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सिवगमणसुहावहं
[(सिव)-(गमण)(सुहावह) 1/1 वि]
मोक्ष में जाने के लिए सुखजनक धर्म
धम्म
(धम्म) 1/1
अव्यय
अज्ज मुणिसयासे धम्म सुणिऊण जायसंवेगो संसारभवसमुदं
अव्यय [(मुणि)-(सयास) 7/1] (धम्म) 2/1 (सुण) संकृ [(जाय) भूकृ-(संवेग) 1/1] [(संसार)-(भव)-(समुद्द) 2/1] (इच्छा ) व 1/1 सक (अम्ह) 1/1 स (समुत्तर) हेकृ
इसलिए आज मुनियों के पास धर्म को सुनकर वैराग्य उत्पन्न हुआ है संसार में जन्मरूपी समुद्र को इच्छा करता हूँ
इच्छामि
अहं समुत्तरिउं
पार करने की (के लिए)
अहिसिञ्चह
पढमं
चिय
रज्जपालणसमत्थं
(अहिसिञ्च) विधि 2/2 सक
अभिषेक करो (अम्ह) 6/1 स (पुत्त) 2/1
पुत्र को (का) (पढम) 2/1 वि
प्रथम अव्यय [(रज्ज)-(पालण)-(समत्थ) 2/1] राज्य का पालन करने
में समर्थ (पव्वज्जा) व 1/1 सक
संन्यास ग्रहण करता हूँ [(अ) निषेधवाचक अव्यय-(विग्घ) 1/1] निर्विघ्न (जेण) + (अहं) जेण (अव्यय) अहं (अम्ह) 1/1 स मैं अव्यय
आज (वीसत्थ) 1/1 वि
विश्वस्त
पव्वज्जामि अविग्छ जेणाहं.
जिससे,
अज्ज
वीसत्थो
9.
सुणिऊण
(सुण) संकृ
सुनकर
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ
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