दो) 1/2 वि (जामायर) 1/2 (संझा) 7/1 (गाम) 7/1 (विलस) हेकृ (गय) भूकृ 1/2 अनि [(विविह) वि-(कीला) 2/2] (कुण) वकृ 1/2 (नट्ट) 2/2 अव्यय दोणि दोनों जामायरा संझाए गामे विलसिउं दामाद सायंकाल गाँव में मनोरंजन के लिए गये गया विविहकीलाओ विविध क्रीडाएँ कुणंता नट्टाई करते हुए नाटक और देखते हुए पासंता (पास) वकृ 1/2 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 331 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मज्झरत्तीए गिद्दारे समागया पिहिअं दारं दहूण दारुग्घाडणाए उच्चसरेण अक्कोसंति दारं उघाडे त्ति तया दारसमीवे सयणत्थे' पुरोहिओ जागरंतो कहे मज्झरत्तिं जाव कत्थं तुम्हे थिआ अहुणा न उघाडिस्सं 332 [ ( मज्झ ) - ( रत्ति) 7 / 1 ] [(गिह)-(द्दार) 7/1] ( समागय) भूक 1/2 अनि (पिहिअ) भूक 2 / 1 अनि (दार) 2/1 (दहूण) संकृ अनि [(दार) + (उग्घाडणाए ) ] [(दार) - (उग्घाडणा) 4 / 1] [ (उच्च) वि- (सर) 3 / 1] - (अक्कोस ) व 3 / 2 सक (दार) 2/1 ( उघाड ) विधि 2 / 1 सक अव्यय अव्यय [(दार) - (समीव) 7 / 1] [ ( सयण) - (अत्थे) 7 / 1 क्रिवि अनि प्रयोग ] (पुरोहिअ) 1/1 (जागर) वकृ 1 / 1 (कह) व 3 / 1 सक [ ( मज्झ ) - ( रत्ति) 2 / 1 ] अव्यय अव्यय (तुम्ह) 1/2 स (थिअ) भूकृ 1 / 2 अनि अव्यय अव्यय ( उघाड ) भवि 1 / 1 सक मध्यरात्रि में घर के द्वार पर साथ-साथ आये ढका हुआ द्वार को देखकर द्वार खोलने के लिए उच्च स्वर से पुकारते हैं (पुकारा) द्वार खोलो वा भावार्थ द्योतक तब द्वार के समीप सोने के प्रयोजन को (रखकर ) पुरोहित (ने) जागते हुए कहता है (कहा ) मध्यरात्रि को भी कहाँ 1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135) तुम ठहरे अब नहीं खोलूँगा प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहाँ द्वार खुला हुआ वहाँ जाओ इस प्रकार कहकर मौन से हुआ/बैठा तब दोनों समीप में स्थित जत्थ अव्यय उग्याडिअद्दारं [(उग्घाड) भूकृ-(दार) 1/1] अस्थि (अस) व 3/1 अक तत्थ क्रिविअ गच्छेह (गच्छ) विधि 2/2 सक एवं अव्यय कहिऊण (कह) संकृ मोणेण (मोण) 3/1 थिओ (थिअ) भूकृ 1/1 अनि तया अव्यय (त) 1/2 स दुण्णि (दु) 1/2 समीवत्थिआए [(समीव)+(अत्थियाए)] [(समीव)-(अत्थिया) 7/1 वि तुरंगसालाए [(तुरंग)-(साला) 7/1] गया (गय) भूकृ 1/2 अनि तत्थ क्रिविअ आत्थरणाभावे [(आत्थरण)+ (अभावे)] [(अत्थरण-आत्थरण)-(अभाव) 7/1] अईवसीयबाहिया' [(अईव)-(सीअ) (वाहिअ(य)) 5/1] तुरंगमपिट्ठच्छाइआवरणवत्थं [(तुरंगम)+ (पिट्ठ)+ (अच्छाइ)+ (आवरण)+ (वत्थं)] [(तुरंगम)-(पिट्ठ)-(अच्छाइ) वि (आवरण)-(वत्थ) 2/1] गहिऊण (गह) संकृ भूमीए (भूमि) 7/1 सुत्ता (सुत्त) भूकृ 1/2 अनि तया अव्यय विजयरामेण (विजयराम) 3/1 घुड़साल में गये वहाँ बिस्तर के अभाव में अत्यन्त ठण्ड से रोगी होने के कारण घोड़े की पीठ पर ढकनेवाले आवरण वस्त्र को ग्रहण करके भूमि पर सोये तब विजयराम 1. कभी-कभी कारण अर्थ में पंचमी विभक्ति का प्रयोग भी पाया जाता है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 333 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जामाउणा दामाद के द्वारा विचारा गया चिंतिअं एत्थ सावमाणं ठाउं (जामाउ) 3/1 (चिंत) भूकृ 1/1 अव्यय (सावमाण) 2/1 क्रिवि (ठा) हेकृ अव्यय (उइअ) 1/1 वि यहाँ अपमान सहित (पूर्वक) ठहरने के लिए नहीं उइअं उचित तओ अव्यय तब मित्तं यह सो (त) 1/1 स वह (उसने) (मित्त) 2/1 मित्र को कहेइ (कह) व 3/1 सक कहता है (कहा) हे मित्त (मित्त) 8/1 हे मित्र! अम्हं (अम्ह) 6/2 स हमारी सुहसज्जा [(सुह)-(सज्जा) 1/1] सुख शय्या का (का) 1/1 स क्या इम (इम) 1/1 स भूलोट्टणं [(भू)-(लोट्टण) 1/1] जमीन पर लोटना च अव्यय और कत्थ अव्यय कैसे अओ अव्यय अतः अव्यय यहाँ से गमणं (गमण) 1/1 गमन चिअ अव्यय (वर) 1/1 वि श्रेष्ठ (त) 1/1 स वह (उस) मित्तो (मित्त) 1/1 मित्र (मित्र ने) बोल्लेइ (बोल्ल) व 3/1 सक बोलता है (बोला) एआरिसदुहे [(एआरिस) वि-(दुह) 7/1] | इस जैसे दुःख में 1. कभी-कभी संज्ञा शब्द की द्वितीया विभक्ति का एकवचन रूप भी क्रिया विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है। संस्कृत व्याकरण, डॉ. प्रीति प्रभा गोयल। इओ ही 334 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी परन्नं पर अन्न अव्यय [(पर)+(अन्न)] [(पर) वि-(अन्न) 1/1] अव्यय कत्थ कहाँ अहं (अम्ह) 1/1 स अव्यय तु. एत्थ टाहिस्सं यहाँ ठहरूँगा तुमं तुम गंतुमिच्छसि अव्यय (ठा) भवि 1/1 अक (तुम्ह) 1/1 स [(गंतुं) + (इच्छसि)] (गंतु) हेकृ अनि इच्छसि (इच्छ) व 2/1 सक अव्यय जाने के लिए, इच्छा करते हो यदि तया गच्छसु जाओ तओ और वह (उसने) प्रभात में पुरोहित के समीप पच्चूसे पुरोहियसमीवे गच्चा सिक्खं अणुण्णं जाकर अव्यय (गच्छ) विधि 2/1 सक अव्यय (त) 1/1 स (पच्चूस) 7/1 [(पुरोहिय)-(समीव) 7/1] (गच्चा) संकृ अनि (सिक्खा) 2/1 (अणुण्णा) 2/1 अव्यय (मग्ग) भूका 3/1 सक अव्यय (पुरोहिअ) 1/1 अव्यय सीख अनुज्ञा तब मग्गी माँगी तया पुरोहिओ तब पुरोहित ने अच्छा अव्यय इस प्रकार कहता है (कहा) कहेइ (कह) व 3/1 सक अव्यय इस प्रकार प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 335 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सो विजयरामो भूसज्जाए विजयरामो वि निग्गओ 6. अहुणा केवलं केसवो जामायरो तत्थ थिओ संतो गंतुं नेच्छइ पुरोहिओ वि केसवजामाउण निक्कासणत्थं jal. विआरेइ एगया नियपुत्तस्स कण्णे किंचि कहिऊण जया 336 (त) 1 / 1 स (विजयराम ) 1/1 [ (भू) - (सज्जा ) 3 / 1] (विजयराम) 1/1 अव्यय ( निग्गअ ) भूक 1 / 1 अनि अव्यय अव्यय (केसव ) 1/1 (जामायर) 1/1 अव्यय (थिअ) भूक 1 / 1 अनि (संत) 1 / 1 वि (गंतुं) हे अ [ (न) + ( इच्छइ ) ] न (अ) ( इच्छ) व 3 / 1 सक (पुरोहिअ ) 1/1 अव्यय [ ( केसव ) - (जामाउ ) 2 / 1] (निक्कासणत्थं) क्रिविअ ( जुत्ति) 2 / 1 ( विआर) व 3 / 1 सक अव्यय [(f) fa-(ya) 6/1] (कण्ण) 7/1 अव्यय अव्यय (कह) संकृ अव्यय वह विजयराम भूशय्या विजयराम भी निकाला गया अब केवल केशव दामाद वहाँ ठहरा रहा जाने के लिए नहीं, इच्छा करता है (की) पुरोहित से भी केशव दामाद को निकालने के लिए युक्ति विचारता है एक बार निज कान में कुछ भी पुत्र के कहकर जब प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केसवजामायरो भोयणत्थं उवविट्ठो पुरोहिअस्स य पुत्तो समीवे ठिओ वट्टइ तया पुरोहिओ समागओ समाणो पुत्ते' पुच्छइ वच्छ एत्थ मए रूप्पगं मुत्तं 4. च केण गहिअं सो कहे अहं म 1. प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ [ ( केसव ) - (जामायर) 1 / 1] (भोयणत्थं) क्रिविअ ( उवविट्ठ) भूकृ 1 / 1 अनि (पुरोहिअ ) 6/1 अव्यय (पुत्त) 1/1 (समीव) 7 / 1 वि (ठिअ ) भूक 1 / 1 अनि (वट्ट) व 3 / 1 सक अव्यय (पुरोहिअ ) 1/1 ( समागअ ) भूकृ 1 / 1 अनि ( समाण) 1 / 1 वि (पुत्त) 7/1 (पुच्छ) व 3 / 1 सक (वच्छ) 8 / 1 अव्यय ( अम्ह ) 3 / 1 स ( रुप्पग ) 1 / 1 (मुत्त) भूक 1 / 1 अनि (त) 1 / 1 स अव्यय (क) 3 / 1 स (गह) भूकृ 1 / 1 (त) 1 / 1 स ( कह) व 3 / 1 सक (अम्ह) 1 / 1 स अव्यय केशव दामाद भोजन के लिए बैठा पुरोहित का भी पुत्र समीप बैठा रहा तब पुरोहित आया मानसहित पुत्र को पूछता है हे पुत्र ! यहाँ मेरे द्वारा रुपया छोड़ा गया है कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। वह और किसके द्वारा लिया गया है। वह (उसने) कहता है ( कहा ) मैं नहीं 337 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाणामि पुरोहिओ बोल्लेइ जानता हूँ पुरोहित कहता है तुम्हारे द्वारा तुमए च्चिय गहि हे असच्चवाइ पाव धिट्ठ देहि लिया गया है हे असत्यवादी! हे पापी! हे धीठ! मम उसको अन्नहा तुम अन्यथा तुमको मारूँगा मारइस्सं (जाण) व 1/1 सक (पुरोहिअ) 1/1 (बोल्ल) व 3/1 सक (तुम्ह) 3/1 स अव्यय (गह) भूकृ 1/1 (हे असच्चवाइ) 8/1 (पाव) 8/1 (धिट्ठ) 8/1 (दा) विधि 2/1 सक (अम्ह) 2/1 स (त) 2/1 स अव्यय (तुम्ह) 2/1 स (मार) भवि 1/1 सक (अम्ह) 1/1 स अव्यय (कह) संकृ (त) 1/1 स (उवाणह) 2/1 (गह) संकृ (मार) हेकृ (धाव) भूकृ 1/1 (पुत्त) 1/1 अव्यय (मुट्ठि) 2/1 (बंध) संकृ (पिउ) 6/1 (सम्मुह) 1/1 (गअ) भूकृ 1/1 अनि इस प्रकार कहिऊण कहकर सो वह उवाणहं गहिऊण मारिलं धाविओ जूता लेकर मारने के लिए दौडा पुत्तो To मुट्ठी को बाँधकर मुट्टि बंधिऊण पिउस्स सम्मुहं गओ पिता के सम्मुख गया 338 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोण्णि जुज्झमाणे दह्रण केसवो दोनों वे (उन) लड़ते हुए देखकर केशव उनके मध्य में ताणं मज्झे गंतूण जाकर मा मत जुज्झह लड़ो इस प्रकार कहिऊण कहकर ठिओ खड़ा रहा तया तब (दो) 1/2 (त) 1/2 स (जुज्झ) वकृ 1/2 (द₹ण) संकृ अनि (केसव) 1/1 (त) 6/2 स (मज्झ ) 7/1 (गंतूण) संकृ अनि अव्यय (जुज्झ) विधि 2/2 अक अव्यय (कह) संकृ (ठिअ) भूकृ 1/1 अनि अव्यय (त) 1/1 स (पुरोहिअ) 1/1 (हे जामायर) 8/1 (अवसर) विधि 2/1 अक (अवसर) विधि 2/1 अक (कह) संकृ (त) 2/1 स (उवाहण) 3/1 (पहर) व 3/1 सक (पुत्त) 1/1 अव्यय (केसव) 8/1 [(दूरी)-(भव) विधि 2/1 अक] [(दूरी)-(भव) विधि 2/1 अक] अव्यय (कह) संकृ वह पुरोहित हे दामाद! पुरोहिओ हे जामायर अवसरसु अवसरसु कहिऊण हटो हटो कहकर उसको जूते से पीटता है (पीटा) उवाहणेण पहरेइ पुत्तो वि. केसव दूरीभव दूरीभव हे केशव! दूर हो दूर हो इस प्रकार कहिऊण कहकर प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 339 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुट्ठीए मुट्ठी से उस केसवं पहरेइ (मुट्ठी) 3/1 (त) 2/1 सवि (केसव) 2/1 (पहर) व 3/1 सक अव्यय [(पिउ)-(पुत्त) 1/2] (केसव) 2/1 (ताड) व 3/2 सक एवं केशव को पीटता है (पीटा) इस प्रकार पिता-पुत्र केशव को ताडते हैं (ताड़ा) पिउपुत्ता केसवं ताडिंति तओ अव्यय तब सो तेहिं धक्कामुक्केण ताडिज्जमाणो सिग्धं भग्गो वह उनके द्वारा धक्का-मुक्के से ताड़ा जाते हुए शीघ्र (त) 1/1 स (त) 3/2 स [(धक्का)-(मुक्क) 3/1] (ताड) कर्म वकृ 1/1 अव्यय (भग्ग) भूक 1/1 अनि अव्यय [(धक्का)-(मुक्क) 3/1] (केसव) 1/1 (त) 1/1 स [(अ)-(कह) संकृ] (गअ) भूकृ 1/1 अनि एवं भाग गया इस प्रकार धक्का-मुक्के से केशव धक्कामुक्केण केसवो सो वह बिना कहकर अकहिऊण गओ गया 7. उस दिन तद्दिणे पुरोहिओ निवसहाए विलंबेण पुरोहित राजसभा में देर से (तद्दिण) 7/1 (पुरोहिअ) 1/1 [(निव)-(सहा) 1/1] (विलंब) 3/1 (गअ) भूकृ 1/1 अनि (नरिंद) 1/1 (त) 2/1 स (पुच्छ) व 3/1 सक गओ गया नरिंदो राजा उसको पूछता है पुच्छइ 340 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किं विलंबेण तुमं आगओ सि सो कहे विवाहमहूस चउरो जामायरा समागआ ते to उ भोयणरसलुद्धा चिरं ठिआवि गंतुं न इच्छंत तओ जुत्तीए सव्वे निक्कासिआ ते एवं कुडे मणीरामो तिलतेल्लेण माहवो भूसज्जाए प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ अव्यय (facia) 3/1 (तुम्ह) 1 / 1 स (आगअ ) भूकृ 1 / 1 अनि (अस) व 2 / 1 अक (त) 1 / 1 स ( कह) व 3 / 1 सक [ (विवाह) - (महूसव) 7 / 1 ] (उ) 1/2 वि (जामायर) 1/2 ( समागय) भूक 1 / 2 अनि (त) 1/2 स अव्यय [ ( भोयण) - (रस) - (लुद्ध) 1 / 2 वि] अव्यय [(ठिअ) भूक 1/2 - (वि) अव्यय ] (गंतुं) हे अनि अव्यय ( इच्छ) व 3 / 2 सक अव्यय (जुत्ति) 3/1 क्रिविअ (सव्व) 1/2 स (निक्कास ) भूकृ 1 / 2 (त) 1/2 स अव्यय [ ( वज्ज) - (कुड) 3 / 1] ( मणीराम ) 1 / 1 [(तिल) - (तेल्ल) 3 / 1] ( माहव) 1 / 1 [(भू) - (सज्जा) 3 / 1] क्यों देर से तुम आए हो वह (उसने) कहता है ( कहा ) विवाह महोत्सव में चार दामाद आये थे वे वाक्यालंकार भोजन रस के लोभी चिरकाल तक ठहरे, और जाने के लिए नहीं इच्छा करते हैं तब युक्तिपूर्वक सभी निकाले गए इस प्रकार कठोर की हुई रोटी से मणीराम तिल के तेल से माधव भू शय्या से 341 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयरामो धक्कामुक्केण केसवो त्ति सव्वो वृत्तंतो नरिंदस्स अग्गे कहिओ नरिंदो वि तस्स बुद्धीए अईव तुट्ठो उवएसो जामायरचउक्कस्स सुणिऊण पराभवं ससुरस्स गिहावासे सम्माणं जाव संवसे' 1. 342 (विजयराम ) 1/1 [(धक्का) - (मुक्क) 3 / 1] ( केसव ) 1 / 1 अव्यय (सव्व) 1 / 1 स ( वुत्तंत) 1 / 1 ( नरिंद) 6/1 ( अग्ग) 7/1 ( कह ) भूकृ 1 / 1 ( नरिंद) 1 / 1 अव्यय (त) 6 / 1 स (बुद्धि) 3 / 1 अव्यय (तुट्ठ) भूकृ 1 / 1 अनि ( उवएस ) 1 / 1 [ ( जामायर) - ( चउक्क ) 6 / 1 वि] (सुण) संकृ ( पराभव ) 2/1 (ससुर) 6/1 [(गिह) + (आवास) ] [(गिह) - (आवास) 7/1] ( सम्माण ) 2 / 1 क्रिवि अव्यय (संवस) विधि 2 / 1 अक अपभ्रंश का प्रत्यय है । विजयराम धक्का-मुक्के से केशव इस प्रकार सभी वृत्तान्त राजा के सामने कहे गये राजा भी उसकी बुद्धि से अत्यन्त सन्तुष्ट हुआ उपदेश चार दामादों के सुनकर पराभव को ससुर के गृहवास में सम्मानपूर्वक ही रहो the the प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. जंबू तेणं' कालेणं' तेणं' समएणं' वाणारसी नामं णयरी होत्था तीसे वाणरसीए नयरीए बहिया उत्तर - पुरच्छिमे दिसिभागे गंगाए महानदीए मयंगतीरद्दहे नामं दहे हत्था 1. प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ पाठ-13 कुम्मे (जंबु ) 8/1 (त) 3 / 1 सवि (काल) 3 / 1 (त) 3 / 1 सवि (समअ ) 3 / 1 ( वाणारसी) 1 / 1 अव्यय (णयरी) 1 / 1 (हो) भू 3 / 1 अक (ती) 6/1 सवि अव्यय (वाणारसी) 6/1 (नयरी) 6 / 1 अव्यय [ (उत्तर) - ( पुरच्छिम) 7 / 1] (दिसिभाग) 7/1 (गंगा) 6 / 1 (महानदी) 6/1 (मयंगतीरद्दह ) 1/1 अव्यय (दह) 1 / 1 (हो) भू 3 / 1 अक हे जंबू! उस काल में उस समय में बनारस / वाणारसी नामक नगरी थी उस वाक्यालंकार वाणारसी नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिशाभाग में सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) गंगा महानदी के मृतगंगातीरहद नामक झील (जलाशय) था 343 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुपुव्व-सुजायवप्प-गंभीर-सीयलजले अच्छ-विमलसलिल-पलिच्छन्ने [(अणुपुव्व) क्रिवि-(सुजाय)-(वप्प)(गंभीर)-(सीयल)-(जल) 1/1] [(अच्छ)-(विमल)(सलिल)-(पलिच्छन्न) 1/1 वि] क्रमश: तट सुन्दर, ठण्डा व गहरा जल स्वच्छ निर्मल जल रोका हुआ (था) तत्थ अव्यय उसमें वाक्यालंकार अव्यय बहूणं मच्छाण (बहु) 6/2 वि (मच्छ) 6/2 अनेक मछलियों अव्यय तथा कच्छपाण (कच्छप) 6/2 अव्यय कछुओं और घड़ियालों और गाहाण (गाह) 6/2 अव्यय मगराण (मगर) 6/2 मगरों [AT अव्यय तथा सुंसुमाराण (सुंसुमार) 6/2 जलचर जीवों के अव्यय तथा सइयाण (सइय) 6/2 वि सैकड़ों अव्यय तथा साहस्सियाण (साहस्सिय) 6/2 वि सहस्त्रों अव्यय तथा सयसाहस्सियाण (सयसाहस्स) 6/2 वि लाखों अव्यय और जूहाई (जूह) 1/2 निभाई (निब्भय) 1/2 भयरहित निरुव्विग्गाई [(निर)+ (उब्विग्गाई)] उद्वेग-रहित [(निर)-(उव्विग्ग) 1/2] (सुह) 2/1 क्रिविअ प्रसन्नतापूर्वक 1. कभी-कभी संज्ञा शब्द की द्वितीया विभक्ति का एकवचन रूप भी क्रिया विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है। संस्कृत व्याकरण, डॉ. प्रीति प्रभा गोयल। 344 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ समूह सुह Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुहेण अभिरममाणाई अभिरममाणाई विहरंति (सुह) 3/1 क्रिविअ (अभिरम) वकृ 1/2 (अभिरम) वकृ 1/2 (विहर) व 3/2 अक शान्तिपूर्वक रमते हुए तल्लीन होते हुए क्रीड़ा करते (थे) तस्स उस णं मयंगतीरद्दहस्स अदूरसामंते एत्थ (त) 6/1 सवि अव्यय (मयंगतीरद्दह) 6/1 [(अ) अव्यय-(दूर)-(सामंत) 7/1] अव्यय अव्यय वाक्ययालंकार मृतगंगातीरहृद के दूर नहीं (किन्तु) पास में यहाँ वाक्यालंकार में प्रयुक्त विस्तृत एक मालुकाकच्छ था उसमें महं अव्यय एगे मालुयाकच्छए होत्था (एग) 1/1 वि (मालुयाकच्छ) 'अ' स्वार्थिक 1/1 (हो) भू 3/1 अक तत्थ अव्यय अव्यय वाक्यालंकार पावसियालगा परिवसंति पापी शृंगाल रहते हैं (थे) पापी पावा चंडा क्रोधी रोद्दा तल्लिच्छा साहसिया लोहियपाणी आमिसत्थी (दु) 1/2 वि [(पाव)-(सियाल+ग स्वार्थिक) 1/2] (परिवस) व 3/2 अक (पाव) 1/2 वि (चंड) 1/2 वि (रोद्द) 1/2 वि (तल्लिच्छ) 1/2 वि (साहसिअ) 1/2 वि [(लोहिय)-(पाणि) 1/2] [(आमिस) + (अत्थि)] [(आमिस)-(अत्थि ) 1/2 वि] [(आमिस) + (आहारा)] [(आमिस)-(आहार) 1/2] तल्लीन साहसी खून के हाथवाले माँस के इच्छुक माँसाहारी आमिसहारा प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 345 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमिसप्पिया आमिसलोला आमिसं गवेसमाणा [(आमिस)-(प्पिय) 