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________________ 6. और उसके चरणों में प्रणाम करके तथा (उसकी) प्रदक्षिणा करके (राजा श्रेणिक) (उससे) न अत्यधिक दूरी पर (और) न समीप में (ठहरा) (और) (वह) विनम्रता व सम्मान के साथ जोड़े हुए हाथ सहित (रहा) (और) (उसने) पूछा। ____7. हे आर्य! (आप) तरुण हो। हे संयत! (आप) भोग (भोगने) के समय में साधु बने हुए हो। (आश्चर्य!) (आप) साधुपन में स्थिर (प्रव्रज्या लेने को तैयार) हो। तो इसके प्रयोजन को (चाहता हूँ कि) (मैं) सुपूँ। (साधु ने कहा) हे राजाधिराज! (मैं) अनाथ हूँ। मेरा (कोई) नाथ नहीं है। किसी अनुकम्पा करनेवाले (व्यक्ति) या मित्र को भी मैं नहीं जानता हूँ। 9. तब वह मगध का शासक, राजा श्रेणिक हँस पड़ा। (और बोला) आप जैसे समृद्धिशाली के लिए (कोई) नाथ कैसे नहीं है? 10. (आप जैसे) पूज्यों के लिए (मैं) नाथ होता हैं। हे संयत! मित्रों और स्वजनों से घिरे हुए (रहकर) (आप) भोगों को भोगो, (चूँकि) सचमुच मनुष्यत्व (मनुष्य-जन्म) अत्यधिक दुर्लभ (होता है)। 11. हे मगध के शासक! हे श्रेणिक! (तू) स्वयं ही अनाथ है। स्वयं अनाथ होते हुए (तू) किसका नाथ होगा? 12. साधु के द्वारा (जब) इस प्रकार कहा गया (तब) पहले कभी न सुने गए (उसके ऐसे) वचन को (सुनकर) आश्चर्ययुक्त वह राजा (श्रेणिक) अत्यधिक हड़बड़ाया (तथा) अत्यधिक चकित हुआ। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002691
Book TitlePrakrit Gadya Padya Saurabh Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2009
Total Pages384
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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