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________________ अतिप्रिय दामादों के लिए तीन बार दही, घी, गुड से मिश्रित अन्न और पकवान सदैव देती हूँ। पुरोहित ने पत्नी को कहा- तुम्हारे द्वारा दामादों के लिए कठोर की हुई स्थूल (और) घी लगी हुई रोटी दी जानी चाहिए। 3. पति की आज्ञा टाली नहीं जानी चाहिए। इस प्रकार विचारकर वह भोजन के समय उनके लिए स्थूल रोटी घी लगी हुई देती है। उसको देखकर प्रथम मणीराम (नामक) दामाद ने मित्रों को कहा- अब यहाँ रहना ठीक नहीं है। निज घर में इसकी अपेक्षा स्वादिष्ट भोजन है, इसलिए यहाँ से गमन ही उत्तम (है)। ससुर को प्रभात में कहकर मैं जाऊँगा। उन्होंने (मित्रों ने) कहा- हे मित्र! बिना मूल्य भोजन कहाँ है (इसलिए) यह कठोर की हुई रोटी स्वाद वाली गिनकर खाई जानी चाहिए। क्योंकि लोक में दूसरे की रोटी दुर्लभ है। यह कहावत तुम्हारे द्वारा क्या नहीं सुनी गई? तुम्हारी इच्छा है तो जाओ, हमारे लिए तो ससुर कहेंगे तो (हम) जायेंगे। इस प्रकार मित्रों के वचन को सुनकर प्रभात में ससुर के आगे जाकर सीख और आज्ञा माँगी। ससुर भी उसको शिक्षा देकर 'फिर भी आना' इस प्रकार कहकर कुछ पीछे जाकर आज्ञा दी। इस प्रकार प्रथम दामाद मणीराम, कठोर की हुई रोटी से निकाल दिया गया। 4. फिर पत्नी को कहता है- अब आज से दामादों के लिए तिल के तेल से युक्त रोटी दी जानी चाहिए। वह भोजन के समय दामादों के लिए तिल के तेल से युक्त रोटी देती है। उसको देखकर माधव नाम दामाद विचार करता है। घर में भी यह प्राप्त किया जाता है, इसलिए यहाँ से गमन सुखकारी है, मित्रों को भी कहता है- मैं कल जाऊँगा, क्योंकि भोजन में तेल दिया गया (है)। तब उन मित्रों ने कहा- हमारी सासु विदुषी है, क्योंकि शीतल तिलों का तेल ही उदर की अग्नि का उद्दीपक होने के कारण सुन्दर है, घी नहीं, इसलिए तेल देती है। हम सब ही यहाँ ठहरेंगे। तब माधव नामक दामाद ससुर के पास जाकर सीख व अनुज्ञा माँगता है। तब ससुर ने जाओ, जाओ (कहा), इस प्रकार आज्ञा दी, सीख नहीं दी। इस प्रकार तिल के तेल के कारण माधव नामक दूसरा दामाद गया। तीसरे चौथे दामाद नहीं गए। किस प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ 111 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002691
Book TitlePrakrit Gadya Padya Saurabh Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2009
Total Pages384
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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