1/2 वि] [(आमिस)-(लोल) 1/2 वि] (आमिस) 2/1 (गवेस) वकृ 1/2 (रत्ति) 2/1 (वियालाचारि) 1/2 वि माँसप्रिय माँसलोलुप माँस को खोजते हुए रात्रि में विकाल में घूमनेवाले दिन में गुप्त रूप से चुपचाप अव्यय रतिं वियालचारिणो दिया पच्छन्नं चावि चिट्ठति अव्यय अव्यय (चिट्ठ) व 3/2 अक रहते हैं (थे) अव्यय तत्पश्चात् वाक्यालंकार उस अव्यय (त) 5/1 सवि (मयंगतीरद्दह) 5/1 अव्यय मृतगंगातीरहृद में से किसी समय ताओ मयंगतीरहहाओ अन्नया कयाई सूरियंसि चिरत्थमियंसि अव्यय कभी लुलियाए संझाए पविरलमाणुसंसि णिसंतपडिणिसंतंसि समाणंसि (सूरिय) 7/1 सूर्य के [(चिर)+ (अत्थमियंसि)]] दीर्घकाल से [(चिर) क्रिविअ-(अत्थमिय) भूक 7/1] अस्त होने पर [(लुलिअ(स्त्री)लुलिआ) भूक 7/1] समाप्त होने पर (संझा) 7/1 सन्ध्या के [(पविरल)-(माणुस) 7/1] थोड़े मनुष्य होने पर [(णिसंत)-(पडिणिसंत) 7/1 वि] शान्त, विश्रान्त (समाण) 7/1 वि अहंकारी (दु) 1/2 वि (कुम्म) 'ग' स्वार्थिक 1/2 कछुए दुवे कुम्मगा 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) 346 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारत्थी [(आहार)+ (अत्थी) [(आहार)-(अत्थि) 1/2 वि (आहार) 2/1 (गवेस) वकृ 1/2 आहारं गवेसमाणा आहार के इच्छुक आहार को खोजते हुए धीरे अव्यय अव्यय धीरे सणियं सणियं उत्तरंति तस्सेव बाहर निकलते हैं (थे) उस (उत्तर) व 3/2 सक [(तस्स)+ (एव)] तस्स (त) 6/1 सवि एव (अव्यय) (मयंगतीरद्दह) 6/1 (परिपेरंत) 3/1 मयंगतीरद्दहस्स परिपेरतेणं सव्वओ अव्यय अव्यय समंता परिघोलेमाणा परिघोलेमाणा मृतगंगातीरहद की सीमा में सब ओर से चारों ओर फिरते हुए विचरण करते हुए निर्वाह के साधन को बनाते हुए गमन करते हैं (थे) (परिघोल) वकृ 1/2 (परिघोल) वकृ 1/2 (वित्ति) 2/1 (कप्प) वकृ 1/2 (विहर) व 3/2 सक वितिं कप्पेमाणा विहरंति 5. तयाणंतरं अव्यय उसके पश्चात् अव्यय और PF पादपूरक पावसियालगा आहारत्थी अव्यय (त) 1/2 सवि [(पाव)-(सियालग) 1/2] [(आहार)+ (अत्थी)] [(आहार)-(अत्थि) 1/1] अव्यय (आहार) 2/1 पापी शृगाल आहार के इच्छुक पूर्वोक्त आहार को जाव आहारं कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 347 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गवेसमाणा मालुयाकच्छयाओ पडिणिक्खमंति पडिणिक्खमित्ता जेणेव मयंगतीरे (गवेस) वकृ 1/2 (मालुयाकच्छ) 5/1 (पडिणिक्खम) व 3/2 अक (पडिणिक्खम) संकृ खोजते हुए मालुकाकच्छ से बाहर निकलते हैं बाहर निकलकर जिस तरफ मृतगंगातीर अव्यय (मयंगतीर) 1/1 (दह) 1/1 हृद अव्यय दहे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता उस तरफ ही समीप आते हैं समीप जाकर तस्सेव उस मयंगतीरद्दहस्स परिपेरंतेणं' परिघोलेमाणा परिघोलेमाणा वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति (उवागच्छ) व 3/1 सक (उवागच्छ) संकृ [(तस्स)+ (एव)] तस्स (त) 6/1 सवि एव (अव्यय) (मयंगतीरद्दह) 6/1 (परिपेरंत) 3/1 (परिघोल) वकृ 1/2 (परिघोल) वकृ 1/2 (वित्ति) 2/1 (कप्प) वकृ 1/2 (विहर) व 3/2 सक मृतगंगातीरहद की सीमा में घूमते हुए विचरण करते हुए निर्वाह साधन बनाते हुए गमन करते हैं अव्यय तत्पश्चात् GE AF अव्यय पादपूरक पावसियाला (त) 1/2 सवि [(पाव) वि-(सियाल) 1/2] (त) 2/2 सवि (कुम्म) 'अ' स्वार्थिक 2/2 (पास) व 3/2 सक पापी सियार उन कछुओं को देखते हैं कुम्मए पासंति 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) 348 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासित्ता जेणेव देखकर जहाँ (पास) संकृ अव्यय (त) 1/2 सवि (कुम्म) 'अ' स्वार्थिक 1/2 कछुए कुम्मए तेणेव पहारेत्थ अव्यय वहाँ (पहार) भू 3/2 सक (गमण-गमणा) 4/1 निश्चय किया जाने के लिए गमणाए अव्यय तत्पश्चात् डरे हुए अव्यय पादपूरक (त) 1/2 सवि कुम्मगा (कुम्म) 'ग' स्वार्थिक 1/2 कछुए पावसियालए [(पाव) वि-(सियालअ) 2/2]] पापी सियारों को एज्जमाणे (एज्ज) वकृ 2/2 आते हुए पासंति (पास) व 3/2 सक देखते हैं पासित्ता (पास) संकृ देखकर भीता (भीअ) भूकृ 1/2 अनि आतंकित तत्था (तत्थ) भूकृ 1/2 अनि तसिया (तसिय) भूकृ 1/2 अनि त्रासित उव्विग्गा (उव्विग्ग) 1/2 वि घबराए हुए (थे) संजातभया [(संजात) भूक अनि-(भय) 5/1] उत्पन्न हुए भय के कारण हत्थे (हत्थ) 2/2 हाथों के अव्यय और पाए (पाअ) 2/2 पैरों को अव्यय गीवाओ (गीवा) 2/2 गर्दन को अव्यय सएहिं (स) 'अ' स्वार्थिक 3/2 अपने कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) और और प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 349 Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने शरीरों में छिपाते हैं छिपाकर सएहिं' काएहिं' साहरन्ति साहरित्ता निच्चला निप्फंदा तुसिणीया संचिटुंति (स) 'अ' स्वार्थिक 3/2 (काअ) 3/2 (साहर) व 3/2 सक (साहर) संकृ (निच्चल) 1/2 वि (निप्फंद) 1/2 वि (तुसिणीय) 1/2 वि (संचिट्ठ) व 3/2 अक निश्चल स्थिर मौन रहते (थे) 8. पावसियालया जेणेव जहाँ कुम्मगा तेणेव उवागच्छति अव्यय तत्पश्चात् अव्यय वाक्यालंकार (त) 1/2 सवि [(पाव)-(सियाल) 'य' स्वार्थिक 1/2] पापी सियार अव्यय (त) 1/2 सवि (कुम्म) 'ग' स्वार्थिक 1/2 कछुए अव्यय वहाँ (उवागच्छ) व 3/2 सक आते हैं (उवागच्छ) संकृ आकर (त) 2/2 सवि उन (कुम्म) 'ग' स्वार्थिक 2/2 कछुओं को अव्यय सब तरफ से अव्यय चारों तरफ से (उव्वत्त) व 3/2 सक उलटा करते हैं (परियत्त) व 3/2 सक पलटते हैं (आसार) व 3/2 सक घुमाते हैं (संसार) व 3/2 सक