________________
7.
जो लक्ष्मी का संचय करता है किन्तु (उसे) न भोगता है और न ही पात्रों में (दान) देता है, वह स्वयं को ठगता है, उसका मनुष्यत्व (मनुष्य होना) निरर्थक है।
जो बढ़ती हुई लक्ष्मी को सर्वदा धर्म के कामों में देता है उसकी लक्ष्मी सफल होती है। पण्डितों के द्वारा भी उसकी प्रशंसा की जाती है।
9.
इस प्रकार (लक्ष्मी को अनित्य) जानकर जो उसको धर्म से युक्त दुःखी व्यक्तियों के लिए बिना अपेक्षा देता है, निश्चय ही उसका जीवन सफल होता है।
10. धन, यौवन और जीवन को जल के बुलबुले के समान (अस्थिर)
देखते हुए भी (लोग) (उन्हें) नित्य मानते हैं। इस कारण से मोह का प्रभाव बड़ा बलवान है।
11. जिस प्रकार शेर के पंजे में फंसे हुए हिरन को कोई भी नहीं बचा
सकता है, उसी प्रकार मृत्यु के द्वारा पकड़े हुए जीव को भी, कोई भी नहीं बचा सकता है।
12.
अत्यन्त बलशाली, भयानक (और) रक्षा के अनेक उपायों से सदा रक्षा किये जाते हए भी कोई भी (ऐसा) नहीं देखा जाता (जो) मृत्यु से विहीन हो (जिसका मरण न होता हो)।
13.
आयु के क्षय से मरण (होता है), और आयु देने के लिए कोई भी समर्थ नहीं है। इसलिए कोई (व्यक्ति) (तथा) देवेन्द्र (देवों का राजा) भी मरण से नहीं बचा सकता है।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org