________________
कम्माई
कत्थइ
धणिओ
बलवं'
धारणिओ
कत्थई '
बलवं'
5.
भावे'
विरत्तो
मणुओ
विसोगो
एएण
दुक्खोहपरंपरेण
न
लिप्पई '
भवमज्झे
वि
संतो
जलेण
वा
पोक्खरिणीपलासं
1.
2.
3.
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
(कम्म) 1/2
अव्यय
Jain Education International
( धणिओ) 1 / 1 वि
( बलवं) 1 / 1 वि अनि
( धारणिअ) 1 / 1 वि
अव्यय
( बलवं) 1 / 1 वि अनि
(भाव) 7/1
(वित्त ) 1 / 1 वि
( मणुअ ) 1/1
( विसोग ) 1 / 1 वि
(अ) 3 / 1 सवि
[(दुक्ख ) + (ओह) + (परंपरेण ) ] [(दुक्ख) - (ओह) - (परंपर) 3 / 1 ]
अव्यय
(लिप्पइ) व कर्म 3 / 1 सक अनि
[ ( भव) - (मज्झ ) 7 / 1]
अव्यय
(संत) 1 / 1 वि
(जल) 3 / 1
अव्यय
[ ( पोक्खरिणी) - (पलास ) 1 / 1 ]
कर्म
कहीं
धनिक ( साहूकार )
बलवान
कर्जदार
कहीं
बलवान
For Private & Personal Use Only
वस्तु-जगत से
विरक्त
मनुष्य
दुःख
इस (से)
की अविच्छिन्न
बलवत्→बलवान्→बलवं । (अभिनव प्राकृति व्याकरण, पृष्ठ 427 ) (पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 572)
छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'इ' को 'ई' किया गया है।
पंचमी विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-136)
दुःख- समूह
धारा से
नहीं
लीपा जाता है (मलिन किया जाता है)
संसार के मध्य में
भी
विद्यमान
जल से
जैसे कि
कमलिनी का पत्ता
135
www.jainelibrary.org