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पाठ - 5 अष्टपाहुड
(जो) (व्यक्ति) ज्ञानरूपी जल को पीकर निर्मल, शुद्ध भावों से युक्त (हैं), (वे) त्रिभुवन के आभूषण (होते हैं), (तथा) शिवालय में रहने वाले मुक्त (व्यक्ति) होते हैं।
(जो) (सम्यक्) ज्ञान-गुण से रहित (हैं), वे भली प्रकार से (भी) चाहे हुए लाभ को प्राप्त नहीं करते हैं, इस प्रकार गुण-दोष को जानने के लिए (तू) उस सम्यग्ज्ञान को समझ।
3.
(जो) ज्ञानी चारित्र पर पूर्णतः आरूढ़ (हैं), (वह) (अपनी) आत्मा में श्रेष्ठ (भी) पर वस्तु को नहीं देखता है। (अतः) (वह) शीघ्र अनुपम सुख प्राप्त करता है। (तुम) निश्चय से जानो।
4.
संयम से जुड़े हुए तथा श्रेष्ठ ध्यान के लिए उपयुक्त (ऐसे) मोक्ष मार्ग (समता मार्ग) के लक्ष्य को (कोई भी) परमज्ञान से प्राप्त करता है (कर सकता है), इसलिए परम ज्ञान निश्चय ही समझा जाना चाहिए।
5.
जैसे बाण से बींधने योग्य लक्ष्य को (निशाने) रहित रथिक बिल्कुल ही नहीं देखता है वैसे ही ज्ञानरहित (व्यक्ति) (अज्ञान के द्वारा) मोक्ष-मार्ग (समता-मार्ग) के लक्ष्य को (बिल्कुल ही) नहीं देखता है।
6. ज्ञान आत्मा में होता है, विनय से जुड़ा हुआ सत्पुरुष ही (उसको)
प्राप्त करता है। (वह) मोक्ष-मार्ग (समता-मार्ग) के लक्ष्य को देखता
हुआ (उस लक्ष्य को) ज्ञान के द्वारा प्राप्त करता है। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
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