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पर, आहार के इच्छुक, दो कछुए आहार को खोजते हए धीरे-धीरे बाहर निकलते (थे)। उस ही मृतगंगातीरहद की सीमा में सब ओर से चारों ओर फिरते हुए विचरण करते हुए निर्वाह के साधन को बनाते हुए गमन करते हैं
(थे)।
5. और उसके पश्चात् आहार के इच्छुक वे पापी शृगाल आहार को खोजते हुए मालुकाकच्छ से बाहर निकलते हैं। बाहर निकलकर मृतगंगातीरहृद जिस तरफ था उस तरफ ही (उसके) समीप आते हैं। समीप आकर उस ही मृतगंगातीरहद की सीमा में घूमते हुए विचरण करते हुए, निर्वाह साधन बनाते हुए, गमन करते हैं।
6. तत्पश्चात् वे पापी सियार उन कछुओं को देखते हैं। देखकर जहाँ वे कछुए (हैं) वहाँ (उन्होंने) जाने के लिए निश्चय किया।
7. तत्पश्चात् वे कछुए उन पापी सियारों को आते हुए देखते हैं, देखकर (वे) आतंकित, डरे हुए त्रासित और घबराए हुए (थे)। उत्पन्न हुए भय के कारण वे हाथों को और पैरों और गर्दन को अपने-अपने शरीरों में छिपाते थे, छिपाकर निश्चल, स्थिर (और) मौन रहते थे।
8. तत्पश्चात् वे पापी सियार जहाँ वे कछुए (थे) वहाँ आते हैं। आकर उन कछुओं को सब तरफ से चारों तरफ से उलटा करते हैं, पलटते हैं, घुमाते हैं, हटाते हैं, चलाते हैं, हिलाते हैं, फरकाते हैं, लोटपोट करते हैं, नाखुनों से फाड़ते हैं, और दाँतों से खींचते हैं, परन्तु उन कछुओं के शरीर के लिए मानसिक पीड़ा या विशेष पीड़ा या सन्ताप उत्पन्न करने के लिए या चमड़ी छेदन करने के लिए (समर्थ नहीं हुए)।
9. तत्पश्चात् वे पापी सियार इन कछुओं को दो बार, तीन बार, सब ओर से, चारों तरफ से उलटा करते हैं, परन्तु (शरीर के लिए बाधा) करने के
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
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