________________
ज्ञानरहित
णाणविजुत्तो तवो
तप
वि
अकयत्थो
तम्हा णाणतवेणं संजुत्तो लहइ णिव्वाणं
[(णाण)-(विजुत्त) 1/1 वि] (तव) 1/1 अव्यय (अकयत्थ) 1/1 वि अव्यय [(णाण)-(तव) 3/1 वि] (संजुत्त) 1/1 वि (लह) व 3/1 सक (णिव्वाण) 2/1
असफल इसलिए ज्ञान (और) तप से संयुक्त पाता है परमशान्ति को
30.
ताम
अव्यय
तब तक
ण
नहीं
णज्जइ
अप्पा
जानता है आत्मा को विषयों में
विसएसु णरो
मनुष्य
पवट्टए
अव्यय (णज्ज) व 3/1 सक (अप्प) 2/1 अपभ्रंश (विसअ) 7/2 (णर) 1/1 (पवट्ट) व 3/1 अक अव्यय (विसअ) 7/1 [(विरत्त)-(चित्त) 1/1] (जोइ) 1/1 (जाण) व 3/1 सक (अप्पाण) 2/1
जाम
विसए' विरत्तचित्तो
प्रवृत्ति करता है जब तक विषय से उदासीन, चित्त योगी
जोई
जाणेइ
जानता है आत्मा को
अप्पाणं
31. जिंदाए
य
(णिंदा) 7/1 अव्यय (पसंसा) 7/1
निन्दा में
और प्रशंसा में
पसंसाए
1.
कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-136)
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
211
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org