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________________ इन्द्रियों के माध्यम से इंदियदारेण णियसरूवचुओ निज स्वरूप भूला हुआ णियदेहं [(इंदिय)-(दार) 3/1] [(णिय) वि-(सरूव)-(चुअ) भूकृ 1/1 अनि] [(णिय) वि-(देह) 2/1] (अप्पाण) 2/1 (अज्झवस) व 3/1 सक [(मूढ) वि-(दिट्ठि) 1/1 वि] अप्पाणं अज्झवसदि मूढदिट्ठी निज देह आत्मा को विचारता है मूढ दृष्टिवाला खेद ओ अव्यय ___ 26. देह से उदासीन णिरवेक्खो णिइंदो णिम्ममो णिरारंभो आदसहावे सुरओ (ज) 1/1 सवि (देह) 7/1 (णिरवेक्ख) 1/1 वि (णिबंद) 1/1 वि (णिम्मम) 1/1 वि (णिरारंभ) 1/1 वि [(आद)-(सहाव) 7/1] [(सु) अ= पूरी तरह-(रअ) भूकृ 1/1 अनि (जोइ) 1/1 (त) 1/1 सवि (लह) व 3/1 सक (णिव्वाण) 2/1 द्वन्द्व रहित ममतारहित जीव-हिंसारहित आत्म-स्वभाव में पूरी तरह, संलग्न योगी जोई सो लहइ णिव्वाणं प्राप्त करता है परमशान्ति 27. जो इच्छइ णिस्सरितुं संसारमहण्णवाउ (ज) 1/1 सवि (इच्छ) व 3/1 सक (णिस्सर) हेकृ [(संसार)-(महण्णव) 5/1] चाह रखता है निकलने की संसाररूपी महासागर से 1. कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-136) 'इच्छा' अर्थ में हेकृ का प्रयोग होता है। 2. प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 209 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002691
Book TitlePrakrit Gadya Padya Saurabh Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2009
Total Pages384
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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