हटाते हैं उवागच्छित्ता कुम्मगा सव्वओ समंता उव्वत्तेन्ति परियत्तेन्ति आसारेन्ति संसारेन्ति 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) 350 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चालेन्ति घट्टेन्ति फंदेन्ति खोभेन्ति नहेहिं आलुंपंति दंतेहि (चाल) व 3/2 सक (घाट्टन्ति-घट्ट) व 3/2 सक प्रे. (फान्देन्ति-फंद) व 3/2 सक प्रे. (खोभ) व 3/2 सक प्रे. (नह) 3/2 (आलुंप) व 3/2 सक (दंत) 3/2 अव्यय चलाते हैं हिलाते हैं फरकाते हैं लोटपोट करते हैं नाखुनों से फाड़ते हैं दाँतों से और खींचते हैं अक्खोडेन्ति (अक्खोड) व 3/2 सक अव्यय नहीं चेव अव्यय परन्तु अव्यय संचाएंति तेसिं वाक्यालंकार समर्थ होते हैं उन कछुओं के शरीर के लिए मानसिक पीड़ा (संचाअ) व 3/2 अक (त) 6/2 सवि (कुम्म) 'ग' स्वार्थिक 6/2 (सरीर) 4/1 (आबाहा) 2/1 कुम्मगाणं सरीरस्स आबाहं वा अव्यय पबाहं विशेष पीड़ा वा या वाबाहं सन्ताप वा या (पबाहा) 2/1 अव्यय (वाबाहा) 2/1 अव्यय (उप्पाअ) हेक (छविच्छेय) 2/1 अव्यय (कर) हेक उप्पाएत्तए छविच्छेयं उत्पन्न करने के लिए चमड़ी के छेदन वा. करेत्तए करने के लिए अव्यय तत्पश्चात् वाक्यालंकार अव्यय (त) 1/2 सवि प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 351 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावसियालया एए कुम्मए दोच्चं पि तच्चं पि सव्वओ समंता उव्वत्तेंति नो चेव 9. संचारन्ति करेत्तए ता संता तंता परितंता निव्विन्ना समाणा सणियं सणियं पच्चोसक्कंति एतमवक्कमंत निच्चला निप्फंदा तुसिणीया 352 [(पाव) वि - (सियाल) 'अ' स्वार्थिक 1/2 ] पापी सियार (अ) 2 / 2 सवि इन (कुम्म) 'अ' स्वार्थिक 2/2 कछुओं को अव्यय दो बार और अव्यय [ ( तच्चं ) + (पि) ] [ ( तच्चं ) अव्यय - (पि) अव्यय ] अव्यय अव्यय ( उव्वत्त) व 3 / 2 सक अव्यय अव्यय अव्यय ( संचाय) व 3 / 2 अक (कर) हेकृ अव्यय (संत) भूकृ 1/2 अनि (तंत) भूक 1/2 अनि (परितंत) भूक 1/2 अनि (निव्विन्न) 1/2 वि ( समाण) 1 / 2 वि अव्यय अव्यय ( पच्चोसक्क) व 3 / 2 अक [(एगंतं) + (अवक्कमंति) ] एतं ( एगंत) 2/1 अवक्कमंति (अवक्कम) व 3 / 2 सक (निच्चल) 1/2 वि (निप्फंद) 1/2 वि (तुसिणीय) 1/2 वि तीन बार, भी सब ओर से चारों तरफ से उल्टा करते हैं नहीं परन्तु पादपूरक समर्थ होते हैं (शरीर के लिए बाधा ) करने के लिए तब थके हुए परेशान हुए अत्यन्त बैचेन हुए दुःखी क्रोधी धीरे धीरे पीछे हटते हैं एकान्त में जाते निश्चल स्थिर चुप प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संचिटुंति (संचिट्ठ) व 3/2 अक ठहरते हैं 10. तत्थ अव्यय वहाँ अव्यय वाक्यालंकार एगे कुम्मए ते पावसियालए चिरंगए (एग) 1/1 वि एक (कुम्म) 'अ' स्वार्थिक 1/1 कछुआ (त) 2/2 सवि उन [(पाव)-(सियाल) 'अ' स्वार्थिक 2/2] पापी सियारों को [(चिरं) अव्यय-(गअ) भूक 7/1] दीर्घकाल व्यतीत होने पर [(दूर)-(गअ) भूक 2/2] दूर गया हुआ (जाण) संकृ जानकर अव्यय धीरे दूरगए जाणित्ता सणियं सणियं धीरे एगं अव्यय (एग) 2/1 वि (पाय) 2/1 (निच्छुभ) व 3/2 सक अव्यय एक पैर को पायं निच्छुभइ बाहर निकालता है तए तत्पश्चात् पावसियालया तेणं अव्यय पादपूरक (त) 1/2 सवि [(पाव)-(सियाल) 'य' स्वार्थिक 1/2] पापी सियार (त) 3/1 सवि उस (कुम्म) 'अ' स्वार्थिक 3/1 कछुए के द्वारा कुम्मएणं अव्यय धीरे सणियं सणियं अव्यय या एक पैर एगं पायं नीणियं पासंति पासित्ता (एग) 2/1 वि (पाय) 2/1 (नीणिय) भूकृ 2/1 अनि (पास) व 3/2 सक (पास) संकृ (ता) 3/2 स बाहर निकाला हुआ देखते हैं देखकर ताए उनके द्वारा प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 353 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्किट्ठाए गईए सिग्धं चवलं तुरियं चंड जइणं उत्कृष्ट गति से (चला गया) जल्दी से स्फूर्तिपूर्वक तेजी से आवेशपूर्वक वेगपूर्वक शीघ्रतापूर्वक जहाँ वेगिई जेणेव वह कुम्मए तेणेव (उक्किट्ठा) 3/1 वि (गइ)3/1 (सिग्घ) 2/1 क्रिवि (चवल) 2/1 क्रिवि (तुरिय) 2/1 क्रिवि (चंड) 2/1 क्रिवि (जइण) 2/1 क्रिवि (वेगिई) 2/1 क्रिवि अव्यय (त) 1/1 सवि (कुम्म) 'अ' स्वार्थिक 1/1 अव्यय (उवागच्छ) व 3/2 अक (उवागच्छ) संकृ (त) 6/1 सवि अव्यय (कुम्म) 'ग' स्वार्थिक 6/1 (त) 2/1 सवि (पाय) 2/1 (नख) 3/2 (आलुप) व 3/2 सक (दंत) व 3/2 सक (अक्खोड) व 3/2 सक कछुआ वहाँ समीप आते हैं उवागच्छति उवागच्छित्ता समीप आकर तस्स उस पादपूरक कछुए के कुम्मगस्स उस OF पायं नखेहिं आलुपंति दंतेहिं अक्खोडेंति तओ फाड़ते हैं दाँतों से तोड़ते हैं उसके अव्यय पच्छा अव्यय बाद मंसं (मंस) 2/1 माँस अव्यय और सोणियं 1. (सोणिय) 2/1 रक्त का कभी-कभी संज्ञा शब्द की द्वितीया विभक्ति का एकवचन रूप भी क्रिया विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है। (संस्कृत व्याकरण, डॉ. प्रीतिप्रभा गोयल) 354 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यय और आहारेंति भोजन करते हैं भोजन करके आहारित्ता तं (आहार) व 3/2 सक (आहार) संकृ (त) 2/1 सवि (कुम्म) 'ग' स्वार्थिक 2/1 11.11. अव्यय कुम्मगं सव्वओ समंता उव्वत्तेति उस कछुए को चारों तरफ से सब तरफ से उलटा करते हैं अव्यय (उव्वत्त) व 3/2 सक जाव अव्यय तब अव्यय नहीं चेव अव्यय पादपूरक समर्थ होते हैं संचाइंति अव्यय (संचाय-सचाअ-संचाएन्ति-संचाइंति) व 3/2 सक (कर) हेकृ करने के लिए करेत्तए ताहे दोच्च अव्यय उस समय अव्यय दूसरी बार पि अव्यय भी अवक्कमंति (अवक्कम) व 3/2 सक एवं