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12. तत्पश्चात् वे पापी सियार, जहाँ वह दूसरा कछुआ था वहाँ पहुँचे। पहुँचकर उस कछुए को सब दिशाओं में चारों तरफ से उलटा करते हैं, जब तक दाँतों से टूटते नहीं है। किन्तु (ऐसा) करने के लिए (समर्थ नहीं हुए)।
13. तत्पश्चात् वे पापी सियार दूसरी बार और तीसरी बार (दूर चले गए) किन्तु उस कछुए के लिए थोड़ी भी मानसिक पीड़ा अथवा विशेष पीड़ा या सन्ताप उत्पन्न करने के लिए तथा उसकी चमड़ी छेदन करने के लिए (समर्थ नहीं हो सके)। तब (वे) थके हुए, परेशान, अत्यन्त बैचेन हुए, दुःखी होते हुए जिस दिशा में प्रकट हुए थे उसी दिशा को लौट गए।
14. बहुत समय बीतने पर तत्पश्चात् वह कछुआ उन पापी सियारों को दूर गया हुआ जानकर धीरे-धीरे गर्दन को बाहर निकालता है। (गर्दन) बाहर निकालकर सब दिशाओं में अवलोकन करता है। (अवलोकन) करके एक साथ चारों पैरों को भी बाहर निकालता है। तब (पैरों को) बाहर निकालकर उत्कृष्ट कूर्मगति से दौड़ते-दौड़ते जहाँ मृतगंगातीरहृद नामक हृद था, वहाँ पहुँचता है, और पहुँचकर (उसे) मित्र, समान जाति, आत्मीय स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों का साथ प्राप्त हुआ।
15. हे आयुष्मान श्रमण! इसी प्रकार हमारा जो श्रमण या श्रमणी आचार्य या उपाध्यायों के निकट मुण्डित होकर गृहस्थ से मुनि (धर्म) दीक्षित हआ उसकी (कछुए के) समान पाँचों इन्द्रियाँ संयमित होती हैं। वह इस भव में ही बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों, और बहुत श्राविकाओं द्वारा पूजा करने योग्य, वन्दना करने योग्य, नमन करने योग्य, अर्चना करने योग्य, सत्कार करने योग्य (तथा) सम्मान करने योग्य (होता है) (वह) कल्याण, (है) मंगल, (है) देव, (है) जिनमन्दिर (है) (तथा) विनयपूर्वक उपासना करने योग्य होता है।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
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