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________________ 27. हे राजाधिराज! पतिव्रता (और) (मुझसे) सन्तुष्ट मेरी पत्नी ने आँसू भरे हुए नेत्रों से मेरी छाती को भिगोया। 28. मेरे द्वारा जाना गया (हो) अथवा न जाना गया (हो), (तो भी) वह (मेरी पत्नी), (जो) तरुणी (थी), (कभी भी) भोजन और पेय पदार्थ का तथा स्नान, सुगन्धित द्रव्य, फूल (और) (किसी प्रकार के) खुशबूदार लेप का उपयोग नहीं करती (थी)। 29. हे राजाधिराज! मेरी (पत्नी) एक क्षण के लिए भी (मेरे) पास से ही नहीं जाती (थी), फिर भी (उसने) (मुझे) दुःख से नहीं छुड़ाया। यह मेरी अनाथता (है)। 30. तब मैंने (अपने मन में) इस प्रकार कहा (कि) (इस) अनन्त संसार में (व्यक्ति को) निश्चय ही असह्य पीड़ा बार-बार (होती) (है), (जिसको) अनुभव करके (व्यक्ति अवश्य ही दुःखी होता है)। 31. यदि (मैं) इस घोर पीड़ा से तुरन्त ही छुटकारा पा जाऊँ, (तो) (मैं) साधु-सम्बन्धी दीक्षा में (प्रवेश करूँगा) (जिससे). (मैं) क्षमा-युक्त, जितेन्द्रिय और हिंसा-रहित (हो जाऊँगा)। 32. हे राजा! इस प्रकार विचार करके ही (मैं) सोया था। (आश्चर्य!) क्षीण होती हुई रात्रि में मेरी पीड़ा (भी) विनाश को प्राप्त हुई। 33. तब (मैं) प्रभात में (अचानक) निरोग (हो गया)। (अत:) बन्धुओं को पूछकर साधु-सम्बन्धी (अवस्था) में प्रवेश कर गया। (जिसके फलस्वरूप) (मैं) क्षमायुक्त, जितेन्द्रिय तथा हिंसारहित (बना)। 34. इसलिए मैं निज का और दूसरे का भी तथा त्रस और स्थावर सब ही प्राणियों का नाथ बन गया। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002691
Book TitlePrakrit Gadya Padya Saurabh Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2009
Total Pages384
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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