अव्यय बाहर निकलते हैं/जाते हैं और चारों चत्तारि (चउ) 1/2 वि अव्यय वि पाया (पाय) 1/2 जाव अव्यय तब अव्यय धीरे सणियं सणियं अव्यय धीरे गीवं गर्दन को णीणेड बाहर निकालता है। (गीवा) 2/1 (णीण) व 3/1 सक अव्यय अव्यय तए तत्पश्चात् पादपूरक प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 355 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावसियालया पापी सियार तेणं उस कुम्मएणं गीवं णीणियं पासंति पासित्ता सिग्धं चवलं कछुए के द्वारा गर्दन को बाहर निकाली गयी देखते हैं देखकर जल्दी से स्फूर्तिपूर्वक तेजी से आवेशपूर्वक नाखुनों से दाँतों से कपाल अलग करते हैं अलग करके तुरियं (त) 1/2 सवि (पावसियाल) 'य' स्वार्थिक 1/2 (त) 3/1 सवि (कुम्म) 'अ' स्वार्थिक 3/1 (गीवा) 2/1 (णीणिय) भूकृ 2/1 अनि (पास) व 3/2 सक (पास) संकृ (सिग्घ) 2/1 क्रिवि (चवल) 2/1 क्रिवि (तुरिय) 2/1 क्रिवि (चंड) 2/1 क्रिवि (नह) 3/2 (दंत) 3/2 (कवाल) 2/1 (विहाड) व 3/2 सक (विहाड) संकृ (त) 2/1 सवि (कुम्म) 'ग' स्वार्थिक 2/1 (जीविअ) 5/1 वि (ववरोव) व 3/2 सक (ववरोव) संकृ (मंस) 2/1 अव्यय (सोणिय) 2/1 अव्यय (आहार) व 3/2 सक चंडं नहेहिं दंतेहिं कवालं विहाडेंति विहाडित्ता कुम्मगं जीवियाओ ववरोवेंति ववरोवित्ता मंसं कछुए को जीवन से रहित करते हैं जीवनरहित करके माँस का और रुधिर का सोणियं और आहार करते हैं आहारेन्ति 11. एवामेव समणाउसो अव्यय इसी प्रकार हे आयुष्मान् श्रमण! [(समण)+(आउसो)] [(समण)-(आउस) 8/1] 356 प्राकत गद्य-पद्य सौरभ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा या दीक्षित हुआ पंच जो (ज) 1/1 स अम्हं (अम्ह) 6/2 स हमारे निग्गंथो (निग्गंथ) 1/1 निर्ग्रन्थ अव्यय अथवा/या निग्गंथी (निग्गंथी) 1/1 निर्ग्रन्थी अव्यय आयरियउवज्झायाणं [(आयरिय)-(उवज्झाय) 6/2] आचार्य और उपाध्याय के अंतिए (अंतिय) 7/1 समीप पव्वइए (पव्वइअ) भूकृ 1/1 अनि समाणे (समाण) 1/2 वि उपस्थित होते हुए (पंच) 1/2 वि पाँचों अव्यय और (त) 6/1 स उसकी इंदियाई (इंदिय) 1/2 इन्द्रियाँ अगुत्ताई [(अ)-(गुत्त) 1/2 वि] संयमित नहीं (असंयमित) भवंति (भव) व 3/2 अक होती हैं (त) 1/1 स वह अव्यय पादपूरक (इम) 7/1 सवि इस (भव) 7/1 भव में अव्यय बहूणं' (बहु) 6/2 वि बहुत समाणाणं (समण) 6/2 साधुओं द्वारा (बहु) 6/2 वि बहुत समणीणं (समणी) 6/2 श्रमणिओं द्वारा सावगाणं (सावग) 6/2 श्रावकों द्वारा साविगाणं (साविगा) 6/2 श्राविकाओं द्वारा हीलणिज्जे (हील) विधिकृ 1/1 अवज्ञा करने योग्य 1. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) बहूणं प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 357 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परलोए (परलोअ) 7/1 परलोक में वि अव्यय भी अव्यय और N अव्यय पादपूरक पाता है (पाते हैं) बहुत आगच्छइ बहूणि दंडणाणि अणुपरियदृइ जहा दण्ड परिभ्रमण करता है (आगच्छ) व 3/1 सक (बहु) 2/2 वि (दंडण) 2/2 (अणुपरियट्ट) व 3/1 सक अव्यय (कुम्म) 'अ' स्वार्थिक 1/1 [(अ)+ (गुत्त) + (इंदिए)] [(अ)-(गुत्त)-(इंदिअ) 1/1 वि] जैसे कुम्मए अगुतिंदिए कछुआ इन्द्रियों का गोपन नहीं करनेवाला 12. तए अव्यय तत्पश्चात् पावसियालया जेणेव वह दोच्चए कुम्मए तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता अव्यय पादपूरक [(पाव)-(सियाल) 'अ' स्वार्थिक 1/2] पापी सियार अव्यय जहाँ (त) 1/1 स (दोच्च) 'अ' स्वार्थिक 1/1 वि दूसरा (कुम्म) 'अ' स्वार्थिक 1/1 कछुआ (था) अव्यय वहाँ (उवागच्छ) व 3/2 सक पहुँचे (उवागच्छ) संकृ पहुँचकर (त) 2/1 सवि उस (कुम्म) य स्वार्थिक 2/1 कछुए को अव्यय चारों तरफ से अव्यय सब दिशाओं में (उव्वत्त) व 3/2 सक उलटा करते हैं अव्यय जब तक (दंत) 3/2 दाँतों से कुम्मयं सव्वओ समंता उव्वत्तेति जाव दंतेहिं 358 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खु जाव करित्तए 13. तए णं ते पावसियालया दोच्चं पि तच्चं पि जाव नो संचाएंति तस्स कुम्मगस्स किंचि आबाहं वा पबाहं वा विबाहं वा उप्पारत्तए छविच्छेयं वा करित्तए ताहे संता प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ [(अ)- (क्खुडंति) व 3 / 2 सक ] अव्यय (कर) हेकृ अव्यय तत्पश्चात् अव्यय पादपूरक (त) 1/2 सवि वे [(पाव) - (सियाल) 'अ' स्वार्थिक 1/2 ] पापी सियार अव्यय दूसरी बार अव्यय और अव्यय अव्यय अव्यय अव्यय ( संचाय) व 3 / 2 अक (त) 4 / 1 सवि (कुम्म) 'ग' स्वार्थिक 4/1 अव्यय ( आबाहा) 2 / 1 अव्यय (पबाहा ) 2 / 1 अव्यय (विबाह ) 2 / 1 वि अव्यय (उप्पाअ) हेकृ (छविच्छेय) 2/1 अव्यय (कर) हेकृ अव्यय (संत) भूकृ 1 / 2 अनि टूटते नहीं हैं किन्तु करने के लिए तीसरी बार और किन्तु नहीं समर्थ होते हैं (हुए) उस कछुए थोड़ी मानसिक पीड़ा के लिए अथवा विशेष पीड़ा अथवा सन्ताप अथवा उत्पन्न करने के लिए चमड़ी छेदन और करने के लिए तब थके हुए 359 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तंता दुःखी उसी दिसिं वह (तंत 1/2 वि परेशान परितंता (परितंत) 1/2 वि अत्यन्त बैचेन हुए निम्विन्ना (निम्विन्न) 1/2 वि समाणा (समाण) 1/2 वि होते हुए जामेव अव्यय जिस दिसिं (दिसि') 2/1 दिशा में पाउब्भूआ (पाउब्भूय) भूकृ 1/2 अनि प्रकट हुए थे तामेव अव्यय (दिसि) 2/1 दिशा को पडिगया (पडिगय) भूक 1/2 अनि लौट गए 14. तए अव्यय तत्पश्चात् अव्यय पादपूरक (त) 1/1 सवि कुम्मए (कुम्म) 'अ' स्वार्थिक 1/1 कछुआ (त) 2/2 सवि उन पावसियालए [(पाव)-(सियाल) 