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सुयणो सुद्धसहावो मइलिज्जतो वि दुज्जणजणेण । छारेण दप्पणो विय अहिययरं निम्मलो होइ ॥
सुयणो न कुप्पइ च्चिय अह कुप्पड़ मंगुलं न चिंतेइ । अह चिंतेइ न जंपइ अह जंपइ लज्जिरो होइ ॥
दिट्ठा हरंति दुक्खं जंपंता देंति सयलसोक्खाई । एयं विहिणा सुकयं सुयणा जं निम्मिया भुवणे ॥
न हसंति परं न थुवंति अप्पयं पियसयाइ जंपंति । एसो सुयणसहावो नमो नमो ताण पुरिसाणं ॥
अकवि कवि पिए पियं कुणंता जयम्मि दीसंति । कयविप्पिए वि हु पियं कुणंति ते दुल्लहा सुयणा ॥
फरुसं न भणसि भणिओ वि हससि हसिऊण जंपसि पियाई । सज्जण तुज्झ सहावो न याणिमो कस्स सारिच्छो॥
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प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
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