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________________ 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. मेरे ( अधिकार में ) हाथी, घोड़े (और) मनुष्य ( हैं ), मेरे ( राज्य में ) नगर और राजभवन (हैं) । (मैं) मनुष्य - सम्बन्धी भोगों को (सुखपूर्वक) भोगता हूँ, आज्ञा और प्रभुता मेरी ( ही चलती है) । वैभव के ऐसे आधिक्य में (जहाँ) समस्त अभीष्ट पदार्थ (किसी के) समर्पित (हैं), (वह) अनाथ कैसे होगा ? हे पूज्य ! इसलिए (अपने ) कथन में झूठ मत बोलो) । (साधु ने कहा ) (मैं) समझता हूँ ( कि ) हे राजा ! तुम अनाथ के अर्थ और (उसकी) मूलोत्पत्ति को नहीं ( जानते हो ) | ( अतः ) हे राजा! जैसे अनाथ या सनाथ होता है, (वैसे तुम्हें समझाऊँगा ) । जैसे (कोई व्यक्ति) अनाथ होता है और जैसे मेरे द्वारा ( उसका ) (अनाथ शब्द का ) (अर्थ) संस्थापित ( है ) ( वैसे) हे राजाधिराज ! मेरे द्वारा (किए गए) (प्रतिपादन को ) एकाग्र चित्त से सुनो। प्राचीन नगरों से अन्तर करनेवाली कौशाम्बी नामक ( मनोहारी) नगरी ( थी ) । वहाँ मेरे पिता रहते थे । ( उसके ) (पास) प्रचुर धन का संग्रह (था) । हे राजाधिराज ! ( एक बार ) प्रथम उम्र में अर्थात् तरुणावस्था में मेरी आँखों में असीम पीड़ा ( हुई) (और) हे नरेश ! शरीर के सभी अंगों बहुत जलन ( हुई)। में जैसे क्रोध युक्त दुश्मन अत्यधिक तीखे शस्त्र को शरीर के छिद्रों के अन्दर घुसाता है ( और उससे जो पीड़ा होती है) उसी प्रकार मेरी आँखों में पीड़ा (बनी हुई थी ) । प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only 25 www.jainelibrary.org
SR No.002691
Book TitlePrakrit Gadya Padya Saurabh Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2009
Total Pages384
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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