'अ' स्वार्थिक 2/2] पापी सियारों को चिरंगए [(चिरं) अव्यय-(गअ) भूकृ 7/1 अनि] बहुत समय बीतने पर [(दूर)-(गअ) भूकृ 2/2 अनि] दूर गया हुआ जाणित्ता (जाण) संकृ जानकर सणियं अव्यय धीरे सणियं अव्यय धीरे गीवं (गीवा) 2/1 गर्दन को नेणेइ (णीण) व 3/1 सक बाहर निकालता है नेणित्ता (णीण) संकृ बाहर निकालकर दिसावलोयं [(दिसा)+ (अवलोय)] सब दिशाओं [(दिसा)-(अवलोय) 2/1] में अवलोकन करेइ (कर) व 3/1 सक करता है 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137)। दूरगए 360 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करित्ता जमगसमगं चत्तारि (कर) संकृ अव्यय (चउ) 2/2 वि करके एक साथ चारों वि अव्यय पाए नीणेइ नीणेत्ता पैरों को बाहर निकालता है बाहर निकालकर ता तब वाक्यालंकार उत्कृष्ट कूर्मगति से दौड़ते उक्किट्ठाए कुम्मगईए वीइवयमाणे वीइवयमाणे जेणेव मयंगतीरद्दहे तेणेव (पाअ) 2/2 (नीण) व 3/1 सक (नीण) संकृ अव्यय अव्यय (उक्किट्ठ) 3/1 वि [(कुम्म)-(गइ) 3/1] [(वीइ-वय) वकृ 1/1] [(वीइ-वय) वकृ 1/1] अव्यय [(मयंगतीर)-(दह) 1/1] अव्यय (उवागच्छ) व 3/1 सक (उवागच्छ) संकृ [(मित्त)-(नाइ)-(नियग)(सयण)-(सम्बन्धि)-(परियण) 3/1] दौड़ते जहाँ मृतगंगातीर नामक हृद (था) वहाँ पहुँचता है पहुँचकर मित्र, समान जाति, आत्मीय स्वजन, सम्बन्धी (और) परिजनों का उवागच्छन् उवागच्छित्ता मित्त-नाइ-नियगसयण-सम्बन्धिपरियणेणं साथ अव्यय (अभिसमन्नागय) 1/1 वि प्राप्त सद्धिं अभिसमन्नागए यावि होत्था अव्यय पादपूरक (हो) भू 3/1 अक हुआ 15. एवामेव समणाउसो अव्यय [(समण)+ (आउसो)] [(समण)-(आउस) 8/1] (ज) 1/1 स इसी प्रकार हे आयुष्मान श्रमण! प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 361 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारा अम्हं समणो (अम्ह) 6/2 स (समण) 1/1 श्रमण अव्यय या वा समणी (समणी) 1/1 श्रमणी वा या आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे पंच अव्यय [(आयरिय)-(उवज्झाय) 6/2] (अंतिअ) 7/1 (मुंड) 1/1 वि (भव) संकृ (अगार) 5/1 (अणगारि) 'य' स्वार्थिक 2/1 (पव्वइअ) भूकृ 1/1 अनि (समाण) 1/1 वि (पंच) 1/2 वि (त) 6/1 स (इंदिय) 1/2 (गुत्त) 1/2 वि (भव) व 3/2 अक (त) 1/1 स अव्यय [(इह) अव्यय-(भव) 7/1] अव्यय (बहु) 6/2 वि (समण) 6/2 (बहु) 6/2 वि (समणी) 6/2 (बहु) 6/2 वि (सावय) 6/2 आचार्य या उपाध्यायों के निकट मुण्डित होकर गृहस्थ से मुनि (धर्म) दीक्षित हुआ समान पाँचों उसकी इन्द्रियाँ संयमित इंदियाई गुत्ताई भवंति होती हैं वह पादपूरक इस, भव में इहभवे चेव बहूणं बहुत श्रमणों समणाणं बहूणं समणीणं बहुत श्रमणियों बहुणं बहुत श्रावकों सावयाणं 1. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) 362 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहूणं' साविगाण' बहुत श्राविकाओं द्वारा और अच्चणिज्जे वंदणिज्जे नमंसणिज्जे पूयणिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणणिज्जे कल्लाणं (बहु) 6/2 वि (साविगा) 6/2 अव्यय (अच्च) 1/1 विधिक (वंद) 1/1 विधिकृ (नमंस) 1/1 विधिक (पूय) 1/1 विधिकृ (सक्कार) 1/1 विधिक (सम्माण) 1/1 विधिकृ (कल्लाण) 1/1 (मंगल) 1/1 (देवय) 1/1 (चेइय) 1/1 (विणय) 3/1 क्रिवि (पज्जुवास) 1/1 विधिकृ (भव) व 3/1 अक पूजा करने योग्य वन्दना करने योग्य नमन करने योग्य अर्चना करने योग्य सत्कार करने योग्य सम्मान करने योग्य कल्याण मंगल मंगलं देवयं चेइयं विणएण पज्जुवासणिज्जे जिनमन्दिर विनयपूर्वक उपासना करने योग्य होता है भव कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 363 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 1 मंगलाचरण समणसुत्तं क्र.सं. क्र.सं. समणसुत्तं गाथा संख्या समणसुत्तं गाथा संख्या 10 11 12 13 14 पाठ - 2 समणसुत्तं क्र.सं. क्र.सं. समणसुत्तं गाथा संख्या समणसुत्तं गाथा संख्या 47 82 104 118 125 127 नोट- मूल पुस्तकों के प्रकाशक आदि सन्दर्भ पुस्तकों की सूची में देखें। 364 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ཆ.༩. समणसुत्तं गाथा संख्या समणसुत्तं गाथा संख्या 11 134 24 167 135 25 168 136 170 14 137 171 212 15 138 29 213 16 142 30 248 17 145 267 18 148 32 288 10 150 33 295 20 151 34 331 21 152 35 394 22 158 36 395 23 162 37 525 qན - 3 उत्तराध्ययन .f. .f. उत्तराध्ययन उत्तराध्ययन सूत्रक्रम सूत्रक्रम 705 709 710 706 707 708 ༠ ༠ ༠ 711 712 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 365 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र.सं. क्र.सं. उत्तराध्ययन उत्तराध्ययन सूत्रक्रम सूत्रक्रम 713 21 725 10 714 22 726 11 715 727 12 716 24 728 13 717 25 729 14 718 26 730 15 719 27 731 16 720 28 732 17 721 29 733 722 30 734 19 723 31 735 20 724 736 33 737 34 738 पाठ - 4 वज्जालग्ग क्र.सं. क्र.सं. वज्जालग्ग गाथा संख्या वज्जालग्ग गाथा संख्या 21 15.1 (पृष्ठ 216) 18.1 (पृष्ठ 217) 366 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र.सं क्र.सं. वज्जालग्ग गाथा संख्या 34 वज्जालग्ग गाथा संख्या 29 75 36 37 31 10 38 32 11 40 33 12 13 35 14 15 4 . 22 16 47 38 17 48 39 18 55 40 90.1 (पृष्ठ 224) 90.4 (पृष्ठ 225) 90.5 (पृष्ठ 225) 19 56 41 20 62 42 91 21 63 43 92 64.3 (पृष्ठ 220) 44 94 65 45 66 46 100 101 102 103 26 68 47 71 48 27 49 104 72.5 (पृष्ठ 222) 74 28 105 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 367 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ पाठ - 5 अष्टपाहुड क्र.