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अज्जव - धम्मो
हवे'
तस्स
31.
सम-संतोस - जलेणं
जो
धोवदि
तिव्व-लोह-मल- - पुंज
भोयण गिद्धि-विहीणो
तस्स
सउच्चं
हवे'
विमलं
32.
जो
धम्मिएसु
भत्तो
अणुचरणं
कुदि
परम-सद्धाए
पिय-वयणं
जंपतो
वच्छल्लं
तस्स
भव्वस्स
[ ( अज्जव ) - ( धम्म) 1 / 1]
( हव) व 3 / 1 अक
(त) 6 / 1 स
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[(सम) वि-(संतोस) -
(जल) 3 / 1 ]
(ज) 1 / 1 स
(धोव) व 3 / 1 सक
[ ( तिव्व) - (लोह) - (मल) -
(पुंज) 2 / 1 ]
[(भोयण) - (गिद्धि)( विहीण ) 1 / 1 वि]
(त) 6 / 1 स
(सउच्च) 1 / 1
( हव) व 3 / 1 अक
(विमल ) 1 / 1 वि
(कुण) व 3 / 1 सक
[ ( परम ) - (सद्धा) 3 / 1 क्रिविअ ]
[ ( पिय) - ( वयण) 2 / 1]
( जंप ) वकृ 1 / 1
(वच्छल्ल) 1/1
(त) 6 / 1 स
(भव्व) 6 / 1
1. पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 676
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
(ज) 1 / 1 स
(धम्मिअ) 7/2
( भत्त) 1 / 1
[ (अणु) - (चरण) ] अणु अ = अनुकूल
चरणं (चरण) 2/1
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आर्जव धर्म
होता है
उसके
समभाव और सन्तोषरूपी
जल से
जो
धोता है
प्रचण्ड लोभरूपी मल के
समूह
को
भोजन की आसक्ति
से विहीन
उसके
शौचधर्म
होता है
निर्मल
जो
धार्मिकजनों में
भक्त
अनुकूल,
आचरण
करता है
परम श्रद्धा से
प्रिय वचन
बोलता हुआ
वात्सल्य
उसके
भव्य (जीव ) के
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