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________________ ཝཿ་ སྠཱ ལྒ पंच छ दिणाई एए चिट्ठतु पच्छा गच्छेज्जा' ते עב जामायरा खज्जरसलुद्धा तओ गच्छिउं न इच्छेज्जा परुप्परं ते चिंतेइरे ससुर-गिहनिवासो सग्गतुल्लो नराणं किल एसा सुत्ती सच्चा एवं चिंतिऊणं 1. 2. प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ अव्यय अव्यय (पंच) 1/2 वि (छ) 1/2 वि (faur) 1/2 (एअ) 1/2 सवि (चिट्ठा) विधि 3 / 2 अक Jain Education International अव्यय ( गच्छ ) विधि 3 / 2 सक (त) 1/2 सवि (जामायर) 1/2 [(खज्ज) - (रस) - (लुद्ध) 1 / 2 वि] अव्यय (गच्छ) हेकृ अव्यय (इच्छ) भू 3 / 2 सक (परुप्पर) 2 / 1 क्रिवि (त) 1/2 स ( चिंत) व 3 / 2 सक [(ससुर)-(गिह)-(निवास) 1 / 1] [(सग्ग) - (तुल्ल) 1/1 वि] (नर) 4/2 अव्यय ( एता ) 1 / 1 सवि (सुत्ती ) 1 / 1 ( सच्चा) 1/1 अव्यय (चिंत) संकृ इसलिए अभी पाँच For Private & Personal Use Only छः दिन ये ठहरे पीछे चले जायेंगे वे दामाद to भोजन-रस-लोभी बाद में जाने के लिए नहीं इच्छा की आपस में वे विचार करते हैं ससुर के घर में रहना स्वर्ग के समान मनुष्यों के लिए निश्चय ही प्राकृत में 'ज्जा' प्रत्यय किसी भी काल के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। नोट, देखें पृष्ठ संख्या 281 यह सूक्ति सच्ची इस प्रकार विचार करके 319 www.jainelibrary.org
SR No.002691
Book TitlePrakrit Gadya Padya Saurabh Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2009
Total Pages384
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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