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पाठ - 10 विदुषी पुत्रवधू का कथानक
1. किसी नगर में लक्ष्मीदास सेठ भली प्रकार से रहता था। वह बहुत धनसम्पत्ति के कारण अत्यन्त गर्वीला था। भोगविलासों में ही (वह) लगा हुआ (था) (और) कभी भी धर्म नहीं करता था। उसका पुत्र भी ऐसा (ही) था। यौवन में पिता द्वारा धार्मिक धर्मदास की यथानाम शीलवती कन्या के साथ पुत्र का विवाह करवा दिया गया। जब वह कन्या आठ वर्ष की हुई, तब उसके द्वारा पिता की प्रेरणा से (एक) साध्वी के पास सर्वज्ञ के धर्म के श्रवण से सम्यक्त्व और अणुव्रत ग्रहण किए गए। सर्वज्ञ के धर्म में (वह) बहुत निपुण हुई।
2. जब वह ससुर के घर में आ गई, तब ससुर आदि को धर्म से विमुख देखकर, उसके द्वारा बहुत दुःख प्राप्त किया गया। मेरे निजव्रत का निर्वाह कैसे होगा? अथवा देवगुरु से विमुख ससुर आदि के लिए धर्म का उपदेश कैसे (सम्भव) होगा? इस प्रकार वह विचार करती है।
3. संसार असार (है), लक्ष्मी भी असार (है), देह भी विनाशशील (है), एक धर्म ही परलोक जानेवाले जीवों के लिए आधार (है), इस प्रकार एक बार उपदेश देने से निज पति सर्वज्ञ के धर्म से संस्कारित किया गया। कुछ समय पश्चात् (वह) इस प्रकार सास को भी समझाती है। ससुर को समझाने के लिए वह समय खोजने लगी।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
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