सं. क्र.सं. अष्टपाहुड गाथा संख्या चारित्रपाहुड अष्टपाहुड गाथा संख्या 18 90 41 19 42 20 123 132 159 मोक्षपाहुड 43 20 बोधपाहुड 21 22 4 23 2 LS 25 26 12 ३ ३ ३ ३ ३.२ ५.. . . . . 47 27 26 10 48 28 45 11 भावपाहुड 30 66 12 31 72 लिंगपाहुड 13 14 61 32 15 64 शीलपाहुड 16 66 33 17 89 34 16 368 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - 6 कार्तिकयानुप्रेक्षा क्र.सं. क्र.सं. कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा संख्या कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा संख्या 75 21 79 22 183 23 187 279 24 25 280 13 26 299 19 300 20 362 10 29 395 11 30 396 12 26 31 397 13 28 32 421 14 32 33 461 15 465 16 56 466 17 18. 19 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 369 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ -7 दसरहपव्वज्जा क्र.सं. क्र.सं. पउमचरियं गाथा संख्या * पउमचरियं गाथा संख्या 31.67 31.49 - 19 31.50 20 31.68 31.51 31.69 31.52 31.70 31.53 23 31.71 31.54 31.72 + 31.55 31.73 31.56 26 31.74 31.57 27 31.75 31.58 28 31.76 11 31.59 29 31.77 12 31.60 31.95 31.61 31 31.96 14 31.62 32 31.97 15 31.63 31.98 31.99 16 31.64 34 17 31.65 35 31.100 31.66 31.101 370 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र.सं. क.सं. पउमचरियं गाथा संख्या 31.102 पउमचरियं गाथा संख्या 37 47 31.112 38 31.103 48 31.113 39 31.104 49 31.114 40 31.105 50 31.115 A1 51 31.106 31.107 31.116 31.117 42 52 31.108 53 31.118 31.109 54 31.119 31.110 55 31.120 46 31.111 क्र.सं. पाठ - 8 रामनिग्गमण-भरहरज्जविहाणे पउमचरियं पउमचरियं गाथा संख्या गाथा संख्या 32.1 32.11 8 32.2 32.12 10 32.13 32.6 32.7 32.8 11 32.14 12 32.15 32.9 13 32.16 32.10 14 32.17 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 371 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र.सं. क्र.सं. पउमचरियं गाथा संख्या 32.45 15 16 32.46 17 32.47 18 पउमचरियं गाथा संख्या 24 32.25 32.36 32.37 32.38 32.39 32.40 32.41 32.42 32.43 21 32.48 32.49 32.50 32.52 32.53 32.54 32.55 24 25 32.44 372 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. समणसुत्तं 2. उत्तराध्ययन 3. वज्जालग्ग 4. अष्टपाहुड 5. पउमचरियं 6. पाइय गज्ज संगहो 7. णायधम्मकहा 8. षट्खण्डागम 9. हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण भाग 1-2 10. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण 11. अभिनव प्राकृत व्याकरण 12. प्राकृत मार्गोपदेशिका प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ सन्दर्भ पुस्तकें सर्व सेवा संघ प्रकाशन, वाराणसी सं. मुनि श्री पुण्यविजयजी एवं श्री अमृतलाल मोहनलाल भोजक ( श्री महावीर जैन विद्यालय, मुम्बई ) जयवल्लभ, सं. प्रो. माधव वासुदेव पटवर्धन ( प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद-9 -9) आ. कुन्दकुन्द, सं. पं. जयचन्द जी छाबड़ा ( श्री पाटनी दि. जैन ग्रन्थमाला, मारोठ, राजस्थान ) आ. विमलसूरि, सं. डॉ. के. आर. चन्द्रा (प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद- 9) सं. डॉ. राजाराम जैन ( प्राच्य भारती प्रकाशन, आरा) सं. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल (श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, राजस्थान) फूलचन्द्र सिद्धान्त आ. पुष्पदन्त-भूतबलि, सं. पं. शास्त्री (भाग-1) (जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर) व्याख्याता - श्री प्यारचन्द जी महाराज (श्री जैन दिवाकर - दिव्य ज्योति कार्यालय, मेवाड़ी बाजार, ब्यावर, राजस्थान) डॉ. आर. पिशल (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना) डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री (तारा पब्लिकेशन, वाराणसी) पं. बेचरदास जीवराज दोशी (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली) 373 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. प्रौढ़ रचनानुवाद कौमुदी 14. पाइअ-सद्द-महण्णवो 15. अपभ्रंश-हिन्दी कोश, भाग 1-2 16. Apabhramsa of Hemacandra 17. Introduction to Ardha-Magadhi 18. कातन्त्र व्याकरण डॉ. कपिलदेव द्विवेदी (विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी) पं. हरगोविन्ददास त्रिकमचन्द सेठ (प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी) डॉ. नरेशकुमार (इण्डो-विजन प्रा. लि. II A 220, नेहरू नगर, गाजियाबाद) Dr. Kantilal Baldevram Vyas (Prakrit Text Society, Ahmedabad) A.M. Ghatage (School and College Book Stall, Kolhapur) गणिनी आर्यिका ज्ञानमती (दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर, मेरठ) डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री (चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी-1) चक्रधर नौटियाल 'हंस' । (मोतीलाल बनारसीदास, फेज-1, दिल्ली) 19. प्राकृत-प्रबोध 20. बृहद् अनुवाद-चन्द्रिका । 374 प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.lainelibrary.org