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अलियवाई
28.
तो
भणइ
पउमनाहो
ताय
तुमं
रक्ख
अत्तणो
वयणं
न य
भोगकारणं
मे
तुज्झ
अकित्ती
लोगम्मि
29.
जाएण
सुण
पहू
चिन्तेयव्वं
हियं
निययकालं
जेण
पिया
न य
सोगं
गच्छइ
1.
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
( अलियवाइ) 1 / 1 वि
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अव्यय
(भण) व 3 / 1 सक
( पउमनाह ) 1 / 1
( ताय ) 8 / 1
( तुम्ह) 1 / 1 स
( रक्ख) व 2 / 1 सक
( अत्त) 6 / 1
( वयण) 2 / 1
अव्यय
[ ( भोग) - (कारण) 1 / 1]
( अम्ह) 4 / 1 स
( तुम्ह ) 6 / 1 स
[(अ) - (कित्ति) 'अ' स्वार्थिक 1 / 1 ]
(लोग) 7/1
(जाअ ) 3 / 1 वि
(सुअ) 3/1
(पहु) 8/1
( चिंत) विधि 1 / 1
(हिया) 12/1
[ ( नियय) - (काल) 2 / 1 क्रिविअ ]
अव्यय
(पिउ) 1/1
मिथ्याभाषी
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इस पर
कहता है (कहते हैं)
राम
हे तात!
तुम (आप)
रखो (रखें)
स्वयं का
वचन
कभी भी नहीं
सुख का कारण
मेरे लिए
तुम्हारी ( आपकी )
अकीर्ति
लोक में
हृदय में
सदैव
जिससे
पिता
अव्यय
जिससे
( सोग ) 2 / 1
शोक
( गच्छ ) व 3 / 1 सक
प्राप्त करते हैं ( प्राप्त करें)
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137)
प्रिय
पुत्र
हे प्रभु!
सोचा जाना चाहिए
के द्वारा
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