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संतं न देंति वारेंति देंतयं दिन्नयं पि हारंति । अणिमित्तवइरियाणं खलाण मग्गो च्चिय अउव्वो ।
जेहिं चिय उब्भविया जाण पसाएण निग्गयपयावा । समरा डहंति विंझं खलाण मग्गो च्चिय अउव्वो ।
सरसा विदुमा दावाणलेण डज्झति सुक्खसंवलिया । दुज्जणसंगे पत्ते सुयणो वि सुहं न पावेइ ॥
धन्ना बहिरंधलिया दो च्चिय जीवंति माणुसे लोए । न सुणंति पिसुणवयणं खलस्स रिद्धी न पेच्छति ।।
एक्कं चिय सलहिज्जइ दिणेसदियहाण नवरि निव्वहणं । आजम्म एक्कमेक्केहि जेहि विरहो च्चिय न दिट्ठो ॥
पडिवन्नं दिणयरवासराण दोन्हं अखंडियं सुहइ | सूरो न दिणेण विणा दिणो वि न हु सूरविरहम्मि ॥
तं मित्तं कायव्वं जं किर वसणम्मि देसकालम्मि । आलिहियभित्तिबाउल्लयं व न परंमुहं ठाइ ॥
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प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
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