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अनन्तज्ञानी
अणंतणाणी अणुवमसोक्खा जयंतु
(अणंतणाणि) 1/2 वि [(अणुवम) वि-(सोक्ख) 1/2 वि] (जय) विधि 3/2 अक (जअ) 7/1
अनुपम सुख जयवन्त हों जगत में
जए
अट्ठविहकम्मवियला
आठ प्रकार के कर्मों से रहित
णिट्ठियकज्जा पणट्ठसंसारा दिट्ठसयलत्थसारा
[(अट्ठविह) वि-(कम्म)-(वियल) 1/2 वि] [(णिट्ठिय) भूकृ अनि-(कज्ज) 1/2] [(पणट्ठ) भूकृ अनि-(संसार) 1/2] [(दिट्ठ)+ (सयल)+(अत्थ) + (सारा)] [(दिट्ठ) भूकृ अनि-(सयल) वि (अत्थ)-(सार) 1/2] (सिद्ध) 1/2 (सिद्धि) 2/1 (अम्ह) 4/1 स (दिस) विधि 3/2 सक
प्रयोजन पूर्ण किए हुए संसार नष्ट किया हुआ समग्र तत्त्वों के सार जाने गये
सिद्धा सिद्धिं
सिद्ध निर्वाण (मार्ग) को मेरे लिए दिखलावें
मम
दिसंतु
पंचमहव्वयतुंगा [(पंच) वि-(महव्वय)-(तुंग) 1/2 वि] पाँच महाव्रतों से उन्नत तक्कालिय-सपरसमयसुदधारा [(त) सवि-(क्कालिय) वि-(स) वि- समकालीन स्व-पर (पर) वि-(समय)-(सुद)-(धार) 1/2 वि] सिद्धान्त के श्रुत को धारण
करनेवाले णाणागुणगणभरिया [(णाणा') वि-(गुण)-(गण)-(भर) अनेक प्रकार के गुण-समूह भूकृ 1/2]
से पूर्ण आइरिया (आइरिय) 1/2
आचार्य (अम्ह) 4/1 स
मेरे लिए पसीदंतु (पसीद) विधि 3/2 अक
मंगलप्रद हों 10. अण्णाणघोरतिमिरे [(अण्णाण) वि-(घोर) वि-(तिमिर) 7/1] अज्ञानरूपी घने अन्धकार में 1. वरम् (अ)-वर= यह उस वाक्य खण्ड के साथ प्रयुक्त होता है जिसमें अपेक्षित वस्तु विद्यमान
है। (संस्कृत हिन्दी कोश) समास के आरम्भ में विशेषण के रूप में प्रयोग होता है। (संस्कृत-हिन्दी कोश)
मम
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प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
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