________________
विजुत्
णाणेण
लहदि
लक्ख
लक्खंतो
मोक्खमग्गस्स
7.
महं
जस्स
थिरं
सुदगुण
बाणा
अथ
रयणत्तं
परमत्थबद्धलक्खो
णवि
चुद
मोक्खमग्गस्स'
8.
धम्मो
दयावसुद्धो
पव्वज्जा
सव्वसंगपरिचत्ता
देवो
ववगयमोहो
उदययरो
1.
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
[विणय ) - ( संजुत्त) 1 / 1 वि]
( णाण) 3 / 1
Jain Education International
(लह) व 3 / 1 सक
( लक्ख) 2/1
( लक्ख) वकृ 1 / 1
[ ( मोक्ख ) - ( मग्ग) 6 / 1]
[ ( मइ ) - ( धणुह ) 1 / 1]
(ज) 4 / 1 स
(थिर) 1 / 1 वि
[ ( सुद) - (गुण) मूलशब्द 1 / 1] (बाण) 1 / 2
अव्यय
( रयणत) 1 / 1
[ ( परमत्थ) - (बद्ध) भूकृ अनि
( लक्ख) 1 / 1]
अव्यय
(चुक्क) व 3 / 1 अक
[ ( मोक्ख ) - ( मग्ग) 6/1]
( धम्म) 1 / 1
[(दया) - (विसुद्ध ) 1 / 1 वि]
( पव्वज्जा ) 1 / 1
[(सव्व) वि - (संग) - (परिचत्ता) भूकृ 1 / 1 अनि]
(देव) 1 / 1
[ ( ववगय) भूक अनि - ( मोह) 1 / 1 ] (उदययर) 1 / 1 वि
विनय से जुड़ा हुआ
ज्ञान के द्वारा
For Private & Personal Use Only
प्राप्त करता है
लक्ष्य को देखता हुआ
मोक्ष - मार्ग के
मति, धनुष
जिसके लिए
स्थिर
श्रुत (ज्ञान) डोरी
बाण
श्रेष्ठ
तीन रत्नों का समूह
परमार्थ का, दृढ़, लक्ष्य
कभी नहीं
विचलित होता है
मोक्ष मार्ग से
धर्म
दया से
संन्यास
समस्त आसक्ति से रहित
शुद्ध
कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
किया हुआ
देव
नष्ट की गई, मूर्च्छा
उत्थान करनेवाला
201
www.jainelibrary.org